गीताशास्त्रार्थविवेकः

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गीताशास्त्रार्थविवेकः
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॥ श्रीश्रीगौरहरिर्जयति ॥ प्रकाशितग्रन्थसंख्या- १३६

  • श्रीमद्भगवद्गीता **

श्रीपाद विश्वनाथ चक्रवर्तिमहोदयविरचित- “सारार्थवपिरणी” टोकया एवं श्रीयुत- बलदेवविद्याभूषरण महोदय विरचित "गीताभूषरण" भाष्ये रण समलंकृता सम्वत् - २०२३ - न्यौछावर- ४ रु५० ८पैसे प्रकाशक- कृष्णदासबाबा कुमुमसरोवर राधा कुण्ड धन्यवादपत्रम् ओमान डाक्टर चन्द्रशेखरपाण्डे, देवास, ( इन्दौर ) निवासी को एवं श्रीमान् शंकरलाल तिवारी ( वृन्दावननिवासी ) को हम हद्दिकधन्यवाद देते हैं कि दोनों ने इस गीत के प्रकाशन में सर्व प्रकार से सहायता देकर परम उत्साहित किया है, हम प्रभु से दोनों की शुभकामन चाहते हैं । भूमिका जगप्रसङ्ग इस गोशस्त्र में निष्काम कर्मयाग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग एवं भक्तियोग आदि समस्त विषयों का उपदेश है, वक्ता भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण, श्रोता रणविमुख सखर असून । जब युद्धभूमि में अर्जुन की युद्ध करने की इच्छा न हुई तब भगवान ने युद्ध में प्रवृत्त कराने के छल से इस गीता का उपदेश दिया। "समस्त उपनिषद् गौओं के दुग्ध रूप इस गोतामृत के दोग्धा श्रोकृष्ण, सुधि गण भोक्ता तथा धनुर्धारी अर्जुन वछड है"एसा वतलाया गया । है। वे देद समूह त्रिकाण्डात्मक हैं कर्मशन एवं भक्ति। उपनिषदो में भक्तितत्व निगूढ़ भाव से निहित है। उन उपनिषदों का साररूप गीताशास्त्र है तथा उपनिषदों का निगूढ़ भक्तिघन गोताशास्त्र में निहित है। तात्पर्य-उपनिषदों के सर रूप इस गोतशास्त्र में भक्तिघन निगूढतया सन्निवेश है । अर्थात् महा मूल्य भक्तिरूप परम निधि के रस्नमण्डित सम्पुट हप यह गीत शास्त्र है। इस के प्रथम ४ अध्याय में निष्काम कर्म योग एव तीसरे छे अध्याय में शनयोग है, परन्तु महानिधि के कारण तथा प्रस्यन्त रहस्य के कारण एवं परमदुकाभं ता के कारण भक्तियोग बीच में रखा गया है जो कि कम्म एवं शन दोनों का स'जीवक रूप से अभिहित होता है। श्रीलविश्वनाथचक्रवर्ती जी महोदय गौडीय–सम्प्रदाय के महान् आचायंविद्वशिरोमणि, महान् रसिक माने गये हैं। एसा कि गौडीयवैष्णव समज ने उन को श्रो रूपगोस्वामी के पुनः प्राकट्य होन घोषित किया है। उनको रसिकता श्रीमद् भागवत की "सारार्थदशिनी" टोका से व्यक्त होता है। उन्होंने इस ग। शास्त्र की टीका में रस संयुक्त सिद्धरामू का प्रचुरवण करा कर गोतानुभव जनता का महान् उपकार किया है, यदि कोई [ २ ] तालमात्रवदाम्। भावपूर्ण, रससंपृक्त गोताशास्त्र का भावास्वादन करना चाहें तो अथ श्रीमद्भगवद्गीता चक्रवर्तीजी की इस टीक का अवश्य अवलोकन करें। डन को रसि प्रथम।ऽध्यायः कता यह स्पष्ट ही व्यक्त होता है कि-उन्होने टीका का सम्पूर्ण निम्मणि कर कही रखा था, परन्तु उस में से चूहों ने दोष के थे। धृतराष्ट्र उवाच पन्न खा गये। वे पुनः लिख भी सकते थे परन्तु लिखा नह-आ। धमत्र कुरुक्षेत्रे समवता युयुत्सवः । दोष ७४ से ७८ श्लोकों की टीक के बारे में कहते हैं—अतः परं पक्ष मामकः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१॥ श्लोकव्याख्या सवंगीतातात्पर्यनिर्व यंऽन्तिमलोका यत्र वर्तते त पत्रद्वयी विनायकः स्ववाहनेनाखुनापहृतवनित्यतः पुनर्नालिखस स प्रसीदतु तस्मै नमः । इति श्रोमद्भगवद् श्रीलविश्वनाथचक्रवतिठाकुर कृता गीताटीका सारार्थबषिण' समाप्तीभूता सती प्रतये स्तादिति प्रथत् इसके आगे समस्त तात्पर्य षीरूप अन्तिम ‘सारार्थवर्षिण टीका . गीतार्थ-निष्व पांच शोक की व्याख्याजहाँ बखा हुई थी, उन दो पन्नों को बिना गौरांशुकः सकुमुदप्रमोदी स्वाभिख्यया गोस्तमसो निहन्ता। यक है व गणेश जी ने अपने वाहन अबु अर्थात चूहों में हरण श्रीकृष्णचैतन्यसुधानिमेिं मनोऽधितिन चरतिं करोतु ॥१॥ कर लिया भावार्थ-चूहे इसमें , दो पन्न खगये । गणेश जी का प्राचीनवाचः सुविचार्य सोऽहमज्ञोऽपि मतिमृतलेशलिप्सुः। क्या आशय या नहीं कह सकता, इसलिये मैंने पुनः उन पांव श्ल यतेः प्रभारव मते तदत्र सन्तः क्षमध्वी शरणागतस्य ।। को टीका नहीं लिखी। वे गणेशजी प्रसन्न हों उनको नमस्कार ! इह खलु सकतशास्त्राभिमत-सञ्चरणसरोजभजनः स्वयं ऐसा टीका समाप्त किया कहकर उन्होंने अपना सारार्थवयिणी को । भगवान्नराकृति-परब्रह्मश्रीवसुदेवसूनुः साक्षीगोपालपुष्य कलिकत्ता गौडीय मिशन" ने बडा भारी उपकार किया कि उस अवतीर्यपरपरमातक्यै- सलोचन-गोचरीकृत -प्रापछि मिशन ने चक्रवतिजो को "सारार्थयषिणमें "टोका का बगाक्षर भवाब्धिनिमजमनान् जगजनानुद्धस्य स्वसान्दुय्य र्यमाधुर्यस्या- प्रकाशन कर निहन्समाज के प्रत्यक्षीभूत किया । श्रीहृषीकेशो , दनया स्वीयप्रेममहाम्बुधौ निमज्जयामास वि, ए, ने चक्रवर्तीटीका का अनुसरण से एक मम्मनुवद प्रस्त शिष्टरक्षा दुष्टनिग्रह-व्रतनिष्टासहिष्ठप्रतिऽपि भुवो भारदुःखाप कर छपवाया। श्रीमद्भक्तिसिद्धान्तसरस्वती जी महोदय का सम्पाद हारमिषेण दुष्टानामपि स्वदृ षु णमपि महासंसार--प्रसी कत्व में थकुञ्जविहारिविद्याभूषण के प्रकाशकत्व में श्रीपाद वल भूतानामपि मुक्तिदानत क्षणं पेरेस रक्षणमेव कृत्वा स्वान्तद्ध देवविभूषण महोदय का “गीताभूषणभाष्य" बंगाक्षर में सानु नरकात-जनिष्यमाणमनाद्यविद्याबन्धनिबन्धनशोकमहाशा वाद प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तु मुद्रणदि में प्रेस सम्बन्ध त्रुटियाँ कुलानपि जीवानुद्वी शासकृन्मुनिगणुगीयमानयशश्च धी, रह गई होंगे तो उस लिये क्षमा चाहते हैं। ( कृशा दाम ) स्वप्रियसखं तादृश-स्वे बशाद्य : क धन्यवादपत्रम् -10 श्रीमान् डाक्टर चन्द्रशेखरपाण्डे, देवास, ( इन्दौर) निवासी को एवं श्रीमान् शंकरलाल तिवारीजी ( वृन्दावननिवासी ) को हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि दोनों ने इस गीता के प्रकाशन में सर्व- प्रकार से सहायता देकर परम उत्साहित किया है, हम प्रभु से दोनों की शुभकामना चाहते भूमिका- जगप्रसिद्ध इस गोतागास्त्र में निष्काम कर्मयाग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग एवं भक्तियोग आदि समस्त विषयों का उपदेश है, बक्ता भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण, श्रोता रगत्रिमुख सवा अर्जुन जब युद्धभूमि में अर्जुन को युद्ध करने की इच्छा न हुई तब भगवान ने युद्ध में प्रवृत्त कराने के छल से इस गीता का उपदेश दिया। "समस्ता उपनिषद् गौनों के दुग्ध रूप इस गीतामृत के दोग्घा श्रीकृष्ण सुधि- गण भोक्ता तथा धनुर्धारी अर्जुन वखडा है"एसा बतलाया गया है। वे वेद समूह त्रिकाण्डात्मक हैं कम्र्म्म, ज्ञान एवं भक्ति। उपनिषदों में भक्तितत्त्व निगूढ़ भाव से निहित है। उन उपनिषदों का साररूप गीताशास्त्र है तथा उपनिषदों का निगूढ़ भक्तिधन गोताशास्त्र में निहित है। तात्पर्य - उपनिषदों के सार रूप इस गोताशास्त्र में भक्तिधन निगूढतया सन्निवेश है। अर्थात् महामूल्य भक्तिरूप परम निधि के रत्नमण्डित सम्पुट रूप यह गीता शास्त्र है। इस के प्रथम छ भध्याय में निष्काम कम्म- योग एवं तीसरे छं प्रध्याय में ज्ञानयोग है, परन्तु महानिधि के कारण तथा प्रत्यन्त रहस्य के कारण एवं परमदुलभं ता के कारण भक्तियोग वांच में रखा गया है जो कि कम्मं एवं ज्ञान दोनों का मजावक रूप से अभिहित होता है। श्रीलविश्वनाथचक्रवर्ती जी महोदय गौड़ीय-सम्प्रदाय के महान भाचाय्यं, विद्वशिरोमणि, महान् रसिक माने गये हैं। एसा कि गौड़ीयवैष्णव समाज ने उन को श्रीरूपगोस्वामी के पुनः प्राकट्य होना घोषित किया है। उनकी रमिकता श्रीमद् भागवत की "सारार्थदर्शिनी" टोका से व्यक्त होती है। उन्होंने इस गाता- शास्त्र की टीका में रस संयुक्त साम्रा का प्रचुरवण करा कर गोतानुभवो जनता का महान उपकार किया है, यदि कोई [ २ ] भावपूर्ण, रससंवृक्त गोताशास्त्र का भाषास्वादन करना चाहें तो चक्रवर्तीजी की इस टीका का अवश्य अवलोकन करें। उनको रसि- कता यहाँ स्पष्ट ही व्यक्त होती है कि उन्होंने टीका का सम्पूर्ण निर्माण कर कहीं रखा था, परन्तु उस में से चूहों ने शेष के दो पत्र खा गये। वे पुनः लिख भी सकते थे परन्तु लिखा नहीं आप दोष ७४ से ७८ श्लोकों की टोका के वारे में कहते हैं-"प्रतः परं पञ्च- ब्लांकव्याख्या सर्वगीतात्तात्पय्यनिष्क पॅऽन्ति मश्लोका यत्र वत्तंन्ते. तां पत्रद्वयी विनायकः स्ववाहने नाखुनापहृतवा नित्यतः पुनर्नालिखम् । तां तन्मात्रवादाम् स प्रसीदतु तस्मै नमः । इति श्रीमद्भगवद्- गीताटीका "मारार्थवर्षिणी" समाप्तीभूता सतां प्रोतये स्तादिनि "" मर्थात्-."इसके आगे समस्त गीतार्थ-तात्पर्य निष्कर्षरूप अन्तिम पांच ग्रोक को व्याख्या जहाँ रक्खो हुई थी, उन दो पन्नों को विना- यक हर्यात गरणेश जी ने अपने वाहन ग्रखु अर्थात चूहों में हरण करा लिया, भावार्थ-चूहे दो पन्नो खागये। इसमें गरगेज जी का क्या भाशय था नहीं कह सकता, इसलिये मैंने पुनः उन पांच श्लो को टीका नहीं लिखी। वे गरणेशजी प्रसन्न हों उनको नमस्कार " ऐसा कहकर उन्होंने अपनो सारार्थपिगो टोका को समाप्त किया। कलिकत्ता "गौड़ीय मिशन" ने बडा भारी उपकार किया कि उम मिशन ने चक्रवत्तिजो को "सारार्थवषिरणी" टीका का बगाक्षर में प्रकाशन कर विद्वन्समाज के प्रत्यक्षीभूत किया। श्रीहृषीकेशशोन, वि, ए, ने चक्रवर्तीटीका का अनुसरण से एक ममनुवाद प्रस्तुत कर छपवाया। श्रीमद्भक्तिसिद्धान्तसरस्वतो जी महोदय का सम्पाद कत्व में श्रीकुञ्जविहारिविद्याभूषण के प्रकाशकत्व में श्रीपाद वल- देवविद्याभूषरण महोदय का "गीताभूषणभाष्य" बंगाक्षर में सानु- वाद प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तु मुद्रणादि में प्रेस सम्बन्ध रह गई होंगो तो उस लिये क्षमा चाहते हैं। ( कृष्णदाम ) अथ श्रीमद्भगवद्गीता प्रथमोऽध्यायः धृतराष्ट्र उवाच- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ||१|| श्रीलविश्वनाथचक्रवत्तिठाकुर कृता 'सारार्थवर्षिणी' टीका गौरांशुकः सत्कुमुदप्रमोदी स्वाभिरुपया गोस्तमलो निहन्ता । श्रीकृष्ण चैतन्यमुर्धानविर्मे मनोऽधितिष्ठन स्वरतिं करोतु ॥१॥ प्राचीनबाचः सुबिचार्ग्य सोऽहमज्ञोऽपि गीतः मृतलेशलिप्सुः । यतः प्रभोरेब मते तदत्र सन्तः क्षमध्वं शरणागतस्य ॥॥ इह खलु सकलशास्त्राभिमत-श्रीमञ्चरण सरोजभजनः स्वयं भगबान्नराकृति–परब्रह्मश्री बसुदेवसूनुः साक्षाच्छ्रीगोपालपुर्य्या- मवतीर्थ्यापार-परमातर्य-प्रापचिक मललोचन-गोचरीकृतो भवाब्धिनिमजमानान जगजनानुद्धृत्य स्वसौन्दर्य्य माधुर्य्यास्वा- चनया स्वीय प्रेममहाम्बुधौ निमज्जयामास शिष्टरक्षा दुष्टनिमः-त्रतनिष्ठामहिष्ठप्रतिष्ठोऽपि भुवो भारदुःखाप- हारमिपेगा दुष्टानामपि स्वद्वेष्टणामपि महासंसार-माह-मासी- भूतानामपि मुक्तिदानलक्षणं परम-रक्षणमेव कृत्वा स्वान्तर्द्धा- नात्तरकाल- जनिष्यमाणानना द्यविद्याबन्धनिबन्धनशोकमोहाद्या -- कुलानपि जीवानुद्धर्च, शास्त्रकृमुनिगणगीयमानयशश्च धर्त्त, स्वप्रियसखं तादृश-स्वेच्छाबशादेव रणमूर्द्ध न्युद्ध तशोकमोहं, श्रीनमः गोविन्दाय श्रीमद्भगवद्गीता [१ अध्याय [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्भीता यजुनेन दुर्जय एवेत्यतो युद्धमेव मथस्तदेव भूयादिति ते मदज लक्ष्यीकृत्य काण्डत्रिनयामक मर्यवेदतात्पर्यपर्यय मन्मनोरथोपयोगी दलोदयः । अत्र धर्म क्षेत्रे इति क्षेत्रपदेन-धर्मस्य सितार्थरत्नालङतं गीताशास्त्रमष्टादशाध्यायमन्तभू ताष्टादश धर्मावतारस्य सपरिकरयुधिर्हिरस्य धान्यस्थानीयवम , तत्पाल- बिग साक्षादिर्यमनीकृतमिव परमपुरुषार्थमाविर्भावयास्थभूव । कन्य श्रीकृष्णस्य कृषिषलस्थानीथवम कृष्णकृननानाविधमा- तत्राध्यायानां पटकेन प्रथमेन निष्कामकर्मयोगःद्वितीयेन हाय्यस्य जलसेचनसेतुबन्धनादिस्थनीयस्यम , श्रीकृष्णसंहार्य- भक्तियोगःतृतीयेन ज्ञानयोगो दर्शितः । तत्रापि भक्तियोगस्या दुर्योधनादृषिस्थायरतृणविशेषस्थानीयं च बोधितं तिरहस्यादुभय-मजबकस्बनभ्याहतत्वान सळवंटल भत्वाय सरस्वत्या ।।१ मध्यपीतः । कर्म-ज्ञानयोभक्तराहित्येन वैयरे वे भक्तिमत्र एव सम्मतकृते । भक्तिस्तु द्वचधा- केवला, प्रधा श्रीमद्-वदेवविद्याभूषणकृतं नभूता च तत्राद्या स्वत एव परमप्रबला, ते दु ( कर्म गीताभूषण'भाष्यम् शने) विनैव विशुद्ध-प्रभावती, अकिञ्चना, अनन्यादि-शब्द- वाच्या ; द्वितीया तु कर्मआम मिश्र यखिलममे विद्युतीभि विष्यति । सत्यानन्तचिम्यशक्तय कपड़े सळस ध्यक्षे भरक्षतिः । अथा।