तत् त्वं पद हैं। इस कारण पदों की वैयथ्र्यता नहीं है यह कृत
बुद्धि विद्वान जान लें ।॥४३॥
महावाक्यों का विशिष्ट वा संसर्ग अर्थ नहीं है किंतु अखं
डार्थ है यह वेदांताचार्यो को संमत है। इसलिये श्रब अखंडत्व
का निरूपण किया जाता है
वाऽप्यखंडार्थतात्र । प्रसिद्वा ह्यसौ चंद्र मात्र
प्रबोधात प्रकृष्टः प्रकाशः शशीत्यादिवाक्ये ।। ४४॥
यहां पर उभय पदों में सर्वथा अन्य संसर्ग रहित वस्तु
का अर्थ हो सकता है अथवा दोनों पदों से किसी एक ही
अखंड वस्तु का बोध हो सकता है अथवा दोनों पद एक
ही अर्थ के बोधक होंगे ? 'प्रकृष्ट: प्रकाशश्चन्द्रः’ इस वाक्य
में चन्द्र मात्र ही का बोध होने में अखंड अथैता ही
प्रसिद्ध है ॥४४॥
(अत्र पदानां असंसर्गिसत्यार्थता अखंडार्थता स्यात् वा
अनन्यार्थता ) तत्त्वमसि इत्यादि महावाक्यों में तत् त्वं श्रादि
पदों को सवै प्रकार से अन्य संबंध शून्य नित्यवस्तु अर्थकत्व
ही अखंडार्थकत्व है अथवा जाति गुण आदि अघटित वस्तु
अर्थकत्व ही अखंडार्थकत्व है । (हि) क्योंकि (असौ ) उक्त
प्रकार की यह अखंडार्थता (प्रकृष्टः प्रकाश: शशीत्यादि वाक्ये
प्रसिद्धा ) ‘प्रकृष्टः प्रकाशश्चंद्रः’ इत्यादि वाक्यों में प्रसिद्ध है |
क्रः चंद्रः’ इस प्रकार प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा के अनुसार तथा
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स्वाराज्य सिद्धिः