सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः अन्ये च.djvu/१५५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

८५

रूपं वृष गिरकंद लिबास । दोइ जन अंग न मेरे पास
पलटै काया पंडे रोग । चरपट पोलै ते धनि जोग ॥३४॥
रष्या चरपट विवरजित कंथा । पुण्यांपुणि विवरजित पंथा ।
स्वादास्वाद विवरजित तृड । मुख मानाजावृत मुंडं मृड ।। ३५॥
मन नहीं मूढं गूडे केस । कैसा मुंड्या क्या उपदेस ।
मूड़े नहीं मन मरदका मान । चरपट बोलें तत्तगयांन ।। ३६ ।।
धींगा धींगी मुस्ता मुस्ती । यहौत चौर बाजारी।
आपगुर निंदं पर गुर वंदे । लड़बड़ीया लपच्यारी ।। ३७ ।।
झोली पाई पत्र पाया । पाया पंथ का भव ।
रीता जाऊँ भरीया आऊं । कहा करें गुग्देव ॥२८॥
सहज सुभाइ भिष्या मांगिबा । संजे मे भजन करणा ।।
आसण दिढ करि बैसित्रा अवधू । मन मुष भटकिन मरणा ॥३९॥
फकट आबै फोकट जाइ । फोकट बोलै फोकट पाइ ।
फोकट बैठ करै विवांद । चरपट कहें सत्र उपाधि ।। ४०॥
बायें हाथि कमंडल दाहिणे अंड । मोडोचक्र पूजो हो भंड ।
बैठौ तुम आगे रंड । चरपट कहैं ऐ सब पाउंड ।। ४१॥
भेष लीया सो भेद न पाया । घर छाड्या प्रवी न माया ।
नाथ विसारि निडर जग जोया। सांग बनाइ सुधीहवै सोया।।४२॥
ना धारि त्रिया नां धरि बरता । ना धरि धावून जोवन मंता ।
ना धरि पुत्र न धीव कारी । तातै चरपट नीद पियारी ॥ ४३ ॥
दिन उठि घर घर दीन्ही फेरी । अंतरि उलटि न आत्मा हेरी।
पात्र पूरया पेट फुलाया । मांगी मिष्या गटकाषाया ।। ४४॥