नस्थ शोकमोहं कथम्भूनावित्यपेक्षायां महाभार भूगोविन्दे विश्वकर्मादिकन्दं पूर्णानन्दे नित्यमास्तां मतिः । तपक्का अवैशम्पायन जनमेजयं प्रति तत्र भीष्मपर्वखि कथा अशन-नीरधिकपैति यया विशोषं मवतारय। --धृतराष्ट्र उवाच' इति । कुरुक्षेत्र युयुत्सया युद्धार्थं भक्तिः परापि भजते परिपोषमुञ्च । सङ्कला मामका दुर्योधनाद्यः पाण्डवाश्च युधिष्ठिरादयः किं तयं परं प्रति दुर्गममप्यजस्र कैतवस्तत हि । ननु युयुन्मय इति यं अधीष्येवातो युद्धमेव साद्गुण्यभृत् स्वरचितां प्रणमामि गीतम ।। कर मुशनास्ते तदथ किमकुवतेत केनाभिप्रायेण प्रवक्षस्थत अथ सुखचिद्घनः स्वयं भगवानचिन्त्यशक्तिः पुरुषो रामः आ, -धमत्र इति । कुरुक्षेत्रं देवयजनम् ” इति श्रुतेस्तत् स्वमङ्कल्पाथलविचित्र---जगदुदयादियिरियादिसंचिन्त्य चरणः क्षेत्रस्य धर्मप्रयीकस्य प्रसिद्धम । अतस्तसंसर्गमदिना यथा स्वजन्मदिनलय स्यनुल्यम् सह विभूतान पार्षद न प्रहर्ष धार्मिक मयि दुर्योधनादीनां कधनिष्ठस्था में मतिः यंत चैत्र जीवन बहूनविद्याशालीयनाद्विभोच्य स्वात स्थतः पाण्डवास्तु यमावत एव धाम्भिकात तो परहिंसन नारभावनाऽन्यानुदधपुराइयमूध्नि म्यात्मभूतमध्यम- मनुचितभियुभयेषामपि विवेके उद्धते सन्धिरपि संभाव्यते ; वितर्थस्थशक्त्या सभोहमिव कुव्येन् नमोहविभाजनपदेशेन ततश्च ममानन्द एवेति म अयं प्रति पयतुमिष्ट भय य याः । सपरिकरश्मयाथान्यैकनिरूपियां यांतिपनिषद सुधादिशत् । आभ्यन्तरतु सन्धे सति पूर्ववत् सः एटकमेव राज्यं मदा । तस्यां खल्वीश्वर--प्रकृति-कर्माणि पथ पर्यन्ते - जानामिति में दुर्वार एव विषादः। तस्मादन भcपू. [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्वीत ५) श्रीमद्भगवद्भीता [१ अध्याय तेषु विभुसंबिश्वरः अणुसम्बिजीयः सर्वादिगुणत्रयाश्रयो द्रव्यं प्रकृतिःत्रैगुण्यशून्यं जद्द्रव्यं कालःपुप्रयमनिष्पाद्यम इष्टादिशब्दवाच्यं कर्मेति । तेषां लक्षणानि ;-एष्वीश्वरादीनि चत्वारि नित्यानि ; जीवादीनि यशवश्यानि, कम्मे तु प्राग भाववदनादि विनाशि च तत्र सम्विधरूपोऽपीश्वरो जीवश्च सम्वेतास्मदर्थ. -विज्ञानमानन्दं ब्रह्म , "थः सर्वज्ञः सर्व- बि", "मन्त योद्धा कर्ल विज्ञानात्मा पुरुषः" इत्यादि अनेः; मोऽकामयत बहु स्याम', "सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवे विषम" इयदि श्रुतेश्च । न चाभयत्र महत्त्वज्ञातोऽयमहङ्कारः तदा तस्यानुपसेविलीनाश्च , भक्ति सिद्ध-सर्वज्ञः सर्वविन कत्र योद्धा” इति पद ; अनु भवितुत्यं खलु भोक्तव्यं स यभ्युपगतं ; सोऽश्नुते मद्यान कामान् सह ब्रह्मणा विश्वन त भत नृभयास्तत्र प्रथम यद्यपि सबिर्स्यरूपात् सर्वे में यदि नाथन प्रकाशस्वरूप २वरिव प्रकाशयादि, तथापि विशेषमामपरादन्यत्वव्यवहारः। बिशेन भेदप्रतिनधने भेदः च भेदभावेऽपि भेदकारी स्य धर्मधर्मिभावादिव्यवहारस्य हेतुः --मना सती भेदो भिन्नः कालः सब्बेदास्तीत्यादिषु विद्वद्भिः प्रतीतिः । तत्प्रतीत्यन्यथानुप 'एवं धन पृथक पलनेयानुविधायति” इति अत्या च सि द्वः। इह हि धर्मानभिधाय तद्देः प्रतिषिध्यते । न खलु भेदप्रतिनिधेस्तस्याप्यभावे धर्मधर्मिभावधर्मबहुत्वे शक्ये वक्त नियनिच्छुभिरपि संकाय्द्याः स्युः त इमेऽर्थाः शG Sस्मन् यथास्थानमनुमन्य इह हि जीवात्म-परममतद्धाम नन- प्राप्त च पायानां स्वरूपाणि यथावन्निरूप्यते तत्र जीवामः याथात्म्य-परमात्मयाथात्म्योपयोगितया परमात्मयाथात्म्यतु पासनपथगित या प्रकृत्यादिकं तु परमात्मनः स्रषु रुपकरणनय पदिश्यते । तदुपायाश्च कर्मज्ञानभकिभेदात् त्रेधा । तत्र अ त तनफलनैरपेक्ष की त्वभिनिवेशपरित्यागेन चानुष्ठिरस्य म्य विहितस्य कर्मणः = वद्धिद्वारा ज्ञानभक्रयोपकारियन परम्परया तप्राप्तयुपायत्वम् । तत्र अतिविहितकर्म हिंसा शून्यमत्र मुख्यम । मोक्षधर्मे पितापुत्रादिसंवादात् हिंसा , गण विप्रकृष्टत्वात् तयोस्तु साक्षादेव तथास्त्वमननु तथानुष्ठ नन कर्मण ऋद्वशुद्धया। दयन मुक्तं मया भक्त का विशेषः ? उच्यते, ज्ञानमेव किञ्चिद्विशेद्भक्तिरिति ; निर्मेिषवी क्षणकटाक्षवीक्षणीयनयोरन्तरं चिद्विप्रहतयानुसन्धिर्शनं तेन तरसालोक्यादि । विचित्रवीलारसायन मामयतयानुसन्धिस्तु भक्ति तथा क्रीकृतमालोक्य द्वितद्वरिवस्य झनत्वं तु संचिदानन्दैकरसं भक्तियोगे तिष्ठनि'इति अतः लाभः पुमर्थाः ममत अवादिभावादिशब्दव्यपदिश्व इष्टम । ज्ञानस्य श्रवणत्रकारचे चित्पुत्रस्य विष्णोः कुन्तलादिशतकस्यवत् प्रत्येतव्यमिति च दयामः। पटत्रकम्पिनशास्त्र - प्रथमेन पदकेने धराशय जयाशविभक्तं च प्रयागस्वरूपदृशनाम नज्ञाननिष्कामकर्मसाध्यं निरूप्यते तशत मध्यन पर प्राप्यम्य शश्वरस्य प्रापणी भक्तिस्तन्महिमपूर्विकाभिधीयते । अन्येन तु पूवर्गादितानामेवेश्वरादीनां रूपाणि परिशोध्यन्ते । त्रयाणपटकाना कमम आनिमलयपवंश तु तत्तत्प्रधा। वरमे भक्त प्रतिप' श्वोक्तिस्तु रश्नसम्युटर लिखित-सुच फलिपिन्थायेन । अस्य शाश्वस्य श्रद्धालुः मद्धर्म निष्ठे विजितेन्द्रियोऽधिकारी स च मनिष्ठ-परिनिष्ठित-निरपेक्ष- भेदास्त्रिविधः—तेषु स्वर्गादिलोकानपि द्विनिष्ठया स्वधर्मनि हयश्च नरूपन चरन प्रथमः लकमजबूझ तानाचरन हर भक्तिनिरतो द्वितीयः साश्रमः सस्य-तपो-जपादिभि [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्रीता श्रीमद्भगवद्भता [१ अध्याय गिनि १३ सञ्जयेति यामप्रसादाद्विनष्टपम्यं तथ्यं वदे त्यर्थ । पाण्डवानां मामकत्वानुक्तिधृतराष्ट्रस्य तेषु द्रोहमभि व्यनक्ति । धन्थक्षेत्रातद्विरोधिन धान्याभासानामिव धर्में क्षेत्र द्विरोधिनां धर्माभासानां यत्पुत्राणामपगमो भवति धर्म कूटशब्देन गईंच्या व्यज्यते ? सञ्जय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचयमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवं न । पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्यण धमतः ।।३।। विशुद्धचित्तो हर्यैकनिरतस्तृतीयो निराश्रमः। वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः ,न्याच्य उक्तलक्षणः श्रीकृष्णःबाचकनगीतशास्त्र नाहशः सोऽत्र विषयः । अशष-क्त श-निवृत्रिपूर्वकस्तरमाश्रमः कारस्तु प्रयोजनमित्यनुबन्धचतुष्टयम् । अत्रेश्वरादिषु त्रिषु ब्रह्मा isक्षरशब्दश्च, बद्धजीवेषु तव हेषु च क्षरशब्दःईश्वरबदेहे मनसि वुद्ध धुना यने चात्मशब्दः , त्रिगुणय वसनाया शाल स्वरूपे च प्रकृतिश सत्ताभिप्रायस्व भावपदार्थजन्मसु क्रिया स्वात्मसु च भावशब्दःयस्मादिषु त्रिषु चित्तवृत्तिनिरोधे च योगशब्दः पठ्यते । एतस्य स्वल स्वयं भगवतः साक्षाद्वचनं सर्वतः श्रेष्ठ -'गीता सुगंति यत्रच्या किमन्यैः शाखाविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपझाद्विनिर्गत"इति पात । धृतराष्ट्र दिवाक्यन्तु त म ङ्गतिलाभाय द्वैपायनेन विरचितम् । तत्र तब करनिपात न्यायेन तन्मयमित्युपघातः । "संग्राम मूर्धिन संवादो याऽभुगोविन्दपार्थयोः। तत्सङ्गस्यै यथां प्राख्या - तासु प्रथमे मुनिः ।” इह तबद्भगवानसंव प्रस्त'तु ' कथा निरुप्यते—धर्मक्षेत्र इत्यादिभिः सप्तविंशत्या । तद्भगवतः पार्थं मारयं विद्वान धृतराष्ट्रः स्वपुत्रविजये सन्दिहानः स अयं प्रच्छ तीत्याह -मेजयं प्रति वैशम्पायनः-धृतराष्ट्र उवाचेति । युयुत्सयो । यदमिड या मामका मत्पुत्राः पाण्डवाश्च कुरुक्षेत्रसमवेता। किमकुर्वनेति । ननु युयुत्सवः समवा इति न्वमवाथ तता युद्ध को य, पुनः किमथव्यनति करते भाव इति चेत् , सह। सव्वप इति । देवयजनं धम्मक्षत्र यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां भूतानां अहमदनम -भयाद्धर्मेप्ररोहभिभूतं कक्षेत्रे प्रसिद्धम् । तत्प्रभागविनम्र विद्या सत्पुत्राः किं पाण्डवेयस्तद्र दातु निश्चिक्युः १ कि.म्या, पाण्डवाः सदैव धर्मशीला धर्म क्षेत्रे तस्मिन् कुलक्षयहेतुकधर्मीत वनप्रवेशमेव ओं ये मिश मा२ व०. विदिततदभिप्रायस्वदशंसितं युद्धक्षेत्र भवेतः किन्तु तन्म नरवप्रतिकूलमनि मनसि कृपयचति, व्यूहं व्यूहरचन यावस्थितम् । राजा दुर्योधनः सन्तभयमुवाच, पश्येतांमति नवभिः श्लोकैः ॥२॥ उपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन तव शिष्येणेति स्वचषथमुत्पन्न इति जानतापि मयाऽयमथापित इति तत्र भवबुद्धित्वम । धीमतेति शत्रोरपि यतः सकाशात् स्वहुधापायविश्च गृहातेयस्य महा युद्धवं फलकालेऽपि पश्येवि भावः ।३।। गी० भूः एव ज्न्मान्य प्रज्ञाचक्षुरो धृतराष्ट्रस्य धर्मप्रहाबिलोपान्मोहा २६ स्य मत्पुत्रः कदाचित् पा। एडयेभ्यस्तद्यं दद्यादिति बिम्लान चिरस्य भावं विज्ञाय धर्मिष्ठः सञ्जयस्वपुत्रः कदाचिदपि ते राज्यं नापेयिष्यतीति तत्सन्तोपमुत्पाद्यन्नाह, -ये ति । पाण्ड श्रीमद्गयीत [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता [१ अध्याय सारा व अत्र चाम , महत शत्रुभिश्छनमशक्या इष्वासा धनुषि येषां ते युयुध सात्यकिः सौभद्रोऽभिमन्युः, द्रौप था युधिष्ठिरादिभ्यः पञ्चभ्यो जातः प्रतिबिम्ध्यादयः। मह रथादीनां लक्षणम्-"एको दशसहस्राणि योधयेद् यस्तु धन्-ि नाम । शनशास्रप्रणश्च महारथ इति स्मृतः । अमिताम् । याधयद् यस्तु स एवातिरथः स्मृतः रथी चैन य योद्धा तन्न्यूनाऽधरथः स्मृतः ।” इति ॥४-६ ॥ वानामनीक सैन्यं, व्यूह व्यूहरचनयायथितम् , आचार्ये धनु विद्याप्रदं द्रोणम् उपसङ्गम्य स्वयमेव तन्ति गत्वा राजा राज नीतिनिपुणः वचनमपाक्षरत्वं गर्भशर्थवं संक्रान्त पचनविशे पम् । अत्र स्वयमाचार्यसन्निधिगमनेन पाण्डव सैन्यप्रभाव द्शन हेतुकं तस्यान्तर्भयं गुरुगौरवेण तदन्तिकं स्वयमागतवानस्मीत भयसपनञ्च व्यज्यते । तदिदं राजनीतिनैपुण्यादिति च। राजपदेन च।। सादृशं वचनमाह--पश्यैतामित्यादिना । प्रियशिष्येषु युधि ष्ठिरादिषु स्नेहातिशयादाचार्यो न युध्येदिति विभाव्य तत्व पोत्पादनाथ तस्मिस्तद् दयज्ञां व्यजयन्नाह-एतमिति । एतमति- सन्निहितां प्रागल्भ्येनाचार्यमतिशश्च स्याम विगणय्य स्थित इष्टा नद यहां , व्यूहं व्यूहरचन या स्थापितम् द्रष पुत्रेणेति यद्रण दो पदेन स्वद्वधाय धृष्टद्य नः पुत्रो यहानि कुण्डदुदितोsalत, ते शिंष्येणेति त्वं स्वशत्रु जानीय धनुर्विंशामध्यापिता न संति तब मदर्थत्यम् , प्रति शत्र सस्यद्वथोपाथ गूहत इति तस्य सत्वस । यद्पद्यका- रितैवास्मथ मनर्थहेतुरिति । अत्र शरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।। धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥५॥ गंभू० नवकेन धृष्टद्युम्नेनाधिष्ठितल्पिक सेनास्मदीयेनैकेनैव सुजेया स्यादृतत्वं मात्रासीरिति चेत् तत्राह--अत्रांत । अत्र चम्यां महान्तः शत्रुभिश्छु मशक्या इष्वासाश्च येषां ते । युद्धकोशलमाशङ्कयाह, भैमेति । युयुधानः सात्यकिः महा रथ इति युयुधानादीनां त्रयाणां विशेषणम्। धृष्ट - वानिति धृष्टकेत्वादीनां त्रयाणाम् , नपुङ्गव इति पुरुजिदादीनां त्रयाणम्। युध्येति दिक्रम इति युधामन्यः, वैय्येवानि युसमौजसश्च ति विशेषणम् , सौदोऽभिमन्युः द्रौपदेया युधिष्ठिरादिभ्यः पदभ्यः कमन् द्वीप द्यां जाताः प्रतिबन्धभ नसेन श्रुतकरिशत नीकिमु तक ऑस्याः पपुत्राः, च-शब्दादन्ये च घटोत्कचाद्यः । पाए यास्यतिख्यातस्य त न गणित । य एत सप्तदश गणित, ये चान्ये तत्पयस्ते सव्यै माथा एय । अतिरथस्यायुध र मेतत् , तझझक्कम एकादशसह । स्राणि योधयेद्यस्तु धथिनम् । शशास्त्रीय व महारथ इति मृत । अमितान योधयेद्यस्तु संमोहोऽतिरथस्तु सः। रथी चैन यो यात्रा तथून रथः स्मृता। इति श८- ६॥ युधामन्युश्च विन्त उत्तमजाश्च चयान् । अभद्र द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथः ।।६।। [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्भीता ११) श्रीमद्भगवद्भीता [१ अध्याय अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।।७। भवन्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च । ८॥ अन्य च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदः ।8।। सरा०व० निबोध बुध्यश्च; संक्षार्थं सम्यग् ज्ञानार्थम् ।।७ ॥ सोमदत्तिभूरिश्रवा । त्यक्तजीविता इति जीवितत्यगेनापि यदि मदुपकारः स्यात्तदा तमपि कतु प्रवृत्ता इत्यर्थः । वस्तुतस्तु मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्" इति भगवदुक्तं दुर्योधनस रयत सत्यमेवाह स्म ।८-au ग८७ तर्हि कि पाण्डथसैन्यदतोऽसीत्याचार्यभावं सम्भाव्या- तर्जातमपि भीतिमाच्छदयन धाgों नह-अस्माकमिति अस्माकं सर्वेषां मध्ये ये विशिष्टाः परमोत्कृष्टा बुद्धचदिबल शालिन नायक नेतारः न संज्ञार्थ सम्यक ज्ञानार्थं ब्रवी मति । पाण्डवप्रेम्ण यं चेतो यस्थसे, तदापि भीष्माद्-ि भिर्मद्विजयः सेत्स्यत्येवेति नत्कोपोत्पादनं द्योत्यम् ।।७। तानाह,--भवानिति । भवान् द्रोणःबियणं मद्भ्राता कनिष्ठ, सोमदत्तिभूरिश्रवाः , समितिञ्जयः संप्रमांब जयति द्रोणादीनां सप्तानां विशेषणम् नन्वतायत एव म सैन्ये विशिष्टाः, किन्नव संख्येयाः सन्तीत्याह-अन्ये चेति । बहवो जय- द्रष्ट-कृतघर्मशल्यप्रभृतयः त्यक्त त्यादि य.मणि निष्ठा,-जीवि- तानि त्यक्त‘ कृतनिश्चया इत्यर्थः । इत्थ। तेषां सर्वेषां मयि स्नेहातिरेकात् शय्यतिरेकाद्युडपाण्डित्यागमविजयः मिज़यदेवेनि द्योत्यते ॥८-६॥ अपर्याप्त तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । पर्याप्त त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरवितम् ॥१०॥ अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥११॥ सरा० व०- अपर्याप्तमपरिपूर्णम-पाण्डवैः सह योद्ध मक्षममित्यर्थः; भीष्मेणाति-सूरुमवृद्धिना शस्त्रशास्त्रप्रवीणेनाभितो रक्षितमपि भीष्मस्योभयपक्षपातित्वात् । एतेषां पाण्डवानां तु भीमेन स्थल बुद्धिना शस्त्रशाखाभिज्ञेनापि रक्षितं पर्याप्त परिपूर्णम अस्माभिः सह युद्ध प्रवीणमित्यः ।। १० ।। तस्माद् युष्माभिः सवनैर्भवितव्यमित्याह-अयनेषु व्यूहप्रवेशमार्गेषु यथाभागं विभक्ताः स्यां यां रणभूमिमपरिव्य यैवावस्थिता भयतो भीष्ममेवाभितस्तथा रक्षन्तु, यथाऽन्यै युध्यमानोऽयं पृष्ठतः कैश्चिन्न हन्यते, भष्मबलेनैवास्माकं जीवितमिति भावः ।। ११ ।। गोभू नन्वेवमुभयोः सैन्ययोस्तौल्यात् तवैव णिजयः कथमित्या- शहूय स्वसैन्यस्याधिक्यमाह-अपर्याप्तमिति । अपर्याप्त मपरिमितमस्माकं बलम् , तत्रापि भीष्मेण महाबुद्धिमतातिथे नाभिरक्षितम् । एतेषां पाण्डवानां बलं तु पर्याप्त परिमितम् तत्रापि भीमेन तुच्छखजिना रथेनाभिरक्षितमतः सिद्धविजय १ अध्याय श्रीमद्भगवद्द्वीत १२) (१३ श्रीमद्भगवद्भीता [१ अध्याय अथैवं मदुक्तिभावं विज्ञायाचार्यश्चदुदासीत तदा मकार्य- अतिरिति विभाव्य तस्मिन् स्वकार्यभारमर्षयन्नाह-अयन ष्यिति । अयनेषु सैन्यप्रवेशचर्मसु यथाभागं विभक्तां स्यां स्यां युद्धभूमिमपरित्यज्यावस्थिता भवतो भयदाय भीष्ममेवाभिन रक्षन्तु युद्धाभिनिवेशात् पार्श्वतः पृष्ठतश्चापश्यन्तं तं यथान्य न विहन्यात्तथा कुर्वन्विश्यर्थः । सेनापती भीष्मे निधे मद्- विजयसिद्धिरिति भावः । अयमाशयः-भीष्मोऽमकं पिता महः, भवांस्तु गुरुः, तो युवामस्मदेकान्तहितैषिणौ विदिती । यापक्षसदसि मदन्यायं विद्वन्तावपि द्रौपद्या स्थायी प्र' नावे चन, मया तु पाण्डवषु प्रत स्नेहभासं याजयितु' तथा निवेदितमिति ।।