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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१२०

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भोजप्रबन्धः

कोशेन सन्तततमसङ्गतिराहवेऽस्य
दारिद्रयमभ्युदयति प्रतिपार्थिवानाम्' ।। २२५॥

 राजा तस्यै रत्नकलशाननर्ध्यान्पञ्च ददौ।

 तो राजा ने संमुख रखी तलवार को देखकर कहा- मेरे कृपाण का वर्णन कर ।' दासी ने कहा---

 'हे नरराज, आपका यह कृपाण एक विचित्र वादल है जो कि शत्रु-स्त्रियों के नेत्रों से जल वरसाता है ( यह धिर कर स्वयं नहीं वरसता ) और युद्ध में इसकी कोश से असंगति ( मियान से बाहर रहना) निरन्तर शत्रु राजाओं की दरिद्रता की उन्नति करती है ।

 राजा ने उसे पांच अमोल रत्नकलश दिये । ततस्तस्मिन्क्षणे कुतश्चित्पञ्च कवयः समाजग्मुः । तानवलोक्येषद्विच्छायमुग्वं राजानं दृष्ट्वा महेश्वरकविर्वृक्षमिषेणाह--

'किं जातोऽसि चतुष्पथे घनतरच्छायोऽसि किं छायया
__ छनश्चेत्कलितोऽसि किं फलभरैः पूर्णोऽसि किं संनतः ।
हे सद्वृक्ष सहस्व सम्प्रति चिरं शाखाशिखाकर्षण-
. क्षोभामोटनसञ्जनानि जनतः स्वैरेव दुश्चेष्टितैः ॥ २२६ ॥

 ततो राजा तस्मै लक्ष ददौ।

 तब उसी समय कहीं से पाँच कवि आ गये। उन्हें देख कर राजा का मुख कुछ उदास हो गया, ऐसे राजा को देख वृक्ष के व्याज से महेश्वर कवि ने कहा-

 तुम उत्पन्न हुए तो चौराहे पर क्यों ? धनी छाया वाले हुए तो छाया से ढककर फले क्यो ? और फलों से परिपूर्ण हुए तो झुके क्यों ? हे भले वृक्ष, अब अपनी ही इन दुश्चेष्टाओं के कारण लोगों से डाली, फुनगियों का खींचा जाना और क्षोy में भर कर उनका तोंडा-मरोड़ा जाना चिरकाल तक सहो।

 तो राजाने उसे लाख मुद्राएँ दीं।

 ततस्ते द्विजवराः पृथक्पृथगाशीर्वचनमुदीर्य यथाक्रमं राजाज्ञया कम्बल उपविश्य मङ्गलं चक्रुः । तत एकः पठति-

 भोज