पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१८६

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स्वाराज्य सिद्धिः

अधीन, अल्पशक्ति, अल्पज्ञ, परिच्छिन्न,पुण्य, पाप सुख, दु:ख. जन्म, मरण आदिक अनर्थ का पात्र है । इस अर्थ में निष्ठा करने से प्राण वियोग के अनंतर भी मुमुलु को अनर्थ की प्राप्ति ही होवेगी आनंद की प्राप्ति नहीं । और यदि केवल जीव वाचक त्वंपद में ही लक्षणा मानें तो यह प्रश्न होता है कि त्वंपद की लक्षणा व्यापक चेतन में है अथवा उपहित साक्षी चेतन में है ? पहला पक्ष संभव नहीं, क्योंकि व्यापक चेतन का वाच्यार्थ में प्रवेश ही नहीं है और दूसरा पक्ष भी संभव नहीं, क्योंकि त्वंपद् के लक्ष्यरूप साक्षिचेतन में सर्वज्ञता, अन्तर्यामिता, सर्वशिक्तिता, सर्व प्रपंच में व्यापकता परोक्षता श्रादिक ईश्वर धर्मो का अत्यंत असंभव है, और माया रहित को माया विशिष्ट कहना भी राज्य रहित को राजा कहने के सदृश निरर्थक है। इस प्रकार साक्षिचेतन का ईश्वर से अभेद कहने पर सारे महा वाक्य असंभव श्रर्थ के प्रतिपादक हो जावेंगे. इसलिये महा वाक्यों में दोनों पदों में लक्षणा माननी योग्य है, एक पद में नहीं । इस तात्पर्य को मन में लेकर श्राचार्य किसी एकही पद में लक्षणा का: निषेध करते हैं । (पद्याः न च एकतर भागलक्षणा) तत् त्व . इन दोनों पदों में से किसी एक पद् में भाग त्याग लक्षणा नहीं है । (अध्यवसान लिंगं अपि उपपद्यतेवा) और दोनों पदों में से किसी एक पद में जहन् अजहत् स्वार्थारूप भाग त्याग लक्षणा के निश्चय करने से कोईलिंग अर्थात् विशेषनिर्णय करने वाला हेतु नहीं मिलता; क्योंकि किसी एक पद्में लक्षणा मानने से सामान्य रूप से अखंड वाक्य के अर्थका तात्पर्य हस्तगत नहीं नहीं होता ॥४०॥
शंका-जैसे मनुष्य सिंह है, इस वाक्य में क्रूरता, वीरता आदिक गुणों की साम्यता से सिंह सदृश मनुष्य है इस प्रकार