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भाषाटीकासहिता। १३

यरूपी अग्निसे अज्ञानरूपी वनका भस्म करके शोक, मोह, राग, द्वेष, प्रवृत्ति, जन्म, मृत्यु इनके नाश होने- पर शोकरहित होकर परमानंदको प्राप्त हो ॥९॥

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।

आनन्दपरमानन्दःस बोधस्त्वं सुखंचर१०॥

अन्वयः-यत्र इदम् विश्वम् रज्जुसर्पवत् कल्पितम् भाति सः आनन्दपरमानन्दः बोधः त्वम् सुखम् चर ॥ १० ॥

तहां शिष्य शंका करता है कि, आत्मज्ञानसे अज्ञा- नरूपी वनके भस्म होनेपरभी सत्यरूप संसारकी ज्ञानसे निवृत्ति न होनेके कारण शोकरहित किस प्रकार होऊंगा ? तब गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार रज्जुके विषें सर्पकी प्रतीति होती है और उसका भ्रम प्रकाश होनेसे निवृत्ति हो जाती है, तिस प्रकार ब्रह्मके विषें जगत्की प्रतीति अज्ञानकल्पित है ज्ञान होनेसे नष्ट हो जाती है। तू ज्ञानरूप चैतन्य आत्मा है, इस कारण सुखपूर्वक विचर । जिस प्रकार स्वप्नमें किसी पुरुषको सिंह मारता है तो वह बडा दुःखी होता है परंतु निद्राके दूर होनेपर उस कल्पित दुःखका जिस प्रकार नाश हो जाता है तिस प्रकार तू ज्ञानसे अज्ञा- नका नाश करके सुखी हो । तहां शिष्य प्रश्न करता है, कि, हे गुरो ! दुःखरूप जगत् अज्ञानसे प्रतीत होता है