११ तस्य संजनयन्हयं कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योचुः शव दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥ ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥।१३ मियुपमाने ‘कर्मणि च इति पाणिनिसूत्राणमुल् चान कर संयुपमने इत्यर्थःसिंह इव बिनच यथेः। मुखतः किञ्चिद् नुक्या शहनादमात्रकरणेन जयपराजयौ खल्वीश्वराधीन, त्वदर्थं क्षत्रधर्मेण देहं यद्यामीति व्यज्यते ।१२।। तत इति सेनापती भीमे प्रवृत्त तसैन्ये सहसा तक्षण- मेव शलादोऽभ्यहन्यन्त बादितः-कर्मकर्तरि प्रयोगः । पणमादयस्त्रयो वादित्र-भेद। । म शब्दस्तुमुल ए करना। महानासीत् ।१३. ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवीव दिव्यौ शौ प्रदध्मतुः ॥१४ पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदतं धनंजयः। पौण्ड्र' दध्मौ महाशङ' भीमकर्मा वृकोदरः १५॥ अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१६॥ काश्यश्च परमेष्यामः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्य म्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१७ द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शद्वान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१८॥ सारा०व० पाञ्चजन्यादयः शङ खदानां नामानि । अपराजितः-केनापि पराजेतुमशक्यत्वात्; अथ चपन धनुषा राजितःप्रदतः॥१५-१८ ग८० अथ पाण्डवसैन्ये प्रदृशं युद्धोत्सवमाह-तत इति । अन्येषा सरा०व० ततश्च स्यसन्मानश्रवण अनितहर्षस्त्रस्य दुर्योधनस्य भय विष्णुसनेन हयं संजनयतु कुरुवृद्धो भीष्मःसिंहनादु मिति उपमाने कर्मणि चेति मामुल–सिंह इव विनद्य यथः ॥।१२ ।। ततश्चाभयथैव युद्धोमादः प्रवृत्त इत्याह-तत इति । पर्यो। मदेलाःअनकाः पटहः , गोमुख वाद्यविशेषाः ।।१३ ।। एयं दुर्योधनकृतां स्तुतिमवधार्य महर्षे भीष्मस्त दन्त जतां । भंतिमुरसादयितु' शक ' दध्मवियाह-तस्येति । सिंहनाद [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता (१४ १५) श्रीमद्भगवद्गी ति। [१ अप्याय मयि रथस्थितत्वे सत्यपि तूष्णजनयो रथस्थितवोक्तिस्तद् रथस्याग्निदत्यं त्रैलोक्यविजेतृत्वं महाप्रभत्वत्र व्यज्यते ॥१४॥ पाञ्चजन्यमित्यादि - पाञ्चजन्यदयः कृष्णदिशहानामा- हयाः। अत्र इषीकेशशब्देन परमेश्वरसदायित्वम् । पाञ्चजन्या दिशब्दैः प्रसिद्धाहानेकदिव्यशद्धवस्त्रम् । राजा भीमकर्मा धनञ्जय इत्येभियुधिष्ठिरादीनां राजसूययाजित्व याजित्वहिडिम्बादिनि हन्तुत्यदिग्विजयाहतानन्तधनत्वानि च व्यञ्जय पाण्डवसनासृक्षः सूच्यते । परसनासु ददभावादपकर्षश्च । काश्य इतकाश्यः काशिराजः ; परमवासः महाधनुर्धरः . चापराजितो धनुष दीप्तः। द्र पद इति पृथिवीपते हे धृतराष्ट्रति तप दुर्मन्त्रणे दयः कुलक्षयलक्षणोऽनर्थः समानत इति मुच्यते ॥१४-१॥ स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥१६॥ अथ व्यवस्थितान्दृष्टं धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः । प्रवृच शस्त्रसंपात धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥२०॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । सनयारुभयामध्य रथं स्थापय मेऽच्युत ।।२१।। यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥२२॥ यस्यमननत्रयेऽहं य एतेऽत्र समागतः । धार्तराष्ट्रस्य वृद्ध युद्ध प्रियचिकीर्षवः ॥२२ दीनां सर्वेषां इदानि व्यदारयत् तद्विदारणतुल्यां पीडाम जनयदित्यर्थः। तुमुलोऽतितोत्रःअभ्यनुनादयन प्रतिध्वनिभिः पूर यन्नित्यर्थः । धारराणैः कृततु शतदिनादस्तुमुलोऽपि तेषां किलिपि क्षोभं नाजनयन तथानुक्क रिति बोध्यम ॥१६॥ एवं धार्रराष्ट्राणां युद्धे भीतिं प्रदर्य पाण्डवानां तु तत्रो त्साहमाह--अथेत् सद्ध केन । अथ रिपुशद्धनकृतोत्साह भइनन्तरं व्यवस्थितान तदविरोधियुयुत्सथावस्थितान् धार्य राष्ट्रान् भीमादीन् कपिध्वजोऽज्ञान येन श्रीदशरथेरपि महान्ति काय्द्यानि पुरा साधितानि तेन महार्पण थजमधितिष्ठत हनु मदनुगृहीतो भयगन्धशून्य इत्यर्थः । हे महीपते ! प्रवृत्तं प्रवी माने । हृषीकेशमिति -पीशं सर्वेन्द्रियप्रधीय कृष्णं तदिदं वाक्यमुवाचेति । सर्वेश्वरो हरिर्ये नियोज्यश्तेषां तदेकतः भनां पाण्डवानां विजये सन्देहगन्धोऽपि नेति भावः ॥२०॥ । अजनयायमाह-सेनयोरिति । है अच्युतादि स्वभावः सिद्धद्धहवाल्यात् पारमैश्वर्यं न यवसे स्मेति तेन तेन च नियन्त्रितो भक्तस्य से वाक्यतत्र २थं स्थितं कुरु निर्भय तत्र रथस्थापने फलमाह-यावदिति यह् कामान्न तु सहास्माभिः सन्धिं चिकीषु न , अवस्थितान् न तु भल्या प्रचलितान् । ननु त्वं यद्ध, न तु युद्धप्रेक्षकस्ततस्तदर्शनेन किमिति चेत्तत्रा कैरिति । अस्मिन् बन्धूनामेव मिथो रणोद्योगे कैर्बन्धुभिः सह। मम युद्ध भात्येनानायैव मध्ये रथस्थापनमति । ननु बन्धुरयादेते सन्धिमेव विधास्यन्तीति चेत् तत्राह- योत्स्यमाना नित न तु सन्धि विधास्यतः। अवेक्षे प्रत्येमि । दुधुः कुधियः स्वजीवनोपायानभिज्ञश्य युद्ध, न तु दुद्री जयपनयने अतो मद्युद्धप्रतियोगिनिरीक्षणं युक्तमिति ॥१-२३॥ स इति - पाण्डवैः कृतः शयनादो धार्तराष्ट्राणां भ८मा १ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता (१६ (१ श्रीमद्भगवद्गीता [१ अध्याय सञ्जय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरु निति ॥२५॥ स० च। हृषीकेशः सर्वेन्द्रियनियन्तप्येवमुक्तोऽर्जुनेनादिष्टः अन वागिन्द्रियमत्रेणापि नियथोऽभूदित्यहो प्रेमवश्यस्यं भगवत इति भावः । गुडाकेशेन–गुडा यथा माधुर्यमात्रप्रकाशयस्तथा वयस्नेहरसास्वादप्रकाश का अकेशा चित्रशिया यस्य तेन अकारो विष्णुःको ब्रह्मा, ईश महादेवः। यत्र सर्वावतरिचूदा भद्रः स्वयं भगवान श्रीकृष्ण एव प्रेमधनः सन् नुवर्ती बभूव तत्र गुणवतारत्वात्तदंशा विप्रहरेदः कथ मैश्वर्यं प्रकाशयन्तु १ किन्तु स्वकर्ता के स्नेहरसं प्रकाश्यैव स्यं यं कृतथं मन्यन्त इत्यर्थः यदुक्त' श्री । भगवता परमव्यम तथनाप द्विमजा में युधयादिइनुण इति; यद्वा, गुडाका निद्रा, तस्य ईशेन जितनिद्र चेत्यर्थः; अत्रापि ध्या रूयायाम-क्षान्मायया अपि नियन्ता य: श्रीकृष्णः स चापि येन प्रेरणा विजय यशङ्कितस्तेन। जुनेन म्यावृत्ति-निद्र वशी किं चित्रमिति जितेति भावः । भcद्रोण यः प्रमुखतः । प्रमुख त इति प्रमुखे समुखे सर्वेषां महीक्षित रह च। २४-२४ स मनुप्रविष्टेऽपि 'प्रमुख त' शब्द का दृश्यत। विजितनिद्रस्तःपरमभक्तस्तेनाजनेनैवमुक्तः प्रवरितो दृषीकेशास्त- पित्राऽस्यभिज्ञ भगवान सेनयार्मध्ये भीष्मद्रोणयोः मध्येषा महाशित भूभुजा। प्रमुखतः सम्मु वे रथोत्तमं अग्निशं रथं स्थापयित्वोवाच-हे पार्थ ! सर्वे तनेत न कुरून पश्येति । यथा इषीकेश-शब्दाभ्यामिदं सूच्यते-मत्पितृष्वसृपुत्रत्वात् स्वसा- ध्यमहं करिष्याम्येष स्वं स्वधुनैव युयुत्स यथसीति किं शत्रु सैन्यवीक्षणेनेति मोपहमो भवः ॥२४-२॥ तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्भ्रातु न्पुत्रान्पौत्रान् सखीस्तथा श्वशुरन्मुदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥२६॥ तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् । कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवी ।२७। सारा०व०-दुर्योधनादीनां ये पुत्राः पत्रश्च तन ॥ २६ ॥ गीe--एवं भगवतोक्तोऽजुनः परसेनमपश्यादित्याहतत्रेति सङ्केन । तत्र परसेनायां पि न पितृव्यान भूरिभवः प्रभृतीन् , पित महान भेमि सोमदत्तदन , आचार्यान् द्रोण-कृपादीन् मातुलान शल्य-शकुर्यादन , भ्रातृन दुर्योधनादीन् , पुत्रान् लक्ष्मणदीनि , पौत्रान् नप्तन् लक्ष्मणदपुत्रान् , सधन गय स्याम् द्रौणि-सैन्धादीन् सुहृदः नगर्भभगदत्रादीन् , एवं स्वसैन्येऽप्युपलक्षणीयम । उभयोरपि सेनयोरथस्थितान् तान् सठन समीक्ष्येत्यन्वयात् ॥२६॥ अथ सव्येश्वरो दयालुः कृष्णः सपरिकरात्मोपदेशेन विश्व सुविधेषु रेजनं शिष्यं कर्तुं नवधर्मेऽपि युद्ध "मा हिंस्यात् सय्य भूतानि" इति श्रुत्यर्थाभासेनाधर्मतास।भास्य तं वमो ततः किं वृत्तमित्यपेक्ष्य सञ्जयः प्राह-एवमिति । । निद्रा तया ईशः ? सखनभगवद्गुएलाय एयस्मृतिनिवेशेन श्रीमद्भगवद्भीता [ १ अध्याय (१८ (१६ श्रीमद्भगवद्भीता [१ अध्याय हेन हृद्रविडहो दर्शितः । न चेति – अवस्थातु' स्थिरो भवितुम । मन भ्रमतीव चेति व्ययमृच्छयाहदयः । निमित्चन फलान्यत्र युद्ध विपरीतानि पश्यामि । विजथिन में राज्यप्राप्तिरनन्दो न भविष्यति, किन्तु तद्विपरीतोऽनुताप एव भवति । निमित्शब्दः फलवावी, कश्में निमियात्र वमसि' इत्यादी तथा प्रतीतेः ३० न च श्रेयोऽनुपश्यामि हर्षा जनमाहवे । न काक विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥ मारा०व०-श्रयो न पश्यामीति"द्वाविमौ पुरुषे लोके सूर्य मण्डलभेदिनों । पनि प्रयोगयुतश्च रणे चाभिमुखे हुत ।। इत्यादिना हतभ्यैव यविधानात इतुतु न किमपि सुकृतम । ननु दृष्ट फलं यशराय यतेत युद्धस्यस्थत आह--न कक्ष कृतवानित्याह--तान समीक्ष्येति कौन्तेय इति स्वीयपितृष्वसृपुत्र । यक्तया तद्वस्माँ मोहशोकौ तदा तस्य यध्येते । कृपया कथा अतः परयेति तद्विशे स्वभावसिद्धस्य कृपेति द्योत्यते यूएम , अपरयेति वा छेदस्य स्वसैन्ये पूर्वमपि कृस्ति, पर र्थः । विषीदन्ननुतापः मन्य वपाप समूद्रस्य तिविषादयोरेककाल्याशुक्तिकाले विषादकारण्यम थम्पसन .ण्ठनादीनि ।।२७।। व्यज्यते अजु न उवाच दृष्टं में स्वजनं कृष्ण युयुत्सून् समुपस्थितान् । सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥२८ वेपथुश्च शरीर मे रोमहर्षश्च जायते । गाण्डीवं स्रसते हस्ताक्चैव परिदह्यते ।।२६।। न च शक्रयवस्तु भ्रमतीव च मे मनः । निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥३० सरा-ब०-॥ २८ ॥ -हर्षी यत्र स्थितस्येत्यध्याहयेम विपरीतानि निमित्तानि, धननिमितोऽयमत्र मे वाम इतिचन्निमित्तशब्दोऽयं प्रयोजन वची। ततश्व युद्ध विजयिन मम राज्यलाभात् सुखं न भविष्यति, किन्तु तद्विपरीतमनु तापदु स्वमेव भवत्यर्थः ।। ३० ।। गभू--कौन्तेयः शोकव्याकुलं यदाह तदनुवदति-दृष्टममिनि। स्त्र द्वनं स्वयधुबर र्ग जानवकवचनसगात्रवन्ध ज्ञातय-ध- मम करने स्व-म्यजनाः समाः' इत्यमरः । इg|बस्थितस्य गात्राणि शीर्यन्तेशमदिहेतुका चरणदीनि सीदन्ति , परिशुष्यतीति । छपादतिशथियमस्य शेपस्य व्यज्यते ।२८।। वेपथुः कम्पः, रोमहर्षः पुलकःगाण्डीय भ्रशेनाधेयं त्वद ग८० --एव तत् ज्ञानप्रतिकूलं शाय सुवस्य तत्प्रतियां बि च परीतबुद्धिमाहन चेति अहवे धनं हत्वा भयं नैव पश्यामीति "दिस पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ। परित्राढ्याय २ णे चाभिमुखो हतः इत्यादन हतस्य म यमरणत हन्तुम न किञ्चिङ यः अस्य जनमिति या छेद-अश्वजनयधेऽपि भय सोऽभावात् स्वजनयथ पुनः कुतस्तरां तदित्यर्थः । ननु यशराज्य लाभो दृष्ट फलमस्तीति चेत्राह न काङ्क्ष इति । राज्यादि पृहाविरहादुपाये विजये मम प्रवृचिर्न युत, रन्धन यथा भोज- नेपछाविरहगणः, तस्मादरण्यनियसनमेवास्मकं ,जय नवं भवति ॥३१॥ किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैशवितेन वा । येषामर्थे काङ्कितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥३२ [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्भीत २०) २१ ) श्रीमद्भगवद्गीता [१ अध्याय त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणस्त्यक्त्वा धनानि च । आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥३२॥ माराव०-ननु"अग्निदो गरद्धेव शश्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्र दारपहारी च षडेते आततायिनः ।"इति, "आततायिनमायतं मातुलः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा। हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति भारत । एतच हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मघुम्दन ॥३४॥ इत्यादि वचनादेषां वध उचित एवेति ? तत्राह-पापमिति । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीयते । एतन इव स्थितानमान ‘आनतायिनमायतम' इत्यादिक मर्थशास्त्रं धर्मशास्त्रादुर्ब तम 'दुक्त इयल्क्येन, निहत्य धार्तराष्ट्रातः का प्रीतिः याजनार्दन ॥३५ शास्त्रार बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्मृतम’ इति तस्मादाचार्यादीनां ग८०-गोविन्देति । गः सर्वेन्द्रियवृtबिग्दसीति यम वधे पापं स्यादेव । न चैहिकं सुखमपि स्यादित्याह-यजन- व मे मनोगतं प्रतीहीत्यर्थः । राज्यद्यनक। इदाय हेतुमाह-यष मिति ३६ ।। मिति । प्राणन प्राणशां धनानि धनशमिति लक्षणया मध्यम गीभू०-ननु"अग्निदो गरदश्च व शपाणिर्धनापहः स्वप्रत्ययप स्वबन्धुसुख यी राज्यस्पृहा या रेषामप्यत्र दारापहारी च षडेते आततायिनः । आततायिनमायान्तं हन्या नाशप्राप्त पाउँव युद्ध प्रवृचिरिति भावः ननु यं चत् कह देवाविचारयन । नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति भारत । णिक,तान इम्यास्तर्हि ते स्वराज्यं निष्थ एटयं यज्ञे स्यामेव हन्यु इयुत रेषां पाठंविध्येनतनयिनां युक्तो बध इति चेत्तत्राह रिति यात्राह--एतानिति । मां घ्नतोऽपि सितोऽप्येत न हन्तुमर्ह पापमिति । एतान हस्य स्थितानस्मान् पापमेव बन्धुभयहेतुक नेच्छामि । त्रैलोक्यराजस्य प्राप्तयेऽपि किं पुनर्भूमात्रस्य । नन्व= माश्रयेत् । अयं भावः --आततायिनमायान्तमित्यादि कमथेशा। स्थान हिरवा धृतराष्ट्रपुत्र एव हन्तव्या, बहुदुःख दह् णां तेषां घाते मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि इति धर्मशास्त्रादुर्बलम्-- सुखसम्भवादिति चेतग्रहनियेति । धाराष्ट्रान् दुर्योधना अर्थशास्त्र बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः" इति स्मृतेःतस्मा दोन्निहत्य स्थितानां नः पाण्डवानां । प्रीतिः प्रसन्नता स्या, दुर्बलार्थशाखवलेन पूज्यानां द्रोणभीष्मादीनां नधः पापहेतु कपति --अचिरसुखाभासस्पृह या चिरत रनरकहेतुभ्रातृवधो ने रैवेति । न च भ योऽनुपश्यामीत्यारभ्योक्तमुपसंहरति--तस्मा यय जनद नतिः इति भावः । हे --यचे ते हन्तव्यास्तर्हि भूभा दिति । पापसम्भवात् । दैहिकसुखस्याप्यभवाय त्यथः । न रापहारी चमेव तेन जहि परेशम्य ते पापगन्धसम्बन्ध न भव हि गुरुभिर्बन्धुजनैश्च विनास्माकं राज्यभोगः सुखयापि तु डिति व्यज्यते ।।