पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/४५३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१५४२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते हि. भा-क्षीस में क्रम से ३, ६, १ युक्त करने पर ३e, ३६३१ हुआ । २४ । १५ । ५ यह हार्घ चाप का पञ्चदशभाग ज्याखण्ड है, चाप कला को ६०० सौ से भाग देने पर लब्धि के बराबर ज्यार्घ खण्ड के योग को ही ज्या का भुक्त क्य जानना चाहिये। ज्याभुक्त क्य और भोग्यफल का योग=इष्टज्या । यहां स्फुटभोग्यखण्ड से ज्या साधन सूक्ष्म होता है। अन्य प्रकार से स्थूल होता है । अब सक्ष्म भोग्यखण्ड की युक्ति को कहते हैं । व्यतीत दो भोग्यखण्ड के अन्तर को आधा करो । उसके और शेष के गुणनफल में (e००) से भाग देने पर जो फल मिले उस को गतैष्यखण्ड के योगदल में जोड़ दो, यदि युतिदलभोग्य खण्ड से अल्प हो । यदि योगदल भोग्यखण्ड से अधिक हो तो उसे योग दल में से घटा दो । क्रमज्या प्रकार में घटावें, और उत्क्रमज्या प्रकार में जोड़ दें। ‘यातेष्ययोः खण्ड कयोविंशेष’ इत्यादि भास्करोक्त इसके अनुरूप ही है। भास्कराचार्य के मत में १२० =:त्रि । आचार्य के मत में १५०= त्रिज्या । उपपत्ति । यदि e००=प्र । ज्या प्र=३ । चापम्=इ.प+शे । ज्या (इ.g)=ज्यागा। इसकी कोटि-कोज्यगा । यहां ज्योत्पत्ति से ज्याचा= ज्याग Xकोज्यारो+ज्यालोकोज्याग ....... (१) = गख = ज्या-ज्या (ग:प्र) ऐष्यखं= ज्या (ग+प्र)–ज्याग दोनों का योग दल । योदयो– ज्या (ग्र+ए)- ज्या (ग–अ) _ ज्याप्रX कोज्याग योदशे – २ ज्याग–{ज्या (त्र+g) +ज्या (ग्र-प्र) } ज्याग.कोज्याप्र ज्याग.उज्याप्र

ज्याग – UZ>

ज्याचे= . ज्याप्रशे स्वल्पान्तर से । = - त्रि-ज्या'.प्र. कोज्या शेॐ त्रि-घ्या.ो