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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१५७

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प्रकरण २ श्लो० २६ [ १४९


पादशः प्रविभज्य निहत वाच्यवाचकभेदकम् । पूर्व पूर्व मथोत्तरत्र विलाप्य तुर्यमलक्षणं स्वात्म रूपमथर्वणः श्रुतिरभ्यधाच्छिवमद्वयम् ॥२६॥
भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल का जगत् परमं सत् है। प्रणव के पाद विभाग करके तथा पूर्व पूर्वका उत्तर उत्तर में लय कारक वाच्य वाचक भद राहत चाथा पाद रूप स्वात्मस्वरूप, लक्षण हीन और अद्वय शिव स्वरूप ब्रह्म है ऐसा अथर्ववेद की श्रुतिका कथन है ॥२६॥

(भूत भाविभवत् जगत् ) भूत, भविष्यत और वर्तमान कालिक सर्व चराचर जगत् (परमं सत्) वाच्यवाचक भेद से रहित सर्व से उत्कृष्ट कारण सत्रूप ॐकार रूप है यह अद्वैत प्रतिपादक अर्थ माण्डूक्य के प्रारंभ में ‘सर्वोतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म' इस वचन से स्पष्ट कहा है। अर्थात् सर्व भूत भविष्यतू आदि काल में होने वाले सर्व जगत् को तथा भूत आदि सर्व काल को ॐकार स्वरूप कहा है और ॐकाराभिन्न सर्व जगत् को सत्यं ज्ञान अनंत रूप ब्रह्म कारण से अभिन्न कहा है तथा अहं प्रत्यय गोचर प्रत्यगात्मा को ब्रह्म से अभिन्न कहा है इस प्रकार आदि ही में अद्वैत का कथन है। और इसके अनन्तर (प्रणवात्मकं पादशः विभज्य ) प्रणवरूप ब्रह्म के तथा श्रात्मा के तथा ॐकार के चार चार पाद् भिन्न करके कहे हैं । अर्थात् विराट, सूत्रात्मा, ईश्वर और तुरीय ब्रह्म ये चार पाद् ब्रह्म के हैं। विश्व, तैजस. प्राज्ञ और तुरीय ये चार पाद् आत्मा के हैं ऋऔर श्रकार, उकार, मकार और अमात्र ये चार पाद प्रणव के