पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/९१

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७४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते यहां इनगति=सूयंगति, सूर्य गतिकलासम्बन्ध से वास्तव उदयान्तर साधन किय गया है, अपनी-अपनी गति के सम्बन्ध से अन्य ग्रहों का साधन उसी तरह से होता है। (क) इससे ‘एकासुजेनगतिसशुणितैकलितोत्पन्नासु रायुदययुक्तविहीनितेन' इत्यादि संस्कृतोपपत्तिस्थ म० म७ पण्डित सुधाकर द्विवेदी जी का सूत्र उपपन्न होता है। अब उदयान्तर का परमत्व कहां होता है, विचार करते हैं शुजांश और विषुवांश का अन्तर उदयान्तर है; इसलिए उदयान्तरज्या=(भृ-वि) ज्याg x कोज्यावि–ज्यावि कोज्याश्रु चापयोरिष्टयोः इत्यादि से =उदयान्तरज्या, कोज्याश्रुx त्रि= कोज्या वि . यतः --- - । पञ्च x ज्यासु. तथा = = ज्यावि, उदयान्तरज्य स्वरूप में उत्थापन से ज्याघ्र ४कोज्याभुxत्रि-पथं ४ज्याश्रु कोज्याश्रु_ज्यामुx कोज्याश्रु (त्रि–पञ्च ) त्रि. धु त्रि. द्य ज्याश्रु-कोज्यामुxज्याजिड. = उदयान्तरज्या, ज्याजिउ-जिनांशोरमज्या । त्रि. द्य यहाँ हर भर भाष्य को ‘त्रि ४ पट्ट’ इससे गुण देने से ( त्रि+पद्म ! ( ज्प्रभु कोज्याभुxज्याजिड ) त्रि. यु. ( त्रि +पद्यु ) -( त्रि. ज्यामु. कोज्याश्रु+-ज्याश्रु. कोज्याश्रु पञ्च ) ज्याजिड त्रि. खु ( त्रिपद्य ) _( ज्याभु. कोज्यावि+ज्यावि. कोज्याभु ) ज्याजिड त्रि. ( त्रि+पद्य ) _ज्या ( भ्र+वि ) याजिउ त्रि+पद्यु '= उदयान्तरज्या...(१) (१) इससे "विषुवांशभुजांशयोगजीवा’ इत्यादि संस्कृतोपपतिस्थ म० न० पण्डित सुधाकर द्विवेदी जी का सूत्र उपपन्त होता है । (१) इसमें ज्याजिङ, त्रि+पथु इन दोनों गुणक और हर के स्थिरत्व के कारण जहाँ ज्या ( ४ +वि ) इसका परमत्व होगा वहीं पर उदयान्तरज्या का परमत्व होगा अर्थात् उदयान्तर का परमत्व होगा । परन्तु ज्या त्रिज्या से अधिक नहीं होती है इसलिए