३२-३३ अनुतापायैष सम्परयते । हे माधवेति-श्रीपतिस्त्वमश्रीके युद्ध पापमेवाश्रयेदस्मान्हयैतानाततायिनः । कथं प्रथीयसीति भावः ।।३६।। तस्माद्धर्ह वयं हन्तु’ धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । स्वजनं हि कथं हत्व। सुखिनः स्याम मघव ॥३६॥ कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।३७। [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्दीत श्रीमद्भगवद्गीता [१६ अध्याय कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । ३८ कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।। मारा०- नन्वेते तर्हि कथं युद्धे वर्तन्ते ? तत्राह – ययति ॥३७-३८॥ प रणदपि विदितं गीभू--ननुआ हून न निबनून बना क्षत्रियस्यति क्षत्रधर्मेश्वरमा न तैशहूननां भवतां युद्ध प्रति छं त ति चेत्तत्राह--यद्यपीति द्वाभ्याम । पापे प्रचूर लोभस्तेषां इgधनना-ज्ञानं 8नुरस्माकं तु लाभवरदान नत्र प्रवृत्तागत कालु प्रबर्कम , इनिघ्ननु यरिधायम , यदुक्त--"फल तऽपि यत् च कर्म नानयनानुबध्यते । केवलप्रतिहन्यात द्वन्म यजेत इति कथ्यते । तथा च श्येनेनाभिचरन इति इत्यादि शक्ति ऽपि येनादावियोनिनवधित्वादय युद्ध ऽश्मिनः ति । प्रवृत्तिर्न युक्त आहूतः शब इत्यादि तु कुल जनाह नेति प्रागबन ||३७-६८ क्षयदोषविना भूतविषयं भात्रि कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्भाः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥३६॥ खरा०व० -कुलक्षय इति , सनातन कुलपरम्पराप्राप्तवन बहुकालतः प्राप्त इत्यर्थः ॥ ३६ ॥ गंभू०--दीपमेव प्रपञ्चयति--कुलक्षये इति । कुलधर्मा कुलोचिता अग्निहोत्राद् धर्मः सनातनाः कुलपरम्पराप्राप्त:। अपश्यन्ति की विनाशात । उतेत्यथर्यं कृतमित्यनेन सम्बध्यते , धर्मे नष्टसथवशिष्ट कालादिनमपि कुलमधर्मोऽभिभवति माराध्व-प्रदुष्यतिअधर्म एव ता व्यभिचारे प्रवतीय- तति भावः ।। ४० ।। भू०--ततश्वधर्माभिभवादिति । अस्मद्वीभिर्धर्म- मुलइयो यथा कुलक्ष्यलक्षणे पापे चर्चितं, तथाश्माभिः पतिः प्रथमवज्ञाय दुराचारं वस्तिव्यमिति दुबृद्धिहताः कुलस्त्रियः प्रदुयुयुरित्यर्थः ।४०।। संकरा नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह् यां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१ ॥ दपैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः । उस्माद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।। ४२ ।। उत्सन्नकुलधर्माणि मनुष्य जनार्दन । नरके नियत यामो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥४३॥ सरा०व०--दायरन, उत्साद्यन्ते लुप्यन्ते ॥ । ४२ ।। भू-बुलस्य सङ्ग्रः कुलघ्नानां नरकायैवेति योजना । न केवलं कुलघ्ना एय नरके पतन्ति, किन्तु तत्पितरोऽपीत्याह पतलति हिनी । पिण्डादि । पुत्रादीनाम भवद्धित पिण्डादि-क्रियाः सन्तस्ते नरकायैव पतन्ति १४१ भू–उक्त दोषमुपसंहरति,- दोयै र ति द्वाभ्याम् । उत्साद्यन्ते विलुप्यन्ते जातिधर्माः क्षत्रियस्वादिनिधनःबुल धर्मारस्य साधारणः च-शब्दादाश्रमधर्मे प्रहाः गीभू--उरमत्र ति । जातिधर्मादीनां उपलक्षणमेतत् । अशुभ तयन्ता ययं गुरुमुखान्। प्रायश्चिराम कुर्वाणः पापपु निरता नराः । अपश्चरापिनः कgान्निरयान् यान्ति ममयः ६६॥ अधर्माभिभवान्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। संपु दुष्टामु वर्णेय जायते वर्णसंकरः॥ ४०॥ संजय उवाच [१ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता (२४ अहो बत महत्पापं कतु' व्यवसिता वयम् । द्वितियोऽध्यायः यद्राज्यसुखलोभेन हन्तु स्वजनमुद्यताः ॥४४॥ यदि मामप्रतीकारमशस्र शस्त्रपाणयः । तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।४श विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।१।। एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । श्रीभगवानुवाच - विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥।४६।। कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां भीम शुना यजुष्टमरवग्रैमीतिकर मनु न ॥२॥ पर्वाणि श्रीमद्भगवद्भीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा । श्रीकृष्णजनसंवादे सैन्यदर्शनं नाम प्रथमोऽध्यायः । सारा०व० -आत्मानात्म-विवेकेन शोधमोहतमो नुदन् । सारा०८–संख्ये संग्रामे रथोपस्थे रथोपरि ॥ ४६ ॥ द्वितीये कृष्णचन्द्रोऽत्र श्रोचे मुक्तस्य लक्षणम् ।। १ ।। इति सार्थवथिएयां हर्षिण्यां भक्तचेतसम् । कश्मलं मोहःविपरेऽत्र संग्राममोक्टेः कुतो इन, उपस्थित गतासु प्रथोऽध्यायः संगत: संगतः खत्म ॥ ३ ॥ स्यां प्राप्तमभूत् ? अनार्यजुष्टम्-सुप्रतिष्ठितलोरसेवितम, ००-बन्धुवधव्यवसायेनापि पापं सम्भव्यानुतपन्नडअवर्धमकीर्तिकरमिति–पारवहिकसुखप्रति सुखप्रतिकृतमित्यर्थः ।। अहो इति । यतेति सन्देहे ॥४४ ग८०-द्वितीये जीवयथात्म्यज्ञानं तत्साधनं हरि ग८०-ननु स्वय बन्धुवधाद्विनिवृत्तोऽपि भीष्मादिभि निष्काम कर्म च प्रोचे स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् । जोसुकैश्वद्वधः स्यादेव ततः विविधेयमिति चेत्तत्राह-यदि मामिति । अप्रतीकारमकृतमद्वधाध्ययसायपापप्रायश्चित्तम। क्षेम गीभू - एचमज, नवरात्रयमुपभय न्यपुत्रराज्याध्रशाशया दध्यन्त धृतराष्ट्रालय सञ्जय उवाच--तं तथेति । । तरमतिहितं-प्राणप्रायश्चित्येनैवैतत् पापावमार्जनम् , भीष्मा इति तस्य शोकमपि मधुवन्निहनियतीति भावः ।।१।। मधुसूदन दयस्तु न तत्पापफलं प्राप्स्यन्त्येवेति भावः ।४४।। ८७-- तद्वाक्यमनुवदति-श्रीभगवानिति । ‘ऐश्वर्यस्य समग्र गीभू–ततः किमभूदित्यपेक्षाय स अथ यच--एवमु स्य वाच्यस्य यशयभिन: ज्ञानवैराग्ययोश्चापि षण्णां भग इती वत्वेति । संख्ये युद्ध रथोपस्थे रथपरि उपाविशत् उपविवेश । इना” इति पराशरोक्तं श्वर्यादिभिः षभिर्नित्यं विशिष्टःसमग्र पूर्व युद्ध प्रतियद्ध चिलोकनाथ चोत्थितः सन ।।५६। स्यायतत् षट्सु याज्यम् । हे अजन, इदं वधम्यमुख्यं कश्मलं अहिंस्रस्यात्मजिज्ञासा दयद्रयोपजायते । शिgनन्द्यत्वान्मलिनं कुल क्षेत्र क्षत्रिय चूडामणि समुपस्थि तद्विरुद्धस्य नैवेति प्रथमदुपधारितम् । तमभून १ विषमे युद्धसमये । न च मोक्षाय स्वर्गीय कीर्त्तये वैत इति श्रीभगवद्गीतोपनिद्भाष्ये प्रथमोऽध्यायः । युद्ध वैराग्यमित्याह --अनार्येति, अय्येनुमुक्षुभिनेजुष्ट 6, अध्यय श्रीमद्भगवद्भीता (२६ २७ श्रीमद्भगवद्गीता [२ अध्याय सेवितं--आप्र्याः खलु हृद्विशुद्धये स्वधनचरन्ति । अस्यर्थ स्योपलम्भकधर्मविरुद्धम , अकीरिकरं कीरिविलवयम । सारा०प०--अनुप्रति बध्नाति हि भ यः पूज्यपूजाठयतिक्रमः इति धर्मशास्त्रम्, अतो युद्धान्निवर्त इत्याह--कथमिति । प्रति क्लैव्य' मा स्म गमः पार्थ नैतघयुपपद्यते । थोत्स्यामि प्रतियोम्ये । नन्वेत युध्येते, ती यनयोः प्रतियोद्धा रुद्र हदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।३।। भवितु' र्वं किं न शक्नपि १ सत्थं न शक्नोम्येवेत्याह-पूजा सारथ्यः-क्लब्यं क्लीवधर्म कात ’म, हे पार्थेति यं पृथापुत्रः यिति । अनयोश्चरणेषु भक्तया कुसुमायेय दातुमर्हसि । सन्नपि गच्छसि, तस्मान्मास्म गमःमा प्राप्नुहि, अन्यस्मिन् क्षेत्र तु क्रोधेन तीक्ष्णशरानितिभावः । भो गयेय कृष्ण वमपि वधौ वरमिदमुपपद्यताम, वयि मदसौ तु नोपयुज्यते । नन्विहं शशुनेव युद्ध हसि, न तु सान्दीपनिं गुरुम्, नापि बन्धून शौर्याभावलक्षणं कव्यं मा शञ्जिष्ठाः, किन्तु भीष्मदोणदि यदूनियाह-हे मधुसूदनेति । ननु मधवो यदय एव ! तत्राः गुरुषु धर्मदृष्टया विवेकोऽयं धार्तराष्ट्रषु तु दुर्बलेषु मदस्त्रा हे अरिसूदन ? मधुर्नाम दैत्यो यस्लवारिरिति प्रति ।४।। घतमसा मर्मृशतेषु चैवेयमिति तत्राह-नुद्रमिति ग८०-ननु भीष्मदिषु प्रतियोद्ध.पु समुदाय कथं न योद्धव्यम नैते तय विवेकदये, चिन्नु शोकमोहावेय, तौ च मनसो दौर्बल्य -आहूतो न निवरॉन" इति युद्धविधानाय क्षत्रियः स्येति चेत्राह--कथमिति । भीष्मं पितामहं द्ररात विद्या व्य छको । तस्मात् हदयदौर्बल्यमिदं त्यक्त्र। उशिष्ठ हे परन्तप ? गुरु, इषुभिः कथं योत्स्ये ? यदिमौ पूजाहाँ पुष्पादिभिरभ्य, परान् शत्रुन् तापयन् युध्यस्व ॥ ३ ॥ परिहासवाभिरपि याभ्यां युद्ध' न युक्त, तया सहेषुभिस्त- गीभू०--ननु बन्धुक्षयध्यवसायदोषात् प्रकम्पितेन मया किं भाव्यमिति चेत्तत्राह--क्लब्यमिति । हे पार्थः! देवराजप्रसा कथं युध्येत ?-प्रयिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः इति स्मृतेश्च दात् पृथायामुत्पन्न ! कव्यं कातर्यं मा गमः प्राप्त हि । वथि मधुसूदनारसिनेति सम्बोधनपुनरुक्तिः-शोक विश्वविजेतरि मस्सर्वेऽने क्षत्रबन्धचिवैत दृशं व्यं नभ - कुलस्य पूर्वोत्तरानुसान्धिविरहात तद्भावश्च,–वमपि शशूनेव भीष्मादिषु युद्ध निहंसि न तूप्रसेनसाग्दीपन्यदीन् पूज्यानिति ।।४।। युज्यते । ननु न मे शंभावरूपं कौयं किन्तु पूज्ययु गुरूनहत्वा हि महानुभावान् रेण मरिस्यमु कूपेयमिति चेत्यत्राह-द्रमिति । नैते तव विवेक श्रेयो भोक्तु' भैक्ष्यमपीह लोके । तस्मा। यद्वा पे, किन्तु क्षुद्र लघिष्ठ इथतैव्यस्य मेव इत्याद्युक्षमांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ॥५॥ सारा०प०-नन्वेवं ते यदि स्वराज्येऽस्मिन् नास्ति जिघृक्षा,तर्हि कया वृत्य जीविष्य सत्यत्राह-गुरून् अहत्वा गुरुवधमकृत्य इषुभिः प्रति योरयामि पूजार्हवरिष्ठदन ।। भयं क्षत्रियैर्विगतमृषि भिक्षा प्राप्तमन्नमपि भोक्तु' भ्यः, धर्ममबुद्धया विवेकोऽयं दुर्योधनादिषु भ्रातृपु मल्छप्रह युद्धायोचिष्ठ सजीभव । है परन्तप शत्रुतापनेति-शत्रुस पात्रता मृगः ३॥ अज्जुन उवाच कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । [२अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता (२८ (२६ श्रीमद्भगवद्गीता [२ अध्याय ऐहिक-दुयशोलाभेऽपि पात्रिकममङ्गलं तु नैव स्यादिति भावः । न चैते गुरवोऽबलिप्ताः कार्याकार्यमजानन्तश्चाधार्मिकदुर्योध- नाद्यनुगतास्त्यज्या एव, यदुक्त "गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्य- मजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्व परित्यागो विधीयते ॥” इति बाच्यमित्याह,-महानुभावानिति । कालकामादयोऽपि यैर्वशी- कृतास्तेषां भीमादीनां कुतस्तदोषसम्भव इति भावः । ननु "अर्थस्य पुरुषा दासो दासत्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥” इति युधिष्ठिरं प्रति भीष्मे- बोक्तमतः साम्प्रतमर्थकामत्वादेनेषां महानुभावत्वं प्राक्तनं विगलितम् ? सत्यम्, तदप्येतान् हतवतो मम दुःखमेव स्या- दित्याह,-अर्थकामानर्थलुब्धानप्येतात् कुरून हत्वाऽहं भोगान भुञ्जीय किन्त्वेतेषां रूधिरेण प्रदिग्धान प्रलिप्तानब । अयमर्थः- एतेषामथेलुब्धत्वऽपि मद्गुरुन्वमस्त्येव, अत एवैतद्वधे सति गुरुद्रोहिणो मम खलु भागो दुष्कृतिमिश्रः स्यादिति ॥ ५ ॥ गीभू०-ननु स्वराज्य स्पृहा चेत्तव नास्ति तर्हि देहयात्रा वा कथं मत्स्यतीति चेत् तत्राह-गुरूनिति । गुरूनहत्वा गुरुवधमकृत्वा स्थितस्य मे भैक्षान्न अत्रियाणा निन्द्यपि भाक्त श्रेयः प्रशम्ततरम, ऐहिक दुयशोहेतृत्वेऽपि परलोकाविधातित्वात । नन्वत भीष्मादयो गुरवोऽपि युद्धगायलेपात् छद्मना युष्मद्राज्यापहारं युष्मद्- द्रोहच कुव्वतां दुर्योधनादीनां मसर्गेण कार्याकार्यविवेकाबर- हाच सप्रति त्याच्या एव-"गुरोरप्यबलिप्तम्य कार्याकार्यम- जानतः। उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥” इनि स्मृते- रिति चेत्तत्राह--महानुभावानिति। महान् सर्वोत्कृष्टोऽनुभावो वंदाध्ययनब्रह्मचर्यादिहेतुकः प्रभावो येषां तान् । कालकामाद- योऽपि यद्वश्याम्तयां तहोषसंबन्धो नेति भावः । ननु "अर्थस्य पुरुषो दासो दासत्वयों .. कस्यचित् । इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थन कौरवैः ॥” इति भीष्मोक्तरर्थलोभेन विक्रीतात्मनां तेषां कुतो महानुभावना ? ततो युद्ध हन्तव्यास्ते इति चेत्त- त्राह-हत्वार्थकामानिनि । अर्थकामानपि गुरून हत्वाहमिहेव लोके भोगान भुञ्जीय, न तु परलोके । तांश्च रुधिरप्रदिग्वान् तद्र धिरमिश्रानेब, न तु शुद्धान् भुञ्जोय तद्धिसया तल्लाभात् । तथा च युद्धगर्बाबलेपादिमत्त्वेऽपि तेषां मद्गुरुत्वमस्येवेति पुनगुरुग्रहणेन सूच्यते || न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुग्वे धार्तराष्ट्राः ॥६॥ माराव्य-किञ्च गुरुद्रोहे प्रवृत्तम्यापि मम जयः पराजयो वाभ- वेदित्यपि न ज्ञायत इत्याह-न चैतदिनि । तथापि नोऽस्माकं कनरत् जयपराजयोमध्ये किं बलु गरीयो ऽधिकतरं भविष्यति एतन्न विद्मः नदेव पक्षद्वयं दर्शयति-एतान् वयं जयेम, नोऽस्मान् वा एते जयेयुः इति । किञ्च जयोऽप्यस्माकं फलतः पराजय एवेन्याह-यानेवेति ॥