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पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/८४

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 मन्तरायो विघ्नोऽभूत् । 'चिघ्नन्तराय प्रत्यूह' इत्यमर । हारसूत्रे यज्ञो- पवीतस्य भ्रान्तिप्रतिपादनाद् भ्रान्तिमानलङ्कार ।

भाषा

 प्रहार करने वाले उस सत्याश्रय राजा को युद्ध की धिंगाघिंगी में मोती के हार में से मोतियो के टूटकर गिर पडने से केवल डोरा मात्र अवशेष धारण करने वाले मदान्घ शत्रुओं के शरार पर वार करन में, यह डो ब्राह्मण का यज्ञोपवीत तो नहीं है इस भ्रम से क्षणमात्र के लिए रुकावट हो जाया करती थी । अर्थात यह ब्राह्मण तो नही है एसा भ्रम हो जाता था।

अथाऽष्टभिः श्लोकैर्जयसिंहदेवं वर्णयति कविः—
प्राप्तस्ततः श्रीजयसिंहदेवश्चालुक्यसिंहासनमण्डनत्वम् ।
यस्य व्यराजन्त गजाहवेषु मुक्ताफलानीव करे यशांसि ।।७&l

अन्वयः

 ततः यस्य राजाहवेषु यशासि करे मुक्ताफलानि इव व्यराजन्त, (सः) श्री जयसिहदेवः चालुक्यसिहासनमण्डनत्व प्राप्तः ।

व्याख्या

 तत सत्यश्रयान्तर यस्य राज्ञो गजाना हस्तिनामाहवां सग्रामस्तेषु ‘अभ्यामदसमाघात सप्रमाभ्यामाहवा’ इत्यमर । यशासि कीर्तंय करे हस्ते मुक्ताफलानीव गजमौक्तिकानीव व्यराजन्त विरेजु सुशोभितानिजातानीत्यर्थ । स श्रीजयसिहदेवस्तन्नाम्ना राजा चालुक्यकाना चालुक्यवशीयाना राज्ञा सिहसन तस्य मण्डनत्व शोभाविधायकत्व प्राप्त । तत्सिंहासनस्यालङ्कारभूतो जात इत्यर्थ । शुक्लवर्णसादृश्याद्यशस्मु मुक्ताफलत्वस्योत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षा ।

भाषा

 राजा सत्याश्रय व अनन्तर श्री जयसिंह देव ने चालुक्य वंशीय राजाओं की राजगद्दी को शुशोभित किया जिसका, हापी की सेना के युद्ध में प्राप्त यश मानो हाथ में पहिने हुँए गजमौक्तिक के समान शोभित होते थे ।