"महाभारतम्-01-आदिपर्व-074" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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{{महाभारतम्}}
शुक्रवृषपर्वणोः संवादः।। 1 ।।
शुक्रवृषपर्वणोः संवादः।। 1 ।।
शुक्रकोपशान्तये वृषपर्वनियोगात् शर्मिष्ठया देवयानीदास्याङ्गीकारः।। 2 ।।
शुक्रकोपशान्तये वृषपर्वनियोगात् शर्मिष्ठया देवयानीदास्याङ्गीकारः।। 2 ।।
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<tr><td><p> एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठो महायशाः।<BR>प्रविवेश पुरं हृष्टः पूजितः सर्वदानैवः।। <td> 1-74-34a<BR>1-74-34b </p></tr>
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  2. सभापर्व
  3. आरण्यकपर्व
  4. विराटपर्व
  5. उद्योगपर्व
  6. भीष्मपर्व
  7. द्रोणपर्व
  8. कर्णपर्व
  9. शल्यपर्व
  10. सौप्तिकपर्व
  11. स्त्रीपर्व
  12. शान्तिपर्व
  13. अनुशासनपर्व
  14. आश्वमेधिकपर्व
  15. आश्रमवासिकपर्व
  16. मौसलपर्व
  17. महाप्रस्थानिकपर्व
  18. स्वर्गारोहणपर्व

शुक्रवृषपर्वणोः संवादः।। 1 ।। शुक्रकोपशान्तये वृषपर्वनियोगात् शर्मिष्ठया देवयानीदास्याङ्गीकारः।। 2 ।। प्रसन्नया देवयान्या सह शुक्रस्य पुरप्रवेशनम्।। 3 ।।







वैशंपायन उवाच।

1-74-1x

ततः काव्यो भृगुश्रेष्ठः समन्युरुपगम्य ह।
वृषपर्वाणमासीनमित्युवाचाविचारयन्।।

1-74-1a
1-74-1b

नाधर्मश्चरितो राजन्सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्त्यमानो हि कर्तुर्मूलानि कृन्तति।।

1-74-2a
1-74-2b

पुत्रेषु वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति।
फलत्येव ध्रुवं पायं गुरुभुक्तमिवोदरे।।

1-74-3a
1-74-3b

`अधीयानं हितं राजन्क्षमावन्तं जितेन्द्रियम्।'
यदघातयथा विप्रं कचमाङ्गिरसं तदा।
अपापशीलं धर्मज्ञं शुश्रूषुं मद्गृहे रतम्।।

1-74-4a
1-74-4b
1-74-4c

`शर्मिष्ठया देवयानी क्रूरमुक्ता बहु प्रभो।
विप्रकृत्य च संरम्भात्कूपे क्षिप्ता मनस्विनी।।

1-74-5a
1-74-5b

सा न कल्पेत वासाय तयाहं रहितः कथम्।
वसेयमिह तस्मात्ते त्यजामि विषयं नृप।।'

1-74-6a
1-74-6b

वधादनर्हतस्तस्य वधाच्च दुहितुर्मम।
वषपर्वन्निबोधेयं त्यक्ष्यामि त्वां सबान्धवम्।
स्थातुं त्वद्विषये राजन्न शक्ष्यामि त्वया सह।।

1-74-7a
1-74-7b
1-74-7c

`मा शोच वृषपर्वंस्त्वं मा क्रुध्यस्व विशांपते।
स्थातुं ते विषये राजन्न शक्ष्यामि तया विना।
अस्या गतिर्गतिर्मह्यं प्रियमस्याः प्रियं मम।।

1-74-8a
1-74-8b
1-74-8c

वृषपर्वोवाच।

1-74-9x

यदि ब्रह्मन्घातयामि यदि वा क्रोशयाम्यहम्।
शर्मिष्ठया देवयानीं तेन गच्छाम्यसद्गतिम्।।

1-74-9a
1-74-9b

शुक्र उवाच।'

1-74-10x

अहो मामभिजानासि दैत्य मिथ्याप्रलापिनम्।
यथेममात्मनो दोषं न नियच्छस्पुपेक्षसे।।

1-74-10a
1-74-10b

वृषपर्वोवाच।

1-74-11x

नाधर्मं न मृषावादं त्वयि जानामि भार्गव।
त्वयि धर्मश्च सत्यं च तत्प्रसीदतु नो भवान्।।

1-74-11a
1-74-11b

यद्यस्मानपहाय त्वमितो गच्छसि भार्गव।
समुद्रं संप्रवेक्ष्यामि पूर्वं मद्बान्धवैः सह।।

1-74-12a
1-74-12b

पातालमथवा चाग्निं नान्यदस्ति परायणम्।
यद्येव देवान्गच्छेस्त्वं मां च त्यक्त्वा ग्रहाधिप।
सर्वत्यागं ततः कृत्वा प्रविशामि हुताशनम्'।।

1-74-13a
1-74-13b
1-74-13c

शुक्र उवाच।

1-74-14x

समुद्रं प्रविशध्वं वा दिशो वा द्रवतासुराः।
दुहितुर्नाप्रियं सोहुं शक्तोऽहं दयिता हि मे।।

