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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१९८

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स्वाराज्य सिद्धिः

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स्पष्ट रूप से कहते हैं और उसके जानने से ही जगत् का उसी में लय होता है ऐसा भी वे कहते है ॥४८॥
(गुहान्तर्य:) जो यह प्रत्यक्ष साक्षी रूप प्रत्यगात्मा पंच कोश रूप गुहा के मध्य में गुहानिहित शब्द से श्रुति में कहा है और (यश्चायं अत्र पुरुषे प्रथते ) जो यह प्रत्यगात्मा इस प्रसिद्ध शरीर में अर्थान् व्यष्टि उपाधि में वर्तमान है। भाव यह है वक श्राकाशादि पृथिवी तक के कार्य को रच कर उस कार्य रूप शरीर में प्रविष्ट हुआ साक्षी रूप से वह प्रकाशमान है । इतने वाक्य से त्वं पद का वाच्य अर्थ तथा लक्ष्यार्थ कहा गया है, ऐसा जान लेना । अब तत्पद के वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ को कहते हैं—( यश्च अप्रमेय सुखभूः सविलुश्च बिम्बे ) जो यह प्रकृत ब्रह्मा है तथा सर्व कामनाश्रमा से रहित अनंत आनन्दघन अर्थात् लौकिकानंदों की सीमा रूप से विवेचित मायावच्छिन्न परमानन्दरूप ब्रह्म सविता के बिम्ब मं अर्थात् सूर्यमंडल में (प्रथते) प्रसिद्ध प्रकाशमान है अर्थान् समष्टिलिंग उपाधि में वर्तमान है, (स एक: ) सो यह द्विविध कहा हुआ भी आनंदश्रात्मा एक है। जैसे भिन्न देशस्थ घट मठाकाश अवकाश स्वरूप से एक है, तैसे ही उपाधि भेद से दो प्रकार से स्थित हुआ भी यह परमानंद स्वरूप श्रात्मा सत् वित् श्रानंदरूप से भेदरहित है। ( इति स्फुटं ऐक्यं एके अभिदधुः ) इस प्रकार एक कोई तैत्तिरीय शाखा वाले ब्रह्म और आत्मा दानों की एकता को स्पष्ट कहते हैं । इतने कहने से वाक्यार्थ कहा गया जान लेना । (तद्वेदनात् च तत्र जगतः विलयं च ) अब इस प्रकार अपर शाखा वाले श्रात्म साक्षात्कार से जगत् का विलय भी उस आत्मा में ही कहते हैं अर्थात् ब्रह्मवेत्ता अन्नमय, प्राणमय,