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वैशेषिकदर्शनम्
पण्डितराजारामः
१९१९

5 चरित्र भाषा-ठीक ओौर रचित प्रथमाकृति

सन् १९१९ इं० मैनेजर के प्रबन्ध से छपवाया ।

बाग्बे मशीन प्रेस लाहौर म पै० हर भगवान

s 52

भूमिका

आर्य वृद्धों के रचे हुए छह तर्कशास्त्र जगत् प्रसिद्ध षड्दर्शन हैं, जिन को पड्शास्त्र वा षड्-दर्शन कहते हैं। इनके नाम ये हैं-वैशेषिक, न्याय, साङ्ख्य , योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा । इन में से. पूर्वमीमांसा मीमांसा नाम से, और उत्तरमीमांसा वेदान्त नाम से प्रसिद्ध है ।

दर्शनों के ' ). दर्शनों के रचने का उद्देश्य यह था, कि प्रवने का उद्देश्य लोगों को विचार-स्वातन्त्र्य की शिक्षा दी जाए, और उन की बुद्धियों को सीधे मार्ग पर डाल कर उन्नत किया जाय । क्योकि बुद्धि की वृद्धि और विचार स्वा तन्त्र्य में ही मनुष्यों का कल्याण है, इसी में मनुष्य के इस लोक और परलोक का सुधार है। हां यह नि:संदेह है, कि विचार-स्वातन्त्र्य में भी इन सूक्ष्मदर्शी दर्शनकारों ने चैदिक मार्ग को सर्वथा सरल और सीधादेखा, अतएव विचार स्वातन्त्र्य की शिक्षा देते हुए भी वैदिक धर्म की पूर्णतया रक्षा की, इसी लिए ये दर्शन, वेदों के उपांग.कहलाये ।

दैर्शनकार )' दर्शनों के बनाने वाले मुनि कहलाते हैं । जिन मुनि / के नाम ये हैं-कणाद, गोतम, कपिल, पतञ्जलि, जैमिनि और व्यास। मुनि का अर्थ है मनन करने वाला, तर्क सेनश्चय करने वाला, वह पुरुष, जो सत्तर्क से सचाईं का ठीक पता लगा लेता है, और युक्ति द्वारा औरों का निश्चय विठां देता है, उस को मुनि कहते हैं । आर्यजाति में ऋषि

}

'वैशेषिक-दर्शन ।

और मुनि दोनों वड़े आदर के शब्द हैं । जो मन्त्रद्रष्टा हुए, जिन्हों ने धर्म को साक्षात्-किया, वे ऋपि कहलाए, और जिन्हों ने उन सचाइयों का मनन किया और कराया, वे मुनि कहलाए। वैशेषिक , वैशेषिक सूत्रों के कर्ता कणाद मुनि हुए हैं। णदमुनि ] इन का कोई जीवन-चरित्र नहीं मिलता, इसलिए इनके देशा काल और जीवन दृत्तान्त के विषय में निश्चित रूप से इतना ही कह सकते हैं, कि ये कश्यप ऋषि की सन्तान परम्परा में उल्लूक मुनेि के पुत्र हुए हैं। वायुपुराण पूर्व खण्ड अध्याय २३ में लिखा है, कि २७ वें परिवर्त में जब जातूकण्र्य व्यास हुए, उस समय भासक्षेत्र में सोमशर्मा ब्राह्मण रहते थे, जो वहे तपस्वी और योगी थे, कणाद मुनि इस महात्मा के शिष्य थे । कणाद स्वय भी योगी थे, इन की बुद्धि वी शुद्ध और चरित्र चड़ा पावित्र था । वैशेपिक सम्प्रदाय को आचार्ष यह भानते और लिखते आरहे हैं, कि इस मुनि ने समाधि द्वारा महेश्वर को प्रसन्न करके वैशेपिक शास्त्र रचा था ।

कणाद् रचित । कणाद मुनि ने इस दर्शन को वैशेषिक नाम दर्शन के नाम | इस कारण दिया, कि इस मे सूल पदार्थो का जो परस्पर विशेप (भेद) है, उस का निरूपण किया है । । विशेप शब्द सें वैशेषिक शब्द 'अधिकृत्य कृतेशन्थे (अष्टा ४ । ३ । ७) सूत्र से विशेप के वोधक शास्त्र' के अर्थ में बना है* विशेर्प पदार्थभेदं अधिकृत्य कृतं शास्त्रं वैशेपिकम्' विशप अर्थात् पदार्थों के भेद का बोधक वैशेपिक है। इस दर्शन

के रचने में कणादमुनि का यह उद्देश था, कि इस विश्व में

भूमिका

जितने मूल पदार्थ हैं, उन में एक से दूसरे की जो विशेषता है, उस की शिक्षा दी जाय, क्योंकि ऐसा ज्ञानव्यवहार औरपरमार्थ दोनों का उपयोगी है। मनुष्य का हरएक काम इष्ट की प्राप्ति वा अनिष्ट के परिहार के लिए होता है। पर इष्ट की माप्ति और अनिष्ट का परिहार होता तव है, जब उस को उपाय का यथार्थ ज्ञान हो, और उपाय का यथार्थ ज्ञान तभी होता है, जब पदार्थो के परस्पर !ांवेशष ज्ञात हों । जिस अंश में विशेष का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, चहीं उपाय में भूल होती है, तव मनुष्य का किया कराया काम निष्फळ चला जाता है, और कभी २ उलटा फल भी दे जाता है, सुख के लिए किया काम दुःख उत्पन्न कर देता है, संपाति के लिए किया काम विपद् में डाल देता है.। इस कारण तो पदार्थो. का यथार्थ ज्ञान व्यवहार का उपयोगी है। औौर परमार्थका उपयोगी इस प्रकार है, कि आत्मा का दूसरे पदार्थों से भद तभी जाना जा सकता है, जब यह ज्ञात हो, कि धे गुण जो आत्मा के माने गये हैं, वे उन तत्वों 'में से किसी में भी नहीं पाये जाते, जिन से शरीर वना है, और न ही ये उन तत्वों के संयोग से उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रकार आत्माने जानने के लिए गरे ही पदार्थों के जानने की आवश्यकता .आपड़ती है। सो व्यवहार और परमार्थ दोनों के उपयोगी विशेष प्रदर्शक दर्शन .का नाममुनिने वैशेषिक यह अन्वर्थ नाम रक्खा । . यहीइसकाथुख्यनामहै। जो कि मुनिका अपना रक्खा हुआ है। पीछे मुनि के नाम पर काणाद्दर्शन और औौलूक्य दर्शन ये दो नाम दूसरों ने इस दर्शन को दिये हैं।

'वैशेषिक-दर्शन ।

व्याख्यान वैशेषिक दर्शन कं ) वैशेषिक के मूलसूत्र भगवान् कणाद मूलस्त्रओरउन पर नेन रचे हैं। उन पर जां भाष्य इस समय मिलता है, वह प्रशस्त मुनि का रचा हुआ भशस्त पाद भाष्य * नाम मे प्रसिद्ध है। इस भाप्य पर (३) (क) श्री उदयनाचार्य विराचित ‘किरणावली' नामी एक टीका है, और (ख) भट्ट श्री श्रीधराचार्य विरचित ‘न्याय कन्दली' नामी दूसरी टीका है, और जगदीश भट्टाचार्य कृत ‘भाष्यसूक्ति'तीसरी टीका है, और ‘भिक्षुवार्तिक'चौथीटीका है। और शंकरमिश्र कृत ‘कणादरहस्य’ पांचवीं है। उदयनाचार्य और श्रीधराचार्य दोनों एक ही शताब्दी में हुए हैं। उदयना चार्य ने एक 'लक्षणावली' नामी ग्रन्थ भी रचा है, उस के अन्त मे उन्होंने उस के रचन का समय यह दिया है-'तर्का म्वराङ्क प्रमितष्वतीतेषु शकान्ततः । वर्षेघूदयनश्चक्रे सुवोधां लक्ष णावलीम्'अर्थात् शक संवत्के९०६वर्ष(वि० सं० १०४१)वीतने पर उदयन ने लक्षणावली वनाई। और श्रीधरने न्याय कन्दली के अन्त में इस की रचना का काल यह दिया है-‘घ्याधकदशो-. तरनवशतशाकाव्द न्याय कन्दली रचिता । श्रीपाण्डुदासया चित भट्ट श्री श्रीधरेणेयम् ? अर्थात् शक संवत् ९१३(=विक्रम् स० १०४८) में श्री पाण्डुदास की प्रार्थना से भट्ट श्री श्रीधर नेन यह न्याय कन्दली. रची । (४) इस के आगे किरणावली


५८ ‘प्रशस्तपादभाप्य' से पहले एक औरभाष्य के होने काकिर णाचली' और 'कन्दली' दोनों से पता चलता है, और किरनावली'

भास्कर, में पद्मनाभ ने उस भाष्य घको रावण प्रणीत लिखा है ।

भूमिका

र (क)एक तो वर्धमानोपाध्यायनामी विरचित ‘किर गावली मकाश' नामी व्याख्यान है, (ख) और दृमरा पद्म rाभ विरचित किरणावली भास्कर’ नामी स्याख्यान है । (५) किरणावली प्रकाश' एर भगीरथ ठझर विरचित 'द्रव्य मका शका? और श्रीरघुनाथ भट्टाचार्य कृत 'गुण प्रकाश विद्यति । ीका है, जो ‘गुणदीधिति' नाम से प्रसिद्ध है । (६) गुण [काश विद्यति' पर (क) एक तो मथुरानाथ तर्कवागीशा विर चेत 'गुणप्रकाश िवटतिरहस्य' नामी टीका है, जो ‘गुणदी धति माथुरी, नाम से भसिद्ध हैं । मथुरानाथ ने गुण प्रकाश दृति के मूल ग्रन्थ 'गुणप्रकाश' की भी व्याख्या की है, ो, गुणप्रकाशरहस्य' नाम से प्रसिद्ध है। और 'गुणप्रकाश मूल ग्रन्थ 'गुण ि किरणावली' की भी व्याख्या की है, जो गुण किरणावली रहस्य' नाम से प्रसिद्ध है । (ख) दूसरी द्र भट्टाचार्ये कृत 'गुणप्रकाश विद्याति भावभकाशिका ? नामी का है, जो ‘गुणप्रकाशविष्टतिपरीक्षा' नाम से प्रसिद्ध है, (ग) और तीसरी रामकृष्ण कृत (घ) और चौथी जयराम भट्टा [ार्य कृत व्याख्या है । भाष्यादे सारे ग्रन्थ दो भागों में न्धकारों ने बांटे हैं। आरम्भ मे आत्मा के निरूपण पर्यन्त व्यग्रन्थ, उस से अगला सारा ग्रन्थ गुणग्रन्थ कहा जाता है। नमें से प्रशास्तपाद् भाष्य और उस पर 'न्यायकन्दली ? तो प चुके हैं, 'किरणावली' और उस पर किरणावली' प्रकाश शियाटिक कलकत्ता की से छप रहे हैं।

सांसायटी आंर

'वैशेषिक-दर्शन ।

जो १९११ ई० से आरम्भ हो कर अभी तक थोड़े ही छपे हैं ३शप अभी अमुद्रित हैं ।

अन्य भाष्यकार तो मूलसूत्रों की व्याख्या भी करते हैं, और सूत्रोक्त विपयों का स्पष्टीकरण भी करते हैं । पर वैशे पिक भाष्यकार (प्रशस्तमुनि ) मूत्रों की व्याख्या नही करते, किन्तु एक विषयके समस्त सूत्रों को मन में रखकर मूत्रों का अवत रण प्रतीकादिदिये विना ही विपय का स्पष्टी पारण कर देने हैं । इस कारण सूत्रों के पठनपाठन के लिए सीधा सूत्रों पर अन्य टीकाएँ रची गई। शैकरमिश्र विरचित ' न्त्रोपकार ' नामी पुरानी टीका से पूर्व भारद्वाज वृत्ति थी, िजम वा पता शङ्कार मिश्र ने 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस मिद्धिः म धर्मः ? ऋत्र की व्याख्या में दिया है । पर यह टीका अधी तक मिली नहीं । 3स समय कुछ नई टीकाएं संस्कृत और भापा में हो रही है, जिन में से श्री जयनारायण तर्क पञ्चानन छन टीका क्त टी उत्तम है ।

वैशेषिक सूत्रों के ) वैशेपिक मूत्र १० अध्यायों में विभक्त प्रतिपाद्य विषय } हैं। अध्याय क्रम मे सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय ये है । प्रथम अध्याय में समवाय सम्वन्ध रखने वाले सारे पदार्थो का कथन है । द्वितीय में द्रव्यों का निरूपण है। तृतीय में आत्मा और अन्तःकरण का लक्षण है । चतुर्थ में शारीर और तदुपयोगी पदार्थो का विवचन है। पञ्चम में कर्म का प्रतिपादन है। पष्ठ में श्रौत धर्म का विवचन है। सप्तम में

गुणों का और समवाय का प्रतिपादन है। अष्टम में ज्ञान की

भूमिका

उत्पत्ति और उंस के साधनादि का निरूपण हें। नवम में बुद्धि फे भेदों का प्रतिपादन है । दशम में आत्मा के गुणों क्षे भेद का प्रातिपादन है । मखेक अध्याय में दो दो भान्हिक हैं। अहिक का अर्थ है, एक. दिन का काम । अर्थात् इस दशा ध्यायी को कणाद मुनि ने २० दिनों में रचा था।

सूत्रों का ? पकणाद मुनि ने जां सूत्र रचे थे, उन में कुछ निर्णय' // न्यूनाधिकं वा पाठान्तर हुए हैं वा नहीं, और यादे हुए हैं, तो किस प्रकार अव फिर मृल सूत्रों को उसी रूप में ला सकते हैं, जिस रूप में कि मुनि ने रचे थे, इस वात का निर्णय करना अतीव भावश्यक है।

पं० विन्ध्येश्वरी प्रसाद शाम्म ने जो भूत्रपाठ छपवाया है, उस फी प्रादटीका में पाठभेद् दिये हैं, जो उन को हस्त लिखित पुस्तकों में मिले हैं। उन से यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि न केवल पदभद ही हुए हैं, किन्तु सूत्रभेद भी हुए हैं। अब इनको कणादोक्त रुप में लाने के लिए क्या प्रयत्र होना चाहिय, पाणिनि विरचित व्याकरण छूत्रों में भी काशिकाकार ने कुछ भेद किया है, वह महाभाष्य के अनुसार ठीक हो सकता है। इसीं भकार याद प्रशस्तपाद भाष्य भी सूत्रों का व्याख्यान होता,तो भाष्य के अनुसार सूत्रों को कणादोक्त रूप में लाना सरल होता, पर भाष्य तो जैसा-पूर्व कहा है, सूत्रों का व्याख्यान नहीं। अब सूत्रों पर साक्षात् कोईभाचीन व्याख्या मिलती नहीं । शैकरमिश्रतो मथुरानाथ तर्क वागीश केशिष्यकणादकाभीशष्य

था। अतएवं बहुत प्राचीन नहीं किञ्च प्रशस्तपाद् भाष्य की

'वैशेषिक-दर्शन ।

व्याख्यामेंउदयनाचार्यऔरश्रीधराचार्यदोनोंने बुद्धि ही'अस्मद् भ्योलिङ्गभूपेः' इस को खत्रत्वेन उद्धत किया हैं । शंकरामश्र का इस का पता ही नहीं। और पं० विन्ध्येश्वरी प्रसाद शम्मी को जो एक बहुत पुराना (उनके अनुमानासार ४०० वर्ष से पहले का) लिखा हुआ सूत्रपाठ मिला है, उसमें यह सूत्र है। और उक्त शर्मा जी के अनुसार ' चत्रमाशावलम्वेन निरालम्वेपि गच्छतः ’ सूत्र मात्र का सहारा पकड़ कर विना सहारे चलन लगा हूँ, कहने वाले शंकरमिश्र ने सूत्र छोड़े भी हैं, कहीं एक ही सूत्र के दो सूत्र भी वना डाले हैं, कहीं दो को एक किया है, कही पाठ की कल्पना भी की है । यह सत्य है, कि सर्वथा शंकरमिश्र विरचित उपस्कार सूत्रनिर्णय में प्रमाण नहीं हो सकता ।

पं० विन्ध्येश्वरी प्रसाद को जो पुराना लिखा हुआ सूत्रपाठ मिला है, उस के अनुसार दस अध्यायों मे मृत्र संख्या क्रमशः =३५९ और उपस्कार के अनुसार ४८--६८-४०-२४--४४ +-३२-५-५३-५-१७--३८-१६=३७० इस प्रकार अध्याय २ मे भेद है । तो क्या फिर अव सूत्रो को अपने मूलरूप में लाना अस म्भव तो नहीं होगया नहीं,तथापिइस के लिएपयत्रसविशपेहाना चाहिये । एक तो प्राचीन हस्तलिखित सूत्रपाठों का संग्रह करना चाहिये, दूसरा भारद्वाज वृत्ति और रावण भाष्य को उप लब्ध करना चाहियें, तीसरा किरणावली आाद प्राचीन व्या

ख्याओं में उदृत सूत्रों का संग्रह करना चाहिये, तथा शङ्करा

भूमिका

चार्य आदि प्राचीन आचार्यो के ग्रन्थों में उद्वत सूत्रों का संग्रह करना चाहियें, तब वड़ी प्रवल सम्भावना है, कि सारे सूत्र अपने मूलरूप में लाए जा सकेंगे। इस समय इस काम को हाथ में लेने की हमारे पास पूरी सामग्री नहीं, तथापि यथा शक्य इस काम को प्रवृत्त रखते हुए सम्प्राति मुद्रित सूत्रों के आधार पर व्याख्यान आरम्भ करते हैं। व्याख्यान ) वैशेशिक सूत्रों की शैली हमने यह रक्खी है, कि का ढंग / जहां अर्थ देने से ही पद पदार्थ-भी स्पष्ट हो जात हैं, वहां तो सूत्रार्थ ऐसा स्पष्ट करके लिख दिया है, कि उसी , से पद पदार्थ का भी यथार्थ वोध हो जाता है, और जहां पद च्छेद और पदार्थोक्ति की आवश्यकता जान पड़ी , है, वहां पद चच्छेद और पदार्थ भी दे दिया है। सूत्रार्थ के अनन्तर, व्याख्यान रक्खा है, उस में चड़ी सरल और सुवोध भाषा में वैशेषिक के गूढ़ विपयों के मर्म खोल २ कर समझा दिये हैं। सम्पादक वैशेषिक दर्शन प्रथम अध्याय, प्रथमआह्निक सैसगति-शास्त्रारम्भ की प्रतिज्ञा अथातो धर्म व्याख्यास्यामः ॥१॥ अर्थ-अव, यहां से, हम धर्म का व्याख्यान करेंगे । व्याख्यान-‘अथ’ आरम्भ का द्योतक होता है, जैसा कि ‘इति' समाप्ति का, इसलिए ग्रन्थारम्भ में 'अथ? देते हैं। ‘अतः’ यहाँ से। इस से आगे, अर्थात् अगले ग्रन्थ में। यद्यपि , इस शास्त्र में निरूपण तो वाहुल्य से पदार्थो का ही है, तथापि पदार्थो का तत्त्वज्ञान धर्म से ही उत्पन्न होता है, (देखों सूत्र ४) इस लिए धर्म की ही प्रधानता से, उसी के निरूपण की प्रतिज्ञा की है ? सङ्गति-धर्म कहते किसको है, और उससे फल क्या मिलता है? यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । २ । अर्थ-जिस से यथार्थ उन्नति और परम कल्याण की सिद्धि होती है, वह घर्म है ।

  • अभ्युदय=तत्त्वज्ञान, उस के द्वारा मोक्ष की सिद्धि जिस से

होती है, वह धर्म है (उद्यनाचार्य)

११
अ. १ आ. १ सू. ३

अ०१ आ०१ सू० ३ ॥ .' 'व्या०-आत्मवल यथार्थ उन्नाति है, और मोक्ष परम कल्याण है, धर्म के ये दोनों फल होते हैं, धर्म से आत्मबल वढ़ता है । आत्मबल से लोक परलोक दोनों सुखदायी बन जाते हैं। आत्म चल के साथ सम्पदाएं भार्गी चली आती हैं, और यदि कोई विपद् भी आ जाती है, तो आत्मवल उस को भी सम्पद ही वनालता है, क्योंकि आत्मबल वाला विपद्में भी सम्पद के समान इी सन्तुष्टरहता है,प्रत्युत विपद् उमके आत्मवल को और बढ़ादेती है। अतएव आत्मवल ही मनुष्य की यथार्थ उन्नति है। और यही परलोक में साथ जाकर उच्च जन्म और स्वर्ग का हेतु इोताहै। और फिर यह धर्म ही है, जो हृदय को शुद्ध बनाता है, जिससे आत्म का तत्त्वज्ञान हो कर मोक्ष मिलता है।

इस प्रकार धर्म अभ्युदय का तो साक्षात् कारण है, और मोक्ष का तत्त्वज्ञान द्वारा कारण है ।

सङ्गति-ऐसे धर्म का प्रतिपादक शास्त्र और उस की प्रमाणता ' ' तद्वचनादास्रायस्य प्रमण्यम् ॥ ३॥

अर्थ- उस के प्रतिपादन से वेद की प्रमाणता (है) *:


'ततू'शब्दपूर्व कापरामर्शक होता है, पर प्रसिद्ध (=प्रसिद्धि सिद्ध) अपूर्वोक्त का भी परामर्शक होता है, जैसे ‘तदप्रामाण्यमनृत व्याघात पुनरुक्तदोपम्यः' (न्या) में “तत' शब्द पूर्व न कहे भी वेद का परामर्शक है। इसी प्रकार यहां 'तत्' शब्द अपूर्वोक्त भी ईश्वर का परामर्शक है। तब अर्थ यह होगा-उस जगत्प्रसिद्ध ईश्वर ने प्रतिपादन किया है, इस लिए वेद का प्रामाण्य है । सो ईश्वर का वचन होने से वेद का प्रामाण्य निर्याध सिद्ध होते हुए वेदप्रमा ... णक धर्म व्याख्यान के योग्य है, यह भाव है (उदनाचार्य, और

कई अन्य व्याख्याकार)

१२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन । व्या०-धर्म का जो लक्षण पूर्व किया है, कि ‘याथर्थ उन्नति और मोक्ष की सिद्धि जिम से हो वह धर्म है' वैसे धर्म के प्रति पादन करेन से धर्म के विषय में वेद को प्रमाण माना जाता है, क्योंकि जो जिम विषय में प्रामाणिक अर्थ का प्रतिपादन करता है , वही उस विषय में प्रमाण होता है। संगति-लक्षण और प्रमाण से धर्म की सिद्धि करके, धर्मे से. मोक्ष की सिद्धि में वैशेषिक शास्त्र की उपयोगिता दिखलाते हैं

धर्म विशेषप्रसूताद् द्रव्यगुण गुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां पदार्थानां साधम्येवेधम्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निः श्रेयसम् । ४ ।

अर्थ-धर्म विशेष से उत्पन्न हुआ जो, द्रव्य, गुण, कर्म,सामा न्य, विशेष और समवाय (इतने) पदार्थो का साधम्र्य और वैधम्र्य सें तत्त्वज्ञान, उस से मोक्ष होता है ।

व्या०-इस जन्म वा पूर्व जन्म में किये पुण्य कर्म से द्रव्यादे पदार्थो का तत्त्वज्ञान होता है, तव मनुष्य अपने स्वरूप को शरीर से अलग साक्षात् करके वन्धन से मुक्त हो जाता है ।

धर्म, धर्मी, साधम्, वैधम्र्य-जिस का स्वरूप किसी दूसरे


  • साधम्यै=समान धर्म=सांझा धर्म, और वैधम्र्य

अर्थातू इस पदार्थ का यह २धर्म तो उस के २पदार्थ साथ िमलता है, और यह इस का अपना अलग धर्म है, दूसरे किसी के साथ नहीं मिलता, इस प्रकार हरएक पदार्थ का जय पूरा शान हो जाय

तय मोन्न होता है।

१३
अ. १ आ. १ सू. ३

के आश्रितं प्रतीत हो, उसको धर्मकहते हैं, और जो उसः का आश्रय है, उस को धर्म कहते हैं। गन्ध-ध हैं, क्योंकि वह पुष्पके'आश्रित प्रतीत होता है, पुष्पधर्मी है, क्योंकि गन्ध उस के आश्रय है। दौड़ना धर्म है, क्योंकि वह घोड़े के आश्रित प्रतीत होता है, घोड़ा धर्मी है, क्योंकि वह दौड़ का आश्रय है। गन्ध में भी-गन्धपना धर्म है, क्योंकि वह गन्धे प्रतीत होता है, गन्ध धर्मी है, क्योंकि. उसमें गन्धपन'प्रतीत होता है । सो गन्ध पुष्प का धर्म है, पर गन्धपन को धर्म भी है। इसी प्रकार संर्वत्र धर्मधर्मिभाव जांनना । जो अनेकों का सांझा धर्मे हो; उस को साधम्ये वा समान धर्म कहते हैं, जैसें'गन्ध पुष्प और इतर का साधम्यै=समान धर्म है। और जो अपना विषेश धर्म हो; उस को वैधम्ये वा विशेष धर्म वा विरुद्ध धर्म कहते है; जैसे पंखड़ियां पुष्प का इतर से वैधम्र्ये है, और द्रवत्व इतरं का पुष्प से वैधम्र्य है। इस प्रकार संधिम्र्य और वैधम्र्य द्वारा जव समस्तं पदार्थो का तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब पुरुष मुक्त होता है। इसलिए इस शास्त्र में समस्तूपदार्थो और उनके धर्मो का निरूपण आरम्भ करत हैं ।

यहां छः पदार्थो का कथन भाव पदार्थो'कें. आभप्रायसें है, वस्तुतः अभाव भी एक अलग पदार्थ के रूप में मुनि को. अभिप्रेत हैं, अतएव कारणाभावात् कार्याभावः' (१४। २-५-१);' औरं * क्रियागुणेव्यपदेशाभावात्” प्रागसंव' (९ । १ । १ )

इत्यादि संत्रों की असङ्गति नहीं । किन्तु अभाव का निरुपण.

१४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन। प्रतियोगि * निरूपण के अधीन होता है, इसलिए उस का अलग उद्देश नहीं किया । पदार्थो की शिक्षा देन के तीन क्रम हैं-उद्देश, लक्षण और परीक्षा । बतलाने योग्य पदार्थ का निरा नाम लेना उद्देश है, जैसे यहां द्रव्य, गुण इत्यादि नाम लिए हैं, यह पदार्थों का उद्देश है । जिस का नाम लिया गया है, उस को उद्दिष्ट कहते हैं, जैसे यहां द्रव्य, गुण । असाधारण धर्म लक्षण होता है, जैसे उष्ण स्पर्श तेज का, क्योंकि उश्ण स्पर्श तेज का असाधारण धर्म है, बिना तेज के कहीं नहीं पाया जाता, पत्थर और पानी आदि जव गर्म होते हैं, तो वे तेज के संयोग से ही होते हैं, स्वत: उन में गर्मी नीं । वहगम तेज की ही होती है, इसलिए उष्ण स्पर्श तेज का असाधारण धर्म है, अतएव यह तेज का लक्षण है। जिस का लक्षण हो उस को लक्ष्य कहते हैं, और जव यह जितकाना हो, कि इस का लक्षण हो चुका है, तो उस को लक्षित कहते हैं। लक्षित का यह लक्षण वन सकता है वा नहीं, इस विचार का नाम परीक्षा है, परीक्षा के योग्य को


  • ‘यस्याभाव. स प्रतियोगी' जिस का अभाव हो, वही अभाव

का प्रतियोगी होता है । जैसे नीलांभाव का प्रतियोगी नील है, नील और नीलांभाव में से नील के ही जानने की आवश्यकता है, जो नील को जानता है, वह, 'यहां नील नहीं, वा यह नील नहीं। इस बात को अपने आप जान लेता है । और जो नील को नहीं जानता, उस को * यहाँ नील नहीं, वा यह नील नहीं' झान भी नहीं हो सकता, अतएव अभाव का निरूपण प्रतियोगिनिरूपण

के अधीन है।

१५
अ. १ आ. १ सू. ३

परीक्ष्य कहते हैं, और जव परीक्षा में पूरा उतर जाय, तो उस को परीक्षित कहते हैं। उद्देशा.के क्रम में शिक्षा का सरल मार्ग अवलम्वन किया जाता है, आगे लक्षण का क्रम उद्देशा के क्रम से होता है, और परीक्षा का क्रम लक्षण के क्रम से होता है। कभी २ शिक्षा की सरलता के लिए आगा पीछा भी कर दिया जाता है।

यहां पदार्थो के उद्देशक्रम में सब से पहले द्रव्य इसलिए कहे, कि वे ही मुख्य धर्म हैं। उन से पीछे गुण, क्योंकि गुण । सव द्रव्यों में पाए जाते हैं। उन से पीछे कर्म, क्योंकि कर्म भी द्रव्यों में ही रहते हैं।पीछे उन में समान विशष प्रतीति के निया मक सामान्य विशष । पीछे समवाय, अथ धर्म धर्म का सम्वन्धं, क्योंकि यह सव का धर्म है ।

‘पदार्थ’ यह यौगिकनाम है,'पदस्य अर्थः,पदार्थः,'पद का अर्थ पदार्थ, अर्थात् जिस का कोई नाम है, सो 'अभिधेयत्व । किसी पदका वाच्य होना यही पदार्थका सामान्यलक्षण हुआ। सङ्कति-उद्देश क्रम के अनुसार क्रमशः द्रव्य गुण कर्म का विभाग * कहते हैं - ।

पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि ॥ ५ ॥


  • विभाग भी उद्देश ही है। क्योंकि विभाग' में भी नाम ही

गिनाए जाते हैं। पहले पदार्थो का उद्देश था, अब ये पदार्थों में

आएदेव्य का विशेष उद्देश है। इसी प्रकार आगे गुण कर्मका ।

१६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक-दर्शन । अर्थ-पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा,

आत्मा, मन, ये (९) द्रव्य हैं।

क्रमशः-सूक्ष्म होने से पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश क्रमशः कहे । पीछे लोकप्रसिद्ध काल और दिशा । अनन्तर चेतन आत्मा, और आत्मा के साथ नियत रहने से पीछे मन । प्रश्न-तम (अन्धकार) भी-तो एक द्रव्य है, क्योंकिगुण क्रिया-वाला द्रव्य होता है। औरतम-काळा होता है, यह तम में गुण है, और चलता है, यहउसमें क्रिया है। और जो ९ द्रव्य ऊपर कहे हैं, उन के अन्दर यह आ सकता नहीं, क्योकि वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन, तो रूपवाले नहीं, और तम रूपवाला होता है, इसलिए इन के अन्तर्गन नहीं, रहे पृथिवी, जल, तेज, उन को हम आंखों से तव देखते हैं। जव वे प्रकाश से युक्त हों। और तमउलटा तव दीखता है, जव प्रकाश न हो, इसलिए यह पृथिवी जल तेज के अन्तर्गत भी नहीं, अतः एव यह एक अलग ही दसवां द्रव्य सिद्ध होता है ।.

उत्तर-प्रकाश का अभाव ही तम है, और कुछ नहीं। उस में क्रिया की प्रतीति भ्रान्ति है। जव प्रदीप लेकर चलते हैं, तो ज्यों २प्रकाशा आगे २वढ़ता जाता और पीछे २ से हटता आता है, त्यों २ तम भाग २ भागता जाता और पछेि २ दौड़ता आता मतीत होता है। वस्तुतः वहं दौड़ प्रकाश की ही है, भकाशा के होते तम मिट जाता है, और प्रकाशा के इटते तम होता-आता है। इस प्रकार क्रियाउस में भूल से प्रतीत होती

' है । रूप की-मतीति भी भ्रान्ति है, रूप को नेत्र तभी देखते हैं,

१७
अ. १ आ. १ सू. ३
जव बाह्य प्रकाश सहायक हो । सो न दीखना ही त्म रूप है,

न कि कोई वास्तविक रूप ।

रूपरसगन्धस्पर्शः संख्याःपरियाणानि-पृथक्त्वं संयेोगविभागौ परत्वापरत्व बुद्धयः सुखदुःखे इच्छा द्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः ॥ ६ ॥

(रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्क, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ये ( १७ ) गुण हैं (और इन से अतिरिक्त गुरुत्व, द्रवत्, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म, शब्द ये सात भी गुण हैं, इन का वर्णन आग परीक्षा , इस प्रकार सारे गुण २४ हैं)

ु गेहै रूप, रस. गन्ध, स्पर्श, ये चारों इकडे कहे, क्योंकि य विशेष गुण हैं, इन से द्रव्यों की पहचान होती है। और ये पहले चार ही द्रव्यो में रहते हैं, और किसी में नहीं पाये जाते ।

संख्या (गिनती) पारिमाण (छुटाई बड़ाई लंबाई चुड़ाई (uantity ) पृथस (अलगपना Severalty) संयोग, और . विभाग । ये द्रव्यमात्र क्षे गुण है ।

परत्व और अपरत्व, (दूरी और निकष्टता) देश की अपेक्षा से वा काल की अपेक्षा से तो यह परे है, और यह वरे है इस प्रकार होती है, और यह उन मे दृोती है, जो एकदशी द्रव्य क्षों, विभु द्रव्यों मे घरे परे नही कहा जाना । और काल की अपेक्षा से नयाँ पुराना वा छोटा वड़ा यहप्रतीति

होती है, और यह उन में होती है, जो उत्पत्ति वाले हों।

१८
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेप, ऑर प्रयत्न ये आत्मा के गुण हैं। गुरुत्व (भार) भारी वस्तुओं का । द्रवत्व (वहने का गुण) कहती हुई वस्तुओं का । मेस्कार-तीन प्रकार का है-भावना-स्मृति कराने वाला संस्कार, आत्मा का ! वेग, चलने वाले द्रव्यों का। और स्थिति स्थापक (पहली अवस्था में लाने वाला) पृथिवी आदि का । धर्म अधर्म आत्मा के और शब्द आकाश का गुण है ।

उत्क्षेपणमवक्षपण माकुवन्नं प्रसारणं गमनं भिति कर्माणि । ७ ।

उत्क्षेपण (ऊपर फैकना) अवक्षेपण (नीचे फैकना) आकु श्वन (सकोड़ना) प्रसारण (फैलाना) और गमन ये(५) कर्महैं।

व्या-कर्म, क्रिया ( 4 ctu0u) को कहते हैं । यह प्रत्यक्ष सिद्ध है।(कर्म द्रव्य में ही रहता है, गुण में नही। जब घोड़ा द्वैौड़ना है, तो वह कर्म घोड़े में हुआ है, उस के रंग में कोई कर्म नहीं हुआ । यदि रंग में भी अलग कर्म होता, तो रंग घोड़े से अलग भी हो जाता, वा वेग की दौड़ में कभी न कभी कुछ आगे पीछे होता। ये कर्म पांच ही प्रकार के हैं, उत्क्षेपण, अव क्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन ।

भक्ष-कर्म तो और भी वहुत हैं, जैसे हिलना, डोलना, घूमना, फिरना, वहना, जलना, उड़ना, इत्यादि ।

उत्तर-सवकये कर्म हीं गातविशेष है, इस लिए गमन के

अन्तर्गत हैं, अलग नहीं ।

१९
अ. १ आ. १ सू. ८

• प्रश्न-इम प्रकार तो उत्क्षेपण आदि भी गतिविशेष होने से गमनं के अन्तर्गन हो मकते हैं, फिर ये भी अलग क्थों कहे ।

उत्तर-हो तो सकते हैं, किन्तु लोक में गमन का प्रयोग वहीं होता है, जहां वस्तु में अपनी गाति प्रतीत हो । उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन और प्रसारण वलात कराए गए प्रतीत होते हैं, इसलिए ये गमन से भिन्न प्रकार के कर्ममतीत होते हैं। इसी दृष्टि भे ये अलण को हें, अतएव वलात् चालन की दृष्टि को छोड कर जब केवल उन के चलन पर दृष्टि होगी, तो-उन का चलम गतिरूप में भीत होता हुआ गगन के है। अन्तर्गत होगा !

