जैसे मधुमक्षिका अनेक रसों का मधु बनाती है वैसे
प्रति दिन सुषुप्ति में मनुष्य जिस सत्यरूप ब्रह्म में सुखरूप
एकरस होता है फिर भी अपना सतूरूप नहीं जानते श्रौर
जिससे हट कर बहुत दुःखी होते हैं, हे श्वेतकतो, वह सत्
ब्रह्म तू है।॥५०॥
(संपद्य मधुनि इव रसाः ) जैसे मधुकर मक्षिका जब
अनेक प्रकार के फलों वाले भिन्न २ दिशा में स्थित . वृक्षों का
रस एकत्र करके उन रसों को मधुरूप कर देती है फिर वे अनेक
प्रकार के वृक्षों के अनेक प्रकार के रस मधु में पृथक् नहीं
जानते कि-मैं आम्र वृक्ष का रस हूं. में पनस यानी कटहल वृक्ष
का रस हूं, तैसे ही (सुषुप्रैौ जनाः यत्र सौख्येकरस्य अधिगम्य
न विद्यु: ) प्रतिदिन सुषुप्ति में यह प्रजा उस सत् रूप ब्रह्म
में सत् रूप सुख भावतया एक रसता को अर्थात् एकता को
प्राप्त होकर के भी फिर अपनी सत् सुखरूपता को नहीं जानती
है, कि हम सत् को प्राप्त हुए हैं।
शंका--यदि सुषुप्ति में सर्व प्रजा सत् ब्रह्म को ही प्राप्त होती
है तो प्रजा का विना ही परिश्रम से कैवल्य मोक्ष प्राप्त हुआ
अब फिर पुन: वह प्रजा उत्थान होकर अपने अपने शरीर को
क्यों प्रांप्त होगी ?
समाधान्न-मूलाज्ञान के हात हुए . ही प्रजा के झाता, ज्ञय
श्रादिश्क भेदों का श्रज्ञान में लय होकर सत् ब्रह्म में एकता हुई है
इस कारण सुषुप्ति से पहले कर्म वश' जिस जिस व्याघ्र, हि,
वृक, वराह, कीट, पतंग, दंश, मशक आदि शरीर वाले ये जीव
१३ स्वा. सि,
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प्रकरण २ श्लों०.५०