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( ११८) रुद्राष्टाध्यायी [ अष्टमा- ( वित्तिः ) भाविलासः ( भूतम् ) जातपुत्रादिकम् (भृतिः ) ऐश्वर्ये स्वार्जितम् | एतानि ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) सम्पद्यन्ताम् [ यजु० १८११४ ] ॥ १४ ॥ भाषार्थ - इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको अग्रिकी अनुकूलता प्रदान करें, इस यजके फलसे देवतालोग मुझको जलकी अनुकूलता प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको लता प्रदान करें, इस यज्ञके फलले तालोग मुझको फल पकनेतक रहनेवाली औषधि प्रदान धेरै, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको जोतने बोनेसे प्राप्त होनेवाली औषधि प्रदान करे, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको स्वय उत्पन्न होनेवाले नीवार गलेधुकादि प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको विद्यारादि प्रदान करें, इस गजके फलसे देवतालोग मुझको हाथी आदि प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको पूर्वकष प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको होनहार छाभ प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको विद्यमान पुत्रादि प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको ऐश्वर्य प्रदान करे ॥ १४ ॥ मन्त्रः । वसु॑ च मेवसतिश्चमेकर्मचमेशक्तिश्च॒मेर्थश्च मुऽएम॑श्चम इत्याच॑ मे॒गतिश्चमेय॒ज्ञेन॑कल्प्प न्ताम् ।। १५ ।। ॐ वसुचेत्यस्य देवा ऋषयः । विराडाषी बृहती छं० । अग्निर्देवता । वि० पू० ॥ १५ ॥ भाष्यम् (वसु ) धनं गवादिकम् ( वसतिः) वासस्थानं गृहम् ( क ) होत्रादि ( शक्तिः) तदनुष्ठान सामर्थ्यम् ( अर्थः ) अभिलपितः पदार्थ: (एम: ) प्राप्तव्योऽर्थः ( इत्या ) भावे क्यप् व्ययामेष्टमा प्युपायः ( गतिः) इष्टप्राप्तिः एते ( मे ) मम ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) सम्पद्यन्ताम् | [ यजु० १८३१५ ] ॥ १५ ॥ माषार्थ- इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको धन प्रदान करें, इस यज्ञके, फळसे देवता। लोग मुझको वासस्थान (गृह) प्रदान करै, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको अग्नि होत्रादि प्रदान करे, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको उसके अनुष्ठान की सामर्थ्य प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग मुझको छअभिलषित पदार्थ प्रदान करें, इस यज्ञके फळसे देव तालोग मुझको प्रतियोग्य अर्थ प्रदान करें, इस यज्ञके फलसे देवतालोग भुझको इष्ट प्राप्तिका उपाय प्रदान करें, इस बज्ञके फलसे देवतालोग मुझको इष्टकी प्राप्ति प्रदान करें ॥ ॥ १५ ॥ - मन्त्रः । अ॒ग्निश्च॑मु॒ऽइन्द्र॑श्चमे॒सोम॑श्चमुइन्दश्चमेसवि