पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/१७४

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आटीकास०-अ० २९. (१६७) सौराष्ट्र व शाल्वदेशमें लत्ता दोषवर्जित है और कलिंग तथा बंगालादेशमें पातदोष वर्जित है और उपग्रह दोष ।। ७९ ॥ बाह्विके कुरुदेशे च यस्मिन्देशे न दूषणम् ॥ तिथयो मासदग्धाख्या दग्धलग्नानि तान्यपि ॥ ८० ॥ बाह्विक तथा कुरुदेशमें वर्जितहै तहांही दोषहै और मास दग्धा तिथि, तथा दग्धलग्न ॥ ८० ॥ मध्यदेशे विवर्ज्याणि न दूष्याणीतरेषु च । पंग्वंधकाणलग्नानेि मासशून्याश्च राशयः ॥ ८१ ॥ इनको मध्यदेशमें वर्ज्य देवे अन्य जगह दोष नहीं है और पंगु, अंधा, काणा, लग्न मासशून्य, राशि ॥ ८१ ॥ गौडमालवयोस्त्याज्याश्वन्यदेशे न गर्हिताः ॥ दोषदुष्टः सदा काले वर्जनीयः प्रयत्नतः ॥ ८२॥ ये गौड तथा मालवा देशमें त्याज्य हैं अन्यजगह दोष नहीं है। दोषसे दूषित हुआ समय सदा यत्नसे वर्जदेना चाहिये ॥ ८२ ॥ अपि भूरिगुणोऽन्यार्थे दोषाल्पत्वं गुणोदयः॥ परित्यज्य महादोषाञ्छेषयोर्गुणदोषयोः ॥ ८३ ॥ और कहीं बहुत गुण होवे तथा दोष थोडा होवे तहाँ गुण दोषोंके महान् दोषको त्याग कर ।। ८३ ।। गुणाधिकः स्वल्पदोषः सकलो मंगलप्रदः । दोषो न प्रभवत्येको गुणानां परिसंचये ॥ ८४ ॥ गुण अधिक रहैं और दोष थोडे रहजायें तो वह मुहूर्त संपूर्ण मंगलदायक है बहुतगणोंके बीच एक दोष अपना बल नहीं कर सकता ॥ ८४ ॥ • • • > F; । ९३९ ॐ है।