यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः २१

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अध्यायः १
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १

देवस्य त्वेत्यस्यर्षिः स एव। यज्ञो देवता सर्वस्य। आदौ सं वपामीत्यस्य गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः। अन्त्यस्य विराट्निचृत् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥

ईश्वरेण याभ्य ओषधिभ्योऽन्नादिकं जायते, ताः कथं शुद्धा जायन्त इत्युपदिश्यते॥

जिन औषधियों से अन्न बनता है, वे यज्ञादि करने से कैसे शुद्ध होती हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्।

सं व॑पामि॒ समाप॒ऽओष॑धीभिः॒ समोष॑धयो॒ रसे॑न।

सꣳ रे॒वती॒र्जग॑तीभिः पृच्यन्ता॒ᳬ सं मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्ताम्॥ २१॥

पदपाठः— दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सम्। व॒पा॒मि॒। सम्। आपः॑। ओष॑धीभिः। सम्। ओष॑धयः। रसे॑न। सम्। रे॒वतीः॑। जग॑तीभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। सम्। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑ऽमतीभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्॥२१॥

पदार्थः— (देवस्य) विधातुरीश्वरस्य द्योतकस्य सूर्य्यस्य वा (त्वा) तं त्रिविधं यज्ञम् (सवितुः) सवति सकलैश्वर्य्यं जनयति तस्य (प्रसवे) उत्पादितेऽस्मिन् संसारे (अश्विनोः) प्रकाशभूम्योः। द्यावापृथिव्यावित्येके। (निरु॰१२।१) (बाहुभ्याम्) तेजोदृढत्वाभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकर्त्तुर्वायोः। पूषेति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५।६) अनेन पुष्टिहेतुर्गृह्यते (हस्ताभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (सम्) सम्यगर्थे (वपामि) विस्तारयामि (सम्) संमेलने। समित्येकीभावं प्राह। (निरु॰१।३) (आपः) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१।१२) (ओषधीभिः) यवादिभिः। ओषधयः ओषद् धयन्तीति वौषत्येना धयन्तीति वा दोषं धयन्तीति वा॥ निरु॰९।२७। (सम्) सम्यगर्थे (ओषधयः) यवादयः। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। (मनुस्मृतौ अष्टा॰ १।श्लो॰ ४६) (रसेन) सारेणार्द्रेणानन्दकारकेण (सम्) प्रशंसार्थे (रेवतीः) रेवत्य आपः। अत्र सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इति पूर्वसवर्णादेशः (जगतीभिः) उत्तमाभिरोषधीभिः (पृच्यन्ताम्) मेल्यन्ताम्। पृच्यन्ते वा (सम्) श्रैष्ठ्ये (मधुमतीः) मधुः प्रशस्तो रसो विद्यते यासु ता मधुमत्य आपः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। सुपां सुलुग् [अष्टा॰७.१.३९] इति पूर्वसवर्णादेशश्च (मधुमतीभिः) मधुर्बहुविधो रसो वर्त्तते यासु ताभिरोषधीभिः। अत्र भूमार्थे मतुप् (पृच्यन्ताम्) युक्त्या वैद्यकशिल्पशास्त्ररीत्या मेल्यन्ताम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।६।१-२) व्याख्यातः॥२१॥

अन्वयः— हे मनुष्या! यथाऽहं सवितुर्देवस्य परमात्मनः प्रसवे सवितृमण्डलस्य प्रकाशे चाश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां यमिमं यज्ञं संवपामि। तथैव त्वा तं यूयमपि संवपत। यथैतस्मिन् प्रसवे प्रकाशे चौषधीभिराप ओषधयो रसेन। जगतीभी डरेवती] रेवत्यश्च संपृच्यन्ते। यथा च मधुमतीभिः [मधुमतीः] मधुमत्यः संपृच्यन्ते। तथैवौषधीभिरोषधय ओषधयो रसेन जगतीभिः सह रेवत्यश्चास्माभिः संपृच्यन्ताम्। एवं मधुमतीभिः सह मधुमत्यो नित्यं संपृच्यन्ताम्॥२१॥