1-74-14a
1-74-14b

प्रसाद्यतां देवयानी जीवितं यत्र मे स्थितम्।
योगक्षेमकरस्तेऽहमिन्द्रस्येव बृहस्पतिः।।

1-74-15a
1-74-15b

वृषपर्वोवाच।

1-74-16x

यत्किंचिदसुरेन्द्राणां विद्यते वसु भार्गव।
भुवि हस्तिगवाश्वं च तस्य त्वं मम चेश्चरः।।

1-74-16a
1-74-16b

शुक्र उवाच।

1-74-17x

यत्किंचिदस्ति द्रविणं दैत्येन्द्राणां महासुर।
तस्येश्वरोस्मि यद्येषा देवयानी प्रसाद्यताम्।।

1-74-17a
1-74-17b

वैशंपायन उवाच।

1-74-18x

एवमुक्तस्तथेत्याह वृषपर्वा महाकविम्।
देवयान्यन्तिकं गत्वा तमर्थं प्राह भार्गवः।।

1-74-18a
1-74-18b

देवयान्युवाच।

1-74-19x

यदि त्वमीश्वरस्तात राज्ञो वित्तस्य भार्गव।
नाभिजानामि तत्तेऽहं राजा तु वदतु स्वयम्।।

1-74-19a
1-74-19b

`वैशंपायन उवाच।

1-74-20x

शुक्रस्य वचनं श्रुत्वा वृषपर्वा सबान्धवः।
देवयानि प्रसीदेति पपात भुवि पादयोः।।

1-74-20a
1-74-20b

वृषपर्वोवाच।

1-74-21x

स्तुत्यो वन्द्यश्च सततं मया तातश्च ते शुभे।'
यं काममभिकामाऽसि देवयानि शुचिस्मिते।
तत्तेऽहं संप्रदास्यामि यदि वापि हि दुर्लभम्।।

1-74-21a
1-74-21b
1-74-21c

देवयान्युवाच।

1-74-22x

दासीं कन्यासहस्रेण शर्मिष्ठामभिकामये।
अनु मां तत्र गच्छेत्सा यत्र दद्याच्च मे पिता।।

1-74-22a
1-74-22b

वृषपर्वोवाच।

1-74-23x

उत्तिष्ठ त्वं गच्छ धात्रि शर्मिष्ठां शीघ्रमानय।
यं च कामयते कामं देवयानी करोतु तम्।।

1-74-23a
1-74-23b

`त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामार्थे च कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्'।।

1-74-24a
1-74-24b

वैशंपायन उवाच।

1-74-25x

ततो धात्री तत्र गत्वा शर्मिष्ठां वाक्यमब्रवीत्।
उत्तिष्ठ भद्रे शर्मिष्ठे ज्ञातीनां सुखमावह।।

1-74-25a
1-74-25b

त्यजति ब्राह्मणः शिष्यान्देवयान्या प्रचोदितः।
सायं कामयते कां स कार्योऽद्य त्वयाऽनघे।।

1-74-26a
1-74-26b

शर्मिष्ठोवाच।

1-74-27x

यं सा कामयते कां करवाण्यहमद्य तम्।
यद्येवमाह्वयेच्छुक्रो देवयानीकृते हि माम्।
मद्दोषान्मागमच्छुक्रो देवयानी च मत्कृते।।

1-74-27a
1-74-27b
1-74-27c

वैशंपायन उवाच।

1-74-28x

ततः कन्यासहस्रेण वृता शिबिकया तदा।
पितुर्नियोगात्त्वरिता निश्चक्राम पुरोत्तमात्।।

1-74-28a
1-74-28b

शर्मिष्ठोवाच।

1-74-29x

अहं दासीसहस्रेण दासी ते परिचारिका।
अनु त्वां तत्र यास्यामि यत्र दास्यति ते पिता।।

1-74-29a
1-74-29b

देवयान्युवाच।

1-74-30x

स्तुवतो दुहिताऽहं ते याचतः प्रतिगृह्णतः।
स्तूयमानस्य दुहिता कथं दासी भविष्यसि।।

1-74-30a
1-74-30b

शर्मिष्ठोवाच।

1-74-31x

येनकेनचिदार्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्।
अतस्त्वामनुयास्यामि तत्र दास्यति ते पिता।।

1-74-31a
1-74-31b

वैशंपायन उवाच।

1-74-32x

प्रतिश्रुते दासभावे दुहित्रा वृषपर्वणः।
देवयानी नृपश्रेष्ठ पितरं वाक्यमब्रवीत्।।

1-74-32a
1-74-32b

देवयान्युवाच।

1-74-33x

प्रविशामि पुरं तात तुष्टाऽस्मि द्विजसत्तम।
अमोघं तव विज्ञानमस्ति विद्याबलं च ते।।

1-74-33a
1-74-33b

वैशंपायन उवाच।

1-74-34x

एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठो महायशाः।
प्रविवेश पुरं हृष्टः पूजितः सर्वदानैवः।।

1-74-34a
1-74-34b

।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
संभवपर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। 74 ।।

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