ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 51-60 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 51-60 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

अथास्य पञ्चदशर्चस्यैकपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,9,10 जगती। 2,5,8 विराड् जगती। 11-13 निचृज्जगती च छन्दः। निषादः स्वरः। 3,4 भुरिक् त्रिष्टुप्। 6,7 त्रिष्टुप्। 14,15 विराट् त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथेन्द्रशब्दार्थवद्विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते॥ अब इक्कावनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्दार्थ के समान विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है॥ अ॒भि त्यं मे॒षं पु॑रुहू॒तमृ॒ग्मिय॒मिन्द्रं॑ गी॒र्भिर्म॑दता॒ वस्वो॑ अर्ण॒वम्। यस्य॒ द्यावो॒ न वि॒चर॑न्ति॒ मानु॑षा भु॒जे मंहि॑ष्ठम॒भि विप्र॑मर्चत॥1॥ अ॒भि। त्यम्। मे॒षम्। पु॒रु॒ऽहू॒तम्। ऋ॒ग्मिय॑म्। इन्द्र॑म्। गीः॒ऽभिः। म॒द॒त॒। वस्वः॑। अ॒र्ण॒वम्। यस्य॑। द्यावः॑। न। वि॒ऽचर॑न्ति। मानु॑षा। भु॒जे। मंहि॑ष्ठम्। अ॒भि। विप्र॑म्। अ॒र्च॒त॒॥1॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (त्यम्) तम् (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेक्तारम् (पुरुहूतम्) पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः स्तुतम् (ऋग्मियम्) य ऋग्भिर्मीयते तम् (इन्द्रम्) सूर्यमिव शत्रूणां विदारयितारम् (गीर्भिः) वाग्भिः (मदत) हर्षत (वस्वः) वसोर्धनस्य (अर्णवम्) समुद्रवद्वर्त्तमानम् (यस्य) इन्द्रस्य (द्यावः) प्रकाशः (न) इव (विचरन्ति) (मानुषा) मनुष्याणां हितकारकाणि (भुजे) भोगाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तम् (अभि) सर्वतः (विप्रम्) मेधाविनम् (अर्चत) सत्कुरुत॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयमर्णवमिव त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियं मंहिष्ठमिन्द्रं परमैश्वर्यवन्तं राजानं गीर्भिरभिमदत सर्वतो हर्षयत सूर्यस्य द्यावः किरणान्नेव यस्य भुजे मानुषा विचरन्ति, तस्य वस्वो दातारं विप्रमभ्यर्चत॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्बहुगुणयोगाद्यः सूर्यवद्विद्वान् राजा वर्त्ततां स एव सत्कर्त्तव्यः। नह्येतेन विना कस्यचित् सुखभोगो जायत इति॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम (अर्णवम्) समुद्र के तुल्य (त्यम्) उस (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेचन करने हारे (पुरुहूतम्) बहुत विद्वानों से स्तुत (ऋग्मियम्) ऋचाओं से मान करने योग्य (मंहिष्ठम्) गुणों से बड़े (इन्द्रम्) समग्र ऐश्वर्य से युक्त शत्रुओं को विदारण करने वाले राजा को (गीर्भिः) सत्य प्रशंसित वाणियों से (अभिमदत) हर्षित करो और सूर्य्य के (द्यावः) किरणों के (न) समान (यस्य) जिस को (भुजे) भोग के लिये (मानुषा) मनुष्यों के हित करने वाले गुण (विचरन्ति) विचरते हैं, उस (वस्वः) धन के देने वाले (विप्रम्) विद्वान् का (अभ्यर्चत) सदा सत्कार करो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को योग्य है कि जो बहुत गुणों के योग से सूर्य्य के सदृश विद्यायुक्त राजा हो, उसी का सत्कार सदा किया करें॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒भीम॑वन्वन्त्स्वभि॒ष्टिमू॒तयो॑ऽन्तरिक्ष॒प्रां तवि॑षीभि॒रावृ॑तम्। इन्द्रं॒ दक्षा॑स ऋ॒भवो॑ मद॒च्युतं॑ श॒तक्र॑तुं॒ जव॑नी सू॒नृतारु॑हत्॥2॥ अ॒भि। ई॒म्। अ॒व॒न्व॒न्। सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिम्। ऊ॒तयः॑। अ॒न्त॒रिक्ष॒ऽप्राम्। तवि॑षीभिः। आऽवृ॑तम्। इन्द्र॑म्। दक्षा॑सः। ऋ॒भवः॑। म॒द॒ऽच्युत॑म्। श॒तऽक्र॑तुम्। जव॑नी। सू॒नृता॑। आ। अ॒रु॒ह॒त्॥2॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (ईम्) जलमन्नं पृथिवीं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) (अवन्वन्) अवन्ति रक्षणादिकं कुर्वन्ति। अत्राऽव धातोः विकरणव्यत्ययेन श्नुः। (स्वभिष्टिम्) शोभना अभिष्टा इष्टयो यस्मात्तम्। अत्र व्यत्ययेन ह्रस्वः। (ऊतयः) रक्षादयः (अन्तरिक्षप्राम्) स्वतेजसान्तरिक्षं प्राप्य प्राति पिपर्ति ताम् (तविषीभिः) बलाकर्षणादिगुणाढ्याभिः सेनाभिः (आवृतम्) संयुक्तम् (इन्द्रम्) सुखानां बिभर्तारं सेनेशम् (दक्षासः) विज्ञानबलवृद्धाः शीघ्रकारिणः (ऋभवः) मेधाविनः (मदच्युतम्) मदा हर्षणादयश्च्युता यस्मात्तम् (शतक्रतुम्) अनेककर्मप्रज्ञायुक्तम् (जवनी) वेगशीला (सूनृता) अन्नादिसमूहकारी राजनीतिः। सूनृता इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (आ) समन्तात् (अरुहत्) रोहेत्॥2॥ अन्वयः—हे सेनेश! यस्य तवोतयः प्रजा रक्षन्ति दक्षास ऋभवो यं स्वभिष्टिमन्तरिक्षप्राम्मदच्युतं शतक्रतुं तविषीभिरावृतमिन्द्रं त्वामभ्यवन्वन्नभ्यवन्ति जवनी सूनृताऽरुहत्तं वयमपि सततं रक्षेम॥2॥ भावार्थः—धार्मिका मेधाविनो यस्याश्रयं कुर्य्युस्तस्यैवाश्रयं सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः॥2॥ पदार्थः—हे सेनापते! जिस आपकी (ऊतयः) रक्षा प्रजा का पालन करती हैं (दक्षासः) विज्ञानवृद्ध शीघ्र कार्य को सिद्ध करने वाले (ऋभवः) मेधावी विद्वान् लोग जिस (स्वभिष्टिम्) उत्तम इष्टि युक्त (अन्तरिक्षप्राम्) अपने तेज से अन्तरिक्ष अर्थात् अवकाश में सबको सुख से पूर्ण करने (मदच्युतम्) हर्षादि को देने वाले (शतक्रतुम्) अनेक कर्मों के कर्ता (तविषीभिः) बल आकर्षण आदि गुणों से युक्त सेना से (आवृतम्) संयुक्त (इन्द्रम्) बिजुली के सदृश वर्त्तमान आपको (अभ्यवन्वन्) कार्यों को करने के लिये सब प्रकार से वृद्धियुक्त करते हैं जिस को (जवनी) वेगयुक्त (सूनृता) अन्नादि पदार्थों को सिद्ध करने हारी राजनीति (आरुहत्) बढ़ के प्राप्त होवे, उस आपकी रक्षा हम किया करें॥2॥ भावार्थः—धर्मात्मा बुद्धिमान् लोग जिस का आश्रय करें, उसी का शरण ग्रहण सब मनुष्य करें॥2॥ पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं गो॒त्रमङ्गि॑रोभ्योऽवृणो॒रपो॒तात्र॑ये श॒तदु॑रेषु गातु॒वित्। स॒सेन॑ चिद्विम॒दाया॑वहो॒ वस्वा॒जावद्रिं॑ वावसा॒नस्य॑ न॒र्तय॑न्॥3॥ त्वम्। गो॒त्रम्। अङ्गि॑रःऽभ्यः। अ॒वृ॒णोः॒। अप॑। उ॒त। अत्र॑ये। श॒तऽदु॑रेषु। गा॒तु॒ऽवित्। स॒सेन॑। चि॒त्। वि॒ऽम॒दाय॑। अ॒व॒हः॒। वसु॑। आ॒जौ। अद्रि॑म्। व॒व॒सा॒नस्य॑। न॒र्तय॑न्॥3॥ पदार्थः—(त्वम्) (गोत्रम्) मेघम्। गोत्रमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (अङ्गिरोभ्यः) प्राणरूपेभ्यो वायुभ्यः। प्राणो वा अङ्गिरा। (शत॰6.3.7.3) (अवृणोः) वृणु (अप) दूरीकरणे (उत) अपि (अत्रये) अविद्यमानानि त्रीणि दुःखान्याध्यत्मिकाऽऽधिभौतिकाऽऽधिदैविकानि यस्मिन् सुखे तस्मै (शतदुरेषु) शतावरणेषु मेघावयवेषु धनेषु (गातुवित्) यो भूगर्भविद्यया गातुं पृथिवीं वेत्ति सः। गातुरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (चित्) इव (विमदाय) विविधा मदा हर्षा यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (अवहः) प्राप्नुहि (वसु) धनादिकम् (आजौ) संग्रामे (अद्रिम्) मेघम् (वावसानस्य) आच्छादकस्य। अत्र यङ्लुगन्ताद् वस आच्छादने धातोः कर्त्तरि ताच्छीलिकश्चानश् बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (नर्त्तयन्) नृत्यं कारयन्। अत्र न पादभ्याङ्यम॰ (अष्टा॰1.3.88) इति निषेधे प्राप्ते व्यत्ययेन परस्मैपदम्॥3॥ अन्वयः—हे ससेन राजँस्त्वं यथा सूर्योऽङ्गिरोभ्योऽद्रिं गोत्रं मेघं चिदिवात्रय आजौ शत्रुबलमपावृणोः वावसानस्यारिपक्षस्य सेनां नर्त्तयन्निव विमदाय वस्वाऽवहरुहतापि गातुवित्त्वं शतदुरेष्विवावृतां स्वसेनामपावृणोसि स भवान् सत्कर्त्तव्योऽसि॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सेनापत्यादयो यावत्सूर्य्यवत्पराक्रमं न गृह्णीयुस्तावच्छत्रुविजयमाप्तुं न शक्नुयुः॥3॥ पदार्थः—हे (ससेन) सेना से सहित सेनाध्यक्ष! आप जैसे सूर्य (अङ्गिरोभ्यः) प्राणस्वरूप पवनों से (अद्रिम्) पर्वत और मेघों के तुल्य वर्त्तमान (अत्रये) जिसमें तीन अर्थात् आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख नहीं है उस (आजौ) सङ्ग्राम में शत्रुओं के बल को (अपावृणोः) दूर कर देते हो (वावसानस्य) ढांकने वाले शत्रुपक्ष की सेना को (नर्त्तयन्) नचाते के समान कम्पाते हुए (विमदाय) विविध आनन्द के वास्ते (वसु) धन को (आवहः) अच्छे प्रकार प्राप्त कर (उत) और (गातुवित्) भूगर्भ विद्या के जानने वाले आप (शतदुरेषु) असंख्य मेघ के अवयवों में ढके हुए पदार्थों के समान ढकी हुई अपनी सेना को बचाते हो सो आप सत्कार के योग्य हो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सेनापति आदि जब तक वायु के सकाश से उत्पन्न हुए सूर्य के समान पराक्रमी नहीं होते, तब तक शत्रुओं को नहीं जीत सकते॥3॥ पुनः स कीदृशः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह किसके समान क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वम॒पाम॑पि॒धाना॑वृणो॒रपाधा॑रयः॒ पर्व॑ते॒ दानु॑म॒द्वसु॑। वृ॒त्रं यदि॑न्द्र॒ शव॒साव॑धी॒रहि॒मादित्सूर्यं॑ दि॒व्यारो॑हयो दृ॒शे॥4॥ त्वम्। अ॒पाम् अ॒पि॒ऽधाना॑। अ॒वृ॒णोः॒। अप॑। अधा॑रयः। पर्व॑ते। दानु॑ऽमत्। वसु॑। वृ॒त्रम्। यत्। इ॒न्द्र॒। शव॑सा। अव॑धीः। अहि॑म्। आत्। इत्। सूर्य॑म्। दि॒वि। आ। अ॒रो॒ह॒यः॒। दृ॒शे॥4॥ पदार्थः—(त्वम्) सभेश (अपाम्) जलानाम् (अपिधाना) अपिधानान्यावरणानि (अवृणोः) वृणुयाः (अप) दूरीकरणे (अधारयः) धारयन्। अत्र नञुपपदाद् धारिपारि इति शः प्रत्ययः। (पर्वते) मेघे (दानुमत्) मेघम् (यत्) यस्मात् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन् (शवसा) बलेन (अवधीः) हिन्धि (अहिम्) सर्वत्र व्याप्तुमर्हं मेघम् (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (सूर्यम्) (दिवि) प्रकाशे (आ) समन्तात् (अरोहयः) रोहयसि (दृशे) द्रष्टुं दर्शयितुं वा॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यत्त्वमपिधाना सूर्य इव शत्रुबन्धनान्यपावृणोर्दूरीकरोषि यथायं रविः पर्वते मेघे जलं दानुमद् वस्वधारयन् सन् वृत्रं विद्युदिव शत्रूनिदवधीः किरणाः सूर्यमिव दृशे न्यायमारोहयस्तस्मात् त्वं राज्यं कर्त्तुमर्हसि॥4॥ भावार्थः—मनुष्याणां योग्यतास्ति येनेश्वरेण यः सर्वान् लोकानाकृष्यान्तरिक्षे स्थाप्य वर्षयित्वा सर्वान् प्रकाश्य च सुखानि ददातीदृशं सूर्य्यं निर्माय स्थापित इति वेदितव्यम्॥3॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) जगदीश्वर! (यम्) जिस कारण (त्वम्) आप जैसे सूर्य (अपाम्) जलों के (अपिधाना) आच्छादनों को दूर करता है, वैसे शत्रुओं के बल को (अपावृणोः) दूर करते हो जैसे (पर्वते) मेघ में (दानुमत्) उत्तम शिखर युक्त (वसु) द्रव्य वा जल को (अधारयः) धारण करता और (शवसा) बल से (अहिम्) व्याप्त होने योग्य (वृत्रम्) मेघ को (अवधीः) मारता है वैसे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करते हो और जैसे किरणसमूह (सूर्यम्) सूर्य को (अरोहयः) अच्छे प्रकार स्थापित करते हैं, वैसे न्याय के प्रकाश से युक्त हैं, इससे राज्य करने के योग्य हैं॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जिस ईश्वर ने मेघ के द्वार का छेदन कर, आकर्षण कर, अन्तरिक्ष में स्थापन, वर्षा और सबको प्रकाशित करके सुखों को देता है, उस सूर्य को ईश्वर ने रच कर स्थापन किया है, ऐसा जानें॥4॥ पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर सभाध्यक्षादि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं मा॒याभि॒रप॑ मा॒यिनो॑ऽधमः स्व॒धाभि॒र्ये अधि॒ शुप्ता॒वजु॑ह्वत। त्वं पिप्रो॑र्नृमणः॒ प्रारु॑जः॒ पुरः॒ प्र ऋ॒जिश्वा॑नं दस्यु॒हत्ये॑ष्वाविथ॥5॥9॥ त्वम्। मा॒याभिः॑। अप॑। मा॒यिनः॑। अ॒ध॒मः॒। स्व॒धाभिः॑। ये। अधि॑। शुप्तौ॑। अजु॑ह्वत। त्वम्। पिप्रोः॑। नृ॒ऽम॒नः॒। प्र। अ॒रु॒जः॒। पुरः॒। प्र। ऋ॒जिश्वा॑नम्। द॒स्यु॒ऽहत्ये॑षु। आ॒वि॒थ॒॥5॥ पदार्थः—(त्वम्) सेनाध्यक्षः (मायाभिः) प्रज्ञानोपायैः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (अप) दूरीकरणे (मायिनः) निन्दिता माया प्रज्ञा विद्यते येषां तान्मायिनः (अधमः) धम कम्पय (स्वधाभिः) अन्नादिभिरुदकादिभिर्वा। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) उदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (ये) चोरदस्य्वादयः परस्वापहर्त्तारः (अधि) उपरिभावे (शुप्तौ) शयने कृते सति। अत्र वर्णव्यत्ययेन शः। (अजुह्वत) स्पर्द्धन्ते (त्वम्) उक्तार्थः (पिप्रोः) न्यायपूर्त्तेः कर्त्त्रोः (नृमनः) नृषु मनो ज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (अरुजः) रुज (पुरः) अग्रतः (प्र) प्रकृष्टार्थे (ऋजिश्वानम्) य ऋजीन् ज्ञानादिसरलान् गुणानश्नुते तं धार्मिकं मनुष्यम्। अत्र इक् कृष्यादिभ्यः। (अष्टा॰वा॰3.3.108) इत्यृजधातोरिक्। अशूङ् धातोर्ङ्वनिप्। अकारलोपश्च। (दस्युहत्येषु) दस्यूनां हत्या हननानि येषु सङ्ग्रामादिव्यवहारेषु (आविथ) रक्ष॥5॥ अन्वयः—हे नृमणस्त्वं पुरः स्वधाभिः पिप्रोराज्ञामृजिश्वानं चाविथ ये मायिनो मायाभिः शुप्तावधि परपदार्थान्नजुह्वत तान् दस्यूनपाधमो दूरीकुरु दस्युहत्येषु प्रारुजः प्रभन्नान् कुरु॥5॥ भावार्थः—यः सभाद्यध्यक्षः स्वसत्यन्यायेन श्रेष्ठदुष्टकर्मकारिभ्यो यथावत्फलानि दत्वा रक्षति, स एवाऽत्र मान्यभाग्भवेत्॥5॥ पदार्थः—हे (नृमणः) मनुष्यों में मन रखने वाले सभाध्यक्ष! (त्वम्) आप (पुरः) प्रथम (स्वधाभिः) अन्नादि पदार्थों से (पिप्रोः) न्याय को पूर्ण करने हारे न्यायाधीशों की आज्ञा और (ऋजिश्वानम्) ज्ञान आदि सरल गुणों से युक्त की (प्राविथ) रक्षा कर और जो (मायिनः) निन्दित बुद्धि वाले (मायाभिः) कपट छलादि से वा (शुप्तौ) सोने के उपरान्त पराये पदार्थों को (अजुह्वत) हरण करते हैं, उन डाकू आदि दुष्टों को (अपाधमः) दूर कीजिये और उन को (दस्युहत्येषु) डाकुओं के हननरूप संग्रामों में (प्रारुजः) छिन्न-भिन्न कर दीजिये॥5॥ भावार्थः—जो सभाध्यक्ष अपने सत्यरूपी न्याय से उत्तम वा दुष्टकर्मों के करने वाले मनुष्यों के लिये फलों को देकर दोनों की यथायोग्य रक्षा करता है, वही इस जगत् में सत्कार के योग्य होता है॥5॥ पुनरपि सभाध्यक्ष गुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर भी अगले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥ त्वं कुत्सं शुष्ण॒हत्ये॑ष्वावि॒थार॑न्धयोऽतिथि॒ग्वाय॒ शम्ब॑रम्। म॒हान्तं॑ चिदर्बु॒दं नि क्र॑मीः प॒दा स॒नादे॒व द॑स्यु॒हत्या॑य जज्ञिषे॥6॥ त्वम्। कुत्स॑म्। शु॒ष्ण॒ऽहत्येषु॑। आ॒वि॒थ॒। अर॑न्धयः। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शम्बर॑म्। म॒हान्त॑म्। चि॒त्। अ॒र्बु॒दम्। नि। क्र॒मीः॒। प॒दा। स॒नात्। ए॒व। द॒स्यु॒ऽहत्या॑य। ज॒ज्ञि॒षे॒॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाध्यक्षः (कुत्सम्) वज्रादिशस्त्रसमूहम् (शुष्णहत्येषु) शुष्णानां बलानां हत्या हननं येषु संग्रामेषु। शुष्णमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (आविथ) रक्ष (अरन्धयः) हिन्धि (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय। अत्रातिथ्युपपदाद् गम् धातोः बाहुलकाद् औणादिको ड्वः प्रत्ययः। (शम्बरम्) बलम्। शम्बरमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (महान्तम्) महागुणविशिष्टम् (चित्) इव (अर्बुदम्) असङ्ख्यातगुणविशिष्टम् (नि) नितराम् (क्रमीः) क्रमस्व (पदा) पादेन (सनात्) सम्भजनात् (एव) निश्चयार्थे (दस्युहत्याय) दस्यूनां हननं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (जज्ञिषे) जातोऽसि जातोऽस्ति वा॥6॥ अन्वयः—हे विद्वन् वीर! यतस्त्वं पदा पदाक्रान्तं शत्रुसमूहं चिदिव शुष्णहत्येषु युद्धेषु महान्तं कुत्सं धृत्वा प्रजा आविथ शत्रूनरन्धयोऽतिथिग्वाय शुद्धमार्गायार्बुदं शम्बरं बलं निक्रमीः सनात्पदा दस्युहत्यायैव जज्ञिषे तस्मादस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥6॥ भावार्थः—सभाद्यध्यक्षादिभिर्यथा सूर्यस्तथा शत्रून् हत्वा श्रेष्ठान् पालयित्वा शुद्धान् मार्गान् कृत्वाऽसंख्यातं बलं धृत्वा शत्रूणां हननाय प्रभावो वर्द्धनीयः॥6॥ पदार्थः—हे विद्वन् शूरवीर मनुष्य! जिससे (त्वम्) तू (पदा) पाद से आक्रान्त हुए शत्रुसमूह को मारने वाले के (चित्) समान (शुष्णहत्येषु) शत्रुओं के बलों के हनने योग्य व्यवहारों में (महान्तम्) महागुण विशिष्ट (कुत्सम्) शस्त्रवर व्रज को धारण करके प्रजा की (आविथ) रक्षा करते और दुष्टों को (अरन्धयः) मारते हो (अतिथिग्वाय) अतिथियों के जाने-आने को शुद्ध मार्ग के लिये (अर्बुदम्) असंख्यात गुणविशिष्ट (शम्बरम्) बल को (नि क्रमीः) क्रम से बढ़ाते हो (सनात्) अच्छे प्रकार सेवन करने से (पदा) पदाक्रान्त शत्रुसेना को नाश करते हो (दस्युहत्याय) शत्रुओं के मारने रूप व्यवहार के लिये (एव) ही (जज्ञिषे) उत्पन्न हुए हो, इससे हम लोग आप का सत्कार करते हैं॥6॥ भावार्थः—सभाध्यक्षादिकों को योग्य है कि जैसे शत्रुओं को मार, श्रेष्ठों की रक्षा, मार्गों को शुद्ध और असंख्यात बल को धारण कर शत्रुओं के मारने के लिये अत्यन्त प्रभाव बढ़ावें॥6॥ पुनः सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वे विश्वा॒ तवि॑षी स॒ध्र्य॑ग्धि॒ता तव॒ राधः॑ सोमपी॒थाय॑ हर्षते। तव॒ वज्र॑श्चिकिते बा॒ह्वोर्हि॒तो वृ॒श्चा शत्रो॒रव॒ विश्वा॑नि॒ वृष्ण्या॑॥7॥ त्ये इति॑। विश्वा॑। तवि॑षी। स॒ध्र्य॑क्। हि॒ता। तव॑। राधः॑। सो॒म॒ऽपी॒थाय॑। ह॒र्ष॒ते॒। तव॑। वज्रः॑। चि॒कि॒ते॒। बा॒ह्वोः। हि॒तः। वृ॒श्च। शत्रोः॑। अव॑। विश्वा॑नि। वृष्ण्या॑॥7॥ पदार्थः—(त्वे) त्वयि (विश्वा) अखिला (तविषी) बलयुक्ता सेना (सध्र्यक्) सह सेवमानम् (हिता) हितकारिणी (तव) (राधः) धनम् (सोमपीथाय) सुखकारकपदार्थभोगाय (हर्षते) हर्षति। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (तव) (वज्रः) शस्त्रसमूहः (चिकिते) चिकित्सति (बाह्वोः) भुजयोः (हितः) धृतः (वृश्च) छिन्धि (शत्रोः) (अव) रक्ष (विश्वानि) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृषभ्यो वीरेभ्यो हितानि बलानि॥7॥ अन्वयः—हे विद्वँस्त्वे त्वयि या विश्वा तविषी हिता सध्र्यग्राधः सोमपीथाय हर्षत यस्तव बाह्वोर्हितो वज्रो येन भवान् चिकिते सुखानि ज्ञापयति तेनाऽस्माकं विश्वानि वृष्ण्या अव शत्रोर्बलं वृश्च॥7॥ भावार्थः—यदि च श्रेष्ठेषु बलं जायते तर्हि सर्वेषां सुखं वर्द्धेत, यदि दुष्टेषु बलमुत्पद्येत तर्हि सर्वेषां दुःखं वर्द्धेत, तस्माच्छ्रेष्ठानां सुखबलवृद्धिर्दुष्टानां बलहानिर्नित्यं कार्येति॥7॥ पदार्थः—हे विद्वन् मनुष्य! (त्वे) आप में जो (विश्वा) सब (तविषी) बल (हिता) स्थापित किया हुआ (सध्र्यक्) साथ सेवन करने वाला (राधः) धन (सोमपीथाय) सुख करने वाले पदार्थों के भोग के लिये (हर्षते) हर्षयुक्त करता है, जो (तव) आपके (बाह्वोः) भुजाओं में (हितः) धारण किया (वज्रः) शस्त्रसमूह है, जिससे आप (चिकिते) सुखों को जानते हो, उससे हम लोगों के (विश्वानि) सब (वृष्ण्या) वीरों के लिये हित करने वाले बल की (अव) रक्षा और (शत्रोः) शत्रु के बल का नाश कीजिये॥7॥ भावार्थः—जो श्रेष्ठों में बल उत्पन्न हो तो उससे सब मनुष्यों को सुख होवे, जो दुष्टों में बल होवे तो उससे सब मनुष्यों को दुःख होवे, इससे श्रेष्ठों के सुख की वृद्धि और दुष्टों के बल की हानि निरन्तर करनी चाहिये॥7॥ पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वि जा॑नी॒ह्यार्या॒न्ये च॒ दस्य॑वो ब॒र्हिष्म॑ते रन्धया॒ शास॑दव्र॒तान्। शाकी॑ भव॒ यज॑मानस्य चोदि॒ता विश्वेत्ता ते॑ सध॒मादे॑षु चाकन॥8॥ वि। जा॒नी॒हि॒। आर्या॑न्। ये। च॒। दस्य॑वः। ब॒र्हिष्म॑ते। र॒न्ध॒य॒। शास॑त्। अ॒व्र॒तान्। शाकी॑। भ॒व॒। यज॑मानस्य। चो॒दि॒ता। विश्वा॑। इत्। ता। ते॒। स॒ध॒ऽमादे॑षु। चा॒क॒न॒॥8॥ पदार्थः—(वि) विशेषार्थे (जानीहि) विद्धि (आर्य्यान्) धार्मिकानाप्तान् विदुषः सर्वोपकारकान् मनुष्यान् (ये) वक्ष्यमाणाः (च) समुच्चये (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्याः (बर्हिष्मते) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये (रन्धय) हिंसय (शासत्) शासनं कुर्वन्। (अव्रतान्) सत्यभाषणादिरहितान् (शाकी) प्रशस्तः शाकः शक्तिर्विद्यते यस्य सः (भव) निर्वर्त्तस्व (यजमानस्य) यज्ञनिष्पादकस्य (चोदिता) प्रेरकः (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सधमादेषु) सुखेन सह वर्त्तमानेषु स्थानेषु (चाकन) कामये। अत्र कनधातोर्वर्त्तमाने लिट् तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य (अष्टा॰6.1.7) इत्यभ्यासदीर्घत्वं च॥8॥ अन्वयः—हे मनुष्य! त्वं बर्हिष्मत आर्य्यान् विजानीहि ये दस्यवः सन्ति ताँश्च विदित्वा रन्धयाऽव्रतान् शासत् यजमानस्य चोदिता सन् शाकी भव यतस्ते तवोपदेशेन सङ्गेन वा सधमादेषु ता तानि विश्वा विश्वान्येतानि सर्वाणि कर्माणीदेवाहं चाकन॥8॥ भावार्थः—मनुष्यैर्दस्युस्वभावं विहायाऽऽर्य्यस्वभावयोगेन नित्यं भवितव्यम्। त आर्य्या भवितुमर्हन्ति ये सद्विद्यादिप्रचारेण सर्वेषामुत्तमभोगसिद्धयेऽधर्मदुष्टनिवारणाय च सततं प्रयतन्ते न खलु कश्चिदार्यसङ्गाध्ययनोपदेशै- र्विना यथावद्विद्वान् धर्मात्माऽऽर्य्यस्वभावो भवितुं शक्नोति, तस्मात् किल सर्वैरुत्तमानि गुणकर्माणि सेवित्वा दस्युकर्म्माणि हित्वा सुखयित्वम्॥8॥ पदार्थः—हे मनुष्य! तू (बर्हिष्मते) उत्तम सुखादि गुणों के उत्पन्न करने वाले व्यवहार की सिद्धि के लिये (आर्य्यान्) सर्वोपकारक धार्मिक विद्वान् मनुष्यों को (विजानीहि) जान और (ये) जो (दस्यवः) परपीड़ा करने वाले अधर्मी दुष्ट मनुष्य हैं, उनको जान कर (बर्हिष्मते) धर्म की सिद्धि के लिये (रन्धय) मार और उन (अव्रतान्) सत्यभाषणादि धर्मरहित मनुष्यों को (शासत्) शिक्षा करते हुए (यजमानस्य) यज्ञ के कर्ता का (चोदिता) प्रेरणाकर्त्ता और (शाकी) उत्तम शक्तियुक्त सामर्थ्य को (भव) सिद्ध कर, जिससे (ते) तेरे उपदेश वा सङ्ग से (सधमादेषु) सुखों के साथ वर्त्तमान स्थानों में (ता) उन (विश्वा) सब कर्मों को सिद्ध करने की (इत्) ही मैं (चाकन) इच्छा करता हूं॥8॥ भावार्थः—मनुष्यों को दस्यु अर्थात् दुष्ट स्वभाव को छोड़ कर आर्य्य अर्थात् श्रेष्ठ स्वभावों के आश्रय से वर्त्तना चाहिये। वे ही आर्य हैं कि जो उत्तम विद्यादि के प्रचार से सबके उत्तम भोग की सिद्धि और अधर्मी दुष्टों के निवारण के लिये निरन्तर यत्न करते हैं। निश्चय करके कोई भी मनुष्य आर्य्यों के संग, उनसे अध्ययन वा उपदेशों के विना यथावत् विद्वान्, धर्मात्मा, आर्यस्वभाव युक्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे निश्चय करके आर्य के गुण और कर्मों को सेवन कर निरन्तर सुखी रहना चाहिये॥8॥ पुनः स किं कुर्वन् किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करके किस को करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अनु॑व्रताय र॒न्धय॒न्नप॑व्रताना॒भूभि॒रिन्द्रः॑ श्न॒थय॒न्नना॑भुवः। वृ॒द्धस्य॑ चि॒द्वर्ध॑तो॒ द्यामिन॑क्षतः॒ स्तवा॑नो व॒म्रो वि ज॑घान सं॒दिहः॑॥9॥ अनु॑ऽव्रताय। र॒न्धय॑न्। अप॑ऽव्रतान्। आ॒ऽभूभिः॑। इन्द्रः॑। श्न॒थय॑न्। अना॑भुवः। वृ॒द्धस्य॑। चि॒त्। वर्ध॑तः। द्याम्। इन॑क्षतः। स्तवा॑नः। व॒म्रः। वि। ज॒घा॒न॒। स॒म्ऽदिहः॑॥9॥ पदार्थः—(अनुव्रताय) अनुगतानि धर्म्याणि व्रतानि यस्य तस्मै (रन्धयन्) सेनया सामादिभिर्वा हिंसयन् (अपव्रतान्) अपगतानि दुष्टानि मिथ्याभाषणादीनि व्रतानि कर्माणि येषान्तान् दस्यून् (आभूभिः) समन्ताद्भवन्ति वीरा यासु प्रशासनक्रियासु ताभिः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभाशालासेनान्यायाधीशः (श्नथयन्) हिंसयन् (अनाभुवः) ये समन्ताद्धर्माचरणे भवन्ति त आभुवो नाभुवोऽनाभुवस्तान् (वृद्धस्य) ज्ञानादिगुणैः श्रेष्ठस्य (चित्) इव (वर्द्धतः) यो गुणैर्दोर्षैर्वा वर्द्धते तस्य (द्याम्) किरणप्रकाशवद्विद्याप्रकाशम् (इनक्षतः) व्याप्नुवतः। अयं निपातेकारोपपदस्य नक्षधातोः प्रयोगः। (स्तवानः) यः स्तौति सः (वम्रः) उद्गिरकस्त्यक्ता (वि) विशेषे (जघान) हन्ति (संदिहः) संदिहत्यसौ सन्दिहः॥9॥ अन्वयः—मनुष्यैर्य इन्द्रः परमविद्याद्यैश्वर्यवान् मनुष्य आभूभिः सह वर्त्तमानोऽनुव्रतायार्यायाव्रतान् दुष्टान् दस्यून् रन्धयन्ननाभुवः श्नथयन् शिथिली कुर्वन्निनक्षतो वर्धतो वृद्धस्य स्तवानो वम्रोऽधर्मस्योद्गिरकः सन्दिहो द्यां चिदिव प्रकाशं कुर्वन् सूर्य्य इव विद्याप्रचारं विस्तारयन् दुष्टान् विजघान विशेषेण हन्ति स एव कुलभूषकोऽस्ति तं सर्वाधिपतित्वेऽधिकृत्य राजधर्मः पालनीयः॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्धार्मिकैर्भूत्वा सर्वान् मनुष्यानविद्यातो निवर्त्य विद्यावतः कृत्वा धर्माऽधर्मौ संदिह्य निश्चित्य च धर्मग्रहणमधर्मत्यागश्च कार्य्यः कारयितव्यश्च। सदैवार्य्याणां सङ्गं कृत्वा दस्यूनां च त्यक्त्वा सर्वोत्तमायां व्यवस्थायां वर्त्तितव्यमिति॥9॥ पदार्थः—मनुष्यों को उचित है कि जो (इन्द्रः) परम विद्या आदि ऐश्वर्य्य, सभा, शाला, सेना और न्याय का अध्यक्ष (आभूभिः) उत्तम वीरों को शिक्षा करने वाली क्रियाओं के साथ वर्त्तमान (अनुव्रताय) अनुकूल धर्म युक्त व्रतों के धारण करने वाले आर्य मनुष्य के लिये (अपव्रतान्) मिथ्या भाषणादि दुष्ट कर्मयुक्त डाकू मनुष्यों को (रन्धयन्) अति ताड़ना करता हुआ (अनाभुवः) जो धर्मात्माओं से विरुद्ध मनुष्य हैं, उन पापियों को (श्नथयन्) शिथिल करता (इनक्षतः) व्याप्तियुक्त (वर्धतः) गुण दोषों से बढ़ने वाले (वृद्धस्य) ज्ञानादि गुणों से युक्त श्रेष्ठ की (स्तवानः) स्तुति का कर्त्ता (वम्रः) अधर्म का नाश (संदिहः) धर्माऽधर्म को संदेह से निश्चय करने वाला (द्याम्) सूर्य प्रकाश के (चित्) समान विद्या के प्रकाश को विस्तारयुक्त करता हुआ दुष्टों को (विजघान) विशेष करके मारता है, उसी कुल को सुभूषित करने वाले आर्य मनुष्य को सर्वाधिपतिपन में स्वीकार कर राजधर्म का यथावत् पालन करें॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब धार्मिक मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों को अविद्या से निवारण और विद्या पढ़ा विद्वान् करके धर्माऽधर्म के विचार पूर्वक निश्चय से धर्म का ग्रहण और अधर्म का त्याग करें। सदैव आर्यों का सङ्ग डाकुओं के सङ्ग का त्याग कर सबसे उत्तम व्यवस्था में वर्त्तें॥9॥ पुनः सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तक्ष॒द्यत्त॑ उ॒शना॒ सह॑सा॒ सहो॒ वि रोद॑सी म॒ज्मना॑ बाधते॒ शवः॑। आ त्वा॒ वात॑स्य नृमणो मनो॒युज॒ आ पूर्य॑माणमवहन्न॒भि श्रवः॑॥10॥10॥ तक्ष॑त्। यत्। ते॒। उ॒शना॑। सह॑सा। सहः॑। वि। रोद॑सी॒ इति॑। म॒ज्मना॑। बा॒ध॒ते॒। शवः॑। आ। त्वा॒। वात॑स्य। नृ॒ऽम॒नः॒। म॒नः॒ऽयुजः॑। आ। पूर्य॑माणम्। अ॒व॒ह॒न्। अ॒भि। श्रवः॑॥10॥ पदार्थः—(तक्षत्) तनूकरोति (यत्) (ते) तव (उशना) कामयमानः (सहसा) सामर्थ्येनाकर्षणेन वा (सहः) बलं सहनम् (वि) विशेषार्थे (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मज्मना) शुद्धेन बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (बाधते) विलोडयति (शवः) बलम् (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (वातस्य) बलिष्ठस्य वायोरिव (नृमणः) नृषु नयनकारिषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (मनोयुजः) ये मनसा युज्यन्ते ते भृत्याः (आ) समन्तात् (पूर्य्यमाणम्) न्यूनतारहितम् (अवहन्) प्राप्नुयुः (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा॥10॥ अन्वयः—हे नृमणो विद्वन्नुशना! भवान् सहसा शत्रूणां सहो हत्वा सूर्यो रोदसी भूमिप्रकाशाविव मज्मना स्वकीयेन शुद्धेन बलेन शवः शत्रूणां बलं विबाधत आतक्षच्च। मनोयुजो भृत्यास्त्वा त्वामाश्रित्य ते तव वातस्यापूर्यमाणं श्रवोऽभ्यवहन् समन्तात् प्राप्नुयुः॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि विदुषा सेनाध्यक्षेण विना पृथिवीराज्यव्यवस्था शत्रूणां बलहानिर्विद्यासद्गुणप्रकाशा उत्तमान्नादिप्राप्तिश्च जायते॥10॥ पदार्थः—हे (नृमणाः) मनुष्यों में मन देने वाले (उशना) कामयमान विद्वान् आप! (सहसा) अपने सामर्थ्य से शत्रुओं के (सहः) बल का हनन कर के जैसे सूर्य (रोदसी) भूमि और प्रकाश को करता है वैसे (मज्मना) शुद्ध बल से (शवः) शत्रुओं के बल को (विबाधते) विलोड़न वा (आतक्षत्) छेदन करते हो और (ते) आप के (मनोयुजः) मन से युक्त होने वाले भृत्य (त्वा) आप का आश्रय ले के (ते) आप के (वातस्य) बलयुक्त वायु के सम्बन्धी (आपूर्यमाणम्) न्यूनतारहित (श्रवः) श्रवण और अन्नादि को (अभ्यावहन्) प्राप्त होवें॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् सभाध्यक्ष के विना पृथिवी के राज्य की व्यवस्था शत्रुओं के बल की हानि विद्यादि सद्गुणों का प्रकाश और उत्तम अन्नादि की प्राप्ति नहीं होती॥10॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ मन्दि॑ष्ट॒ यदु॒शने॑ का॒व्ये सचाँ॒ इन्द्रो॑ व॒ङ्कू व॑ङ्कु॒तराधि॑ तिष्ठति। उ॒ग्रो य॒यिं निर॒पः स्रोत॑सासृज॒द् वि शुष्ण॑स्य दृंहि॒ता ऐ॑रय॒त् पुरः॑॥11॥ मन्दि॑ष्ट। यत्। उ॒शने॑। का॒व्ये। सचा॑। इन्द्रः॑। व॒ङ्कू इति॑। व॒ङ्कु॒ऽतरा॑। अधि॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। उ॒ग्रः। य॒यिम्। निः। अ॒पः। स्रोत॑सा। अ॒सृ॒ज॒त्। वि। शुष्ण॑स्य। दृं॒हि॒ताः। ऐ॒र॒य॒त्। पुरः॑॥11॥ पदार्थः—(मन्दिष्ट) अतिशयेन मन्दिता तत्सम्बुद्धौ (यत्) यस्मिन् (उशने) कामयमाने (काव्ये) कवीनां कर्मणि (सचा) विज्ञानप्रापकेन गुणसमूहेन (इन्द्रः) सभाध्यक्षः (वङ्कू) कुटिलगती शत्रूदासीनौ (वङ्कुतरा) अतिशयेन कुटिलौ (अधि) ईश्वरोपरिभावयोः (तिष्ठति) प्रवर्त्तते (उग्रः) दुष्टानां हन्ता (ययिम्) याति सोऽयं ययिर्मेघस्तम् (निः) नितराम् (अपः) जलानीव प्राणान् (स्रोतसा) प्रसवितेन (असृजत्) सृजति (वि) विशिष्टार्थे (शुष्णस्य) बलस्य (दृंहिता) वर्धिकाः क्रियाः (ऐरयत्) गमयति (पुरः) पूर्वम्॥