पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/१०२

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( ७८ )

भाषा

 जिस कामुक् के समान राजा के (व कामिनी के समान डाहलोर्वी के) अत्यधिक युद्ध से या कलह से कर्ण राजा के मरने पर या कान के कट जाने पर हाथी दात के वने हुवे कान के आभूषण के समान श्वेत कीर्ति अभी भी डाहलदेश को नही प्राप्त हो रही है । (कान कट जाने से कर्ण भूषण पहनने का सौभाग्य ही अप्राप्य हो जाता है । कर्ण राजा के ऐसे प्रतापी राजा के मर जाने से कीर्ति कहाँ से आ सकती है) ।

यस्यासिरत्युच्छलता रराज धाराजलेनेव रणेषु धाम्ना ।
दृप्तारिमातङ्गसहस्रसङ्गामभ्युक्ष्य गृहन्निव वैरिलक्ष्मीम्॥१०४॥

अन्वयः

 यस्य प्रसिः रणेषु अत्युच्छलता धाराजलेन इव धाम्ना दृप्तारिमातङ्ग सहस्रसङ्गां चैरिलक्ष्मीम् अभ्युक्ष्य गृह्मन् इव रराज ।

व्याख्या

 यस्य भूपतेरसि खडगो रणेषु युद्धेष्वप्च्छलतोध्वं गच्छता धाराजलेन खड्- धाराजलेनेव धाम्ना तेजसा, इप्ता मदान्धा अतिमातङ्गाः शत्रुहस्तिनो विपक्ष चाण्डालाश्च तेषा सहस्र तस्य सङ्ग ससर्गो यत्या सा ता वैरिलक्ष्मीं शत्रुश्रिय मभ्युक्ष्य प्रक्षाल्य 'उक्ष सेचने' इत्यस्माद्धातोरभ्युपसर्गाल्लयष्यभुक्षयेतिनिष्पन्नम् । गृद्धमिवाऽऽसदयन्निव रराज शुशुभे । यथा चाण्डालसङ्गादशुद्ध वस्तु जलेन सप्रौक्ष्य शुद्ध विधाय गृह्यते तथैवऽत्रापि मातङ्गसहस्रसगजनिताशुद्धियुक्ता वैरिलक्ष्मी धाराजलेन पवित्रकृत्य गृहीता । धाराजलेन सह धाम्नस्सादृश्यप्रती तिरित्युपमा । मातङ्गशब्देन गजाना चाण्डालनाञ्चप्रतीत्या श्लेषोऽलङ्कर । खड्गे बेरिलक्ष्मीकर्मकग्रहणक्रियाया उप्रेक्षणादुत्प्रेक्षा । अतस्तेषा सङ्कर ।

भाषा

  जिस राजा की तलवारयुद्ध म ऊपर उठने वाले अपनी धार के जल के समान तेज से मदोन्मत्त हजारो शत्रुरूपी हाथियों के अथवा हजारो शत्रु चाण्डालो के ससर्ग दोप से अपवित्र शत्रुओ वी लक्ष्मी का मानो प्रोक्षण कर प्रहण करती हुई शोभित हुई । अर्थात अपवित्र शत्रुलक्ष्मी पर अपनी तेज धार का पानी छिडक, उसे पवित्र कर उसका प्रहण किया। (अपवित्र वस्तु पर गङ्गाजल छिडव कर पवित्र करने वी परिपाटी है) ।