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पुटमेतत् सुपुष्टितम्
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स्वात्मनिरूपणम् ।


एष्टव्योऽहमनीहैरतस्सुकृतानुभूतिरहितोऽहम् ॥ ११२ ॥ ---
ऐक्यावभासकोऽह वाक्यपरिज्ञानपावनमतीनाम् ।।
ऐशमहमेव तत्त्व नैशतम.प्रायमोहमिहिरोऽहम् ॥ ११३ ॥
ओजोऽहमोषधीनामोतप्रोतायमानभुवनोऽहम् ।।
ओकारसारसोल्लसदात्मसुखामोदमत्तभृंगोऽहम् ॥ ११४ ।
औषधमहमशुभानामौपाधिकधर्मजालरहितोऽहम् ॥
औदार्यातिशयोऽह विविधचतुर्वगतारणपरोऽहम् ॥ ११५ ।
अकुशमहमखिलानां महत्तया मत्तवारणेंद्राणाम् ।
अबरमिव विमलोऽह शबररिपुजातविकृतिरहितोऽहम् ।। ३१6 ॥
आत्मविकल्पमतीनामस्खलदुपदेशगम्यमानोऽहम् ।
अस्थिरसुखविमुखोऽहं सुस्थिरसुखबोधसंपदुचितोऽहम् ॥ ११७ ॥
करुणारसभरितोऽहं कवलितकमलासनादिलोकोऽहम् ।
कलुषाकृतिरहितोऽहं कल्मषसुकृतोपलेपरहितोऽहम् ॥ ११८ ।।
खानानगोचरोऽहं खातीतोऽह खपुष्यभवगोऽहम् ।
खलजनदुरासदोऽहं खंडज्ञानापनोदनपरोऽहम् ॥ ११९ ।।
गलितद्वैतकथोऽह गेहीभवदखिलमूलहृदयोऽहम् ।
गन्तव्योऽहमनीहेर्गत्यागतिरहितपूर्णबोधोऽहम् ॥ १२० ॥
घनतरविमोहतिमिरप्रकरप्रध्वंसभानुनिकरोऽहम् ।
घटिकावासररजनीवत्सरयुगकल्पकालभेदोऽहम् ॥ १२१ ॥
चरदचरदात्मकोऽह चतुरमतिश्लाघनीयचरितोऽहम् ।
चपलजनदुर्गमोऽहं चंचलभवजलधिपारदेशोऽहम् ।। १२२ ।।
छदस्सिधुनिगूढज्ञानसुखाह्लादमोदमानोऽहम् ।
छलपदविहितमतीना छन्नोऽहं शान्तिमार्गगम्योऽहम् ॥ १२३ ॥
जलजासनादिगोचरपंचमहाभूतमूलभूतोऽहम् ।
जगदानंदकरोऽहं जन्मजरामरणरोगरहितोऽहम् ॥ १४ ॥

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