संगति-द्रव्य गुण कर्म का विभाग दिखला कर, उन के सांझे धर्मे दिखलाते है ।

' सदनित्यं द्रव्यवत् कार्यं कारणं सामान्यविशेष वदिति द्रव्यगुणकर्मणा मविशेषः । ८ ।

--मृत्, अनित्य, द्रव्य. वाला, कार्य, कारण, सामान्यविशेप वाला, यह (वात) द्रव्य गुण और कर्म में एक जैसी है ।

' व्याव-द्रव्य गुण कर्म तीनो सतू हैं, अपनी २ सत्ता, कार्य करने का सागथ्र्य, रखते हैं.। अनित्प भी हैं, अर्थात् नाशवान् हैं, जो उत्पन्न हुआ है, वह अवश्य एक दिन नाश होगा, लोक लोकान्तर, और उन में उत्पन्न द्रव्यों (वस्तुओं ) का नाश होता रहता है, जब द्रव्य नाश होते हैं, नो उन के गुण भी नाश होते हैं, और कर्म तो इरएक द्रव्य के स्थिति काल में ही कई उत्पन्न

होते और नष्ट होते हैं ।

२०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन । प्रश्न-परमाणु आदि तो नित्य हैं, नाशवान् नहीं, और जल आदि के परमाणुओं में जो रूप रस आदि गुण हैं, वे भी नाशवान् नही, नित्य हैं, तप नाशावान् यह सारे द्रव्यों और गुणो का सांझा धर्म कैसे हुआ ।

उत्तर-यहां यह आभिमाय नहीं, कि हरएक द्रव्य और हर एक गुण का यह धर्म है। अभिप्राय यह है, कि यह धर्म नाश) द्रव्यों में भी पाया जाता है,गुणों मे भी पाया जाता है।द्रव्य,गुण, कर्म में से किसी एक का विशेष धर्म नहीं,किन्तु तनों का आविशेष धर्म है। साधम्र्य निरूपण में सर्वत्र यही अभिप्राय है। यह दूसरी वात है, कि वह सव में पाया जाए, वा कुछ में पाया जाए। जैसे पूर्वोक्त सत्ता घर्म तो सारे द्रव्यों सारे गुणों और सारे ही कमों में पाया जाता है। पर यह नाश (धर्म) उन्हीं द्रव्यों और उन्हीं गुणों में पाया जाता है, जो उत्पत्ति वाले हैं, पर पाया तो जाता है, द्रव्यों में भी और गुणों में भी, हां कर्म सब के सव उत्पत्ति वाले ही होते हैं, इस लिए कम में-सभी में-पाया जाता है । इसी तरह आगे भी जानना ।

द्रव्यव-द्रव्यं विद्यते आधारतया यस्य, तत् द्रव्यवव । द्रव्य वाला, अर्थात द्रव्य के सहारे पर स्थित । परमाणु आदि नित्य द्रव्यों से अतिरिक्त शेष सभी द्रव्य अपने कारण द्रव्य के सहारे पर रहते हैं, गुण सारे और कर्म भी सारे द्रव्य के सहारें रहते हैं।

कार्य, उत्पत्ति वाले ।'अनित्य द्रव्य सभी उत्पत्ति वाले हैं, उन के गुण भी उत्पत्ति वाले हैं, और कर्म सभी उत्पत्ति वाले हैं।

२०

२१
अ. १ आ. १ सू. ८

-कारंण-तीनों ही कारण भी हैं, इन में भे द्रव्य तो द्रव्य गुण कर्म तीनों का कारण है, अपनेन गुणों के भी और अपने कर्मो के भी। गुण भी तीनों के. कारण होते हैं । तन्तु संयोग वस्त्र का कारण है, तन्तुरूप वस्त्र के रूप का कारण, और आघात (घका लगाने वाला संयोग) कर्म का कारण होता है।

सामान्यविशष वाले-द्रव्यत्व,जो सामान्यविशेष है, वहद्रव्यों में हैं, गुणत्व जो सामान्यविशेषहै.वहगुणों में है.और कर्मत्वजो सामान्य विशप है,वह कम में है;इस प्रकार तीन सामान्यविशेष वाले हैं।

संगति-पहले दो का साधम् वतलाते हैं।

द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधम्र्यम् ।९।

सजातीयों का आरम्भक होना द्रव्यों और गुणों का साधम्र्य है । '.'

द्रव्याणि द्रव्यान्तर मारभन्ते गुणाश्च गुणा न्तरम् ॥ १० ॥

(अर्थात) द्रव्य द्रव्यान्तर के, आरम्भक होते हैं, और गुण गुणान्तर के (जैसे तन्तु वस्त्र के और तन्तुओं का रूप वस्त्र के रूप का आरम्भक होता है) ।

संगति-उंच्क्त धर्म में कर्म का द्रव्य गुण से वैधम्र्य थतालाते हैं कर्म कर्मसाध्यं न विद्यते । ११॥

'.- कंर्म कर्म का कार्य नहीं होता । व्यां०-कर्म का 'आरम्भक कर्म नहीं होता, किन्तु संयोग

होता है।

२२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेापक-दर्शन । प्रश्-जहाँ शहतीर के साथ थोड़ी दृी पर कुछ गेंद लट का दिय जाएँ, उन में मे जब एक गेंद को परे खींच कर छोर्ड, तव वह दूसरे गेंद को टकरा कर हिला देगा, इसी प्रकार अगला २ अगळे २ को हिला देगा, वहां तो अगले २ गेंद्र का कर्म परले २ गेंद के कर्म का कार्य है ।

उत्तर-नहीं, वहां भां पद्दल गेंद का कर्म कारण नहीं, किन्तु आघात ( संयोग विशेष ) ही कारण है । पढले गेद के कर्मका कार्य तो दूसरेगेंद को आघात पहुंचाना है, अर्थात् दृसरे गेंद से संयोगविशेशप है, और वस । अव उस संयोग मे दूसरे गेंद में कर्म उत्पन्न हुआ, इस लिए वहां भी कर्म कर्म का कार्य नहीं, संयोग का ही कार्य है ।

संगति-द्रव्य गुण कर्म का आपस में वैधम्र्य बनलाते है न द्रव्यं कार्य कारणं च बधति ॥ १३॥

नहं द्रव्य कार्य को और कारण को नाश करता है । व्या०-तन्तु कारण हैं, वस्त्र कार्य है । इन दोनों में मे कोई भी दूसरे का विरोधी नहीं, न तो तन्तु वस्त्र के नाशक है, न वस्त तन्तुओं का नांशक है, किन्तु वस्त्र का जब नाश होगा.. या तो तन्तुओं के टूटने से होगा, या तन्तुओं का संयोग न रहने से होगा । इसी प्रकार द्रव्य का सर्वत्र या तो आश्रयनाश 'स या आरम्भक संयोग के नाश से ही नाश होगा, अपने कारण द्रव्य वा कार्य द्रव्य से कभी नहीं, सारांश यह कि कार्य

कारणभाव को प्राप्त हुए द्रव्यों में वध्यघातकभाव नहीं है ।

२३
अ. १ आ. १ सू. ८

अ'४'१ आ०'१ सू० १४ ॥

उभयथाएंणाः ॥१३॥

अर्थ-दोनों प्रकार से गुण (हैं) ।

या०-गुण ऐसे भी हैं, जो अपने कारणु के नाशक होते हैं, जैसे शब्द पहले संयोग वा विभाग से उत्पन्न होता है, फिर आगे शब्द मे शब्द उत्पन्न होता चला जाता है, और हर एक अगला २ शाब्द पहले २ शब्द (अपने कारण शब्द) का नाशक होता है। और जो अन्त्य शब्द है, उस का नाशक उपान्त्य '(अन्तले से पहला) शब्द । अर्थात् शब्दोत्पत्ति की परम्परा हैं

में जो अन्तिम शब्द है, जिससे आगे शब्द वन्द हो जाता है, उसका नाशक और तो शब्द कोई होना नहीं, इसलिए उससे 'पंहला शब्द ही उसका नाशक हैं ।

कार्यविरोधि कर्म ॥१४॥

अर्थ-'कार्य विरोधि यस्य तत् कार्य विरोधि' कार्य जिसका नाशक है, ऐसा कर्म है ।

व्या०-स्थिर वस्तु जहां है, कर्म होते ही उससे आगे चली जाती है, पहलेस्थान से उसां विभाग और अगले से संयोग हो जाताहै.इसी को उत्तरदेशसंयोग कहते हैं,इसके होते ही कर्मनाशा हो जाता है। इस भकार हरएंक कर्म का कार्य उत्तरदेश संयोग

कारण गुण-अपने कार्य गुण का नाशक होता है, इसका स्पष्टीकरण रत्रकारने तो कही नही किया । व्याख्याकारो ने ‘उपा न्य शव्द अन्त्य का नाशक होता है’ यही एक उदाहरण माना है।

- तदनुसार लिख दियां है । ।

२४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

होता है, और उत्तरदेशसंयोग ही कर्म का नाशक है।

संगति-लक्षण भी असाधारण धर्म ही होता है, इसलिए तीनों के वैधम्र्य के प्रसंग में क्रमश: तीनों के लक्षण वतलाते हैं

क्रियागुणवत् समवायिकारण मिति द्रव्य लक्षणम् ॥१५॥

क्रिया और गुण वाला, और समवायिकारण,. यह द्रव्य का लक्षण है।

व्या०-क्रिया और गुण द्रव्यों में ही होते हैं, गुण और कर्म में नहीं, यद्यपि क्रिया काल आदि में नहीं होती, तथापि क्रिया होती द्रव्यों मे ही है, यह अभिप्राय है । और गुण तां सभी द्रव्यों में होत हैं । समवायिकारण भी सभी द्रव्य होते हैं। समवायिकारण उसको कहते हैं, जिस में कार्य समवाय सम्वन्ध से रहे । उत्पत्ति वाले गुण कर्म तो जिस द्रव्य के गुण कर्म हैं, उम में समवाय से रहते हैं, वही उन का समवायिकारण होता है, और कार्यद्रव्य अपने कारण द्रव्यो में समवाय से रहता है, वही उसका समवायिकारण होते हैं।

द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोग विभाग योर्नकार णमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्॥१६॥ अर्थ-(द्रव्याश्रयी ) सदा द्रव्य के आश्रय रहने वाला, ( अ-गुणवान् ) गुणवाला न हो, (संयोगविभागयोः) योग और विभाग मे (नकाःप्) कारण न हो । (अनपेक्षः) अन"

पेक्ष हो कर ( इति गुणलक्षणम्) यह गुण का लक्षण है।

२५
अ. १ आ. १ सू. ८

या०-गुण का स्वभाव पहहै, कि वह कमी द्ररूप से स्वतन्त्र ही कर नहीं रहता, सदा द्रव्य के आश्रय ही रहता है, और दूसरा-अपने अन्दर कोई और गुण नहीं रखता, पह तो इस की द्रव्य से विलक्षणता है। कर्म से विलक्षणता यह है, कि कर्म संयोग विभाग में अनपेक्ष कारण होता है, जैसा कि अगले सूत्र में दिखलाएंगे और गुण सैयोग विभाग में अनपेक्ष कारण नहीं होता ।

णमिति कर्म,लक्षणम् ॥१७॥

एकं द्रव्य (में होने) वाला, गुण से शून्य, सैयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण हो, यझे कर्म का चक्षण है । । व्या०-अवयवी द्रव्य अपने सारे अवयवों के आश्रय रहता है, संयोगादि गुण भी अनेक द्रव्यों के आश्रय रहते हैं, पर कर्म हरएक एक ही द्रव्य के आश्रय रहता है। घग्घी जब दौड़ी जतिा.हो, तो बग्घी में अपना कर्म अठा होता है, और सवारों में


  • शैकर मिश्र ने 'संयोगविभागेषु' पाठ पढ़ा है । पर यह

बहुवचन निरर्थक है।मुदित पुस्तकों में इसी के अनुखारी पाठरक्खा है, किन्तु पाठान्तर ‘संयोगविभागयोः' दिया है। न्याय मुक्तावली ौर वित्सुखी में यह सूत्र उधृत किया गया है, वहां ‘संयोगवि भागयोः' ही पाठ पढ़ा है । इसलिए यही पाठ शुद्ध है । इसी के अनुसार पूर्वसूत्र में भी ‘संयोगविभागेष्व कारण मनपेक्षः’ इस मुद्रित पाठं के स्थान 'संयोगविभागयोनैकारणमनपेक्षः पाठ इी

शु है, जो इस्तलिखित पुस्तकों में मिला है ।

२६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन अलग अपना होता है। अतएव यदिदौड़ती हुई वधी एकदम अट्ट कर रुक जाए, तो सवार आगे जापड़त हैं । यह द्रव्य गुण से कर्म में विलक्षणता है।

'गुण शून्य' यह द्रव्य से विलक्षणता है।

‘संयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण’ वस्तु को पहले उसका विभाग और दूसरे से संयोग उत्पन्न करता है । इस प्रकार कर्म संयोग और विधाग का कारण है।

“मश्क्ष-जब हाथ का सयाग पुस्तक क"साथ हुआ, ता उस संयोग से शारीर और पुस्तक का संयोग होगया अर्थात हस्त पुस्तक का संयोग शारीरपुस्तक के सैयोग का कारण हुआ । इसी प्रकार हस्तपुस्तक के विभाग से शरीरपुस्तक का विभाग हुआ अर्थात् हस्तपुस्तकविभाग शरीरपुस्तक के विभाग , का कारण हुआ । इस प्रकार संयोग और विभाग का कारण निरा कर्म ही नहीं, संयोग और विभाग भी हैं, तब पह कर्म का लक्षण कैसे हुआ ?

उत्तर-हाथभेकर्म होकर हाथ और पुस्तक का जो संयोग हुआ है, यहं तो कर्म से विनाकिसी की अपेक्षा केहुआ,पर आगे हाथ और पुस्तक के संपोग से जो शरीर पुस्तक का संयोगहुआ है, वह अगागिभाव की अपेक्षा से हुआ है। यदि हाथ शरीर का भंग न होता, तो बिना कर्म के उनका संयोग न होता । इस प्रकार क तो स्वजन्य संयोग का अनपेक्ष कारण है, और संयोग स्वलन्य का सापेक्ष कारण हैं । इसी प्रकार हाथ के कर्म

संयोग

२७
अ. १ आ. १ सू. ८

से इस्तपुस्तक काजो विभागहुआ. उस में कर्म अनपेक्ष कारण है भौर मागे हस्तपुस्तक के विभाग से जो शारीरपुस्तक का विभाग हुआ, उस में इंथ का विभाग अंगांगीभाव की अपेक्षा से शरीर के दिमाग का . कारण हुआ है। पह,भेद है, इस लिए लक्षण्णू. में अनपेक्ष कारण कहा है।

सैगतेि-फारणता में साघम्यैवैधम्र्य दिखलाते है।

द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यैकारणं सामान्यम् ॥१८॥

द्रव्य, गुण और कमेका द्रव्य सांद्रा कारण हैं ।

आगे वस्त्र में जो रूप और कर्म हैं, उनका कारण वस्त्र है। इसी प्रकार सर्वत्र-द्रव्यगुण कर्म-फा-समवायि कारणद्रव्य-ही होता है।

., वैसे गुण (द्रव्यगुण कर्म के कारण होते हैं) व्या9-तन्तुओं का संयोग'(गुण) वस्त्र का, तन्तुओं का संयोगविभागवेगानां कर्म समानम् ॥२०॥

संयोग विभाग वेगका कर्म सांझा (कारण है) । ।

, व्या०-तोप के गेले में जो कर्प है, वह , पहले स्थान सै

विभाग. और अगले से संयोग उत्पन्न करता है, और गोछे में ३ग उत्पन्न करता है । न द्रव्याणां कर्म ॥२१॥

नहीं ऋध्य का कर्म (कारण)

२८
'वैशेषिक-दर्शन ।

व्यतिरेकात् ॥२२॥

हट जाने से

ज्या०-हरएक द्रव्य की उत्पत्रि, से पूर्व कर्म होती अवश्य है, पर कर्म भारम्भक संयोग को उत्पन्न करके निष्ठत् हो नाता है, और द्रव्य प्रारम्भक संयोग के पीछे उत्पन्न होता है सो कर्म जंब अपना कार्य (संयोग) करके हट जाता है, तब द्रव्य उत्पन्न होता है, इसलिए कर्म द्रव्य का कारण नई, किन्तु संयोग है, हां संयोग का कारण कर्म है ।

सैगति-कारणता में साधम्र्य दिखळा कर कार्यता में दिखलाते हैं।

द्रव्याणां द्रव्यै कार्ये सामान्यम् ॥२३॥

द्रव्यों का द्रव्प सांझा कार्य होता है।

व्या-बहुत सी तन्तुओं का सांझा कार्य एक वस्त्र होता है। इस प्रकार अवपष बहुत से वा न्यूनसे न्यून दो ही मिलकर नवा कायै खत्पन्न करते हैं। अकेले अवयद से नवा कार्प इत्पन्न नहीं होता ।

प्रक्ष-एक ही वी तन्तु को बहुत से फर देकर तागा बना सकते हैं ?

उत्तर-घहां भी इस तन्तु के मवपव बहुत से हैं, और तागा उमके अवयवों से बना है, न कि सन्तु से, अतएव अव वह तन्तु नहीं रही ।

गुणवैधम्र्यान्न कर्मणां कर्म ॥२४॥

गुणों से दैवम्प होने से का

कमों कर्म ( पार्य ) नहीं ।

२९
अ. १ आ. १ सू. ८
  • अ० १. श्रा० १ सू० २८

व्या-शुण तो सजाति के भारम्मक होते हैं, इसलिए तन्तु के खूप का कार्य वस्त्र का रूप होता है, पर कर्म सजातीया ' रम्भक होता नहीं (देखो सू० ११) इस लिए धन्तु के कर्म से

. सै०-द्रम्यधत्तू कई गुण भी अनेक द्रव्यों का कार्य हैं। -

द्धित्वप्रभृतयः संख्याः पृथक्व संयोग विभा गाश्च ॥२५॥

ज्या०-ो आदि संख्या पृथक्क (अळगपन) संयोग, और विभाग भी (अनेक द्रव्यों का साँझा कार्य हैं) ।

ध्या-द्वित्व संख्या अकळे में नहीं होती, न ही अकेले में पृथक् संयोग और विभाग रहते हैं ।

सं०-पर फर्म ऐसा कोई नहीं दीता, यह घतलाते हैं

असमवायात् सामान्यकायै कर्म न विद्यते ॥२६॥

। असमवाय से सांझा कार्य कर्म नहीं होता है।

व्या०-पर फर्म एक अनेकों में समवेत नहीं होसा, हर एक में अपना अलग २ कर्म होता है (देखो पू० ० १७) इसलिए कर्म अनेक द्रष्यों का साझा कार्य नहीं होता है।

संयोगानां द्रव्यम् |२७॥

सैयोगों का द्रव्य (सांझा लार्य होता है) ।

व्या०-वहुत से तन्तुसैोगों का स्वरूप एक कार्य होता है । । रूपाणां रूपय् ॥२८॥

द्रव्य

३०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन

रूपों का प (सांझा कार्य है) ।

उपा०-वस्त्र का रूप मारे तन्तुरूपों का एक सांझा कार्य होता है। इसी प्रकार रस गन्ध आदि ।

गुरुत्व प्रयत संयोगाना मुत्क्षेपणम् ॥२९॥

गुरुत्व, प्रयत्र और संयोग का उत्क्षेपण (साँझा कार्य है) ।

व्या०-ऊपर फेंकने में ये कारण हुआ करते हैं-फंक्री जाने वाली वस्तु का गुरुत्व, फेंकने वाळे का प्रयपत्र, और हाथ का सैयोग । सो उत्क्षेपण इन तीनों का सांझा कार्य है । इसी प्रकार अवक्षेपणादि ।

संयोग विभागाश्च कर्मणाम् ॥३०॥

संयोग और विभाग कमों के (सांझे कार्य हैं) ।

व्या०-एक ही कर्म पूर्व देश से विभाग और उत्तरं देशा से संयोग उत्पन्न करता है ।

कारण सामान्ये द्रव्य कर्मणां कर्मकारण मुक्तम्॥३१॥

फारण सामान्य में द्रष्य और कर्मो का कर्म भकारण कहा है ।

ध्या०-पूर्व कारण सामान्यमकरण-(सू० १८) में कर्म को द्रष्प और कर्म का अकारण कह चुके हैं (देखो सू० २१, २४) इसलिए कर्म केवळ गुणों का ही कारण होता है ॥

प्रथम अध्याय, द्वितीय आाद्विक ।

स•-पहळे आन्द्रिफमें कार्यफारणमाय से द्रव्यगुणकर्म का साधम्ये धेघग्यै दिखलाया है, जय उस कार्यकारणभाव के नियम दिखाते -

कारण के अभाव से फार्क का भभाव (दोता है) ।

३१
अ. १ आ. १ सू. ८

ननु कार्याभावात् कारणाभावः ॥२॥

पर कार्य के अभाव से कारण का अभाव नहीं होता।

ध्पा०-जो दृष्टि आदि का कदाचैिव होना है, यह विना कारण के नीं घट सकता, अन्यथा सदा ही होती रहती, अथवा सदैव न होती, न कि कदाचित होती। इसरे सिद्ध है, कि कादाचित्क वस्तुएँ का होती हैं, और कार्य किसी कारण मेtी होता है, इसलिए इस विश्व में कार्यकारणभाव है ।

उस

१--कार्य विना कारण के नहीं होता। उदाहरण-मेघ न डो, तो दृष्टि.कभी नहीं होगी, वीज न हो, तो अंकुर कभी नहीं होगा । ।

२-कार्ण विना:कार्य-के-भी होता है-उदाहरण-मेप वेिन वरसे भी होता है. बीज विन-अंकुर भी होता है ।

-. :,

३--हरएक 'कार्य अपेनी कारणसामग्री से होता है, अकळे कारण से नहीं । उदाहरण-वस्र; तन्तु, ताने वाने के रूप में तन्तुओं केःसंयोगं, जुलाहे और तुरी आदि से होता है। इन में से अकेली -तन्तुएं एा अकेला जुलाहा वा अकेली तुरी वस्त्रको उत्पन्न नहीं कर सकते। सारे मिल कर ही करते हैं, अतएव सव

--४-कारणसामग्री के मिलने पर कार्य अवश्यमेव' होता है । उदाहरण-तन्तुएं जुलाहा, तुरी आदि और तन्तुओं का

तान चाने के रूप में मेल, इस कारणसामग्री के जुटने पर हो

३२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन

कारण तीन मंकार का है-समवायि, असमवायि; निमित्त इनका भेद जानने के लिए वस्र की उत्पत्ति की ओर दृष्टि डालो, कि तन्तु, जुलाहे, कंधी और नालियों ने वस्र के बनाने में क्या २ काम किया है।

तन्तुमा स थख पना छ, तन्तुए समवापकारण ६ ॥

तन्तुओं से बना तव है, जब ये धात मोत हो गई हैं, इसलिए यह ओोत मोत रूप में संयोगविशेष वस्त्र का असमवायिकारण है । जुलाहे, कंधी और नालियोंने यह संयोग कराया है, इसलिए वे निमित्त कारण हैं। इस प्रकार द्रव्य की उत्पत्ति में सर्वत्र अवयव समवाथिकारण, अवयवसंयोग असमवायिकारण, और सैयोग करने वाळे जुलाहे कंधी आदि निमित्त कारण होते हैं। इसादि ।

संगति-प्रसंगागत कार्यकारणभाव का निरूपण कर कम सामान्यै विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ॥३॥

सामान्य और विशेष पे (दोनों बुद्धि की अपेक्षा से हैं।

या०-द्रव्य गुण कर्म ये तीन पदार्थे इस विश्व की सारी घटनाओं के कारण हैं, अतएवयेही तीन अर्थ कहलाते हैं। अगले तीन सामान्य विशेष और समषाय पदार्थही कहलाते हैं अर्थ नहीं। हमारी प्रतीति और व्यवहार उनका अस्तित्व तो सिद्ध करता है. पर विश्व की रचना में वह अपनी कोई सत्ता नहीं दिखलाते । उनमें से पहले सामान्य और विशेष का निरूपण करते हैं।

इस विश्व की सारी वस्तुएं आपस में भिन्न २ हैं, पर इस

भद के होते हुए भी हम वस्तुओं में ऐसी समानता भी पाते हैं,

३३
अ. १ आ. १ सू. ८

जिससे वे सव' आपस में तो एक ही प्रकार की प्रतीत होती हैं, और दूसरी वस्तुओं से भिन्न प्रकार की । जैसे सारी गौओं में कोई ऐसी संमानता है, जिससें गैौएँ सब एक प्रकार की प्रतीत होती हैं, और घोड़ा वृक्ष आदि से भिन्न प्रकार की प्रतीत होती हैं। इस सामनता को सामान्य वा जाति कहते हैं। इसी प्रकार घोड़ो, षकरी, भैस आदि की जातियां हैं । ऐसे सामान्य धर्म (जाति) के जितलाने के लिए शब्द के आगे संस्कृतं में ‘व' 'और भाषा में ‘पनं' लगाया जाता है। जैसे ‘गोत्व' चा गोपन । अर्थात् सारी गौओं का वह 'समान धर्म, जिससे उन सव में 'गौ' यह एकांकारमितीति और व्यवहार होते हैं ।

अब गोत्व संरीि गौओं का 'तो समानधर्म भी है, और विशेषधर्म भी है। क्योंकि यह घर्म जो सारी गौओं में ‘गौगौ) ऐसी. एकाकार प्रतीति कराता है, यही' धर्मघोडेभेड़ बकरी मनुष्यं पक्षी आदि से गओिं का भेद भी जितलता है, इसलिए यह विशेषधर्म भी है । ये सामान्य विशेष बुद्धि की अपेक्षा से होते हैं। एक दृष्टि से यह सायान्य धर्म है, दूसरी दृष्टि से ही' । धर्म (गोत्व) विशेष धर्म है। इस प्रकार 'सामान्य विशेोष बुद्धि की अपेक्षा से हैं।

, ' ' एक और मकार से भी सामान्य विशेष बुद्धि की अपेक्षा से हैं। मनुष्य की बुद्धि समानता और विशेषता' के जांचने में इतनी दूरतक पहुंचती है। कि जघ विशेषताजांचने लगती है, तो ' इरएक व्यक्ति की दूसरी व्यक्ति से विशेषता जान लेती है। गंवार

,

३४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिकदर्शन लेता है। और जब समानता की ओर झुकता है, तो पहले:सारी गो व्यक्तियों में समानता देखकर सबका एक नाम गौ रखता है। फिर, गौओं से ऊपर भट्ट वकरी भैस आदि में भी गौओं के साथ कोई समानता देखकर सवका एक नाम 'पशु' रखता. है । फिर इन पशुओं की भी किसी अशा में मनुष्य पक्षियों के साथ समानता देखकर सव का एक नाम प्राणा रखता है । फिर, प्राणियों. की अप्राणियों के साथ भी किसी अंशा में समा नता देखकर सब का एकनाम द्रव्य रखता है। फिर द्रव्य की भी गुण.कर्म के साथ किसी अंशा में समानता-देखकर एक नाम भाव रखता है। इस प्रकार समानता में भी उस सिरे तक पहुंच जाता है, जिस में सब वस्तुएँ आजाती हैं। जैसेस सव वस्तुओं को सद.कहते हैं, इसलिए सत्ता सव वस्तुओं में-सामान्य है ॥ का-हेतु है; और-विशेष वह घर्महै, जो व्यावृत्तबुद्धि का हेतु है। जैसे अपनी'गौ, की अलग, व्यक्ति, । सत्ता तो, सवः:में प्रतीत होती है, इसलिए सत्ता सामान्य-ही है। और गोत्व सारी गौओों, यें तो प्रतीत होता है, पर सारी वस्तुओं में भतीत नहीं होता, इसलिए गोत्व सामान्य भी है, और विशेष भी-हैं । इस तरह, सत्ता से भिन्न सारी जातियां सामान्य विशेष हैं। और अन्तिम व्यचियां निरी-विशेष हैं । इसी का अगळे स्वों में उप पादन करते हैं:

भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव ॥४॥ ,

३५
अ. १ आ. १ सू. ८
'व्या०-सव वंस्तुओं मेंमतीति की ‘स सत’. ऐसी-अनु

, टंक्ति से सत्ता-निरा सामान्य ही है, विशेष नहीं। और

द्रव्यत्वगुणत्वैकर्मत्वंचवसामान्यानिविशेषाश्च ॥५॥

द्रव्यत्व, गुणत्, कर्मत्व, सामान्य भी हैं, विशेष भी हैं ।

व्यां०-द्रव्यत्व द्रव्यों में अनुष्टस्त बुद्धि का हेतु होने से |मान्प है और द्रव्याभेन्नों से व्याछत्त बुद्धि का हेतु इोने से विशेष भीडै; तथा द्रव्यत्व,पृथिवीत्व आदि जातियों की अपेक्षा से सामान्य है, और सत्ता की अपेक्षा से विशाप है । इसी प्रकार गुणत्व'कर्मत्व'भी सामान्य भी हैं, और विशेष भी*६, इसी प्रकार भागे पृथिवीत्व घटत्व आदि सारे धर्म सामान्प भी हैं, और विशेष भी हैं ।

अन्यत्रान्त्येभ्यो विशेषभ्यः ॥६॥

अन्त में होने वाले विशेषों से अतिरिक्त (सव सामान्य विशेष हैं) । .' ' । '. उपा०-अलग २'व्यक्तियों में जो विशेष घर्म हैं, वह सामान्य नहीं, विशप ही हैं।

इस प्रकार.इस सारे विश्व के एक अर्थ में भेद भी है, औरं'समानता भी है ।

स्त्रकार क्रे यत में सामान्य विशेषं और समवाप पद्यापि

पदार्थ हैं, हमारा समझने समझाने का व्यवहार इनके विना नहीं चल सकता, पर ये अर्थ नहीं। इस विश्व में जो उत्पत्ति विनाश और परिवर्तन होरहे हैं, उनमें ये कोई भाग नहीं ले रहे । इम अभिप्राय को लक्ष्य में रख कर सूत्रों का सीधा भाद्रां हम ने

दिया है । किन्तु ब्याख्याकारों ने विशेष एक वतन्त्र पदार्थ

३६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन

सिद्ध करने के लिए इस मकार व्याख्या की है, कि सामान्य विशष जो जातेयां हैं, ये जातंयां उन विशष पदार्थों से अलग हैं, जो विशेष पदार्थ अन्त में अर्थात् निस द्रव्यों में रहते हैं । आशाप यह हैं, कि वहूत सी व्यक्तियों में जो एकाकार बुद्धि होती है, उसका हेतु उन सब व्यक्तियों में कोई एक पदार्थ अवश्य छै, झही जाते है। अव जो भेद बुद्धि होती है उमका हेतु भी कोई अवश्य होना चाहिये । गौ का घोड़े से भेद कराने वाली सो गोत्व जाति बन सकती है । और एक गौ का दूसरी गौ से भेद कराने वाली उसकी विलक्षण आकृति वन जाती है। और जहां जाति और आकृतिदोनों नहीं, जैसे परमाणु, उनमें भेद कराने वाले उनके गुण हो सङ्कते हैं । परं जहां गुण भी भेदक न हों। जैसे पृथिली के दो परमाणु, उनमें भेद कराने वाला कौन है ? और भेद उनमें भी प्रतीत होता है, इसलिए वहां भी भेद बुद्धि क्षा हेतु अवश्प कोई पदार्थ है, वह उसळी विशेप है । वह निर द्रव्यों में रहता है । अव याद च सब में एक हो, तो फिर भी भेद न करा सके. इमलिए बड एक २ द्रव्य में अळग २ रहता है, और परमाणु अनन्त हैं, इसलिए वे विशेष भी अनन्त हैं। ऐसे विशेष का प्रतिपादन ‘अन्यत्रान्त्येभ्यो विशेषेभ्यः' इस सूत्र में हैं ।

अव पह प्रश्न, कि उन विशेषों का भी तो आपस में भेद है, उस भेद का कराने वाला कौन है, इसका उत्तर यह दिया जाता है, कि वे तो हें ही विशेष, अतएव द्वे खतः च्याछत्त (स्वभावतः भिन्न) हैं । इस प्रकार व्याख्याकारों ने एक विशेष

पदार्थ की स्थापना की है। फिर नवीनों ने इस पर यह भाक्षेप

३७
अ. १ आ. १ सू. ८

करके खण्डन कर दिया है, कि पाद विशेषविना दूसरे विशेषों के स्वतः व्याछत्त माने जा सकते हैं, तो.निख द्रव्यों को ही . स्वतः ज्यादृत् मान.ळेने में क्या बाधा है, इसलिए विशेष कोई अलग पदार्थ नहीं है।

संगति-पूर्वोक्त सत्ता आदि का उपपाट्न करते हैं

', सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सासत्ता ॥७॥

...). ‘सत्’ यह जिससे द्रव्यगुणकर्म में होते हैं, वह सत्ता है । .' व्या०-द्रव्यगुणकर्म में ‘सत्, स' अर्थात् द्रव्यसत् है, गुण सत् है, कर्म सत् है, ऐसी प्रतीति और व्यवहार जिससे होते हैं, वह धर्म टन में सत्ता है ।

. , द्रव्यगुणकर्मभ्यो ऽर्थान्तरं सत्ता ॥८॥

द्रव्यगुण कर्ग से अलंग-पदार्थ हें सत्तां (थादे इन में से कोई एक पदार्थ होती, तो -सब में संद सव मतीति न होती)।

' गुणकर्मसु च भावात् न कर्म न गुणः ॥९॥

। तथा गुणों और कर्मों में होने से ‘ (सत्ता) न कर्मे हैं, न गुण है (क्योंकि गुणों और कम में गुणक नहीं रहते, वे द्रव्यू 'के आश्रथ ही रहते हैं, गुणों और कमों में पाईजाने से द्रव्य तो मुतरां ही नहीं, द्रव्य तो गुण कर्म का आधार होता है, आषय नहीं)

व्या०-यदि सत्ता द्रव्यगुण कर्म से . भिन्न न होती, तो

३८
'वैशेषिक-दर्शन ।

जैसे द्रव्य गुण कर्म की कई जातियां (सामान्य विशेप) हैं, वैसे सत्ता की भी जातियां प्रतीत होतीं, पर मत्ता मव की सांझी एक जाति प्रतीत होती है, इसलिए सत्ता द्रष्प गुण कर्म से भिन्न पदार्थ है । इसी प्रकार

अनेक द्रव्यवत्वेन द्रव्यत्वमुक्तम् ॥११॥

अनेक द्रव्यों वाला होने से द्रव्यत्व कहागया ।

या०-सारे द्रव्यों में ‘द्रव्य, द्रव्य’ ऐसी अनुगत मतीति का हेतु होनेसे द्रव्यत्व भी (सत्तावत्) व्याख्पातजानना चाहिये । सामान्यविशेषाभावेन च ॥१२॥

सामान्य विशेष के अभाव से भी है ।

व्या०-पादे द्रव्यत्व द्रव्य रूप ही होता, तो द्रव्य की नाई उस में भी द्रव्ष की अवान्तर जातियां (पृथिवीत्व, जळत्व, आदि) प्रतीत होतीं । ।

गुणेषु भावाद् गुणत्वमुक्तम् ॥१३॥

(सारे) गुणे में होने से गुणत्व (सत्ता की नाई अलग ) कहा गया है । सामान्यविशेषाभावेन च ॥१४॥ सामान्य विशेष के अभाव से भी।

व्या०-गुणत्व में गुण की अवान्तर जातियों (रूपत्व, रसत्व आदि) के अभाव से गुणत्व गुण से भिन्न पदार्थ है। कर्मसु भावात् कर्मत्वमुक्तम् ॥१५॥

कांमों में होने से (कर्म से भन्नग) कर्मत्व कहागया है।

३९
अ. १ आ. १ सू. ८

सामान्यविशेषाभावेनच॥१६॥

सामान्य विशेष के अभावासे भी (कर्मत्व कर्म से अलग है) सैगति-जातियों का ज्यक्तियों से भद् साधन करके. सत्ता का एकत्व साधन करते है

सदिति लिंगाविशषाद् विशेषालिंगाभावा च्चै को भावः ॥१७॥

, :’ ‘सत्',यहचिन्ह (मतीति और व्यवहार ) तो (सद में) अविशेष है; और विशेष चिन्ह केोई है नहीं इस कारण सत्ता ए क है । .

