पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२०

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द्वादशोऽध्यायः ४०१ पैशाचेन पिशाचांश्च राक्षसेन च राक्षसांन् । गान्धर्वेण च गन्धर्वान्कौबेरेण कुबेरजान् ॥४० इन्द्रमैन्द्रेण स्थानेन सौम्यं सौम्येन चैव हि । प्रजापतिं तथा चैव प्राजापत्येन साधयेत् ॥।४१ ब्राह्म' ब्राह्मो न(ण)चाप्येवमुपामन्त्रयते प्रभुम् । तत्र सक्तस्तु उन्मत्तस्तस्मात्सर्वं प्रवर्तते ४२ नित्यं ब्रह्मपरो युक्तः स्थानान्येतानि वै त्यजेत् । असज्जमानः स्थानेषु द्विजः सर्वगतो भवेत् ॥४३ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते योगोपसर्गेनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ।।१२।। देवस्थानों से हो जाये यानी देवस्थानों में घारणा नहीं करें ।३६तब वे अपने पिशाचगुण से पिशाचादि को, राक्षस गुण से राक्षसों को. गान्धर्व गुण से गन्धर्वो को, कौवेर गुण से कुवेर को, ऐन्द्र गुण से इन्द्र को, सौम्य गुण से सोम को, प्राजापत्य से प्रजापति को साधे ।४०-४१॥ ब्राह्म गुण से ब्रह्म की साधना भी योगी फरे । वे ही प्रभु सब कार्यों के प्रवर्तक हैं। उनमें आसक्त होने से योगी उन्मत्त अर्थात् सिद्ध हो जाता है । उन्ही से सब का प्रवर्तन होता है। इसलिये इन गुण स्थानों का त्यागकर योगी नित्य ब्रह्म में रत हो जाय । इन स्थानों में अनासक्त योगी सर्वश्रगामी हो जाता है ।४२-४३॥ श्रीवायुमहापुराण का योगोपसर्ग निरूपण नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त १२॥