सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् .djvu/११६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

अन्वयः यत्र नतभ्रुवां चन्दनलेपपाण्डुभिः स्तनैः निवर्तिता मुखानिलाः एव माने कदर्थनक्षमाः मलयाद्रिवायवः भवन्ति ।

                             ठयारख्या

यत्र पुरे नते वक्ते भ्रुवै दृग्भ्यामूर्ध्वभागौ ‘ऊर्ध्वे दृग्भ्यां भ्रुवौ स्त्रियौ' इत्यमरः । यासां तास्तासामङ्गनानां चन्दनस्य लेपेन पाण्डुभिः शुक्लवणैः समुन्नतैस्तुङ्गः स्तनैः पयोधरैनिवर्तिता मुखान्निसृत्थ स्तनैस्संघटथ पुनः परावृत्ता मुखानिला एव माने मानावस्थायां कदर्थने व्यथोत्पादने मानभङ्गकरणे च क्षमाः समर्था मलयाद्रेवर्वायवो दक्षिणानिला भवन्ति । मलयाद्रिवायुवद्विरहव्यथासंदीप- नक्षमा भवन्तीति भावः । अत्र रूपकालक्ङारः ।

                                भाषा

जिस नगर की नारियों के मुख से निकलने वाले वायु ही चन्दन के लेप से श्वत वर्ण उच्च कुचों से टकरा कर फैलते हुए, मानावस्था में विरह व्यथा को उत्पन्न करने में समर्थ मलयानिल ही हो जाते हैं । मलयानिल जिस प्रकार चन्दन वृक्षों के सम्पर्क से सुगन्धित होकर पहाड़ों से टकरा कर फैलते हुए अपनी सुगन्ध और शैत्य से विरह व्यथा कारक होते हैं वैसे ही नारियों के मुखानिल स्तन पर के चन्दन लेप से सुवासित व शीत होकर ऊँचे कठोर स्तनों से टकरा कर मन्दगति से फैलते हुए मानावस्था में उनके पतियों को विरह व्यथा कारक होकर उनका मान भङ्ग करने में समर्थ होते थे । क्षपाकरः कातररश्मिमरग्डलः पुरन्ध्रिगरग्डस्थलकान्तिसम्पदा ।