पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

धन्यवादपत्रम् -10 श्रीमान् डाक्टर चन्द्रशेखरपाण्डे, देवास, ( इन्दौर) निवासी को एवं श्रीमान् शंकरलाल तिवारीजी ( वृन्दावननिवासी ) को हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि दोनों ने इस गीता के प्रकाशन में सर्व- प्रकार से सहायता देकर परम उत्साहित किया है, हम प्रभु से दोनों की शुभकामना चाहते भूमिका- जगप्रसिद्ध इस गोतागास्त्र में निष्काम कर्मयाग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग एवं भक्तियोग आदि समस्त विषयों का उपदेश है, बक्ता भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण, श्रोता रगत्रिमुख सवा अर्जुन जब युद्धभूमि में अर्जुन को युद्ध करने की इच्छा न हुई तब भगवान ने युद्ध में प्रवृत्त कराने के छल से इस गीता का उपदेश दिया। "समस्ता उपनिषद् गौनों के दुग्ध रूप इस गीतामृत के दोग्घा श्रीकृष्ण सुधि- गण भोक्ता तथा धनुर्धारी अर्जुन वखडा है"एसा बतलाया गया है। वे वेद समूह त्रिकाण्डात्मक हैं कम्र्म्म, ज्ञान एवं भक्ति। उपनिषदों में भक्तितत्त्व निगूढ़ भाव से निहित है। उन उपनिषदों का साररूप गीताशास्त्र है तथा उपनिषदों का निगूढ़ भक्तिधन गोताशास्त्र में निहित है। तात्पर्य - उपनिषदों के सार रूप इस गोताशास्त्र में भक्तिधन निगूढतया सन्निवेश है। अर्थात् महामूल्य भक्तिरूप परम निधि के रत्नमण्डित सम्पुट रूप यह गीता शास्त्र है। इस के प्रथम छ भध्याय में निष्काम कम्म- योग एवं तीसरे छं प्रध्याय में ज्ञानयोग है, परन्तु महानिधि के कारण तथा प्रत्यन्त रहस्य के कारण एवं परमदुलभं ता के कारण भक्तियोग वांच में रखा गया है जो कि कम्मं एवं ज्ञान दोनों का मजावक रूप से अभिहित होता है। श्रीलविश्वनाथचक्रवर्ती जी महोदय गौड़ीय-सम्प्रदाय के महान भाचाय्यं, विद्वशिरोमणि, महान् रसिक माने गये हैं। एसा कि गौड़ीयवैष्णव समाज ने उन को श्रीरूपगोस्वामी के पुनः प्राकट्य होना घोषित किया है। उनकी रमिकता श्रीमद् भागवत की "सारार्थदर्शिनी" टोका से व्यक्त होती है। उन्होंने इस गाता- शास्त्र की टीका में रस संयुक्त साम्रा का प्रचुरवण करा कर गोतानुभवो जनता का महान उपकार किया है, यदि कोई