पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/१६२

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( १४० ) भात्सर्प वहति स्मेति भाव• । उक्तञ्च ‘प्रकृति. खलु सा महीयसा सहते नान्यसमुन्नतिं ययेति । भाषा रानी क्रोध से अपनी भौंएँ उठा कर शब्द करने वाले आभूषणो मी

देखती थी और तेज से अपनी जोत रूपी मस्तक को ऊपर स्थिर रखने वाले घर से दीपो से भी ईष्र्या करती थी । अर्थात् मेरे सामने इन भूषण की बोलने की हिम्मत कैसी और इन तेजस्वी दीयो को बिना सिर झुकाए मेरे सामने ठहरने की हिम्मत कैसी-ऐसी वीर रस को, दोह्दजनित भावनाएँ उस रानी के मन में होती थी । इति स्फुरच्चारुविचित्रदोहदा निवेदयन्ती सुतमोजसां निधिम् । प्रतिक्षणं सा हरिणायतेक्षणा दृशोः सुधावर्तिरभून्महीभुजः ॥७७ अन्वयः इति स्फुरच्चारुविचित्रदोहदा सुतम् ओजसां निधिं निवेदयन्ती हरिणा- यतेक्षणा सा प्रतिक्षणं महीभुजः दृशोः सुधावर्तिः अभूत् । त्र्यङ्या इतत्य पूर्वोक्तरीत्या स्फुरत्प्रकाशितऽचारुशोभन विचित्रमसाधारणचम त्कारि दोहृद गर्भिणीच्छा दोहद गर्भिणीश्छायमिच्छामात्रेडपि दौहदम्’ यस्या सा सुत पुत्रमोजसा बलाना ‘ओजो दीप्तो बले'इत्यमरः। निधिं निधान निवेदय ती

विज्ञापयन्तो हरिण इव मृग इवऽऽपते विस्तीर्णं ईक्षणे नेत्रे यस्या सा मृगायतनेत्रा राज्ञी प्रतिक्षण क्षणे क्षणे महीभुजो नृपस्य दृशोर्नयनयो सुधावर्ति सुखसमर्पका पीयूषशलाकाऽभूत् । राज्ञी पीयूषशलाकायन्नृपस्य नेत्रयोरानन्दसमर्पकाऽभूदिति भावः । अत्र रूपकालङ्कार । उपर्युक्त प्रकार से मनोहर और आश्चर्यजनक दोहदो से युक्त (अतएव) अपने पुत्र को बल का निधान सिद्ध करती हुई मृग के सगान बडे बडे नेत्र वाली रानी, आंखो की अमृताञ्जन की शलाका के ऐसा राजा को, प्रतिक्षण आनद देती थी। अर्थात् ऐसी अपने रानी को देख कर राजा को प्रतिक्षण आनन्द होता था ।