ठया०-जद सब वस्तुओं में ‘संव, सद’ ‘ऐसी 'एकाकार ', प्रतीतिहोती,है, तो ऐसी भतीति कराने वाली सत्ता एक होनी

...इां एकाकार प्रतीतिं होने पर भी यदि कोई भेदक चिन्ह होता,तों एंक नं मानत, जैसें दपि शिखा के डेवी छोटी होते '. रहने से भेद माना जाता है.। पर 'संता. का',भेदक.ऐसा कोई इसींभकार द्रव्यत्व सारे द्रव्यों में,'गुणत्व"सारै गुणों में ' और कर्मत्व सारे कर्मों में एक हाँ हैं।

इति प्रथमोऽध्यायः ।

४०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिकदर्शन

द्वितीय अध्याय, प्रथम आन्हिक ।

सैगति-अव द्रव्यों के लक्षण करना चाहते हुए पहले पृथ्वी का लक्षण करते है ।

रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी ॥१॥

रूपरस गन्ध स्पर्श बाली है पृथिवी ।

व्या०-गुण दो प्रकार के हैं विशापगुण और सामान्य गुण । विशेष गुण वे हैं, जिनसे वस्तु की पहचान हो सकती है। लक्षणों में ये ही गुण वसलाए जाते हैं। वे ये हैं

चुद्धयादि भावनान्ताश्च शब्दो वैशेषिका गुणाः ॥

रूप रस गन्ध पानह साँसिद्धकद्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुख,. इच्छा द्वेष प्रयन्न, धर्म, अधर्मभावना और शब्द ये विशेष गुणहैं। इन से भिन्न सारे गुण सामान्य गुण हैं।

सो पृथिवी में रुप रस गन्ध स्पर्षी ये चार विशेष गुण हैं ) गन्ध तो है ही निरा पृथिवी में । रूप रस स्पर्श जल तेज वायु के भी गुण हैं, किन्तु पृथिवी के उनसे विलक्षण हैं। रूप इस में सातों मकार का है, रस छहों प्रकार का है, स्पर्श कठोर है । किञ्च पृथिवी के ये विशेष गुण पाकज (गर्मी से बदलजाने बाळे) हैं दूसरों के पाकज नहीं।

सं०-क्रम के अनुरोध से पृथिवी के अनन्तर जल का लक्षण ६७ रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः ॥२॥

(जक रूप रस स्पर्छ वाले हैं तथा द्रव (बहने वाले) और

४१
अ. १ आ. १ सू. ८

अ० २ आ० १ सू० ६

व्या-जऊ में गन्ध नहीं । जब कभी गन्ध की भीप्ति होती

है, तो वह पार्थिव अंशा के मेल से होती है स्वतः नहीं। रूप जल में शुछ ही है, और रस मधुर ही है। द्रवत्व और स्नेए ये दो गुण और हैं। द्रवत्व वह गुण है, जिस से जळ वहते हैं, और स्नेह वह है, जिस से धूली आदि को मिलाकर संग्रह कर सैगति-क्रम प्राप्त तैज का लक्षण कहते हैं

तेजो रूपस्पर्शवत् ॥३॥

(ज रूप और स्पर्शवाला है )

व्या०-तेजका रूप भास्वर शुझ है औरं स्पर्श उष्ण है। भास्वर= दूसरों का प्रकाशाक ।

वायु का विलक्षण अनुभवसिद्ध है ।

त आकाशे न विद्यन्ते ॥४॥

व्या०-आकाश में न रूप है, न रस है, न गन्धहै न स्पर्श है। सं-प रस गंग्ध स्पर्श के आधार दिखला कर जलों में कहे द्रवत्व की समानता अन्यत्र दिखलाते हैं।

सर्पिर्जतुमधूच्छिष्टानामनि संयोगाद् द्रवत्व

मद्भिः सामान्यम् ॥६॥

४२
'वैशेषिक-दर्शन ।

४२. वैशेषिक दर्शन

घी लाख और सित्थे का अप्ति के संयोग से द्रवत्व जलों के साथ सामान्य है।

व्या०-भेद यह है, कि जलों में सांसिद्धिक द्रवत्व है, और इन में नैमित्तिक है, क्योंकि अग्रि के संयोग से होता है अन्यथा नहीं । इसी प्रकार

त्रपुलीसलोहरजतसुवर्णाना ममिसंयोगंाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम् ॥७॥

रांगा सीसा लोहा चांदी सोनका शाग्रे के संयोग से द्रवत्व जलों के साथ सामान्य है।

व्या०-ररांगादि घातों का उपलक्षण है, तांबा कांसा आदि भी अशि के संयोग से पिघल जाते हैं। इनका भी द्रवत्व नैमित्तिक है, स्वाभाविक द्रवत्व जलों में ही है ।

सं०-‘स्पर्शवान् वायु' सूत्र से वायु फा लक्षण कहा, उसमें प्रेमाण अनुमान दिखलाने के लिए मनुमान की प्रमाणता दृढः करते हैं

विषाणी कुझान् प्रान्तेवालधिः सास्नावानिात गोत्वे दृष्ट लिंगम् ॥८॥

सगों वाला, कुहान चाला, लैवी सिरे पर बालों वाली पूंछ वाळा, और सास्ना वाला यह गोत्व में दृष्ट चिन्ह है।

व्या०-जिस चिन्ह से किसी वस्तु का अनुमान हो, उम चिन्ह को लिंग कहते हैं। अपने सींगों से, कुहान से, सिरे


  • गोत्व में चिन्हकहने से है, कि अनुमान

यह िजतलाया

से झामान्ब का ज्ञान होता है, विशेष का नहीं।

४३
अ. १ आ. १ सू. ८

पर बाजों वाली पुंछ से “और. सास्ना से, आंखों से छिपे हुए भी वैल का अनुमान होता है । वै के सींग करीहरिण भैस आदि से विलक्षण होते हैं, कुहान ऊँट से विलक्षण होता है । पूंछ के सिर पर बाकों का गुपछा भी गौ का भैस से विलक्षण होता है। अतएव इनको देखकर गौ का अनुमान होता है।

सं०-इस प्रकार लोक व्यवहार में मनुमान की प्रमाणता दिखला कर अनुमान से वायु की सिाद्ध करत है

', स्पशश्च वायोः ॥९॥

और स्पर्श,वायु का (लंग) है । ..

', , व्या०-चलते फिरते समय जो हमारेशारीर को स्पर्श अनुभव होता है, यह किसी द्रव्प के आश्रय है, क्योंकि गुण हैं । यदि वह द्रव्य पृथिवी जल वा तेज होता, तो रूप भी उसका.दृष्टि आता, पर रूप उस का -दृष्टि आता नहीं, , स्पी. ही अनुभव / होता है, इसलिए वह इन तीनों से विलक्षण कोई और ही द्रव्य है । वही वायु है ।

इसी प्रकार .शाखाओं के चलने से भी-वायु का अनुमान होता है, कि जैसे नदी के प्रवाह की टक्कर-से वैत की शाखाएँ हिलती हैं, ऐसे ही वृक्षों की शाखाएं, भी अवश्य किसी की टङ्कर से हिल रही हैं । दृक्षों की सां सा शाब्द से भी वायु का अनुमान होता है, क्योंकि शब्द भी टक्कर से होता है, जैसे घड्याल और ढोलका मान्द । तिनके आाद के आकाशा में उड़ने से भी वायु का अनुमान होता है, जैसे पानी पर नौका तैरती है, इसी प्रकार तिनके भी भाकाशा में अवश्य किसी भाई पर ही

तैरते फिरते हैं, वही चायु है।

४४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन

नच दृष्टानां स्पर्श इत्यदृष्टलिंगो वायुः ॥१०॥

(यह) स्पर्ष देखे हुए (द्रव्यों) का नहीं, इसलिए यह अदृष्ट लिङ्ग वाला वायु हैं ।

व्या०-लिङ्ग दो प्रकार का होता है, दृष्ट और अदृष्ट । जिस का साध्य श्री पहले. मयक्ष देखा हो, उसको दृष्ट, और जिस का साध्य न देखा हो, उसस्रो अदृष्ट कहते हैं। विलक्षण सींग बैल का इष्ट लिङ्ग हैं, क्योंकि विलक्षण सगों समेत बैख को भयक्ष देखा हुआ है। स्पर्श वायु का अष्ट लिङ्ग हैं क्योंकि अपने स्पर्श सवि वायु को कभी भक्ष नहीं देखा । इसलिए वायु अछष्ट किङ्ग वाला हैं ।

खै०-वायु को अलग तत्व सिञ्ज करके उसका.द्वन्य होना सिद्ध करते हैं।

द्रव्पवाला न होने से द्रव्ए हैं ।

च्पा०-वायु द्रव्यवाला नहीं, अर्थात् किसी अन्य द्रव्य के आश्रय नहीं, इसलिए स्वयं द्रव्य है । याद स्वयं द्रव्य न होता, तो किसी द्रव्य को आश्रय पर होता ।

क्रियावत्वाद् गुणवत्त्वाच ॥१२॥

क्रिया वाला होने से और गुणवाळा होने से (भी द्रव्य है) सं०-स्थूल घायु के साधक नित्य वायु की सिाद्धि करते हैं

द्रव्यत्वेन नित्यत्वमुक्तम् ॥१३॥

द्रव्य चाला न होने से निसता कही है । व्पा०-स्थूळ वायु का समवापेकारण सूक्ष्म वायु द्रव्ष

वाला नहीं भर्थव द्रव्य समबत नहीं, इससे उसकी नित्यता

४५
अ. १ आ. १ सू. ८

अ० २ 'आ० १ सू० १६

सिद्ध है। इसी प्रकार पृथिवी, जलं, तेज के मूल तत्वों की भी नियता सिद्ध है। ।

सं०-पृथिवी जल तेजशी नाई घायु की अनेक व्यक्तियां प्रत्यक्ष नहीं तव फ्या वायु एक ही व्यक्ति है,धा इस.फी भी मनेफ व्यक्तियाँ हैं, इस पर कहते हैं।

वायोर्वायु संमूर्छनं नानात्वलिङ्गम् ॥१४॥

ब्रायुअां का . गुथमगुत्था होना वायु के नाना होने का लिङ्ग है।

व्या०-चक्रवात , में जो धूळ तृण आदि ऊपर को चट्टते हैं, इस से सिद्ध हैं, कि वायु गुथमगुत्था हीं कर एक दूसरे को ऊपर फैक रहे हैं, उन्हीं के साथ धूल तृण आदि ऊपरे चट्टजात हैं, यदि एक ही वायु होता, तो धूल तृण आदि उसके सांध आगे को बढ़ते, नकि नीचे ऊपर दाएँ छाएँ घछे खाते । सैगति-(प्रश्न) वायु का स्पर्श प्रत्यक्ष है, तो फिर स्पर्श वायु का अदृष्ट लिंग कैसे हुआ, इस आशंका का उत्तर देते हैं

वायुसंन्निकर्षे प्रत्यक्षाभावाद् दृष्टं लिंगं न विद्यते ।॥१५॥

वायु के सम्बन्ध में मत्पक्ष न होने से दृष्ट लिङ्ग नहीं है ।

  • यद्यपि स्पर्श प्रत्यक्ष है पर वायु के लिङ्गः (चिन्ह) ।

के रूप में प्रत्यक्ष नहीं। क्योंकि वायु जो प्रत्यक्ष-नहीं।

(इसलिए स्पर्श अपने स्वरूप से तो मत्यक्ष ही है; पर वायु के लिङ्ग के रूप से प्रयक्ष नहीं। इसलिए स्पर्श वायु का दृष्ट

लिङ्ग नहीं ।

४६
'वैशेषिक-दर्शन ।

४६ वैशेषिक दर्शन

संगीत-तब वायु का अनुमान ही कैसे हुआ, इसका उत्तर देते हैं:-

सामान्यतो दृष्टाचाविशेषः ॥१६॥

सामान्पतोष्ट से अविशेष (सिद्ध होता है)

व्या०-यद्यपि विलक्षण स्पर्श और वायु में विशेषरूप से ब्पाप्ति ग्रह (लिङ्गलिङ्गी भाव का दर्शन) नहीं हुआ, तथापि सामान्य रूप से व्याप्ति ग्रह तो है, कि गुण किसी द्रव्ष के आश्रय रहा है, और रुपर्श गुण छै, इस का आश्रय भी कोई द्रव्य अवश्य है । सो विशेषतोदृष्टलिङ्ग होता, तो लिङ्गी की विशेष रूप से सिद्धि होती। जैसे विलक्षण सग गौ के साथ विशेषतोष्ट है, इसलिए उससे गौ इस विशेष रूप में साध्य सिद्धि ऐोती है, पर स्पर्श सामान्यतोदृष्ट है, इसलिए इस से वायु इस विशेोपरुप में साध्य की सिद्धि नहीं किन्तु स्पर्श का आश्रय कोई द्रव्य है, इस सामान्य रूप में सिद्धि होती है। संगति--यदि वायुत्वेन अनुमान नहीं होता, तो उसकी वायु संशा में क्या प्रमाण है, इसका उत्तर देते हैं

तस्मादा गमिकम् ॥१७॥

इस से आगम सिद्ध है ।

व्या-जिस लिए वायुरूप से वायु की अनुमिति नहीं हुई, इसलिए वायु यह नाम आगम सिद्ध है, आनुपानिक नई ।

संज्ञाकर्म त्वस्माद्विशिष्टानां लिंगम् ॥१८॥

सैज्ञा कर्म हम से वड़ों का चिन्ह है।

प्रत्यक्षप्रवृत्तत्वत् सैज्ञाकर्मणः ॥१९॥ "

४७
अ. १ आ. १ सू. ८

क्योंकि संज्ञा कर्म प्रत्यक्ष से भदृत्त होता है ।

; .

व्या-यद्द'नियम नहीं है, की संज्ञा कर्म प्राप्त से ही प्रकृत्त होता हो, तथापि जिस को. प्रत्यक्षसदृशा निश्चयात्मक अनुभव होता है, वहीं संज्ञा करने में मदृश होता है। अतएव इस विलक्षण स्पर्श वाळे द्रव्य का वायु यह विशेष नाम, जो उसके मुख्य धर्म का भातिपादक है, यह हम से व का चिन्ह है ।

इन दोनों सूत्रों को शैकरमिश्र और जयनारायण ने ईश्वरसिद्धि पर कलगाया है, पर ‘अस्म द्विशिष्टानां’ इस बहुवचन के स्वारस्य से मुनिका अभिप्रेत अर्थ यहीं निश्चित मतीत होता है। --

संगति-अब क्रमप्राप्त आकाश का प्रकरण आरम्भ करते दुए जाकाश की सिद्धि में पहले एक देशिमत दिखलाते हैं

निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाश स्य लिंगम्॥२०॥

, • निकळना और प्रवेशा करना यह आकाशा कां लिङ्ग (है) व्या-विना अवकाशा के किसी द्रव्य का निकलना और प्रवेवा.करना नहीं बनसकता, इस से सिद्ध है, कि निकलने और प्रवेश करन में अवकाशा देने वाला द्रव्य कोई अंवश्य है, वहीं भाकावा है ।

संगति-इस एकदोशिमतं में त्रुटि दिखलाते है |

तंद लिंगमेकद्रव्यत्वात् कर्मणः ॥२१॥

वह अलिङ्ग है, क्योंकि कर्म एकके आश्रय होता है । .. व्या-निष्क्रमण और भवेन आकाशा काळिङ्ग वन नहीं सकता । क्योंकि निष्क्रमण और प्रवेशान को कार्य मान, कार्य . • ४७

४८
'वैशेषिक-दर्शन ।

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४९
अ. १ आ. १ सू. ८

अ०२ अा०१ ०२६ ४९ कारण गुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः ॥२४॥

कारणगुणपूर्वक कार्य गुण देखा गया है।

व्या-कार्य का जो विशेषगुण होता है। वह कारणगुणपूर्वक होता है। जैसा रूप तन्तुओं का होता है, तत्सजातीय ही रूप वस्त्र का होता हैं ।

कार्यान्तराप्रादुर्भावात् शब्दः स्पर्शवतामं गुणः ॥ २५ ॥

कार्यान्तर के प्रकट न होने से शब्द स्पर्श घाठों का गुण नहीं है।

व्या-स्पर्श वाले चार द्रव्य जौ पृथिवी, जल, तैज, वायु हैं। शाब्द यदि इन में से किसी का गुण होता, तो जैसें मृदङ्ग आदि में उत्पन्न होने वाले रूपादे के सजातीय रूपादे उन के अवयवों में अनुभव होते हैं, वैसे पदङ्ग आदि में उत्पन्न होने वाले शब्द के सजातीय शाब्द भी उनके अवयवों में अनुभव होता, पर ऐसा होता नहीं, किन्तु निःशब्द अवयवों से ही मृदङ्ग आदि की उत्पत्ति होती है। इस से सिद्ध है, कि शाब्द मृदङ्ग भाद का गुण ही नहीं।

दूसरा-पर्श वालों के विशेष गुण, जब तक वस्तु बनी रहे, तव तक, उस में प्रकट रहते हैं, पर शाब्द सदा नहीं बना रहता। इस से भी सिद्ध है, कि शब्द इन का गुण नहीं, किसी ' आभार का हाँ हैं । परत्र समवायात् प्रत्यक्षत्वाच नात्मगुणो न

मनोगुणः ॥२६॥

५०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

गुण है, न मन का गुण है। 'व्या-ब्द्याद, आत्मा का,गुण होता ,तो : मैं मुखाहूं, मैं दुःखी हूँ इत्यादि की नाई 'मे पृरा जाता हूँ, मैं वजाया जाता हूँ' इत्यादि अनुभव होता, पर अनुभव होता है, शंखा-पूरा, जा रहा है,वाज़ा वाज़ाया जा रहा...सो शब्द आत्मासे भिम में अनुभव होने से आत्मा का गुण नहीं । और प्रत्यक्ष होता. है, इस लिये मन का भी गुण नहीं, क्योंकि मर्न का कोई भी

ध्याउक्त रीति से. शब्द.न. स्पर्शःचालॉ.का गुण ठहरा,.

न आत्मा और मन, का गुण हुआ, तो परिशप से आकाशा का गुण,छिद्र होता है। अतएव शल्द ही, आकाश.का लिङ्ग है ।

द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुनाळ्याख्याते,॥२८॥

द्रव्यत्व और नित्यत्व चायु से व्याख्या किये गए, . व्या-वायु को-जैसे गुण वाला होने से द्रव्य, और वायु के परमाणुकोद्रव्यूनाति होने से नित्य सिद्ध किया है। वैसे. आ-- काश भी शब्दगुण,वाला,होने .से .द्रव्यू और द्रव्य , के अना-- श्रित होने से नित्य है।

तत्त्वं,भावेन,॥२९॥,'

एक होना सत्ता से (व्याख्यात है) ।

५१
अ. १ आ. १ सू. ८

शाब्दरूप.लिङ्ग के भेद न होने से और भेद होने से ।

सत्ता के एकत्वकी साधिका है, वैसे शब्द लिङ्ग की सर्वत्र अवेि लिङ्ग कै न प्रतीति जैसे सत्ता के विषय में नहीं, वैसे आर्कोश के विषय में भी नहीं।

तदनुविधानादेकपृथक्त्वचेति ॥३१॥

सु एक होना एक पृथक् व्यक्ति होने का बोधक है।

द्धितीय अध्याय-द्वितीय आह्निक

संगति-पृथिवी आदिका गन्ध वाली होना आदि लक्षण कहे, ये लक्षण कैसे घटते हैं, जब कि गृन्धु आदि वायु, आदि में भी पाए म गन्ध की प्रतीति को औपाधिक व्यवस्थापित करते हैं

, पुष्पवस्त्रयोः साति सन्निकर्षे गुंणान्तराप्रादु

पुष्प और वस्त्र के सम्बन्ध होने परं गुणान्तरं (तन्तुओं के गुणों) से प्रकट न होनावस्त्र मैं (वैमे)'गन्ध कॅ अभाव

का लिङ्ग है ।

५२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

व्या-वस्त्र में गुलाब चैवेली आदि के भैसे फूल रक्खें जाएं, उन्हीं फूलों का गन्ध वस्त्र से आएगा । यह विलक्षण गन्ध वस्त्र के कारणगुणपूर्वक वस्त्र में नहीं आपा, इस से स्पष्ट है, कि यह गन्ध वस्त्र में स्वाभाविक नहीं, औपाधिक है। अपना नहीं, फूलों का है। फूलों के सूक्ष्म अवयव सम में रह गए हैं, जो उस प्रकार वास देते हैं ।

व्यवस्थितः पृथिव्यां गन्धः ॥ २ ॥

नियम से स्थित है पृथिवी में गन्ध ।

व्या-गन्ध पृथिवी में अवश्य रहता है, और पृथिवी में ही रहता है। इस लिये 'सुराभिवायु' इत्यादि जो वायु में गन्ध की भतीति है, वह औपाधिक है। मुगन्धित फूलों से हो कर जो वायु आता है, उस में फूलों के सूक्ष्म अवयव मिले रहते हैं, उन्हीं का गन्ध वायु में मतीत होता है । ऐसे ही जल में भी गन्ध पार्थिव अंश के सम्बन्ध से औपाधिक ही भान होता है ।

एतेनोष्णता व्याख्याता ॥ ३ ॥

इस से उष्णता व्याख्या की गई ।

तेजस उष्णता ॥ ४ ॥

तेज की उष्णता ।

व्या-यह जो पृथिवी, जल, वायु में उष्णता प्रतीत होती है, यह तेज के सम्बन्ध से उन में औपाधिक है । “स्वाभाविक उष्णता तेज में ही है।

अप्सुशीतता ॥५॥

जलों में शीतता है।

५३
अ. १ आ. १ सू. ८

अ०२-आ०२ मू०८

व्या-स्वाभाविकी शीतता जलों में ही है.। शिलातल आदि में जो शीतता प्रतीत होती है, वह औपाधिकी है ।

संगति-विशेष गुणों की स्वाभाविक और” औपाधिक प्रतीति का भेद दिखला कर, अव क्रमप्राप्तकालका स्वरूपादिबतलाते हैं

अपरस्मिन्नपरं युगपत् चिरं क्षिप्रमिति काल लिंगानि ॥६॥

छोटे में छोटा, तथा, इकडे चिर, शीघ्र ये (प्रतीतियें) काल के लिङ्ग हैं।

व्या-यह इस से छोटा है, और यह बड़ा है, यह भतीति काल का लिङ्ग है। इस से छोटा' कहने का यह अभिप्राय है, कि इस का जन्म पहले का है, इस का पीछे का है, पहले पीछे से अभिप्राय जिस वस्तु से है, वही काल है । इसी प्रकार ये दोनोंघड़ेइकट्टे बने हैं। घड़े तो दोनों अलग २ हैं, पर इकडे का अभिमाय सिवाय इस के और क्या हो सकता है, कि दोनों एक काल में हुए हैं । इसी प्रकार रामकृष्ण मुझे चिर पीछे मिला है । इरिश्चन्द्र शीघ्र मिला है। ये प्रतीतियें भी चिर और शीघ्र शब्दों से जिस वस्तु का बोधन करती हैं, वही'काल है।

द्रव्यत्वानित्यत्वे वायुनाव्याख्याते ॥७॥

द्रव्यत्व और नित्यत्व वायु से व्याख्यात हैं । : व्या-वायु के परमाणु की नाई, किसी द्रव्य के आश्रित न होने से काल का द्रव्य और निस्पं होनो सिद्ध है। "

तत्त्वं भावेन ॥ ८ ॥

एकत्व सत्ता से व्याख्यात है।

५४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेोपिक दर्शन ।

व्या-पूर्वं कालं में उत्तर कंाल में एकं कांठ में' इत्यादि सर्वत्र काल व्यहार की ऑवेिशप भतीति से अखण्ड काल एक ही है। क्षणे भहूर्त धड़ी पहर दिन रांत सप्ताह मसि वर्ष पुंग ये संव व्यवहार उँस में उपाधिभेद से होते हैं ।

नित्येष्वभावादनित्येषु भावांत्कारणे काला ख्येति

नित्यों में न होने स और अनित्यों में होने से कारण में

काल संज्ञा है ।

व्या-दिन को उत्पन्न हुआ है, रात को उत्पन्न हुआ है, पुराना है, नया है, इत्यादि प्रतीतिर्ये यतः नित्यॉ (परमाणुओं आकांशादि) के विषय में नहीं होतीं, किन्तु अनित्यों (उत्पत्ति चालों ) के विषय में ही होती हैं, इस मे स्पष्ट है, किं कालं उत्पत्ति वाले संारे काय का निमित्त कारंणहै।

संगति-अष क्रम प्राप्त दिशा का प्रकरण आरम्भ करते हैं ।

इतइदमितियतस्तद्दिश्यं लिंगम् १०

  • यहां से यह ? यह (मंतीति) जिस में है, वह दिशा

का लिङ्ग हैं ।

व्या-यहां से यह दृर है, यह निकट है, ऐसी प्रतीति जिस से होती है, वह दिशा का लिङ्ग है।

  • यहां से देहली निकट है, प्रयाग दूर है' का अभिमाय

यह है, कि यहां से देहली तक जितने देश का सम्बन्ध है, उस से अधिक देश का सम्बन्ध प्रयाग तकं है । यह अखण्ड देशा

ही दिशा है ।

५५
अ. १ आ. १ सू. ८

द्रव्यूत्व नित्यत्वे वायुनाव्याख्याते ११

( दिशा का ) द्रव्य और नित्य होना वायु से व्याख्या

तत्त्वं भावनं १२, .

और एकखि सप्ता से (व्याख्या किया गया है); /

व्या-व्यवहार की सुगमता के लिए हम दिशा में नाना भेद कल्पना कर लेते हैं, वस्तुतः अखण्ड दिा : एक ही है.l, संगृति-उसी.का उपृपादन करते है

अदित्य-संयोगाद् भूतपूर्वाद्भविष्यतोभूताचः प्राची १४

हो चुके हुए, होने वाले वां होते हुए सूर्य संयोग से शाची होती है।

व्याः उदय होते हुए सूर्यका मथुम.संयोग-जिघूर हुआ है, उस को माची कहते हैं । हो चुके हुए, होने वाले.वा होते. हुए, ? कहने का यह अभिप्राय है, "कि उदय के समय मनुष्य वर्तमान, संयोग की दृष्टि से उस को माची कहता है। दोपहर के समय भूतपूर्व संयोग को लेकर, और प्रभात-के समय-भाव ष्यसेयोग को लेकर कहता है। अन्यदा भी:अपनी-स्वतन्त्र

छनि के अनुसार,कभी भूत और कभी. भविष्वद् उदय को

५६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेपेिक दर्शन ।

लेकर व्यवहार करता है, इस लिए वर्तमान के साथ भूत भवि. ष्यत् का भी निर्देशा किया है ।

तथा दक्षिणाप्रतीची उदीची च ॥१७

वैसे दक्षिणा, मदीची और उदीची भी ।

व्या-उदय होते हुए सूर्य के सम्मुख पढ़े होने पर जिधर दक्षिण हाथ है, वह दक्षिणा, जिधर पीठ है, वह मतीची, जिघर वाम हाथ, वह उदीची कहलाती है । यहां भी भूत और भविः ष्यत् सैयेोग को लेकर व्यवहार भांचीवद तुल्य हैं ।

एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि १६

इस से दिगन्तराल व्याख्या किये गए।

व्या-इसी रीति से दिशाओं के अन्तराल भी जानने । अर्थात् पूर्व और दक्षिण के अन्तराल की दिशा दक्षिणपूर्वा इसी प्रकार दक्षिणपश्चिमा, पश्चिमेोत्तरा, उत्तरपूर्वा । इसी प्रकार ऊपरली और निचली दिशा जाननी ।

संगति-अब आत्मा का प्रकरण आरम्भ करने से पूर्व पूर्वोक्त शब्द की परीक्षा करना चाहते हुए परीक्षा के अंग संशय के कारण दिखलाते है

सामन्यप्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस् तेश्च संशयः ॥ १७ ॥

सामान्य के प्रत्यक्ष से, विशेष के अमत्यक्ष से और विशेष की स्पति से संशाय होता .है । व्या-जब किसी वस्तु का सामान्य रूप प्रत्यक्ष हो, और

विशेष रूप अप्रत्यक्ष हो, प५ वशव की स्मृति हो, तो संशय

५७
अ. १ आ. १ सू. ८

उत्पन्न हो जाता है । जैसे स्थाणु का ऊँचा होना जो स्थाणु और पुरुष का सामान्य धर्म है, वह तो प्रत्यक्ष है, और वक्र होना वा खोड़ वाला होना जो स्थाणु का विशपधर्म छै, और, इाथ पाओं आदि वाला होना जो पुरुष का विशेष धर्म है, यह अप्रत्यक्ष है, और दोनों के ये जो विशेषधर्म हैं, उन की स्मृति अवश्य है, इस कारण मे संशय उत्पन्न होता है, कि यह स्थाणु हैं वा पुरूप है ।

दृष्टं च दृष्टवत् १८.

देखी हुई वस्तु देखे हुए धर्मे वाली है ।

व्या-अव मंशाय' के भेद दिखलाते हैं-संशय दो प्रकार का होता है. एक साक्षात विपय का मैदाय. दूसरा मामाण्य कें मंदाय से विषय का संशय । साक्षात विषय संशय के दो भेद हैं-एक देखी वस्तु जब देखे हुए धर्मो वाली हो, जैसे सामने वर्तमान स्थाणु दखे हुए धर्म वाला है, अर्थात् स्थाणु और पुरुष की नाई ऊचा है, इस से संशय होता है, कि यह स्थाणु है, चा पुरुप हैं। अथवा जैसे झाड़ियों के अन्दर चरते हुए पशु के सगमात्र देख कर यह संशय होता है, कि यह गौ है वा गवय है । संज्ञाय दोनों जगह साधारण धर्म से हुआ है। ' भेद दोनों , में यह है. कि पहले उदाहरण में धर्म स्थाणु भी प्रत्यक्ष है, और उस का धर्म ऊध्र्वत्व भी प्रत्यक्ष है । दूसरे में धर्म सींग तो: प्रत्यक्ष है । धर्मी प्रत्यक्ष'नहीं ।

जैसीदेखी वस्तु,न वैसी देखी होने से (संज्ञायक होती है).

५८
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशपिक दर्शन ।

व्पा-चैत्र को पहले जैसे देखा अर्थात् वालों वाला, दृमरे अवसर पर उस को वैसा नहीं देखा, तव फिर देखने पर यह संदह होता है, कि चैत्र सकेश है वा निष्केश है ।

विद्या विद्यातश्च संशयः ॥ २० ॥

विद्या और अविद्या से संशय होता है ।

व्या-आन्तर संशय का उदाहरण देते हैं

विद्याममा अविद्या भ्रम। जो ज्ञान होता है, वह यथार्थ भी निकलता है, और अयथार्थभी । जैसे किसी ज्योतिर्विदने एक बार जिसदिनजिस समय ग्रहण का निर्धारणकिया वह यथार्थ निकला दूसरी बार अयथार्थ निकला , तव फिर उस को अपने र्निर्धारण में संज्ञाय उत्पन्न होगा, कि मुझे यह ज्ञान यथार्थे हुआ हैं, वा अयथार्थ । ज्ञान के संशय स विषय में संशय होगा । ऐसे संशय गणित के विषय में प्रायः होते रहते हैं, इसी लिए पुरुषः दुवारा तिबारा गिनता है ।

विद्या अविद्या अर्थात् ज्ञान अज्ञान से भी संशय होता है, दूर से जल देखकर पुरुष वहां पहुंचता है, तो वहां जल पाता है, और कभी मरीचिका में जल की भ्रान्ति से प्रवृत्त हुआ नहीं भी पाता है। फिर दूर मे जळ .देखने पर संवाय होता है, कि यह ज्ञान सत्य हुआ है, वा असत्य है.। इसी प्रकार विद्यमान भी जल का ज्ञान नहीं होतानारियल में, औरअसत्य है ही नहीं। अब कहीं जल-के अज्ञान में. संज्ञाय होता है, किं क्या नहीं है, इस लिए नहीं दीखता है, वा है, तौ भी नहीं

दीखता है।

५९
अ. १ आ. १ सू. ८

संगति-इस प्रकार परीक्षा के अंग संशय का व्युत्पादन'करके, परीक्षणीय शब्द की परीक्षा आरम्भ करते हैं

श्रोत्रग्रहणीयोऽर्थः सं शब्दः ।२१ ।

श्रोत्र से ग्रहण किया जाता जो अर्थ है, वह शब्द है ।

सगति-शब्द को आकाश का लिङ्ग सिद्ध करने के लिए पहळे शब्द का गुण होना परीक्षापूर्वक सिद्ध करते है

तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभय थाद्वष्टत्वात् ॥ २२ ॥

तुल्य जाति'ालों में और दूसरें अर्थो में उभयत्र विशेष के न देखा हुआ होने से (संशय उत्पन्न होता है)

व्या-शब्द में जो श्रोत्रग्राह्यता दूसरों से विशेषधर्म है । यह विशेष न उस के सजातियों में पाया जाता है, न दूसरे अर्थो में अर्थात् विजातियों मैं । शब्द को यदि गुण करें, तो , दूसरे गुण उस के सजातीय हॉगे, श्रोत्र ग्राह्यता उन में से किसी में है नहीं, िजस से इस को भी तद्वत् गुण मान लें, और विजा

तीप'होंगे द्रव्य और कर्म ।'उन में से भी श्रोत्रग्राह्यता किसी

में है नहीं, जिससे इस को तद्व.द्रव्य वा कर्ममाना जाय । इसी तरह शब्द को द्रव्य माना जाय, तो सजातीय द्रव्य होंगे और विजातीय गुणकर्म, और कर्म मानें-तो सजातीय कर्म होंगे, और विजातीय द्रव्य गुण, सर्वथा श्रेोत्रग्राह्यता सजातीय 'विजातीय दोनों में अदृष्ट होने से निश्चय नहीं हो सकता है कि शब्द द्रव्य है वा गुण है वा कर्म है। इस लिए शब्द द्रव्प

है. यण छै.-चा कर्म है, यह संज्ञाय उत्पन्न होता है ।

६०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

सगति-इस प्रकार त्रिकोटिक संशय उठाकर द्रव्य कीटि के खण्डन के लिए कहते हैं

एकद्रव्यत्वान्न द्रव्यम् ॥ २३ ॥

एक समवायि वाला, होने से द्रव्य नहीं है ।

व्या-कार्य द्रव्य कोई भी ऐमा नहीं हो सकता, जिस का ममवायि कारण एक ही द्रव्य ( अत्रयव ) हो, पर शब्द का ममवायि एक ही द्रव्य है (२ । १ । ३०) इस लिए द्रव्य से विरुद्ध धर्म वाला होने से शाब्द द्रव्य नहीं है । सगति-अस्तु, कर्म एक द्रव्य के आभित होता है, इस लिए { शब्द कर्म हो सकता है, इस पर कहते हैं

नापि कर्म चाक्षुषत्वात् ॥ २४ ॥

' कर्म भी नही. क्योंकि अचाक्षुष है।

व्या-याद शब्द कम हाता, त। चक्षुग्राह्य हाता, क्याक प्रत्यक्ष कर्म सब चक्षुग्रीह्या होते हैं, और शब्द है तो प्रत्यक्ष, पर चक्षुग्रहा नही, इस से स्पष्ट है, कि कर्म की जाति का नहीं ।

गुणस्य सतोऽपवर्गः कर्मभिः साधभ्र्यम्।२५ )

गुण होते हुए का झट नाश जो है, यह कर्मो के साथ ६ १० व्या-जव'कर्म आशुविनाशी हैं, और शब्द भी आशुवि 'नाशौ है, ता फिर इम को कर्म क्यों न माना जाय, इस आशंका का'य उत्तर दिया है. कि यह नियम न, कि कर्म ही आशु विनाशी है. द्वित्वादि संख्या, ज्ञान. सुख. दुःख आर्द गुण भी

तो आशु विनाशी हैं, इस लिए शब्द ' जव पारशेष से-शुण

६१
अ. १ आ. १ सू. ८

अ०२ आ०२८ सू०५७

सिद्धहो गया, तो आशुविनीशी होना कर्मके साथ उसका साधम्र्यं माना जा सकता है, न कि कर्मत्व ही ।

सगति-(प्रश्झ) पूर्वोक्त साधम्यै तब माना जाय, जव शब्द का विनाश होना हो, पर शब्द तो उत्पत्ति विनाश दोनों से रहित है। वह सदा विद्यमान रहता है। उञ्चारण से उस की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु पूर्व विद्यमान की ही अभिव्यक्ति होती है, जैसे अन्धेरे में विद्यमान घट की दीपक से अभिव्यक्ति होती है, इस आशंका का उत्तर देते हैं

सतो लिंगा -भावात् ॥ २६ ॥

विद्यमान के लिङ्ग का अभाव होने से ।

व्या-उच्चारण से पूर्व शाब्दःकी विद्यमानता का कोई लिङ्ग नहीं । अतएवं उस के विद्यमान होने में कोई प्रमाण नहीं ।

संगति-साधक का अभाव, कह कर बाधक भी कहते हैं

नित्यवैधम्र्यात् ॥ २७ ॥

नित्य से विरुद्ध धर्म वाला होने से ।

व्या-नित्य का विनाश नहीं होता, और शब्द का विनाशा प्रत्यक्ष सिद्ध है, इस प्रकार नित्य के विरुद्ध धर्म वाला होने से शब्द अनित्य है।' .

