पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०३१

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१०१० वायुपुराणंम् मृषावादी नरो यश्च तथा चक्रोशकोऽशुभः | पतति नरके घोरे मूत्राकीर्णे स पापकृत् मधुग्राहाभिहन्तारी यान्ति वैतरणों नराः | उन्मत्ताश्चित्तभग्नाश्च शौचाचारविवर्जिताः क्रोधना दुःखदाश्चैव कुहकाः कष्टगामिनः । असिपत्रवने छेदी तथा ह्यौरभ्रिकाश्च ये ॥ कर्तनैश्च विकृष्यन्ते मृगव्याधाः सुदारुणैः ! ॥१६८ ॥१६६ ॥१७० ॥१७१ ॥१७२ ॥१७३ आश्रमप्रत्यवसिता अग्निज्वाले पतन्ति वै| भोज्यन्ते श्यामशवलैरघस्तुण्डैश्च वायसैः इज्याव्रतसमालोपात्संदंशे नरके पतेत् । स्कन्दते यदि वा स्वप्ने व्रतिनो ब्रह्मचारिणः पुत्रैरध्यापिता ये च पुत्रैराज्ञापिताच ये | ते सर्वे नरके यान्ति नियतं तु श्वभोजने वर्णाश्रमविरुद्धाभिक्रोधहर्षसमन्विताः । कर्मार्माणि ये तु कुर्वन्ति सर्वे निरयगामिनः (ण) ॥१७४ उपरिष्टात्तितो घोर उष्णात्मा रौरवो महान् । सुदारुणस्तु शीतात्मा तस्याधस्तात्तपः स्मृतः ॥१७५ घोर विड्भुज नामक नरक में गिरते हैं - इसमे सन्देह नहीं । जो मिथ्यावादी मनुष्य होता है तथा जो सर्वथा दूसरे को अभिशाप अथवा गाली गलौज दिया करता है, बमांगलिक कार्यों में निरत रहता है, वह पापात्मा मूत्राकीर्ण नामक नरक में निवास करता है. जो पापात्मा मधुदान करने वाले को मारते है, अर्थात् अपने प्रतिशुभकर्म करनेवाले को भी मार डालते है, वे वैतरणी में जाते है | जो उन्मत्त है, जिनका चित्त विकृत एव मस्तिष्क ठिकाने नहीं रहता, पवित्रता एवं आचार से जो विहीन रहते है, अकारण क्रोध करते है, दूसरों को सदा दु:ख दिया करते है, जादू या इन्द्रजालादि से दूसरे को अपने वश मे रखकर उनके साथ अत्याचार करते हैं, वे पापात्मा असिपत्रवन नामक घोर नरक मे परम दारुण स्वभाववाले हिंस्र जन्तुओ द्वारा काट काट कर इधर उधर खोचे जाते हैं, दूसरों के शिर काटने वाले पापात्माओं की भी यही दशा होती है ।१६७-१७०। ब्रह्मचर्याद आश्रमों की मर्यादा को भ्रष्टकरने वाले पापात्मा अग्निज्वाल नामक घोर नरक पतित होते है, वहां पर लोहमय चोंच वाले श्याम एवं चितकबरे रंग के काग उनका शरीर नोंच-नोंच कर भक्षण करते है. यज्ञादि सत्कर्म, व्रतादि सदाचारों से विहीन होने पर पापात्मा प्राणी संदंश नामक नरक मे मिरता है । जो व्रतो अथवा ब्रह्मचारी स्वप्नावस्था में भी स्खलित हो जाते है, अथवा जो मनुष्य अपने पुत्रों द्वारा भव्ययन करते हैं, अथवा पुत्रो द्वारा अनुशासित होकर जीवन यापन करते हैं, वे सब भी श्वभोजन नामक घोर नरक में निवास करते है | वर्णाश्रम की मर्यादा से विरहित अनायास कोष हर्षादि में आविष्ट होकर जो लोग बिना विचारे अदूसद् कार्य किया करते है, वे भी निरय (नरक) गामी होते है ।१७१-१७४। उपर्युक्त रोरव नरक महान् विस्तृत एवं घोर है, ऊपर से शीतल और भीतर से अति उष्ण है, उसके निम्न प्रदेश मे परम शीतल तप ? तम नामक नरक कहा जाता है, इस