पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

धन्यवादपत्रम् ओमान डाक्टर चन्द्रशेखरपाण्डे, देवास, ( इन्दौर ) निवासी को एवं श्रीमान् शंकरलाल तिवारी ( वृन्दावननिवासी ) को हम हद्दिकधन्यवाद देते हैं कि दोनों ने इस गीत के प्रकाशन में सर्व प्रकार से सहायता देकर परम उत्साहित किया है, हम प्रभु से दोनों की शुभकामन चाहते हैं । भूमिका जगप्रसङ्ग इस गोशस्त्र में निष्काम कर्मयाग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग एवं भक्तियोग आदि समस्त विषयों का उपदेश है, वक्ता भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण, श्रोता रणविमुख सखर असून । जब युद्धभूमि में अर्जुन की युद्ध करने की इच्छा न हुई तब भगवान ने युद्ध में प्रवृत्त कराने के छल से इस गीता का उपदेश दिया। "समस्त उपनिषद् गौओं के दुग्ध रूप इस गोतामृत के दोग्धा श्रोकृष्ण, सुधि गण भोक्ता तथा धनुर्धारी अर्जुन वछड है"एसा वतलाया गया । है। वे देद समूह त्रिकाण्डात्मक हैं कर्मशन एवं भक्ति। उपनिषदो में भक्तितत्व निगूढ़ भाव से निहित है। उन उपनिषदों का साररूप गीताशास्त्र है तथा उपनिषदों का निगूढ़ भक्तिघन गोताशास्त्र में निहित है। तात्पर्य-उपनिषदों के सर रूप इस गोतशास्त्र में भक्तिघन निगूढतया सन्निवेश है । अर्थात् महा मूल्य भक्तिरूप परम निधि के रस्नमण्डित सम्पुट हप यह गीत शास्त्र है। इस के प्रथम ४ अध्याय में निष्काम कर्म योग एव तीसरे छे अध्याय में शनयोग है, परन्तु महानिधि के कारण तथा प्रस्यन्त रहस्य के कारण एवं परमदुकाभं ता के कारण भक्तियोग बीच में रखा गया है जो कि कम्म एवं शन दोनों का स'जीवक रूप से अभिहित होता है। श्रीलविश्वनाथचक्रवर्ती जी महोदय गौडीय–सम्प्रदाय के महान् आचायंविद्वशिरोमणि, महान् रसिक माने गये हैं। एसा कि गौडीयवैष्णव समज ने उन को श्रो रूपगोस्वामी के पुनः प्राकट्य होन घोषित किया है। उनको रसिकता श्रीमद् भागवत की "सारार्थदशिनी" टोका से व्यक्त होता है। उन्होंने इस ग। शास्त्र की टीका में रस संयुक्त सिद्धरामू का प्रचुरवण करा कर गोतानुभव जनता का महान् उपकार किया है, यदि कोई