• ,दूसरा-एक ही शब्द की उत्पत्ति चैत्र से विलक्षण और मैत्र सविलक्षण होती है। अतएव अन्धेरे में उनके, अपने २ शब्द से हीचैत्र और मैत्र का ज्ञान हो जाता है। अभिव्यक्ति में यह बात नहीं पाई जाती. ऐसा नहीं होता, कि घड़ा एक दीपक से विलक्षण और दूसरे से विलक्षण प्रतीत हो1ः अतएव घड़े की

ओभिव्यक्ति से दीपक के भेद का अनुमान नहीं होता, पर

६२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन।

शाब्द के भेदसे वक्ता का अनुमान-होता है, यह दूसरा वैधम् नित्य से है।

अनित्यश्चायं कारणतः ॥२८॥

व्या-शब्द अनित्य है, क्योंकि कारण वाला है । और नित्य कारण वाले नहीं होते ।

नचासिद्धं विकारात् ॥ २९ ॥

असिद्ध भी नहीं, विकार चाला होने से ।

व्या-यदि कहो, कि भेरी'दण्ड संयोग शाब्द का व्यञ्जक है, कारण नहीं, इस लिए 'कारण वाला होना' यह तुम्हारा हेतु ही असिद्ध है, तो इस का उत्तर यह है, कि शब्द यतः विकार वाला है, भेदी दण्ड संयोग के तीव्र होने से शब्द भी तीव्र होता है, और मन्द होने से शाब्द भी मन्द होता है, इस लिए कारण वाला होना सिद्ध है।

अभिव्यक्तौ दोषात् ॥ ३० ॥

अभिव्यक्ति में दोष से ।

व्या-यदि तीव्र संयोग से तीव्र शब्द की और मन्द संयोग सेस मन्द शाब्द की अभिव्यक्ति मानो, तो इस में यह स्पष्ट दोष है, कि जो पदार्थसमानदेशी हो. उन सव की अभिव्यक्ति एक ही व्यञ्जक से हो जाती है, जैसे अन्धेरें में पड़ी वस्तुओं की गिनती के लिए कोई दीपक जलाए, तो यह नहीं होगा, कि उन वस्तुओं केरूप आकारादिउस से अभिव्यक्त न हों, क्योंकि

वे सब समानदेशी हैं, और एक ही इन्द्रिय अथात् नेत्र सः

६३
अ. १ आ. १ सू. ८

ग्राह्य हैं, इस लिए उन सबका व्यञ्जक,भी एक ही है। यह नहीं होता; कि संख्या-की अभिव्यक्ति के लिए एक दीपक की और रूप की अभिव्यक्ति के लिए दूसरे की . दीपक की अपेक्षा हो।इसी प्रकार यादभेरीदण्ड संयोगभी शाब्दों काव्यञ्जक हो, तो ममान दशी यावत् शब्दों की एक ही, संयोग से अभिव्यक्ति हो जाए, क्योंकि वे सब श्रोत्र से ही ग्राह्य हैं। ।

संयोगाद्विभागाच्छब्दा च शब्दनिष्पाति-३१

संयोग से विभाग से और शव्द से शब्द की उत्पत्ति हात हैं ।

व्या-पहले पहले-शब्द संयोग से वा विभाग से उत्पन्न होता है; जैसे भरीदण्ट के संयोग से वा बांस के दो दलों के विभाग से शब्द उत्पन्न होता है । यह शब्दःतो वहीं उत्पन्न हुआ, जहां सैयोग और विभाग.हुआ । “पर शब्द वहीं*नहीं; दूरः-२ तकं मुना जाता है। यह इस प्रकार होता है, जैसे तालाब के मध्य में पत्थरफैकने से पानी में वहां वड़ी तरंग उठती है। उस तरंग से आगे २ चारों ओर तरंगें उठतीं जाती हैं, पर अगली २ तरंगें पहली २ से छोटी होती जाती हैं; अन्ततः नाछा हो जाती हैं । इसी प्रकार सैयोग और विभाग से पहले तीव्र शब्द उत्पन्न होता-है, फिर आगे चारों ओर तरंग-की-नाई शाब्द से शाब्द उत्पन्न होते.जाते हैं, और अगला २ शब्द मन्द २. होता हुआ अन्ततः' लीन हो जाता है। इस से सिद्ध है, कि शाब्द की उत्पति होती है, न कि अभिव्यक्ति । अभिव्यक्तिा में तो वही

शब्द सर्वत्र एक ही जैसा. सुनाई देना चाहिये । अयंवा संयोग

६४
'वैशेषिक-दर्शन ।

६४ वैशेषिक दर्शन ।

विभाग के स्थान से परे शब्द होना ही नहीं चाहिये, क्योंकि अभिव्यक्ति वहां ही होती है, जहां अभिव्यक्षक होता है।

लिंगा चा नित्यः शब्दः ॥ ३२ ॥

लिङ्ग से अनित्य है शब्द ।

व्या-सो जव उत्पत्ति सिद्ध है. तो इसी लिङ्ग से शब्द अनित्य सिद्ध है।

सैगति-इस कहता है।

पर िनत्यत्ववादी

द्वयोस्तु प्रवृत्योर भावात् ॥ ३३ ॥

दोनों की प्रवृत्ति के अभाव से ।

व्या-गुरु शिष्यों को जोमन्त्र पढ़ाता है (देता है) शिष्य उस को ग्रहण करते हैं। यह शब्द का दान और भतिग्रह तभी वन सकता है, याद शब्द उतनी देर तक स्थिर रहे । अन्यथा देना लना वन नहीं सकता, और जव उतनी देर तक स्थिर बना रहा, तो 'तावत्कालं स्थिरं चैनं कः पश्चान्नाशयिष्यति' उतनी दर स्थिर रहे शब्द को पीछे कौन नाश करेगा । इस युक्ति से शब्द की नित्यता ही सिद्ध होती है।

प्रथमाशब्दत् ॥३४ ॥

मथमा शब्द से (भी नित्य है)

व्या-ऋग्वद मण्डल ३ सूक्त २७ की १-११ ऋचाएँ सामिधेनी कहलाती हैं, क्योंकि इन से आग्र प्रदीप्त किया जाता . हैं। इन के विषय में कहा है-' तासांत्रिः प्रथमामंन्वाहत्रिरु त्तमाम्’ इन में से पहली ऋचा को तीन वार उचारे, और तीन,

वार ही अन्तली ऋचा, को (ऐत० ब्रा० ३ । ३ ) । अब याद

६५
अ. १ आ. १ सू. ८

ऋचा उसी समय नाश हो जाय, तो उस का तीन वांर उच रण कैसे हो, तीन चार उच्चारण की आज्ञा देने से सिद्ध है, कि ऋचा स्थिर बनी रहती है ।

  • सम्प्रतिपंक्तिभावांच ॥ ३५ ॥

प्रत्यभिज्ञा कें होने से (भी नित्य है)

व्या-पहले अनुभव किये हुए की पहचान को प्रत्यभिज्ञा कहते है । यह प्रत्यभिज्ञा शब्द के विषय में-'चैत्र उसी गाथा को उचार रहा है, जो मैत्र ने उचारी थी ? 'यहं'उंसी'श्लोक को चार-२ पढ़ रहा है ? 'जो वाक्य तूने पर और परार कहा था उसीको अवतू फिर कह रहा है. यह वही 'ग'है, इस प्रकार होती है।इस अवाधित प्रत्यभिज्ञा के बलं से शब्दनित्य सिद्ध होता है। संगति-इन सब हेतुओं में दोष दिखलातें है

संदिग्धाः सति बहुत्वे ॥ ३३ ॥

संदिग्ध हैं वहुत्व के होते हुए ।

व्या-ये सारे हेतु संदिग्ध हैं, व्यभिचारी हैं, क्योंकि जैसे एक ही स्थिर शब्द मानने मे ये हेतु घट सकते हैं। वैसे नाना मानन में भी घट सकते हैं। जैसे नाचं । सिखाने वाले का नाच अलग होता है, सीखने वाले का अलग । तौ भी सीखना सिखाना होता है । जैसे यहां सीखने का यह अर्थ नहीं, किं गुरु अपनी नृत्य शिष्यं कृो देता है, और शिष्य लेता है, किन्तु यह अर्थ है, कि शिष्य गुरु के नृत्य का अनुकरण करता है, इसी तरह पढ़ने में भी शिष्य गुरु के शब्दों का अनुकरण ही

करता है। इसी प्रकार एक ही नाच तीन वार नाचने की नाई

६६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शत ।

तीन वार उच्चारण भी अनुकरण मात्र है। और यह वही नृत्य है, जो इसने पर वा परार किया था, यह प्रत्यभिज्ञा भी तत्स् दृश नृत्य को लेकर है। सो ये हेतु व्यभिचारी होने से नित्यता के साधक नहीं हो सकते, और नित्यता के बाधक तथा अनि त्यता के साधक अव्यभिचारी हेतु पूर्व दिखला दिये हैं, इस लिए शब्द अनित्य है।

सख्याभावः सामान्यतः ॥ ३७ ॥

संख्या का होना सामान्य से हे ।

व्या-(प्रश्न) याद वर्ण अनित्य है, तो फिर ती अनगि नत वर्ण हो जायेंगे । तव वर्ण पचास हैं, वा त्रिसठ वा चौसठ है, इत्यादि कथन कैसे बन सकता है । उत्तर-यह संख्या सामान्य धर्म को लेकर कही जाती है। जितने'क' हैं, सवमॅकत्व=कपनसमान हैं,इसलिए‘क’एक गिना गया । इस अभिप्राय से वणों की संख्या नियत की जाती है। जैसे द्रव्य असंख्यहैं, तौ भी पृथिवीत्व आदि सामान्यधर्मकीलेकर नी द्रव्य कहे जाते हैं। यह वही 'ग ? है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा भी इसी जाति के सहारे पर होती है। जैसे कटे हुए बाल फिर उतने बड़े द्रो जाने पर 'यह वही'वाल हैं ? ऐसी प्रत्याभेित्रा होती है ।

तृतीय अध्याय, प्रथम. ओह्निक ।

संगति-बाह्य द्रव्यों की परीक्षा करके, आन्तर द्रव्यों की परीक्षा में, ऽद्देश क्रम से प्राप्त आत्मा की परीक्षा आरम्भ करते हैं

प्रसिद्धा इन्द्रियार्थाः ॥ १ ॥

६७
अ. १ आ. १ सू. ८

प्रसिद्ध इन्द्रियों के विषय ।

व्या-नेत्रं, रसना, घ्राण, त्वचा और श्रोत्रये पांच इन्द्रिय हैं, इन पाचों के क्रमवाः रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द थे पंच विषय भसिद्ध हैं । अर्थात् सच के मत्यक्ष सिद्ध है।

संगति-इस प्रत्यक्ष सिद्धि का आत्म परीक्षा में उपयोग दिख लाते हैं

इंद्रियार्थप्रसिद्धिरिन्द्रियार्थेभ्योऽर्थान्तरस्य हेतु२

इन्द्रियों के विषयों की भमिद्धि इन्द्रियों और विषयों म भिन्न अर्थ.का हेतु है ।

व्या-यह जो इन्द्रियों द्वारा विषयों का मत्यक्ष ज्ञान , यह गुण है, अतएव किसी द्रव्य के आश्रित होना चाहिये, जो उस का आश्रय द्रव्य है, वही- आत्मा है।

सगति-ज्ञान शरीर के आश्रय है, क्योंकि वह शरीर का कार्य है, इस अनुमान ने जब शान का आश्रय शरीर निश्चित हो गया, . तो भिन्न आत्मा की सिद्धिनही होगी, इस आक्षेप का उत्तर देते हैं।

सोऽनपदेशः ॥ ३ ॥

वह अहेतु (हेत्वाभाभ ) है । , , व्या-शारीर को ज्ञान का आश्रय सिद्ध करने के लिए यह जो हेतु दिया है, कि ज्ञान शरीर का कार्य है, यह'हेतु ही नहीं, क्योंकि ज्ञान शारीर का कार्य है, यही वात सिद्ध नहीं हो सकती, और जो स्वयं असिद्ध है, वह किसी का साधक कैसे

हो सकता है, क्योंकि - .. '

६८
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

कारण में ज्ञान का अभाव होने से-।

व्या-शरीर कार्य है, अतएव उस में जो विशेष गुण हैं, चे कारणगुणपूर्वक (२ । १ । २४) ही हो सकते हैं, पर शारीर के कारण जो सूक्ष्मभृत हैं, ज्ञान उन में नहीं पाया जाता रुरूपादि पाये जाते हैं । सो रूपादे तो कारणगुणपूर्वक होने से शरीर के निज धर्म हैं। और ज्ञान वस्त्र में पुष्प गन्ध की नाई किसी अन्य का ध प्रतीत होता है ।

सैगति-(प्रश्न) शरीर के कारणों में सूक्ष्म ज्ञान मानकर शरीर में उसी का स्फुट होना मान लें, तो क्या हानि है? इस आशंका का उत्तर देते है

कार्येषु ज्ञानात् ॥ ५॥

'कायों में ज्ञान से ।

व्या-यदि शरीर के कारणों में सूक्ष्म ज्ञान हो, तो उन के सारे कार्यों में ज्ञान होना चाहिये, फिर यह नहीं हो सकता, कि शरीर में तो ज्ञान हो, और घट आदि में न हो ।

संगति-(प्रश्र) घट आदि में भी सूक्ष्म ज्ञान मान लें, तो क्या हानि है? इस का उत्तर देते है

अज्ञानाच ॥ ६ ॥

अनुपलब्धि सें ।

व्या-घटादि में किसी भी प्रमाण से ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, इस लिए उनमें ज्ञान मानना अयुक्त है । गति-तौ भी ज्ञान ज्ञानर्धारा का साधक हो सकता है- जिस का कि वह स्वरूप है, आत्मा जो कि ज्ञान से भिन्न वस्तु है, उस

का साधक कैसे हो, इस आशंका का उत्तर देते हैं

६९
अ. १ आ. १ सू. ८

अन्यदेव हेतुरित्यनपदेशः-॥ ७ ॥----

अन्य ही हेतु होता है, इस लिए हेतु नहीं है। '" ?

व्या-भिन्न वस्तु ही हेतु करके माना जाता है, इस लिए आप ही अपना हेतु नहीं होता ।

संगति--यदि संसाध्य से भिन्न ही हतु होता है, तो फिर जिस को जिस का चाहो, हेतु मानकर उसी वस्तु की उस से सिद्धि कर ली । हेतु साध्य का कोई नियम नहीं रहेगा, इस का उत्तर देते हैं

अर्थान्तरं ह्यर्थान्तरस्यानपदेशः ॥ ८ ॥

न हि अन्य वस्तु हरएक अन्य वस्तु का हेतु होती है। संगति-तो फिर कौन किस का हेतु होता है? इस का उत्तर

संयोगि समवाय्येकार्थसंमवायि विरोधि च ॥९॥

संयोगि, समवायि, एकार्थसमवायि और विरोधि ।

व्या-जिस भिन्न वस्तु का दूसरी भिन्न वस्तु के साथ संयोग, समवाय, एकार्थ समवायु वा विरोध हो, वही उस दूसरे साथी का हेतु होता है। संयोगि जैसे रथ को चलता देख कर आगे जुते हुएं (रथ से संयुक्त) घोड़े का, वा यथा योग्यचलता देख वीच में वैठे (थ से संयुक्त) सारथि का अनुमान होता है। समवायि जैसे स्पर्श से वायुका । एकार्थसमवायि और विरोधि के उदाहरण अगले सूत्रों में देंगे।

कार्य कार्यान्तरस्य ॥ १० ॥

. कार्य दूसरे कार्य का । ।

६४
'वैशेषिक-दर्शन ।

व्या-किसी द्रव्य का एक कार्य उसी द्रव्य के दूसरे कार्य का लिङ्ग होता है । जैसे गन्ध रस का लिङ्ग है । घने से जिसका गन्ध अनुभव हो, चखने से उस का अवश्य रस भी अनुभव होगा । क्योंकि गन्ध पृथिवी का कार्य है, और रस पृथिवी में अवश्य रहता है। यही एकार्थसमवायि लिङ्ग है । अर्थात् गन्ध जो लिङ्ग है और रस जो साध्य है, ये दोनों एक वस्तु में समवत हैं।

संगति-धिरोधि लिङ्गके भिन्न २ प्रकार के उदाहरण देते हैं

विरोध्यभूतं भूतस्य ॥ ११ ॥

विरोधि (लिङ्ग है) न हुआ हुए का (जैसे चरसने वाली घटा के आने पर न हुई दृष्टि आकाश में हुए प्रतिवन्धक वायु संयोग का लिङ्ग है )

  • भूतमभूतस्य ॥ १२ ॥

हुआ न हुए का (जैसे हुई दृष्टि न हुए मतिबन्धक वायु संयोग का लिङ्ग है)

भूतो भूतस्य ॥१३॥

हुआ हुए केा (जैसे विलक्षण फंकार करता हुआ सर्प झाड़ी में विद्यमान नेउले का विरोधि लिङ्ग है)

संगति-इन हेंतुओं के सद्धतु होने का नियामक दिखलाते है

प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य ॥ १४ ॥

व्याप्ति के अधीन होने से लिङ्ग के ।

व्या-लिङ्ग का ज्ञान व्याप्तिज्ञान् के अधीन होता है ।

७१
अ. १ आ. १ सू. ८

व्याप्ति अटल सम्वन्ध को कहते हैं । -जैसे धूम:का:अमि के साथ अटल सम्बन्ध है । धूम विना अग्रि के कभी नहीं होगा, अतएव धूम 'अमि का लिङ्ग है। पर अनि विना धूम के भी रहती है, इस लिए आग्,िधूम का लिङ्ग नहीं। ऐसे ही सर्वत्र व्याप्ति सम्बन्ध सें ही लिङ्ग का निश्चय करना चाहिये ।

संगति-प्रसंग से हेत्वाभासों का निरूपण करते हैं

अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् संदिग्धश्चानप देशः ॥ १५ ॥

व्याप्ति राहेित असद्धतु (हेत्वाभास) होता है, तथा असिद्ध और संदिग्ध असद्धतु होता है।

संगति-व्याप्ति रहित और असिद्ध का उदाहरण दिखलाते है

यस्माद् विषाणी तस्मादश्वः ॥ १७ ॥

. क्योंकि सींग वाला है, इसलिए घोड़ा है।

व्या-जव गधे को देख कर यह वात कही हो, तो यहां दोनों हेत्वाभास घट जाते हैं। घोड़े के सींग अमासिद्ध हैं, इस लिए अप्रसिद्धत्वाभास है। और जो हेतुदिया है, वह प्रसिद्ध है, क्योंकि सींग ही वहां नहीं है । गधे के सग, नहीं होते ।

संस-संदिग्ध का उदाहरण देते है

यस्मादविषाणी तस्माद्गौरिति चानेकान्ति कस्योदाहरणम् ॥ १८ ॥

क्योंकि सींग वाला है, इस लिए गौ है,यह अनैकान्तिक

(=संदिग्ध ) का उदाहरण है।

७२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

व्या-विलक्षण सींगों से तो गौ की सिद्धि हो सकती है, पर निरे सींग मात्र से गौ की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि सींग भैस आदि के भी होते हैं, इस लिए यह व्यभिचारी हेतु है । व्यभिचारी को ही संदिग्ध वा अनैकान्तिक कहत हैं। क्योंकि यद्यपिसींगों वालीवहाँ गौभी होसकती है,परयह आवश्यक नहीं, कि गौ ही हो, इस लिए यह संदिग्ध हेत्वाभास है।

स-हेत्वाभास की विवचना का फल दिखलाते हैं

आत्मेन्द्रियार्थे सन्निकर्ष द्यन्निष्पद्यते तद न्यत् ॥ १८ ॥

आत्मा, इन्द्रिय और अर्थ के मम्वन्ध से जो उत्पन्न होता है, वह अन्य है।

व्या-आत्मा इन्द्रिय और विषय के सम्वन्ध से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अप्रसिद्ध असिद्ध और संदिग्ध इन तीनों हेत्वाभासों से भिन्न है, अतएव सद्धेतु है। अप्रसिद्ध इस लिएँ नहीं, कि ज्ञान गुण है, और गुण सदा द्रव्य के आश्रय रहता है, और ज्ञान का द्रव्य के आश्रय होना संदिग्ध भी नही, और ज्ञान का होना हरएकके अनुभव सिद्ध है, इसलिए असिद्ध भी नहीं।

संस-हो ज्ञान 'गुण से आत्मा का अनुमान, पर इस से अपने ही आत्मा का अनुमान हो सकता है, दूसरों में भी आत्मा है, इस का अनुमान कैसे ही, क्योंकि दूसरों का ज्ञान तो प्रत्यक्ष नहीं होता और प्रत्यक्ष के विना अनुमान नहीं होता, इस आशंका को मिटाते हुए कहते है ।

प्रवृत्तिनिवृत्ती च प्रत्यगात्मनि दृष्ट परत्र लिंगम् ॥ २० ॥ .

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अ. १ आ. १ सू. ८

प्रवृत्ति और िनवृत्ति अपने आत्मा में देखे हुए दूसरे में लिङ्ग हैं।

व्या-हम जिस वस्तु को अपने अनुकूल जानत हैं, उस की ओर प्रवृत्त होते हैं, जैसे सेव की ओर मवृत्त होते हैं। और जिस को प्रतिकूल देखते हैं, उस से निवृत्त होते हैं, जैसे सर्पसे निवृत्त होते हैं। इसी तरह दूसरे भी अपने अनुकूल में प्रवृत्त और प्रतिकूल से निवृत्त होते हैं, यहां तक कि कीड़ी भी मीठे की ओर जाती है, और आग से हट आती है। ठीक हमारी तरह ही उन में भी अनुकूल और प्रतिकूल में ही प्रवृत्ति निवृत्ति, उन में ज्ञान को सिद्ध करती है, और उस ज्ञान का आश्रय उन में भी आत्मा सिद्ध होता है।

तृतीय अध्याय, द्वितीय आह्निक ।

सै-आत्मपरीक्षा को पूरा करने के लिए आत्मा के साधक और भी बहुत से हेतु देने हैं, उन में'मन की गति'भी हेतुत्वेन कहनी है, पर जब मन ही सिद्ध नहीं है, तो मन की गति कैसे हेतु बन सके, इस लिए उद्देशक्रम को उलांघ कर मध्य में ही मन की परीक्षा आरम्भ करते हैं

आत्मन्द्रियार्थसन्निकर्षेज्ञानस्यभावोऽभावश्च मनसो लिंगम् ॥ १ ॥

आत्मा इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध होते हुए ज्ञान का होना और न होना मन का लिङ्ग हैं।

व्या-आंत्मा का इन्द्रियों के साथ और इन्द्रियों का अपने १ विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर भी सारे ज्ञान इकडे नहीं उत्पन्न होते, एक के पीछे दूसरा होता है, यह अनुभवसिद्ध

है । रसानुभव के समय गन्धानुभव नहीं होता; दोनों का अनु-'

७४
'वैशेषिक-दर्शन ।


भव एक होता, तो वह अनुभव शुद्धरसानुभव औरशुद्धगन्धानुभव सेविलक्षण ही कोई अनुभव होता, पर ऐसा कभी नहीं होता । इस स निश्चित है, कि एक अनुभव के हो चुकने पर ही दृसरा अनुभव हाता हैं । एक अनुभव का विपय ता अनक हात हैं जैसे बहुत से शब्दइकट्टे ने जाते हैं, वहुत से रूपइकडेदेखेजाते हैं, पर अनुभव दो इकट्ट नहीं होते, रसानुभव के अन्दर गन्धा नुभव नहीं घुसता, न गन्धानुभव रसानुभव के अन्दर घुसता है। रसानुभव अलग अपने क्षण में, और गन्धानुभव अपने क्षण में होता है ।

प्रश्न-लंबी पपड़ी के खाने में एक ही काल में रसना से उस का रस, त्वचा से स्पर्श, कानों से मुरक २ शाब्द, नेत्रों से रूप और घ्राण से गन्ध अनुभव होता है। इस प्रकार पांचों अनुभव इकट्टे होते हैं, फिर यह कैसे कह सकते हो, कि अनेक अनुभव एक साथ नहीं होतें ?

उत्तर-यहां भी जव रस आदि के अनुभव अलग २ हो रहे है, तो यह निश्चत है, कि वे हो भी अलग २ रहे हैं, एक साथ नहीं हो रहे । किन्तु अतीव सूक्ष्म काल का.भेद होने से भेद प्रतीत नही होता । जैसे पान के सौ पत्तों की तह जमा कर एक सूआ क्षुभो दें, तो ऐसा प्रतीत होगा,कि मारे पत्ते एक काळ में विध गए हैं, पर वस्तुतः एक के विध जाने के पीछे. ही दूसरा विधा है, और सवां निनावें विध जाने के पीछे विधा है, तौ भी एक काल में ही विधे प्रतीत होते हैं, क्योंकि अतीव सूक्ष्म काळ निनावे-वार भी इतना अत्यल्प वीता है, कि ध्यान में भी नहीं आता । इसी प्रकार,वहाँ भी अतींव सूक्ष्म काल में

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अ. १ आ. १ सू. ८

सारे'अनुभव हो रहे हैं, पर हो.एक के पीछे ही दूसरा रहा है, क्योंकि अनुभव जो अलग २ हो रहे हैं। सो यह निश्चित है, कि आत्मा इन्द्रिय और विषयों का सम्वन्ध होने पर भी ज्ञान सारे. इकडे नहीं होते, एक अनुभव के समय दूसरे का अभाव होता है। अब प्रश्न यह है, कि यदि आत्मा इन्द्रिम और विषय का सम्बन्ध है ज्ञान का कारण हो, तव सारे ज्ञान इकडे क्यों न हो जायै, क्योंकि आत्मा का सम्बन्ध तो सारे इन्द्रियों के माथ है ही, रहा इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध चह भी सव का सव के साथ है। इस प्रकार सव.की सामग्री के विद्यमान होते हुए सारे ज्ञान इकडे हो जाने चाहिये, पर होते नहीं, इस से सिद्ध है, कि आत्मा का सम्वन्ध सीधा इन्द्रियों के साथ नहीं होता, वीच में कोई और द्रव्य.भी है, जो इधर आत्मा ' से और उधर इन्द्रियों से जुड़ता है, और वह एककाल में एक ही इन्द्रिय से जुड़ता है, इस लिए एक काल में दूसरा ज्ञान नहीं होता । उसी द्रव्य का नाम मन है, और वह एक काल में एक ही इन्द्रिय से जुड़ता है, इस लिए अणु है । इसी लिए पुरुष कहता है, किं मेरा'मनं दूसरी 'ओर था, इस से मैंने नहीं सुना, चा नहीं देखा । सो यह युगपत् ज्ञानों का न होना मन का लिङ्ग है। इसी प्रकार स्मृति आदि भी मन के लिङ्ग हैं, जैसे देखने सुनने आदि क्रिया का एक २ निमित्त है, वैसे सोचने विचारने आदि क्रिया का भी अवश्य कोई निमित्तं है ।

  • वह निमित्त वाह्य इन्द्रियतो हैं नहीं, इस से'अवश्य कोई अन्त

रिन्द्रिय उस का निमित्त है;‘वहीं मन है। ' ' ' '

७६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

खस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्यातें ॥२॥

उसका द्रव्य होना और नित्य होना वायु से व्याख्यातहै।

व्या-मन का आत्मा के साथ और इन्द्रियों के साथ संयोग होता है, अतएव संयोग गुण वाला होने से मन द्रव्य सिद्धहोता है, और किसी के आश्रित न होने से नित्य सिद्ध होता है।

स-मन क्या प्रति शरीर एक है वा अनेक हैं, इस का उत्तर देते हैं ।

प्रयतायैौ गपद्याज्ज्ञाना यौगपद्याचैकम् ॥३॥

प्रयत्रों के इकट्टा न होने से और ज्ञानों के इकठ्ठा न होने से एक है ।

व्या-यह अनुभव सिद्ध है, कि एक काल में शारीर में एक ही प्रयत्र होता है, यदि मन अनेक होते, तो जिस काल में मन के संयोग सें एक अङ्ग में एक प्रयत्र होता, उसी समय दूसरे मन के संयोग से अंगान्तर में दूसरा विरुद्ध मयत्र हो जाता । इस से सिद्ध है, कि एक शरीर में एक ही मन है। इसी प्रकार अनेक ज्ञानों का युगपत् न होना भी मन की एकता का - सं-अव मन की सिद्धि का आत्मा की सिद्धि में फल दिख लाते हुए आत्मसाधक और भी लिङ्ग कहते हैं

प्राणापान निमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरं विकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्राश्चात्मनोलिंगानि४

प्राण, अपान, मींचना, खोलना, जीवन, मन की गति , "

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अ. १ आ. १ सू. ८

दूसरे इन्द्रिय का विकार, सुख, दुःख, इच्छा,द्वेष और मयत्र भी आत्मा के लिङ्ग है।

व्या-(१)वायुका स्वाभाव टेढाचळना है, पर शरीर में वायु नीचे और ऊपर चलता है, इस से सिद्ध है, कि इस वायु का चालक कोई और है, वही आत्मा है, जो धौंकनी से लुहार की नाई वायु को भरता और छोड़ता रहता है, (२) आँख पर वाहर से कोई प्रभाव पड़े विना भी जो आंख मिचती और खुलती रहती है, इस से सिद्ध है, कि पुतली के नाचने की नाई अन्दर बैठा ही कोई तार हिलाकर आंख को नचा रहा है, (३) जीवन-जीवन का कार्य वृद्धि आदि। जिस प्रकार घर का स्वामी घर को बढ़ाता है, और टूटे फूटे की मरम्मत करता है । इसी प्रकार इस शारीर की वृद्धि और क्षत का भरना इस बात के चिन्ह हैं, कि शरीर रूपी घर का भी एक अधिष्ठाता है, (४) जो विषय जानने की इच्छा हो, उसी इन्द्रिय में मन की गति इस वात का चिन्ह हैं, कि मन का भेरक आत्मा है, जैसे घर में वैठा वालक गेंद को अपनी इच्छानुसार इधर उधर फैकता है, वैमे मन को अपनी इच्छानुसार जहां चाहता है, वहां भेजता है (६) दूसरे इन्द्रिय का विकार जैसे-इम्ली को देख कर उस के रस का स्मरण करके जिव्हा से लाल टपक पड़ती है। अब याद नेत्र ही देखने वाला हो, तो यह लाल नहीं टपक सकती, क्योंकि नेत्र जो देख रहा है, उस को तो रस का पता ही नहीं, और रसना, जिस ने रस लियाहुआ हैं, वह देख ही नहीं रही, इस लिए ललचा नहीं सकती, पर

ललचा गई है, इस से स्पष्ट है,;कि नेत्र और रसना दोनों से

७८
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिकदर्शन ।

परे एक आत्मा है, जिसने पहले रसना द्वारा'उसकारस अनुभव किया हुआ है, और अव उस के रूप को देखकर उस के रस का स्मरण आ गया है, वही ललचाया है, उसी केललचाने से मुंह में पानी भर आया है (६) सुख, दुःख, इच्छाद्वेष और भयत्र"यह भी ज्ञान की नाई आत्मा के लिङ्ग है। क्योंकि ये गुण विशेष भी शारीर में कारण गुणपूर्वक नहीं आए, इस लिए अवश्य.ये धर्म शरीर में वस्त्र में पुष्पगन्ध की नाई किसी द्रव्यान्तर के ही प्रतीत होते है, वही द्रव्यान्तर आत्मा है ।

तस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्याते ॥५॥

उस का द्रव्य और नित्य होना वायु से व्याख्यात है।

सं-इस अनुमित द्रव्य का नाम करण भी वायुवत् दिखलाते हैं (देखो पूर्व २ । १ । १५-१७)

यज्ञदत्त इति सन्निकर्षे प्रत्यक्षाभावाटू दृष्टं लिंगं न विद्यते ॥ ६ ॥

(पूर्वपक्ष-) सम्वन्ध होने पर यह यज्ञ दत्त है (यज्ञ दत् का आत्मा है) इस प्रकार प्रत्यक्ष न होने से (आत्मा की सिद्धि में) दृष्ट लिङ्ग नहीं है।

सामान्यते दृष्टाचाविशेषः ॥ ७ ॥

और मामान्यतो दृष्ट (लिङ्ग ) से अविशप सिद्ध होता है, ( कि ज्ञान आदि का आश्रय कोई द्रव्य है, न कि आत्मा है)

तस्मादागमिकः ॥ ८ ॥

इस लिए ( आत्मा का विशेष रूप ) भागम सिद्ध है ।

७८

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अ. १ आ. १ सू. ८

सं-इस पूर्व-पक्ष का समाधान करते-इं-

• अहमिति शब्दस्य व्यतिरेकान्नागमिकम्।९॥

। 'अहं ? इस शब्द का अमयोग होने से आगम मात्र सिद्ध नहीं है।

व्या-आत्मा का विशेषरुप केवल 'आगमसिद्ध नहीं।

क्योंकि 'अहं-मैं ? इस शाब्द का आत्मभिन्न द्रव्यों में प्रयोग । नहीं । 'यह पृथिवी' 'यहजल' कहते हैं, 'मैं पृथिवी, मैं जल ' कोई नहीं कहता । इस से सिद्ध है, कि 'मैं ? का विषय पृथिवी आदि आठ द्रव्यों से भिन्न पदार्थ है। और 'मैं ? हर एक के प्रत्यक्षानुवभ सिद्ध है ।

यदिदृष्टमन्वक्षमहंदेवदत्तोऽहं यज्ञदत्तइति १०

यदि ज्ञान प्रत्यक्ष है, मैं देवदत्त मैं यज्ञदत्त यह

व्या-(पूर्वपक्षी) यदि 'मैं देवदत्त हूं ? 'मैं यज्ञदत्त हूँ? इत्यादि ज्ञान प्रत्यक्षहै, तो फिर अनुमान की क्या आवश्यकता है। कहते ही हैं 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणम् ? । हाथी जब प्रत्यक्ष , सामने खड़ा है, तो उस की विघाड़ से लोग उस का अनुमान नहीं किया करत ।

दृष्ट आत्मनि लिंग एक एव दृढत्वात् प्रत्यक्षवत् प्रत्ययः ॥ ११ ॥. .

प्रत्यक्ष आत्मा में लिङ्ग होने पर दृढ़ होने से. प्रत्यक्ष की : नाई एक ही भतीति होती है।

व्या(सिद्धान्ती)‘अहं'इसमतीत से आत्मा केमत्यक्ष होने पर '"

'

८०
'वैशेषिक-दर्शन ।


भी वह शरीरसे अलग है, इसमें अप्रामाण्य शैका बनी रहती है, जव ज्ञानादि लिङ्ग द्वारा शरीर से अलग आत्मा का अनुमान होता है, तव प्रत्यक्ष की अप्रामाण्य शैका दूर हो कर वह भतीति दृढ़ हो जाती हैं। जैसे अन्यत्र प्रत्यक्ष में देखा जाता है, कि जवदूरसंजल कीमत्पक्ष देखकर अप्रामाण्य शकाउठं, कि कदा चित मूगतृष्णा ही न हो, तब बगले आदि लिङ्ग को देखकर जल का अनुमान होने पर इस संवादी ममाण से पहले ज्ञान में प्रामाण्यज्ञान हो जाने से वह शैका मिट जाती है। इसी प्रकार आत्मप्रत्यक्ष में भी उलटी संभावना (केि शरीर ही आत्मा न हो ) से उस ज्ञान में अप्रामाण्य शंका होती है, तव अनुमान से उसी का ज्ञान होने पर, इस सैवादि प्रमाण से वह ज्ञान दृढ़ हो जाता है । ऐसे स्थल में, जहां अनुमान के विना प्रत्यक्ष दृढ़ निश्चय न कराए, प्रत्यक्ष के होते हुए भी अनुमान आवश्यक होता है, अतएव वाचस्पतिमिश्र लिखते हैं-‘प्रत्यक्ष परिक लित मप्यनुमानेन बुभुत्सन्त तर्करासिकाः' मत्यक्ष से जाने हुए को भी तर्क के रसिक अनुमान से जाना चाहते हैं।

सै-“मैं देवदत्त हुँ' यह प्रतीति यदि आत्मविषयक है, * तो देवदत्त जाता है' यह प्रतीति और व्यवहार कैसे बनेगा, क्योंकि दूसरे तो उस के शरीर को ही गतिमान् देखते है, इस आशंका का उत्तर देते हैं

देवदत्तोगच्छति यज्ञदत्तोगच्छतीत्युपचारा च्छरीरे प्रत्ययः ॥ १२ ॥

देवदत्त जाता है, यज्ञदत्त जाता है, यह उपचार (लक्षणा)

से शारीर में भतीति होती है (मुख्य भतीति देवदत्त पद की

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अ. १ आ. १ सू. ८

आत्मा में हीं है, क्योंकि देवदत्त'जानता है. इच्छा करता है, . द्वेष काता है, इत्यादि व्यवहार में देवदत्त शब्द का मुख्य । विषय-आत्मविशेप ही है।

संदिग्धस्तूपचार ,॥-१३:॥

संदिग्ध है उपचार तो

व्या- पूर्वपक्षी) जघ 'देवदत्त' वा 'मैं’ शब्द का शागरिं: और आत्मा.दोनों में प्रयाग होता है, तो यह संदिध है; कि आत्मा में मुख्य प्रयोग है. और शरीर में उपचार छै, वा शरीर:- में मुख्य है और आत्मा में उपचार है । विनिगमना के अभाव से एक निर्णय, नहीं दृो सकता है ।

अहमिति प्रत्यगात्मनि भावात् परत्राभावा दर्थान्तर प्रत्यक्षः ॥ १४ ॥ : . .

