पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३

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[ २ ] तालमात्रवदाम्। भावपूर्ण, रससंपृक्त गोताशास्त्र का भावास्वादन करना चाहें तो अथ श्रीमद्भगवद्गीता चक्रवर्तीजी की इस टीक का अवश्य अवलोकन करें। डन को रसि प्रथम।ऽध्यायः कता यह स्पष्ट ही व्यक्त होता है कि-उन्होने टीका का सम्पूर्ण निम्मणि कर कही रखा था, परन्तु उस में से चूहों ने दोष के थे। धृतराष्ट्र उवाच पन्न खा गये। वे पुनः लिख भी सकते थे परन्तु लिखा नह-आ। धमत्र कुरुक्षेत्रे समवता युयुत्सवः । दोष ७४ से ७८ श्लोकों की टीक के बारे में कहते हैं—अतः परं पक्ष मामकः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१॥ श्लोकव्याख्या सवंगीतातात्पर्यनिर्व यंऽन्तिमलोका यत्र वर्तते त पत्रद्वयी विनायकः स्ववाहनेनाखुनापहृतवनित्यतः पुनर्नालिखस स प्रसीदतु तस्मै नमः । इति श्रोमद्भगवद् श्रीलविश्वनाथचक्रवतिठाकुर कृता गीताटीका सारार्थबषिण' समाप्तीभूता सती प्रतये स्तादिति प्रथत् इसके आगे समस्त तात्पर्य षीरूप अन्तिम ‘सारार्थवर्षिण टीका . गीतार्थ-निष्व पांच शोक की व्याख्याजहाँ बखा हुई थी, उन दो पन्नों को बिना गौरांशुकः सकुमुदप्रमोदी स्वाभिख्यया गोस्तमसो निहन्ता। यक है व गणेश जी ने अपने वाहन अबु अर्थात चूहों में हरण श्रीकृष्णचैतन्यसुधानिमेिं मनोऽधितिन चरतिं करोतु ॥१॥ कर लिया भावार्थ-चूहे इसमें , दो पन्न खगये । गणेश जी का प्राचीनवाचः सुविचार्य सोऽहमज्ञोऽपि मतिमृतलेशलिप्सुः। क्या आशय या नहीं कह सकता, इसलिये मैंने पुनः उन पांव श्ल यतेः प्रभारव मते तदत्र सन्तः क्षमध्वी शरणागतस्य ।। को टीका नहीं लिखी। वे गणेशजी प्रसन्न हों उनको नमस्कार ! इह खलु सकतशास्त्राभिमत-सञ्चरणसरोजभजनः स्वयं ऐसा टीका समाप्त किया कहकर उन्होंने अपना सारार्थवयिणी को । भगवान्नराकृति-परब्रह्मश्रीवसुदेवसूनुः साक्षीगोपालपुष्य कलिकत्ता गौडीय मिशन" ने बडा भारी उपकार किया कि उस अवतीर्यपरपरमातक्यै- सलोचन-गोचरीकृत -प्रापछि मिशन ने चक्रवतिजो को "सारार्थयषिणमें "टोका का बगाक्षर भवाब्धिनिमजमनान् जगजनानुद्धस्य स्वसान्दुय्य र्यमाधुर्यस्या- प्रकाशन कर निहन्समाज के प्रत्यक्षीभूत किया । श्रीहृषीकेशो , दनया स्वीयप्रेममहाम्बुधौ निमज्जयामास वि, ए, ने चक्रवर्तीटीका का अनुसरण से एक मम्मनुवद प्रस्त शिष्टरक्षा दुष्टनिग्रह-व्रतनिष्टासहिष्ठप्रतिऽपि भुवो भारदुःखाप कर छपवाया। श्रीमद्भक्तिसिद्धान्तसरस्वती जी महोदय का सम्पाद हारमिषेण दुष्टानामपि स्वदृ षु णमपि महासंसार--प्रसी कत्व में थकुञ्जविहारिविद्याभूषण के प्रकाशकत्व में श्रीपाद वल भूतानामपि मुक्तिदानत क्षणं पेरेस रक्षणमेव कृत्वा स्वान्तद्ध देवविभूषण महोदय का “गीताभूषणभाष्य" बंगाक्षर में सानु नरकात-जनिष्यमाणमनाद्यविद्याबन्धनिबन्धनशोकमहाशा वाद प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तु मुद्रणदि में प्रेस सम्बन्ध त्रुटियाँ कुलानपि जीवानुद्वी शासकृन्मुनिगणुगीयमानयशश्च धी, रह गई होंगे तो उस लिये क्षमा चाहते हैं। ( कृशा दाम ) स्वप्रियसखं तादृश-स्वे बशाद्य : क