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पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१८

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६ अष्टावक्रगीता।

अब मुनि साधनचतुष्टयसंपन्न शिष्यको मुक्तिका उपदेश करते हैं, तहां शिष्य शंका करता है कि, हे गुरो ! पंच भूतका शरीरही आत्मा है और पंचभूतोंकेही पांच विषय हैं, सो इन पंचभूतोंका जो स्वभाव है उसका कदापि त्याग नहीं हो सकता, क्योंकि पृथ्वीसे गंधका या गंधसे पृथ्वीका कदापि वियोग नहीं हो सकता है, किंतु वे दोनों एकरूप होकर रहते हैं, इसी प्रकार रस और जल, अग्नि और रूप, वायु और स्पर्श, शब्द और आकाश है, अर्थात् शब्दादि पांच विषयोंका त्याग तो तब हो सकता है जब पंच भूतोंका त्याग होता है और यदि पंच भूतका त्याग होय तो शरीरपात हो जावेगा फिर उपदेश ग्रहण करनेवाला कौन रहेगा ? तथा मुक्ति- सुखको कौन भोगेगा ? अर्थात् विषयका त्याग तो कदापि नहीं हो सकता इस शंकाको निवारण करनेके अर्थ अष्टावक्रजी उत्तर देते हैं-हे शिष्य ! पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा इनके धर्म जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध सो तू नहीं है इस पांचभौ- तिक शरीरके विषयमें तू अज्ञानसे अहम्भाव ( मैं हूं, मेरा है इत्यादि ) मानता है इनका त्याग कर अर्थात् इस शरीरके अभिमानका त्याग कर दे और विषयोंको अना- त्मधर्म जानकर त्याग कर दे। अब शिष्य इस विषयमें