६|| गीभू०-ननु भैक्षभोजनं क्षत्रियस्य विगर्हितं, युद्धश्च स्व- धर्म विजानन्नपि किमिदं बिभाषसे इति चेत्तत्राह-न चैत- दिति । एतद्वयं न विद्मः-भैश्मयुद्धयोर्मध्ये नोऽस्माकं कतरद्रीयः प्रशम्ततरम-हिंसा-बिरहादशं गरीयः स्वधर्मत्वायुद्ध बेति, एनञ्च न विद्मः। समारब्धे युद्ध बयं धार्तराष्ट्रान् जयेम ते बा नोऽम्मान जयेयुरिति । ननु महाविक्रमिणां धम्मिष्ठानाच भवता- मेव बिजयो भाबीति चेत्तत्राह-यानेवेति । यान् धार्तराष्ट्रान भीष्मीदीन सर्वान् । न जिजोबिषामो जीवितुमपि नेच्छामः कि पुनर्भोगान् भोक्त मित्यर्थः । तथा च विजयोऽप्यस्माकं फलतः परापृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२० पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२१ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२२ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२३ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२४ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२५ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२६ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२७ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३० पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३१ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३२ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३३ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३४ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३५ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३६ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३७ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/३९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/४० श्रीमद्भगघीत् [ २ अध्याय (७३ श्रीमद्भगवद्भीतर २ अध्याय भाष्यते आत्मनि प्रत्याहते मनसि भासमानेन स्वप्रकाशानन्दरूपेणमना। धर्यस्य तस्य समाधिस्थस्य का भाषा किं लक्षणाम ? ऽनयेतिव्युत्पत्तेः, केन लक्षणेन स्थितप्रज्ञोऽभिधीयत इत्यर्थः । । स्वरूप तुष्टः परतः द्वषयाभिलाषान् संत्यज्यात्मानन्दा तथा व्युस्थिनः स्थितप्रज्ञः कथं भाषणादीनि कुर्यात् ? तदी रामः समाधिस्थः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः । ‘ आत्मा पुसि स्वभावे sपि प्रयत्नमनसोरपि । धृतावपि मनीषायां शरीरे प्रहाणरवीत यानि तानि पृथग्जनयिलक्षणनि कीदृशानीत्यर्थः । तत्र कि प्रभा मेदिनीकारः पैत १ स्वधैः स्तुतिनिन्दयोः स्नेहद्वषयोश्च प्राप्तयोमुखतः स्वगतं । प्रदं चत्र जीवेश्वरान्यतर प्रgाम ॥ ५५ ॥ वा कि म यत ? किममीत बाह्यविषयेषु कथमिन्द्रियाणां निपी। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । न १ जेत किम ? किं तन्निप्रहाभावे च यथं विषयानया वीतरागभयक्रोधः स्थितधीषु निरुच्यते ॥५६॥ प्नुयादित्यर्थः त्रिषु सभामचनायां लिट् ।। ५४ माराव०--किं प्रभाषेतल्यस्य उत्तरमाह--दुःखेषु सुपि श्रीभगवानुवाच-- वासा-ज्वरशिरोरोगविध्यात्मिकेषु सर्पव्याघ्र त्थितेष्वा प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । धिभौतिकेष्वति वातवृष्टद्य त्थितेवाधिदैविकपूपस्थितेष्वनुद्विग्न आत्मन्यात्मना तुष्ट ।।५५। स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते मनाः प्रारब्धं दुःखमिदं मयाऽपश्यं भोक्तव्यमिति स्वगतं केनचित्। सराव--- चतुर्ण प्रश्नानां क्रमेणेतरमाह--प्रजहातीति पृष्टः सन् स्पष्ट प्र यन् , न दुःखेपूद्विजत इत्यर्थः । तादृश तस्य सर्वानिति कस्मिन्नप्यर्थे यस्य किञ्चिन। मुखबिक्रियाभाव एवानुद्गलिङ्ग सुधिया गयम् , कृत्रिमनुद्ध यवदध्यायसमाप्त गहि इवांस्तु कपटी--सुधिया परिचितो भ्रष्ट एवोच्यत इति श्रोऽपि नाभिलाष इत्यर्थः । मनोगत निति कामानामनामधर्म भावः । एव सुखेष्वप्युपस्थितेषु विगतस्पृह इत प्रारब्धमिद त्वेन परित्यागे योग्यता दर्शितः । यदि ते हारमधर्माः स्युस्तदा। तांस्त्यक्तमशक्येरन् वह रोय बदिति भावः तत्र हेतुः-आत्मनि अवश्यभोग्यमिति स्पष्ट स्वगतं अ बाणभ्य सुखस्पृहा दस्य राहित्यलिङ्ग सुधिया गम्यमेवेति तत्तल्लिङ्गमेव स्पष्टीकृत्य | भावः । प्रत्याहृते मनसि प्राप्तो य आत्मानन्दरूपस्तेन तुष्टः। तथा च दर्शयति--यतो बिगतो रागोऽनुरागः सुखेषु, बीतं भयं स्वभो अति--यद सबै प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः । तभ्यो व्याघ्रादिभ्यो बतः कोधः वहन्तृषु बन्धुजनेषु यस्य अथ मयाऽमृत भबयत्र न समश्नुत ॥" इति ॥५५ ॥ खः। यथैवादि-भर तस्य देव्याः पार्श्व प्रापितस्य स्वच्छेदनिकी गभू-एवं पृषे क्रमेण चतुर्णामुत्तरमाह यवह भगवान ध्यायपूर तत्र प्रथमस्याह प्रजहत्येकेन । हे पथं यदा पैङ्घलराजान्न भयम् , नापि तत्र क्रोधोऽभूदिति ।५६। मनोगतन मनसि स्थितान् कामान् मर्यान् प्रजहाति संयजति गंभू-व्युत्थितः स्थितप्रज्ञः भाषेतेयस्योत्तर -अथ किं द स्थितप्रज्ञ उच्यते । कामनां मनोधर्मान् परित्यागो युक्तः मह दुःखेष्विति द्वाभ्याम त्रिविधेष्वध्यात्मिकादिषु दुःखयु समुत्थितेषु सत्सु अनुद्विग्नमनाः प्रारब्धफलान्यमुनि मयावश्य आश्मर्भवे दुःशक यः स स्याद्दयुष्णतदनभि वेतिभायः । भत व्यानीति केनचित् पृष्टः स्वगतं वा मु बन् तेभ्यो नोद्विजत ननु शुष्५.न वयं तिष्ठतीति क्षेत्रह- आमन्थयति । श्रीमद्भगवद्गीता २थाय] यदनि इन्द्रिया अध्याथ ] श्रीमद्भगवद्भीता ७४) ७५) इत्यर्थः। सुखेषु चोत्समाहारसकारादिना समुपस्थितेषु विगत स्पृहतृष्णाशून्यः प्रारब्धाकृष्टान्यमुनि मथावश्यं भोक्तव्यानीति केनचित पृष्टः स्वगतं वा व्र वन तैरुपस्थितैः प्रहृष्टमुखो न भवतीत्यर्थः । बीतेति-ठत तरागः कमनीयेषु प्रीतिशून्यः मतभयः विषयापहतं पु प्राप्तेषु दुर्बलस्य ममैननि धर्भ भवद्भिर्हियन्त इति वैश्यशून्यः , वतक्रोधः तेष्वेव प्रबलस्य ममैतानि तुच्छभत्र कथमपहरव्यानीति क्रोधशन्यश्च । एवम्विधो मुनिरारममननशीलः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः । इत्थं चानु- भवं परान. प्रति स्वगतं वा बदन्ननुद्ध गो निस्पृहतादिवचः प्रभाः षते इत्युचरम् ५६ राह यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । न्द्रियाणि अत्रद नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७ आंतष्ठतेत्यन्वयः सारा०व०--अनभिस्नेहः सोपाधिस्नेहशन् दयालुर्वनि रुपाधिरौषन्मात्रस्नेहस्तु तिष्ठ देव । नतत्प्रसङ्ग सम्मान-भोजना दिभ्यः स्वपरिचरणं शुभं प्राप्याशुभसनादरणं मुष्टिप्रहारादिकञ्च प्राप्य क्रमणं नाभिनन्दति, न प्रशमनि -चं धम्मिकः परम हंस-सेवी सुखी भवेति न न ते, न च gि च पपाम नरक मराव० पते ति नाभिशपति, तस्य प्रश्न प्रतिष्ठिना -समधिं प्रति स्थिता, सुग्थतप्रज्ञ उच्यत इत्यर्थः ॥५॥ ग८७य इति सर्वेषु प्राणिषु अनभिस्नेह औपाधिकस्नेहशून्यः। इत्यर्थः काकणकस्यान्निरूपाधिरोपितनेह स्वध्येय । तरात् प्रसिद्ध शुभ मुखमभजनस्त्रज्ञ चन्द नार्पणरूपं प्राप्य नाभिनन्दति तदपेकं प्रति धर्मिष्ठस्त्वं चिर जीवति न वदति । अशुभमपमानं यष्टिप्रहार दिक प्राप्य न दृष्टि, पापिष्ठस्त्वं प्रियश्चेति नाभिशयति । तस्य प्रकृति--स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः स अत्र स्तुतिनिन्द-रूपं बच ने भाषत इति व्यतिरेकण तलक्षणम ॥ ५७॥ यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ १८! मारव्यकिमनेययोररमाह थेभ्यः शब्दादिभ्य इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि संहरते। स्वाधीना नामिन्द्रियाणां यहाविषयेषु चलनं निधिध्यान्तव निश्चलतया थपन स्थितप्रज्ञस्य मनमित्यर्थः तत्र दृष्टान्त -कृमlऽङ्गानि मुख नेत्रादीनि यथा स्यान्तरेव स्वेच्छया स्थापयति । ०८- अथ किमासीतेत्यस्योत्रं यदेत्यादिभिः षभि अयं योगं यदा चेन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिभ्यः प्रार्थनानी यनायासेन संहति समाय पात तद। तस्य प्रज्ञा अत्र दृष्टान्तः कूर्मोऽङ्गानीवेति । मुख्य वरे चरण न यथानायासेन से.मठः संहरति तत् विषयेभ्यः समाकृष्टे निद्रयनामन्तःस्थापनं स्थितप्रज्ञस्यसनम ॥ ५८ ॥ विपया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।५६।। - -ननु पवासतो रोगादि-वशाद् द्रियाणां । बिषयेष्यचलनं समवेत्राह--विषय इति । रसय २ म रागोऽभिलापस्तं वर्जयिवा--भिलाषस्तु विषयेषु न निवर्तत । अस्य स्थितप्रज्ञस्य तु परं परमात्मानं इgा थिषयेय भिलाषो नयीत इति न लक्षणव्यभिचरः । आम साक्ष समर्थस्य तु साधयत्यमेव, न तु मित्र्यमिति भावः ।। ग८८-ननु मूढश्यामयप्रतय विषयेष्विन्द्रियाप्रवृत्ति डg तत कथमेतन्न श्थितप्रज्ञस्य लक्षणं तत्राह विषय इति । निराहारस्थ रोगभयाद्भोजनार्दययुर्यतो मृडयापि देहन जनस्थ विषयारतदनुभया वि नियन्ते । वि तु रमो रागतृष्ण तद्वज यज्ञ २ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ०६) २ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ७७ विषयतृण। तु न निवर्तत इत्यर्थः । अस्य स्थितप्रज्ञस्य तु गीमू- -ननु निजितेन्द्रियाणामप्यमानुभवो न प्रतीत रसोऽपि विषयरागोऽपि विषयेभ्यः परं स्वप्रकाशानन्दमात्मानं स्तत्र कोऽभ्युपाय इति चेन्रात्राह । तानि सर्वाणि संयम्य हgनुभूय निघते विनश्यतीति सराग-विषय-निवृत्तिस्तस्य मत्परो मन्निष्ठः सन युक्तः कृतात्म समाधिशासीत तिष्टेत । लक्षणमिति न व्यभिचारः ।। ५६ ॥ मद्भक्तप्रभावन सर्वेन्द्रियविजयपूर्विका स्थुर्महद्भिः सुलभेति भव एवं स्मरन्ति यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । यथाच्चेिष्मानुद्ध शिवकर्तुं दुहनि मानिनः। तथा चित्रास्थितो विष्णुर्योगिनां सर्वकिल्विषमित्यादि । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।६०। वशे ति स्पष्टम । इत्थं च वशीकृतेन्द्रियतयावस्थितिः किमासी सारा०प० -साधकावस्थायान्तु यस्न एव महान , न स्विन्द्रि तेत्यस्यो तर मुक्तम् ।। ६१ ।। याणि पराबरयितु सर्वथा शक्तिरित्याह--यतत इति । प्रम। ध्यायतो विषयान्पुसः सङ्गस्तेषुपजायते । थीनि प्रमथनशीलानि लोभकराणीत्यर्थः ॥६०॥ सङ्गसंजायते कामः कामान्क्रोधोऽभिजायते ग८०-अथास्या ज्ञाननिष्ठया दौर्लभ्यमाह यनत हीति । क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृमिविग्नभः। विपश्चितो विषयात्मस्वरूपविवेकस्य तत इन्द्रियजये प्रयत भानस्यापि पुरूषभ्य इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि चतुणि मनः प्रसभं स्मृतिभ्रशत्रुद्धिनाशो बुद्धिनाशस्प्रणश्यति ॥६३॥ बलादिव हरन्ति । हृत्वा विपय-प्रवणं कुर्वन्तीत्यर्थः । न सराव०--स्थितप्रज्ञस्य मनोवशीकर एव यत्र द्रिय विरोधिनि विवेकज्ञाने स्थिते कथं हरन्ति तत्राह प्रमाथीनीति वशीकारकारणं सर्वथा मनोवशीकाराभावे तु यत् स्यात् अति यलटुवराज्ञानोपमर्दनक्षमणीत्यर्थ । तस्मात चौरेभ्यो । अण्वित्याह--ध्यायत इति सङ्ग , आमतया च तेष्व महानिधेरिवेन्द्रियेभ्यो ज्ञाननिष्ठायाः संरक्षणं तप्रज्ञस्यासन स्तित धिकः कामोऽभिलषःकामा न केनचित् प्रतिहतत् क्रधः ॥६२॥ मिति ॥६ मराठीव० --क्रोधात् संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावः तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । तमाय शोपदिष्टार्थस्य स्मृतिनाशःतस्म । बुद्धः सद्वयव वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६१॥ साथस्य नाशःततः प्रणश्यति’ संसार-कूपे पतति । सारा०व०--मत्परो मद्भक्त इति, शक्ति बिना नैवेन्द्रियजय गीभू०–विजितेन्द्रयस्यापि मय्यनिवेशितमनसः पुनरन यी दुब्वार इत्याह--ध्यायत इति द्वाभ्याम । विषयन् शब्दादीन इत्यभिप्रन्थेऽपि सर्वत्र द्रष्टव्यम् , यदुक्तमुद्धवन --प्रायश सुखहेतुत्वबुद्धय ध्यायतः पुनः पुनश्चिन्तयतो योगिनस्तेषु सङ्ग पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः बिजुदस्थसमाधानामतो आसक्तिर्भवति स इद्ध तस्तेषु कामीण जायते । निप्रकशिताः । अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं, हंसः अयेन केनचित् प्रतिहताः क्रोधः चिरायतत प्रतिघातयो भवति ॥२६॥ इति । वशे हीति स्थितप्रज्ञस्येन्द्रियाणि वशाभूतानि भवन्तीति सधकद्विशष उक्तः ।६१।। ८ श्रीमद्भगवद्गीता २ अध्याय (७६ श्रीमद्भगवद्गीता २ अध्याय ] ग८०-धात् सम्मोहः कार्याकार्यविवेकविज्ञानविलो सन्धेर्विभ्रमो यः, संशोहान् मृतेरिन्द्रियविजयादिप्रयत्नानु । प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरयोपजायते । विभ्रशःमृत-भ्शाद् वृद्ध रामनाथ कस्याध्यवसायस्थ प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥६५॥ नाशः द्विनाशान प्रणश्यति’ पुनर्विषयभोगनिमग्नो भवति संमतीत्यर्थः मदनाश्रय । दुर्बलं मनतानि बिषय्यंजन सारा०व०--बुद्धिः पर्यवतिष्ठते सर्वतोभावेन स्वाभीष्ट यन्तीति भावः । तथा च मनो विजिगीषुण मदुपासनं विधे स्थिरभयतति विषयप्रहार्थाचदपि समुचित विषयहरू यम् ६३ तस्य सुखमिति भावः । प्रसन्नचेतस इति चिरप्रसादो भवथै वांत ज्ञेयम् , तथा बिन तु न चिरप्रसाद इति प्रथमस्कन्ध एव रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयनिन्द्रियैश्चरन् । प्रपतितम् कृत वेदान्तशाखस्यापि यसम्प्रसचिरम् अ आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥६४॥ नारदोपदिष्टया भक्त्यैव चिरप्रसादः ॥६॥ मी०७-प्रसादे सति किं स्यादित्याह-अस्य योगिनं मनः । माराध्य७--मानसविपथग्रहणभवे सति यवश्यैरिन्द्रियै प्रसादे सति सर्वेषां प्रतिसंसर्गकृतनां दुःखानां हानिरूपजायते । विषयग्रहणेऽपि न दोष इति बदन स्थितप्रज्ञा प्रजेत किमित्य प्रसन्नचेत स: स्वस्मयाथम्यविषया बुद्धिः पर्यवतिष्ठते स्थिरा रमाह--रागेति । विधेयो वचनस्थित असा मनो यस्य भवति ।। ६४ ।। सः विधेयो विनयप्राह वचनेस्थित आश्रयः। वश्यः प्राय निभृतविनीतप्रश्रिताः सम इत्यमरः । प्रसादमधिगच्छतीत्ये नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । दृशस्याधिकारिणो बिषयप्रहणमपि न दोष इति किं यतव्यस १ न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।६६।। प्रत्युत गुण एवेति । स्थितप्रज्ञस्य विषयस्य रागस्वंतरावेव अस सारा०ब०--उक्तमर्थं ध्यातरवमुखेन द्रढयति--नास्तीति । नजजने ते उभे अपि तस्य भद्र इति भावः ॥६४॥ अयुक्तस्यावशीकृतमनसो बुद्धिरात्मविषयिणी प्रज्ञा नास्त्ययुक्तस्य ग८७--मनसि निजिते श्रोत्रादिनिधयभावोऽपि न दोष तादृशप्रज्ञा-रहितस्य भावना परमेश्वरध्यानचाभावयतोऽकृतव्या । इति भवन प्रजेत किमित्यस्योत्तरमाह -रागेत्यादिभिरष्टभिः तस्य शान्तिर्विषयोपराभो नास्त्यशात स्थ सुखं आत्मानन्दो न ॥६६॥ विजिता हि रिन्द्रियोऽपि मदनर्पितमनः परमद्याद्विच्युत इत्युक्तम् । गभूपृक्तमर्थं व्यतिरेकमुखेनाह-अयुक्तस्यायोगिनो यो विधेयात्मा स्वाधीनमना मदर्पितमनास्तत एव निदधराग भनिवेशितमनसो बुद्धिरुत्त लक्षण नास्ति न भवति । अत एव दिमनोमलः स यमभटैमन5धनैरत एव रागद्वधा घथ्य । नस्य भावना ताडगमचिन्तापि नास्ति । तादृशमात्मानम : वियुक्तैरिन्द्रियैः श्रोत्राद्यौर्विषयान् निषिद्धान शब्दादींश्चरन भावयतः शान्तिर्विषयतृणनिवृनिस्त । अशान्तस्य तत् भुञ्जानोऽपि प्रसहं विषयासक्तःशुद् िमलानागमाद्विमलमनम्त तृणकुलस्य सुखं स्वप्रकाशानन्दमनुभवलक्षणं कुदः स्यात् ।६६ मधिगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः । ६४ ॥ २ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ८१) श्रीमद्भगवद्गीता इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । [२ अध्याय इत्याह-येति । बुद्धि हिं द्विविधा भवति- आत्मप्रयण विषयप्रवण तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥६७ च । तत्र य आत्मप्रवण बुद्धिः, स सर्वभूतानां निशा, निशायां तस्म।द्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । कि कि स्यादिति तस्य स्वपन्त जना यथा न जानन्ति, तथैव। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥ प्रवणबुद्धौ प्राप्यमाणं बग्तु सञ्चभूतानि न जानन्ति । किन्तु तस्यां संयमी स्थितप्रज्ञो जगति, न तु स्वपिति ; अत आत्मबुद्धि सराव०--अयुक्तस्य बुद्धिनाम्तीयुपपादयति--इन्द्रियाणां निमनन्दं स्वस्वविषयेषु चरतां मध्ये यन्मन एकमिन्द्रियमनुबिधीयते, पुरा। साक्षादनुभवति । यम् विषयप्रयणाय बुद्धौ भूतानि जाप्रति, तन्निष्ठ ' विषयमुखशोकमोहादिकं साक्षादनुभवति, न तु सर्वेन्द्रियानुबरिः क्रियते, तदेव मनोऽस्य प्रज्ञां बुद्धि इति, तत्र स्वपन्ति सा मुनेः स्थितप्रज्ञस्य निशा • तन्निष्ठ किमपि नानु यथाम्भभि नयमन नावं प्रतिकूलो वायुः ॥६॥ भवतीत्यर्थः । विन्तु पश्यतः सांसारिणां सखदुःखप्रदान विष सारा०व०--यथ निगृहीतमनसः, हे गहाबाहो ! इति यथा। न तत्रौदासीन्येनावलोकयतः स्वभोग्यान यथोचितं निर्देq शभृन् निगृहासि, तथा मनाऽपि निगृहाणेति भावः ।।६८। मादनस्येत्यर्थः ।।१६। गी०७-मन्निवेशितमनस्कतयेन्द्रियनियमनाभदोष भू–धकवस्थस्य स्थितप्रज्ञस्येन्द्रियसंयमः प्रयन माह--इन्द्रियाणामिति । विषयेषु चरतामविजितानामिन्द्रियाणां साध्य इत्युक्तम् । सिद्धवस्थम् तु तस्य तन्नियमः स्वाभाविक मध्ये यदेकं श्रोत्रं वा चतुनुतधृत्य मनो विधीयते प्रवर्यते इत्याह-या निशेति । विविक्तमनिष्ठा विषयनिष्ठा चेति बुद्धिर्हिचि तदेवमेवेन्द्रियं मनमनुगतमस्य प्रवर्चकस्य प्रज्ञां विविक्तम धा। यात्मनिष्ठ बुद्धिः सर्वभूतानां निशाचरूपकेषमत्र व्यज्यते विषय पनथनि मनसस्तद्विपाकृष्टत्वात् सर्वाणि । कि पुनः रात्रितुल्य तद्वप्रकाशिका । रात्राविवात्मनिष्ठयां बुद्धौ स्थपतो तानीति । प्रतियुलो वायुर्यथासि नीयमानां नावं तद्वत ॥६७ जनम्न लभ्यममान सर्वे नानुभवन्तीत्यर्थः। संयमी जितेन्द्रि- ग८०-तस्मादिति । यस्य मन्निष्ठमनसः प्रतिष्ठितात्म यस्तु तस्य जागत्ति न तु स्वपिति तया लभ्यमानमानमनु निष्ठा भवत । हे महाबाहो इति-यथा रिपून्निगृहासि तथेन्द्रि । भवतीत्यर्थः यस्यां विषयनिष्ठायां बुद्धौ भूतानि जाप्रति विषयभो थाण निगृहाणेत्यर्थः । एभिः श्लोकैर्भगवन्निविष्टतयेन्द्रियविजयः गननुभवन्ति न तु तत्र स्वपन्ति सा मुनेः स्थितप्रज्ञस्य निशा । स्थितप्रज्ञस्थ सिद्धस्य स्वाभाविकः । साधकस्य तु साधनभूत तस्य । विषयभोगप्रकाशिकेत्यर्थः। कीदृशस्येत्याह । इति वाच्यम् ।। ६८ ।। पश्यत इति आत्मानं साक्षादनुभयतः प्रारब्धाकृष्टन विषयानयौदासीन्येन या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । भुवनस्य चस्यथः । नरकमृद्घटावधानन्यायेनारा हटने तम्यरसप्रह इति भावः ॥ ६६ ॥ यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥६४॥ सराव-- स्थितप्रज्ञस्य तु वतःसिद्ध एव सर्वेन्द्रियनिग्रह आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । [२ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ८२) (८३ श्रीमद्भगवद्गीता [२ अध्याय विहाय शरीरोपजीवनमात्रेऽपि निर्ममो ममताशून्यः निरहङ्करो ऽनात्मनि शरीर आत्माभिमानशून्यश्चरति तदुपजीवनमात्रं भक्ष यति यत्र कापि गच्छति वा स शान्ति लभते इति प्रजेन किमित्यस्योत्तरम ।। ७१ ।। एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुञ्चति । स्थित्वा स्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७१॥ इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां भीष्म पर्वणि श्रीमद्भगवद्भीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥७०॥ सारा०व०-विपथग्रहणे शुभराहित्यमेव निलं पतेत्याह अपूप्यमाणमिति । यथा बस्वतस्त स नादेय आपः समुद्र प्रविशति, कोहशम १ आ-ईषदपि आपूर्यमणं तायतीभ रथद्भिः पूरयतु ’ न शक्यम् । अचलप्रतिष्ठमनतिक्रान्तमर्यादें तद्वदेव काम। विषय यं प्रविशन्ति भोग्येवेन यान्ति । यथा अपा प्रवेशे अप्रवेशे वा समुद्रो न कमपि विशेषमपद्यते, एवमेव यथ कामानां भोगे अभोगेच ओभरहित एव स्यात् स स्थितप्रज्ञः शाति ज्ञानम् ।७०।। ग८७-३क्त भावं स्फुटयन्नाह आपूर्येति । स्वरूप . बापूर्यमाणं तथा चलप्रतिष्ठमनुल डिघ तवलं समुद्र' यथापोऽन्या वर्षेद्विवाः नद्यः प्रविशन्ति न तु तत्र किञ्चिद्विशेषं शक्नुवन्ति करें, तद्वत सर्वे कामाः प्रारब्धकृष्ट विषया यं प्रविशन्ति न तु विचक,नै प्रभवन्ति स शान्तिमाप्नोति । शब्दादिषु तदिन्द्रियः गोचरेष्वपि सन स्वात्मानन्दानुभव तृप्ततैर्विकारलेशमव्ययम्। स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः । यः कामकामी विषयलिप्सुः स तूक्तलक्षण शन्ति नाप्नोति ॥ । ७: ।। आरा-ब०-उपसंहरति--एषेति । ब्राह ब्रह्मप्रापिक, अन्त काले मृत्युसमयेऽपि, किं पुनराबल्यम् ॥७२॥ हान कम च पस्पष्टमस्पष्ट भेकमुक्तवान् । अनएवायमध्यायः श्रीगीत।सूत्रमुच्यते। इन सारार्थबपिण्यां हर्षिण्यां भक्तचेतसाम् । श्रीगीतासु द्वितीयोऽयं सङ्गतः सङ्गमः सताम् । विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥७१॥ गीभू-स्थितप्रज्ञनां स्तौति एषेति--न अप्रति । अन्तकाले चरमे वयसि कि पुनरयभारं ब्रह्म ऋछति लभते । निर्वाणममृतरूपं तत प्रदमित्यर्थः । ननु तस्यां स्थितः कथं अत्र प्रमोनि, तत्प्राप्तस्तद्भक्तिहेतुकत्वादिति चेदुच्यते । तस्यास्त कहतुवालूकहतुर्वच तत्प्रापकतात ॥ ७२ ॥ निष्कामकर्मभिननी हरिमेव स्मरन् भवेत् । अन्यथा विघ्न एवेति द्वितीयोऽध्यायनिर्णयः । इति श्रीमद्भगवन्तोपनिषद्भाष्ये द्वितीयोऽध्यायः ।।२।। सप्तरात्रः करा मेष्वनिश्वसन् नैव न न भुडत इयाह-विहायेति । निरहङ्कारो निर्मम इति देहदैहिकेष्वहंतो- मम न- गंभू-विहायेति-प्राप्तमपि कामान् विषयान् सव्यम् [३ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ( ८५ तृतियोऽध्यायः अजुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१॥ मार०व०-निष्काममपतं च. में तृतीये तु प्रपत्रयते । प्रत कामक्रोध-जिगीषाय बिबेकोऽपि प्रदर्शयेते । (१) मागध्व९--पूत्र्यंबक्येषु ज्ञानयोगनिष्कामकर्मयोगश्च निधौ गुण्यप्रापकस्य गुणतंतभक्तियोगस्यत्कर्षमाकलय्य तत्रैव सुक्यमभिव्यञ्जयन स्वधमें संग्रामे प्रवरके भगवन्तं सख्य भावेनोपालभते, ज्यायसी श्रेष्ठ बुद्धव्यबसायात्मिका गुणातीत भक्तरित्यर्थः घोरे युद्धरूपे कर्माणि किं नियोजयसि प्रवी यसि १ हे जनार्दन !-जनन स्थजनान घालय ड़ियसीत्यर्थः। नवादा केनाप्यन्यथा की शक्यत इत्याह--हे केशव ! को ब्रह्म, शैश महदेवः, तदपि वयसे बश्करोषि ॥१ ग८०तृतीये कर्मनिष्कामं विस्तरेणापवर्णितम् । कामादेर्विजयोपायो दुर्जयस्यापि दर्शित । गभू-पृचैत्र कृपालुः पाथसारथग्ज्ञानद मानमग्न जगत् स्वात्मज्ञानोपासनपदेशेन समुद्धिषुस्तदङ्गभूनां जी यात्मयाथात्म्यबुद्धमुपदिश्य तदुपायतया निष्कामकमबुद्धिमुप दिष्टवान् । अयमेवार्थं विनिश्चयाय चतुर्भिरध्यै र्विधत २वप्यत । तत्र कर्म-वृद्धिनिष्पाद्ययन्त्रात्मबुद्धः औषु स्थितम् । तत्राज्जु ' नः पृच्छमि ययसlत । कमण निष्कमदषि च तत्साध्यवान जीवात्मबुद्धज्यायसी चेष्टा मता। तडि नन सिद्धये आ घोरे हिंसाद्यनेकायसे कर्मणि कि नियंजयसि तस्माद द्धस्वेत्यादिना कथं प्रेरयसि । आत्मानुभवहतुभूता खलु सा । । चद्धिर्निखिलेन्द्रियव्यापारविरति सध्ध तदर्थं तत्स्वजातयः शमा दय एव युज्येरन्न तु सर्वेन्द्रियव्यापाररूपाति तद्विजातीयाणि कमndति भावः। हे जनादं न भ योऽर्थिजनयचनीय , हे केशव विधिरुद्रयशकारिन् । क इति ब्रह्मण नाम ईशोऽहं सर्वदेहिनाम् । आवां नबाझ्सग्भूतौ –तर्मति केशवनामभागिति हरिवंशे कृष्णं रुद्रोक्तेः। इल डध्यज्ञस्त्वं भ योऽर्थिना मयाभ्यथितो मम। श्रेयो निश्चित्य त्र इति भावः ।। १ ।। व्यामिश्रे व बायेन बुद्धि मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमानुयाम् ॥२॥ साराव०--भो बयस्य अर्जुन ! सत्यं गुणीत भक्तिः सव्यकृणैव, किन्तु सा यादृच्छिक-पदैछन्तिक-महाभ तस्याः पुरुषाद्यमसाध्य न भवत । अतएव निस्त्र गुण्यो भव गुणातीतथा मद्भक्तया वं निस्त्रैगुण्यो भूय इत्याशीठबंद एव दत्तः । स च यदा कतिध्यति, तदा तादृश--यादृच्छिकैकान्तिक-भक्तकृपया प्राप्तमपि लक्ष्यसे । साम्प्रतन्तु 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' इति मयोक्तमेवेति चेन नहि कश्में व निश्चित्य यथं न ब्रषे | किमिति सन्देहसिन्धौ मां द्विपसंत्याह-व्यामिश्र णेति । विशेषतः । सयन या मिश्रण नानाविधार्थमिलनं यत्र तेन वाक्येन से बुद् िमोहयसि । तथा हि कर्मण्येवाधिकारस्ते’ सिद्धयसिद्धयः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते । बुद्धियुक्तो जहातीह उभे 5तत । तस्मागाय युज्यस्य यागः कर्मसु काशलम् । इति योग-शब्दवाच्यं ज्ञानमपि ब्रवीषि । ‘यदा ते मोहकलिलम इत्यनेन ज्ञानं केवलमपि ब्रवीषि । किञ्चात्रेय-शब्देन च - सग्रम ७ २ अध्याय] ८६) श्रीमद्भगवद्गीता ६ अध्याय श्रीमद्भगवद्भीत क्यस्य वस्तुनो नास्ति नानार्थमिश्रितत्वम्, नापि कृपालो तब मन्मोहनेच्छ, नापि मम तादर्थानभिज्ञत्वम किन्तु स्पष्टीकृत्यैव याये कथिता । तामेवाह-सांख्यानां सांख्यं ज्ञानं तद्वताम, तेषां तव कथनमुचितमिति भावः । अयं गूढोऽभिप्रायः--राजसान् शुद्धान्तःकरणत्वेन ज्ञानभूमि कामधिरूढ़नां ज्ञानयोगेन निष्ठा, कर्मणः सकाशान माचिकं कर्म श्रेष्ठम् , तस्मादपि । तेनैव मर्यादा स्थापित । अत्र लोके ते ज्ञानिवेनैव ख्यापित अष्ठम् , तथा सायकमव । निगुणभक्तश्च तस्मादति-श्र स्रव । इयथ :-‘तानि सव्वणि संयम्य युक्त आधान मपरः इत्या तत्र सा यदि मयि न सम्भवति जपे, त माविकं ज्ञान दिना । तथा शुद्धान्तःकरणस्याभावेन ज्ञानभूमिकामधिरोह मेवैकं मामुपदिश । तत एव दुःरवयात संसारबन्धनान्मुक्तो समर्थानां योगिनां तट रोहणार्थमुपायचतां कर्मयोगेन मदर्पित निष्कामकर्मेण निष्ठा मय्यद स्थापित ; ते खलु कस्मािस्वेनैव भवेयमिति । ख्यापितेत्यर्थः गीभू -व्यामिश्रेणेति--सांख्यबुद्धियोगबुद्वयोरिन्द्रियनि धद्धि युद्ध भयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते’ इत्यादिना । तेन 'कमिणः ज्ञानिनः इति नाममात्रेणैव घुरूपयाः साध्यसाधनत्ववराध यद्वकथ तद्वयामिश्रमु बौविध्यम् । वस्तुतस्तु कर्मिमण एव कश्मभिः शुद्धचिरा ज्ञानिन कथन । तन मे बुद्धि मोहयसीव । वस्तुतस्तु सर्वेश्वरस्य मन्स भवन्ति ; ज्ञानिन एव भक्तया मुच्यन्त इति मद्वाक्यसमुदा- खस्य च त मनमोहकता नास्येव । मद्बुद्धिदोषादेवं प्रत्येम्यः यार्थ इति भावः ।।३।। इमि तव शब्दार्थ तस्मादेकमव्यामिश्र वाक्य व क. मेण न प्रजया धनन त्यागेनैकेनामृतत्वमानशुनस्यकृतः भू-एवं पृष्टो भगवानुवाच लोकेऽस्मिन्निति । हे अगघ निर्मलबुदं पार्थ ज्यायसी चेदिति कर्मबुद्धिसाङ्ख्यबुद्धयो ण कृतेनेति अतियन् । येनाहमनुष्ठेयं निश्चित्यात्मनः श्रेय प्रधानभच नन्नपितमतेजसोरठ बिकद्वयोस्तयोः कथ प्रप्र या म ।। २ ।। मेकाधिकारित्वमिति शङ्कया प्रेरितः पृच्छसीति भावः । अस्मिन् श्रीभगवानुब। च सुमुखतयाभिमते शुद्धाशुद्धचित्तया द्विविधं लोके जने द्वित्रिधा। लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। निष्ठा स्थितिर्मया सर्वेश्वरेण पुरा पूर्वाध्याये प्रोक्ता । निष्ठे- ज्ञानयागन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।। येकवचनेन एकारभोदश्यत्वादेकैव निष्ठा साध्यसाधनदशाद्य मरा०१ --अत्रोत्तरम्--यदि मया परस्परनिरपेक्षावेव भेदेन द्विप्रकारा न तु वे निष्ठे इति सूच्यते । एवमेवाएं वक्ष्यति-एकं मण्यं च योगं चेत्यादि मोक्षसाधनत्वन कम यागदानयगावुक्तं स्यातम् । तदा तदेकं ता निष्ठां विध्येन गद निश्चिस्येति यप्रश्न घटते । मय तु कर्मेनिgशननिष्ठा दर्शयति झनेति । सांख्यज्ञानं अर्ह आद्यच तत ज्ञानिनां वस्वेन यद्द्वविध्यमुक्तम् , तत् खलु पूर्वोचर दशाभेददेव, न तु ज्ञानयोगेन निश्वस्थितिरुक्ता प्रजहाति यदा कामानेित्यादिना । चतुन मोक्ष प्रत्यधिकारिठ्धमित्याहलोके इति द्वाभ्याम् । विधि इनमेष योगो युज्यते आत्ममानेनेतिअस्पत्रोः । योगिनां निष्काम था द्विप्रकार निष्ठ नितरां स्थितिमर्यादेत्यर्थः । पुरा प्रोक्ता पूर्वी कर्मवतां कर्मयोगेन नि8 स्थिति रक्ताका कर्मण्येवाधिकारस्त इत्य दिना । कर्म च योगो युज्यते ज्ञानगर्भथा चित्तशुद्धयनेनेति ३ अध्याय] ८८ ८६ ) ३अध्याय श्रीमद्गीता श्रीमद्भगवद्ीना स्वभाबोद्धवैगुणैः , काव्यते प्रगर्यते अयशः रागद्वपदिभिः पुत्पत्तः । एतदुक्त ' भवति--न खलु मुमुक्षुर्जनस्तदैव शमा पराधीनः सन ।। ५ ।। वज्ञिकां ज्ञाननिष्ठां लभते । किन्तु सा।