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१२ अष्टावक्रगीता।

यहांतक बंधहेतुका वर्णन किया अब अनर्थके हेतुका वर्णन करते हुए अनर्थकी निवृत्ति और परमानंदके उपायका वर्णन करते हैं। मैं कर्ता हूं' इस प्रकार अहं- काररूप महाकाल सर्पसे तू काटा हुआ है इस कारण मैं कर्ता नहीं हूं इस प्रकार विश्वासरूप अमृत पीकर सुखी हो । आत्माभिमानरूप सर्पके विषसे ज्ञानरहित और जर्जरीभूत हआ है, यह बंधन जितने दिनोंतक रहेगा तबतक किसी प्रकार सुखकी प्राप्ति नहीं होगी; जिस दिन यह जानेगा कि, मैं देहादि कोई वस्तु नहीं हूं, मैं निर्लिप्त हूं उस दिन किसी प्रकारका मोह स्पर्श नहीं कर सकेगा ॥८॥

एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।

प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकःसुखी भव९॥

अन्वयः-( हे शिष्य ! ) अहम् विशुद्धबोधः एकः ( अस्मि) इति निश्चयवह्निना अज्ञानगहनम् प्रज्वाल्य वीतशोकः ( सन ) सुखी भव ॥९॥

तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्मज्ञानरूपी अमृत पान किस प्रकार करूं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! मैं एक हूं अर्थात् मेरे विषें सजाति विजातिका भेद नहीं है और स्वगतभेदभी नहीं है, केवल एक विशुद्धबोध और स्वप्रकाशरूप हूं, निश्च-