पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२४

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( १५ ) पञ्चराशिक) । ब्रह्मगुप्त और श्रीपति के बीस कर्मो के विषय वर्णन में बहुत भेद है । उन बीस परिकमों के नामों में भी बहुधा भिन्नता है । भास्कर द्वारा प्रकीर्ण विषय (योगान्तर से लेकर भाण्ड प्रतिभाण्ड पर्यन्त) जिस स्पष्टता के साथ प्रतिपादित हैं। वैसी स्पष्टता ब्रह्मगुप्त और श्रीपति द्वारा प्रतिपादित परिकर्म विशति में नहीं पाई जाती । जहां तक विषयों का सम्बन्ध है वहां तक तीनों आचार्य-ब्रह्मगुप्त, श्रीपति तथा भास्कर समान हैं। केवल विषयों के प्रतिपादन की रीति में भिन्नता है। इसके अतिरिक्त मिश्रक व्यवहार, श्रेढी व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, खात व्यवहार , चितिव्यवहार, क्राकचिक व्यवहार राशिव्यवहार, और छाया व्यवहार ये आठ व्यवहार ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त, सिद्धान्त शेखर तथा भास्करीय लीलावती में वर्णित हैं । इन आठों व्यवहारों के प्रतिपादन में असादृश्य पाया जाता है। इन' व्यवहारों में से ब्रह्मगुप्त और श्रीपति की अपेक्षा भास्कर ने अधिक विषयों का प्रतिपादन किया है, और अपेक्षा कृत अधिक स्पष्टता के साथ । यह बात उक्त तीनों को देखने से स्फुट हो जाती है । इसके पश्चात् प्रश्नाध्याय में मध्यमगत्युत्तराध्याय, स्पष्टगत्युत्तराध्याय, त्रिप्रश्नो त्तराध्याय, ग्रहणोत्तराध्याय, शृगोन्नत्युत्तराध्याय-इन पांचवीं उत्तराध्यायों में सोत्तर प्रश्न समूह का समावेश है । प्रश्न सभी विलक्षण हैं। इनके अभ्यास से पाठक लोग ज्यौतिष के सिद्धान्त ग्रन्थों में प्रतिशय निपुण हो सकते हैं । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के प्रत्येक अध्याय में प्रदर्शित इस प्रकार के सोत्तर प्रश्नक्रम का लेखै कुछ-कुछ सिद्धान्त शेखर और बटेश्वर सिद्धान्त में भी दृष्टिगोचर होता है । सिद्धान्त शिरोमणि आदि ग्रन्थों में यह क्रम नहीं है । ब्रह्मगुप्तोक्त कुट्टाकाराध्याय में बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तरों से चित्त प्रसन्न हो जाता हैं। श्रीपति और भास्कर की अपेक्षा ब्रह्मगुप्त ने कुट्टाध्याय में अधिक विषयों का समावेश किया है । किन्तु विषय के प्रतिपादन की स्फुटता भास्करोक्ति में ही है। धन ऋण आदि के सङ्कलित व्यवकलितादि विषय भास्करोक्ति के सदृश ही ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त और सिद्धान्त शेखर में भी विद्यमान हैं। उसके पश्चात् एक समीकरण बीज है। यह भास्करोक्त एक वर्ण समीकरण बीज की अपेक्षा छोटा है । तत्पश्चात् ब्रह्मगुप्तोक्त अनेक वर्ण समीकरण बीज है । यह बहुत ही विलक्षण है। इसमें विषय भी बहुत अधिक है। भास्करोक्त अनेकवर्ण समीकरण बीज में भी बहुत विषय हैं । परन्तु सिद्धान्तशेखर में बहुत कम विषयों का उल्लेख है। ब्रह्मगुप्त की अपेक्षा भास्कर ने भावितबीज का अपने ग्रन्थ में अधिक समावेश किया है परन्तु श्रीपति ने कुछ कम । तो भी इन सवके विषयों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, केवल भास्करोक्ति में अधिक वैशद्य है। इसके पश्चात् वर्ग प्रकृनि का वर्णन है, यहाँ ब्रह्मगुप्त ते कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेप की योग भावना और अन्तरभवना का प्रतिपादन किया है । सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने तथा भास्कराचार्य ने अपने बीजगणित में यहीं से लैकर केवल श्लोकान्तरों में रख दिया