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कृतेय श्री राज्यलक्ष्मीर्दासी सेविका नन निश्चयेन, तेषा पृथ्वीभुज भूभुजामा
श्रितानामवलम्बितानामाश्रय विधाय वसता सिंहदेव-महाकविप्रभृतीना पोषणाय
भरणाय किं नाम गहन कठिनम् । तेषा भरणपोषणेष्वेतादृशान । महाप्रतापिना
राज्ञा किमपि काठिन्य नास्तीति भाव ।
भाषा
इस श्रीमान् आहवमल्लदेव के पुत्र विक्रमाङ्कदेव ने उसी शोभन दिन ही अत्यन्त दयालुता के कारण अपने छोटे भाई सिंहदेव को विशाल सम्पत्ति का भाजन बनाया । अर्थात उसे वनवासिमण्डल का राजा बना दिया । जिन राजाओं के घरों में पराक्रम रूप धन से खरीदी हुई यह लक्ष्मी निश्चय पूर्वक दासी बन कर रहती है उन राजाओ को अपने आश्रितो का (सामदेव तथा अन्य महाकवि गुणी आदि का) पालन पोषण करना क्या कठिन है ।
इति श्री त्रिभुवनमल्लदेव विद्यापति काश्मीरकभट्ट महाकवि बिल्ह्णविरचिते विक्रमाङ्कदेवचरिते महाकाव्यं षष्ठः सर्गः ।
नेत्राब्जाभ्रयुगाङ्कविक्रमशरत्कालेऽत्र दामोदरात् |
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।