11॥ अन्वयः—हे मन्दिष्ट! य उग्र इन्द्रः सभाध्यक्षो भवान् सूर्य्यः स्रोतसाऽपि इव यद्वङ्कू कुटिलौ वङ्कुतरौ शत्रूदासीनावधितिष्ठति यथा सविता सचा ययिं मेघं निरसृजत् तथा शुष्णस्य बलस्य दृंहिताः क्रियाः पुरो व्यैरयद् विविधतया प्रेरते तथा त्वं भव॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः कविः सर्वशास्त्रवेत्ता कुटिलताविनाशको दुष्टानामुपर्युग्रः श्रेष्ठानामुपरि कोमलः सर्वथा बलवर्द्धकः पुरुषोऽस्ति, स एव सभाधिकारादिषु योजनीयः॥11॥ पदार्थः—हे (मन्दिष्ट) अतिशय करके स्तुति करने वाले जो (उग्रः) दुष्टों को मारने वाले (इन्द्रः) सभाध्यक्ष! आप जैसे सूर्य (स्रोतसा) स्रोताओं से (आपः) जलों को बहाता है, वैसे (उशने) अतीव सुन्दर (यत्) जिस (काव्ये) कवियों के कर्म में जो (वङ्कू) कुटिल (वङ्कुतरा) अतिशय करके कुटिल चाल वाले शत्रु और उदासी मनुष्यों के (अधितिष्ठति) राज्य में अधिष्ठाता होते हो जैसे सविता (सचा) अपने गुणों से (ययिम्) मेघ को (निरसृजत्) नित्य सर्जन करता है, वैसे (शुष्णस्य) बल की (दृंहिता) वृद्धि कराने हारी क्रियाओं को (पुरः) पहिले (व्यैरयत्) प्राप्त करते हो, सो आपको सत्कार करने योग्य हो॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो कवि सब शास्त्र का वक्ता, कुटिलता का विनाश करने, दुष्टों में कठोर, श्रेष्ठों में कोमल, सर्वथा बल को बढ़ाने वाला पुरुष है, उसी को सभा आदि के अधिकारों में स्वीकार करें॥11॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ स्मा॒ रथं॑ वृष॒पाणे॑षु तिष्ठसि शार्या॒तस्य॒ प्रभृ॑ता॒ येषु॒ मन्द॑से। इन्द्र॒ यथा॑ सु॒तसो॑मेषु चा॒कनो॑ऽन॒र्वाणं॒ श्लोक॒मा रो॑हसे दि॒वि॥12॥ आ। स्म॒। रथ॑म्। वृ॒ष॒ऽपाने॑षु। ति॒ष्ठ॒सि॒। शा॒र्या॒तस्य॑। प्रऽभृ॑ताः। येषु॑। मन्द॑से। इन्द्र॑। यथा॑। सु॒तऽसो॑मेषु। चा॒कनः॑। अ॒न॒र्वाण॑म्। श्लोक॑म्। आ। रो॒ह॒से॒। दि॒वि॥12॥ पदार्थः—(आ) अभितः (स्म) एव (रथम्) विमानादिकम् (वृषपाणेषु) ये वृषन्ति पोषयन्ति ते वृषाः सोमादयः पदार्थास्तेषां पानेषु (तिष्ठसि) (शार्य्यातस्य) यो वीरसमूहं शरितुं हिंसितुं योग्यान् समन्तान्निरन्तरमतति व्याप्नोति तस्य मध्ये। अत्र शृधातोर्ण्यत् अतधातोरच् प्रत्ययः। (प्रभृताः) प्रकृष्टतया धृताः (येषु) उत्तमगुणेषु पदार्थेषु। (मन्दसे) हर्षसि (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्ययुक्त (यथा) येन प्रकारेण (सुतसोमेषु) सुता निष्पादिताः सोमा उत्तमा रसा येभ्यस्तेषु (चाकनः) कामयसे (अनर्वाणम्) अग्न्याद्यश्वसहितं पश्वाद्यश्वरहितम्। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (श्लोकम्) सर्वावयवैः संहितां वाचम् (आ) समन्तात् (रोहसे) (दिवि) द्योतनात्मके सूर्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्ष इव न्यायप्रकाशे॥12॥ अन्वयः—हे इन्द्र विद्वन् सभाध्यक्ष! यस्मात्त्वं यथा विद्वांसः पदार्थविद्यां सम्यगेत्य सुखानि प्राप्नुवन्ति ये शार्य्यातस्य येषु सुतसोमेषु वृषपाणेषु व्यवहारेषु प्रभृतास्तथैतान् प्राप्य मन्दसेऽनर्वाणं रथं श्लोकमातिष्ठसि चाकन दिव्यारोहसे तस्मात्त्वं योग्योऽसि॥12॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। नहि विमानादियानैर्विद्वत्सङ्गेन च विना कस्यचित्सुखं सम्भवति तस्माद्विद्वत्सभां पदार्थज्ञानोपयोगौ च कृत्वा सर्वैरानन्दितव्यम्॥12॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्य वाले सभाध्यक्ष! जिससे तू (यथा) जैसे विद्वान् लोग पदार्थ विद्या को सिद्ध करके सुखों को प्राप्त होते और जो (शार्यातस्य) वीर पुरुष के (येषु) जिन (सुतसोमेषु) उत्तम रसों से युक्त (वृषपाणेषु) पुष्टि करने वाले सोमलतादि पदार्थों अर्थात् वैद्यक शास्त्र की रीति से अति श्रेष्ठ बनाये हुए उत्तम व्यवहारों में (प्रभृताः) धारण किये हों, वैसे उनको प्राप्त होके (मन्दसे) आनन्दित होने और (अनर्वाणम्) अग्नि आदि अश्वसहित, पशु आदि अश्वरहित (श्लोकम्) सब अवयवों से सहित रथ के मध्य (स्म) ही (आतिष्ठसि) स्थित और उस की (चाकनः) इच्छा करते हैं और (दिवि) प्रकाश रूप सूर्य्यलोक में (आरोहसे) आरोहण करते हो (स्म) इसलिये आप योग्य हो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विमानादि यान वा विद्वानों के सङ्ग के विना किसी मनुष्य को सुख नहीं हो सकता। इससे विद्वानों के सभा वा पदार्थों के ज्ञान के उपयोग से सब मनुष्यों को आनन्द में रहना चाहिये॥12॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अद॑दा॒ अर्भां॑ मह॒ते व॑च॒स्यवे॑ क॒क्षीव॑ते वृच॒यामि॑न्द्र सुन्व॒ते। मेना॑भवो वृषण॒श्वस्य॑ सुक्रतो॒ विश्वेत्ता ते॒ सव॑नेषु प्र॒वाच्या॑॥13॥ अद॑दाः। अर्भा॑म्। म॒ह॒ते। व॒च॒स्यवे॑। क॒क्षीव॑ते। वृ॒च॒याम्। इ॒न्द्र॒। सु॒न्व॒ते। मेना॑। अ॒भ॒वः॒। वृ॒ष॒ण॒श्वस्य॑। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो। विश्वा॑। इत्। ता। ते॒। सव॑नेषु। प्र॒ऽवाच्या॑॥13॥ पदार्थः—(अददाः) देहि (अर्भाम्) अल्पामपि शिल्पक्रियां वाचं वा (महते) महागुणविशिष्टाय (वचस्यवे) आत्मनो वचः शास्त्रोपदेशमिच्छवे (कक्षीवते) कक्षाः प्रशस्ताङ्गुलय इव विद्या प्रान्ता विद्यन्ते यस्य तस्मै। कक्षा इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं॰2.5) (वृचयाम्) छेदनभेदनप्रकारम् (इन्द्र) शिल्पक्रियाविद्विद्वन्। (सुन्वते) शिल्पविद्यानिष्पादकाय (मेना) वाणी। मेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (अभवः) भव (वृषणश्वस्य) वृषणो वृष्टिहेतवो यानगमयितारो वाऽश्वा यस्य तस्य। वृषण्वस्वश्वयोः। (अष्टा॰वा॰1.4.18) अनेन भसंज्ञाकरणान्नलोपो न, णत्वं च भवति (सुक्रतो) शोभनाः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सवनेषु) सुन्वन्ति यैः कर्मभिस्तेषु (प्रवाच्या) प्रकृष्टतया वक्तं योग्या॥13॥ अन्वयः—हे सुक्रतो इन्द्र! शिल्पविद्यादिद्वँस्त्वं वचस्यवे महते सुन्वते कक्षीवते जनाय मां वृचयामर्भां स्वल्पामपि क्रियामददाः या सवनेषु प्रवाच्या मेना वाक् क्रिया वा वृषणश्वस्य शिल्पक्रियामिच्छोस्ते यानि विश्वा कार्य्याणि सन्ति, ता इदेव संसाधितुं समर्थोऽभवो भव॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थविद्यादानं कृत्वा सर्वेभ्यो हितं निष्पादनीयमिति॥13॥ पदार्थः—हे (सुक्रतो) शोभनकर्म युक्त (इन्द्र) शिल्प विद्या को जानने वाले विद्वान्। तू (वचस्यवे) अपने को शास्त्रोपदेश की इच्छा करने वा (महते) महागुण विशिष्ट (सुन्वते) शिल्पविद्या को सिद्ध करने (कक्षीवते) विद्याप्रान्त अङ्गुली वाले मनुष्य के लिये जिस (वृचयाम्) छेदन-भेदनरूप (अर्भाम्) थोड़ी भी शिल्पक्रिया को (अददाः) देते हो (सवनेषु) प्रेरणा करने वाले कर्मों में (प्रवाच्या) अच्छे प्रकार कथन करने योग्य (मेना) वाणी (वृषणश्वस्य) शिल्पक्रिया की इच्छा करने वाले (ते) आपके (विश्वा) सब कार्य्य हैं (ता) (इत्) उन ही के सिद्ध करने को समर्थ (अभवः) हूजिये॥13॥ भावार्थः—विद्वान् मनुष्यों को अग्नि आदि पदार्थों से विद्यादान करके सब मनुष्यों के लिये हित के काम करने चाहिये॥13॥ पुनः स कीदृशग्गुणो भवेदित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसे गुणवाला हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ इन्द्रो॑ अश्रायि सु॒ध्यो॑ निरे॒के प॒ज्रेषु॒ स्तोमो॒ दुर्यो॒ न यूपः॑। अ॒श्व॒युर्ग॒व्यू र॑थ॒युर्व॑सू॒युरिन्द्र॒ इद्रा॒यः क्ष॑यति प्रय॒न्ता॥14॥ इन्द्रः॑। अ॒श्रा॒यि॒। सु॒ऽध्यः॑। नि॒रे॒के। प॒ज्रेषु॑। स्तोमः॑। दुर्यः॑। न। यूपः॑। अ॒श्व॒ऽयुः। ग॒व्युः। र॒थ॒ऽयुः। व॒सु॒ऽयुः। इन्द्रः॑। इत्। रा॒यः। क्ष॒य॒ति॒। प्र॒ऽय॒न्ता॥14॥ पदार्थः—(इन्द्रः) सर्वाधीशः (अश्रायि) श्रियेत सेव्येत (सुध्यः) शोभना धीर्येषान्ते। अत्र छन्दस्युभयथा। (अष्टा॰6.4.86) अनेन पाक्षिको यणादेशः। (निरेके) निर्गता रेकाः शंका यस्मात्तस्मिन् (पज्रेषु) शिल्पव्यवहारेषु। अत्र पन धातोः बाहुलकाद् औणादिको रक् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन जकारादेशश्च। (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (दुर्यः) गृहसम्बन्धी द्वारस्थः। दुर्या इति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (न) इव (यूपः) स्तम्भः (अश्वयुः) आत्मनोऽश्वानिच्छुः (गव्युः) आत्मनो गाः धेनुपृथिवीन्द्रियकिरणान्निच्छुः (इन्द्रः) विद्याद्यैश्वर्य्यवान् (इत्) एव (रायः) धनानि (क्षयति) प्राप्नुयात्। लेट्प्रयोगोऽयम् (प्रयन्ता) प्रकर्षेण यमनकर्त्ता सन्॥14॥ अन्वयः—योऽश्वयुर्गव्यूरथयुर्वसूयुरिदेवेन्द्रो राय क्षयति स मनुष्यैर्ये सुध्यः सन्ति तैर्दुर्यो यूपो नेवायमिन्द्रो निरेके पज्रेषु स्तोमः स्तोतुमर्होऽश्रायि॥14॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्याश्रयेण बहूनि कार्याणि सिध्यन्ति, तथा विदुषामग्निजलादीनां सकाशाद् रथसिद्ध्या धनप्राप्तिर्जायत इति॥14॥ पदार्थः—जो (अश्वयुः) अपने अश्वों (गव्युः) अपने गौ पृथिवी इन्द्रिय किरणों (रथयुः) अपने रथ और (वसूयुः) अपने द्रव्यों की इच्छा और (प्रयन्ता) अच्छे प्रकार नियम करने वाले के (इत्) समान (इन्द्रः) विद्यादि ऐश्वर्ययुक्त विद्वान् (रायः) धनों को (क्षयति) निवासयुक्त करता है वह (सुध्यः) जो उत्तम बुद्धि वाले विद्वान् मनुष्य हैं, उनसे (दुर्यः) गृहसम्बन्धी (यूपः) खंभा के (न) समान (इन्द्रः) विद्यादि ऐश्वर्यवान् विद्वान् (निरेके) शंकारहित (पज्रेषु) शिल्पादि व्यवहारों में (स्तोमः) स्तुति करने योग्य (अश्रायि) सेवनयुक्त होता है॥14॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से बहुत उत्तम-उत्तम कार्य सिद्ध होते हैं, वैसे विद्वान् वा अग्नि जलादि के सकाश से रथ की सिद्धि के द्वारा धन की प्राप्ति होती है॥14॥ अथ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥ इ॒दं नमो॑ वृष॒भाय॑ स्व॒राजे॑ स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ऽवाचि। अ॒स्मिन्नि॑न्द्र वृ॒जने॒ सर्व॑वीराः॒ स्मत्सू॒रिभि॒स्तव॒ शर्म॑न्त्स्याम॥15॥11॥ इदम्। नमः॑। वृ॒ष॒भाय॑। स्व॒ऽराजे॑। स॒त्यऽशु॑ष्माय। त॒वसे॑। अ॒वा॒चि॒। अ॒स्मिन्। इ॒न्द्र॒। वृ॒जने॑। सर्व॑ऽवीराः। स्मत्। सू॒रिऽभिः॑। तव॑। शर्म॑न्। स्या॒म॒॥15॥ पदार्थः—(इदम्) प्रत्यक्षम् (नमः) सत्करणम् (वृषभाय) सुखवृष्टेः कर्त्रे (स्वराजे) स्वयं राजते तस्मै सर्वाधिपतये परमेश्वराय (सत्यशुष्माय) सत्यमविनश्वरं शुष्मं बलं यस्य तस्मै (तवसे) बलाय। तव इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (अवाचि) उच्यते (अस्मिन्) जगति यक्ष्यमाणे वा (इन्द्र) परमपूज्य (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि येन बलेन तस्मिन्। वृजनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (सर्ववीराः) सर्वे च वीराश्च ते सर्ववीराः (स्मत्) श्रेष्ठार्थे (सूरिभिः) मेधाविभिः सह (तव) (शर्मन्) शर्मणि गृहे। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (स्याम) भवेम॥15॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभेश! यथा सूरिभिर्वृषभाय सत्यशुष्माय तवसे स्वराजे जगदीश्वरायेदं नमोऽवाच्युच्यते तथास्मदादिभिरप्युच्यत एवं विधाय वयं तवास्मिन् वृजने शर्मन् स्मत् सुष्ठुतया सर्ववीराः स्याम भवेम॥15॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वद्भिः सह वर्त्तमानैर्भूत्वा परमेश्वरस्योपासनां पूर्णप्रीत्या विद्वत्सङ्गं च कृत्वाऽस्मिन् संसारे परमानन्दः प्राप्तव्यः प्रापयतिव्यश्चेति॥15॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्याग्निविद्युदादिपदार्थवर्णनं बलादिप्रापणमनेकालङ्कारोक्त्या विविधार्थवर्णनं सभाध्यक्षपरमेश्वरगुणप्रतिपादनं चोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्। इत्येकादशो 11 वर्ग 51 एकपञ्चाशं सूक्तं च समाप्तम्। वर्गः 11 सूक्तम्॥51॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परम पूजनीय सभापते! जैसे (सूरिभिः) विद्वान् लोग (वृषभाय) सुख की वृष्टि करने (सत्यशुष्माय) विनाशरहित बलयुक्त (तवसे) अति बल से प्रवृद्ध (स्वराजे) अपने आप प्रकाशमान परमेश्वर को (इदम्) इस (नमः) सत्कार को (अवाचि) कहते हैं, वैसे हम भी करें, ऐसे करके हम लोग (तव) आपके (अस्मिन्) इस जगत् वा इस (वृजने) दुःखों को दूर करने वाले बल से युक्त (शर्मन्) गृह में (स्मत्) अच्छे प्रकार सुखी (स्याम) होवें॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को विद्वान् के साथ वर्त्तमान रह कर परमेश्वर ही की उपासना, पूर्णप्रीति से विद्वानों का सङ्ग कर परम आनन्द को प्राप्त करना और कराना चाहिये॥15॥ इस सूक्त में सूर्य अग्नि और बिजुली आदि पदार्थों का वर्णन, बलादि की प्राप्ति, अनेक अलङ्कारों के कथन से विविध अर्थों का वर्णन और सभाध्यक्ष तथा परमेश्वर के गुणों का प्रतिपादन किया है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह ग्यारहवां वर्ग 11 और इक्यावनवां 51 सूक्त समाप्त हुआ॥15॥