भावार्थः— अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्मनुष्यैरीश्वरोत्पादिते सूर्य्यप्रकाशितेऽस्मिन् जगति बहुविधानां संप्रयोक्तव्यानां द्रव्याणां संप्रयोक्तुमर्हैर्बहुविधैर्द्रव्यैः सह संमेलनेन त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेयः। यथा जलं स्वरसेनौषधीर्वर्धयति, ता उत्तमरसयोगाद् रोगनाशकत्वेन सुखदायिन्यो भवन्ति, यथेश्वरः कारणात् कार्य्यं यथावद् रचयति, सूर्य्यः सर्वं जगत् प्रकाश्य सततं रसं भित्त्वा पृथिव्याद्याकर्षति, वायुश्च धारयित्वा पुष्णाति तथैवाऽस्माभिरपि यथावत् संस्कृतैः संप्रयोजितैर्द्रव्यैर्विद्वत्सङ्गविद्योन्नितिर्होमशिल्पाख्यैर्यज्ञैर्वायुवृष्टिजलशुद्धयश्च सदैव कार्य्या इति॥२१॥

पदार्थः— हे मनुष्यो! जैसे मैं (सवितुः) सकल ऐश्वर्य्य के देने वाले (देवस्य) परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए प्रत्यक्ष संसार में, सूर्य्यलोक के प्रकाश में (अश्विनोः) सूर्य्य और भूमि के तेज की (बाहुभ्याम्) दृढ़ता से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले वायु के (हस्ताभ्याम्) प्राण और अपान से (त्वा) पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ का (संवपामि) विस्तार करता हूँ, वैसे ही तुम भी उसको विस्तार से सिद्ध करो। जैसे इस उत्पन्न किये हुए संसार में (ओषधीभिः) यवादि ओषधियों से (आपः) जल और (ओषधयः) ओषधी (रसेन) आनन्दकारक रस से तथा (जगतीभिः) उत्तम ओषधियों से (रेवतीः) उत्तम जल और जैसे (मधुमतीभिः) अत्यन्त मधुर रसयुक्त ओषधियों से (मधुमतीः) अत्यन्त उत्तम रसरूप जल ये सब मिल कर वृद्धियुक्त होते हैं, वैसे हम सब लोगों को भी ओषधियों से जल और ओषधि, उत्तम जल से तथा सब उत्तम ओषधियों से उत्तम रसयुक्त जल तथा अत्युत्तम मधुर रसयुक्त ओषधियों से प्रशंसनीय रसरूप जल इन सबों को यथायोग्य परस्पर (संपृच्यन्ताम्) युक्ति से वैद्यक वा शिल्पशास्त्र की रीति से मेल करना चाहिये॥२१॥

भावार्थः— इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्यों को ईश्वर के उत्पन्न किये हुए सूर्य्य से प्रकाश को प्राप्त हुए इस संसार में अनेक प्रकार से संप्रयुक्त करने योग्य पदार्थों को मिलाने के योग्य पदार्थों से मेल कर के उक्त तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये। जैसे जल अपने रस से ओषधियों को बढ़ाता है और वे उत्तम रसयुक्त जल के संयोग से रोगनाश करने से सुखदायक होती हैं और जैसे ईश्वर कारण से कार्य्य को यथावत् रचता है तथा सूर्य्य सब जगत् को प्रकाशित करके और निरन्तर रस को भेदन करके पृथिवी आदि पदार्थों का आकर्षण करता है तथा वायु रस को धारण करके पृथिवी आदि पदार्थों को पुष्ट करता है, वैसे हम लोगों को भी  यथावत् संस्कारयुक्त संयुक्त किये हुए पदार्थों से विद्वानों का सङ्ग तथा विद्या की उन्नति से वा होम शिल्प कार्य्यरूपी यज्ञों से वायु और वर्षा जल की शुद्धि सदा करनी चाहिये॥ २१॥