.

अहं' यह (प्रतीति) अन्तरात्मा में होने से और दूसरे में न होने से भिन्न, वस्तु के प्रत्यक्ष वाली है।

व्या- 'मैं इस.प्रतीति से शरीर का प्रत्यक्ष नहीं किन्तु ५ शीर स:भिन्न जो आत्मा है. उस का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि “मैं? यह प्रतीति अन्तरात्मा में होती है. दूसरे में नहीं होती । यदि “मैं' का विषय शरीरोता. तो मैं का ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से होता, पर 'मैं ' का ज्ञान वाह्य इन्द्रियों से नहीं: मनसे-होता. है, इी लिएदूसरे के िवषय में 'मैंयह झाननहीं होता। सो मैं का विषय जव' आत्मा है, तो 'मैं जानता हूँ? इच्छा- कता हूं.. यत्र करता हूं, द्वेष करता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःीं हूं, इत्यादि

मयोगं मुख्य हैं, और 'मैं देवदत्त' इत्यादि प्रतीतिसे देवदत्त

८२
'वैशेषिक-दर्शन ।

आदि शब्द भी आत्मविशेष में मुख्य हैं। शारीर में औपचा रिक हैं। ।

देवदत्तोगच्छतीत्युपचारादभिमानात्तावच्छ रीरप्रत्यक्षोऽहङ्कारः॥ १५ ॥

  • देवदत्त जाता है'यह उपचार से (कहना) अभिमान से है,

क्योंकि शारीर को प्रत्यक्ष करान वाला है अहङ्कार । ।

'व्या-(पूर्वपक्षीफिर आशौका करता है)- देवदत्त जाता है। यह तुम्हारा औपचारिक कहना अभिमानमात्र है वास्तव नहीं. क्योंकि- 'मैं गोरा हूं, मैं स्थूल हूँ ? इत्यादि शारीरविषयक ही' अधिकतर मर्योगों से निश्चय होता है, कि अहं प्रतीति शांरीर को प्रत्यक्ष कराती है। ; ।।

सैदिग्धस्तूपचारः ॥, १६ ॥

सैदिग्ध है उपचार

व्या-(सिद्धान्ती)क्या*देवदत्त जाता है। यहाँउपचार है,वा ‘देवदत्त मुखी है? यहां उपचार है । यह भयोग की दृष्टि से तो सैग्दिघ ही है, क्योंकि शारीर और आत्मा दोनों के लिए एक जैसा ही प्रयोग होता है।

नतुशरीरविशेषाद् यज्ञदत्त विष्णुमित्रयोज्ञानं विषयः ॥ १७ ॥ ' ।

किंन्तु शरीर के भेद से यज्ञदत्त और विष्णुमित्र कंज्ञान विषय नहीं होता । .

व्या-शारीर के साक्षात्कार में यज्ञदत्त और िवष्णुमित्र का

ज्ञान विषयं नहीं होता। सो जैसे हमे आत्म साक्षात्कार में ज्ञान

८३
अ. १ आ. १ सू. ८

प्रत्यक्ष होता है 'मैं जानता हूं' ऐसे ही सुख आदि भी प्रत्य होते हैं 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' 'मैं इच्छा करता हूँ? 'मैं यत्र करता हूँ' । ऐसे ही शारीर के प्रत्यक्ष में भी ज्ञान आदि का प्रत्यक्ष हो, याद शरीर ज्ञानादिगुण वाला हो और अहं प्रतीति का विषय हो। “मैं जो स्थूल हूं, वह मैं जानता हूं' ऐसी प्रतीति किसी को नहीं होती किन्तु केवल ज्ञानाद के प्रत्यक्ष में केवल अहं मतीति ही होती है, इस लिए * अहं' प्रतीत का मुख्य विषय आत्मा ही है, अतएव शारीर में ही अहं प्रयोग औपचा रिक है । अहमिति मुख्ययोग्याभ्यां शब्दवद् व्यंतिः रेका व्यभिचाराद् विशेषसिद्धर्नागमिकः ॥१८॥

‘अहं’ यह मुख्य और, योग्य होने से शब्द की नाईअभाव कें अव्यभिचार, सें विशेष की सिद्धि होने से केवल आंगम सिद्ध नहीं ।

व्या-(उपसंहार करते हैं-) सो 'अहं ? इस प्रतीति का मुख्य विषय आत्मा ही है,वही इसमतीत के योग्य है, क्योंकि जिस ने आंख मींची हुई है, उस को भी‘अहं’ प्रतीत होती है। अतएव ‘अहं’ वह है, जो आंख काविषय नहीं । सो एक तो'अहं’ इसप्रतीति से आत्मा की विशेषसिदिसे, और दूसरा जैस पृथिवी आदि आठ द्रव्यों में शब्द का अभाव अव्यभिचारी (नियत) है, इस लिए आठ द्रव्यों से अतिरिक्त आकाश की सिद्धि होती है, इसी प्रकार, अहं प्रतीत का अभाव आठ द्रव्यों में

अव्यभिचारी होने से आठ द्रव्यों से अतिरिक्त. आत्मा की

८४
'वैशेषिक-दर्शन ।

सिदि होने मे. आग्मा कल आगमसिद्ध नहीं, किन्नुप्रत्यक्ष और अनुभव का विषय है ।

सं-आत्मसिद्धि के प्रफरण को समाप्त फरके, ‘अव आरमना नात्व की परीक्षा आरम्भ करते हैं

.., सुखदुःखज्ञाननिष्पत्त्यविशेषा दैकात्म्यम् ॥१९॥

सुख दु:ख ज्ञान की उत्पत्ति के समान होने से एक आत्माई

व्या-शैफा जैन शव्द लिङ्ग के अविशप ने से आकाशा एक माना है. आर जैने 'युगपन् ? आदि मतीति के आविाप हीन काल एक माना है और परे वरे आाद प्रतीति के अविशप होने मे दिशा एक मानी है. वैसे ही मुख दुःख ज्ञान अांदे की उत्पत्ति भी सर्वत्र अविशप होने से आत्मा भी एक ही मिद्ध होता है।

व्यवस्थातो नाना ॥ २० ॥

• • 'व्यवस्था से नानं है ।

व्या-चैत्र के सुख दुःख और ज्ञान को मैत्र अनुभव नहीं कंग्ता, यह व्यवस्था तभी घटे सकती है जव चैत्र का आत्मा मैत्र'से अलग हो. यदि दोनों का आत्मा एक हो, तो चैत्र का सुख अाद मैत्र को अनुभव होना चाहिये क्योंकि अनुभविता आत्मा'है; और वह दोनों में एक है. इभी प्रकार चैत्र के ख कॉलमें मैत्रं दुःखी, और ज्ञान काल में मैत्र वे सुध होता है। पर ] ] न'सकते । 'या व्यवस्था तृभी घट मकती है, जंव आत्मा नाना हीं, सो एकता की वाघक व्यवस्था के विद्यमान होने से

अंत्मिा'का नानात्व'युक्तियुक्त हैं ।

८५
अ. १ आ. १ सू. ८

शास्त्रसंमिथ्यच ॥ २१ ॥

'शास्त्रं सामथ्र्य से भी (नाना हैं)

व्या-'यत्र देवा 'अमृतमान शानास्तृतीयेधामन्नध्यग्यन्त मुक्त पुरुष अमृत का , उपभोग करते हुए जिम तृतीप-धाम (परमात्मा) में स्वच्छन्द विचरतें हैं। यह मुक्त आत्माओं के विषय में बहुवचनं इस बात का लिङ्ग है, कि आत्मंनाना है। सामथ्र्य,लिङ्ग को कहते हैं।, और जीव ईश्वर-का भेद तो

  • ासुंपण संयुजा सखाया समानं वृक्षे परिषस्वजातं । इस मन्त्र

में स्पष्ट कहा है । '

• चतुर्थे अध्याय-प्रथम आद्विक । , ,. सै-लक्षण प्रमाण से द्रव्यों की सिद्धि करके, अब उनके विषय मैं कुछ और विचार चलाते हैं

स हो और कारण वाला न हो, वह नित्याहोता है।

-तस्य कार्य-लिङ्गस् ॥-२ ॥

कारणभावात् कायेभावः ॥ ३ ॥--

कारण के होने से कार्य होता है.{

,-व्या-यह प्रत्यक्ष-भिद्ध है कि कार्य-कारण के-विना नहीं

८६
'वैशेषिक-दर्शन ।

जो मूल कारण हैं, वे सत्,हैं और-कारण-वाले नहीं, इस लिए नित्य हैं, और परम सूक्ष्म हैं, इस लिए परमाणु कहलाते हैं। सो पृथिवी, जल, तेज और वायुतो स्थूल भी हैं, इस लिए इन के तो परमाणु ही नित्य हैं, पर आकावा, काल, दिशा, आत्मा और मेन नित्य ही हैं, यह पूर्व दिखला चुके हैं ।

सं-सव अनित्य ही है, नित्य कुछ भी नहीं, ऐसा मानने वाले को उत्तर देते है

अनित्यइति विशेषतः प्रतिषेधभावः ॥ ४ ॥

‘अनित्य’ ऐसा प्रतिषेधभाव विोषरूप से हो सकता है,(कि पृथिवी अनित्यहै,वा सूर्य अनित्य है? इत्यादि। पर सामान्य रूप से निषेधही ही नहीं सकता, कि सव आनित्य हैं। वयोंकि अनित्य का प्रतियोगी जी नित्य है, वह यदि सिद्ध है, तो उस का अपलाप हो नहीं सकता, और यदि आसिद्ध है, तो अनित्य भी नहीं कह सकते, क्योंकि अभाव का निरूपण प्रतियोगी के विना हो ही नहीं सकता ।

स-प्रश्न-हम लोक में जितनी वस्तुएँ आकार वाळीं, कप वाली, रस वाली, वा स्पर्श वाली देखते हैं, वे सब अनित्य है, परमाणु भी इन धर्मोौ वाले हैं, इस लिए भनित्य होने चाहियें, इत्यादि का उत्तर देते हैं

अविद्या ॥ ५ ॥

अविद्या है (अर्थात् परमाणु के अनित्य होने का अनु मान-अविद्या है, क्योंकि आकार वाला होना इत्यादि हेतु त्वाभास हैं। क्योंकि वस्तु का नांवा आकारवा रूपरस आदि

के कारण नहीं होता । यदि ये नाछा के कारण -होते, तो कभी

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अ. १ आ. १ सू. ८

ग से।'सो जवं परंमाणु के अवयंव ही नहीं, तो अवयवंविभाग हो ही नहीं सकता। ' ' ' ' ' ।

' सं-परमाणु है, तो उंस का नेत्र से प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता इस का उत्तर देते है

['महत्यनेकद्रव्यवत्वाद्रूपाचोपलब्धिः ॥६॥

महत, में, अनेक द्रव्यों वाला होने से और रूप से प्रत्यक्ष होता है (प्रत्यक्ष वहू वस्तु होती है, जो अनेक द्रव्यों के संयोगः से महतं वस्तु वन गईहो, और उस में रूप भी हो । पृथिवी जल तेज के परमाणु रूप वालें हैं,पंर वे एक निरवयवं द्रव्य है;" अतएव महत् नहीं, परम सूक्ष्मं हैं, इसी लिए उन का मंत्य' नहीं होता, और ) ।

सत्यपेिद्रव्यत्वेमहत्वरूपसंस्काराभावाद्वायो स्नुपलब्धिः ॥ ७. ॥! ' ' :

द्रव्यत्व'और महत्त्वे के होते हुए-भी रूप का सम्बन्ध न होने से वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता । • • • । सै-द्रव्य के प्रत्यक्ष के अनन्तर गुणों के प्रत्यक्ष के कारण भः दिलाते हैं-. . . अनेकद्रव्यसमवायाद्रू पविशेषाच रूपोप • { .. . ... । ५० । • ५ • । • • • ! - 1. अनेक-टुल्य-चाळे में समवेत होने से और रूप विशेष सां रूप का भत्यक्ष होता.है । .

.

व्या-उस रूप कां मत्वक्ष होता है, जो अनै इब्द वाले

८८
'वैशेषिक-दर्शन ।

अर्थात. अनेक अवयवों से बने हुए द्रव्य में समवेत हो, और हो भी पत्रिशेषः अर्थान् उद्भूत रूप हो । परमाणु के रूप का, प्रत्यक्ष इस लिए नहीं होता, कि वह अनेक द्रव्य वाले में नहीं, और दृष्टि का रूप इस लिए:प्रत्यक्ष नहीं होता, कि वइ उद्भूत (प्रकट) नहीं ।

इस से ( रूप प्रत्यक्ष में हेतु कथन से) रंस गन्ध स्पर्श में प्रत्यक्ष व्याख्या-किया गया । । च्पा-जैसे अनेक द्रव्य वाले समवेत रूप विशेष का प्रत्यक्ष होता.,. वैसे . अनेक. द्रव्य वाले में समवेत रस.विशेप, गन्ध विशेष और स्पर्श विशेष का प्रत्यक्ष होता है ।

सं-पत्थर में रस गन्घ का और चाँदनी में स्पर्श का प्रत्य-न. होने से पूर्वोक्त कार्य कारण भाव का व्यभिचार होगा, इस कां

तस्याभावादव्यभिचारः ॥.१७ ॥ . . :

इक्रे न होनें से:अव्यभिचार है (प्रत्थर में जो, रस-और गन्ध है, वे उद्भूत नहीं, और चांदनी में ब्रो. स्पर्श है, वह., उद्भूतनहीं, इसलिए:च्यभिचार नहीं) :

सैख्याः परिमाणानि पृथक्तवं सैयोगविभागौ परंवा परत्वेकर्मच रुद्रिव्यसमवायाचाक्षुषाणि११

सैख्या, परिमाण, पृथक्क, संयोग, विभाग; पंरत्वं; अपरत्व) और कनै येiरूप वालें द्रव्यों में समैवत हों,तो-चाटुंहोते हैं।

. अरूपिष्वचाक्षुषाणि ॥ १२ ॥ः ! : */- ... ...

८९
अ. १ आ. १ सू. ८

सूप रहितों में वाक्षुष नहीं होते हैं।

एतेन गुणत्वेभावे च सर्वेन्द्रियं ज्ञानं व्याख्या तम् ॥ १३ ॥

इस से गुणत्व और सत्ता--सर्वेन्द्रिय ज्ञान व्याख्या किया गया है ।

व्या-जिस इन्द्रिय से जो व्यक्ति जानी जाती है, उसी से उस की जातिभी जानी जाती है। सो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श रहने चाली गुणत्व जाति और सत्ताजांति भी मवेन्द्रिय ग्राह्य है।

चतुर्थ अध्याय-द्वितीय आह्निक ।

संगति-कारण द्रव्य की परीक्षा की गई, अब कार्य द्रव्यं की परीक्षा करते है- .

तत्पुनः-कार्यद्रव्यं त्रिविधं शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञ

वह (पृथिवी अंदि) कार्य द्रव्य तीन प्रकार का है, शरीर इन्द्रियऔर विषय नाम वांला (मनुष्य आदि शरीर हैं, नेत्र आदि इन्द्रिय हैं; इन दोनों से भिन्न हरऐक वस्तु विषय'कह लांती है। विषय सव'भेॉग्य हैं, इन्द्रिय'भोगं का साधन हैं, और शारीर वह हैं, जिस में वैठा हुआ आत्मा भोगता है) । । ।

सं५सधकार्यद्रव्य-को क्यामेिलकर पांचोंभूत' आरम्भं करते हैं; वा’अलगं २? इस की विवेचना करते हैं

प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाणां संयोगस्या प्रत्यक्षत्वात् पञ्चां त्मकं न विद्यते ॥ २ ॥

९०
'वैशेषिक-दर्शन ।

प्रत्यक्ष और अमत्यक्ष के संयोग को अप्रत्यक्ष होने से पश्चा त्मक नहीं है।

व्या-प्रत्यक्ष द्रव्यों का संयोग प्रत्यक्ष होता है, जैसे वृक्ष और पक्षी का संयोग । पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का संयोग प्रत्यक्ष नहीं होता. जैसे वृक्ष और वायु का संयोग । अव पांच भूतों में से पृथिवी. जल, तेज ये तीन मत्यक्ष हैं, वायु और आकाश ये दो अमत्यक्ष हैं। सो शरीर यदि इन पांचों के संयोग से उत्पन्न होता, तो प्रत्यक्ष न होता, पर प्रत्यक्ष होता है, इस से निश्चित है कि पञ्चात्मक नहीं है, और इसी युक्ति से चतुरात्मक भी नहीं । रहा ध्यात्मक सो

गुणान्तराप्रांदुर्भावाच न घ्यात्मकम् ॥३॥

विलक्षण गुणों के प्रकट न होने से यात्मक भी नहीं है (यदि तीनों द्रव्यों के रासायनिक मेल से कार्य द्रव्य आरम्भ होते, तो इन में तीनों से विलक्षण गुण उत्पन्न होते, जैस हरिद्रा और चूने के रासायनिक मेल से लालरङ्ग उत्पन्न होता है। पर शरीर और पृथिवी आदि विषयों में पृथिवी आदि से विलक्षण गुण नहीं पाये जाते, इस से सिद्ध है, कि ये ध्यात्मक नहीं, और इसी रीति से द्यात्मक भी नहीं । किन्तु एक ही भूत से आारक हैं ।

संस-जव एकात्मक ही हैं, तो शरीर में गन्ध, गीलापन और गर्मी ये तीनों के अलग २ गुण कैसे अनुभव होते है, इस का उत्तर ठेते है।

अणुसंयोगस्त्वप्रतिषिद्धः ॥ ४ ॥

किन्तु अणुओं का संयोग निषिद्ध नहीं है ।

९१
अ. १ आ. १ सू. ८

व्या-दूसरे द्रव्यों के अणुओं के संयोग का हम निषेध नहीं करते, किन्तु रासायनिक मेल का निषेध करते हैं। जैसे घड़ा मट्टी का ही कार्य है, पर उस के बनने में जल भी सह कारी होता है। इसी प्रकार शरीर है तो निरा पार्थिव, पर उस की रचना में, न केवल रचना में, किन्तु स्थिति में भी जल तेज वायु आकाश सहकारी हैं। इसी लिए इन के धर्म भी शरीर में पाये जाते हैं। और मूतक शरीर के सर्वथा सूख जाने पर, केवल पार्थिव अंश के ही रह जाने पर भी, शरीर त्वेन जाना जाता है, इस लिए एक भौतिक है।

तत्रशरीरंद्विविधं योनिजमयोनिजं च ॥५॥

इन में स (शरीर, इन्द्रय, विषय में से) शारीर दो प्रकार का है, योनिज (माता पिता से उत्पत्ति वाला) और अयोनिज ( बिना माता पिता के उत्पत्ति वाला) ।

सैस-अयोनिज शरीरों में प्रमाण दिखलाते है

अनियतदिग्देश पूर्वकत्वात् ॥ ६

( हैं, अयोनिज) क्योंकि जिन का,दिशा देशा कोई नियत नहीं, उन (अणुओं) के अधीन इनकी उत्पत्ति है (शारीर के उत्पा दक अणु जैसे शुक्र शोणित में हैं, वैसे आदि में विना माता पिता के मिल जाते हैं। तत्वों का संयोग विशेष ही तो शरीर का कारण है, वह जैसे अव माता पिता के शरीर में होता है, वैसे आदि में ठीक वैसा ही संयोग विशेष भूमितल. पर ही हो जाता है। सो जैसे इन अणुओं की दिशानियत नहीं, वैसे देश भी

नियत नहीं कि शरीर में ही हो और शरीर से बाहर न हो.।

९२
'वैशेषिक-दर्शन ।

धर्मविशेषाञ्च ॥ ७ ॥

और धर्म विशेप से ( हैं अयोनिज ) ।

व्या-आदि में उत्पन्न होने वालों का धर्मइतना उच कोटिका होता है, कि वे योनि में प्रवेश किये विना जगत् में मवेश अन्वर्थ नामों के होने से (जैसेस त्रहमा का नाम स्वयम्भू है । योनिज होता, तो स्वयम्भू नाम न होता ) ।

संज्ञाया आदित्वात् ॥ ९ ॥

संज्ञा के आदि होने से और (यह संज्ञा आदि से चली आती है, इम लिए कल्पित नहीं )

सं-सो इन हेतुओं से निश्चित है कि

सन्त्ययोनिजाः ॥-१० ।।

हैं अयोनिज (शरीर)

संस-अति दृढ़ता के लिए वेद का प्रमाण भी दिखलाते हैं

वेदलिङ्गाव ॥ १२ ॥

वेद के सामथ्र्य से भी (हैं अयोनिज )

चाक्लप्रे तेनऋषयों मनुष्यायज्ञे जाते पितरो नः पुराणे । (ऋग्र० १०। १३० । ६)

'. उस-सनातन (सृष्टि-) यज्ञ के प्रवृत्त होने पर उस ने ऋषि

और मनुष्य रचे, जो हमारे पितर हैं। यह आदि में माता

९३
अ. १ आ. १ सू. ८

पिता'के अभाव में'ऋषि मनुष्यों की उत्पत्तिकाकयन-अंयोनिज उत्पत्ति का ज्ञापक है।

पञ्चमः अध्याय-प्रथम अॉद्विक :।

सैगति-द्रव्यों की परीक्षा की, अबक्रमागत गुण परीक्षणीय हैं, किन्तु अल्प होने से पहले कम की परीक्षा आरम्भ करते हुए प्रयत्र जन्य उत्क्षेपण को लक्ष्य करके कहते है

आत्मसंयोगप्रयलाभ्यां हस्तकर्म ॥ १ ॥

  • “ आत्मा के मैयोग और प्रयत्र से हाथ में कर्म (होता है)

तथाहस्तसंयोगाच मुसले कर्म ॥ २ ॥

और वैसे ( कर्म.वाले ) हाथ के सैयोग सें मूसळ में कर्म (होती है)।

व्या-प्रयत्र आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवद कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत् ? आत्म में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्र उत्पन्न होता है. प्रयत्र से ( मारे शरीर में वा किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है. ",चष्टा मे क्रिया-उत्पन्न होती है। यहां प्रकृत में:पहले आत्मा में मूमलउठाने की इच्छाउत्पन्न आत्मा के संयोगसे हाथ में (ऊपर की औीर) चेष्टा-उत्पन्न हुई,

उस चेष्टा से मूसल में ( उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी

क्रम मे नीचे लाते समय ( अवक्षेपण । क्रियाः उत्पन्न होती है।

अभिघातजेमुसलादौ कर्मणिव्यतिरेकादःकारणं

हस्तसंयोगः ॥ ३॥

९४
'वैशेषिक-दर्शन ।

अभिघात से उत्पन्न हुआ जो.मूसल आदि में कर्म है(उछ लना है) उस कर्म में हाथ का सैयोग कारण नहीं। कारण व्यतिरेकसे (जबपुरुष मूसल को वेग से ऊपर उठाकर ऊरूखलमें मार कर छोड़ देता है, तव भी वह ऊरखल से चोट खाकर उछ- " लता है, इसं लिए उस उछलने में अभिघात निमित्त है, न कि इस्त संयोग, और न ही प्रयत्र )

तथाऽऽत्मसंयोगः हस्तकर्मणि ॥ ४ ॥

वैसे (अकारण है ) आत्मा का संयोग हाथ के कर्म में (वहां मूसल के साथ हाथ का उपर उठना भी मयत्र वाले आत्मा के संयोग से नहीं हुआ, किन्तु-)

अभिघातान्मुसल संयोगाद्धस्ते कर्म ॥५॥

मूसल के संयोग से (हाथ में भी) अभिघात से (विश) हाथ में कर्म होता है।

आत्मकर्म हस्तसंयोगाच ॥ ६ ॥

शरीर में कर्म होता है । हाथ के संयोग से । व्या-उस समय सारा ही शारीरं जो हिल जाता है, वह हाथ के संयोग सें होता है। वह शारीर में कर्म भी आत्म संयोग से नहीं हुआ । वह ऐसा ही कर्म है, जैसे भरी गागर के भार केवेगसे उलटी घूमती हुई वरखड़ी को दृढ़ पकड़े रखने के कारण एक बालक सारा ही नीचे से उठ कर चरखड़ी के ऊपर से हो कर कुंएँ में जा पड़ा था ।

संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् ॥ ७ ॥

संयोग के अभाव में गुरुत्व से पतन होता है। , .। ?

९५
अ. १ आ. १ सू. ८

व्या-गुरुत्ववस्तु के पतन का कारण होता है, और विधा रक संयोग पतन का प्रतिबन्धक होता है । पत्थर पहाड़ की चोटी पर टिका हुआ है, क्योंकि चोटी उस को धारे हुए है, चोटी से उठा कर खडु में छोड़ दिया जाता है, तो नचेि जा गिरता है। वहां उसके पतन का कारण गुरुत्व है। फल आकाश में लटका हुआ है, क्योंकि डैडी का संयोग उस को थामे हुए है, सैयोग के नाश होते ही गुरुत्व से नीचे आ पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य भी दृक्ष की डाली के टूटते ही नीचे आा गिरता है । इस पतन में'मनुष्य का भी गुरुत्व कारण है, न कि प्रयत्र। हां स्वयं उतरने में प्रयत्र कारण होता है। इसी प्रकार ऊपर उठा कर छोड़ी वस्तु के गिरने में गुरुत्व कारण है, किन्तु पकड़ हुए नीचे लाने में मयत्रे कारण है । मूसल के भी अभिघात से ऊपर उछलने की हद्द तक अभिघात कारण है, और उसी हद्द 'से अपने आप गिरने में गुरुत्व कारण है। पर उस हद्द से ऊँचा ले जाने और िफर नीचें लाने में प्रयत्र कारण है। और दोनों निमित्त इकडे भी हो जाते हैं। नीचे लाने में सदा गुरुत्व और प्रयत्र दो निमित्त होते हैं, इसी लिए नीचे आसानी से आता है, ऊपर उठाने में भी पहली वार केवल प्रयत्र कारण होता है, इस लिए अधिक वल लगता है। दूसरी वार अभिघात और प्रयत्र दोनों मिल जाते हैं, इस लिए न्यून वल से उतना ही उठ जाता है । ; इं अधिक देरी में थकावट भयत्र कोदीला कर देती है ।

सै-गुरुत्व से पतन ही क्यों होता है ढेले की नई ऊपर जाना था बाण की नाई आङ्गा खाना क्यों नहीं होता ? इस का, उत्तर

वैदेते हैं

९६
'वैशेषिक-दर्शन ।

- नोदनविशेषाभावान्नोध्वै न तिर्यग्गमनम् ८

नोदन विशेष के अभाव से नऊपरनतिरछा जाना होता है। नोदन=धकेलने चाळा संयोग । वस्तु को आगे धकेलने वाला नेोदन एकभिन्न प्रकार का होता है और ऊपर धकेलनेवाला भिन्न प्रकार का । सो गुरुत्व वाली वस्तु नेोदन विशेष से ऊपर जाता है, और नोंदन विशेष से आड़ी जाती है, विना नोदन के गुरुत्व से नीचे गिरती है। सोगुरुत्व पतन का कारण है. नीदन विनष-उससे विपरीतःऊपर वा आड़ा ले जाता है ।

प्रयतविशेषान्नोदनविशेषः'॥ ९ ॥

नोदनविशेषादुदसनविशेषः ॥ १० ॥

(आत्मा में उत्पन्न हुए) मयत्र के-भेद से’ नोदन -में भेद होता-है ॥ ९ ॥ फिर नोदन-के भेद से फैकने-में (ऊपर, नीचे दूर, दूर-तर फेंकने में) भेद:होता है।

चलानाकैसे होता है; क्योंकि नतो वह इच्छा पूर्वेकहाथ पाओं: को चलाता है, और-न.ही वहाँकोई • नोदन है, इस-का- उत्तर देते हैं

-हस्तकमणाः दारकमव्याख्यातम्-4॥ ११४॥1 - 1

व्या-जैसे मूसल के संयोग मे हाथ बिना इच्छा के ऊपर


९७
अ. १ आ. १ सू. ८

तथा दग्धस्य विस्फोटने ॥ १३ ॥

जैसे दग्ध हुए (अङ्ग' के उभरने में प्रयत्र हेतु नही,दिन्तु वेग वाले आग्र का संयोग हेतु है जैसे दग्ध हुई वस्तु के फूटने अर्थात् टुकड़ों के उडने में अ'िसैयोग कारण होता है)

यलाभावे प्रसुप्तस्य चलनम् ॥ १३ ॥

यत्र के अभाव में मूर्छित का चलना होता है मूर्छित के जो हाथ पाओं आदि चलते हैं वे भी बिना भयत्र के वायु विशेष के संयोग से ही चलते हैं)

सै-शरीर के कम की व्याख्या करके, उस से भिन्न कर्मो की’ व्याख्या करते है

तृणे कर्म वायुसंयोगात् ॥ १४ ॥

.. (वायु में उड़ते हुए तृण में कर्म वायु के संयोग से होता है

मणिगमनं सूच्यभिसर्पण मित्यदृष्ट. कारण कम् ॥ १५ ॥

(तृणों का-तृणकान्त-) मणि की ओर चलना, और ( 'सूई का (चुम्बक की ओर) चलना, ये अदृष्ट कारण वाले हैं ( अर्थात् अन्यत्र गति में जो प्रयत्र और नोदन कारण देखें हैं, उन में से कोई कारण नहीं, यहाँ वस्तु शाक्ति ही ऐसी है, जो उस २ से वह २ वस्तु खींची जाती है)

इषा वयुगपत् संयोगविशेषाः कर्मान्यत्वे . हंतुः १६

वाण में न एक साथ (अर्थात् क्रम २ से ) उत्पन्न हुए

जो संयोग विशेष हैं, वे कर्म के नाना होने में हेतु हैं।(, धनुष

९८
'वैशेषिक-दर्शन ।

से छूटा हुआ वाण जक् चलता है, तो गिरने-तक पद २ पर उस को नए २ स्थान का संयोग होता जाता है। इस प्रकार.गिरने तक कई संयोग हो जाते हैं, डरएक संयोग से पूर्वेला कर्मनाश हो जाता है. इस से सिद्ध है, कि गिरने तक-एक कर्म नही, कई कर्म हुए हैं। वे इस प्रकार कि

नोदनादाद्यमिषोः कर्म तत्कर्मकारिताच संस्का रादुत्तरंतथोत्तरमुत्तरं च ॥ १७ ॥

नोदन से वाण का प्रथम कर्म होता है. उम कर्म से उत्पन्न । किये गए संस्कार ( वेग,) से अगला (कर्म होता है) वैसे अगला २ होता जाता है ।

सस्काराभावेंगुरुत्वात् पतनम् ॥ १८ ॥

संस्कार के अभाव-में (अर्थात् संस्कार मन्द २ होता हुआ जनव-क्षीण:हो.ज़ाता है, तव) गुरुत्व मे पतन होता है। पञ्चम अध्याय-द्वितीय आह्निकः ।

स-नोदनादि के अधीन कम की परीक्षा आरम्भ करते हैं

नोदनाभिघातात् संयुक्त संयो च पृथिव्यां कर्म १

नोदन से, अभिघात से और संयुक्त संयोग से पृथिवी में कर्म होता है ।

व्या-धकेलने वाले संयोग को नोदन कहते है। यदि वह चौट दे, तो 'उस ‘को आभिघात कहते हैं। दोनों प्रकार-के संयोग से.पृथिवी में कर्म होता है। जैसवाण में नोदन से कर्म होता

है । और गोले-कें लगने से जो वस्तु उड जाती है, उस में

९९
अ. १ आ. १ सू. ८

अभिघातें से होता है । तथों संयुक्त संयोग से भी होता है । जैसे चलते हुए घोडे संयुक्त रस्से में,रस्से से संयुक्त-रथं में कर्म होता है। रथ के साथदूसरारथ वांधदें, तो उस में भी होता है।

तद्विशेषेण दृष्टकारितम् ॥ २ ॥

चंह विशेषं से अदृष्ट से कराया होता है । ।

व्यां-वह पृथिवी कर्म'जव कभी भूचाल आंदं विशेषरूप में उत्पन्न होता है, तो वह पृथिवी के भीतर जो अंदृष्ट वस्तुएं (अग्रि ऑदि ) है, उन के नोदन वा अभिघात' चा संयुक्त संयोग से होता है ।

संसर्गति-पृथिवी के अनन्तरं जल के कर्म की परीक्षा आरम्भ करते हैं अपां संयोगाभावे उंरुत्वात् पतनम् ॥ ३॥

  • ( मेघस्थं ) जलों का ( विधारकं-) संयोगे के अभावै'में

गुरुत्व से पतन होता है (जब जलं कणं इकडे होने से इतनें गुरु हो जाते हैं कि वायु उनको धैरि नह'िसँकंता,तों गुरुत्व के कारण वे नीचे गिर पड़ते हैं; यही घरंसना है)

द्रवत्वात्स्य न्दनम्'।। ४ ।।

द्रवत्व से बहना होता है (अव पृथिवी पर गिरे हुए जल जो वहने लगते हैं, इस में द्रवत्व हेतु है)

नाड्योवायुसंयोगादारोहणम् ॥ ५ ॥

किरणें घायु के सैयोग से (जलों का आकाश में) आरो

हण (कराती हैं। वही जs फिर व रूप में गिरते हैं).

१००
'वैशेषिक-दर्शन ।

नोदनापीडनात् संयुक्तसंयोगाच ॥ ६ ॥

नोदन के मवल चेग से संयुक्त संयोग से

व्या-किरणों का जल को धकेलने का जो प्रवलवेग है, उस वेग से, और किरण संयुक्त उष्ण वायु के संयोग से जलों का आरोहण होता है। जैसे आणि पर धरी चटलोई कं जल तेज के मवल नोदन से और तेज संयुक्त वायु के संयोग से ऊपर चढ़ते हैं।

वृक्षाभिसर्पणभित्यदृष्ट कारितम् ॥ ७ ॥

वृक्ष के सब ओर चळना अदृष्ट से कराया जाता है।

व्या-दृक्ष के मूल में सिचे हुए जल वृक्ष की जड़ों तने डाल डाली पत्तों में फैठते हैं, जिम से वृक्ष की पुष्टि होती है। यह उन का फैलना-वृक्ष में जो मूल से लेकर पत्तों तक सूक्ष्म नाडियां है, इस अदृष्ट शक्ति से उन में रस का आकर्षण होना है, इस से दृक्ष जीता रहता है।

अपां संघातो विलयनंच तेजः संयोगात् ॥८

जलों का जमना और पिघलना तेज के संयोग से ।

व्या-ये जो आले वा बर्फ गिरती है, और गिरी हुई फिर पिघलती है, यह तेज के संयोग विशेष से होता है। एक विशेष मात्रा में जघ तेज का संयोग रह जाता है तव जल जम जाते हैं, यह तेज बहुत थोड़ा होता है, अतएव ओले और बर्फ जल से अधिक शीतल होतें हैं । उस में बाहर से और अधिक तेज के प्रवेश करने से ओले और वर्फ पिघल कर जल वन जाते

हैं, अत्एव जल उतना ठंडा नहीं रहता है ।

१०१
अ. १ आ. १ सू. ८

स-ओले और बर्फमें भी तेज शेष रहता है, इस में क्या-आमलक है, इस अकांक्षा के होने पर कहते हैं

तत्र विस्फूर्जथुलिंगम् ॥ ९ ॥

उस में कड़क लिङ्ग है ।

व्या-ऑले भायः कड़कने के पीछे बेस्सै-1.कुड़कुना. , { इस से सिद्ध है, कि तेजः संयोग वहां भी है ।

वैदिकं च ॥ १० ॥

और चैदिक लिङ्ग भी है (‘अग्रे गर्भा अपामसि’ यजु० १२ । ३७) हे अम द जलों के भीतर है)

अपां संयोगाद्विभागाच्च स्तनयिोः ॥११॥

जलों के संयोग और विभाग से विजली के (शाब्द की उत्पत्ति संयोग और विभाग से होती है, यही कारण कड़क की उत्पत्ति में हो सकता है। सौ मेघ में कड़क की उत्पत्ति जल और तेज के संयोग से, और बिजली के विभाग से होती है। इसी से विजली कड़क सहित नीचे गिरती है। इस से तेज का सम्वन्ध जल और ओले दोनों में निश्चित है)

सगति-अघ क्रमागत तेज घायु और मन के कर्म की परीक्षा

पृथिवीकर्मणातेजः कर्म वायु कर्मच व्याख्या तम् ।। १३ ।।

..(पूर्वे सूत्र २ में जो पृथिवी का कर्म अदृष्ट शक्ति से

१०२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

किहा है उस) पृथिवी कर्म से तेज का कर्म और वायु का कर्म व्याख्या किया गया है।

अमेरूर्धज्वलनं वायोस्तिर्यक् पंचनमणूनां मन सश्चाद्य कमॉ दृष्टकारितम् ॥ १३ ॥

अगि का ऊपर जलना ( आग्रेि की अदृष्ट शक्ति से) वायु का तिरछा चलना (वायु की अदृष्ट शक्ति से) तथा पंरमाणुओं का और मन का (लय के अनन्तर सब से) पहला कर्म(परं मात्मा की अदृष्ट ( शक्ति ) से 'कराया जाता है ।

हस्तकर्मणा मनसः कर्म व्याख्यातम् ॥१४॥

हाथ के कर्म से मन का कर्म व्याख्यां किया गया (जैसे पुरुष प्रयत्र से हाथ को प्ररता है, ऐसे ही-अव उन २ अभिमत विपर्यो में मन को भी प्रेरता है)

संस-अप्रत्यक्ष मन की सिद्धि पूर्व अनुमान से कही. है, पर-उस के कर्म की सिद्धि किस से अनुमान करनी चाहिये, इससं का उत्तर देते हैं

आत्मन्द्रियमनोर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे ॥१५॥

आत्मा इन्द्रिय मन और अर्थ के सम्वन्ध से सुख दुख होते हैं। मित्र को देख कर मुख, वैरी को देख कर दुःख होता है। ऐसा दर्शन नेत्र और मन के सम्बन्ध तया मन और आत्मा के सम्बन्ध के विना नहीं हो सकता, और अणु मन का इन्द्रियों से सम्बन्ध, विना कर्म के नहीं हो सकता, इस से मन के कर्म का अनुमान होता है।

तदनारम्भ आत्मस्थे मनासिशरीरस्य दुःखाभावः

१०३
अ. १ आ. १ सू. ८

सः योगः ॥ १६ ॥ ': ' ' ' । ।

'मन का ‘आत्मा में स्थित होने पर उस का (=मन के कर्म का जो) अंनारम्भ है, वह योग है, जो शारीरके दुखा भाव का हेतु है।

अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगाः कार्या न्तरसंयोगाश्चेत्य दृष्टकारितानि ॥ १७ ॥

(यह, जो मरने के समय मन का, पूर्व देह से) निकलना और (दूसरे देह में.) भवेश.करना है, तथा (जन्म से ही ); जो खाने पीने की वस्तुओं के संयोग:हैं, तथा दूसरे शरीर का, संयोग है, य(सव मनुष्य-क) अदृष्ट से कराए जाते हैं। .

