पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/११३

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भाषाटीकासमेता । अनुष्टु० - चंद्रेब्दपे सुथशिलं येनासा वन्दपे नचेत् || कंबूलमिन्दुना जन्म निशिवर्षं तदोत्तमम् ॥ १४ ॥ चंद्रमाकी वर्षेशप्राप्तिमें जिसके साथ यह मुथशिल करता हो वह वर्षेश होताही है परंच उसके साथ चंद्रमा यदि उत्तमादि भेदसे कंबूल करे और रात्रिका वर्षप्रवेश हो तो यह ग्रह हीनबलीभी हो तौभी वर्ष में उत्तमही फल देता है. पूर्ण बली वह ग्रह हो तो क्याही कहना पडता है अर्थात् अत्यु- तम फल देता है. जो दिनका वर्ष हो तो सामान्य फल जानना ॥ १४ ॥ व० ति० - चीर्य्यान्विते शशिनिवित्तकलत्र त्रमित्रालयादिवि - विधंसुखमाहुरार्याः ॥ स्रग्गंधमौक्तिकदुकूलसुखानि भूतिलाभः कुलोचितपदस्य पैःसखित्वम् ॥ १५ ॥ चंद्रमा जब किसी के साथ इत्थशाली न होकर वर्षेश पूर्वोक्त विधिसे होही जावै तो उत्तम बल होनेमें धन स्त्री पुत्र मित्र गृहादि अनेक प्रकारके सुख देता है ऐसे श्रेष्टजन कहते हैं तथा शृंगारी वस्तु माला चंदन मृगमदादि सुगंधिं मोती वस्त्र आदिकसे सुख देता है. ऐश्वर्य्य, लाभ तथा कुलानुमान अधिकार देताहै और राजाओंसे मैत्री होतीहै ॥ १५ ॥ , (१०५) - व ति० - वर्षाधिपे शशिनि मध्यबले फलानि मध्यान्यमूनि रिपुतासुतमित्रवर्गैः ॥ स्थानांतरे गतिरथो कृशता शरीरे श्लेष्मोद्भवश्च यदि पापकृतेसराफः ॥ १६ ॥ चंद्रमा वर्षेश मध्य बली हो तो उत्तम बलोक्त फल सभी मध्यम होते हैं तथा पुत्र और मित्रवर्गसे शत्रुता होती है एक स्थानसे दूसरे स्थानमें गमन और शरीर में पीडापन होती है. जो पापग्रहके साथ ईसराफ योगभी करता हो तो श्लेष्मविकारसे क्लेश भी देता है ॥ १६ ॥ व॰ ति० - नष्टेब्दपे शशिनिशीतकफादिरोगश्चर्य्यादिभिः स्वज- नविग्रहमप्युशंति ॥ दूरेगतिः सुतकलत्रसुखात्ययश्च स्यान्मृ त्युतुल्यमतिहीनबले शशांके ॥ १७ ॥