पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/११४

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जिसकै धनियो के ऊँचे २ मकानो की कतार पर जलने वाले असख्य दीयो के कज्जल के समान आकाश दिखाई देता था । अर्थात् काला आकाश उन दीयो का धूवाँ मालुम होता था ।

निवर्तिताश्चन्दनलेपपाण्डुभिनंतभ्रुवां यत्र समुन्नतैः स्तनैः।
मुखानिला एव कदर्थनक्षमा भवन्ति माने मलयाद्रिवायवः ॥२॥

अन्वयः

 यत्र नतभ्रूवां चन्दनलेपपाण्डुभिः स्तनैः निवर्तिता सुखानिलाः एव माने कदर्थनक्षमाः मलयाद्रिवाययः भवन्ति ।

व्याख्या

 यत्र पुरे नते वने भ्रुवो दृग्भ्यामूर्ध्वभागे ‘उर्ध्वे दृग्भ्या भ्रुवौ स्त्रियौ इत्यमर । याप्ता तास्तासमङ्गनाना चन्दनस्य लेपेन पाण्डुभिं शुक्लवर्णे समुन्नतैस्तुङ्गं स्तनै पयोधरेंनिर्वतिता मुखानिसृत्य स्तनैस्सघटय पुन परावृता मुखानिला एव माने मानावस्थाया कदर्थने व्ययोत्पादने मानभङ्गकरणे च क्षमा। समर्था मलयाद्रेर्वायवो दक्षिणानिला भवन्ति । मलयाद्रिवायूवद्विरहव्यथासदीप- नक्षमा भवन्तीति भाव । अत्र रूपकालङ्कार ।

भाषा

 जिस नगर की नारिया के मुख से निकलनेवाले वायु ही चंन्दन के लेप से श्वेत वर्ण उच्च कुचा से टकरा कर फैलत हुए, मानावरया म विरह व्यथा को उत्पन्न करने में समर्थ मलयानिल ही हो जाते है । मलयानिल जिस प्रकार चन्दन वृक्षा के राम्पर्क से सुगन्धित होकर पहाड से टकरा कर फैलते हुए अपनी सुगन्ध और शैत्य से विरह व्यथा कारक होते है वैसे ही नारियो के सुप्रभिल स्तन पर के चन्दन लेप में सुवासित व शीत होकर ऊँचे कठोर स्तनों से टकरा वर मन्दगति से फैलते हुए मानावस्था में उनके पतियो को विरह व्यथा धारक होकर उनका मान भङ्ग करने मे समर्थ होते थे ।

क्षपाकरः कातररश्मिमण्डलः पुरन्ध्रिगण्डस्थलकान्तिसम्पदा ।
विकीर्णसंमार्जनभस्मरेणुना विभतिं यस्मिन्मुकुरेण तुल्यताम् ॥३॥