अथाऽस्य पञ्चदशर्चस्य द्विपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ 1,8 भुरिक् त्रिष्टुप्। 7 त्रिष्टुप्। 9,10 स्वराट् त्रिष्टुप्। 12,13,15 निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 2-4 निचृज्जगती। 5,14 जगती। 6,11 विराट् जगती च छन्दः। निषादः स्वरः॥ पुनः स इन्द्रः कीदृगित्युपदिश्यते॥ अब बावनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है॥ त्यं सु मे॒षं म॑हया स्व॒र्विदं॑ श॒तं यस्य॑ सु॒भ्वः॑ सा॒कमीर॑ते। अत्यं॒ न वाजं॑ हवन॒स्यदं॒ रथ॒मेन्द्रं॑ ववृत्या॒मव॑से सुवृ॒क्तिभिः॑॥1॥ त्यम्। सु। मे॒षम्। म॒ह॒य॒। स्वः॒ऽविद॑म्। श॒तम्। यस्य॑। सु॒भ्वः॑। सा॒कम्। ईर॑ते। अत्य॑म्। न। वाज॑म्। ह॒व॒न॒ऽस्यद॑म्। रथ॑म्। आ। इन्द्र॑म्। व॒वृ॒त्या॒म्। अव॑से। सु॒वृ॒क्तिभिः॑॥1॥ पदार्थः—(त्यम्) तं सभाध्यक्षम् (सु) शोभने (मेषम्) सुखजलाभ्यां सर्वान् सेक्तारम् (महय) पूजयोपकुरु वा। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (स्वर्विदम्) स्वरन्तरिक्षं विन्दति येन तम् (शतम्) असंख्याताः (यस्य) इन्द्रस्य (सुभ्वः) ये जनाः सुष्ठु सुखं भावयन्ति ते। अत्र छन्दस्युभयथा (अष्टा॰6.4.87) इति यणादेशः। (साकम्) सह (ईरते) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (अत्यम्) अश्वम्। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (न) इव (वाजम्) वेगयुक्तम् (हवनस्यदम्) येन हवनं पन्थानं स्यन्दते तम् (रथम्) विमनादिकम् (आ) समन्तात् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम्, लिङ् प्रयोगोऽयम्। बहुलं छन्दसीत्यादिभिः द्वित्वादिकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु शोभना वृक्तयो दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु ताभिः॥1॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यस्येन्द्रस्य सेनाध्यक्षस्य शतं सुभ्वो जनाः सुवृक्तिभिः साकमत्यमश्वं नेवावसे हवनस्यदं वाजमिन्द्रं स्वर्विदं रथमीरते, येनाहं ववृत्यां वर्त्तयेयं त्यन्तं मेषं त्वं सुमहय॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथाऽश्वं नियोज्य रथादिकं चालयन्ति, तथैतै- र्वह्न्यादिभिर्यानानि वाहयित्वा कार्याणि साधयेयुः॥1॥ पदार्थः—(यस्य) जिस परमैश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष के (शतम्) असंख्यात (सुभ्वः) सुखों को उत्पन्न करने वाले कारीगर लोग (सुवृक्तिभिः) दुःखों को दूर करने वाली उत्तम क्रियाओं के (साकम्) साथ (अत्यम्) अश्व के (न) समान अग्नि जलादि से (अवसे) रक्षादि के लिये (हवनस्यदम्) सुखपूर्वक आकाश मार्ग में प्राप्त करने वाले (वाजम्) वेगयुक्त (इन्द्रम्) परमोत्कृष्ट ऐश्वर्य के दाता (स्वर्विदम्) जिससे आकाश मार्ग से जा आ सकें, उस (रथम्) विमान आदि यान को (ईरते) प्राप्त होते हैं और जिससे मैं (ववृत्याम्) वर्त्तता हूं (त्यम्) उस (मेषम्) सुख को वर्षाने वाले को हे विद्वान् मनुष्य! तू उनका (सुमहय) अच्छे प्रकार सत्कार कर॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे अश्व को युक्त कर रथ आदि को चलाते हैं, वैसे अग्नि आदि से यानों को चला के कार्यों को सिद्ध कर सुखों को प्राप्त होना चाहिये॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स पर्व॑तो॒ न ध॒रुणे॒ष्वच्यु॑तः स॒हस्र॑मूति॒स्तवि॑षीषु वावृधे। इन्द्रो॒ यद्वृ॒त्रमव॑धीन्नदी॒वृत॑मु॒ब्जन्नर्णं॑सि॒ जर्हृ॑षाणो॒ अन्ध॑सा॥2॥ सः। पर्व॑तः। न। ध॒रुणे॑षु। अच्यु॑तः। स॒हस्र॑म्ऽऊतिः। तवि॑षीषु। व॒वृ॒धे॒। इन्द्रः॑। यत्। वृ॒त्रम्। अव॑धीत्। न॒दी॒ऽवृत॑म्। उ॒ब्जन्। अर्णंा॑सि। जर्हृ॑षाणः। अन्ध॑सा॥2॥ पदार्थः—(सः) पूर्वोक्तः (पर्वतः) मेघः (न) इव (धरुणेषु) धारकेषु वाय्वादिषु (अच्युतः) अक्षयः (सहस्रमूतिः) सहस्रमूतयो रक्षणीदीनि यस्मात्सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्व विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलोपः। (तविषीषु) बलयुक्तेषु सैन्येषु (वावृधे) अतिशयेन वर्द्धते (इन्द्रः) सूर्यः (यत्) यः (वृत्रम्) मेघम् (अवधीत्) हन्ति (नदीवृतम्) नदीभिर्वृतो युक्तो नदीर्वर्त्तयति वा तम् (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन्। अधो निपातयन् वा (अर्णांसि) जलानि। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (जर्हृषाणः) पुनः पुनर्हर्षं प्रापयन् (अन्धसा) अन्नादिना॥2॥ अन्वयः—हे राजप्रजाजन! यथा धरुणेष्वच्युतोऽर्णांस्युब्जन्निन्द्रो नदीवृतं वृत्रमवधीत्, स च पर्वतो नेव वावृधे पुनः पुनर्वर्धते, यद्यस्त्वं शत्रून् हिंधि सहस्रमूतिस्तविषीषु जर्हृषाणः सन्नन्धसा वर्द्धस्व॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो मनुष्यः सूर्यवत्सेनादिधारणं कृत्वा मेघवदन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानो बलानि वर्धयति, स गिरिवत्स्थिरसुखः सन् शत्रून् हत्वा राज्यं वर्द्धयितुं शक्नोति॥2॥ पदार्थः—हे राजप्रजाजन! जैसे (धरुणेषु) धारकों में (अच्युतः) सत्य सामर्थ्य युक्त (अर्णांसि) जलों को (उब्जन्) बल पकड़ता हुआ (इन्द्रः) सविता (नदीवृतम्) नदियों से युक्त वा नदियों को वर्त्ताने वाले (वृत्रम्) मेघ को (अवधीत्) मारता है (सः) वह (पर्वतः) पर्वत के (न) समान (ववृधे) बढ़ता है, वैसे (यत्) जो तू शत्रुओं को मार (सहस्रमूतिः) असंख्यात रक्षा करनेहारे (तविषीषु) बलों में (जर्हृषाणः) बार-बार हर्ष को प्राप्त करता हुआ (अन्धसा) अन्नादि के साथ वर्त्तमान बार-बार बढ़ाता रह॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सेना आदि को धारण कर और मेघ के तुल्य अन्नादि सामग्री के साथ वर्त्तमान हो के बलों को बढ़ाता है, वह पर्वत के समान स्थिर सुखी हो शत्रुओं को मार कर राज्य के बढ़ाने में समर्थ होता है॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स हि द्व॒रो द्व॒रिषु॑ व॒व्र ऊध॑नि च॒न्द्रबु॑ध्नो॒ मद॑वृद्धो मनी॒षिभिः॑। इन्द्रं॒ तम॑ह्वे स्वप॒स्यया॑ धि॒या मंहि॑ष्ठरातिं॒ स हि पप्रि॒रन्ध॑सः॥3॥ सः। हि। द्व॒रः। द्व॒रिषु॑। व॒व्रः। ऊध॑नि। च॒न्द्रऽबु॑ध्नः। मद॑ऽवृद्धः। म॒नी॒षिऽभिः॑। इन्द्र॑म्। तम्। अ॒ह्वे॒। सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑। धि॒या। मंहि॑ष्ठऽरातिम्। सः। हि। पप्रिः॑। अन्ध॑सः॥3॥ पदार्थः—(सः) पूर्वोक्तः (हि) किल (द्वरः) यो द्वरत्यावृणोति (द्वरिषु) आवरकेषु व्यवहारेषु (वव्रः) कूप इव। वव्र इति कूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.23) (ऊधनि) उषसि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे॰ इति ऊधसो नङ् (अष्टा॰5.4.131) इति समासान्तो नङादेशः। ऊध इत्युषर्नामसु पठितम्। (निघं॰1.8) (चन्द्रबुध्नः) चन्द्रं सुवर्णं चन्द्रमा वा बुध्नेऽन्तरिक्षे यस्य यस्माद्वा सः। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰1.2) (मदवृद्धः) मदो हर्षो वृद्धो यस्य यस्माद्वा सः (मनीषिभिः) मेधाविभिः। मनीषीति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (इन्द्रम्) विद्वांसम् (तम्) पूर्वोक्तम् (अह्वे) आह्वयामि (स्वपस्यया) अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (धिया) प्रज्ञया (मंहिष्ठरातिम्) अतिशयेन मंहित्री रातिर्दानं यस्य यस्माद्वा तम् (सः) पूर्वोक्तः (हि) खलु (पप्रिः) पूरकः (अन्धसः) अन्नादेः॥3॥ अन्वयः—य ऊधनि द्वरिषु द्वरश्चन्द्रबुध्नो मदवृद्धोऽन्धसः पप्रिर्वव्र इव मेघोऽस्ति, तद्वन्मनीषिभिः सह वर्त्तमानः सभाध्यक्षो हि किल वर्त्तेत, तं मंहिष्ठरातिमिन्द्रं स्वपस्यया धियाऽहमह्व आह्वयामि॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो मेघवत्प्रजाः पालयति सूर्यवत्सुखं वर्षति, स परमैश्वर्यवान् सभाध्यक्षः संस्थापनीयः॥3॥ पदार्थः—जो (ऊधनि) प्रातःकाल में (द्वरिषु) अन्धकारावृत व्यवहारों में (द्वरः) अन्धकार से आवृतद्वार (चन्द्रबुध्नः) बुध्न अर्थात् अन्तरिक्ष में सुवर्ण वा चन्द्रमा के वर्ण से युक्त (मदवृद्धः) हर्ष से बढ़ा हुआ (अन्धसः) अन्नादि को (पप्रिः) पूर्ण करने वाला (वव्रः) कूप के समान मेघ है, उसके तुल्य (मनीषिभिः) मेधावियों के साथ (हि) निश्चय करके वर्त्तमान सभाध्यक्ष है (तम्) उस (मंहिष्ठरातिम्) अत्यन्त पूजनीय दानयुक्त (इन्द्रम्) विद्वान् को (स्वपस्यया) उत्तम कर्मयुक्त व्यवहार में होने वाली (धिया) बुद्धि से मैं (अह्वे) आह्वान करता हूं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो मेघ के तुल्य प्रजापालन करता है, उस परमैश्वर्य युक्त पुरुष को सभाध्यक्ष का अधिकार देवें॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ यं पृ॒णन्ति॑ दि॒वि सद्म॑बर्हिषः समु॒द्रं न सु॒भ्व1ः॒॑ स्वा अ॒भिष्ट॑यः। तं वृ॑त्र॒हत्ये॒ अनु॑ तस्थुरू॒तयः॒ शुष्मा॒ इन्द्र॑मवा॒ता अह्रु॑तप्सवः॥4॥ आ। यम्। पृ॒णन्ति॑। दि॒वि। सद्म॑ऽबर्हिषः। स॒मु॒द्रम्। न। सु॒ऽभ्वः॑। स्वाः। अ॒भिष्ट॑यः। तम्। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑। अनु॑। त॒स्थुः॒। ऊ॒तयः॑। शुष्माः॑। इन्द्र॑म्। अ॒वा॒ताः। अह्रु॑तऽप्सवः॥4॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (यम्) सभाध्यक्षम् (पृणन्ति) सुखयेयुः (दिवि) न्यायप्रकाशे (सद्मबर्हिषः) सद्मस्थानं बर्हिरुत्तमं यासां ताः (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (सुभ्वः) याः सुष्ठु भवन्ति ताः (स्वाः) स्वकीयाः (अभिष्टयः) इष्टेच्छाः (तम्) पूर्वोक्तम् (वृत्रहत्ये) वृत्राणां मेघाऽवयवानां हत्या हननमिव यस्मिँस्तस्मिन् संग्रामे (अनु) आनुपूर्व्ये (तस्थुः) वर्त्तन्ते (ऊतयः) रक्षणाद्याः (शुष्माः) बलवत्यः शोषण-कारिण्यो वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यहेतुं सूर्य्यम् (अवाताः) अविद्यमानो वायुः कम्पनं यासां तां (अह्रुतप्सवः) अह्रुतं कुटिलं सूर्य्यरूपं यासां ताः। अत्र ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। (अष्टा॰7.2.31) अनेन ह्रुरादेशः। प्स्वीति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7)॥4॥ अन्वयः—सद्मबर्हिषो मनुष्या अवाता नद्यः सुभ्वो समुद्रं न यमिन्द्रं वृत्रहत्ये स्वा अभिष्टयः शुष्मा अह्रुतप्सव ऊतयः प्रजा आपृणन्ति तमनुतस्थुरनुतिष्ठेयुः स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सरितः समुद्रं जलमयमन्तरिक्षं वा प्राप्य स्थिरा भवन्ति, तथैव ससभं विद्वांसं प्राप्य सर्वाः प्रजा स्थिरसुखा जायन्ते॥4॥ पदार्थः—(सद्मबर्हिषः) उत्तम स्थान आसनयुक्त (सुभ्वः) उत्तम होने वाले मनुष्य (अवाताः) वायु के चलाने से रहित नदियां (समुद्रं न) जैसे सागर वा आकाश को प्राप्त होकर स्थित होती हैं, वैसे जिस (इन्द्रम्) सभासदों सहित सभापति को (वृत्रहत्ये) जिनमें मेघावयवों के हनन तुल्य हनन होता, उस संग्राम में (स्वाः) अपने (अभिष्टयः) शुभेच्छा युक्त (शुष्माः) बल सहित (अह्रुतप्सवः) कुटिलतारहित सूर्यरूप (ऊतयः) सुरिक्षत प्रजा (आ पृणन्ति) सुखी करें (तम्) उस परमैश्वर्यकारक वीरपुरुष के (अनुतस्थुः) अनुकूल स्थिर होवें, वही चक्रवर्त्ती राज्य करने को योग्य होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे नदी समुद्र वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर स्थिर होती है, वैसे ही सभासदों के सहित विद्वान् को प्राप्त होकर सब प्रजा स्थिर सुखवाली होती हैं॥4॥ पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒भि स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑तो र॒घ्वीरि॑व प्रव॒णे स॑स्रुरू॒तयः॑। इन्द्रो॒ यद्व॒ज्री धृ॒षमा॑णो॒ अन्ध॑सा भि॒नद् ब॒लस्य॑ परि॒धींरि॑व त्रि॒तः॥5॥12॥ अ॒भि। स्वऽवृ॑ष्टिम्। मदे॑। अ॒स्य॒। युध्य॑तः। र॒घ्वीःऽइ॑व। प्र॒व॒णे। स॒स्रुः॒। ऊ॒तयः॑। इन्द्रः॑। यत्। व॒ज्री। धृ॒षमा॑णः। अन्ध॑सा। भि॒नत्। ब॒लस्य॑। प॒रि॒धीन्ऽइ॑व। त्रि॒तः॥5॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (स्ववृष्टिम्) स्वस्य शस्त्राणां वा वृष्टिर्यस्य तम् (मदे) हर्षे (अस्य) शत्रोर्वृत्रस्य वा (युध्यतः) युद्धं कुर्वतः (रघ्वीरिव) यथा गमनशीला नद्यः (प्रवणे) निम्नस्थाने (सस्रुः) गच्छन्ति (ऊतयः) रक्षणाद्याः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षो विद्युद्वा (यत्) यः (वज्री) प्रशस्तो वज्रः शत्रुच्छेदकः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य सः (धृषमाणः) शत्रूणां धर्षणाऽऽकर्षणे प्रगल्भः (अन्धसा) अन्नादिनोदकादिना वा (भिनत्) भिनत्ति (बलस्य) बलवतः शत्रोर्मेघस्य वा। बल इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (परिधींरिव) सर्वत उपरिस्था गोलरेखेव (त्रितः) उपरिरेखातो मध्यरेखातस्तिर्यगरेखातश्च॥5॥ अन्वयः—यद्यः सूर्य इव शस्त्राणां स्ववृष्टिं कुर्वन् धृषमाणो वज्रीन्द्रः सभाद्यध्यक्षो मदेऽस्य युध्यतः शत्रोस्त्रितः परिधींरिव बलमभिभिनदभितो भिनत्ति तस्यान्धसा रघ्वीः प्रवण इवोतयः सस्रुः॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽपो निम्नस्थानं प्रतिगच्छन्ति, तथा सभाध्यक्षो नम्रो भूत्वा विनयं प्राप्नुयात्॥5॥ पदार्थः—(यत्) जो सूर्य्य के समान (स्ववृष्टिम्) अपने शस्त्रों की वृष्टि करता हुआ (धृषमाणः) शत्रुओं को प्रगल्भता दिखाने हारा (वज्री) शत्रुओं को छेदन करने वाले शस्त्रसमूह से युक्त (इन्द्रः) सभाध्यक्ष (मदे) हर्ष में (अस्य) इस (युध्यतः) युद्ध करते हुए (बलस्य) शत्रु के (त्रितः) ऊपर, मध्य और टेढ़ी तीन रेखाओं से (परिधींरिव) सब प्रकार ऊपर की गोल रेखा के समान बल को (अभि भिनत्) सब प्रकार से भेदन करता है, उसके (अन्धसा) अन्नादि वा जल से (रघ्वीरिव) जैसे जल से पूर्ण नदियां (प्रवणे) नीचे स्थान में जाती हैं, वैसे (ऊतयः) रक्षा आदि (सस्रुः) गमन करती हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे सभाध्यक्ष नम्र होकर विनय को प्राप्त होवे॥5॥ पुनः स किंवत्किं करोतीत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष किसके तुल्य क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ परी॑ घृ॒णा च॑रति तित्वि॒षे शवो॒ऽपो वृ॒त्वी रज॑सो बु॒ध्नमाश॑यत्। वृ॒त्रस्य॒ यत्प्र॑व॒णे दु॒र्गृभि॑श्वनो निज॒घन्थ॒ हन्वो॑रिन्द्र तन्य॒तुम्॥6॥ परि॑। ई॒म्। घृ॒णा। च॒र॒ति॒। ति॒त्वि॒षे॒। शवः॑। अ॒पः। वृ॒त्वी। रज॑सः। बु॒ध्नम्। आ। अ॒श॒य॒त्। वृ॒त्रस्य॑। यत्। प्र॒व॒णे॒। दुः॒ऽगृभि॑श्वनः। नि॒ऽज॒घन्थ॑। हन्वोः॑। इ॒न्द्र॒। त॒न्य॒तुम्॥6॥ पदार्थः—(परि) सर्वतः (ईम्) उदकम्। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (घृणा) दीप्तिः क्षरणं वा (चरति) सेवते (तित्विषे) प्रकाशाय (शवः) बलम् (अपः) जलानि (वृत्वी) आवृत्य (रजसः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (बुध्नम्) शरीरम्। इदमपीतरबुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति। (निरु॰10.44) (आ) समन्तात् (अशयत्) शेते (वृत्रस्य) मेघस्य (यम्) यस्य (प्रवणे) गमने (दुर्गृभिश्वनः) दुःखेन गृभिर्गृहिर्ग्रहणं श्वाभिव्याप्तिर्यस्य तस्य। अत्र गृहधातोः इक् कृष्यादिभ्य (अष्टा॰3.3.108) इक् हस्य भत्वं च। अशूङ् व्याप्तावित्यस्मात् कनिन् प्रत्ययो वुगागमोऽकारलोपश्च। (निजघन्थ) नितरां हन्ति (हन्वोः) मुखावयवयोरिव (इन्द्र) सवितवद्वर्त्तमान (तन्यतुम्) विद्युतम्॥6॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यथा तित्विषे यस्येन्द्रस्य सूर्यस्य शवो बलं घृणा दीप्तिरीमुदकं परिचरति यो यस्य दुर्गृभिश्वनो वृत्रस्य मेघस्य बुध्नं शरीरं रजसोऽन्तरिक्षस्य मध्येऽपो वृत्वी जलमावृत्याशयच्छेते तस्य हन्वोरग्रपार्श्वभागयोरुपरि तन्यतुं विद्युतं प्रहृत्य प्रवणे निजघन्थ तथा वर्त्तमानः सन्न्याये प्रवर्त्तस्व॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यत्सूर्यमेघवद्वर्त्तित्वा विद्यान्यायवर्षा प्रकाशीकार्येति॥6॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष जैसे (तित्विषे) प्रकाश के लिये (यत्) जिस सूर्य का (शवः) बल वा (घृणा) दीप्ति (ईम्) जल को (परिचरति) सेवन करती है जो (दुर्गृभिश्वनः) दुःख से जिसका ग्रहण हो (वृत्रस्य) मेघ का (बुध्नम्) शरीर (रजसः) अन्तरिक्ष के मध्य में (आपः) जल को (वृत्वी) आवरण करके (अशयत्) सोता है उसके (हन्वोः) आगे-पीछे के मुख के अवयवों में (तन्यतुम्) बिजली को छोड़कर उसे (प्रवणे) नीचे (निजघन्थ) मार कर गिरा देता है, वैसे वर्त्तमान होकर न्याय में प्रवृत्त हूजिये॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सूर्य वा मेघ के समान वर्त्त के विद्या और न्याय की वर्षा का प्रकाश करें॥6॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ह्र॒दं न हि त्वा॑ न्यृ॒षन्त्यू॒र्मयो॒ ब्रह्मा॑णीन्द्र॒ तव॒ यानि॒ वर्ध॑ना। त्वष्टा॑ चित्ते॒ युज्यं॑ वा॑वृधे॒ शव॑स्त॒तक्ष॒ वज्र॑म॒भिभू॑त्योजसम्॥