पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०४३

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१०२२ वायुपुराणम् असिमावेश्य चाङ्गेषु पाण्डुरास्वरधारिणी| उरश्छेदेन महता मौक्तिकेन विराजिता ॥ चतुर्भुजा महाभागा विजया लोकसंमता ।। २७४ देव्या आद्यप्रतीहारी ओरिवाप्रतिमा परा । विभ्राजन्ती स्थिता चैव कृत्वा देवस्य चाञ्जलिम् ॥ २७५ तस्याः पृष्ठानुगाश्चान्याः स्त्रियोऽप्स रोगणान्विताः । ताः खल्वभिनवैः कान्तैरुपतिष्ठन्ति शंकरम् ॥ २७६ सर्वलक्षणसंपन्ना वादित्रैरुपवृ हिताः । उपगायन्ति देवेशं गणा गन्धर्वयोनयः ।।२७७ ॥५७८ ॥२७६ ॥२८० ।२८१ ॥२८२ ॥२८३ अभ्युन्नतो महोरस्कः शरन्मेघसमद्युतिः | शोभते नन्दनानश्च गोपतिस्तस्य वेश्मनि स्कन्दश्च सपरीवारः पुत्रोऽस्यामितवीर्यवान् | रक्ताम्बरधरः श्रीमान्दराम्बुजवलेक्षणः तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेयश्च चाष्टवान् । व्यपेतव्यसनाः क्रूराः नां पालने रताः तैः सार्धं स महावीर्यः शोभते शिखिवाहनः । व्यालक्रीडनकैस्तत्र क्क्रीडते विश्वतोमुखः ये नृपा विबुधेन्द्राणां काश्चनस्य प्रदायिनः । ये च स्वायतना विशा गुहस्था ब्रह्मवादिनः गूढस्वाध्यायतपसस्तथा चैवोञ्छवृत्तयः । एते सभासदस्तस्य देवेशस्य च संमताः किये चार भुजाओं से सुशोभित लोक सम्माननीय महाभाग्यशालिनी देवी विजया भी वहाँ स्थित हैं । २७१- २७४। वह देवी की सर्वप्रथम प्रतिहारिणी है, रूप में दूसरी लक्ष्मी के समान अनुपम है । भगवान् शंकर को ओर अंजलि बांधे हुए वहाँ पर उसकी परम शोभा होती है। उसके पीछे अन्य अनुगामी स्त्रियाँ रहती है, उनके साथ अप्सराओं के झुण्ड रहते है । वे सब भी अपने अभिनव कान्तों के साथ शंकर की उपासना में तल्लीन रहती हैं। सर्वलक्षण सम्पन्न, विविध प्रकार के वाद्यों से समन्वित गन्धर्वो को टोलियाँ देवेश के समक्ष गायन, वादन करती है। उनके उस सुन्दर प्रासाद में अति विशाल वक्षःस्थल शरत्कालीन मेघ के समान गोपति नन्दीश्वर) आनन्द का अनुभव करता हुआ सुशोभित है। रक्त वर्ण के वस्त्र को धारण किये हुए, परम शोभा सम्पन्न, कमल दल के समान सुन्दर नेत्रवाले उनके अमित पराकमशाली पुत्र स्कन्द भी वहाँ सपरिवार सुशोभित हैं। शाख, विशाख और नैगमेय प्रभृति अनुचर गण भी उनके साथ विराजमान है, जो प्रकृति से परम क्रूर किन्तु प्रजा पालन में दत्तचित्त एवं व्यसनों से विहीन है, उन अनुचरों के साथ महान् पराक्रमी, शिखि वाहन, विश्वतो मुख स्कन्द व्यालकीड़ा का अनुभव करते हैं | २७५-२८१। जो राजा लोग विद्वान् पण्डितेन्द्रों को सुवर्ण की दक्षिणा देते हैं, जो विप्र अपने गृह पर निवास करते हुये भी ब्रह्म-चिन्तन मे निरत रहते है, जो उंछ वृत्ति से जीविका निर्वाह करनेवाले ब्रह्मचारी गण सर्वदा स्वाव्याय एवं तपस्या मे लीन रहते है, वे देवाधिदेव शंकर की इस पुरी मे उनकी सभा के सभ्य होते है। अनेक मन्वन्तर व्यतीत होकर पुनः पुनः प्रारम्भ होते है, किन्तु महादेव की वह सभा पूर्ववत् प्रतिष्ठित है । देवदेव की अन्य