पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३३६

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१६ गुणिता' इस से दोनों शङ्कुसों से छाया के दो प्रकार ‘गुणितं वा द्वादशभिः' इन दोनों शकुओं में छपाकर्णनयन के दो प्रकार'दह्नता छ.दलान्या दिनार्धकर्णेन' इश्यादि से छेद में छाया कर्णानयन का एक प्रकार, इस तरह वेद से छायाकर्णनयन में चार प्रकार'कीर्तेः संशोष्य द्वादशवर्ग’ इससे छपाकर्ण से छायानयन में चार प्रकारछेदजनितशङ्कु मे दो प्रकार सिद्ध ही हैं। इसलिये छेद से छायानयन में छः प्रकार हुये, 'या स्वहोरात्रघंघाकडून ' इत्यादि से कर्णवश एक प्रकार, ‘सम्बगुणो वा घrतः शङ्कुः’ इत्यादि से शङ्कु से दृग्ग्पा द्वादमा गुणिता' इससे ‘गुणितं वा द्वादशभिः' इत्यादि से भी दो प्रकार‘घातोषऽकं गुण इत्यादि से शङ्कु वश पुनः पूर्ववत् दो प्रकारभक्ता ज्यय£पवान्रया दिनार्धफणहता कर्ण' इत्यादि से कर्ण -वश एक प्रकार, इष्टान्या से छयानयन में दो प्रकारपहले दुष्टहृति के चार भेद और इष्टान्या के दो भेद ये दोनों मिलकर छः भेद होते हैं जिन से गानयन में टीश ३६ आनयन होते हैं इति ॥३७॥ उपपति क्षितिजाहोरात्रवृत्त के सम्पातोपरिगत ध्रुवप्रतन्त नाडीवृत में छतर मन में पूर्वस्वस्तिक से नोखा और दक्षिणगोल में सूर्घस्वस्तिक से ऊपर सगता है उन दोनों बिन्दुओं से पूर्वापर सूत्र की समानान्तर रेखाढ्य करना उनके ऊपर इष्ट स्थानस्थित ग्रह के ऊपर धुब श्रोतवृत्त और नाडीवृत्त के सम्पात बिन्दु से सम्ब रेसाद्य दोनों गोलों में इष्टान्या होती है, मध्याह्नकाल में ग्रह याम्योत्तरवृत्त में रहते हैं इसलिये अपरिगतधृक्श्रोतवृत्त (याम्यो त रवृत्त) और नाडीवृत्त के सम्पात बिन्दु (निरक्ष झस्वस्तिक) से समानान्तर रेलय के ऊपर लम्भरेखा गोलय में अन्या होती है, इष्टस्थानस्थग्रहोपरिगतश्रुबपौतवृत्त और नाडीवृत्त के सम्पात बिन्दु से निरक्षोणीधर रेखा के ऊपर सम्म रेका नतालया है. उसके मल से निरक्ष सस्वस्तिक पर्यंन्त नतन्नास की उत्तमया है, निरक्ष शस्त्रस्तिक से समानान्तर रेखापर्यन्त निरक्षधर रेस का अधद् अन्न्पा है, नतपासण्या मूग से समानान्तर रेखापर्यन्त भिरक्षोघ्षर रेखा सड इष्टान्या के बराबर है, अन्या मे यदि नतकास की ठऊमज्या को घटाते हैं तो नरकासज्वा मम से समानान्तर रेखा पर्दछ निरक्षर रेलखण्ड (ष्टाना) होता है ने चब बातें गोल के घर स्पष्ट झेलने में आती है, सिद्धान्तशिरोमलि में भास्कराणारी ‘शतमाम शर इत्यनेन इत्यादि के आयक्त के अनुरूप ही कहते हैं इति ॥३७॥ इदानीमुलतफ़ासं नतभासं प्राह चम्याकरविभक्त विषुवत्कर्येन सङ्गुक्षा त्रिवया। सब सौम्वेतरयोः क्षितिभया हीनसपुतम् ।।३८ बुदितं क्वासाबून स्वहोराश्वायंभतसषधनुः। शतरबोने के बाम्बे हैं। गाः ॥३॥