7॥ ह्र॒दम्। न। हि। त्वा॒। नि॒ऽऋ॒षन्ति॑। ऊ॒र्मयः॑। ब्रह्मा॑णि। इ॒न्द्र॒। तव॑। यानि॑। वर्ध॑ना। त्वष्टा॑। चि॒त्। ते॒। युज्य॑म्। व॒वृ॒धे॒। शवः॑। त॒तक्ष॑। वज्र॑म्। अ॒भिभू॑तिऽओजसम्॥7॥ पदार्थः—(ह्रदम्) जलाशयम् (न) इव (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (न्यृषति) नितराम् प्राप्नुवन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गादयः (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि (इन्द्र) विद्युद्वद्वर्त्तमान (तव) (यानि) वक्ष्यमाणानि (वर्धना) सुखानां वर्धनानि (त्वष्टा) मेघाऽवयवानां मूर्त्तद्रव्याणां च छेत्ता (चित्) अपि (ते) तव (युज्यम्) योक्तुमर्हम् (वावृधे) वर्धते (शवः) बलम् (ततक्ष) तक्षति (वज्रम्) प्रकाशसमूहम् (अभिभूत्योजसम्) अभिगतानि तप ऐश्वर्याण्योजः पराक्रमश्च यस्मात्तम्॥7॥ अन्वयः—हे इन्द्र! ते वर्द्धना ब्रह्माण्ययूर्मयो ह्रदं न न्यृषन्ति यथा हि त्वष्टा ज्योतींषि शवोऽभिभूत्योजसं युज्यं वज्रं प्रहृत्य सर्वान् पदार्थान् ततक्ष तक्षति तथा त्वं भव॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जलं निम्नं स्थानं गत्वा स्थिरं स्वच्छं भवति तथा सद्गुणविनयवन्तं पुरुषं प्राप्य स्थिराः शुद्धिकारका भवन्तीति॥7॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) बिजुली के समान वर्त्तमान (ते) आपके (वर्द्धना) बढ़ानेहारे (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े अत्र (ऊर्मयः) तरंग आदि (ह्रदम्) (न) जैसे नदी जलस्थान को प्राप्त होती हैं, वैसे (हि) निश्चय करके ज्योतियों को (न्यृषन्ति) प्राप्त होते हैं, वह (त्वष्टा) मेघाऽवयव वा मूर्तिमान् द्रव्यों का छेदन करने वाले (शवः) बल (अभिभूत्योजसम्) ऐश्वर्ययुक्त पराक्रम तथा (युज्यम्) युक्त करने योग्य (वज्रम्) प्रकाश समूह का प्रहार करके सब पदार्थों को (ततक्ष) छेदन करता है, वैसे आप भी हूजिये॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थानों को जाकर स्थिर वा स्वच्छ होता है, वैसे ही राजपुरुष उत्तम-उत्तम गुणयुक्त तथा विनय वाले पुरुष को प्राप्त होकर स्थिर और शुद्धि करने वाले होते हैं॥7॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, यह विषय उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥ ज॒घ॒न्वाँ उ॒ हरि॑भिः संभृतक्रत॒विन्द्र॑ वृ॒त्रं मनु॑षे गातु॒यन्न॒पः। अय॑च्छथा बा॒ह्वोर्वज्र॑माय॒समधा॑रयो॒ दि॒व्या सूर्यं॑ दृ॒शे॥8॥ ज॒घ॒न्वान्। ऊ॒म् इति॑। हरि॑ऽभिः। सं॒भृ॒त॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ सम्भृतऽक्रतो। इन्द्र॑। वृ॒त्रम्। मनु॑षे। गा॒तु॒ऽयन्। अ॒पः। अय॑च्छथाः। बा॒ह्वोः। वज्र॑म्। आ॒य॒सम्। अधा॑रयः। दि॒वि। आ। सूर्य॑म्। दृ॒शे॥8॥ पदार्थः—(जघन्वान्) हननं कुर्वन् (उ) वितर्के (हरिभिः) हरणशीलैरश्वैः किरणैर्वा (संभृतक्रतो) सम्भृता धारिताः क्रतवः क्रिया प्रज्ञा वा येन तत्सम्बुद्धौ (इन्द्र) मेघावयवानां छेदकवच्छत्रुच्छेदक (वृत्रम्) मेघम् (मनुषे) मानवाय (गातुयन्) यो गातुं पृथिवीमेति सः (अपः) जलानि (अयच्छथाः) (बाह्वोः) बलाकर्षणयोरिव भुजयोः (वज्रम्) किरणसमूहवच्छस्त्रसमूहम् (आयसम्) अयोनिर्मितम् (अधारयः) धारय (दिवि) द्योतनात्मके व्यवहारे (आ) समन्तात् (सूर्यम्) सवितृमण्डलमिव न्यायविद्याप्रकाशम् (दृशे) दर्शयितुम्॥8॥ अन्वयः—हे सम्भृतक्रतो इन्द्र सभेश! त्वं यथा सविता हरिभिर्वृत्रं जघन्वानपो मनुषे गातुयन् प्रजा धरति तथा प्रजापालनाय बाह्वोरायसं वज्रमाधारयः समन्ताद् धारय सार्वजनिकसुखाय दिवि सूर्यं दृश इव न्यायविद्यार्कं प्रकाशय॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोको बलाकर्षणाभ्यां सर्वान् लोकान् धृत्वा जलमाकृष्य वर्षित्वा दिव्यं सुखं जनयति, तथैव सभा सर्वान् शुभगुणान् धृत्वा श्रियमाकृष्य सुपात्रेभ्यो दत्वा प्रजाभ्य आनन्दं प्रकटयेत्॥8॥ पदार्थः—हे (संभृतक्रतो) क्रियाप्रज्ञाओं को धारण किये हुए (इन्द्र) मेघावयवों का छेदन करने वाले सूर्य्य के समान शत्रुओं को ताड़ने वाले सभापति! आप जैसे सूर्य अपने किरणों से (वृत्रम्) मेघ को (जघन्वान्) गिराता हुआ (आपः) जलों को (मनुषे) मनुष्यों को (गातुयन्) पृथिवी पर प्राप्त करता हुआ प्रजा को धारण करता है, वैसे ही प्रजा की रक्षा के लिये (बाह्वोः) बल तथा आकर्षणों के समान भुजाओं के मध्य (आयसम्) लोहे के (वज्रम्) किरणसमूह के तुल्य शस्त्रों को (आधारयः) अच्छे प्रकार धारण कीजिये, वीरों को कराइये और सब मनुष्यों को सुख होने के लिये (दिवि) शुद्ध व्यवहार में (सूर्य्यम्) सूर्यमण्डल के समान न्याय और विद्या के प्रकाश को (दृशे) दिखाने के लिये (अयच्छथाः) सब प्रकार से प्रदान कीजिये॥8॥ भावार्थः—जैसे सूर्यलोक बल और आकर्षण गुणों से सब लोकों के धारण से जल को आकर्षण कर वर्षा से दिव्य सुखों को उत्पन्न करता है, वैसे ही सभा सब गुणों को धर, धनकार्य्य से सुपात्रों को सुमार्ग की प्रवृत्ति के लिये दान देकर प्रजा के लिये आनन्द को प्रकट करे॥8॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ बृ॒हत्स्वश्च॑न्द्र॒मम॑व॒द्यदु॒क्थ्यमकृ॑ण्वत भि॒यसा॒ रोह॑णं दि॒वः। यन्मानु॑षप्रधना॒ इन्द्र॑मू॒तयः॒ स्व॑र्नृ॒षाचो॑ म॒रुतोऽम॑द॒न्ननु॑॥9॥ बृ॒हत्। स्वऽच॑न्द्रम्। अम॑ऽवत्। यत्। उ॒क्थ्य॑म्। अकृ॑ण्वत। भि॒यसा॑। रोह॑णम्। दि॒वः। यत्। मानु॑षऽप्रधनाः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तयः॑। स्वः॑। नृ॒ऽसाचः॑। म॒रुतः॑। अम॑दन्। अनु॑॥9॥ पदार्थः—(बृहत्) महत् (स्वश्चन्द्रम्) स्वेन प्रकाशेनाह्लादकारकेण युक्तं सुवर्णम्। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰1.2) अत्र हस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे। (अष्टा॰6.1.151) अनेन सुडागमः। (अमवत्) अमः प्रशस्तो बोधः सम्भागो यस्मिँस्तत् (यत्) गुणप्रकाशकम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति (भियसा) भयेन (रोहणम्) आरोहन्ति येन तत् (दिवः) प्रकाशमानस्य (यत्) यम् (मानुषप्रधनाः) मनुष्याणां प्रकृष्टानि धनानि याभ्यस्ताः (इन्द्रम्) विद्युतम् (ऊतयः) रक्षणाद्याः (स्वः) सुखम् (नृषाचः) ये नॄन् सचन्ति समवयन्ति ते (मरुतः) प्राणादयः (अमदन्) हर्षन्ति (अनु) आनुकूल्ये॥9॥ अन्वयः—ये मानुषप्रधना नृषाचो मरुत इन्द्रं प्राप्य यद्बृहत्स्वश्चन्द्रममवदुक्थ्यं स्वः सुखं चाकृण्वत कुर्वन्ति यद्ये भियसा दुःखभयेन दिवः प्रकाशमानस्य मोक्षसुखस्यारोहणमूतयो भूत्वाऽन्वमदन्ननुमोदन्ते ते सुखिनः स्युः॥9॥ भावार्थः—विद्याधनं राज्यं पराक्रमो बलं पुरुषसहायश्च यं धार्मिकं विद्वासं प्राप्नुवन्ति, तमुत्तमं सुखं जनयन्ति॥9॥ पदार्थः—जो (मानुषप्रधनाः) मनुष्यों को उत्तम धन प्राप्त करने तथा (नृषाचः) मनुष्यों को कर्म में संयुक्त करने वाले (मरुतः) प्राण आदि हैं वे (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त होकर (यत्) जिस (बृहत्) बड़े (स्वश्चन्द्रम्) अपने आह्लादकारक प्रकाश से युक्त (अमवत्) उत्तम ज्ञान (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (स्वः) सुख को (अकृण्वत) सम्पादन करते हैं और (यत्) जो (भियसा) दुःख के भय से (दिवः) प्रकाशमान मोक्ष सुख का (रोहणम्) आरोहण (ऊतयः) रक्षा आदि होती हैं, उनको करके (अन्वमदन्) उसके अनुकूल आनन्द करते हैं, वे मनुष्य मुख्य सुख को प्राप्त होते हैं॥9॥ भावार्थः—विद्याधन, राज्य, पराक्रम, बल वा पुरुषों की सहायता ये सब जिस धार्मिक विद्वान् मनुष्य को प्राप्त होते हैं, उसको उत्तम सुख उत्पन्न करते हैं॥9॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ द्यौश्चि॑द॒स्याम॑वाँ॒ अहेः॑ स्व॒नादयो॑यवीद्भि॒यसा॒ वज्र॑ इन्द्र ते। वृ॒त्रस्य॒ यद्ब॑द्बधा॒नस्य॑ रोदसी॒ मदे॑ सु॒तस्य॒ शव॒साभि॑न॒च्छिरः॑॥10॥13॥ द्यौः। चि॒त्। अ॒स्य॒। अम॑वान्। अहेः॑। स्व॒नात्। अयो॑यवीत्। भि॒यसा॑। वज्रः॑। इ॒न्द्र॒। ते॒। वृ॒त्रस्य॑। यत्। ब॒द्ब॒धा॒नस्य॑। रो॒द॒सी॒ इति॑। मदे॑। सु॒तस्य॑। शव॑सा। अभि॑नत्। शिरः॑॥10॥ पदार्थः—(द्यौः) प्रकाशः (चित्) इव (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (अमवान्) बलवान् (अहेः) मेघस्य (स्वनात्) शब्दात् (अयोयवीत्) पुनः पुनर्मिश्रयत्यमिश्रयति वा (भियसा) भयेन (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (इन्द्र) परमैश्वर्यहेतो (ते) तव (वृत्रस्य) मेघस्य (यत्) यस्य (बद्बधानस्य) बन्धकस्य। अत्र बन्धधातोश्चानश्। बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः हलादिशेषाऽभावश्च। (रोदसी) द्यावापृथिवी (मदे) हर्षकारके व्यवहारे (सुतस्य) उत्पन्नस्य (शवसा) बलेन (अभिनत्) भिनत्ति (शिरः) उत्तमाङ्गम्॥10॥ अन्वयः—हे सेनेश! यद्यस्य ते तवास्य सूर्यस्य द्यौरहेर्बद्बधानस्य सुतस्य वृत्रस्यावयवानयोयवी- च्चिदिवामवान् वज्रो यस्य शवसा स्वनादरयः पलायन्ते रोदसी इव मदे वर्त्तमानस्य शत्रोः शिरोऽभिनत् स भवानस्माकं पालको भवतु॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यकिरणा विद्युच्चमेघं प्रति प्रवर्त्तन्ते, तथैव सेनापत्यादिभिर्भवितव्यम्॥10॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य के हेतु सेनापति! जो (अस्य) इस (ते) आप का और इस सूर्य्य का (द्यौः) प्रकाश (अहेः) (बद्वधानस्य) रोकने वाले मेघ के (सुतस्य) उत्पन्न हुए (वृत्रस्य) आवरण कारक जल के अवयवों को (अयोयवीत्) मिलाता वा पृथक् करता है (चित्) वैसे (अमवान्) बलकारी (वज्रः) वज्र के (स्वनात्) शब्दों से (भियसा) और भय से (शवसा) बल के साथ शत्रु लोग भागते हैं (रोदसी) आकाश और पृथिवी के समान (मदे) आनन्दकारी व्यवहार में वर्त्तमान शत्रु का (शिरः) शिर अभिनत् काटते हैं, सो आप हम लोगों का पालन कीजिये॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के किरण और बिजुली मेघ के साथ प्रवृत्त होती है, वैसे ही सेनापति आदि के साथ सेना को होना चाहिये॥10॥ पुनः सभाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदिन्न्विन्द्र पृथि॒वी दश॑भुजि॒रहा॑नि॒ विश्वा॑ त॒तन॑न्त कृ॒ष्टयः॑। अत्राह॑ ते मघव॒न् विश्रु॑तं॒ सहो॒ द्यामनु॒ शव॑सा ब॒र्हणा॑ भुवत्॥11॥ यत्। इत्। नु। इ॒न्द्र॒। पृ॒थि॒वी। दश॑ऽभुजिः। अहा॑नि। विश्वा॑। त॒तन॑न्त। कृ॒ष्टयः॑। अत्र॑। अह॑। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। विऽश्रु॑तम्। सहः॑। द्याम्। अनु॑। शव॑सा। ब॒र्हणा॑। भु॒व॒त्॥11॥ पदार्थः—(यत्) वक्ष्यमाणम् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष (पृथिवी) भूमिः (दशभुजिः) या दशभिरिन्द्रयैर्भुज्यते सा (अहानि) दिनानि (विश्वा) सर्वाणि (ततनन्त) विस्तीर्णानि भवन्ति (कृष्टयः) कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (अह) विनिग्रहार्थे (ते) तव (मघवन्) उत्कृष्टधनविद्यैश्वर्ययुक्त (विश्रुतम्) यद्विविधं श्रूयते तद्यशः (सहः) बलम् (द्याम्) राजपालनविनयप्रकाशम् (अनु) आनुकूल्ये (शवसा) बलेन (बर्हणा) सर्वसुखप्रापिकया क्रियया। बर्हणा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (भुवत्) भवेत्। अत्र लेटि बहुलं छन्दसि (अष्टा॰2.4.73) इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि (अष्टा॰7.3.88) इति गुणनिषेधादुवङादेशः॥11॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! त्वया यद्या दशभुजिः पृथिवी भुज्यते यस्य ते तव बर्हणा शवसाह द्यामनु विश्रुतं यशस्सहो भुवत् तेन सहितस्त्वं प्रयतस्व, यतोऽत्र राज्ये कृष्टयो विश्वान्यहानीदेव सुखानि नु ततनन्त विस्तारयेयुः॥11॥ भावार्थः—राजपुरुषैः स्वराज्ये सुखानां वृद्धिर्विविधगुणप्राप्तिश्च यथा स्यात् तथैवानुष्ठेयमिति॥11॥ पदार्थः—हे (मघवन्) उत्कृष्ट धन और विद्या के ऐश्वर्य से युक्त (इन्द्र) सभा सेनाध्यक्ष! आप (यत्) जो (दशभुजिः) दश इन्द्रियों से (पृथिवी) भूमि को भोगते हो (ते) आप के (बर्हणा) सब सुख प्राप्त कराने वा (शवसा) (अह) बल से ही (द्याम्) राज्यपालन (अनुविश्रुतम्) अनुकूल कीर्ति कराने वाला यश (सहः) बल (भुवत्) होवे उससे युक्त होके आप प्रयत्न कीजिये, जिससे (अत्र) इस राज्य में (कृष्टयः) मनुष्य लोग (विश्वा) सब (अहानि) दिनों को (इत्) ही सुख से (नु) जल्दी (ततनन्त) विस्तार करें॥11॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे अपने राज्य में सुखों की वृद्धि और अनेक प्रकार से गुणों की प्राप्ति हो वैसा अनुष्ठान करें॥11॥ पुनरस्य जगतो राजेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर इस समग्र जगत् का राजा परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वम॒स्य पा॒रे रज॑सो॒ व्यो॑मनः॒ स्वभू॑त्योजा॒ अव॑से धृषन्मनः। च॒कृ॒षे भूमिं॑ प्रति॒मान॒मोज॑सो॒ऽपः स्वः॑ परि॒भूरे॒ष्या दिव॑म्॥12॥ त्वम्। अ॒स्य। पा॒रे। रज॑सः। विऽओ॑मनः। स्वभू॑तिऽओजाः। अव॑से। धृ॒ष॒त्ऽम॒नः॒। च॒कृ॒षे। भूमि॑म्। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। ओज॑सः। अ॒पः। स्वरिति॑ स्वः॑। प॒रि॒ऽभूः। ए॒षि॒। आ। दिव॑म्॥12॥ पदार्थः—(त्वम्) परमेश्वरः (अस्य) संसारस्य क्लेशेभ्यः (पारे) अपरभागे (रजसः) पृथिव्यादिलोकानाम् (व्योमनः) आकाशस्य। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इत्यल्लोपो न भवति। (स्वभूत्योजाः) स्वकीया भूतिरैश्वर्यमोजः पराक्रमो वा यस्य सः (अवसे) रक्षणाद्याय (धृषन्मनः) धृषद्धृष्यते मनः सर्वस्यान्तःकरणं येन तत्सम्बुद्धौ (चकृषे) कृतवानसि (भूमिम्) सर्वाधारां क्षितिम् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते परिणीयते प्रतिक्रियते येन तत् (ओजसः) पराक्रमस्य (अपः) प्राणान् (स्वः) सुखमन्तरिक्षं वा (परिभूः) यः परितः सर्वतो भवति सः (एषि) प्राप्नोषि (आ) समन्तात् (दिवम्) विज्ञानप्रकाशम्॥12॥ अन्वयः—हे धृषन्मनो जगदीश्वर! यः परिभूः स्वभूत्योजास्त्वमवसेऽस्य संसारस्य रजसो व्योमनः पारेऽप्येषि त्वं सर्वेषामोजसः पराक्रमस्य स्वभूमिं चाप्रतिमानमाचकृषे समन्तात् कृतवानासि तं (सर्वे) वयमुपास्महे॥12॥ भावार्थः—परमेश्वरः सर्वेभ्यः परः प्रकृष्टः सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पारे वर्त्तमानः सन् स्वसामर्थ्यात् सर्वान् लोकान् रचयित्वा तानभिव्याप्तः सन्सर्वान् व्यवस्थापयन् जीवानां पापपुण्यव्यवस्थाकरणेन न्यायाधीशः सन् वर्त्तते तथा सभेशो राज्यं कुर्वन् सर्वेभ्यः सुखं जनयेत्॥12॥ पदार्थः—हे (धृषन्मनः) अनन्त प्रगल्भ विज्ञानयुक्त जगदीश्वर! जो (परिभूः) सब प्रकार होने (स्वभूत्योजाः) अपने ऐश्वर्य वा पराक्रम युक्त से (त्वम्) आप (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अस्य) इस संसार के (रजसः) पृथिवी आदि लोकों तथा (व्योमनः) आकाश के (पारे) अपरभाग में भी (एषि) प्राप्त हैं और आप (ओजसः) पराक्रम आदि के (प्रतिमानम्) अवधि (स्वः) सुख (दिवम्) शुद्ध विज्ञान के प्रकाश (भूमिम्) भूमि और (अपः) जलों को (आचकृषे) अच्छे प्रकार किया है, उन आपकी हम सब लोग उपासना करते हैं॥