"ऋग्वेदः सूक्तं ४.७" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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अयम इह परथमो धायि धात्र्भिर होता यजिष्ठो अध्वरेष्व ईड्यः | |
अयम इह परथमो धायि धात्र्भिर होता यजिष्ठो अध्वरेष्व ईड्यः | |
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यम अप्नवानो भर्गवो विरुरुचुर वनेषु चित्रं विभ्वं विशे-विशे |
यम अप्नवानो भर्गवो विरुरुचुर वनेषु चित्रं विभ्वं विशे-विशे ॥ |
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अग्ने कदा त आनुषग भुवद देवस्य चेतनम | |
अग्ने कदा त आनुषग भुवद देवस्य चेतनम | |
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अधा हि तवा जग्र्भ्रिरे मर्तासो विक्ष्व ईड्यम |
अधा हि तवा जग्र्भ्रिरे मर्तासो विक्ष्व ईड्यम ॥ |
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रतावानं विचेतसम पश्यन्तो दयाम इव सत्र्भिः | |
रतावानं विचेतसम पश्यन्तो दयाम इव सत्र्भिः | |
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विश्वेषाम अध्वराणां हस्कर्तारं दमे-दमे |
विश्वेषाम अध्वराणां हस्कर्तारं दमे-दमे ॥ |
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आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश चर्षणीर अभि | |
आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश चर्षणीर अभि | |
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आ जभ्रुः केतुम आयवो भर्गवाणं विशे-विशे |
आ जभ्रुः केतुम आयवो भर्गवाणं विशे-विशे ॥ |
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तम ईं होतारम आनुषक चिकित्वांसं नि षेदिरे | |
तम ईं होतारम आनुषक चिकित्वांसं नि षेदिरे | |
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रण्वम पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः |
रण्वम पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः ॥ |
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तं शश्वतीषु मात्र्षु वन आ वीतम अश्रितम | |
तं शश्वतीषु मात्र्षु वन आ वीतम अश्रितम | |
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चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम |
चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम ॥ |
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ससस्य यद वियुता सस्मिन्न ऊधन्न रतस्य धामन रणयन्त देवाः | |
ससस्य यद वियुता सस्मिन्न ऊधन्न रतस्य धामन रणयन्त देवाः | |
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महां अग्निर नमसा रातहव्यो वेर अध्वराय सदम इद रतावा |
महां अग्निर नमसा रातहव्यो वेर अध्वराय सदम इद रतावा ॥ |
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वेर अध्वरस्य दूत्यानि विद्वान उभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान | |
वेर अध्वरस्य दूत्यानि विद्वान उभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान | |
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दूत ईयसे परदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि |
दूत ईयसे परदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि ॥ |
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कर्ष्णं त एम रुशतः पुरो भाश चरिष्ण्व अर्चिर वपुषाम इद एकम | |
कर्ष्णं त एम रुशतः पुरो भाश चरिष्ण्व अर्चिर वपुषाम इद एकम | |
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यद अप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश चिज जातो भवसीद उ दूतः |
यद अप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश चिज जातो भवसीद उ दूतः ॥ |
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सद्यो जातस्य दद्र्शानम ओजो यद अस्य वातो अनुवाति शोचिः | |
सद्यो जातस्य दद्र्शानम ओजो यद अस्य वातो अनुवाति शोचिः | |
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वर्णक्ति तिग्माम अतसेषु जिह्वां सथिरा चिद अन्ना दयते वि जम्भैः |
वर्णक्ति तिग्माम अतसेषु जिह्वां सथिरा चिद अन्ना दयते वि जम्भैः ॥ |
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तर्षु यद अन्ना तर्षुणा ववक्ष तर्षुं दूतं कर्णुते यह्वो अग्निः | |
तर्षु यद अन्ना तर्षुणा ववक्ष तर्षुं दूतं कर्णुते यह्वो अग्निः | |
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वातस्य मेळिं सचते निजूर्वन्न आशुं न वाजयते हिन्वे अर्वा |
वातस्य मेळिं सचते निजूर्वन्न आशुं न वाजयते हिन्वे अर्वा ॥ |
१९:५९, २३ जनवरी २००६ इत्यस्य संस्करणं
अयम इह परथमो धायि धात्र्भिर होता यजिष्ठो अध्वरेष्व ईड्यः | यम अप्नवानो भर्गवो विरुरुचुर वनेषु चित्रं विभ्वं विशे-विशे ॥ अग्ने कदा त आनुषग भुवद देवस्य चेतनम | अधा हि तवा जग्र्भ्रिरे मर्तासो विक्ष्व ईड्यम ॥ रतावानं विचेतसम पश्यन्तो दयाम इव सत्र्भिः | विश्वेषाम अध्वराणां हस्कर्तारं दमे-दमे ॥ आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश चर्षणीर अभि | आ जभ्रुः केतुम आयवो भर्गवाणं विशे-विशे ॥ तम ईं होतारम आनुषक चिकित्वांसं नि षेदिरे | रण्वम पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः ॥
तं शश्वतीषु मात्र्षु वन आ वीतम अश्रितम | चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम ॥ ससस्य यद वियुता सस्मिन्न ऊधन्न रतस्य धामन रणयन्त देवाः | महां अग्निर नमसा रातहव्यो वेर अध्वराय सदम इद रतावा ॥ वेर अध्वरस्य दूत्यानि विद्वान उभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान | दूत ईयसे परदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि ॥ कर्ष्णं त एम रुशतः पुरो भाश चरिष्ण्व अर्चिर वपुषाम इद एकम | यद अप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश चिज जातो भवसीद उ दूतः ॥ सद्यो जातस्य दद्र्शानम ओजो यद अस्य वातो अनुवाति शोचिः | वर्णक्ति तिग्माम अतसेषु जिह्वां सथिरा चिद अन्ना दयते वि जम्भैः ॥ तर्षु यद अन्ना तर्षुणा ववक्ष तर्षुं दूतं कर्णुते यह्वो अग्निः | वातस्य मेळिं सचते निजूर्वन्न आशुं न वाजयते हिन्वे अर्वा ॥