पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४

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एकादशोऽध्यायः ६५ उरोधात उरःस्थानं कण्ठदेशे च धारयेत् । त्वचोऽवघाते तां वाचि बाधिर्यं श्रोत्रयोस्तथा ।४६ ॥ जिह्वास्थाने तृषार्तस्तु अग्नेः स्नेहांश्च तन्तुभिः । फलं वैचिन्तयेद्योगी ततः संपद्यते सुख ॥४७ क्षये कुष्ठे सकीलासे धारयेत्सर्वसात्त्विकीम् । यस्मिन्यस्मिन्त्रजोदेशे तस्मिन्युक्तो विनिदशेत् ॥४८ योगोत्पन्नस्य विप्र(धन)स्य इदं कुर्याच्चिकित्सितम् । वंशकीलेन मूर्धानं धारयान(ण)स्य ताडयेत् ॥४६ मूर्धिन कीलं काष्ठं ताडयेत् । भयभीतस्य सा संज्ञा ततः प्रत्यागमिष्यति ॥५० प्रतिष्ठाप्य काष्ठेन अथ वा लुप्तसंज्ञस्य हस्ताभ्यां तत्र धारयेत् । प्रतिलभ्य ततः संज्ञा धारणां मूध्नि धारयेत् ॥५१ स्निग्धमल्पं च भुञ्जीत ततः संपद्यते सुखी। अमानुषेण सत्वेन यदा बुध्यंति योगवित् ५२ दिव्यं च पृथिवीं चैव वायुमग्नि च धारयेत् । प्राणायामेन तत्सर्वं दह्यमानं वशी भवेत् ॥५३ अथापि प्रविशेद्देहं ततस्तं प्रतिषेधयेत् । ततः संस्तभ्य योगेन धारयान(ण)स्य मूर्धनि । ५४ प्राणायामाग्निना दग्धं तत्सर्वं विलयं व्रजेत् । कृष्णसपपराधं तु धायरेद्धृदयोदरे ५५ महो जनस्तपः सत्यं हृदि कृत्वा तु धारयेत् । विषस्य तु फलं पीत्वा विशल्यां धारयेत्ततः ॥५६ सर्वतः सनगां पृथ्वीं कृत्वा मनसि धारयेत् । हृदि कृत्वा समुद्रांश्च तथा सर्वाश्च देवताः ५७ होने से उरःस्थान या कण्ठ देश में भी वैसी ही धारणा करे । वाग्रोध होने से वचन में और बधिरत्व होने से कानों में धारण की जाती है ।४६। तृषार्त होने से जिह्वा स्थान में स्नेहाक्त प्रज्वलित अग्नि की धारणा करे । इन 'चिकित्साओं का जो फल हो, उसकी प्रतीक्षा करे । फिर तो वह सुखी हो जायगा ।४७। क्षय, कुष्ठ और कोला सादि राजस रोग में सात्विकी वृत्ति की धारणा करे । जिसजिस देश में जो विकार उत्पन्न हो, वहाँ-वहाँ सात्विकी धारणा करे ।४८। जिस ब्राह्मण को इस प्रकार योग जनित दोष उत्पन्न हो उसको इसी प्रकार की चिकित्सा करनी चाहिये । जो भयभीत हो जाय बाँस की कील से उसके सिर पर ताड़ना करे अथवा भयभीत योगी के सिर पर लकड़ी की कील रखकर लकड़ी से खटखटावे । इससे उसकी संज्ञा लौट जाती है । जिसकी संज्ञा लुप्त हो गयी हो उसे सिर पर दोनों हाथों से धारण करावे, इससे उसकी संज्ञा फिर जाती है --उसको पुन: मूढ़ में धारणा करनी चाहिये ।४६-५१। रोगी को स्निग्ध और थोड़ा भोजन करावे इससे वह सुखपाता है । योगी जब अमानुष तत्त्वों का अनुभव करने में समर्थ हो जाय, तव आकाश, वायु, अग्नि और पृथ्वी की धारणा करे। वैसी दशा में प्राणायाम के द्वारा सब तत्त्व दग्ध होकर वशीभूत हो जाते है ।५२-५३। फिर भी अगर कोई दोष शरीर में प्रवेश कर जाय, तो उसका निराकरण यह है कि, मस्तक में संस्तम्भन करके घारणा करे और प्राणायाम रूप अग्नि में सब को जला डाले । ऐसा करने से सभी दोष नष्ट होते हैं । अगर नाग ने डैस लिया हो, तो हृदय और उदर मे धारणा करे ॥५४-५५। महः जन, तप, सत्य लोक को भी हृदय में घारणा करे । अगर विष पी लिया गया हो, तो हृदय में विशल्या धारण करे ५६। मन में पर्वतमय पृथ्वी की धारणा कर हृदय में देवता और समुद्र की धारणा करे ५७योगी हजार घड़े जल से भी