चारेण कर्मयोगेन चित्र मालिन्यं निर्धायैवेत्येन देव मया प्रागभाणि ‘एषा तेऽभिहिता कमेंन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। सांख्य" इत्यादिना । ततो न किञ्जिद्वयमिश्रणमति । ३ इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥ न कमणामनारम्भान् कम् पुरुIऽश्नुत । सार०व०-ननु तादृशोऽपि सन्न्यासं कश्चिन् , कश्चिदि- न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।४।। न्द्रियव्यापारशुश्यं मुद्रितश्च दृश्यते ? - तत्राहकर्मेन्द्रियाणि, बाकपाएयादीनि निगृह्य य मनसा ध्यानच्छलेन विषयान स्मर मरा०व०-चित्तशुद्धयभाव ज्ञानानुत्पात्रमlहनत । मते, स मिथाचरो दाम्भिकः ।।६।। शास्त्रीयकर्मणामनारम्भादननुष्ठानान्नष्कम्यं शनं न प्राप्नोति न चाशुद्धचिसः, संन्यसनाच्छास्त्रीयकर्मयागत् ॥४॥ । गंभू–भानु रामादिव्यापारशून्यो मुद्रितश्रेत्रा कश्चित् १००–अतोऽशुद्धचित्रेन चित्तशुद्धः स्वविहितानि कर्मा कश्चिद् यदि दृश्यते तत्राह कर्मेन्द्रियाणीति । यो यतिः कर्म द्रियाणि वागादीनि संयम्य मनसा ध्यानछद्मना इन्द्रियार्थान एयेवानुष्ठेयानीत्याह न कर्मणामित्यादिभि त्रयोदशभिः कमण शब्दस्पर्शादीन् स्मरन्नास्ते स विमूढात्मा मूत्रं मिथ्याचारः तमेतमिति ।क्य न झा नाङ्गतया विहितानांपनारम्भादननुष्ठ यतं नाद विशुद्धचित्तः पुरुगो नैष्कर्म्यु निखिलेन्द्रियव्यापाररूप स च निरुद्ध•द्रसस्य निष्कामकर्मानुष्ठानन मन कर्मविरतिं ज्ञाननिष्ठामिति यावत् नाश्नुते न लभते शुद्धरनुदयात् औत्राद्यप्रसरऽप्यशुद्धत्वान्मनसा तद्विषया स्म- रणज्ञानायोद्यतस्यापि तस्य ज्ञानालाभान् मिथ्याचारो व्य : स तेषां कर्मणां संन्यास:त परित्यागात सिद्धिं मुक्ति समाधि वागादिनियमक्रियो दम्भिक इत्यर्थः ।। ६ ।। गच्छति न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कार्रन ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः । ५॥ कमेंन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥ माराध्व-किन्त्यशुद्धचित्तः कृतसन्न्यासः शास्त्रीयं कस्में सारा०व०-एतद्विपरीतः शास्त्रीयकमेकर गृहस्थस्तु श्रेष्ठ परित्यऽथ व्यवहारिके कर्मणि निमज्जतीत्याह--न हीति । ननु इत्याह यस्त्वति --। कर्मयोगं शास्त्रविहितम ; असक्तोऽफला- मन्थस एव नम्य वैदिक-लोकिककर्मप्रवृत्तिविरोधी ? तत्राह काही विशिष्यते ; असम्भावितप्रसादत्वेन ज्ञाननिष्ठादपि कारयत इति । अवशऽस्वतन्त्रः ॥५॥ पुरुषविशिg’ इति श्रीरामानुजाचार्य चरणः ।७। ८०-छविशुद्धचिरः कृतवैदिककर्मसन्न्यस लौकिके गीभू-एतदुपरीत्येन स्वविहित-कर्म-कर गृहस्थोऽपि sपि कर्मणि निमज्जतीत्याह नहीfत । ननु सन्यास एव भ षु यस्विति इयाह । आत्मानुभयप्रवृत्तेन मनसेन्द्रियाणि तस्य सर्वकर्मविरोधीति चेत्राह कार्यन इति । प्रकृतिजैः - । श्रीमद्भगवद्भीता [ ३ अध्याय (६१ ६०) श्रीमद्भगवद्भीता [३ अध्याय उच्यते । तदर्थं यत् कर्मे, ततोऽन्यथैवायं लोकः कर्मबन्धनः श्रोत्रादीनि नियम्यस क्तः फलाभिलाषशून्यः सम यः कर्मेन्द्रियैः कर्मण। वध्यमानो भवति । तस्मात् स्यं तदर्थं तादृशधर्म कर्मरूपं योगमुभयमारभतेऽनुतिष्ठति स विशिष्यते । सम्भाव्य सिद्धार्थ कर्म समाचर । ननु विधर्पितोऽपि धर्मः कामा मननत्यात् पूर्वतः ओं भवतीत्यर्थः ।। ७ ।। मुद्दिश्य कृतश्च बन्धको भवत्येवेत्याह—मुक्तमज्ञः फलाकाङक्षा नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । रहत ; एवमेवोद्धवं प्रत्यपि श्रीभगवतोक्तम् – शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयं दकर्मणः॥८॥ यजन् यज्ञेनाश:काम उद्धव । न याति स्वर्गनरकं यद्यन्यत्र स्वधर्मस्थो समाचरेत् । अस्मिंल्लोके बीमनः स्वधर्मस्थोऽनघः सारा०व०--तस्माचं नियतं नित्यं सन्ध्योपासनादि, अक ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति । ” इति । । शुचः म : कर्मसन्यासका।उज्यायअ ड्रम । सन्यत-सव्ये ग•भू-ननु कर्मणि कृते वधो भवेत् । ‘कर्म। यध्यते कर्मणस्तव शरीरनिव्होऽपि न सिध्येत् ॥८॥ जन्तरित्यादिश्मरण च्वेति चेत्तत्राह-यज्ञार्थादिति । यज्ञः परमेश्वरः (भू-नियत नियतमिति--तरभयमविशुद्धचि “यज्ञो वै विष्णुरितिश्रुतेः । तदर्थाशेषफलात कर्मणोऽन्यत्र भावश्थककमे कुरु चित्तविशुद्धये निष्कामय स्ववहितं कर्म स्वसुखफलककर्मणि क्रियमाणेऽयं लोक प्रमबन्धनः चरस्यथः । अक्रमणं औत्सुक्यमात्रेण सर्वकर्मसंन्याससका । कम्मेण तस्मात्तदर्थे वध्यते । विष्णुतोषार्थं कर्म समाचर शतकमैंथ ज्यायः प्रशस्ततरं क्रमसंपानन्यायेन ज्ञानपादक है कौन्तेय मुक्तसङ्गस्यक्तमुखभिलाषः मन् न्यायोपानि वात् । औत्सुक्यमात्रेण कर्म त्यजतो मलिने दि ज्ञानप्रकाशात् । द्रव्यसिद्ध न यज्ञादिना विष्णुमाराध्य तच्छेषेण देहयात्रां कुर्वन्न विश्वकर्मसंन्यस्त सयंमणस्तय । शरीरयात्रा देह निनघहै वध्यस इत्यर्थः ।। ६ ।। SIष न सिध्यत् । यावत् साधनपृशि देह-धारणस्यावश्यक वातादथै ज्ञानी भिक्षाटनादिकमनुतिष्ठति । तच्च क्षत्रियस्य सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः । तवानुचितम् । तस्मात स्वविहितेन युद्धप्रजापालनदकमण अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१० शुकानि चित्रायुषा ये सैनिध्यं देहयात्रः स्यात्मानमनुसन्धे सारा०व० -तदेवाशुद्धचित्तो निष्काम कर्मैव कुर्यान्न तु इति सन्न्यासमित्युक्तम् । इदानीं यदि च निष्कामोऽपि भविता ने यज्ञकर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। शक्नुयात् , तदा सकाममपि ध में विष्ण्वथितं कुर्यान्न तु नेदथ ये में कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर । ६॥ कर्मयगमत्याह --सहेति सप्तभिः। यज्ञेन सहितः सहयज्ञः सब८ नु तर्हि ‘यबध्यते ज तु’ इति श्रुतेः थोपस नस्य” इति ‘सहयादेशभावः । धर्मेकारिणः प्रजाः सृष्ट। अवाच-अनेन धर्मेण प्रसविष्य पुरा विष्ण्वपित व मीण कृते बन्थः स्यादिति चेन्न ; परमेश्वरपितं कर्म न बन्ध यं प्रसवो वृद्धिरुत्तरोत्तरमतिवृद्धि लभध्यमित्यर्थः । तासां सका कमिया-यथदति । १ि७एव५तो निष्काम धर्म एव यक ६३ ) श्रीमद्भगवद्गीता ३ अध्याय ] ३ र्याय ४२) श्रीमद्भगठीता iत्वत्यर्थः ॥१०॥ इष्टान्भोगाहि वो देव दस्यन्ते यज्ञभाविताः। मत्वमभिलक्ष्याह—एष य व इष्टकामधुगभीष्टभोग प्रदो तैर्वचनप्रदायैभ्यो यो भुङ ते स्तेन एव सः ॥१२॥ गी०सू०–आय इशेषेण देहयात्रां कुर्यतो दोषमाह सहेति सराव०--एतदेव स्पीकुचन कमकरणे दोषमाह -- प्रजापतिः सध्र्यश्वरो विष्णुःपति विश्वस्यामेश्वरमित्यादि श्रुतेः । इष्टानिति । तैर्दशन पृष्ठादिद्वारेणान्नादीनुत्पाद्य यथः एभ्यो हा प्रजा पतिरच्युतऽसवित्यादि मरण । पुरा आदिसंगें। देवेभ्यः पञ्चमहायज्ञादिभिरदव यो भुङक्त, स तु चौर एव १२ सहयज्ञा यशैः सहिता देवमानवादिरूपाः प्रजाः सृष्टा नामरूप गीभू-एतदेव विशदयन् कर्मानुष्ठानेन दोषभाक्ष इgानिति । विभागशून्याः प्रकृनिशक्तिके श्वस्मिन विलीनाः पुरुषार्थायोग्या प्रभावित-मद्भूता देवा यो युष्मभ्यमिष्टान्मुमुक्षुका था नशोचरयसापेन भोगनश्यन्ति वृgयादिद्वारा ब्रह्मादीनु स्तस्तम पादकनामरूपभाजा वधय यज्ञ तनरूपक बदल प्रकःयेत्यथ । ताः प्रनदमुवाच कारुणिक । अनन वेदोक्ने पादथ यथः । वचनाथ तद चढास्तान् भागानभ्यः पचय प्रसवो वृद्धिः स्ववृद्धि ज्ञादिभिरप्रदाय केवलात्मतृप्तिकरो यो भुङ्क्ते स स्तेनश्चर मदर्पितेन यज्ञेन यूयं प्रसविष्यध्वं । । भजध्वमित्यर्थः । एष मदर्पितो यश्च वा युष्माकमिष्टकामधुक् द्वि एव देवस्वन्यपहृत्य तैशमनः पोषान् नरो भूषादिव स यमदण्डमहत पुमथानहेः ।। १२।। शुद्धयस्मज्ञानदेहयात्रासम्पादनद्वारा यञ्छितमोक्षप्रदोऽस्तु । यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विपैः । द्वान्भावयतनन त दत्र भावयन्तु वः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यामकारणम् ॥१३॥ परपरं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।११।। बानिति सरा०व० वैश्वदेवादि-यत्रावशिष्टमन्न' येऽश्नन्ति, ते पञ्च सरयकथमिष्टकामप्रदो यदो भवेत्तत्राह-। मूनाकृतैः सत्वैः पापैमुच्यन्ते । पवसूनाश्च मृत्युक्तः-कण्डनी भावपानि अनन थइन वन भावयत, भयबतः कुरुत,-- पेषणी चुल्ल। उदकुम्भी च मार्जा नी । पञ्चसून गृहस्थस्य ताभिः देवा तद्युक्न कुन प्रणयन इत्यर्थः । न आप यः वर्ग न विन्दति ।” इति ।।१३ ।। प्रीयन्तु ॥११॥ ग००–ये इन्द्राद्यङ्गनयावस्थितं यज्ञे सर्वेश्वरं विष्णुः गाइदल प्रयुक्त प्रजाः अनेन यज्ञेन मदभून मध्ये तच्छषमश्नन्ति तन तदहस्रां सम्पादयन्ति त मग्नः निन्द्रादीनि भावयततद्वचिदनेन पूतन युयं च क्रत । सव्येश्वरस्य यज्ञपुरुषस्य भतः सव्वकिल्पैिरनादिकालविशुद्ध या या युष्मास्टुराद्रवन्न भाययन्तु भ्रातान् सुहृयन्तु। रामानुभवप्रतिबन्धकैनिखिलैः पायैबिमुच्यन्ते । ते तु पापाः शुद्धाहार! मिथो भावतते यूयं परं मोक्षलक्षणं श्रेयः प्राप्स्यथः पापप्रस्तः अघमेव भुञ्जते । ये तराई बताङ्गतयावस्थितेन यज्ञ तत्राहारशुद्धिर्हि ज्ञाननिष्ठ, ‘तत्राहाश्शुद्ध सशुद्धिः सत्त्व पुरुषेण घर्चनाय दर् अद्यात्मकारणात् पचन्ति तद्धिः शत्र ५ या स्मृतिः मृतिलब्धे सर्वे प्रथम विप्रमोक्षः पच्यात्मपोषणं कुर्वन्तीत्यर्थः। ५कस्य श्रीह्यादेरघरू पेण परिणः भतेः ॥ ११ ३ अध्याय] श्रीमद्भगवद्भीता ३४ ) (६५ श्रीमद्भगवी त ३ अध्याय माघवमुक्तम् ।। १३ ।. अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।१४। मारा०व०--जगञ्चक्रथुर्हेितुत्वादपि यतं कुर्यादेवेत्याह- अन्नाद्भूतानि प्राणिनो भवन्तीति भूतानां हेतुरस्रम--अन्न देव शुक्रशोणित रूपेण परिणत न् प्राणिशरीरसिद्ध स्तम्यान्नस्य हेत पर्जन्यःवृष्टभिरेवन्नसिद्धतस्य पन्थस्य हेतुर्यशः--लोके कृतेन यज्ञेनैव समुचितवृष्टिप्रदमेघमित्रे स्तस्य यज्ञस्य हेतुः कर्म ऋत्विग्यजमानव्यापारमकत्वात् कर्मण एव यज्ञसिद्ध :॥१४॥ गीभू--प्रजापति न परेशेन प्रजाः सृषु। दुपजीवनाय तदैव यज्ञः प्रस्तुत परेशानुवर्तिनावश्यं सकार्यं इत्याह अन्न दिति द्वाभ्याम् । भूतानि प्राणिनोऽन्नादेर्भवन्ति । शुक्र शेणि तरूपेण परिणतस्त पारा हैनां सिद्ध । तस्यन्नस्थ सम्भवः पन न्यवृष्टमे वत ; पर्जन्यश्च यज्ञाद्भवति । यज्ञश्च ऋत्विग् यजमानादि--व्यपाररूपान कर्मणः समुद्भवति सिध्य नेत्यर्थः । अग्ने प्रस्ताहुतिः सम्यगादियमुपतिष्ठते । “आदि त्याजयत वृष्टिदृष्टेरन्न ततः प्रजा” इति मनुस्मृतेः ॥ १४ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि प्रह्म।क्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।१५। मार०व०--तस्य कर्मणे हेतुमद्य वेदः-- वेदोक्तविधि क्यश्रवणदेव यह प्रति व्यापारोपतस्य वेदस्य इतरक्षरं प्रह--अत एव वेदोत्पलैः; तथा च अति:--"अन्य महत भूतस्य निःश्वसितमेतद्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथाङ्गिरसः” इति । तस्मान् सव्यगतं सव्येव्यापक प्रश्न असे प्रतिष्ठितमिति यन अद्यापि प्राप्यत इति भावः । अत्र यद्यपि काव्यकारणभावेना या ब्रह्मपर्यन्ताः पदार्थ उक्तस्तदपि तेषु मध्ये यज्ञ एव विधे यत्वेन शाखण णच्यत इति । स एव प्रस्तुनः , “अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिं न ततः प्रजाः ॥” इति स्मृतेः।।१५ ।। भ८-तञ्च ऋत्विगादिव्यापाररूपकमे प्रोद्भवं विद्धि । अद्ववेदस्तमत्तन प्रवृत्ति जानीइत्यर्थः तच्च वद्रूपं अदा अक्षरात् परशान समुद्भवं प्रकटं विद्धि । भूतस्थ अस्य महता निश्वमितमेद् यहग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस” त्यादि अबणत । यस्मान् स्वमृष्टप्रजोपजीवनानि प्रियो यज्ञस्तस्मात्सव गतं निखिलव्यापकमपि ब्रह्म नित्यं सर्वदा यले प्रतिष्ठितं तैनैव तत् प्राप्यत इत्यर्थः ।। १५ ।। एवं प्रवर्तितं चक्र’ नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥ सराव० -एतदनन्8ने प्रय वायम -एवमिति । चक्र पूर्यपश्वङ्गेन प्रवर्तिमयज्ञात् पर्जन्यः पर्जन्यादनम् , अज्ञात पुरुषः पुरुषान् पुनर्यज्ञःयज्ञान् पर्जन्य इत्येवं वक चक्र यो नानुपर्शयति—यज्ञानुष्ठानेन न परिवर्त्तयति, स अघायुः पापव्याप्तायुः। को नरके न म यदीति भावः ।१६। गीभू--यज्ञकरणे दोषम हैवेति । परमाद् व्रणे वेद विर्भावस्तस्मात् त्रय प्रतियोधयात् हस्तत पीस्थस्ततोऽन्न ततो भूतानि कर्मप्रवृत्तिरित्येवं निखिलजगति पुनस्तथैव भूत न वह परेशेन प्रजापतिना प्रचरितं चक्र यो जान बीथति स जनः परेशविमुखोऽघायुः पापजीवन मोघं व्यर्थमेव जीवति । हे पार्थ यदसाविन्द्रियैथि५येष्वेव रसते न तु परमभिमते य त छपशन च ॥ १६ ॥ ३ अध्याय ? श्रीमद्भगीत (६६ ६७) श्रीमद्भगवद्गीता [३ अध्याय यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । भीष्ण नेह कश्चिद्वयपाश्रयः । इति, तथा यदुपाश्रयाश्रयः आत्मन्येव व संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥१७ शुद्धयन्ति” इति, "संस्था-” इत्याद्यप्यपयुपसग- दंतुरश्रयः स्यानधकार्यं एम ॥|१८ ॥ सारा०--तद्वनिर्ममत्वसामय समाप कम। गंभ०. -कृतन तदवलोकनयनुष्ठिनेन कर्मणथेः फलं कुर्यदेवयुक्तम् यस्तु शुद्धान्तःकरणवात् ज्ञानभूमिकामरूद्रः नैवास्ति । प्रकृतेन तदवलोकनसाधनेन कर्मण कश्चनानर्थश्च स तु नित्यं काम्यत्र न करोतीत्याह--यस्त्विति द्वाभ्याम तदवलोकनक्षत्लिक्ष्ण इह भवति । स्वाभाविकमावलोक- न आत्मरतिरात्माराम यत आत्मतृप्त आत्मानन्दानुभवन निघू तः। नात। न त्वीदृशोऽपि देवकृतद्विघ्नाद्वित्तोषाय तत्पूजामकं न स्वात्मनि निखै तो बर्हिर्विषयभोगेऽपि किञ्चिन्निवृतो भवतु कर्म कुर्यात् अतिश्च । देवान ज्ञानद्विषः प्राह-‘तस्मादेषां तत्र नैवेत्याह-आत्मन्येव, न तु बहिर्विषयभोगे तस्य कार्य न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुरिति । तत्राह न चेति । अस्य लब्धा करोत्यवन कदमे नास्ति ।।१।। मावतारस्य विदुषः सव्वभूतषु द्रवपु मानवपु च मध्य का गभूय मदुक्तं न निष्कामकर्मण मदुपासनन च । व्यथयात्मरतिरैर्विघ्नाय ब्यपाश्रयः कर्मभिः सेव्यो न भवति । यमृष्ट चलपण सञ्जातेन धर्मभूतज्ञानेनात्मानमुदर्शनस्य ज्ञानदयात् पूर्वमेव वक्त बिना तनामरत सयन्तु न किञ्चित् कर्म करव्यमित्याह-थस्थित द्वाभ्याम् । आत्मन्य न ततस्ते तप्रभावेण संभवन्ति । । तस्य इन देवश्च नाभूत्या पहतपाप्मवदि - गुणधूकविशिष्ट स्वस्वरूपे अवलोकिते रति ईशते आत्म हो यां सम्भवतति अषणत् । नेत्यर्थं निपातः । यस्य स आत्मना स्वप्रकाशानन्देनावलोकितेन तृनो न त्य देवा अपि तस्यात्मानुभवनऽभ्यूषं अमरतिकृतये नेशते पनदिन । आत्मन्येव च तद्वशे सन्तुषे न तु नृत्यगीतादौ । हि यस्मादेषां स आम तद्वतप्रष्ठा भवतीत्यर्थः ।। । तस्यैवंभूतस्य तदवलोकानाय किञ्चित् कर्म कर्तव्यं न विद्यते १८ । तस्मादसक्तः सतत आय कम समाचर । सर्वद।वलोकितामस्वरूप त्रन् ॥ । १७ ।। असक्तो ह्यचरन्कर्म परमप्नोति पुरुषः ॥१६॥ नेव तस्य कुतनाथा नाकृतनः कश्चन । सारा०व०-तस्मानव ज्ञानभूमिकारोहणे नास्ति योग्यता, न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८। काम्यकर्मणि तु सविवेकवतस्तव नबाघकारः । तस्माभिकाम- सर्व ---शृतेनानुष्ठितेन कर्मण। नर्था फलम् । अहं कर्मैव कुटिंघश्याह--तस्मादिति । कार्यमवश्यश्रव्यत्वेन विहितं न । तन कळून प्रत्यवायाइप ने, यस्मादस्य सर्वभूतेषु ब्रह्माण्ड पर मोक्षम् ॥१६॥ स्थावद्धि मध्ये कश्चिदपथि स्वप्रयोजनार्थं व्यपाश्रय अभ (०°–यस्मलब्धमबलोयनभ्यैव कथानुपयोगस्तरमा ययो न भवति । पुराणादिषु यथाप्रथशब्देन तथैवोच्यते, दताद्रवत्वं कार्यं कर्त्र्यस्वेन विहितं कर्म समाचर । असक्तः फलेच्छशुम्यः सन । परं देहदि भिन्नमात्मानमाप्नोत्ययलोक ते वसुदेवे भगवति भत्ति मुद्वहतां नृणाम् ज्ञानवैराग्य याथात्म्युन ॥ १६ ॥ wun ] l(l{?tWf*l Vf) qjw **q* $f*>q<qnc — sn%fii n^cii

