पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/९१

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ब्राह्यस्फुटासद्धान्त =कलाशे, अतो दृढ़कुदिनं येन गुणं विकलाशेषयुतं षष्टिभक्त शुध्यति स गुणो गृहविकलाः । फलं कलाशेषम् एवं स्वस्वशेषगुणकहराभ्यां तत्तच्छेषमाने भवत इत्युपपन्न भवतीति ॥२४॥ अब उत्तर कहते हैं । हेि. भा.-दृढ़कुदिन (हर) को जिस से गुणा कर शेष जोड़कर अपने गुणक से भाग देने से शुद्ध हा तब वह गुणक उस ग्रहका भुक्त हाता ह । अपने गुणक से भाग देने से जो फल होता है वह उपरिशेष होता है इस तरह शेष से ग्रह और अहर्गण होता है, जैसे कलाशेष का गुणक साठ है, दृढ़ककुदिन हर है वहां जिस गुणक से गुणित हर में विकला शेष को जोड़ कर साठतुल्य अपने गुणाक से भाग देने से शुद्ध होता है तब वह गुणकग्रह विकला होती है और फल कलाशेष होता है, एवं कलाशेष से कला और अशशेष सिद्ध होता है। इस तरह अन्त में भगण शेष ज्ञान होता है उससे अहर्गणज्ञान होता है इति ॥ उपपत्ति । कला शेष को साठ से गुणा कर दृढ़कुदिन से भाग देने से लब्ध ग्रह विकला और शेष ६०xकलाशे विकला शेष । उसका स्वरूप =---=ग्रह विकला-- छेदगम से ६०X कलाशे=दृढ़कुX ग्रह विकला--विकलाशे । दोनों पक्षों को साठ से भाग देने से, कलाशे= दृढ़कुxग्रह िविकला+विकलाशे अतः दृढ़कुदिन . को जिससे गुणाकर विकला शेष को जोड़कर साठ से भाग देने से शुद्ध होता है वह गुणक ग्रह विकला है और फल कला शेष है एवं अपने अपने शेष गुणक हरों से अपने अपने शेष मान होते हैं, इससे उपपन्न हुआ ॥२४॥ प्रश्नानाह । जानाति यो युगगतं कथितादधिमासशेषकादिष्टात् । अवमावशेषतो वा तद्योगाद्वा स कुट्टज्ञः ॥२५॥ सु. भा-इष्टादधिमासशषाद्वा कथितादधिमासशषाद्यो युगगतं जानाति । वा कथितादवमावशषात् क्षयशषाधो युगगतं जानाति । वा तयोरधिशषक्षयशष योर्योगाद्यो युगगतं जानाति स एव कुट्टकज्ञ इत्यहं मन्ये । श्रत्र ‘तथाऽधिमासावमाग्रकाभ्यां दिवसा रवीन्द्वो'-इत्यादिभास्करविधिना ऽद्य प्रश्नद्वयोत्तरं स्फुटम् । तृतीये चान्द्रेभ्यो येऽधिमासा यच्च तच्छेषं सौरेभ्योऽपि त एवाधिमासास्तच्च शोषम् । अतो गतेन्दुदिनप्रमाणं या १ गताधिमासप्रमाणं च का १ । तदाऽधिशषप्रमाण' च=क अधिमा x या-कचादिx का==अधिशे ।