तदभावें संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्चमोक्षः १८

'( तत्त्वज्ञान से) उस ( अदृष्ट) का अभाव हो जाने पर ( पूर्व शरीर से ) संयोग-का अंभाव और नए का प्रकट नं होना मोक्ष है।

संस-अन्धकार की भी गतेि परीक्षणीय है, इस पर कहते हैं

द्रव्यगुणकर्मनिष्पात्तवैधम्र्याद्भाभावस्तमः१९

द्रव्य गुण कर्म की उत्पत्ति से विरुद्ध धर्म वाला होने से प्रकाशा का अभाव'हें अन्धकंार ।

व्या-अन्धकार नित्य तो है नहीं, क्योंकिसदा'नहीं रहता।। कार्यमानें, तोकॉर्यद्रव्यं अवयवों से उत्पन्न होता है, अन्ध कारं प्रकाश के दूर-होने पर सहसैव प्रकट हो जाता है, और

स्पर्श वालाभी नहीं है और गुण और कर्म विना द्रव्य के रंह

१०४
'वैशेषिक-दर्शन ।

नहीं सकते। दूसरा-रूप गुण, और रूपि द्रव्य का कर्म,मकाशा में प्रत्यक्ष होतें हैं। अन्धकार के रूप कर्म प्रकाश के होते ही नाम मात्र भी नहीं रहते । इस लिए तम द्रव्य गुण कर्म नहीं, किन्तु प्रकाशा का अभाव ही तम है ।

तेजसोद्रव्यान्तरेणावरणाच ॥ २० ॥

तेज का अन्य द्रव्य से आवरण होने से (भकाशस्वभाव तेज जब किसी द्रव्य से रुक जाता है, तब अन्धकार हो जाता है, जैसे दिन के समय काली घटा हो जाने सें । इस से भी यही सिद्ध होता है, कि प्रकाश का अभाव तम है । सो यह तेज का अभाव तम है, क्योंकि तेज उस समय नहीं है। और यह जो अन्धकार में गति की भतीति होती है, यह आवरक द्रव्य के न ठहरा रहने से प्रतीति होती है। द्रव्यान्तर से तेज का आवरण अन्धकार है, और वह तेज का आवरक द्रव्य एक स्थान में ठहरता नहीं । उस आवरक के अव्यवस्थान से अन्ध कार की गति की प्रतीति है)

सै-कर्म शान्यता का प्रकरण आरम्भ करते हैं। हैं

दिकालावाकाशंच क्रियावद् वैधम्र्यान्निष्कि याणि ॥ २१ ॥

दिा काल और आकाशा क्रिया वालों से विरुद्ध धर्म वाले होने से निष्क्रिय हैं।

क्रिया नोदन से वा अभिघात से उत्पन्न होती है, और परिठिन्न द्रव्य में होती है। दिशा काल और आकाश मूर्त

द्रव्य नहीं, इस लिए इन में नोदन वा अभिघात नहीं होता,

१०५
अ. १ आ. १ सू. ८

सो नोदन और अभिघात : शून्य अमूर्त द्रव्य होने से दिशा काल ओर आाक श निष्क्रिय हैं ।

एतन कर्माणि गुणाश्च व्याख्याताः ॥ २२ ॥

इस, से (क्रिया चालों से विरुद्ध धर्मवाले होने से) कर्म और गुण व्याख्या किये गए (क्योंकि कर्म और गुण द्रव्य ही नहीं, अतएव इन में नोदन और अभिघात नहीं होता )

संस-यदि गुण और कर्म निष्क्रिय हैं, तो उन का द्रव्य से सम्ब न्ध कैसे होता है, क्योंकि एक का दुसरे से सम्बन्ध क्रिया के अधीन होता है, इस का उत्तर देते है

निष्क्रियाणां समवायः कर्मभ्यो िनषिद्धः |२३

निष्क्रियों का समवाय कम से निषेध किया है ( गुण औीर कर्म का सम्वन्ध समवाय है, और समवाय सम्बन्ध कर्म जन्य नहीं होता. कर्मजन्य संयोग सम्वन्ध होता है। ।

सं-गुण यदि कर्म से शून्य है, तो गुण गुणों और कमाँ के कारण कैसे होते हैं, कारण यदि विना कर्म के हो, तो बिना कर्म के तन्तुओं से वस्त्र, मट्टी से घड़ा और बीज से अंकुर उत्पन्न हो, पर होता नहीं, इस से स्पष्ट है, कि कारणता विना कर्म के होती नहीं ? इस का उत्तर देते है

कारणं त्वसमवायिनो गुणाः ॥ २४ ॥

( ऊपर के उदाहरणों से इतना ही सिद्ध होता है, कि द्रव्य दृमरे द्रव्य का समवायिकारण बिना कर्म के नहीं होता पर गुण असमवायि कारण हैं (इस लिए दोष नहीं ) ।

गुणैर्दिग व्याख्याता ॥ २५ ॥

१०६
'वैशेषिक-दर्शन ।

गुणों से दिशा व्याख्या की गई (दिशा भी किमी द्रव्या न्तर का समवायिकारण नहीं ) ।

कारणेन कालः ॥ २६ ॥

( निमित्त-) कारण रूप से काल व्याख्या किया गया है (काल हरएक उत्पत्ति वाली वस्तु का कारण तो है, पर निमित्त कारण है । ममवायि कारण किसी का नहीं )

षष्ठ अध्याय-प्रथम आह्निक ।

सं-लौकिक कर्म परीक्षा किये गए, अब अलौकिक परीक्ष णीय है, उन का ज्ञान वेंद से होता है, इस लिए पहले वेद के प्रामाण्य की परीक्षा करते है

बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे ॥ १ ॥

बुद्धिपूर्वक है वाक्य रचना वेद में ।

व्या-वाक्य से वक्ता की बुद्धि का पता लगता है, क्योंकि जो जैसा जानता है, वह वैसी वाक्यरचना करता है । वेद वचनों से अलौकिक धर्म आदि का यथार्थ बोध होता है, इस से सिद्ध है, कि वेद का वचका वह है, जिस को धर्म आदि का साक्षात्कार हं ।

ब्राह्मणे संज्ञा कर्मसिद्विलिंगम् ॥ २ ॥

ब्राह्मण में संज्ञा का कार्य सिद्धि का लिङ्ग है ।

.. व्या-त्राह्मण में जो .'छन्दांसि छादनात् ? छन्द ( पाप के ) द्वांपने के कारण कहलाते हैं, इत्यादि वैदिक संज्ञाओ को अन्वर्थे सिद्ध किया है, यह .भी वेदों की बुद्धिपूर्वक रचना

का लिङ्ग है। क्योंकि अन्वर्थे नाम वही रख सकता है, जो

१०७
अ. १ आ. १ सू. ८

उस संझी के धर्मे को साक्षात जानता है ।

बुद्धिपूर्वो ददातिः ॥ ३ ॥

बुद्धि पूर्वक है दान

व्या-उदाहरण द्वारा बुद्धि पूर्वकता को स्पष्ट करते हैं, कि वेद में जो दान के विपय में कहा है

इदं मे ज्योतिरेमृतं हिरण्यैपक क्षेत्रात् कामदुघा मएषा । इदंधनं निदधे ब्राह्मणेषु कृण्वे पन्थां पितृषु यः स्वर्गः ( अथर्व ११ । १ । १८)

यह मेरा चमकता हुआ आयुवर्धक सुवर्ण,. क्षेत्र से आया यह मेरा पका हुआ अनाज और यह मेरी काम दुघा गौ। यह धन मैं ब्राह्मणों में स्थापन करता हूं, इस से मैं वह मार्ग बनाता हूं, जो पितरों में स्वर्ग नाम से प्रसिद्ध है ।

यहां जगत् को सुमार्ग पर चलाने वाले ब्राह्मणों को, जो दान वतलाया है, यह ऐसा बुदिपूर्वक है, जिस का कभी कोई प्रतिवाढ नहीं कर सकता । और साथ ही जो पारलौकिक फल घतलाया है, इस का अधिकार उमी को है. जो दान के पारलौकिक फल का प्रत्यक्षदर्शी है ।

तथा प्रतिग्रहः ।। ४ ।।

वैसे है (बुद्धि पृर्वक है ) मानिग्रह

व्या-भूमिष्ठा प्रतिगृह्णात्वन्तरिक्षमिदं महत् । माद्दे प्राणेन 'मात्माना मा प्रजया प्रतिगृह्य विराधिपि ( अथर्व ३ । ३० । ८)

(पतिग्रहीता दान को लक्ष्य करके कहता है-) भूमि तुः

१०८
'वैशेषिक-दर्शन ।

स्वीकार करे. यह बड़ा अन्तग्क्षि तुझे स्वीकार करे ( अर्थात् यह धन मैं भूमण्डन् के उपकार के लिए, चा यज्ञ द्वारा वायु आदि की पुष्टि के लिए स्वीकार करता हूं) जिस से कि मैं प्रतिग्रह लेकर न प्राण में, न मन मे, न सन्तति से हीन होउँ ।

यहां जो दान लेन का आधिकार उस को दिया है, जिस के सामने भूमण्डल और वायुमण्डल को पुण्यमय वनाने से अतिरिक्त अपना कोई स्वार्थ नही । और साथ ही यह भी बतला दिया है, कि प्रतिग्रह लेकर प्रतिग्रहीता याढि भूमण्डल ऑर वायु मण्डल क उपकार म भटत रहता ह ता उस का प्राण, मन और सन्तान ( आयु आत्मवल और सन्तति ) बढ़ती है, और यदि उक्त उपकार मे प्रवृत्त न रहकर स्वार्थ में प्रवृत्त रहता है. तो प्रतिग्रह से उम की आयु आत्मवल और मन्तति घटती है । यह सव उदार और यथार्थ बुद्धि के चिन्ह हैं।

इन हेतुओं से पष्ट है, कि वेद उम की कृति है, जिस को कर्म के लौकिक ओर अलौकिक फलों का यथार्थ ज्ञान है. वेद का उपदेश भ्रम और प्रमाद से शून्य है, अतएव धर्म में प्रमाण है ।

संस-धर्मा धर्म में वेद की प्रमाणता स्थापन करके, धर्म के फल की विवेचना आरम्भ करते हुए पहले सामान्य नियम यनलाते हैं

आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरे ऽकारणत्वात् ॥५॥

क्योंकि अन्य आत्मा के गुण न्य आमा मे कार्यकर नही होते ( इस लिए फल अपने ही वि ये का मिलता है ) म-टान में पात्र प्रपात्र की विवेचना टिग्नल्टाते हैं

तद्दुष्ट भोजने न विद्यते ॥ ६ ॥

१०९
अ. १ आ. १ सू. ८

वह (पुण्य) दुष्ट के खिलाने में नहीं होता है ।

दुष्ट हिंसायाम् ॥ ७ ॥

हिंसा में भद्यत्त को दुष्ट (जाने। हिंसा, सताना द्रोह करना)

तस्य समभिव्याहारतो दोषः ॥ ८ ॥

उस के (दुष्ट के ) संसर्ग से भी दोष होता है।

तद् दुष्ट न विद्यते ॥ ९ ॥

वह ( मंमर्ग दोष ) अदुष्ट मे नहीं होता है (दुष्टों में रह कर भी याद स्वयं दोषों से शून्य रहता है. तो फिर संसर्गदोष उस का नहा लगता ह । अन्यथा उन म रह कर उन का सुधार करने वाला भी दोषभागी हो )

पुनर्विशिष्ट प्रवृत्तिः ॥ १० ॥

( दान का जब २ प्रसंग हो ) वार २ अपने से उत्तम में

समे हीने वा प्रवृत्तिः ॥ ११ ॥

(अपने से उत्तम न भी हो, तो) अपने संमान में वा अपने से हीन में प्रवृत्ति करे (किन्तु दुष्ट न हो )

एतेनहीन समविशिष्ट धार्मिकेभ्यः परस्वादानं व्याख्यातम् ॥ १२ ॥

इस से हीन, सम औ। विशिष्ट धार्मिकॉभे दान लेना भी च्याख्या कया गया . दान भी अपने से हीन, सम वा विशिष्ट

से लवे, पर ले धार्मिक ग् इी अधार्मिक से कभी नहीं )

११०
'वैशेषिक-दर्शन ।

तथा विरुद्धानां त्यागः ॥ १३ ॥

वैसे विरुद्ध का त्याग (हीन सम और विशिष्ट की दृष्टि से इस प्रकार हो कि)

हीने परे त्यागः ॥ १४ ॥

यादि विरोधी अपने से हीन (हीन गुण) हो, तो उस का त्याग ( करना चाहिये ) ।

सम आत्मत्यागः परत्यागो वा ॥ १५ ॥

सम हो, तो अपना त्याग वापर का त्याग (करना चाहियें)

विशिष्ट आत्मत्यागः ॥ १६ ॥

विशिष्ट हो, तो अपना त्याग ( करना चाहिये ) ।

षष्ठम अध्याय-द्वितीय आह्निक ।

सैगति-अब विशेष से धर्म परीक्षा के लिए कर्म फल की विवे चना करते हैं

दृष्टा दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोजन मभ्यु दयाय ॥ १ ॥

दृष्ट और अदृष्ट प्रयोजन वालों में से दृष्ट के अभाव में प्रयो जन अभ्युदय के लिए होता हैं ।

व्या-कई कर्म यहाँ फल भोग के लिए किये जाते हैं, जैसे खती व्यापार आदि, कई पारलौकिक फल के लिए, जैसे अश्ध मेष आदि । सो वैदिक कर्मों में से जिन का फल दृष्ट है, वे तो दृष्ट फल के लिए हैं, पर जिन का दृष्ट फल नहीं, उन का भयो

जन अदृष्ट आत्म संस्कार द्वारा अभ्युदय होता है ।

१११
अ. १ आ. १ सू. ८

सं-उनमें से अदृष्ट प्रयोजन वाले कुछ कर्म दिखलाते है

अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्यगुरुकुल वासवान प्रस्थयज्ञदानप्रेोक्षणदिङ्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चा

। (यज्ञ के आरम्भ में विधिवत् ) अभिषेक, उपवास, ब्रह्म चर्य, (चेदाध्ययन के लिए यथाविधि ) गुरुकुल वास, वानप्रस्थ के तप, यज्ञ, दान (यज्ञों में व्रीहि आदि का ) प्रोक्षण, (कर्म नुष्ठान में) दिशा का नियम, नक्षत्र का नियम, मन्त्र का नियम और काल का नियम, ये अदृष्ट फल के लिए हैं ( अर्थात् आत्मा म धर्म का उत्पन्न करक, उस धम द्वारा फल जनक होते हैं)

चातुराश्रम्य मुपधा अनुपधाश्च ॥ ३ ॥

चारों आश्रमों में कहा कर्म, उपध और अनुपधा ( रूप हो कर फलप्रद होता है)

भावदोष उपधाऽदोष ऽनुपधा ॥ ४ ॥

भाव का दोष उपधा और दोष का अभाव अनुपधा है ॥ अर्थात आश्रम कर्म यदि शुद्ध भावों से किये जाते हैं, तो अभ्युदय के लिए होते हैं और यदि दुष्ट भावों (मद मानलोभ मोहjसे प्रेरित हो कर किये जाते हैं, तो अभ्युदय के लिए नहीं, किन्तु अनिष्ट फल के जुनक होते हैं।

यदिष्टरूपरसगन्धस्पर्श प्रोक्षितमभ्युक्षितं च

तच्छाचेि ॥ ५ । .

११२
'वैशेषिक-दर्शन ।

जो द्रव्य अभीष्ट ( इन्द्रियों को अभिमत) रूप, रम, गन्ध स्पर्श वाला है, (यज्ञ में मन्त्र पढ़ कर जल से) मोक्षणं किया गया है वा (विना मन्त्र भी शुद जल से) शोधा गया है

अशुचीति शुचेि प्रतिषेधः ।। ६ ।।

अशुचि, यह शुचि के विरोध को कहते हैं (जिस द्रव्य का रूप रस गन्ध स्पर्श विकृत हो गए है । मोक्षण के योग्य प्रोक्षित नहीं हुआ, अभ्युक्षण के योग्य अभ्युक्षित नहीं हुआ, तो वह अशुचि है)

अर्थान्तरं च ।। ७ ।।

अर्थान्तर भी अशुचि होता है |

व्या- अशुचि केवल शुचि का अभावमात्र नहीं, इस से अलग भी है। जिस का रूपरसगन्ध स्पर्श अविकृत हैं, परद्रव्य चोरी का है, तो वह भी अशुचि है । शुद्ध भाजन मोक्षित भी जव भावना से दूषित है, तो अशुचि है।

अयतस्य शुचि भोजनादभ्युद्यो न विद्यते नियमाभावाद् विद्यते वा ऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य ८

( आहिमा आदि) यम रहित को शुचि भोजन से अभ्यु दय नहीं होता है, क्योंकि उस के साथ नियम का अभाव रहा है ( यह पूर्वपक्ष कह कर सिद्धान्त कहते हैं) अथवा होता है, क्योंकि यह ! अहिंसा आदि ) अलग पदार्थ है ( वह अपने फल का जनक होता है, और शुचि भोजन अलग है, वह अपने फल का जनक है ) ।

असाति चा भावात् ॥ ९ ॥

११३
अ. १ आ. १ सू. ८

न होने पर न.होने से - ? .

व्या-क्योंकि यदि यम में तत्पर भी हो, पर भोजनं शुचि न करे, तो उस भोजन का फल अभ्युदय नहीं होगा । इस लिए यम और शुचि भोजन दोनों आवश्यक हैं।

सं-धर्म की परीक्षा के अनन्तर, धर्माधर्मे में प्रवृत्ति के मूल राग द्वेष का निरूपण करते हैं

सुखाद् रागः ॥ १० ॥

सुख से राग होता है।

व्या-जब किसी वस्तु के भोगने से उस से सुख मिलता है, तो मुख से उस में राग उत्पन्न होता है। इसी प्रकार दुःख के भोगने से दुःखदायी सर्प आदि में द्वेष उत्पन्न होता है।

  • तन्मयत्वाच ॥ ११ ॥ ।

' तन्मय होने से भी ( राग होता है)

व्या-किसी अत्यन्त आभिमत वा अनभिमत विषय के दर्शन सें जो मवल संस्कार का उत्पन्न होना है, यह तन्मय होना है, ऐसे संस्कार, से आसक्त को सर्वत्र मिया का दर्शन भयभीत को सर्प का दर्शन होता है, इस संस्कार से भी राग द्वेष होते हैं। यद्यपि ये संस्कार भी सुख दुःख के भोग से ही उत्पन्न होते.हैं, तथापि ये-सैस्कार राग द्वेष को.उद्बुद्ध रखते हैं, इस लिए. अळग कहे हैं।

अदृष्ट से भी ( आत्मा की अदृष्ट शक्ति सें 'भी राग द्वेष

होता है, जैसे यौवन में पुरुष कों स्त्री, और स्त्री को पुरुष में

११४
'वैशेषिक-दर्शन ।

राग उत्पन्न होता है। पूर्वे जन्म के अदृष्ट से भी किसी का किसी में राग विशेष होता है। जैसे नल दमयन्ती का परस्पर हुआ ) ।

जातिविशेषाच ॥ १३ ॥

जाति विशेष से भी (वस्तु विशेष में राग द्वेप होता है। जैसे ऊंट आदि का कांटे आदि में राग, और नउले का सर्प में द्वेष होता है)

इच्छाद्वषपूर्विका धर्माधर्मयोः प्रवृत्तिः ॥१४॥

इच्छा द्वेप पूर्वक धर्म और अधर्म में प्रवृत्ति होती है।

व्या-प्राय, राग सें धर्म में-(यागादि में ) और द्वेप से अधर्म (हिंसादि) में प्रवृत्ति होती है । पर कभी द्वेष से भी धर्म में और राग से भी अधर्म में होती है, जैसे आततायी से द्वेष के कारण उस के मारने में, और धन में राग के कारण चोरी में प्रवृत्ति होती है।

सं-अब,धर्माधर्म का कार्य प्रेत्य भाव बतलाते हैं

तत्संयोगो विभागः ॥ १५ ॥

संयोगं होता है, इसी का नाम जन्म है, और िफरविभाग होता है, इसी का नाम मरण हैं । यह जन्ममरण का सिलसिला बना

आत्मकर्मसु मोक्षो व्याख्यातः ॥ १६॥. :

११५
अ. १ आ. १ सू. ८

मोक्ष आत्मा के कर्मों में व्याख्या. क्रिया-गया है ( पूर्व ' ५ । २ । १८)

सप्तम अध्याय-प्रथम आह्निक।

सैगति-द्रव्य कर्म की परीक्षा करके, गुणों की परीक्षा करना बाहते हुए, उन के कहे लक्षण और उद्देश का स्मरण कराते हैं

उत्ता गुणाः ॥ १ ॥

कहे हैं गुण

पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्श द्रव्यानित्यत्वाद निंत्याश् ॥ २ ॥

, . (उन में से) पृथिवी आदि के जो रूप रस गन्ध और स्पर्श हैं, वे (अपने आधार) द्रव्यों के आनित्य होने से आनित्य होते हैं ( उनं के नाश होने पर इन का नाश अवश्यम्भाद्री है)

एतेन नित्येषु नित्यत्वमुक्तम् ॥ ३ ॥

इस. मे नित्य में नित्यत्व कहा है।

या-जत्र द्रव्य के अनित्य होने-सें अनित्य होते हैं, तो नित्यद्रव्यों में द्रव्य के.नित्य होने से नित्य. होते हैं, यह कार्य सिद्ध हुआ । पर यह नियम संव में नहीं, किन्तु---

अप्सुतजसि वायौ चनित्या द्रव्यनित्यत्वांत्।४

जल, तेज और वायु में (रूप, रस, स्पर्श ) तो नित्य होते हैं, द्रव्य के नित्य होने से। और

अनित्येष्वनित्या द्रव्यानित्यत्वात् ॥ ५ ॥

अनित्य में आनित्य होते हैं, व्य के अनित्य इोने से।
११६
'वैशेषिक-दर्शन ।

कारणगुणपूर्वकाः पृथिव्यां पाकजाः । ६ ।

कारणगुणपूर्वक होते है (रूप रस गन्ध स्पर्श ) और पृथिवी में पाकज भी होते हैं। ।

'व्या-रूप रसं गन्ध स्पर्श कारणगुणंपूर्वक होते हैं। जैसे कारण में हों, वैमे उनं के कार्य में होते हैं। वेत मीठे शीत अणुओं से वना जल श्धत मीठा और शीत होता है। भास्वर उष्ण अणुओं से वना तेज भास्वर और उष्ण होता है। श्धत तन्तुओं मे वना वस्त्र चत और नीली तन्तुओं से वना नीला होता हे। इस प्रकार रूप ग्म गन्ध स्पर्श कारणगुणपूर्वक तो पृथिवीजल तेज वायु इन चारों में होते हैं, पर पृथिवी मेंपाकज भी होते हैं, अर्थात् तेज के संयोग से भी उत्पन्न होते हैं। जैसे आपाक में पकाने से मट्टी के वर्तनों का रूप' लाल हो जाता. है। औरं पके हुए आम के रूप रस गन्ध स्पर्श सभी बदल जाते हैं । अव पके हुए घड़े को फोड़े, तो उस के अन्दर कें छोटे २ अणु भी लाल ही निकलते हैं । इस से स्पष्ट है, कि यह नया रूप अणुओं तकं बदल गया है। इस से सिद्ध है, कि पृथिवी के परमाणुओं के रूपादे भी तेज के संयोग से बदल जाते हैं, अतएव नित्य पृथिवी ( परमाणु रूपा पृथिवी ) के भूी,रूपाद अनित्य हैं।

सं-किस प्रकार कारण के गुण कार्य में गुण उत्पन्न करते है १ इस का उत्तर देते है

एकु द्रव्यत्वात् ॥ ७ ॥

एक आश्रय वालां होने से

ॐय-वस्त्रजिसे में रूपं उत्पन्न होना है, वह तन्तुओं के

११७
अ. १ आ. १ सू. ८

ऑश्रय है, और उन्हीं तन्तुओं में वह रूप है, जिस ने वस्त्र में रूप उत्पन्न करना है। सो इस प्रकार कार्य के साथ एक आश्रय में रहने से कारण के गुण कार्य में अपने सजातीय गुण उत्पन्न करत हैं ।

सै-संख्या के गुण होने में वादियों का विवाद है, इस लिए क्रम को उलांघ,कर सूचीकटाह न्याय से पहले' परिमाण की परीक्षा करत है

अणोर्महतश्चोपलब्ध्यनुपलब्धी नित्ये व्या ख्याते ॥ ८ ॥

अणु का अपत्यक्ष होना और महत का प्रत्यक्ष होना नित्य ( नित्यों के मकरण में=४ । १ में ) व्याख्या किये गए हैं। सैस-महत् जो प्रत्यक्ष है, वह जल्य है, उसके कारण बतलाते हैं ।

कारणबहुत्वाच ॥ ९ । ।

कारंण के बहुत्व से

व्या-बहुत से अवयवो केमेलसेस जब एक द्रव्य उत्पन्न होता है, तो उस में महत् परिमाण उस के अवयवों के बहुत्व से उत्पन्न होता है । अर्थात् सारे अवयव मिलकर एक परिमाण को आग्म्भ करते हैं। इस लिए वह द्रव्य उन की अपेक्षा महत् होता है। इस प्रकार होते २ जव दृष्टि के योग्य होता है, तो महत् प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है ।

अतो विपरीतमणु ॥ १० ॥

. इस से (महत परिमाण से) उलट अणु होता है।

{ व्या-वैशेषिकप्रक्रिया इस प्रकारमानी गई है, कि परिमाण .

११८
'वैशेषिक-दर्शन ।

संख्याजन्य परिमाणजन्य और .पचय-(शिथिल संयोग ) जन्य होता है। परमाणु का परिमाण अणु है । दो परमाणुओं से द्यणुक उत्पन्न होता है, उस , का परिमाण भी अणु होता है । उस का कारण परमाणु का अणुत्व नहीं, किन्तु उन दोनों का द्वित्त्र है। क्योंकि यदि संख्या को कारण न मान कर परिमाण को ही कारण मानें, तो यह दोप अायगा, कि पारीमाण सेजोपरिमाण होता है वह पहले से उत्कृष्ट होता है। जैसे महत्से महत्तरं। इसीतरह परमाणु का परिमाण तो है अणु। उस से आगे परिमाण उत्पन्न होगा, तो वह अणुतर होगा। और'उससें आगे अणुतम्, इस क्रम से कभी महत् उत्पन्न होगा ही नही । इसलिए यह मानते हैं, कि द्यणुक का अणु परिमाण परमाणुओं के द्वित्व से उत्पन्न होता है आगे तीन द्यणुकों से त्रसरेणु उत्पन्न होता है । त्रसरेणु का परिमाण महत है । इस महत् का आग् म्भक भी द्यणुक का परिमाण नही, क्योंकि वह अणु है। अणु महत् का आरम्भक नहीं होता । इस लिए त्रसरेणु के महत् का आरम्भक द्यणुक का त्रित्व ( वहुत्व ) संख्या है। ये दो परिमाण तो हैं संख्या जन्य । त्रसरेणु से अगले जन्य महत् सव परिमाणजन्य होते हैं, अर्थात् अवयवों के महत् से महत्तर होते जाते है । ये हुए परिमाणजन्य । तीसरा जो प्रचय जन्य है, वह रुई का महत्व होता है, क्योंकि रुई जब धुनी जाती है, तो पहले से अधिक स्थान घेरती है।. अब यह परिमाण । परिमाणजन्य नहीं प्रचय जन्य है । यह उन की पक्रिया है, इस पक्रिया के अनुसार ही इन दोनों सूत्र का आशाय निकालते

हैं। हमने सूत्रों का सीधा आशय दिखला दिया है। हम इस

११९
अ. १ आ. १ सू. ८

बात को स्वीकार नहीं करते, किनियम से पहले दो ही पर - माणु मिलते हैं, और फिर तीन ही चणुक मिलते हैं, और न यह कि जो झरोखे-में त्रसरेणु दीखते हैं, वह छः ही परमाणुओं के हैं । अर न यह, कि सख्या का कारण न मानन म अणु से अणुतर उत्पन्न होगा । किन्तु यह मानते हैं, कि अवयवों का परिमाण अवयवी के परिमाण का आरम्भक होता है, और वह सारे अवयवों के एकत्रित पिण्ड कं समांपण्ड होता हैं । दो मिलेंगे, तो दो के समपिण्ड होगा,'दस मिलेंगे, तो दस कें समपिण्ड होगा । जब दृष्टि योग्य महृत होगा, तब दीखने लगेगा । रुईका भी परिमाणपरिमाण जन्य ही है, धुननसे उस कें ‘अवयव शिथिल हो गए हैं, उन शिथिल अवयवों के पिण्डं के मपिण्ड नया परिमाणे उत्पन्न हुआ है ।': ' । । सं-यदि अणुत्व महत्व से विपरीत होता है, तो फिर अणुत्व औौर महत्वं इकठ्ठ नहीं रहँसकेंगे, “पर'प्रतीत इकंछे-होते है, जैसे -त्ती'से'आमंला पंड्रॉ*है, अनारसे छोटा है? इस कॉउत्तर देते हैं

अणुमहदिति तस्मिन् विशंषभावाद् विशेषं भावांच ।। ११ । ।

५अणु महद यह उस (एक) में विशेष होने से'और विशेष । के न होने से होता है (रतीं की अपेक्षा आमले में विशेषता ई, रत्ती की अपेक्षा उसे का पिण्डं ‘अधिक स्थान कॅौ धेरंता है, इस लिए वह उससे । मंह कहलाता है, और अनीर की कहलाता है। अर्थातू, यह अणुत्व'महत्व, व्यवहार सापेक्ष होने

,से, गौण है, मुख्य नहीं,! क्योंकि -..

१२०
'वैशेषिक-दर्शन ।

एक कालत्वात् ॥ १२ ॥

एक फाल में होने से ।

व्या-एक ही वस्तु में एक ही काल में प्रतीत होते हैं, इस लिए ये अणुत्व महत्व सापेक्ष हैं। एक की अपेक्षा से वह जिस काल में अणु है, दूसरे की अपेक्षा से उसी काल में महत हो। सकता है ।

दृष्टान्ताच ॥ १३ ॥

दृष्टान्त से ।

व्या-देखा जाता है, कि यज्ञदत्त की सेना देवदत्त की सेना से वड़ी है और आधक शूरवीर है, पर विष्णुमित्र की सेना से विपरीत है । तमालवन की अपेक्षा पद्मवन सुरभि है, चन्दन वन की अपेक्षा विपरीत है, इत्यादि अनेकों दृष्टान्त हैं ।

संस-अणु, अणुतर, अणुतम और महतू, महत्तर, महत्तम ऐसी प्रतीति से अणुत्व में अणुत्व और महत्व में महत्व की सिद्धि होती है, इस आशंका को मिटाते हुए कहते हैं

अणुत्वमहत्वयोरणुत्वमहत्त्वाभावः कर्मगुणै व्याख्यातः ॥ १४ ॥

अणुत्व और महत्त्व में अणुत्व. और महत्त्व का अभाव कर्म और गुणों मे व्याख्या किया गया।

सै-* कर्म गुणैः' के आशय को खोलते है

कर्मभिः कर्माणि गुणश्च गुणा व्याख्याताः । १५

कम से कर्म और गुणों स गुणु व्याख्या किये गए (जैसे

जाता है, और शीघ्र जाता है। यहां बीघ्रता पहली गति के

१२१
अ. १ आ. १ सू. ८

अन्दर दूसरी गति नहीं, किन्तु द्रव्य में ही पहली गति से दूसरी विलक्षण गति वतलाई है। और जैसे लाल है और गृढा लाल है, यहां गूढ़ता पहली लाली-में और लाली नहीं, किन्तु द्रव्य में ही पडली लाली से दूसरी विलक्षण लाली बतलाई है। इसी मकार अणुतर और महत्तर आदि से भी द्रव्य में ही विलक्षण अणुत्व और विलक्षण महत्व बोध होता है । अणुत्व में अणु त्वान्तर और महत्व में यहत्त्वान्तर नहीं ।

अणुत्वमहत्वाभ्यां कर्मगुणाश्च व्याख्याताः १६

अणुत्व और महत्व से कर्म और गुण व्याख्या किये गए ( अर्थात् छोटे कर्म वड़े कर्म, छोटे गुण वड़े गुण इत्यादि व्यव हार से जो कम और गुणों में अणुत्व और महत्व की प्रतीति होती है, वह भी गौणी है । क्योंकि अणुत्व और महत्त्व की नाई कर्म और गुणों में अणुत्व महत्त्व नहीं रहते ) ।..

संस-अणुत्व महत्व का पूरा वर्णन करके ततुल्यता हस्वत्व दीर्घत्व में दिखलाते है

एतेनदीर्घत्व इस्वत्वे व्याख्याते ॥ १७॥

इस स दीर्घत्व हस्चत्व छ्याख्या किये गए ।

व्या-जैसे अणु हैं महत् है, इस व्यहार मे अणुत्व महत्व की िसद्धि है, वैसे दीर्घ है, हस्व है, इस व्यवहार से दीर्घव इस्वत्व की सिद्धि होती है, और तद्वत् ही यह इस से दीर्घ है, इस से इस्व है, इत्यादि सापेक्ष व्यवहार की सिद्धि होती है। सं-सो यह चारों प्रकार का परिमाण

अनित्येऽनित्यम् ॥ १८ ॥

१२२
'वैशेषिक-दर्शन ।

अनित्य में अनित्य होता है (आश्रय के नाश से आश्रित का नाश अवश्यम्भावी है) ।

नित्ये नित्यम् ॥ १९ ॥

नित्य में नित्य होता है ( आश्रय के वना रहन से परि माण नष्ट नहीं होता है ) ।

नित्यं परिमण्डलम् ॥ २० ॥

नित्य है पारिमण्डल (परमाणु)

अविद्या च विद्या लिङ्गम् ॥ २१ ॥

अयथार्थ प्रतीति यथार्थ प्रतीति का चिन्ह होती है।

व्या-रस्सी में सर्प की अयथार्थे प्रतीति तभी होती है, जब यथार्थ सर्प भी है। इसी तरह आमले आदि में जो अणुत्व इस्वत्व की प्रतीति गौणी है, वह तभी घट सकती है, जब मुख्य अणुत्व इस्वत्व भी हों, वह मुख्य अणुत्व इस्वत्व परमाणु में है अन्यत्र गौण हैं।

विभवान्महाना काशस्तथा चात्मा ॥२२॥

विभु होने से महान् है आकाशा, वैसे आत्मा है ।

व्या-जहां कई शब्द उत्पन्न होता है, सर्वत्र आकाश कारण है, इस लिए आकाशा विभु है, सारे परिच्छिन्न द्रव्यों के साथ मिला हुआ है. इसी लिए महान् है । पृथिवी आदि में जो महत्व है.वह सातिशय है, आकाश में निरतिशय है. इस लिए ' वह परम अणु की नाई परम महान् है, ऐसे ही आत्मा है ।

तदभावादणु मनः ॥ २३ ॥

उस के अभाव से (अर्थात चिभुत्व के अभाव से ) अणु

१२३
अ. १ आ. १ सू. ८

है मन (देखेो पूर्व ३ । २ । १.)

सै-दिशा और काल का भी परम महतू परिमाण घतलाते है

गुणैर्दिग् व्यायाता ॥ २४ ॥

गुणों मे दिशा व्याख्या की गई है (परे वरे का व्यव हार सर्वत्र होने से दिशा भी विभ्वी है, अनएव परम महत्। परिमाण वाली है) ।

कारणं कालः ॥ २५ ॥

( वर्तमान, भूत, भविष्यत् व्यवहार के ) कारण में काल नाम है (और यह व्यवहार एक ही समय सर्वत्र होता है, इम लिए काल भी परम महद परिमाण वाला है ।

सप्तम अण्याय, द्वितीय आह्निक ।

संस-महत परिमाण वाले में संख्या आदि प्रन्यक्ष होते हैं, इस लिए परिमाण निरूपण के अनन्तर संख्या आदि का निरूपण करते है .

रूपरसगन्धस्पर्श व्यतिरेकादर्थान्तर मेकत्वम् ॥१॥

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के अभाव मे अलग पदार्थ है एकत्व व्या-जहां रूप रस गन्ध स्पर्श नहीं होते, चहाँ भी एकत्व की प्रतीतिहोती है, जैसे आकाश एक है, ईश्वर एक है,इत्यादि इस से सिद्ध है, कि एकत्व सूप रस गन्ध स्पर्श से एक अलग पदार्थ है ।

तथा पृथत्वम् ॥ २ ॥

(जैसेस यह एकत्व है) वैसे पृथक भी (रूपाद से भिन्न पदार्थ है। क्योंकि रूपादि से शून्यों में भी ‘आकाश काल से

पृथक् है' ऐसी प्रतीति होती है।

१२४
'वैशेषिक-दर्शन ।

स-एक है एकत्व' इस प्रतीति के चल से एकत्वमें.भी एकत्व और ! स्पादि से पृथक् पृथक्त है, इस प्रतीति के वल से पृथक्त में भी पृथक् मानना चाहिये, इस का उत्तर देते है

एकत्वैकपृथक्व योरेकत्वक पृथक्वाभावोऽणु त्व महत्वाभ्यां व्याख्याताः ।। ३ ।।

एकत्व और एक पृथक्तत्व में एकत्व और एक पृथक्व का अभाव अणुत्व ओर महत्त्व से व्याख्यात है (देखो ७॥१॥१४)

सै-यह एक घड़ा है, इस प्रतीति की नांई 'यह एक रूप है।

  • यह एक कर्म है' इत्यादि रूप से एकत्व तो गुण कर्म में भी

सिद्ध होता है, इस का उत्तर देते है

निःसंख्यत्वात् कर्मगुणानां सर्वेकत्वं न विद्यते ४

कभै और गुण संख्या से शून्य होते हैं. इस लिए सब में एकत्व नही है (एकत्व केवल द्रव्यों में ही रहता है । गुण कर्स में ओपचारिक प्रतीति होती है ) ।

अतएव भ्रम रूप है हव (-एक है कर्म इत्यादि ज्ञान । अर्थात् गुण क में एकत्व व्यवहार मुख्य नहीं, गौण है)

-अच्छा, तो * यह यक रूप है' इस व्यहार की नाई * यह एक धडा ह' यह व्यवहार भी औपचारिक ही क्यों न मान लिया जाण, इस का उत्तर देते हैं

एकत्वाभावाद् भक्तिस्तु न विद्यते ॥ ५ ॥

एकन्व के अभाव स तेो उपचार हो ही नहीं सकता है,

( यद्धि गुख्य प्रयोग कहीं भी न माना जाय, तो, औपचारिक

१२५
अ. १ आ. १ सू. ८

अ७७ आ:ि०५ मू०८

भी नहीं हो सकता, क्योंकि कहीं मुख्य होने से अन्यत्र उप चार हो मकता है, और कहीं भमा होने से अन्यत्र भ्रम हो सकता है। इम लिए द्रव्यों में एकत्व व्यवहार मुख्य है, क्योंकि एकत्व गुण है, और द्रव्य गुणों के आधार प्रत्यक्ष सिद्ध हैं ।

रूपादि में एकत्व व्यवहार औपचारिक है, एक व्यक्ति में

स्थिति आदि का बोधक है ।

• - 'सं-प्रत्येक द्रव्य में अपना २ अलग एकत्व और एक पृथक्क सदा.बना रहता है, पर कार्य और कारण (जैसे तन्तु और पट) दो में एक एकत्व और पृथक्क रहता है, क्योंकि कायै और कारण में अभेद होता है, इस मत का खण्डन करते है

कार्यकारणयोरेकत्वैक पृथक्तचाभावादेकत्वैक पृथक्तवं न विद्यते ॥ ७ ॥

कार्य और कारण में एकत्व और एक पृथक्तत्व के न होने के कारण एक एकत्व और एक पृथक्व नहीं है (किन्तु एक एक तन्तु में जो अलग एकत्व है, उन सब से वस्त्र में एक एकत्व उत्पन्न होता है, तथा उन में जो अलग २. एक पृथक्तत्व है, उन सब से वस्त्र में एक पृथक्तत्व उत्पन्न होता है । वस्त्र की अभाव दशा में वस्त्र के एकत्व और एक पृथक्तव का भी अभाव है, पर तन्तुओं में एकत्व, और एक पृथक्व उस समय भी है)

एतदनित्ययोव्र्याख्यातम् ॥ ८ ॥

' यह अनित्यों ( उत्पत्ति विनाश वाले एकत्व और एक

एक पृथक्वों का व्याख्यान किया गया है (नित्य एकत्व

१२६
'वैशेषिक-दर्शन ।

और नित्यं एक पृथक्त्व नित्य द्रव्यों में रहते हैं) सै-सयोग विभाग की परीक्षा आरम्भ करते हैं

अन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्च संयोगः ॥ ९ ॥

दोनों में से एकक कर्म से जन्य ( जैमे पक्षी के कर्म से पक्षी वृक्ष का संयोग ) दोनो के कर्म से जन्य(जैसेस मेंढों का ) और संयोग से जन्य (जैसे हस्त पुस्तक के संयोग से शरीर पुस्तक का संयोग) (यह तीन प्रकार का ) संयोग होता है।

एतेनविभागोव्याख्यातः ॥ १० ॥

इस से विभाग व्याख्या किया गया ( विभाग भी तीन प्रकार का है, एक कर्म से जन्य, जैसे पक्षी के उड़ जाने से पक्षी और वृक्ष का विभाग, दूसरा दोनों के कर्म से जन्य, जैभे मेंढों का टक्कर मार कर पीछे हटने से, तीसरा विभाग से जन्य, जैसे हस्त पुस्तक के विभाग से शरीर पुस्तक का विभाग ) ।

संयोगविभागयोः संयोगविभागाभावोऽणुत्व महत्त्वाभ्या व्याख्यातः ॥ ११ ॥

संयोग और विभाग में संयोग और विभाग का अभाव अणुत्व और महत्त्व से व्याख्या किया गया ( जैरे अणुत्व और महत्त्व में अणुत्व और महत्व नहीं होता, वैसे संयोग और विभाग में संयोग और विभाग नहीं रहता । इस लिए संयुक्त

  • द्वित्वादि का विचार न करने से मुनि का यह अभिप्राय हो

सकता है, कि एकत्व और एक पृथक्क ही गुण हैं, द्वित्व और

द्विपृथक्कादि व्यवहार मात्र के साधक बुद्धि धर्म है ।

१२७
अ. १ आ. १ सू. ८

का फिर आगे अन्य से संयोग होने पर, और विभक्तों का फिर परस्पर विभाग होने पर जो यह व्यवहार होता है, कि सैयोग गे संयोग और विभाग में विभाग हुआ, यह व्यवहार मात्र है, संयोग और विभाग वहां भी द्रव्यों का ही हुआ है)

-उदाहरण के लिए (७ । १ । १५-१६ में) उक्त चिपय का स्मरण कराते है

कर्मभिः कर्माणिगुणैर्गुणा अणुत्वमहत्त्वाभ्या मिति ॥ १२ ॥

स-कार्य कारण के परस्पर संयोग विभाग क्यों नहीं होते, इस आश्झा का उत्तर देते हैं

युत सिद्यभावात् कार्यकारणयोः संयोगविभागौ न विद्येते ॥ १३ ॥

मिल कर इकट्टे न होने से कार्य और कारण का संयोग विभाग नहीं होता है ।

व्या-सयोग और विभाग उन का होता है, जो पहले अलग २ हों, फिर अगपस में मिल कर इकडे हों। इस नियम के अनुसार यदि तन्तु और यस्त्र पहले अलग २ रह कर फिर मिलते, तब उन का संसयोग और विभाग होता । पर वस्त्र कभी तन्तुओं से अलग रहना नहीं। इस लिए उन का संयोग विभाग नहीं माना जाता । ऐसे ही किसी भी कार्य का कारण के साथ संयोग विभाग नही होता ।

न-प्रसंग से शव्द और अर्थ का सम्वन्ध निर्धारण करने के

लिए संयोग सम्वन्ध का खण्डन करते हैं

'गुणत्वात् ॥ १४ ॥

१२८
'वैशेषिक-दर्शन ।

गुण होने से ( सयोग नहीं । संयोग होता है द्रव्यों का शाव्द है गुण, उस का द्रव्य के साथ संयोग नहीं घट सकता)

गुणोपि विभाव्यते ॥ १५ ॥

गुण भी (शब्द द्वाग) प्रतीत कराया जाता है (सो गुण गुण का संयोग तो सर्वथा ही असंभावित है )

निष्क्रियत्वात् ॥ १६ ॥

क्रिया हीन होने से (=संयोग क्रिया के अनन्तर होता है, शब्द में क्रिया होती ही नही, क्योंकि गुण है। और जहां अर्थ भी. क्रियाहीन हो, जैसेस आकाश, वहां दोनों के क्रिया हीन होने से सुतरां संयोग नही हो सकता ) ।

असति नास्तीति च प्रयोगात् ॥ १७ ॥

न होते हुए 'नहीं है ? ऐसा प्रयोग होने से ॥

जव घड़ा है ही नहीं, तव भी शव्द चोला जाता है, कि

  • घड़ा नहीं है ' । इस से सिद्ध है, कि शब्द का अर्थ के साथ

सैयोग वा समवाय कोई भी सम्वन्ध नहीं, जो है ही नहीं, उस के साथ सम्वन्ध क्या । अतएव

शब्दार्थावसम्बन्धौ ॥ १८ ॥

शब्द और अर्थ विना सम्वन्ध के हैं (ऐसी दशा में शब्द से अर्थ की प्रतीति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि जो आपस में सम्बद्ध हो, उन्हीं में से एक की उपलब्धि से दूसरे की उप लाब्ध होती है )

संयोगिनो दण्डात् समवायिनो विशेषाच ॥१९॥

१२९
अ. १ आ. १ सू. ८

सैयौग-वाळे दण्ड के निमित्त (दण्डी=दण्ड वाला ) और समवाय वाले 'अङ्ग के निमित्त ( इस्ती=*ड वाला ' प्रतीति होती है (ऐसी प्रतीति शब्द अर्थ में नहीं होती, jक शब्द बाला घड़ा है, वा घड़े वाला शब्द है, इस लिए शब्द अर्थ का सम्बन्ध नहीं घट सकता है) ।

स-तो फिर शब्द से अथै की कैसे प्रतीति होती है, इस का उत्तर देते हैं

सामयिकः शब्दादर्थे प्रत्ययः ॥ २० ॥

सांकेतिकी है शाब्द से अर्थ की प्रतीति (इस शब्द से यह अर्थ जानना, यह जो शब्द और अर्थ का संकेत है इस संकेत के निर्मित ही शाब्द से अर्थ की प्रतीति होती है, अतएव एक ही अर्थ के बोधनार्थ भिन्न २ भाषा भाषियों के अलग । संकेत है और हर एक को अपने संकेतित शब्दों से ही अर्थ की ऋतीति होती है। सैकेत के न जानने वाले को शब्द सुन कर भी अर्थ की मतीति नहीं होती ) ।

संस-क्रम'प्राप्त परत्व अपरत्व की परीक्षा आरम्भ करते हैं

एकदिकाभ्यामेककालाभ्यां सन्निकृष्ट विप्रकृ टाभ्यां परमपरंच ॥ २१ ॥

एक दिशा वाळे वा एक काल वाले सश्रीपी दूरस्थ दो की अपेक्षा से पर ‘और अपर होता है ( परत्व और अपरत्व दी मकार का है, दैशिक=देशाकृत, और कालिक=कालकृत । एक ही दिशामैं जो दो वस्तुओं में से एक तोदूर और दूसरी निकट

हों, तो उन में से एक में 'परली वस्तु' और दूसरी में ‘वस्ली

१३०
'वैशेषिक-दर्शन ।

और वरली में * अपरत्व' धर्म है। ये परत्व और अपरत्व-उन में दैशिक हैं, क्योंकि एक दिशा की अपेक्षा से उनं ‘में भतीत होते हैं । इसी प्रकार काल की अपेक्षा से जो एक को बड़ा ( परला.) और दूसरे को छोटा (वरला ) कहते है, ये परत्व अपरत्व काल की दृष्टि से हैं, अतएव कालिक कहलाते हैं)

कारणपरत्वात् कारणापरत्वा ॥ २२ ॥

कारण के परे होने से और कारण के बरे होने से (पर अपर होते है । दैशिक परत्व अपंरत्व में जिस का देश परे तक जाता है; इस में पर,' और जिस का वरे रंडता है, उसमें ‘अपर’ व्यवहार होता है। जैसे प्रयागस्थों को कलकत्ताकाशी 'से परे है. काशी कलकत्ते से वरे है, इसलिए काशी की अपेक्षा से कलकत्ते में पर और कलकत्ते की अपेक्षा से काशी में अपर व्यवहार होगा । निरपेक्ष नहीं । इसी प्रकार जिस का जन्म काल परे तक जाता है, इस में पर, और जिस का वरे रहता ) है, उस में अपर व्यवहार सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं।

सं-पर भी किसी की अपेक्षा अपर’ और अपर भी किसी-की }अपरत्व में परत्व अपरत्व की आशंना कोअणुत्व महत्वकी व्या हयान रीति से मिटाते है

'.पस्त्वापरत्वयोः परत्वापरत्वाभावो ऽणुत्व:मह

त्वाभ्यां व्याख्यातः ॥ २३ ॥ .. " :

१३१
अ. १ आ. १ सू. ८

"गुणैर्गुणाः ॥ २५ ॥ ' ',

संस-सूची कटाहन्याय सेबुद्धि से पूर्व ही समत्रायाकी परीक्षा करते हैं।

इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः.स-समवायः २६॥

कार्य और कारण में: 'इसमें यहहै; यह-प्रतीति जिस मृम्वन्धु-से होती है, वह-समवाय है ।

व्या-तन्तुओं में वस्त्र है ' वा 'तन्तुओं के आश्रय वस्त्र है’ ऐसीत्मतीति विना.सम्वन्य केनहीं हो सकती, और संयोग सम्बन्ध यहां बननहीं सकता, क्योंकि संयोग उन का होता है, जो पहले अलग हुए २.फिरजुड़े, स्त्रतन्तुओं से अलग कभी था ही नहीं। सो इस भतीति का नियामक कोई अन्य सम्बन्ध मानना यहां कार्य कारण उदाहरण मात्र हैं।, अभिप्राय उन सव से हैं, जो अयुत सिद्ध हैं, अर्थात जिनमें से एक सदा दूसरे सो इस प्रकारगुण गुणीकाकर्म कम का, जाति व्यक्ति का, अवयव अवयवी का सम्बन्ध समवाय है।

स्वरूप ही फूयों न मान लिया जाय ? इस आशंका को मिटाते है

। .द्वन्यत्वगुणत्व प्रतिषेधो भावेन व्याख्यातः ॥२७

द्रव्यत्व गुणत्व का प्रतिषेध सत्ता से व्याख्यात है।

१३२
'वैशेषिक-दर्शन ।

व्या-जैसे सत्ता अपनी विलक्षण प्रतीति के कारण इम्प गुण कर्म से भिन्न मानी है ( १ । २ । ८-१०) वैसे समवाप अपनी विलक्षण प्रतीति के कारण द्रव्यत्व गुणत्व से भिन्न है। ‘यह रूप वाला है? यह इस की विलक्षण भतीति है ।

तत्त्वं भावेन ॥ २८ ॥

एक होना सत्ता से व्याख्यात है ।

व्या-जैम 'सत स ? इस एकाकार प्रतीति से सत्ता एक है, वैसे द्रव्य में गुण ममवेत है, कर्म समवेत है, इस प्रकार एका कार प्रतीति ती है, भेदक प्रमाण है नहीं, इस लिए लापव से एक समवाय सिद्ध होता.है ।

अष्टम अध्याय प्रथम आकि ।

संगति-भब अष्टम अध्याय में क्रमप्राप्त बुद्धि का सविस्तर वर्णन करते है

द्रव्येषु ज्ञानं व्याख्यातम् ॥ १ ॥

द्रव्यों में (द्रव्यों के निरूपण में तृतीय अध्याय में) ज्ञान व्याख्यात है (ज्ञान से आत्मा की सिद्धि की है वह ज्ञान अव परीक्षणीय है) । तत्रात्मामनश्चा प्रत्यक्षे ॥ २ ॥

, उन गें से आत्मा और मन'अप्रत्यक्ष हैं, (यंयपि “अहं सुखी ' इत्यादि प्रतीति का विपय आत्मा प्रत्यक्षहै, तथापि शीर आदि मे उस का भेद अनुमान साध्य है, जैसा ३ भध्याप

में दिखला दिया है ) । ।

१३३
अ. १ आ. १ सू. ८

ज्ञाननिर्देशे ज्ञाननिष्पत्ति विधिरुक्तः । ३॥

जहां ज्ञान बतलाया है (तृतीत अध्याय में ! वहां ज्ञानं की उत्पत्ति का प्रकार कह दिया है । देखों १ । १ । १८ ौर ३॥२॥१)अब विशेष रूप से उसकी उत्पत्रि देखाते हैं।

गुणकर्मसु सन्निकृष्टेषु ज्ञाननिष्पते द्रव्यं कार णम् ॥ ४ ॥

(इद्रियों से ) सम्बन्ध वाळे गुण और कर्प में ज्ञान की उत्पचि का कारण द्रव्य होता है ( अर्थात इन्द्रियों का सीधा सम्बन्ध इब्ष से होता है, द्रव्य में गुण कर्म रहते हैं, इस से गुण ौर की से सम्बन्ध होता है । जैसे नेत्र का घोड़े से संबोग सम्बन्ध है, उस के लाल रङ्ग से और उस की चाल से घोड़े के द्वारा संयुक्त समवाय सम्बन्ध है। नेत्र से संयुक्त, घोड़ा हुआ है, उस घोड़े में उस का रङ्ग और चाल समवेत हैं । सोसैयोग सम्बन्ध से घोड़े का और संयुक्त सयवाय सम्बन्ध से घोड़े के रङ्ग और गति का प्रत्यक्ष हुआ है)

स-अख धर्म ज्ञान और धर्मि ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार बत

सामान्यविशेषु सामान्यविशेषा भावात्, तत

सामान्य विशषों में सामान्य विशैवों का अभाव होने से उसी से ज्ञान होता है।

व्या-धर्म धर्मि के ज्ञान में धार्मि का ज्ञान तो अपने धर्म के

आश्रय होता है; विना धर्मज्ञान के धर्म का ज्ञान नहीं होता।

१३४
'वैशेषिक-दर्शन ।

देखे विना 'नीलरूप ? यह ज्ञान नहीं होता । परं जो निरा धर्म है, उस का ज्ञान किसी धर्म से नहीं होता, क्योंकि उस में कोई धर्मतो है ही नहीं। सो उस का ज्ञान अपने स्व कप से होता है । ऐसे धर्म सामान्य विशेष तथा सामान्य और इत्यादि, तथा द्रव्य गुण कर्म में सत्ता. और एक १४ व्यक्ति में वा एक-२. परमाणु में अलग २ विशेप, । ये सामन्य विशेप जिनःव्यक्तियों में रहते हैं, उन का ज्ञान तो.मामान्य विशेप धर्मकी अपेक्षा से होता है 1 पर सामान्य विशेषका अपना सेंहोता है, किसी धर्म से नहीं, क्योंकि सामान्य विशेषों में-सामान्ये विशेष धर्म नहीं रहते!।

संामान्यविशेषापेक्षं द्रव्यगुणकर्मसु ॥५॥

सामन्यवेिष की अपेक्षा वाला (ज्ञान ) होता है, द्रव्य गुण कर्म में (यह 'द्रव्य है,' यह द्रव्य को गुण कर्म से अलग करान वाला ज्ञान है, यह तभी हो सकता है, जवं द्रव्य का कोई ऐसाधर्म ज्ञात हो जाए, जो गुणोंचा कमों मेंन पायाजाय औरद्रव्यों में सभी में पाया जाय,वही सामान्यविशेष धर्म द्रव्यों मेंद्रव्यत्व है । इस'धर्म की अपेक्षा से द्रव्यज्ञानं होता है। इसी प्रकार 'गुणत्व' इस सामान्यविशेप धर्म की अपेक्षा से गुण,ौराकर्मत्व इससामान्यविशेष धर्म की अपेक्षा से कर्म ज्ञान होता है। इसी प्रकार गौ, नील, गमन इत्यादै जाति (

}

१३५
अ. १ आ. १ सू. ८
  1. ,ाच्या-बैल जो द्रव्य है;उसके विषय में 'घण्टे-वाला है;

यहज्ञानघण्टे । द्वव्य) की अपेक्षासे, “वत है ? यह गुण

गुणकर्मसुगुणकर्माभावाद्-गुणकर्मापेक्षं न

.. . गुण कर्मो में गुणकर्मोों के अभाव से गुण-कर्म की अपेक्षा वाला (ज्ञान ) नहीं होता है।

सै-सापेक्ष झान को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते है

समवायिनःश्वैत्याच्छ्वैत्यबुद्धेश्च श्वेते बुद्धिस्ते

से और वितता के ज्ञान सेश्वत (३ख आदि) का ज्ञानं होता ., व्या-सापेक्ष ज्ञान. इस प्रकार का होता है ।.५ऑखिों के सामने,शैख पहा है । उसके विपय में जो यह-ज्ञानडुआ कि यह चत इंख,है; यह-ज्ञानतव हुआ है; जवपहले शैखकी वक्ता का ज्ञान होता है, इसी प्रकार पहले ु समवायसे चतुता का

१३६
'वैशेषिक-दर्शन ।
  • , स-प्रश्न-जैसे क्रम से होने के कारण इवतता ज्ञान कारण और

इवत ज्ञान कार्य है, वैसे जहां क्रम से घट ज्ञान के पीछे पटज्ञान हुआ, वहां भी क्या घट ज्ञान और पटलान का कार्यकारणभाव होता है? इस माशंका का उत्तर देते हैं

द्रव्येष्वनितरेतर कारणाः ॥ १० ॥

द्रव्यों में (ज्ञान) एक दूसरे के कारण वाले नहीं होते। “च्या- जो क्रम से घट पट आदे ज्ञान होते हैं, इन में पहला ज्ञान दूसरे का कारण इन होता, क्योंकि

कारण यौगपद्यात् कारणक्रमाच घटपटादि बुद्धीनां क्रमो न हेतुफलभावात् ॥ ११ ॥

कारणों के इकठ्ठा न होने से कारणों के क्रम से घट पट जादि ज्ञानों का क्रम है, न कि कार्य कारण भाव से ।

व्या-आत्मा, मन, इन्द्रिय और विषय. का सम्बन्ध ज्ञान का कारण है। अब घट ज्ञान के पीछे जो पट ज्ञान हुआ है, यह इस लिए नहीं, कि घट ज्ञानं पट ज्ञान का कारण है। ऐसा इोखा, तो पट ज्ञान कभी घट ज्ञान के विना होता ही न, किन्तु काय से इस लिए हुआ, कि नेत्र का संयोग पहले घट से हुआ , पीछे'पेट से हुआ है। इस लिए घट का ज्ञान पहले और पटं ज्ञान पीछे हुआ है। जहां द्रव्य'विशेषण रूप से प्रतीति होता है, जैसे दण्डी में दण्ड, वहां दण्ड ज्ञान को दण्डी ज्ञान

के प्रवि कारणुता .. ...

१३७
अ. १ आ. १ सू. ८

अष्टम अध्यायं-द्वितीय आह्निक ।

संगति-अब ज्ञान की अपेक्षा वाले ज्ञान दिखलाते हैं

अयमेष त्वयाकृतं भोजयैनमिति बुद्धयपे क्षम् ॥ १ ॥

यह, यह, तूने किया, इस को भोजन करा, यह ज्ञान की अपेक्षा से होता है ।

दृष्टेषुभावाद दृष्टष्व भावात् ॥ २ ॥

देखे हुओं में होने से, न देखे हुओं में न होने से ।

व्या-‘यह उस के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष हो, तूने भी प्रत्यक्ष के विषय में कहा जाता है । इस को भोजन करा' तव कहा जाता है, जब दोनों प्रत्यक्ष हों, जिस को भोजन कराना है, वह भी, और जिस को आज्ञा दी है, वह भी । इस लिए कहा है, कि यह ज्ञान की अपेक्षा से होता है।

सै-इन्द्रियार्थ सम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति कही है (३। १ १८, ३ । २ । १) । अब अर्थ और इन्द्रियों का स्वरूप बतलाते है

अर्थइति द्रव्यगुण कर्मसु ॥ ३ ॥

अर्थ यह द्रव्य गुण कर्म में होता है (द्रव्य गुण कर्म तीनों अथे हैं, और तीनों ही अर्थ हैं) ।

द्रव्येषु पश्धात्मकत्वं प्रतिषिद्धम् ॥, ४ ।।

द्रव्यों में पञ्चात्मक होना प्रतिषेध कर दिया है।

व्या-द्रव्य भकरण में(४२॥३) शरीर आदि का पश्धात्मक होना निषेध कर दिया है । इस से.सिद्ध है, कि इन्द्रिय भी

{

१३८
'वैशेषिक-दर्शन ।
वैशेषिक दर्शन ।

पश्चात्मक नहीं, किन्तु एक २ भूत का कार्य हैं। हां अणुओं का संयोग प्रतिषिद्ध नहीं ।

भूयस्त्वान्धवत्वाच पृथिवी गन्धज्ञाने प्रकृतिः॥५

बहुत अधिक होने से गन्ध वाला होने से पृथिवी गन्ध ग्राहक (इन्द्रिय) में कारण है ।

घाण इन्द्रिय गन्ध का प्रकाशक होने से निश्चित होता है, कि इस में गन्ध मध्णन है, गन्ध की प्रधानता तब हो सकती है, जव इस में जल आदि की अपेक्षा पृथिवी का भाग बहुत अधिक हो । इस से सिद्ध है, कि पृथिवी घाण का कारण

तथाऽऽपस्तेजो वायुश्च रसरूपस्पर्शज्ञानेऽवि शषात् ॥ ६ ॥

वैसे जल तेज और वायु (क्रमशः) रस, रूप और स्पर्श के ग्राहक ( रसना, नेत्र और त्वचा इन्द्रिय) में कारण हैं।

अध्याय नवम-आङ्गिक प्रथम ।

स-नवम के प्रथम आह्निक में अभावों का प्रत्यक्ष घतलाना चाहते हुए अभावों के भेद बतलाते है

क्रियायुणव्यपदेशा भावात् प्रागसत् ॥ १ ॥

ांक्रया अभीर गुण के व्यवहार का अभाव होने के कारण पहले अभाव होता है।

व्या-जो यह मानते हैं, कि उपादान में उपादेय पहले ही। विद्यमान होता है, मट्टी में घड़ा पहले ही विद्यमान है, उत्पत्ति के अर्थ यही हैं, कि अव प्रकट होगया है। इस मत का खण्डन

करते हैं, कि यह जो उत्पत्ति से पछेि उपलब्ध होता है, वह

१३९
अ. १ आ. १ सू. ८

अ०९ आ०१ ऋ० ४

सव उत्पत्ति में पहले असत् होता है, क्योंकि जो सत है, उस का क्रिया और गुण से व्यवहार होता है। पर घड़ा चलता है, घड़ा लाल है,' उत्पत्ति से पूर्व यह व्यवहार नहीं होता, इस लिए उस समय उस का अभाव है। यह जो उत्पत्ति से पहले अभाव है, यह भागभाव कहलाता है ।

सदसत् ॥ २ ॥

विद्यमान हुआ, अमत् हो जाता है ।

• • • व्या—और यह भी प्रत्यक्षसिद्ध है, कि विद्यमान भी घड़ा आदि मुद्भर के महार आदि से असत् हो जाता है। इस अभाव का नाम ध्वंसाभाव है ।

सं—जो यह मानते हैं, कि नाश घड़े की एक अवस्था विशेष है, धड़ से भिन्न अभाव विशेष नहीं, उन को उत्तर देते है

असतः क्रियागुण व्यपदेशाभावा दर्थान्त रम् ॥ ३ ॥

जो नहीं है, उसी के क्रिया गुण का व्यवहार नहीं होता , इस कारण यह (नाश भी ) एक अलग पदार्थ है ।

सै-तीसरा अन्योऽन्या भाव यतलाते है

सत भी आमत होता है

व्या-‘घड़ा वस्त्र नहीं है, इस भतीति में घड़ा अपने रूप से स भतीत होता है, और वस्त्वन्तर के रुप से असह भासता

है, इस प्रतीतिसिद्ध अभाव का नाम अन्योऽन्याभाव वा

१४०
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

संस-चौथा अत्यन्ताभाव बतलाते है

यच्चान्यदसदतस्तदसत् ॥ ५ ॥

और जो इस से ( पूर्वोक्त तीनों प्रकार के अभाव से ) भिन्न अभाव है, (जैसे मनुष्य के सींग नहीं है) एक यह अभाव है (जो अत्यन्ताभाव कहलाता है)

स-चारों अभावों का निरूपण करके ध्वैस के प्रत्यक्ष का निरूपण

असदिति भूतप्रत्यक्षाभावाद् भूतस्मृतेर्विरो धिप्रत्यक्षवत् ॥ ६ ॥

  • नहीं है? यह प्रत्यक्ष, हो चुके हुए के प्रत्यक्ष न होने से

और हो चुके हुए की स्मृति से विरोधि के प्रत्यक्ष की नाई होता है।

च्या-जिस का अभाव है, वह उस का प्रतियोगी वा विरोधी कहलाता है, जैसे घटाभाव का प्रतियोगी वा विरोधि घट है । जब घट विद्यमान है, तो 'यह घड़ा है? ऐसा प्रत्यक्ष होता है। अव जब घड़ा असत् हो गया है, तो ‘अव घड़ा नहीं है ? इस प्रकार उस के अभाव का प्रत्यक्ष'भी ठीक वैसा ही होता है, जैसे उस के विरोधी का (घट का ) होता था । इस ध्चैम के प्रत्यक्ष का कारण यह है, कि भूत घट का अव प्रत्यक्ष नहीं है, और स्मृति उस की वनी है, कि था। यदि वह होता, तो प्रत्यक्ष होता, नहीं रहा है, इस लिए प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसे ज्ञानं की महायता. से घट के नाशं का वैसा ही'मंत्यक्ष

होता है, जैसे घट का । ।

१४१
अ. १ आ. १ सू. ८

अ० ९ आ०१ सू०१०

संगति-प्राग भाव का प्रत्यक्ष भी इसी रीति से होता है, यह दिखलाते है

तथाऽभावे भाव प्रत्यक्षत्वाच ॥ ७ ॥

(जैसे ध्वंम में प्रत्यक्ष होता है) वैसे प्रागभाव में (प्रत्यक्ष होता है) सामग्री के प्रत्यक्ष होने से (जव चाक पर चढ़ी हुई मट्टी देखली, तो घड़े का मागभाव प्रत्यक्ष हो जाता है, कि अभी घड़ा नहीं है, अब होगा ) । .

संस-अन्योऽन्या भाव की प्रत्यक्षता दिखलाते हैं।

एतनाघटौऽगौर धर्मश्च व्याख्यातः ॥८॥

इस से * यह अघट है, यह अगौ है, यह अधर्म है ? यह व्याख्या किया गया (अघट है घड़ से भिन्न है । जब घड़ा प्रत्यक्ष है, तो घड़े से भेद भी प्रत्यक्ष होगा इत्यादि ) ।

सं-अत्यन्ताभाव का भी प्रत्यक्ष कहते है

अभूतं नास्तीत्यनर्थान्तरम् ॥ ९ ॥

हुआ नहीं, है नहीं, यह एक ही बात है।

व्या-अत्यन्ताभाव की प्रतीति दो मकार से होती है, मनुष्य का सींग कभी हुआ ही नहीं वा मनुष्य कां सींग नहीं हैं । यह दानां मकार का ज्ञान प्रत्यक्ष हाता हैं ।

नास्ति घटोगेह इति सतो घटस्यगेहंसंसर्ग प्रतिषेधः ।। १० ॥

‘नहीं है घड़ा घर में ’ यह विद्यमान घड़े का घर से संयोग

का निषेध है यहमतीति, अत्यन्ताभाव से विलक्षण है। पर ग्रन्थ

१४२
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन ।

कारों ने इस कॉभी अत्यान्ताभावे के अन्तर्गत माना है, कइयों ने सामयिकाभाव नाम से यह अलग पांचवां अभाव माना है)

सै-लौकिक प्रत्यक्ष की परीक्षा की गई, अव अलौकिक की परीक्षा करते हुए कहते हैं

आत्मन्यात्ममनसो संयोगविशेषादिात्म प्रत्य क्षम् ॥ ११ ॥

आत्मा में आत्मा और मन के सैयौगविशप से आत्मा का प्रत्यक्ष होता है।

व्य-यंद्यपि 'अहं सुखी ? इत्यादि प्रतीति सें संव को अपने आत्मा का'मत्यक्ष होता है, तथापि उस प्रत्यक्ष में आत्मा का शारीर सें भेद प्रत्यक्ष नहीं होता । इस लिए आत्मा'को अप्रत्यक्ष कहा है (८ । १ । २) । पर जब योग से पुरुष । अपने स्वरूप को देखता है। तब योग समाधि द्वारा जो आत्मा और मन का संयोग होता है, उस संयोग विशेष सें इस्तामलक व आत्मा कां' प्रत्यक्ष होता है। और जैसयह आत्मा का मत्यक्ष होता है

तथा द्रव्यान्तरेषु प्रत्यक्षम् ॥ १२ । ।

वैसे अन्य द्रव्यों ( सूक्ष्म द्रव्यों परमाणु आकाश आदि) में भी प्रत्यक्ष होता है।

असमाहितान्तः करणा उपसंहृतंसमांधय स्तेषां च ॥ १३ ॥

जिन का अन्तःकरण समाधि राहत है, जो समाधि को

समाप्त करं चुके हैं, उन को भी प्रत्यक्ष होता हैं ।

१४३
अ. १ आ. १ सू. ८

व्या-योगी दो मकार के होते हैं। युञ्जान और युक्त । युञ्जान जो मन को एकाग्र करके समाध लगा सकते हैं। वे ममाधि में जाकर जव अपने मन को आत्मा में लगाते हैं, तव उनको आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, किसी औरद्रव्य में लगाते हैं, तो उसका प्रत्यक्ष होता है । दृसरे युक्त वे कहलाते हैं, जो समाधि को समाप्त कर चुके हैं, उन को आत्मा सदा भत्यक्ष रहता है। अतएव उन को आत्म प्रत्यक्ष के लिए समाधि की आवश्यकता नहीं पड़ती । इसी तरह दूसरे द्रव्यों के प्रत्यक्ष के लिए भी समाधेि.लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जब जिस. में मन को. लगाएं, उसी को प्रत्यक्ष कर लेते हैं, इन युक्त योगियों के प्रत्यक्ष का इस सूत्र में वर्णन है । पूर्वं जो आत्मसंयोगविशेष से प्रत्यक्ष कहा है, वह युञ्जान योगियों के लिए कहा है। प्रत्यक्ष दोनों को ही होता है, भेद यह होता है, कि युभान योगियों को तो समाधि लगाने से प्रत्यक्ष होता है, और युक्त योगियों को समाधेि की आवश्यकता नहीं रहती ।

तत्समवायात् कर्मगुणेषु ॥ १४ ॥

उन (द्रव्यों) में समवेत होने सें कर्म गुणों में (युक्त युञ्जान दोनों को प्रत्यक्ष होता है) ।

आत्मसमवायादात्मगुणेषु ॥ १५ ॥

आत्मा में समवत होने से आत्मा के गुणों में (मत्यक्ष

होता है) ।

१४४
'वैशेषिक-दर्शन ।

चैोंपिक दर्शन ।

नवम अध्याय-द्वितीय आहिक ।

संगति-प्रत्यक्ष का निरूपण किया, अब अनुमान का निरूपण

अस्यदं कार्यकारणं संयोगि विरोधि समवाय चेति लैङ्गिकम् ॥ १ ॥

इस का यह-कार्य है, कारण है, संयोग है, विरोधि है, और समवायि है, यह लिङ्गजन्य (ज्ञान) है ।

व्या-कार्य से कारण का, कारण से कार्य का, संयोगि से संयोगि का, विरोधि से विरोधि का, समवायि से समवायि का, ऑर एकाथेसमवाय स एकाथ समवाय का जा ज्ञान होता है, वह लैङ्गिक=लिङ्गजन्य=चिन्ह से जाना गया (अनु मान ज्ञान ) कहलाता है। कार्य से कारण का अनुमान, जैसे नदी की वाढ़ आदि देख कर ऊपर हुई दृष्टि का अनुमान होता है। कारण से कार्य का अनुमान, जैसे मेघ की उन्नति विशेष देख कर दृष्टि का अनुमान होता है। शेप उदाहरण पूर्व (१ । १ । ९ में ) दिखला दिये हैं।

संस-अनुमान की सत्यता का परिचायक क्या है, इस पर कहते हैं ।

अस्येदं कार्यकारण सम्बन्धश्चावयवाटू भवति २

इस का यह है? इस प्रकार कार्य कारण का सम्बन्ध अवयव से होता है ।

व्या-इस का यह कार्य है, इस का यह कारण है, इस

प्रकार कार्य कारण का सम्वन्ध अनुमान वाक्य के अवयव

१४५
अ. १ आ. १ सू. ८

अं०९ आ०९ ०४

से होता है । जैसे घूम से अग्रि के अनुमान मे वाक्यप्रयोग 'इस प्रकार होगा !

