पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

११३० वायुपुराणम् एकार्णवे वटस्याग्रे यः शेते योगनिद्रया | बालरूपधरस्तस्मै नमस्ते योगशायिने संसारवृक्षशस्त्रायाशेषपापहराय च । अक्षयन्ब्रह्मदात्रे च नमोऽक्षयवटाय वै कलौ माहेश्वरा लोका येन तस्माद्गदाधरः । लिङ्गरूपोऽभवत्तं च वन्दे श्रीप्रपितामहम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नामकादशाधिकशततमोऽध्यायः ।।१११।। थद्वादशाधिकशततमोऽध्यायः गयामाहात्म्यम् सनत्कुमार उवाच यज्ञं चक्रे गयो राजा बह्वन्नं बहुदक्षिणम् । यत्र द्रव्यसमूहानां संख्या कर्तुं न शक्यते + ॥ ८३ ॥८४ ॥८५ परिणत हो जाने पर जो बालरूप घारी भगवान् वटवृक्ष के पत्ते पर योग निद्रा धारण कर शयन करते हैं, उन योग शाथी को हमारा नमस्कार है | संसार रूपी वृक्ष के लिए शस्त्र स्वरूप, निखिल पापों के हरने वाले, अक्षय ब्रह्म पद प्रदान करने वाले अक्षयवट को हमारा नमस्कार है । कलियुग में लोग शिव के शिव के भक्त हैं, उन्हीं के लिए गदाधर देव सर्वत्र लिङ्ग रूप धारण कर विराजमान हैं, उन परम पितामह को हमारा नमस्कार है |८३-८४ श्री वायुमहापुराण में गयामाहात्म्य नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त ॥१११॥ अध्याय १९२ गया माहात्म्य सनत्कुमार बोले – नारदजी ! राजा गय ने अपने राजत्व काल में प्रचुर अन्नों एवं दक्षिणाओं वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उनमें व्यय किये गये द्रव्यों को संख्या बतलाना कठिन है |१| + संख्या कर्तुं न शक्यत इत्यस्मात्परतः ख. पुस्तकेऽधिको ग्रन्थोऽस्ति स यथा-