२० अष्टावकगीता।
इस देहके विषयमें छः उर्मी तथा छः भावविकार प्रतीत होते हैं सो तू नहीं है किन्तु उनसे भिन्न और निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित है, तहां शिष्य आशंका करता है कि, हे गुरो! छः उर्मी और छः भावविकारोंको विस्तारपूर्वक वर्णन करो तहां गुरु वर्णन करते हैं कि, हे शिष्य ! क्षुधा, पिपासा (भूख प्यास ) ये दो प्राणकी ऊर्मी अर्थात् धर्म हैं और तिसी प्रकार शोक तथा मोह ये दो मनकी ऊर्मी हैं. तिसी प्रकार जन्म और मरण ये दो देहकी ऊर्मी हैं, ये जो छः ऊर्मी हैं सो तू नहीं है अब छः भावविकारोंको श्रवण कर “जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति" ये छः भाव स्थूलदेहके विषें रहते हैं सो तू नहीं है तू तो उनका साक्षी अर्थात् जाननेवाला है, तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं कौन और क्या हूं सो कृपा करके कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तू निर्भर अर्थात् सच्चिदानंदघनरूप है, शीतल अर्थात् सुखरूप है, तू अगाधबुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धिका कोई पार न पा सके ऐसा है और अक्षुब्ध कहिये क्षोभरहित है इस कारण तू क्रियाका त्याग करके चैतन्यरूप हो ॥१७॥
साकारमनृतं विद्धि निराकारंतु निश्चलम्।
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः॥१८॥