, पर्वत.अग्रिमान् है, (प्रतिज्ञा) क्योंकि धूम वाला है.(हेतु) रसोई की तरह (उदाहण) यहां धूम कार्य है, उस से घूम के कारण अग्रि का अनुमान है । धूम और अग्रि में कार्यकारण सम्वन्ध है, इस का परिचायक उदाहरण रसोई है, क्योंकि वहां अग्रि और धूम का कार्यकारण भाव मम्बन्ध प्रत्यक्षदृष्ट है । कार्यकारणभावसम्बन्ध उपलक्षण है, इसी प्रकार संयोग सम्बन्ध विरोध सम्वन्ध, समवाय सम्वन्ध और एकार्थ समवाय सम्बन्ध भी उदाहरण से जाने जाते हैं।

एतेन शाब्दं व्यख्यातम् ॥ ३ ॥

इस स वाव्दजन्य ज्ञान व्याख्या कया गया ।

व्या-कणाद के मत में दो ही प्रमाण हैं मयक्ष और अनु मान । शाब्द भी अनुमान के ही अन्तर्गत है, कोई अलग प्रमाण नहीं । क्योंकि जैसे लिङ्ग को देखकर लिङ्गी का ज्ञान होता है, वैसे ही शब्द को सुनकर उस के संकेतित अर्थ का अनुमान होता है, कि इस अर्थ को बोधन करने के लिए इसने ये शाब्द कहे हैं। आगे यह जो कुछ कह रहा है, सच कह रहा है वा झूठ कह रहा है । यह निश्चय वा संशय कहने वाले की योग्यता अयेाग्यता के ज्ञान से होता है, इसलिए यह भी अनुमान के अन्तर्गत है।

हेतुरपदेशेो लिङ्गे प्रमाण करणमित्यनर्थान्त

१४६
'वैशेषिक-दर्शन ।

हेतु, अपदेश, लिङ्ग, प्रमाण और करण (ये सव) एक वस्तु हैं ( अपदेश शब्दव्यवहार का नाम है. और अपदेशा लिङ्ग का पर्यायवाचक है । इस से भी सिद्ध है, कि शब्द व्यवहार लिङ्ग विशेष है, और शब्द ज्ञान लैङ्गिक ज्ञान है )

अस्यद मितिबुद्धयपेक्षितत्वात् ॥ ५ ॥

इम का है यह ? इस बुद्धि की अपेक्षा वाला होने से व्या-जैसे लैङ्गिक ज्ञान में * यह इस का है ' अर्थात् धूम अगि का है । नदी की वाढ़ दृष्टि की है, इसाढि परस्पर नियत सम्वन्ध का ज्ञान होता है । इसी प्रकार शाब्दज्ञान में * यह इस वाक्य का अर्थ है ? इत्यादि नियत सम्वन्ध का ही ज्ञान होता है। इस लिए शाब्ढ अनुमान के अन्तर्गत है। इसी प्रकार गवय गौ की नाई होता है? यह सुन कर वन गें गौ की नाई पशु को देख कर * इस का नाम गवय है * यह जो ब्रान उत्पन्न होता है। यह उपमान भी अनुमान के अन्तर्गत है । यहां भी गीसदृशा ‘पशु का नाम गवय है? यह नियत सम्बन्ध प्रतीत होता है। इसी प्रकार यह हट्टा कट्टा चैव टिन को कुछ नहीं खाता है ' इतना सुन कर सुनने वाला जो यह परिणाम निका लता है, ‘अर्थात् रात को खाता है ? यह अर्थापत्ति भी अनु मान के अन्तर्गत है। क्योंकि यहां भी हट्टा कट्टा वने रहने का औौर पुष्ट भोजन का नियत सम्वन्ध है । औग 'यहां घड़ा वृहीं हूँ * इद -ो अभाव का ज्ञान , ह वड़ दी अनुएलब्धि से होता है. यह अनुपलब्धिभी अलग प्रमाणनहीं किन्तु अभावज्ञान

मत्यक्ष मे होता है. यह पूर्व दिखलादिया है। इस के पास लाख

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अ. १ आ. १ सू. ८

कहे जाना जाता है, यह सम्भव प्रमाण भी अनुमान के अन्त गैत छै. क्योंकि लक्ष का सम्बन्ध सौ सहस्र के साथ नियत है। हाथ वा सिर आदि अंगों की चेष्टा मे जो ज्ञान होता है . वह भी अनुमान के अन्तर्गत है। इस प्रकार दो ही प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान मागे ममेयों के साधक होने मे प्रमाण दो ही हैं ।

सैगति-परीक्षित प्रत्यक्ष और लैङ्गिक शान अनुभव रूप है । अब स्मृति रूप ज्ञान की परीक्षा करते है

आत्म मनसोः संयोगविशेषात् संस्कारा च स्मृतिः ॥ ६ ॥

आत्मा और मन के संयोग विशेष और मैस्कार मे स्मृति होती है ।

व्या-जय कोई वस्तु अनुभव होती है, तो उस के अनुभव का संस्कार आत्मा पर होता है। फिर जब कभी पुरुष उधर मन को लगाता है. वा कोई वैसी वस्तु देंखता है, तो उस का स्मरण होता है। यह जो मन को लगाना आदि है, यही आत्मा और मन का संयोग विशेष है, इस संयोगविशेोष से और पूर्वळे संस्कार सें स्मृति होती है ।

तथा स्वभः ॥ ७ ॥ ।

वैसे ५ स्पति की नाई आत्मा मन के संयोगविशेष मे और पूर्वेले संस्कार से) स्वर होता है (स्वम मानस भ्रम होता है)।

स्वणान्तिकम् ॥ ८ ॥ :

(वैसे ) स्व# के मध्य में ान ।

१४८
'वैशेषिक-दर्शन ।

व्या-स्वप्र में ही देखी घस्तु को फिर स्वप्त में ही देखता

  • वा स्वप्र के अन्दर ही यह ज्ञान हो जाता है, ‘कि यह तो

स्व था, यह स्वान्तिक ज्ञान भी आत्मा मन के संयोगविशेष से और पूर्वले संस्कार से ही होता है । भद केवल इतना है, कि स्वप्त ज्ञान अधिक पूर्व के संस्कारों से होता है, और स्वा न्तिक तात्कालिक संस्कारों से होता है ।

धमाच ॥ ९ ॥

धर्म से भी (स्वप्त होता है, जब कि स्वप्त द्वारा भावि सूचना मिल जाती है) ।

संस०-ज्ञान की परीक्षा करके, अब झान की यथार्थता अयथा थैता की परीक्षा करते है

इन्द्रियदोषात् संस्कारदोषाचा विद्या ॥१०॥

इन्द्रियों के दोष से और संस्कार के दोष से अविद्या होती है ।

व्या-इन्द्रियों में दोष होने से प्रत्यक्ष में भूल होती है। और संस्कारों के दोष से अनुमान और स्मृति में भी भूळ होती है ।

तद्दुष्टज्ञानम् ॥ ११ ॥

वह दुष्ट ज्ञान है।

अदुष्ट,विद्या ॥ १२ ॥

दोष शून्य ज्ञान (मैशय और भ्रम से शून्य ज्ञान) विद्या है

आर्ष सिद्धर्दशनं च धर्मेभ्यः ॥ १३ ॥

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अ. १ आ. १ सू. ८

आर्ष ज्ञान (जो ऋषियों को परमात्मा से, मिलता है ) और सिद्ध दर्शन ( जो सिद्धों को योग सामथ्र्य से अतीन्द्रिय पदार्थो का साक्षात् दर्शन होता है, यह घर्मो से होता है (धर्म भावों से हृदय के भरा रहने से होता है) ।

अध्याय १० आह्निक १

संगति-बुद्धि के अनन्तर क्रमप्राप्त सुख दुःख की परीक्षा करते हैं इष्टानिष्टकारणविशेषाद् विरोधाच मिथः

सुखदुःखयोरर्थान्तरभावः ॥ १ ॥

इष्ट और अनिष्ट कारण के भेद सें और परस्पर के विरोध से सुस्र और दुःख का भेद है ।

व्या-सिर पर भार उठा कर गर्मी में मार्ग चलता हुआ पुरुप जब किसी वृक्ष की छाया में पहुंच कर सिर से भार उतार कर चैठता है, तो कहता है, 'मैं सुखी हो गया हूं ? वहां उस का दुःख दूर होने के सिवाय कोई और बात नहीं हुई, तो भी वह अपने को सुखी मानता है, इत्यादि दृष्टान्तों से कई लोग यह, स्थिर करते हैं, कि दुखाभाव ही मुख है, सुख कोई अलग वस्तु नहीं, इस मत का खण्डन करते हैं, कि सुख और दुख. दो अलग पदार्थ हैं, क्योंकि इन के कारण में स्पष्ट भेद है । इष्ट की प्राप्ति सुख का कारण है, और अनिष्ट की प्राप्ति दुःख का’ कारण है। दूसरा इन का आपस में विरोध डै । सुख और दुःख दोनों इकट्ट नहीं होते। इन के कार्य का भी भेद है; मुख , स मुख प्रसन्न होता है, दुःख स मुरझा जाता है.I.इस लिए मुखः

और दुःख दो अलग. २ .पदार्थ हैं । दुःखाभाव, में जो,मुख .

१५०
'वैशेषिक-दर्शन ।

व्यवहार है, बह औपचारिक है। उस से सुख की मुख्य प्रतीति का अपलाप नहीं हो सकता ।

संगति-“सुख दुःख'झान की ही अवस्था विशेष हैं, ऐसा मानने वाले को उत्तर देते है

संशयनिर्णयान्तरा भावश्च ज्ञांनान्तरत्वे हेतुः ॥३

संशाय और निर्णय के अन्दर न होना (दुःख मुख के ) ज्ञान से अलग होने में हेतु है।

व्या-ज्ञान के दो विशेष हैं-संशय और निर्णय । मुख दुःख यदि ज्ञान होता, तो इन दोनों में से एक होता, पर वह इन दोनों में से नहीं, क्योंकि संज्ञाय दो कोटियों को विषय करता है, और निर्णय एक कोटि को, और सुख दुःख स्वयं विषय रूप हो कर ज्ञात होते हैं, इन का अपना विषय कुछ नहीं होता ।

तयोर्निष्पत्तिः प्रत्यक्ष लैङ्गिकाभ्याम् ॥ ३ ॥ ,

उन की (सुख दुख की ) िसदि प्रत्यक्ष और लैङ्गिक ज्ञान सें होती है ॥ अभिप्रेत विषय को प्रत्यक्ष करते हुए वा अनुमान से जानते हुए को मुख होता है, अक्षर अन भिमत विषय के प्रत्यक्ष और अनुमानमें दुःख की सिद्धि होती है । सो प्रत्यक्ष और अनुमान से उत्पन्न होने से मुख दुःख प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न है ।

अभूदित्यपि ॥ ४ ॥

था पह धौ (अर्थात 'पर्वत में अमिथी,वाहोगी'इस मकार ज्ञान का विषय, तो भूत और भविष्पत भी होते हैं, पर सुख दुख का

वर्तमान में भीविक्ष ही नहीं होता। इससे सुख दुःस्र ज्ञानरूप नहीं)

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अ. १ आ. १ सू. ८

सति च कार्यादर्शनात् ॥ ५ ॥

होते हुए भी कार्य कें न देखने से।

व्या-ज्ञान के कारण, .जो विषयइन्द्रियसम्वन्ध वा लिङ्गः ज्ञान है, उन के होते हुए भी कार्य जो सुख और दुःख है, उस का अनुभव नहीं होता है। यदि ये ज्ञान के भेद होते, तो ज्ञान की सामग्री होने पर अवश्य अनुभव होते ।

एकार्थे समवायि कारणान्तरेषु दृष्टत्वात् ६॥

एकार्थे समवायि' जो और कारण हैं, उन के होते हुए देखने सें ।

ज्या-ज्ञान का समवायी जो आत्मा है, उसमें जब तक राग द्वेष आदि (मुख दु:ख के कारणान्तर) न हों, तब तक सुख दुःख-की उत्पत्ति नहीं होती। यदि ज्ञान रूप ही होते, तो ज्ञान की सामग्री से अधिक सामग्री की अपेक्षा न रखते ।

सगति-यदि-कारण के भेद से कार्य का भेद होता है, तो एक ही वीर्य ओर शोणित से हाथ पैर सिर आदि विलक्षण अंगों की उत्पत्ति कैसे होती है ? 'इस का उत्तर देते है। –, ' ' ।

एकदेश इत्येकस्मिन् शिरः पृष्ठमुद्रै मर्माणि तद्विशेषस्तद्विशेषेभ्यः ॥ ७ ॥

उस के विलक्षण अङ्ग हैं,चे विलक्षण कारणों सें होते हैं(अपद एक ही वीज में विलक्षण अवयव ही विलक्षण कार्यो के आर

अध्ट ऐोखें हैं)

१५२
'वैशेषिक-दर्शन ।

दशम अध्याय-द्वितीय आह्निक ।

सगति-अव प्रसंग से तीनों कारणों की विवचना करते है

कारणमिति द्रव्ये कार्यसमवायात् ॥ १ ॥

कारण यह द्रव्य मे भतीति होती है, कार्य के समवाय से व्या-कार्य रूप द्रव्य. गुण और कर्म तीनों समवायसम्बन्धसे द्रव्य में रहते हैं। वस्त्र कार्य रूप द्रव्य है, वह तन्तुओं में सम वेत है, तन्तु द्रव्यं , हैं। तन्तुओं के गुण और कर्म तन्तुओं के कार्य हैं, वे भी तन्तुओं में समवत है ।

संयोगाद् वां-॥ २

अथवा सयांग सें ॥

व्या-जिस संयोग से द्रव्य की उत्पत्ति होती है ( जैसे तन्तु संपोग से वस्त्र की उत्पत्ति है ) वह संयोग भी द्रव्य के आश्रय रहता है, इस लिए द्रव्य समवायिकारण है ।

कारण समवायात् कर्माणि ॥ ३ ॥

कारण में समवाय से कर्म ( कारण हैं) ।

व्या-द्रव्य कारण कहा है, उसमें सम्वत होने से कर्मसंयोग विभाग और वेग के असमवायि कारण होते हैं। तोप से छूटेहुए गोले का किले की दीवार सेजो संयोगहुआ यह संयोग गोले का हुआ है, इस लिए गोला कारण है । गोले के कर्म से हुआ है, इस लिए कर्म कारण है । गोला द्रव्य है, वह समवायि कारण

है, कर्मइसं समवायि कारण मे समवाय से रहता है, इसलिए वह

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अ. १ आ. १ सू. ८

है, उस विभाग का गोलासमवायि कारण है, गोले का कर्म असमवायिकारण है। गोले में जो वेग उत्पन्न हुआ है,उस वेग का गोला समवायि कारण है, गोले का कर्म असमवायिकारण है।

तथारूपं कारणकार्थे समवाया च ॥ ४ ॥

वैसे रूप (कारण ) है, कारण के साथ एक अर्थ में समवाय सं ।

व्या-कर्म की नाई कारण में ममवाय से रूप भी असम वायि कारण होता है । तन्तु वस्त्र का कारण हैं, उस कारण ( तन्तुओं) में समवेत रूप, वस्त्र के रूप का कारण है। क्योंकि वस्त्र के रूप का कारण जो वस्त्र है, वह वस्त्र भी तन्तुओं में समवेत है, औरतन्तुओंकारूपभीतन्तुओं में समवेत है। इस सम्बन्ध से अर्थात् कारण के साथ एक अर्थ में समवाय से, अवयवों का रूप !' अवयवी के रूप का असमवायि कारण होता है। रूप उपलक्षण है-अर्थात् रस गन्ध स्पर्शपरिमाण पृथक्क गुरुत्व द्रवत्व स्नेहभी इसी प्रकार कार्य गुणों के प्रति असमवायि कारण होते हैं ।

संस-गुण गुणों के असमवायि कारण कहे । अव संयोग गुण को द्रव्य का असमवायि कारण बतलाते हैं

कारण समवायात् संयोगः पटस्य ॥ ५ ॥

कारण ( तन्तुओं ) में समवाय से संयोग (तन्तु संयोग) वस्त्र का ( असमवायि कारण) है ।

कारण कारण समवायाच ॥ ६ ॥

कारण के कारण में समवाय से भी (असमवायि कारण

होता है। जैसे पृतै रूए बतलाया है। मृहत्र के रूप का कारण है।

१५४
'वैशेषिक-दर्शन ।

वस्त्र, उस वस्त्र का कारण जो तन्तु हैं, उन में समवाय से जो रूप है, वही वस्त्र के रूप का कारण है ।

संस-निमित्त कारण बतलाते है

संयुक्त समवायादवैशेषिकम् । ७ ।

संयुक्त समवाय से अग्रि का विशेष गुण (उष्णता) कारण होता है ।

व्या-यह जो अग् िकी उष्णता है, यह संयुक्त समवाय से पृथिवी के गन्ध रस रूप स्पर्श का निमित्त कारण है, क्योंकि अप्ति की उष्णता के निमित्त से पृथिवी के गन्ध रस रूप स्पर्श वढलते है। सम्वन्ध यहां संयुक्त समवाय है। पृथिवी से संयुक्त डआ था, उस अग् िमें समवाय से उष्णता रहती है ।

सगति-पदार्थों का साधम्यै वैधर्मयै से निरूपण किया, उन्हीं के तत्व शान से मोक्ष होता है, किन्तु मोक्ष का हेतु तत्त्वज्ञान धर्म विशेष से उत्पन्न होता है, यह पूर्व (१। १। ४) कहा है, उसी धर्म विशेष पर दृढ श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए धर्म का गौरव दिख लाते हुए उपसंहार करते है

दृष्टानां दृष्टप्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्यु

(शास्त्र में ) वतलाए गए फलों वाले, ( शास्त्र में) बत लाए गए कर्मो का अनुष्ठान, दृष्ट के अभाव में अभ्युदय (आत्म वल की उन्नति ' के लिए होता है।

यह खूब पूर्व ( १ । १ । ३) व्याख्यात है । इति शब्द

सयाप्ति सूचक है। इति वैोपिक दर्शनम् ।

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अ. १ आ. १ सू. ८

शास्त्रार्थ संग्रहः ।

१-हमारे मारे कार्य प्रतीति औरं व्यवहार मे चलतें हैं । प्रतीति स्वय जानने, और व्यवहर दूसरे को बतलाने का नाम है ।

२-मतीति से जो सिद्ध हो, उसे पदार्थ कहते हैं। पदार्थ अर्थात पद का अर्थ, क्योंकि जो कुछ भी प्रतीत होता है , उस के वतलाने में अवश्य कोई पद वोला जाता है, अतः पद का अर्थ होने से पदार्थ कहलाता है ।

१-पदार्थ छ: -द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और िवशेष । ४-इन में से द्रव्य धर्मी है । गुण और कर्म उम के धर्म हैं। सामान्य और विशेष द्रव्य गुण कर्म तीनों के धर्म हैं सम वाय पांचों का धर्म है ।

५-द्रव्य नौ हैं-पृथिवी, जल, तेज. वांयु, आकाश, काल दिशा, आत्मा और मन ।

--(१) पृथिवी=मट्टी। यह स्थूल भूमि, ईट पत्थर, वृक्ष. प्राणधारियों के शरीर सव पृथिवी हैं । (२) जल=पानी (३) तेज, जिस का धर्म गर्मी है-आग्रे तेज है, और जिस किसी द्रव्य में गर्मी है, वह सब उस में स्थित तेज की है । (४) वायु प्रसिद्ध वायु (५ ) आकाशा, जिस का गुण शब्द है ( ३. ७ ) काल और दिशा जो प्रसिद्ध हैं (८) आत्मा, शीरो के भीतर जौ जानने वाला है (९) मन, उस आत्मा के पास जो जानने का साधन है । इन में पृथिवी संव से स्थूल है, उम से मूक्ष्म जल, उस से सूक्ष्म तेज, उस से सूक्ष्म वायु । ये पृथिवी'जल

तर्ज-ायु जो हमारे'इन्द्रियों का विषय हैं, ये सावयव है, अंत

१५६
'वैशेषिक-दर्शन ।

एव नाशवान हैं, पर जिन मूल अवयवों से ये बने हैं, व नाशः वान नहीं हैं, वे परमाणु कहलाते हैं। सों पृथिवी जल तेज वायु के परमाणु नित्य हैं, और ये जो स्थूल पृथिवी जल तेज वायु हैं, ये अनित्य हैं। आकाशा एक ही सारे व्यापक है. अतएव नित्य है । काल का न आदि न अन्त है, अतएव वह एक है और नित्य है। अखण्ड काळ एक ही है, पर व्यवहार के लिए उस के भूत भविष्यत् वर्तमान भेद माने जाते हैं। दिशा का भी न आदि है, न अन्त है, अतएव वह भी नित्य है, अखण्ड दिशा एक ही है, पर व्यवहार के लिए उस के चारों पास की दृष्टि से चार, कोणों को मिलाकर आठ और ऊपर नीचे को मिलाकर दस वा चार के साथ मिला कर, छः मानी जाती हैं। आत्मा हरएक शरीर में अलग है, मन हरएक के साथ अलग है । आत्मा व्यापक है और मन अणु है।

७-गुण २४ हैं-(१) रूप (२) रस (३) गन्ध (४) स्पर्शी (५) संख्या (६) परिमाण (७) पृथक्तव (८) संयोग (९) विभाग (१०) परत्व (११) अपरत्व (१२) गुरुत्व (१३) द्रवत्व (१४) स्नेह (१५) शाब्द (१६) बुद्धि (१७) सुख (१८) दुःख (१९) इच्छा (२०) द्वेष (११) प्रयत्र (२२) धर्म (१३) अधर्म (२४) संस्कार ।

८-(१) रूप, धत नीला पीला आदि कई प्रकार का है। सव रूप आंख से देखे जाते हैं (२) रस, मधुर, खट्टा आदि कई प्रकार का है, सब रस रसना से जाने जाते हैं (३) गन्ध, के दो भेद हैं सुगन्ध औरदुर्गन्ध, सारेगन्ध गन्धघ्राण से जाने जाते हैं (४) स्पर्श, तीन प्रकार का है शीत, उष्ण, अनुष्णा

)

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अ. १ आ. १ सू. ८

इति । सव प्रकार के स्पर्शी त्वचा से जाने जाते हैं (५) संख्या = गिनती (६) परिमाण-८माप. दीर्घत्व महत्व आदि (७) पृथक्क =पृथक् पन (८) संयोग-मेल (२) विभाग ( १०, ११) परत्व, अपरत्व-दूरी निकटता, वा बड़ाई छुटाई (१२) गुरुत्व =भार(१३) द्रवत्व=वहने का धर्म(१४) स्नेह-विखरे हुए कणों कोमिलाने काहेतुगुण(१५)शब्द वर्णरूप वा ध्वनिरूप,सब प्रकार के शाब्द वर्ण से जाने जाते , हैं (१६, २१) बुद्धि-ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष प्रयत्र=काम में लगने की शक्ति (२२,२३) धर्म-पुण्य के संस्कार, अधर्म=पाप के संस्कार जो आत्मा पर पड़ते हैं (२४) संस्कार, कर्म का जनक वेग, स्मृति का जनक भावना, और पूर्वेळी अवस्था में लाने वाला स्थिाति स्थापक ।

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन चार गुणों में से पृथिवी में चारों हैं, जल में गन्ध नहीं, शेष तीनों हैं, तेज में रस भी नहीं, शेष दो हैं, वायु में रूप भी नहीं, केवल स्पर्श है ।

संख्या, परिमाण, पृथक्तत्व, संयोग, विभाग ये पांच गुण द्रव्यमात्र के धर्ग हैं ।

परत्व, अपरत्व=आयु में बड़ा वा छोटा होना, ये दो उन के धर्म हैं, जो काल की सीमा में है, अर्थात उत्पत्ति नाना वाले हैं जो नित्य हैं, उन के ये धर्म नहीं हैं। और दूर निकट होना, ये उनके धर्म हैं, जो दिशा की सीमा में हैं, अर्थात् पृथिवी, जल तेज, वायु और मन के. विभु के ये धर्म नहीं होते।

गुरुत्व, भार, इरएक तैौल चाली वस्तु का धर्म है । द्रवत्व =बहना, यह धर्म जल का तो स्वतः सिद्ध है, पर लॉह आदि

१५८
'वैशेषिक-दर्शन ।

धातु और घी आदि भी तपाए हुए वहने लगते हैं । स्नेह =जोड़ने का धर्म भी जल का है ।

शब्द केवल आकाशा का धर्म है ।

बुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वेष प्रयत्र धर्म अधर्म और भावना ये केवळ आत्मा के गुण हैं ।

वेग उन का गुण है, जो दिशा की सीमा में हैं अर्थात् मूर्त हैं।

( ९) कर्म पांच हैं-उत्क्षेपण=ऊपर फेंकना, अपक्षेपण= नीचे फैकला, आकुञ्चन-सकोड़ना, प्रसारण-फैलाना, गमन= अन्य स भकार की क्रिया ।

(१०) जिस धर्म मे भिन्न व्यक्तिये एक श्रेणि की प्रतीत होती हैं, वह सामान्य कहलाता है, जैसे पशुओं में पशुत्व, मनुष्पा म मनुष्यत् ।

(११) जिस घर्म से व्यक्तियों में विशेपत्व प्रतीत होता है, वह विशेष कहलाता है।

(१२) ममवाय, धर्म का धर्मी के साथ जो सम्बन्ध है, वह समवाय है ।

इति वैशेषिक शास्त्रार्थ मंग्रहः ।

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अ. १ आ. १ सू. ८

वैशेषिक दर्शन की विषयानुक्रमणंौ ।

भूमिका ।

  • | द्रव्य गुण काम क आपस मं

दर्शनों के रचने का उद्देश्य ? | ममान धर्म और विरुद्धधर्म१९ दर्शनकार मुनि वशेषिक सूत्रकार कणाढ मुनेि? | गुण का लक्षण २४ कणाढ रचित दर्शन के नाम २ | कर्म का लक्षण वैशेषिकदर्शन के मूलसूत्र और | कारणतामें(वस्तुओं के उत्पन्न करने में) द्रव्य गुण कर्म के वैशेषिकसूत्रों के प्रतिपाद्यविषय६| समानधर्म और विरुद्ध धर्म२७ सूत्रों का निर्णय | कार्यतामें(उत्पन्न होने में) द्रव्य गुण कर्म के ससानधर्म और १ड् दर्शन उन पर व्याख्यान ४ व्याख्यान का ढग २९८

प्रथमाध्याय प्रथमाह्निक प्रथमाध्यायद्वितीयआह्निकू

शास्रारम्भ की प्रतिज्ञा १० | कीव्यवस्था३० कार्यकारणभाव धर्म का लक्षण और फल १० । सामान्य और विशेष(पदाथों) धर्म में वेढ की प्रमाणता १' } का निरूपण ३२ छः पदार्थो का उद्देना और उन ' केवल सामान्य कानिरूपण ३४ द्रव्यों का विभाग १५ | केवल विशेषों का निरूपण ३६ गुणों का विभाग(२४गुण)१७| सत्ता सामान्य.का सविशेष, ३७ न्यू

१६०
'वैशेषिक-दर्शन ।

द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व का सावे | तेज के लक्षण की परीक्षा ६२ शेष निरूपण . ३८ | जल के लक्षण की परीक्षा ६२ ६३ सचा | काल का निरूपण सामान्य की एकता का ३९ | दिवा का निरूपण ५४

द्वितीयाध्यायप्रथम आह्निक संशय का व्युत्पादन ५६

पृथिवी का लक्षण ४० | शब्ढ के स्वरूप और उस के नित्यत्व अनित्यत्व की तज का लक्षण वायु का लक्षण ४१ तृतीयाध्यायप्रथम आह्निक अथाकाश की विलक्षणता ४१ | आत्म परीक्षा का मकरण ६६ असि संयोग से पार्थिव वस्तुओं | शरीर चेतनता का खण्डन६७ का पिघलना ४१ | प्रसंग से हेतु और हेत्वाभासों अग्रिसंयोग से धातों का िपघः | का निरूपण लना ४२ | ‘आत्मा कीसिद्धिमें ज्ञान सद्धेतु अप्रत्यक्ष पदार्थो की सिद्धि के | है’ का प्रतिपादन ७२ लिए अनुमान की माणता | अन्य प्राणियों में आत्मा के का उपप्पादन ४२ ! अनुमान का प्रकार ७९ अनुमान से वायु और उस के तृतीयध्यायद्वितीयअह्निक धर्मो की सिद्धि ४३ | मन का निरूपण ७३ आकाशा का निरूपण ४७ । आत्मा के साधक अनेक लिङ्गों

द्धि०ध्यायद्वितीयआह्निक का प्रतिपादन ७६

पृथिवी के लक्षण की परीक्षा ५१. पान्याओं के भेद का माधल८२

परीक्षा (

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अ. १ आ. १ सू. ८

चतुर्थाध्याय, प्रथमअाह्निक का प्रतिपादन ९३ का व्यवस्थापन आदि ८५ | अभिघात जन्य कर्म का प्रति पादन परमाणुओं की, अनित्यता का ८६ | गुरुत्व मे पतन का प्रतिपादन ९४ खण्डन 'परमाणु अतीन्द्रिय है ? का | देले के ऊपर और आड़ा जाने , ८७ | आदकर्म भद म कारण उपपादन गुणों की प्रत्यक्षता, परोक्षता भेद का निरूपण ९६ ८७ | प्रयल से का उपपादन अजन्य शारीरिक कर्म सत्ताओौरगुणत्वकी प्रत्यक्षता८९ . . सयूग जन्य कम • , ९७ चतुर्थाध्यायद्वितीयआह्निक अदृष्ट कारण वाले कर्म ९७ शरीर, इन्द्रिय और विषय का | संस्कार जन्य कर्म ९८ कवचन * पञ्चमाध्यायद्धितीयआह्निक शरीर के पांच भैौतिक होने पृथिवी के विविध कर्म और उन आदि के खण्डन पूवेक | के कारण ९८ एक भौतिक होने का व्यव जल के विविध कर्म और उन ८९ | के कारण शरीरों के योनिज, अयोनिज | वायुके तेज और कर्म और उन

  • | के कारण - १०२

अयोनिज शारीरों में ममाण ९१ मनककर्म और उनकेकारंण ०६ पञ्चमाध्यायःप्रथम आह्निक| अन्धकार को अभाव स्वरूप कर्मे परीक्षा-प्रयव्रजन्य । कर्म | प्रतिपादन १०३

स्थापन

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'वैशेषिक-दर्शन ।
४ )

आकाश, काल, दिशा के | मोक्षके उपायका मतिपादन११४

निष्क्रिय कामादिपादन१०४ सप्तमाध्यायप्रथम आद्विक

गुण आदि के सम्वन्ध(समवाय)| रुप, रस, गन्ध, स्पर्श की उत्पत्ति का कर्म से अजन्य होने का | आदि का प्रतिपादन ११५ प्रतिपादन * ०५ | परिमाण की परीक्षा ११७ गुणों की असमवायि कारणता | आकाश और आत्मा के परि का उपपादन १०५ | माण का प्रतिपादन १२२ षष्ठाध्याय प्रथम आह्निक | मन के परिमाण का प्रतिपा वेदीप्रमाणताकाउपपादन' ०६ सप्तमाध्यायद्वितीय आह्निक धर्म-अधर्म के फलने का नियम १०८ संख्या परीक्षा | का १२३ दान आदे में पात्र अपात्र | पृथक्तत्व की परीक्षा १२३ और हीन मध्यय उत्तम पात्रों | गुण कर्मो में संख्या का अभाव के भेद से फल भेद १०९ | संयोग विभाग की परीक्षा १ ५६ षष्ठाध्यायद्धितीयआकि |

शब्द और अर्थ के सैकेतित

अदृष्ट फल वाले कर्म १११ सम्वन्ध का उपपादन१३७ कर्म में भावना का फळ १११ परत्व अपरत्व की परीक्षा १२९ शुचि अशुचि का निरूपणू १११ समवाय की परीक्षा १३१ राग द्वेष से प्रवृत्ति द्वारा धर्म अष्टमाध्यायप्रथमआह्निक अधर्म की उत्पत्ति का बुद्धि की परीक्षा ' १३२ धर्म अघर्म का फलपुनर्जन्म११ धर्म धर्म ज्ञान की उत्पत्ति का क्रम

|

१६३
अ. १ आ. १ सू. ८

अष्टमाध्यायद्वितीय आह्निका

अनुमान की सत्यता का

ज्ञान की अपक्षा वाले ज्ञान १३७ | परिचायक १४४ ‘अर्थ' की परिभाषा १३७ | शाब्द वोध का अनुमान में इन्द्रियों के कारण और उनके | अन्तर्भाव १४५ विपयों की परीक्षा १३८ | उपमिति आदि का अनुमान में अन्तर्भाव , १४६ नवमाध्याय प्रथम आह्निक स्मृति का निरूपण १४७ माग भाव का साधन ?.३८ | स्वप्र, और स्वमान्तिक ज्ञान ध्वंसाभाव का साधन ११९ | का निरूपण १४० अन्योन्याभाव का साधन१३९ | अविद्या का निरूपण १४७ अत्यन्ता भाव का साधन २४० | विद्या का निरूपण १९४८ अभावों की प्रत्यक्षता का | आर्प ज्ञान का निरूपण १४८ दशमाध्यायप्रथम आह्निक प्रकरण ४१० योग से अन्य अतीन्द्रिय द्रव्यों अङ्गों के भेद में कारणभेद१५१ का प्रत्यक्ष १४२ योग से अतीन्द्रिय कर्म और |* नीनों कारणों की विवेचना १५२ गुणा का प्रसक्ष १४३ | अभ्युदय का निरुपिण १५४

नचमाध्यायद्वितीय

| सुखीर दुःख कानिरूपण१४९ अनुमान का [नस्पण १४४

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