पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२७२

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स्पष्टाधिकार २५५ अब चर करणों को कहते हैं । हि. भा. -- रवि और चन्द्र की अन्तर कला को तीन सौ साठ ३६० से भाग देने से जो लब्ध हो उसमें से एक घटा कर सात से भाग देने से शेप ववादि करण होते हैं, अन्य कर्म (गत घटी, गस्य घटी साधन) तिथिसाधनवत् करना चाहिये इति ।। ६६ ।। उपपत्ति ।

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= तिथि साधन के लिये यदि तीन सौ साठ ३६० रवि और चन्द्र के गत्यन्तरांश में तीस तिथि पाते हैं तो इष्ट रवि चन्द्रान्तरांश में क्या इससे गततिथि आती है, ३० रविचन्द्रान्तरांश रविचन्द्रान्तरांश ॐ गततिथि, तिथि को द्विगुणित करने से करण ३६ १२ २४ रविचन्द्रान्तरांश- रविचन्द्रान्तरांश_रविचन्द्रन्तरांश ४६० होते हैं इस नियम से १२ = ६ X ६० रवि चन्द्रान्तरकला =करण, चार स्थिर करण है जिनकी स्थिति पूर्वश्लोक में कही गयी ३६ है, शुक्ल पक्ष की प्रति पदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण के रहने के कारण तथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के परार्ध से ववादि करणों की प्रवृत्ति के कारण पूर्व रविचन्द्रान्तर कला लब्धि ३६० में से एक घटाना चाहिये, तब सात से भाग देकर जो शेष रहता है वह ववादि करण होता है। यहां भी गतकला और गम्यकला को साठ से गुणा कर गत्यन्तर से भाग देनेसें वर्तमान करण की गतघटी शौर गम्य घटी होती है, सिद्धान्तशेखर में “भातु हीनशशिभागसमूहात्" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से ‘श्रीपति, तथा ‘रविरसैर्विरवीन्दुलवा हता’ इत्यादि से भास्कराचार्य ने रविचन्द्रान्तरांश से करणानयन किया है। आचार्य ने रविचन्द्रान्तर कला बश से उन का साधन किया है, कोई विशेषता नहीं है इति ।। ६६ ॥ ° इदानीमवशिष्टं स्फुटगत्युत्तराध्याये वक्ष्यामीत्येतदर्थमाह । इह नोक्तानि बहुत्वात् स्पष्टगतेरुत्तरेऽभिधास्यामि । संक्रान्तिभतिथिकरण व्यतिपtताद्यन्तगणितानि ॥ ६७ ॥ सु. भा--स्पष्टार्थाम् ॥ ६७ ॥ वि. भा–संक्रान्ति भतिथिकरणव्यतिपाताद्यन्त गणितानि (संक्रान्तिकाल नक्षत्रातिथिकरण व्यतिपातादीनामन्तकालं निर्णेतुं गणितानि) स्पष्टगतेरध्यायस्य