पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१११३

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१०६२ वायुपुराणम् गयासुरस्य शिरसि गुरुत्वाद्धारिता यतः । अतः पवित्रयोर्योगः पितॄणां मोक्षदायकः पवित्रयोर्द्वयोर्योोंगे हयमेधमजोऽकरोत् । भागार्थमागतन्दृष्ट्वा विष्ण्वादीनद्रवीच्छिला शिलास्थितिप्रतिज्ञां तु कुर्वन्तु पितृमुक्तये । तथेत्युक्त्वा शिलायां ते देवा विष्ण्वादयः स्थिताः शिलारूपेण मूर्त्या च पदरूपेण देवताः । मूर्तामूर्तस्वरूपेण स्थिताः पूर्वप्रतिज्ञया दैत्यस्य मुण्डपृष्ठे तु यस्मात्ता संस्थिता शिला | तस्मात्स सुण्डपृष्ठाद्रिः पितॄणां ब्रह्मलोकदः आच्छादितः शिलापावः प्रभासेनाद्रिणा यतः । भासितो भास्करेणेति प्रभासः परिकीतिः प्रभासं हि विनिभिद्य शिलाङ्गुष्ठो विनिर्गतः । ( * अङ्गुष्ठोत्थित ईशोऽपि प्रभासेशः प्रकीर्तितः ॥१४ शिलाङ्गुष्ठैकदेशो यः सा च शेतशिला स्मृता) | पिण्डदानाद्यतस्तस्यां प्रेतत्वान्मुच्यते नरः महानदीप्रभासाद्योः संगमे स्नानकृन्नरः । रामो देव्या सह स्नातो रामतीर्थं ततः स्मृतम् प्राथितोऽत्र महानद्या राम स्नातो भवेति च । रामतीर्थं ततो भूत्वा त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥१५ ॥१६ ॥१७ 115 ॥ह ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ के कारण यह गयासुर के शिर पर स्थापित की गई थी। इन दोनों परम पवित्र आत्माओं के संयोग पिसरों को मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, उन दोनों परम पुनीत मात्माओं के संयोग स्थली पर अजन्मा ब्रह्मा ने अश्वमेष यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यज्ञ में अपने भागों को प्राप्त करने के लिए समागत विष्णु प्रभृति प्रमुख देवगणों से शिला ने पुनः कहा I४ - १ | कि देववृन्द ! इस शिला पर स्थित रहने की प्रतिज्ञा, पितरों को मुक्ति के लिये आप लोग करें, विष्णु प्रभृति देवताओं ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन किया और यहाँ बरावर बने रहे | पूर्व प्रतिज्ञा वश देवगण शिलारूप में, मूर्तिरूप में, पाद रूप में, अपने साक्षात् स्वरूप में तथा प्रच्छन्न रूप में उस शिला पर स्थित रहे । दैत्यों के मुण्ड के पृष्ठ भाग पर यतः वह पवित्र शिला स्थित है, अतः वह स्थान मुण्ड पृष्ठाद्रि के नाम से विख्यात है, वह पितरों को ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला | शिला का चरणप्रान्त प्रभास नामक गिरि से अच्छादित है सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होने के कारण वह गिरि प्रभास नाम विख्यात है, उस प्रभास गिरि का भेदन करके शिला का अगुष्ठ भाग बाहर निकला हुआ है उक्त उठे हुए शिलाङ्गुष्ठ के ईश प्रभासेश नाम से पुकारे जाते हैं । शिलाङ्गुष्ठ का एक छोर जो है, वही प्रेतशिला के नाम से प्रसिद्ध है । उस प्रेतशिला पर पिण्डादि दान से करने से मनुष्यों के पितरगण प्रेत योनि से छुटकारा पा जाते हैं |१०-१५१ महानदी और प्रभास गिरि के संगम स्थल मे मनुष्य को स्नान करना चाहिये । उक्त पवित्र स्थल पर रामचन्द्रजी ने अपनी पत्नी जानकी के साथ स्नान किया था, तभी से यह रामतीर्थ के नाम प्रसिद्ध है । इस पवित्र स्थल पर रामचन्द्र जी से महानदी ने स्वयं प्रार्थना की थी कि श्रीरामजी ! आप यहां स्नान

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति |