पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/१६६

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मात्सयं वहति स्मेति भाव । उक्तञ्च ‘प्रकृति खलु सा महीपसा सहते नान्यसमुन्नति यथेति ।

भाषा

 रानि शोध से अपनी भएँ उठा कर शय्द करने वाले आभूषणौ कौ भी देखती थी ओर तेज से अपनी जोत रूप मस्तक को ऊपर स्थिर रखने वाले यर के दीपो से भी ईप्य करती थी । अर्थात् मेरे सामने इन भूपगो की बोलने की हिम्मत वैसी और इन तेजस्वी दीपो को बिना सिर झुकाए मेरे सामने ठहरने की हिम्मत मंसी-ऐसी वीर रस पी, दोहदजनित भावनाएँ उस रानी के मन में होती थी ।

इति स्फुरच्चारुविचित्रदोहदा निवेदयन्ती सुतमौजसां निधिम् ।
प्रतिक्षणं सा हरिणायतेक्षणा दृशोः सुधावर्तिरभून्महीभुजः ॥७७॥

अन्वयः

 इति स्फुरच्चारुबिचित्रदोहदा ओजसां निधिं निवेदयन्ती हरिणा सुतम् यतेक्षणा सा प्रतिक्षणं महीभुजः दृशोः सुधावर्तिः अभूत् ।

व्याख्या

 इतस्य पूर्वोक्तरीत्या स्फुरत्प्रकाशितचारुशोमन विचित्रमसाधारणचम कारि दोहद गभिणीच्छा 'वदोहद गभणीच्छायामिच्छामात्रेषि दोहदम्’ यस्य सा सुत पुनमोजसा बना ‘ओजो दीप्तौ बले’ इत्यमर । निघ निघान निवेदयन्ती विज्ञापयन्ती हरिण इव भूग इवाऽऽयते विस्तीर्णं ईक्षणे नेत्रे यस्या सा मृगायतनेना राकी प्रतिक्षण क्षणे क्षणे महीभुजो नृपस्य दृशोर्नयनयो सुषाबत सुखसमर्पकापीयूयशलाकाऽभूत् । पीयूषशलाकाव भूपस्य नेत्रयोरातन्दसमर्पकाऽभूदित रानी भाव। अत्र रूपकालङ्कार।

भाषा

 उपर्युक्त प्रकार सं मनोहर और आश्चर्यजनन दोहदो से युक्त, (अतएव ) अपन पुत्र को बल का निधान सिद्ध करती हुई, मृग के समान बडे बडे नेम वाली रानी, आंखो की अमृताञ्जन की शलाका के ऐसा राजा को, प्रतिक्षण आनद देती थी । अर्थात् एसी अपनी रानी को देख कर राजा को प्रशिक्षण आनन्द होता था ।