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3 T^Tq ] ■mow— ^^ ^ ^ rVw . |p श्रीमद्भगवद्भीता [३ अध्याय --उत्सीदेयुर्मा दृष्टान्तीकृत्य धर्ममकुर्वाण भ्रश्येयुः । ततश्च वर्णसङ्करो भवेम्याय हमेव कर्ता स्यामेव महमेव प्रजा हन्यम -मलिना: कुर्याम ।२४॥ । सारा०व० --तस्मात् प्रतिष्ठितेन ज्ञानिनापि कम्भे कव्य- मिथुपसंहरति--सक्ता इति ।।२५। गंभू–ततः किं स्यादित्याह उत्सीदेयुरिति । अहं सन्त्वे अष्टश्चन शास्त्रोक्त' काम न कुय्य तहम तो उसीदेयु विभ्रष्टमर्यादः स्युः । तद्विभुशे सति य: सङ्करः न्यरम्याज्यह मेय कर्ता स्याम् । एवञ्च प्रजापतिरह मिमाः प्रजाः साङ्कर्यपे- तथा च एष सेतुर्विधरगण एषां पहा मलना: कुर्य्याम् लोकानां असंभेदाये'इति अ या लोकमादविधारकत्वेन परि गीतस्य मे तन्मर्यादाभेदकरवं यदिति Eरय यत्कावत स्वभर सुत्रयः स्वराचारत दृष्ट, । नहुचमापतत्वादीश्वरीयत्वावगेनैवाचरणीयस -"ईश्वराणां वचः सरय तथवचरने कचित् । तेषां यत् स्ववच युक्त बुद्धिमस्त तदाचरन ॥ समाचरंतु मनसापि नश्वरः । थाऽरुद्रोऽद्विजं विषम्” इति ॥२४॥ (१०० (१ ०१ [३ अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानाभ्यासेनाहमिव कृतथीभव' इति बुद्धिभेदं न जनयेत कर्म सर०वः सङ्गिनामशुद्धान्तःकरणत्वेन य र्मस्ववासक्तिमनाम , ‘वं कृतार्थाभिविष्यन् निष्कामकर में य क' इति मम्मण्येव योज किन्तु स्वं येन् कारयत--अत्र कर्मण समाचरन स्वयमेव दृष्टान्त भवेत् । ननु "स्वयं नि:भ यस विद्वान्न वक्तयज्ञाय कस्मै हि । न राति रागिणऽपश्य बध्यतऽप भिषक तमः वाक्येनैतद्विरुध्यते, सत्यम् , तन् खलु भक्तयुपदेपक-विषयमि इत्यजन दन्तु ज्ञानपदेष्टक- वषयमयाबराघनस्यान्तःकरणशुद्ध धनयन , तच्छुद्धस्तु निष्काम-कम्मर्धनिर्यात , भक्त स्त स्वतः प्रवदतर । करणशुद्धिपर्यन्तानपक्षत्वान यदि भक्तो अद्धामुत्पादयितु’ शक्नुयात् , तदा कमिणां बुद्धिभेदमपि जनः एवं उपदिशतोऽपि येत , भक्त श्रद्धायत कर्मानधिकारात् कुर्वीत न निञ्विद्य त यायत । मकथा-श्रयणदो या अद्धा यावन्न तव कर्माणि तत खलु जायते ।।इति, "धर्मान संत्यज्य यः सबनि मां भजेत् स च विधायकेन ” सत्तमः’ इति, ‘सर्वधर्मान् परित्यजरा मामेकं शरणं प्रज” इति, यदुक्त मत शुकेन नैतत् त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरे-भजन्नपकोऽथ पतेत्ततो यदि न मौढया- । इ इत्यादिवचनेभ्य इति विवेचनीयम् ।।२६। । भू–किब, लोकहितेच्छुट्सनी सावहितः स्यादित्याह- भू-तस्मान परिनिष्ठितेऽपि त्वं लोकहिताय वेदोक्त न बुद्धेति । विद्वान परिनिष्ठितोऽपि च मे सङ्गिनां य.अद्धा स्वय में प्रकुब्बियाशयेनाह--स इति । अझ यथा कर्मणि जाद्यभाजामहानां बुद्धिभेदं न जनयेन्–किं कर्मभिरहमिव सक्ताः फल लिप्सयभिनिविष्टास्तत कुर्वन्त्येवं विद्वानपि दृश्यते। शनेनैव कृतार्थो भवेति कर्मनिष्ठातस्तद्वद्धि नापनयेदित्यर्थः । किन्थसतः फललिप्साशून्यः सन् । स्फुटमन्थन् । २५। किन्तु स्वयं कर्मसु युक्तः सावधानस्तानि सम्यक सध्वजंप महार्णचन् सर्वाणि विहितानि यस्मणि योधयेत प्रीत्या न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनान् । सेचयेत् अज्ञान कर्माणि कारयेदित्यर्थः । बुद्धिभेदे सति वर्म च जापयत्समणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।२६ श्रद्धा-निवृत्रं ज्ञानस्य चानुदयदुभयविभ्रष्टास्ते स्युरिति भावः । साराव०--‘अलं कर्मजडिम्, स्वं कर्मसन्न्यासं कृत्वा स्वयं निश्रेयसं विद्वान न यवत्यथ कर्म हैि । न राति रोगि पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/५६ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/५७ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/५८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/५९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६० पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६१ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६२ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६३ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६४ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६५ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६६ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६७ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/६९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७० पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७१ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७२ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७३ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७४ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७५ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७६ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७७ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/७९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/८० श्रीमद्भगवद्भीता १२५०) (१५१ श्रीमद्भगवद्भीता ५ अध्याय [५ अध्याय फलैक्यादेयं यः योगेति। योगयुक्तो ज्ञानी त्रिविधः—विशुद्धात्मा विजित्बुद्धि एष तद्द्वयं निवृत्तिप्रवृतिरूप तया भिन्नरूपमपि कः, बिजित मा बिशुद्धचित्तो द्वितीयःजितेन्द्रियग्तृतीय इति पश्यति वेति, स पश्यति स चक्षुष्मान् पण्डित इयर्थः पूत्वपूर्यप साधनतारतम्यदुः एताश गृहथे पेः। तु सर्वे संन्यामस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। ऽपि जीव अनुरज्यन्तीत्याह -व्येषामपि भूतनामात्मभूतः योगयुक्तो मुनित्र' ह्म न चिरेणाधिगच्छति ॥६॥ प्रेमास्पदीभूत । आत्मा देईं यस्य सः । ग८७-ईदृशो मुमुक्षुः सर्वेषां प्रेयानित्याह-योगेति-योगे सर०म० --सम्यकृचित्तशुद्धिमनिह्रयतो किन्तु ज्ञानिनः | निष्कामे कर्मणि युक्तो निरतः विशुद्धात्मा निम्मेल सन्यामो दुःखदः कर्मयोगस्तु सुख द एवेति पूर्वव्यञ्जिनमर्थं अतएय स्पष्टमेवाह सन्न्यासविति चित्रावैगुण्ये सतीति शेषः बुद्धि, अतएव विजितात्मा वशीकृतमन अतएव जितेन्द्रियः -। कर्मयोगाभावाश्चित्र--वैगुण्यप्रशामककर्मयोगस्य शब्दादि-विषयरागशन्थः, अतएव सर्वेषां भूतानां जीवाना अयोगतः ममभूतः प्रेमस्पतां गत असदेहो यस्य सः । न चात्र सन्यासिभ्यभागात् तत्र नाधकाराद्यथः। सभ्य सा दुःखमव प्रमादिनो पार्थसारथिना समैक्यमभिमतम ,-न त्वेवाहम” इत्या प्राप्त “ भयति । तदुक्त' वार्किकृद्भिः--"बहिश्चराः। दिना सर्वात्मनां मिथो भेदस्य तेनाभिधानात , तद्वादिनापि पिशुनाः । सम्स्यामिनऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिता- कलहस्रक शय। , अ ।” इतितिरपि--"यदि न समुद्धरन्ति यतय हृदि बिज्ञज्ञाभेदस्य वक्त मशत्रयवाच। एयग्भूतः कुर्वन्नपि विषक्ता कामजटा:” इति, भगबताप -‘यस्त्रसंयत षड्बम :’ ( भा । ११ मानुसन्धनानामन्यतमभिमानेन न लिप्यते अचिरेणामा नमधिगचछति । अतः कर्मयोगः श्रेयान ॥|७|| १८।४०) इत्याद्य तम्। तस्माद्योगयुक्तः निष्काम कर्मबान मुनिर्मोन सन ब्रह्म शत्र प्राप्नोति । नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तवविति । ग८७--इन यागस्य दुष्करत् सुकरकम्मयागः अ या पश्यऽशृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ।।८।। नित्याः -मन्यामन्वित । न्द्रियव्यापारविनि भन्यासः सञ्च वृत्तिरूपः ज्ञानयोग अथगतः कर्मयोगं बिना दुःखं प्राप्त प्रलपन्विसृजन्गृहन्मिषन्निमिषनपि । भवति-दुष्करत्वात् प्रमादाश्च दुःखहेतुरेव स्यादित्यर्थः । योग इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।8।। युकनिष्कामकर्म तु सन्नचिरेण शीघ्रमेव मुनिरात्ममननशीलः साग०व०--येन कर्मण। लेपतं प्रकारं शिक्षयति--नैवेति । अधिगच्छति ॥३॥ युः कर्मयोगी दर्शनदीनि कुर्वन्नपीन्द्रियार्थेषु वरन्त इति योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । धारयन् बुद्धया निश्चिन्वन् निरभिमानः किञ्चिदप्यहं नैव करो सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥७॥ मीति मन्येत ।।८-३॥ साराश्च कृतेनापि कर्मण ज्ञानिनस्तस्य न लेप इत्याह गीभू-शुद्धस्यामनोऽधिष्ठानादिपलापेक्षत-नयी वं

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हाभारोऽथ सयकृत एव, यदुकम्--"अनन्याश्चिन्तयतो म ये जनाः पयुपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं बदाम्यहम् ।" इति । हन्त ! एतावान् भारी मया स्वप्रभौ। निक्षिप्त इत्यपि शोकं मा कार्षीर्भक्तवत्सलस्य सस्यसङ्कल्पस्य मम न तत्रायास लेशोऽपीति नातः परमधिकमुपदेष्टव्यमस्तीति शास्त्र समाप्त कृतम् ॥६६॥ ग८७-ननु यजनप्रणयादिस्तय शुद्धा भक्तिः प्राक्तनकम्। रूपानन्तपावमलिनहृदा पुख कथं शक्या करी, याबत वद्भक्ति- विरोधीनि ताभ्यनन्तानि पापानि कृच्छादिप्राणैश्वरैः सविहितैश्च धम्मॅने विनश्येयुरिति चेत्तत्राह-शब्देति । प्राक्तनपापप्रायश्चित्रा- भूतान् । दन् सविहितांश्च सर्वान् धर्मान् परित्यज्य स्व रूपतया मां-सर्वेश्वरं कृष्णं नृसिहदाशरथादिरूपेण बहु चि हें नियुद्धभगिोचरं सन्तमविद्यापर्यंत सर्व कामविना शकमेकं, न तु मरोऽन्यं शितिकण्ठादि, शरणं व्रज प्रपद्यस्व । शरण्यः सव्येश्वरोऽहं सर्वेषापेभ्यस्तेभ्यः प्राक्कनकर्मभ्यस्त्वां शरणागतं मोक्षयिष्यामीति मिथकशीव्यता दर्शित त्वं मा। शुचः-अचिरायुषा मया दृद्धिशुद्धिमिच्छतातिचिरसाध्या दुष्क राश्च ते च्छादयः कथमनुष्ठेय इति शोकं मा कार्षीरित्यर्थः । अत्र माषस्यैव निखिलो दोषविनाशाचदर्थ झादिप्रयासो मनपर्ने भवेदित्युक्तम् । अतिवमाह--न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः” इति । श्रद्धा-भक्तिध्यानयोगाद् चैतीति चबाया । सनिष्ठानां हृद्विशुद्धये परिनिष्ठितानां च लोक संप्रदाय यथायथं कार्यस्ते धर्मः -"तमेतम्" इत्यादिभ्यः -सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यय आस्म’ इत्यादिभ्यश्च प्रातिभ्यः । न च विहि तस्यागे प्रत्यवायलक्षणं पापं स्यादिति शोकं मा चिति खयाल्ये यम् । वेदनिदेशेनाग्निहोत्रादियागे यतेरिव परेशनिदेशेन तस्यागे तचापरस्तद्योगाल् ; प्रत्युत तन्निदेशातिक्रमे दोषाय स्यात् न च स्वरूपतो विहितस्यागें प्रत्यवायपत्रोः सर्वाणि धर्म फलानीति व्याख्येयम् ; फलस्यागे तदनपत्रे । तस्मात् प्रपन्नस्य स्वरूपतो धर्मत्यागः ; न च ‘न हि कचिन्' इस्यादिन्यायेन स्व धर्मानुष्ठानापत्तिस्तद्यजनादिनिरतस्य तेन न्यायेन तदनापतेः तथा च सन्निष्ठस्यमानुभवान्तःपरिनिष्ठतस्य च परस्मानुभवन्तो यथा धर्माचारस्तथा। प्रपचः प्रपतिः शुद्धान्तः स इति एवमेव कमेकादशेऽपि--"हाय कर्माणि कुबधीत न नि विद्यते याबता। मरकथाश्रयणदौ या अद्धा यायन्न जायते । ॥" "शन निष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः । सलिहूनाश्रमस्य कस्य चरेद बिधिगोचरः ।" इति । एषा ‘शरणागति-शब्दिता। प्रपति यदङ्गिका-आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्णनम् । रक्षि- यतीति विश्वास गोल्त्वे वर यं तथा । । आस्मनि कृषकार्पण्ये यद्विधा शरणागतिः " इति वायुपुराणत् । भक्तिशास्त्रविहित हरये रोचमाना प्रधृतिरानुकूल्यम ; तद्विपरीतरतु प्रतिकूल्यम् । आत्मनि कृपः शरण्ये तस्मिन् स्व भर म्यासः निक्षेपणमकापेयमिति कचित् पाठः-तत्र कार्पण्यं ततोऽन्यस्मिन् कार्पण्यमनुधर्मः यद्यप्रकशः । स्फुटमस्य तु ॥६६॥ । इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुभ पवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥६७ सारा-ब०--एवं गीताशास्त्रमुपदिश्य सम्प्रदायप्रवरंने निय समाह--इदमिति । अतपस्कायसंयतेन्द्रियाय -- मनसश्चन्द्रि पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२४८ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२४९ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२५० पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२५१ पृष्ठम्:गीताशास्त्रार्थविवेकः.djvu/२५२