12॥ भावार्थः—जैसे परमेश्वर सब से उत्तम, सबसे परे वर्त्तमान होकर सामर्थ्य से लोकों को रच के, उनमें सब प्रकार से व्याप्त हो धारण कर सब का व्यवस्था में युक्त करता हुआ जीवों के पाप-पुण्य की व्यवस्था करने से न्यायाधीश होकर वर्त्तता है, वैसे ही न्यायाधीश भी सब भूमि के राज्य को सम्पादन करता हुआ, सबके लिये सुखों को उत्पन्न करे॥12॥ पुनः स कीदृश इत्यपुदिश्यते॥ फिर वह परब्रह्म कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं भु॑वः प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्या ऋ॒ष्ववी॑रस्य बृह॒तः पति॑र्भूः। विश्व॒माप्रा॑ अ॒न्तरि॑क्षं महि॒त्वा स॒त्यम॒द्धा नकि॑र॒न्यस्त्वावा॑न्॥13॥ त्वम्। भु॒वः॒। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। पृ॒थि॒व्याः। ऋ॒ष्वऽवी॑रस्य। बृ॒ह॒तः। पतिः॑। भूः॒। विश्व॑म्। आ। अ॒प्राः॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। म॒हि॒ऽत्वा। स॒त्यम्। अ॒द्धा। नकि॑ः। अ॒न्यः। त्वाऽवा॑न्॥13॥ पदार्थः—(त्वम्) जगदीश्वरः (भुवः) भवतीति भूस्तस्याः (प्रतिमानम्) परिमाणम् (पृथिव्याः) विस्तृतस्याकाशस्य (ऋष्ववीरस्य) ऋष्वा महान्तो गुणा वीरा वा यस्य तस्य (बृहतः) महाबलस्य (पतिः) पालकः (भूः) भवसि (विश्वम्) सर्वं जगत् (आ) समन्तात् (अप्राः) प्रपूर्द्धि (अन्तरिक्षम्) अनेकेषां लोकानाम् मध्येऽवकाशरूपं वर्त्तमानमाकाशम् (महित्वा) महत्या व्याप्त्याभिव्याप्य (सत्यम्) अव्यभिचारि सुपरीक्षितं वेदचतुष्टयजन्यम् (अद्धा) साक्षात् (नकिः) नैव (अन्यः) कश्चिदपि द्वितीयः (त्वावान्) त्वत्सदृशः॥13॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! यस्त्वं पृथिव्या भुवः प्रतिमानं बृहतं ऋष्ववीरस्य जगतो महावीरस्य मनुष्यस्य पतिर्भूरसि त्वं विश्वं सर्वं जगदन्तरिक्षं सत्यं च महित्वाऽद्धाप्राः तस्मात् कश्चिदन्यस्त्वावान् नकिर्विद्यते॥13॥ भावार्थः—यथा परमेश्वरः सर्वस्य जगतो रचयिता परिमाणकर्ता व्याप्तः सत्यप्रकाशकोऽस्त्यत ईश्वरसदृशः कश्चिदपि पदार्थो न भूतो न भविष्यतीति मत्वा तमेव वयमुपास्महे॥13॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर! जो (त्वम्) आप (पृथिव्याः) विस्तृत आकाश और (भुवः) भूमि के (प्रतिमानम्) परिमाणकर्त्ता तथा (बृहतः) महाबलयुक्त (ऋष्ववीरस्य) बड़े गुणयुक्त जगत् का वा महावीर मनुष्य के (पतिः) पालन करने वाले (भूः) हैं तथा आप (विश्वम्) सब जगत् (अन्तरिक्षम्) अनेक लोकों के मध्य में अवकाश स्वरूप आकाश और (सत्यम्) कारणरूप से अविनाशी अच्छे प्रकार परीक्षा किये हुए चारों वेदों को (महित्वा) बड़ी व्याप्ति से व्याप्त होकर (अद्धाप्राः) साक्षात्कार पूरण करते हो, इससे (त्वावान्) आप के सदृश (अन्यः) दूसरा (नकिः) विद्यमान कोई भी नहीं है॥13॥ भावार्थः—जैसे परमेश्वर ही सब जगत् की रचना, परिमाण, व्यापक और सत्य का प्रकाश करने वाला है, इससे ईश्वर के सदृश कोई भी पदार्थ न हुआ और न होगा, ऐसा समझ के हम लोग उसी की उपासना करें॥13॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी अनु॒ व्यचो॒ न सिन्ध॑वो॒ रज॑सो॒ अन्त॑मान॒शुः। नोत स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑त॒ एको॑ अ॒न्यच्च॑कृषे॒ विश्व॑मानु॒षक्॥14॥ न। यस्य॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अनु॑। व्यचः॑। न। सिन्ध॑वः। रज॑सः। अन्त॑म्। आ॒न॒शुः। न। उ॒त। स्वऽवृ॑ष्टिम्। मदे॑। अ॒स्य॒। युध्य॑तः। एक॑ः। अ॒न्यत्। च॒कृ॒षे॒। विश्व॑म्। आ॒नु॒षक॥14॥ पदार्थः—(न) निषेधार्थे (यस्य) जगदीश्वरस्य परमविदुषः सूर्यस्य (वा) (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशयुक्तौ लोकसमूहौ (अनु) अनुयोगे (व्यचः) व्याप्तेः (न) प्रतिषेधे (सिन्धवः) समुद्राः (रजसः) रागविषयस्यैश्वर्यस्य लोकस्य वा (अन्तम्) सीमानम् (आनशुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (न) निवारणे (उत) अपि (स्ववृष्टिम्) स्वकीयानां धनानामिव प्रेरितानां पदार्थानां शस्त्राणां जलानां वा वर्षणं प्रति (मदे) आनन्दे (अस्य) मेघस्य (युध्यतः) युद्धमाचरतः (एकः) असहायः (अन्यत्) द्वितीयं भिन्नम् (चकृषे) करोषि (विश्वम्) जगत् (आनुषक्) व्याप्त्यानुषक्तमुत्कृष्टगुणैरनुरक्तमाकर्षणेनानुयुक्तं वा॥14॥ अन्वयः—यस्य रजसः परमेश्वरस्याऽनुव्यचोऽनुगताया अनन्ताया व्याप्तेर्द्यावापृथिवी चन्द्रादयश्चान्तं नानशुः न व्याप्नुवन्ति नोतापि सिन्धवो व्याप्नुवन्ति। हे परमात्मँस्त्वं यथा स्ववृष्टिं प्रति मदे युध्यतो मेघस्य सूर्यस्याग्रे विजयो न भवति तथैकोऽसहायोऽद्वितीयः सन्नन्यद्विश्वमानुषक् चकृषे कृतवानसि तस्माद्भवानुपास्योऽस्ति॥14॥ भावार्थः—यथा परमेश्वरस्य कस्यापि गुणस्य कोऽपि मनुष्यो लोकश्च पारं ग्रहीतुं न शक्नोति। यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यो दुःखफलदानेन पीडयन् दुष्टान् ताडयन् सूर्यो मेघावयवान् विदारयँश्च युद्धकारीव वर्त्तते, तथैव सज्जनैर्भवितव्यम्॥14॥ पदार्थः—(यस्य) जिस (रजसः) ऐश्वर्ययुक्त जगदीश्वर की (अनुव्यचः) अनन्तव्याप्ति के अनुकूल वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश अप्रकाश युक्त लोक और चन्द्रमादि भी (अन्तम्) अन्त अर्थात् सीमा को (न) नहीं (आनशुः) प्राप्त होते हैं। हे परमात्मन्! जैसे (स्ववृष्टिम्) अपने पदार्थों की रक्षा के प्रति (मदे) आनन्द में (युध्यतः) युद्ध करते हुए मेघ का सूर्य के सामने विजय नहीं होता वैसे (एकः) सहायरहित अद्वितीय जगदीश्वर ने (अन्यत्) अपने से भिन्न द्वितीय (विश्वम्) जगत् को (आनुषक्) अपनी व्याप्ति से युक्त किया है, इससे आप उपासना के योग्य हैं॥14॥ भावार्थः—जैसे परमेश्वर के किसी गुण की कोई मनुष्य वा कोई लोक सीमा को ग्रहण नहीं कर सकता और जैसे वह पापयुक्त कर्म करने वाले मनुष्यों के लिये दुःखरूप फल देने से पीड़ा देता दुष्टों की ताड़ना और सूर्य मेघाऽवयवों को विदारण करता और युद्ध करने वाले मनुष्य के समान वर्त्तता है, वैसे ही सब सज्जन मनुष्यों को वर्त्तना चाहिये॥14॥ पुनस्तदुपासकाः कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वरोपासक कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आर्च॒न्नत्र॑ म॒रुतः॒ सस्मि॑न्ना॒जौ विश्वे॑ दे॒वासो॑ अमद॒न्ननु॑ त्वा। वृ॒त्रस्य॒ यद्भृ॑ष्टि॒मता॑ व॒धेन॒ नि त्वमि॑न्द्र॒ प्रत्या॒नं ज॒घन्थ॑॥15॥14॥ आर्च॑न्। अत्र॑। म॒रुतः॑। सस्मि॑न्। आ॒जौ। विश्वे॑। दे॒वासः॑। अ॒म॒द॒न्। अनु॑। त्वा॒। वृ॒त्रस्य॑। यत्। भृ॒ष्टिऽमता॑। व॒धेन॑। नि। त्वम्। इ॒न्द्र॒। प्रति॑। आ॒नम्। ज॒घन्थ॑॥15॥ पदार्थः—(आर्चन्) अर्चन्तु (अत्र) अस्मिन् जगति (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं॰3.18) (सस्मिन्) सर्वस्मिन्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति रेफवकारयोर्लोपः (आजौ) संग्रामे (विश्वे) सर्वे (देवासः) विद्वांसः (अमदन्) हृष्यन्तु (अनु) पुनरर्थे (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम् (वृत्रस्य) मेघस्येव शत्रोः (यत्) यः (भृष्टिमता) भृज्जन्ति यया सा भृष्टिः कान्तिरिव नीतिः सा प्रशस्ता विद्यते यस्मिन् तेन (वधेन) हननेन (नि) नित्यम् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (प्रति) प्रत्यक्षे (आनम्) अनन्ति येन तज्जीवनम् (जघन्थ) हन॥15॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभासेनेश यद्यस्त्वं भृष्टिमता वधेन वृत्रस्येव शत्रोरानं जीवनं जघन्थाऽहन् त्वा सस्मिन्नाजौ विश्वे देवासो मरुतो न्यार्चन् सततं सत्कुर्वन्तु, यतस्ते प्रजास्थाः प्राणिनः प्रत्यन्वमदन् प्रत्यक्षममाद्यन्॥15॥ भावार्थः—य एकं परमेश्वरमुपास्य विद्यां गृहीत्वा शत्रून् जित्वा विजयं प्राप्य प्रजां नित्यमनुमोदयन्ति, ते विद्वांसः सुखिनो भवन्तीति॥15॥ अत्र विद्वद्विद्युदाद्यग्नीश्वराणां गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदतिव्यम्॥ इति 52 द्विपञ्चाशं सूक्तं 14 चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः॥14॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सभा सेना के स्वामी (यत्) जो (त्वम्) आप (भृष्टिमता) प्रशंसनीय नीति वाले न्यायव्यवहार से युक्त (वधेन) हनन से (वृत्रस्य) अधर्मी मनुष्य के समान (आनम्) प्राण को (जघन्थ) नष्ट करते हो उन (त्वा) आपको (सस्मिन्) सब (आजौ) संग्राम वा (अत्र) इस आप में श्रद्धा करने वाले (विश्वे देवासः) सब विद्वान् और (मरुतः) ऋत्विज् लोग (न्यार्चन्) नित्य सत्कार करते हैं, इससे वे प्रजा के प्राणी (प्रत्यन्वमदन्) सबको आनन्दित कर के आप आनन्दित होते हैं॥15॥ भावार्थः—जो एक परमेश्वर की उपासना विद्या को ग्रहण और शत्रुओं को ताड़कर प्रजा को निरन्तर आनन्दित करते हैं, वही धार्मिक विद्वान् सुखी रहते हैं॥12॥ इस सूक्त में विद्वान्, बिजुली आदि अग्नि और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह बावनवां 52 सूक्त और चौदहवां 14 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथैकादशर्चस्य त्रिपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता 1,3 निचृज्जगती। 2 भुरिग्जगती। 4 जगती। 5,7 विराड्जगती च छन्दः। निषादः स्वरः। 6,8,9, त्रिष्टुप्। 10 भुरिक् त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः। 11 सतः पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ सायणाचार्य्यादीनां मोक्षमूलरादीनां वा यदि छन्दःषड्जादिस्वरज्ञानमपि न स्यात्तर्हि भाष्यकरणयोग्यता तु कथं भवेत्॥ जब सायणाचार्य्यादि वा मोक्षमूलरादिकों को छन्द और षड्जादि स्वरों का भी ज्ञान नहीं तो भाष्य करने की योग्यता तो कैसे होगी॥ मनुष्यैर्धर्मं विचार्य्य किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ अब त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में मनुष्यों को धर्म विचार कर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ न्यू॒षु वाचं॒ प्र म॒हे भ॑रामहे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः। नू चि॒द्धि रत्नं॑ सस॒तामि॒वावि॑दन्न दु॑ष्टु॒तिर्द्र॑विणो॒देषु॑ शस्यते॥1॥ नि। उ॒म् इति॑। सु। वाच॑म्। प्र। म॒हे। भ॒रा॒म॒हे॒। गिरः॑। इन्द्रा॑य। सद॑ने। वि॒वस्व॑तः। नु। चि॒त्। हि। रत्न॑म्। स॒स॒ताम्ऽइ॑व। अवि॑दत्। न। दुः॒ऽस्तु॒तिः। द्र॒वि॒णः॒ऽदेषु॑। श॒स्य॒ते॒॥1॥ पदार्थः—(नि) नितराम् (उ) वितर्के (सु) शोभने (वाचम्) वाणीम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (महे) महति महासुखप्रापके (भरामहे) धरामहे (गिरः) स्तुतयः (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापणाय (सदने) सीदन्ति यस्मिँस्थाने तस्मिन् (विवस्वतः) यथा प्रकाशमानस्य सूर्यस्य प्रकाशे (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (हि) खलु (रत्नम्) रमणीयं सुवर्णादिकम् (ससतामिव) यथा स्वपतां पुरुषाणां तथा (अविदत्) विन्दति प्राप्नोति (न) निषेधे (दुःस्तुतिः) दुष्टा चासौ स्तुतिः पापकीर्तिश्च सा (द्रविणोदेषु) ये द्रविणांसि सुवर्णादीनि द्रव्यप्रदानि विद्यादीनि च ददति तेषु (शस्यते) प्रशस्ता भवति॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा वयं महे सदन इन्द्राय वाचं सुभरामहे स्वप्ने ससतामिव विवस्वतः सूर्यस्य प्रकाशे रत्नमिव गिरो निभरामहे, किन्तु द्रविणोदेष्वस्मासु दुष्टुतिर्न प्रशस्ता न भवति तथा यूयं भवत॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा निद्रावस्था मनुष्या आरामं प्राप्नुवन्ति, तथा सर्वदा विद्यासुशिक्षाभ्यां संस्कृतां वाचं स्वीकृत्य प्रशस्तं कर्म सेवित्वा निद्रां दूरीकृत्य स्तुतिप्रकाशाय प्रयतितव्यम्॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (महे) महासुख प्रापक (सदने) स्थान में (इन्द्राय) परमैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (सु) शुभलक्षणयुक्त (वाचम्) वाणी को (निभरामहे) निश्चित धारण करते हैं, स्वप्न में (ससतामिव) सोते हुए पुरुषों के समान (विवस्वतः) सूर्यप्रकाश में (रत्नम्) रमणीय सुवर्णादि के समान (गिरः) स्तुतियों को धारण करते हैं, किन्तु (द्रविणोदेषु) सुवर्णादि वा विद्यादिकों के देने वाले हम लोगों में (दुष्टुतिः) दुष्ट स्तुति और पाप की कीर्ति अर्थात् निन्दा (न प्रशस्यते) श्रेष्ठ नहीं होती, वैसे तुम भी होवो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे निद्रा में स्थित हुए मनुष्य आराम को प्राप्त होते हैं, वैसे सर्वदा विद्या उत्तम शिक्षाओं से संस्कार की हुई वाणी को स्वीकार प्रशंसनीय कर्म को सेवन और निंदा को दूरकर स्तुति का प्रकाश होने के लिये अच्छे प्रकार प्रयत्न करना चाहिये॥1॥ अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है॥ दु॒रो अश्व॑स्य दु॒र इ॑न्द्र॒ गोर॑सि दु॒रो यव॑स्य॒ वसु॑न इ॒नस्पतिः॑। शि॒क्षा॒न॒रः प्र॒दिवो॒ अका॑मकर्शनः॒ सखा॒ सखि॑भ्य॒स्तमि॒दं गृ॑णीमसि॥2॥ दु॒रः। अश्व॑स्यः। दु॒रः। इ॒न्द्र॒। गोः। अ॒सि॒। दु॒रः। यव॑स्य। वसु॑नः। इ॒नः। पतिः॑। शि॒क्षा॒ऽन॒रः। प्र॒ऽदिवः॑। अका॑मऽकर्शनः। सखा॑। सखि॑ऽभ्यः। तम्। इ॒दम्। गृ॒णी॒म॒सि॒॥2॥ पदार्थः—(दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि (अश्वस्य) व्याप्तिकारकाग्न्यादेस्तुरङ्गस्य वा (दुरः) (इन्द्र) विद्वन् (गोः) सुसंस्कृताया वाचः (असि) (दुरः) (यवस्य) उत्तमस्य यवादेरन्नस्य (वसुनः) सर्वोत्तमस्य द्रव्यस्य (इनः) ईश्वरः। इन इतीश्वरनामसु पठितम्। (निघं॰2.22) (पतिः) पालयिता (शिक्षानरः) यः शिक्षां नृणाति प्राप्नोति स शिक्षाया नरः शिक्षानरः। अत्र वा॰ सर्वधातुभ्योऽजयं वक्तव्यः इति नॄधातोरच्प्रत्ययः। (प्रदिवः) प्रकृष्टस्य न्यायप्रकाशस्य (अकामकर्शनः) योऽकामानलसान् कृशति तनूकरोति सः (सखा) सुहृत् (सखिभ्यः) सुहृद्भ्यः (तम्) उक्तार्थम् (इदम्) अर्चनं सत्करणं यथा स्यात्तथा (गृणीमसि) अर्चामः स्तुमः॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्र विद्वन्! योऽकामकर्शनः शिक्षानरः सखिभ्यः सखा पतिरिन इव त्वमश्वस्य दुरो गोर्दुरोऽभिप्राप्य यवस्य प्रदिवो दुरोऽधिष्ठितः सन् वसुनो दाताऽसि तं त्वामिदं वयं गृणीमसि॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न हि परमेश्वरतुल्येन धार्मिकेण विदुषा विना कस्मैचित् सर्वपदार्थानां सुखानां च प्रदाता कश्चिदस्ति, परन्तु ये खलु सर्वमित्राः शिक्षाप्राप्ता मनुष्याः सन्ति त एवैतत् सर्वसुखं लभन्ते नेतरे॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) विद्वान्! जो (अकामकर्शनः) आलस्ययुक्त मनुष्यों को कृश (शिक्षानरः) शिक्षाओं को प्राप्त करने वा (सखिभ्यः) मित्रों के (सखा) मित्र (पतिः) पालन करने वा (इनः) ईश्वर के तुल्य सामर्थ्ययुक्त आप (अश्वस्य) व्याप्तिकारक अग्नि आदि वा तुरङ्ग आदि के (दुरः) द्वारों को प्राप्त होके सुख देने वाली (गोः) वाणी वा दूध देने वाली गौ के (दुरः) सुख देने वाले द्वारों को जान (यवस्य) उत्तम यव आदि अन्न (प्रदिवः) उत्तम विज्ञान प्रकाश और (वसुनः) उत्तम धन देने वाले (असि) हैं (तम्) उस आपकी (इदम्) पूजा वा सत्कार पूर्वक (गृणीमसि) स्तुति करते हैं॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर के तुल्य धार्मिक विद्वान् के विना किसी के लिये सब पदार्थ वा सब सुखों के देने वाला कोई नहीं है, परन्तु जो निश्चय करके सबके मित्र शिक्षाओं को प्राप्त किये हुए आलस्य को छोड़कर, ईश्वर की उपासना विद्या वा विद्वानों के संग को प्रीति से सेवन करने वाले मनुष्य हैं वे ही इन सब सुखों को प्राप्त होते हैं आलसी मनुष्य नहीं॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में उपदेश में किया है॥ शची॑व इन्द्र पुरुकृद् द्युमत्तम॒ तवेदि॒दम॒भित॑श्चेकिते॒ वसु॑। अतः॑ सं॒गृभ्या॑भिभूत॒ आ भ॑र॒ मा त्वा॑य॒तो ज॑रि॒तुः काम॑मूनयीः॥3॥ शची॑ऽवः। इ॒न्द्र॒। पु॒रु॒ऽकृ॒त्। द्यु॒म॒त्ऽत॒म॒। तव॑। इत्। इ॒दम्। अ॒भितः॑। चे॒कि॒ते॒। वसु॑। अतः॑। स॒म्ऽगृभ्य॑। अ॒भि॒ऽभू॒ते॒। आ। भ॒र॒। मा। त्वा॒ऽय॒तः। ज॒रि॒तुः। काम॑म्। ऊ॒न॒यीः॒॥3॥ पदार्थः—(शचीवः) प्रशस्ताः प्रज्ञा बह्वी वाक् प्रशस्तं कर्म च विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक विद्वन् वा (पुरुकृत्) यः पुरूणि बहूनि सुखानि करोति सः (द्युमत्तम) द्यौर्बहुः सर्वज्ञः प्रकाशो विद्याप्रकाशो वा विद्यते यस्मिन् सोऽतिशयितस्तत्संबुद्धौ (तव) (इत्) एव (इदम्) वक्ष्यमाणम् (अभितः) सर्वतः (चेकिते) जानाति (वसु) परं प्रकृष्टं द्रव्यम् (अतः) पुरुषार्थात् (संगृभ्य) सम्यग्गृहीत्वा (अभिभूतम्) अभिभूतिः शत्रूणामभिभवनं पराभवो यस्मात्तत्सम्बुद्धौ (आ) आभिमुख्ये (भर) धर (मा) निषेधे (त्वायतः) त्वामात्मानं तवात्मानं वेच्छतः (जरितुः) स्तोतुः (कामम्) इष्टसिद्धिम् (ऊनयीः) ऊनयेः। लुङ् प्रयोगोऽयम्॥3॥ अन्वयः—हे शचीवो द्युमत्तम पुरुकृदिन्द्र सभेश! यो मनुष्यस्तव कृपया सहायेन वाऽभित इदं वसु चेकिते जानाति। हे अभिभूते शत्रूणां पराभवकर्त्तर्यतस्त्वं त्वायतो जरितुर्धार्मिकस्य स्वजनस्य काममाभर समन्तात्प्रपूर्द्धि। अतस्त्वां संगृभ्याहं वर्त्ते त्वं मां सर्वैः कामैराभर त्वायतो जरितुर्मम कामं मोनयीः परिहीणं क्षीणं न्यूनं कदाचिन्मा सम्पादयेः॥13॥ भावार्थः—मनुष्यैर्न किल परमेश्वरेणाप्तेन पुरुषसङ्गेन वा विना सर्वेषां कामानां पूर्त्तिः कर्त्तुं शक्या तस्मादेतमेवोपास्य संगम्य वा कामपूर्त्तिः सम्पादनीयेति॥3॥ पदार्थः—हे (शचीवः) प्रशंसनीय प्रज्ञा, वाणी और कर्मयुक्त (द्युमत्तम) अतिशय करके सर्वज्ञता विद्याप्रकाशयुक्त (पुरुकृत्) बहुत सुखों के दाता (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त जगदीश्वर वा एैश्वर्य प्रापक सभापति विद्वान्! आपकी कृपा वा आप के सहाय से मनुष्य (अभितः) सब ओर से (इदम्) इस (वसु) उत्तम धन को (चेकिते) जानता है, हे (अभिभूते) शत्रुओं के पराजय करने वाले! जिस कारण आप (त्वायतः) आप वा उस के आत्मा की इच्छा करते हुए (जरितुः) स्तुति करने वाले धार्मिक भक्तजन की (कामम्) इष्टसिद्धि को (आभर) पूर्ण करें (अतः) इस पुरुषार्थ से आपको (संगृभ्य) ग्रहण करके मैं वर्त्तता हूं और आप मुझे सब कामों से पूर्ण कीजिये, आपकी इच्छा करते हुए स्तुति करने वाले मेरी इष्टसिद्धि को (मोनयीः) कभी क्षीण मत कीजिये॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को निश्चय करके परमेश्वर वा विद्वान् मनुष्य के संग के विना कोई भी मनुष्य इष्टसिद्धि को पूरण करने वाला होने को योग्य नहीं है। इससे इसी की उपासना वा विद्वान् मनुष्य का सत्संग करके इष्टसिद्धि को सम्पादन करना चाहिये॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒भिर्द्युभिः॑ सु॒मना॑ ए॒भिरिन्दु॑भिर्निरुन्धा॒नो अम॑तिं॒ गोभि॑र॒श्विना॑। इन्द्रे॑ण॒ दस्युं॑ द॒रय॑न्त॒ इन्दु॑भिर्यु॒तद्वे॑षसः॒ समि॒षा र॑भेमहि॥4॥ ए॒भिः। द्युऽभिः॑। सु॒ऽमनाः॑। ए॒भिः। इन्दु॑ऽभिः। नि॒ऽरु॒न्धा॒नः। अम॑तिम्। गोभिः॑। अ॒श्विना॑। इन्द्रे॑ण। दस्यु॑म्। द॒रय॑न्तः। इन्दु॑ऽभिः। यु॒तऽद्वे॑षसः। सम्। इ॒षा। र॒भे॒म॒हि॒॥4॥ पदार्थः—(एभिः) प्रत्यक्षैः (द्युभिः) प्रकाशयुक्तैर्गुणैर्द्रव्यैर्वा (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सभाध्यक्षस्य सः (एभिः) वक्ष्यमाणैः (इन्दुभिः) आह्लादकारिभिर्गुणैः पदार्थैर्वा (निरुन्धानः) निरोधं कुर्वन् (अमतिम्) अविद्यमाना मतिर्विज्ञानं सुखं वा यस्यामविद्यायां दरिद्रायां वा तां सुरूपं वा (गोभिः) प्रशस्ताभिर्वाग्धेनुपृथिवीभिः (अश्विना) अग्निजलसूर्यचन्द्रादिभिः (इन्द्रेण) विद्युता तद्रचितेन विदारकेण शस्त्रेण वा (दस्युम्) बलात्कारेण परस्वापहर्त्तारम् (दरयन्तः) विदारयन्तः (इन्दुभिः) अभिषुतैर्बलकारिभिः पेयैः सोमरसाभियुक्तैर्जलैः (युतद्वेषसः) युता अमिश्रिताः पृथग्भूता द्वेषा येभ्यस्ते (सम्) सम्यगर्थे (इषा) इच्छया अन्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्वीमहि॥4॥ अन्वयः—वयं योऽमतिं निरुन्धानः सुमना विद्वानस्ति तं प्राप्य तत्सहायेनैर्भिर्द्युभिरेभिरन्दुभिर्गोभि- रश्विनेन्दुभिरिषेन्द्रेण सह दस्युं दरयन्तो युतद्वेषसः शत्रुभिः सह युद्धं सुखेन समारभेमहि॥4॥ भावार्थः—यः सभाद्यध्यक्षो वा सर्वं दारिद्र्यं विनाश्य शत्रुविजयं कृत्वा सर्वा विद्याः शिक्षित्वाऽस्मान् सुखयति स सर्वैर्मनुष्यैः समाश्रयितव्यश्चेति नहि खल्वेतत्सहायेन विना कश्चिदपि व्यावहारिकं चानन्दं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सहायेन सर्वेषां धर्म्याणां कार्याणामारम्भः सुखसेवनं च नित्यं कार्य्यमिति॥4॥ पदार्थः—हम लोग जो (अमतिम्) विज्ञान वा सुख से अविद्या दरिद्रता तथा सुन्दर रूप को (निरुन्धानः) निरोध वा ग्रहण करता हुआ (सुमनाः) उत्तम विज्ञानयुक्त सभाध्यक्ष है, उसकी प्राप्ति कर उसके सहाय वा (एभिः) इन (द्युभिः) प्रकाशयुक्त द्रव्य (एभिः) इन (इन्दुभिः) आह्लादकारक गुण वा पदार्थ इन (गोभिः) प्रशंसनीय गौ पृथिवी (अश्विना) अग्नि, जल, सूर्य्य, चन्द्र आदि (इषा) इच्छा वा अन्नादि (इन्दुभिः) सोमरसादि पेयों (इन्द्रेण) बिजुली और उसके रचे हुए विदारण करने वाले शस्त्र से (दस्युम्) बल से दूसरे के धन को लेने वाले दुष्ट को (दरयन्तः) विदारण करते हुए (युतद्वेषसः) द्वेष से अलग होने वाले शत्रुओं के साथ युद्ध को सुख से (समारभेमहि) आरम्भ करें॥4॥ भावार्थः—जो सभाध्यक्ष सब विद्याओं की शिक्षा कर हम लोगों को सुखी करता है, उसका सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये। इस के सहाय के विना कोई भी मनुष्य व्यावहारिक और परमार्थ विषयक आनन्द को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इसके सहाय से सब धर्म युक्त कार्यों का आरम्भ वा सुख का सेवन करना चाहिये॥4॥ पुनरेतत्सहायेन मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर इसके सहाय से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ समि॑न्द्र रा॒या समि॒षा र॑भेमहि॒ सं वाजे॑भिः पुरुश्च॒न्द्रैर॒भिद्यु॑भिः। सं दे॒व्या प्रम॑त्या वी॒रशु॑ष्मया॒ गोअग्र॒याश्वा॑वत्या रभेमहि॥5॥15॥ सम्। इ॒न्द्र॒। रा॒या। सम्। इ॒षा। र॒भे॒म॒हि॒। सम्। वाजे॑भिः। पु॒रु॒ऽच॒न्द्रैः। अ॒भिद्यु॑ऽभिः। सम्। दे॒व्या। प्रऽम॑त्या। वी॒रऽशु॑ष्मया। गोऽअ॑ग्रया। अश्व॑ऽवत्या। र॒भे॒म॒हि॥5॥ पदार्थः—(सम्) प्राप्तौ (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदेश्वर सभाध्यक्ष वा (राया) राज्यपरमश्रिया (सम्) सम्यक् (इषा) धर्मेच्छयान्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्याम (सम्) श्रैष्ठ्येऽर्थे (वाजेभिः) विज्ञानादिगुणैः संग्रामैर्वा (पुरुश्चन्द्रैः) पुरवो बहवश्चन्द्रा आह्लादकारकाः सुवर्णरजतादयो धातवो वा येभ्यस्तैः (अभिद्युभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः (सम्) श्लेषे (देव्या) दिव्यगुणसहितया विद्यायुक्त्या सेनया (प्रमत्या) प्रकृष्टा मतिर्मननं यस्यां तया (वीरशुष्मया) वीराणां योद्धॄणां शुष्माणि बलानि यस्यां तया (गोअग्रया) गाव इन्द्रियाणि धेनवः पृथिव्यो वाऽग्राः श्रेष्ठा यस्यां तया। अत्र सर्वत्र विभाषा गोः। (अष्टा॰6.1.122) अनेन प्रकृतिभावः। (अश्ववत्या) प्रशस्ता वेगबलयुक्ता अश्वा विद्यन्ते यस्यां तया (रभेमहि) शत्रुभिः सह युध्येमहि॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभाध्यक्ष! यथा वयं त्वत्सहायेन सम्राया समिषा पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः संवाजेभिः प्रमत्या देव्या गोऽअग्रयाऽश्वावत्या वीरशुष्मया सेनया सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः संरभेमहि सम्यक् संग्रामं कुर्याम तथैतत्कृत्वा लौकिकपारमार्थिकान् व्यवहारान् रभेमहि तं त्वं संसाधय॥5॥ भावार्थः—नहि कश्चिदपि विद्वत्सहायमन्तरा सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमाप्नोति नैव किल बलारोग्यपूर्णसामग्री- सुशिक्षितया धार्मिकशूरवीरयुक्त्या चतुरङ्गिण्या सेनया विना कश्चिच्छत्रुपराजयं कृत्वा विजयं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सर्वदोन्नेयमिति॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष! जैसे हम लोग आप के सहाय से (सम्राया) उत्तम राज्यलक्ष्मी (समिषा) धर्म की इच्छा वा अन्नादि (अभिद्युभिः) विद्या व्यवहार और प्रकाशयुक्त (पुरुश्चन्द्रैः) बहुत आह्लादकारक सुवर्ण और उत्तम चांदी आदि धातु (सं वाजेभिः) विज्ञानादि गुण वा संग्राम तथा (प्रमत्या) उत्तम मतियुक्त (देव्या) दिव्यगुण सहित विद्या से युक्त सेना से (गोअग्रया) श्रेष्ठ इन्द्रिय गौ और पृथिवी से युक्त (वीरशुष्मया) शूरवीर योद्धाओं के बल से युक्त (अश्ववत्या) प्रशंसनीय वेग, बलयुक्त घोड़े वाली सेना के साथ वर्त्तमान होके शत्रुओं के साथ (संरभेमहि) अच्छे प्रकार संग्राम को करें, इस सब कार्य्य को करके लौकिक और पारमार्थिक सुखों को (रभेमहि) सिद्ध करें॥5॥ भावार्थः—कोई भी मनुष्य विद्वान् की सहायता के विना अच्छे प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता और निश्चय करके बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री और उत्तम शिक्षा से युक्त धार्मिक, शूरवीर युक्त चतुरंगिणी अर्थात् चौतर्फी अङ्ग से युक्त सेना के विना शत्रुओं का पराजय वा विजय के प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे मनुष्यों को इन कार्यों की उन्नति करनी चाहिये॥5॥ पुनस्तैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर उन मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ते त्वा॒ मदा॑ अमद॒न्तानि॒ वृष्ण्या॒ ते सोमा॑सो वृत्र॒हत्ये॑षु सत्पते। यत्क॒ारवे॒ दश॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ति ब॒र्हिष्म॑ते॒ नि स॒हस्रा॑णि ब॒र्हयः॑॥6॥ ते। त्वा॒। मदाः॑। अ॒म॒द॒न्। तानि॑। वृष्ण्या॑। ते। सोमा॑सः। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु। स॒त्ऽप॒ते॒। यत्। का॒रवे॑। दश॑। वृ॒त्राणि॑। अ॒प्र॒ति। ब॒र्हिष्म॑ते। नि। स॒हस्रा॑णि। ब॒र्हयः॑॥6॥ पदार्थः—(ते) प्रजास्था धार्मिका विद्वांसः (त्वा) त्वां पाठशालाध्यक्षम् (मदाः) आनन्दिता आनन्दयितारः (अमदन्) हृष्यन्तु (तानि) पूर्वोक्तानि कर्माणि (वृष्ण्या) सुखसेचनसमर्थानि (ते) पूर्वोक्ताः (सोमासः) अभिषुताः सुसम्पादिताः पदार्था यैस्ते (वृत्रहत्येषु) वृत्राः शत्रवो हत्या हननीया येषु तेषु संग्रामेषु (सत्पते) सत्पुरुषाणां पति पालयिता तत्सम्बुद्धौ (यत्) यः (कारवे) कर्मकर्त्रे (दश) दशत्वसंख्याविशिष्टानि (वृत्राणि) शत्रूणामावरकाणि कर्माणि (अप्रति) अप्रतीतानि यथा स्यात् तथा (बर्हिष्मते) विज्ञानवते (नि) नित्यम् (सहस्राणि) बहून्यसंख्यातानि सैन्यानि (बर्हयः) वर्द्धय॥6॥ अन्वयः—हे सत्पते यस्त्वं बर्हिष्मते कारवे दश सहस्राणि वृत्राण्यप्रति निबर्हयस्तं त्वामाश्रित्य ते सोमासो मदाः शूरवीराः वृत्रहत्येषु तानि वृष्ण्या सेचनसमर्थान्युत्तमानि कर्माण्याचरन्तोऽमदन्॥6॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः सदा सत्पुरुषसङ्गेनाऽनेकानि साधनानि प्राप्यानन्दयितव्यमिति॥6॥ पदार्थः—हे (सत्पते) सत्पुरुषों के पालन करने वाले सभाध्यक्ष! (यत्) जो आप (बर्हिष्मते) विज्ञान युक्त (कारवे) कर्म करने वाले मनुष्य के लिये (वृत्राणि) शत्रुओं को रोकने हारे कर्म (दश) दश (सहस्राणि) हजार अर्थात् असंख्यात सेनाओं के (अप्रति) अप्रतीति जैसे हो वैसे प्रतिकूल कर्मों को (निर्बहयः) निरन्तर बढ़ाइये, उस आप के आश्रित होकर (ते) वे (सोमासः) उत्तम-उत्तम पदार्थों को उत्पन्न करने (मदाः) आनन्दित करने वाले शूरवीर धार्मिक विद्वान् लोग (त्वा) आपको (वृत्रहत्येषु) शत्रुओं के मारने योग्य संग्रामों में (तानि) उन (वृष्ण्या) सुख वर्षाने वाले उत्तम-उत्तम कर्मों को आचरण करते हुए (अमदन्) प्रसन्न होते हैं॥6॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को चाहिये कि सत्पुरुषों के संग से अनेक साधनों को प्राप्त कर आनन्द भोगें॥6॥ पुनः स सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सेनाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यु॒धा युध॒मुप॒ घेदे॑षि धृष्णु॒या पु॒रा पुरं॒ समि॒दं हं॒स्योज॑सा। नम्या॒ यदि॑न्द्र॒ सख्या॑ परा॒वति॑ निब॒र्हयो॒ नमु॑चिं॒ नाम॑ मा॒यिन॑म्॥7॥ यु॒धा। युध॑म्। उप॑। घ॒। इत्। ए॒षि॒। धृ॒ष्णु॒ऽया। पु॒रा। पुर॑म्। सम्। इ॒दम्। हं॒सि॒। ओज॑सा। नम्या॑। यत्। इ॒न्द्र॒। सख्या॑। प॒रा॒ऽवति॑। नि॒ऽब॒र्हयः॑। नमु॑चिम्। नाम॑। मा॒यिन॑म्॥7॥ पदार्थः—(युधा) यो योधयति तेन (युधम्) युध्यमानम् (उप) सामीप्ये (घ) एव (इत्) अपि (एषि) प्राप्नोषि (धृष्णुया) धार्ष्ट्यादिगुणयुक्तेन धृष्टेन (पुरा) पूर्वम् (पुरम्) शत्रुनगरम् (सम्) एकीभावे (इदम्) यद्यद्गोचरं तत्तत् (हंसि) नाशयसि (ओजसा) बलेन (नम्या) यथा रात्रिरन्धकारेण सर्वान् पदार्थानावृणोति तथा। नम्या इति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं॰1.7) (यत्) यस्मात् (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष (सख्या) मित्रसमूहेन (परावति) दूरदेशे (निबर्हयः) निःसारय (नमुचिम्) न विद्यते मुचिर्मोक्षणं यस्य तम्। अत्र इक् कृष्यादिभ्य (अष्टा॰वा॰3.3.108) इति मुचधातोर्भाव इक्। नभ्राण्नपान्नवेदाना॰ (अष्टा॰6.3.75) इति निपातनान्नञः प्रकृतिभावः। (नाम) प्रसिद्धम् (मायिनम्) कुत्सिता माया विद्यते यस्य तं छलकपटयुक्तं दुष्टकर्मकारिणं मनुष्यम्॥7॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष! यद्यस्मात्त्वं धृष्णुया सख्या युधौजसा च सह पुरेदं पुरं हंसि युधमिद् घ शत्रुमप्येवैषि नम्या रात्रिरिवान्यायेनान्धकारिणं नाम प्रसिद्धं नमुचिं मायिनं परावति दूरदेशे निबर्हयस्तस्मात्त्वां मूर्धाभिषिक्तं कृत्वा वयं सभाद्यध्यक्षत्वेन स्वीकृत्य राजानमभिषिञ्चामः॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्बहून् मित्रान् सम्पाद्य दुष्टान् शत्रून्निवार्य दुष्टदलानि शत्रूणां पुराणि च विदार्य सर्वानन्यायकारिणो मनुष्यादीन् सततं कारागारे बध्वा धर्म्यं चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्य परमैश्वर्यं सम्पादनीयम्॥7॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभा सेनाध्यक्ष! (यत्) जिस कारण तुम (धृष्णुया) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (सख्या) मित्रसमूह (युधा) युद्ध करने वाले (ओजसा) बल के साथ (पुरा) पहिले (इदम्) इस (पुरम्) शत्रुओं के नगर को (हंसि) नष्ट करते तथा (युधम्) युद्ध करते हुए शत्रु को (इत्) भी (घ) निश्चय करके (एषि) प्राप्त करते और (नम्या) जैसे रात्रि अन्धकार से सब पदार्थों का आवरण करती है, वैसे अन्याय से अन्धकार करने वाले (नाम) प्रसिद्ध (नमुचिम्) छुट्टी से रहित (मायिनम्) छल-कपटयुक्त दुष्ट कर्म करने वाले मनुष्य वा पश्वादि को (परावति) दूर देश में (निबर्हयः) निःसारण करते हो, इससे आपको मूर्द्धाभिषिक्त करके हम लोग सभाध्यक्ष के अधिकार में स्वीकार करके राजपदवी से मान्य करते हैं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि बहुत उत्तम-उत्तम मित्रों को प्राप्त, दुष्ट शत्रुओं का निवारण, दुष्ट दल वा शत्रुओं के पुरों को विदारण, सब अन्यायकारी मनुष्यों को निरन्तर कैदघर में बांध, ताड़ना दे और धर्मयुक्त चक्रवर्त्ति राज्य को पालन करके उत्तम ऐश्वर्य को सिद्ध करें॥7॥ पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं कर॑ञ्जमु॒त प॒र्णयं॑ वधी॒स्तेजि॑ष्ठयातिथि॒ग्वस्य॑ वर्त॒नी। त्वं श॒ता वङ्गृ॑दस्याभिन॒त् पुरो॑ऽनानु॒दः परि॑षूता ऋ॒जिश्व॑ना॥8॥ त्वम्। कर॑ञ्जम्। उ॒त। प॒र्णय॑म्। व॒धीः॒। तेजि॑ष्ठया। अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑। व॒र्त॒नी। त्वम्। श॒ता। वङ्गृ॑दस्य। अ॒भि॒न॒त्। पुरः॑। अ॒न॒नु॒ऽदः। परि॑ऽसूताः। ऋ॒जिऽश्व॑ना॥8॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाध्यक्षः (करञ्जम्) यः किरति विक्षिपति धार्मिकाँस्तम्। अत्र कृविक्षेप इत्यस्माद्धातोः बाहुलकाद् औणादिकोऽञ्जन् प्रत्ययः। (उत) अपि (पर्णयम्) पर्णानि परप्राप्तानि वस्तूनि याति प्राप्नोति तं चोरम् (वधीः) हंसि (तेजिष्ठया) या अतिशयेन तीव्रा तेजिष्ठा सेनानीतिर्वा तया (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छति गमयति वा येन तस्य। अत्रातिथ्युपपदाद्गमधातोः बाहुलकादौणादिको ड्वः प्रत्ययः। (वर्त्तनी) वर्त्तते यया क्रियया सा (त्वम्) (शता) बहूनि (वङ्गृदस्य) यो वङ्गॄन् वक्रान् विषादीन् पदार्थान् व्यवहारान् ददात्युपदिशति वा तस्य दुष्टस्य (अभिनत्) विदारयसि (पुरः) पुराणि (अननुदः) योऽनुगतं न ददाति तस्य (परिषूताः) परितः सर्वतः सूता उत्पन्ना उत्पादिता वा पदार्थाः (ऋजिश्वना) ऋजव ऋजुगुणयुक्ता सुशिक्षिताः श्वानो येन तेन सह॥8॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्ष! यतस्त्वं यस्मिन् युद्धव्यवहारे तेजिष्ठया सेनया करञ्जमुतापि पर्णयं वधीर्हंसि याऽतिथिग्वस्य वर्त्तनी गमनागमनसत्करणक्रियाऽस्ति तां रक्षित्वाऽननुदो वङ्गृदस्य दुष्टस्य शतानि पुरः पुराण्यभिनद्भिनत्सि ये परिसूताः पदार्थास्तानृजिश्वनां व्यवहारेण रक्षसि तस्मात्त्वमेव सभाध्यक्षत्वे योग्योऽसीति वयं निश्चिनुमः॥8॥ भावार्थः—राजपुरुषैर्दुष्टान् शत्रून् छित्वा पूर्णविद्यावतां परोपकारिणां धार्मिकाणामतिथीनां सत्क्रियार्थं सर्वान् प्राणिनः पदार्थांश्च रक्षित्वा धर्म्यं राज्यं सेवनीयम्। यथा श्वानः स्वामिनं रक्षन्ति तथान्ये रक्षितुं न शक्नुवन्ति तस्मादेते सुशिक्ष्य परिरक्षणीयाः॥8॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष! जिस कारण (त्वम्) आप इस युद्ध व्यवहार में (तेजिष्ठया) अत्यन्त तीक्ष्ण सेना वा नीतियुक्त बल से (करञ्जम्) धार्मिकों को दुःख देने (पर्णयम्) दूसरे के वस्तु को लेने वाले चोर को (उत) भी (वधीः) मारते और जो (अतिथिग्वस्य) अतिथियों के जाने आने के वास्ते (वर्तनी) सत्कार करने वाली क्रिया है, उसकी रक्षा कर (अननुदः) अनुकूल न वर्त्तने (वङ्गृदस्य) जहर आदि पदार्थों को देने वा दुष्ट व्यवहारों का उपदेश करने वाले दुष्ट मनुष्य के (शता) असंख्यात (पुरः) नगरों को (अभिनत्) भेदन करते और जो (परिसूताः) सब प्रकार से उत्पन्न किये हुए पदार्थ हैं, उनकी (ऋजिश्वना) कोमल गुणयुक्त कुत्तों की शिक्षा करने वाले के समान व्यवहार के साथ रक्षा करते हो, इससे आप ही सभा आदि के अध्यक्ष होने योग्य हो, ऐसा हम लोग निश्चय करते हैं॥8॥ भावार्थः—राजमनुष्यों को दुष्ट शत्रुओं के छेदन से पूर्ण विद्यायुक्त परोपकारी धार्मिक अतिथियों के सत्कार के लिये सब प्राणी वा सब पदार्थों की रक्षा करके धर्मयुक्त राज्य का सेवन करना चाहिये, जैसे कि कुत्ते अपनी स्वामी की रक्षा करते हैं, वैसी अन्य जन्तु रक्षा नहीं कर सकते, इससे इन कुत्तों को सिखा कर और इनकी रक्षा करनी चाहिये॥8॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वमे॒ताञ्ज॑न॒राज्ञो॒ द्विर्दशा॑ब॒न्धुना॑ सु॒श्रव॑सोपज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं नव॑ श्रु॒तो नि च॒क्रेण॒ रथ्या॑ दु॒ष्पदा॑वृणक्॥9॥ त्वम्। ए॒तान्। ज॒न॒ऽराज्ञः॑। द्विः। दश॑। अ॒ब॒न्धुना॑। सु॒ऽश्रव॑सा। उ॒प॒ऽज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिम्। स॒हस्रा॑। न॒व॒तिम्। नव॑। श्रु॒तः। नि। च॒क्रेण॑। रथ्या॑। दुः॒ऽपदा॑। अ॒वृ॒ण॒क्॥9॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (एतान्) मनुष्यादीन् (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान् (द्विः) द्विवारम् (दश) दश संख्यायाम् (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणन्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान् (षष्टिम्) एतत्संख्याकान् (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम्) एतत्संख्याकान् (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान् (श्रुतः) यः श्रूयते सः (नि) नित्यम् (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन (अवृणक्) वृणक्षि॥9॥ अन्वयः—हे सभाद्यध्यक्ष! यथा श्रुतस्त्वमेतानबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानानुपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञो दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विर्न्यवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टांश्च दूरीकरोषि तथा त्वमपि दुराचारत्पृथक् वस॥9॥ भावार्थः—चक्रवर्त्तिना राज्ञा सर्वान् माण्डलिकान् महामाण्डलिकान् राज्ञो भृत्यान् गृहस्थान् विरक्तान् वाऽनुरज्य शरणागतान् पालयित्वा धर्म्यं सार्वभौमराज्यमनुशासनीयम्। यतो दशेत्यादयः संख्यावाचिनः शब्दा उपलक्षणार्थाः सन्त्यतो राजपुरुषैः सर्वेषां यथायोग्यं रक्षणं दण्डनं च विधेयमिति॥9॥ पदार्थः—हे सभा और सेना के अध्यक्ष! जैसे (श्रुतः) श्रवण करने वाले (त्वम्) तुम (एतान्) इन (अबन्धुना) अबन्धु अर्थात् मित्ररहित अनाथ वा (सुश्रवसा) उत्तम श्रवण अन्नयुक्त मित्र के साथ वर्त्तमान (उपजग्मुषः) समीप होने वाले (षष्टिम्) साठ (नवतिम्) नव्वे (नव) नौ (दश) (सहस्राणि) दस हजार (जनराज्ञः) धार्मिक राजायुक्त मनुष्यादिकों को (दुष्पदा) दुःख से प्राप्त होने योग्य (रथ्या) रथ को प्राप्त करने वाले (चक्रेण) शस्त्र विशेष वा चक्रादि अङ्क युक्त यानसमूह से (द्विः) दो बेर (न्यवृणक्) नित्य दुःखों से अलग करते वा दुष्टों को दूर करते हो, वैसे तू भी पापाचरण से सदा दूर रह॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। चक्रवर्त्ति राजा को माण्डलिक वा महामाण्डलिक राजा भृत्य गृहस्थ वा विरक्तों को प्रसन्न और शरणागत आये हुए मनुष्य की रक्षा करके धर्मयुक्त सार्वभौम राज्य का यथावत् पालन करना चाहिये और दश से आदि ले के सब संख्यावाची शब्द उपलक्षण के लिये हैं, इससे राजपुरुषों को योग्य है कि सब की यथावत् रक्षा वा दुष्टों को दण्ड देवे॥9॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वमा॑विथ सु॒श्रव॑सं॒ तवो॒तिभि॒स्तव॒ त्राम॑भिरिन्द्र॒ तूर्व॑याणम्। त्वम॑स्मै॒ कुत्स॑मतिथि॒ग्वमा॒युं म॒हे राज्ञे॒ यूने॑ अरन्धनायः॥10॥ त्वम्। आ॒वि॒थ॒। सु॒ऽश्रव॑सम्। तव॑। ऊ॒तिऽभिः॑। तव॑। त्राम॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। तूर्व॑याणम्। त्वम्। अ॒स्मै॒। कुत्स॑म्। अ॒ति॒थि॒ऽग्वम्। आ॒युम्। म॒हे। राज्ञे॑। यूने॑। अ॒र॒न्ध॒ना॒यः॒॥10॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (आविथ) रक्षसि (सुश्रवसम्) सुष्ठु श्रवांसि श्रवणान्यन्नादीनि यस्य तम् (तव) रक्षणे वर्त्तमानस्य (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तव) सेनादिभिः सह वर्त्तमानस्य (त्रामभिः) त्रायन्ते ते धार्मिका विद्वांसः शूरास्तैः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (तूर्वयाणम्) तूर्वाः शत्रुबलहिंसका योद्धारो यानेषु यस्य तम् (त्वम्) सभाशालासेनाप्रजारक्षकः (अस्मै) युध्यमानाय वीराय (कुत्सम्) वज्रम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.20) (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम् (आयुम्) य एति प्राप्नोति तम् (महे) महोत्तमगुणविशिष्टाय (राज्ञे) न्यायविनयविद्यागुणैर्देदीप्यमानाय (यूने) युवावस्थायां वर्त्तमानाय (अरन्धनायः) अरमलं धनं यस्य स इवाचरसीत्यरन्धनायः। अत्र लडर्थे लिङ्॥10॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष! त्वमस्मै महे यूने राज्ञे तवोतिभिस्तव त्रामभी रक्षितं यमतिथिग्वं तूर्वयाणमायुं सुश्रवसमरन्धनायो यं त्वं कुत्समाविथ तं किमपि दुःखं न भवति॥10॥ भावार्थः—राजपुरुषैः शत्रून् निवार्य सर्वान् रक्षित्वा सर्वदा सुखिनः सम्पादनीयाः एते किल राजोन्नतिश्रियः सदा भवेयुः। विद्याशालाध्यक्षः सर्वान् सुशिक्षया विदुषः शस्त्रास्त्रकुशलान् सम्पाद्यैतैः प्रजां सततं रक्षेत्॥10॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष! (त्वम्) आप (अस्मै) इस (महे) महा उत्तम-उत्तम गुणयुक्त (यूने) युवावस्था में वर्त्तमान (राज्ञे) न्याय, विनय और विद्यादि गुणों से देदीप्यमान राजा के लिये (तव) आप के (ऊतिभिः) रक्षण आदि कर्मों से सेनादि सहित और (तव) वर्त्तमान आपके (त्रामभिः) रक्षा करने वाले धार्मिक विद्वानों से रक्षा किये हुए जिस (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त करने कराने (तूर्वयाणाम्) शत्रुबलों की हिंसा करने वाले यानसहित (आयुम्) जीवनयुक्त (सुश्रवसम्) उत्तम श्रवण वा अन्नादि युक्त मनुष्यों को (अरन्धनायः) पूर्ण धन वाले मनुष्य के समान आचरण करते और (त्वम्) आप जिस (कुत्सम्) वज्र के समान वीर पुरुष की (आविथ) रक्षा करते हो, उसको कुछ भी दुःख नहीं होता॥10॥ भावार्थः—राजपुरुषों को योग्य है कि शत्रुओं को निवारण कर सब की रक्षा करके सर्वथा उनको सुखयुक्त करें तथा ये निश्चय करके राजोन्नतिरूपी लक्ष्मी से सदा युक्त रहें और विद्याशाला के अध्यक्ष उत्तम शिक्षा से सब शस्त्रास्त्र विद्या में कुशल निपुण विद्वानों को सम्पन्न करके इन से प्रजा की निरन्तर रक्षा करें॥10॥ पुनरेते परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर ये लोग परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ य उ॒दृची॑न्द्र दे॒वगो॑पाः॒ सखा॑यस्ते शि॒वत॑मा॒ असा॑म। त्वां स्तो॑षाम॒ त्वया॑ सु॒वीरा॒ द्राघी॑य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा॑नाः॥11॥16॥ ये। उ॒त्ऽऋचि॑। इ॒न्द्र॒। दे॒वऽगो॑पाः। सखा॑यः। ते॒। शि॒वऽत॑माः। असा॑म। त्वाम्। स्तो॒षा॒म॒। त्वया॑। सु॒ऽवीराः॑। द्राघी॑यः। आयुः॑। प्र॒ऽत॒रम्। दधा॑नाः॥11॥ पदार्थः—(ये) वक्ष्यमाणलक्षणा वयम् (उदृचि) उत्कृष्टा ऋचो यस्मिन्नध्ययने तस्मिन् (इन्द्र) सभाद्यध्यक्षं (देवगोपाः) देवा विद्वांसो गोपा रक्षका येषान्ते। यद्वा ये देवानां दिव्यानां गुणानां कर्मणां वा गोपा रक्षकास्ते (सखायः) परस्परं सुहृदः सन्तः (ते) तव (शिवतमाः) अतिशयेन शिवाः कल्याणकारकं कर्म कुर्वन्तः कारयन्तश्च (असाम) भवेम (त्वाम्) शुभलक्षणम् (स्तोषाम) गुणान् कीर्त्तयेम (त्वया) रक्षिताः शिक्षिता वा (सुवीराः) शोभनाश्च ते वीराश्च यद्वा सुष्ठु वीरा येषु ते (द्राघीयः) अतिशयेन विस्तीर्णं शताद् वर्षेभ्योऽप्यधिकम् (आयुः) जीवनम् (प्रतरम्) प्रकृष्टया तरति प्लावयति दूरीकरोति दुःखं येन तत् (दधानाः) धरन्तः सन्तः॥11॥ अन्वयः—हे इन्द्र! ते तव देवगोपाः शिवतमाः सखायो वयमसाम भवेम त्वया रक्षिताः सुवीराः प्रतरं द्राघीय आयुर्दधानाः सन्तो वयमुदृचि त्वां स्तोषाम॥11॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः परस्परं निश्चितां मैत्रीं कृत्वा सर्वान् स्त्रीपुरुषादिजनान् सुविद्यायुक्तान् सम्पाद्य जितेन्द्रियत्वादिगुणान् गृहीत्वा ग्राहयित्वा च पूर्णमायुर्भोक्तव्यम्॥11॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वत्सभाध्यक्षप्रजापुरुषैः परस्परमित्रभावेन वर्त्तित्वा सर्वदा सुखं प्राप्तव्यमित्युक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति षोडशो 16 वर्गस्त्रिपञ्चाशं 53 सूक्तं च समाप्तम्॥53॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष! (ते) आप के (देवगोपाः) रक्षक विद्वान् वा दिव्य गुण कर्मों की रक्षा करने (शिवतमाः) अतिशय करके कल्याण लक्षणयुक्त (सखायः) परस्पर मित्र हम लोग (असाम) होवें (त्वया) आपके साथ रक्षा वा शिक्षा किये (सुवीराः) उत्तम वीरयुक्त (अतरम्) दुःख दूर करते (द्राघीयः) अत्यन्त विस्तारयुक्त सौ वर्ष से अधिक (आयुः) उमर को (दधानाः) धारण करके (उदृचि) उत्तम ऋचा युक्त अध्ययन व्यवहार में (त्वाम्) शुभ लक्षण युक्त आप के (स्तोषाम) गुणों का कीर्त्तन करें॥11॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को परस्पर निश्चित मैत्री, सब स्त्री पुरुषों को उत्तम विद्या युक्त जितेन्द्रियपन आदि गुणों को ग्रहण कर और कराके पूर्ण आयु का भोग करना चाहिये॥11॥ इस सूक्त में विद्वान् सभाध्यक्ष तथा प्रजा के पुरुषों को परस्पर प्रीति से वर्त्तमान रहकर सुख को प्राप्त करना कहा है। इससे सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह सोलहवां वर्ग 16 और तिरेपनवां 53वां सूक्त समाप्त हुआ॥53॥

अथास्यैकादशर्चस्य चतुःपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,4,10 विराड्जगति। 2,3,5 निचृज्जगती। 7 जगती च छन्दः। निषादः स्वरः। 6 विराट्त्रिष्टुप्। 8,9,11 निचृत्त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादावीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब चौअनवें सूक्त का आरम्भ है। उस के पहिले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥ मा नो॑ अ॒स्मिन् म॑घवन् पृ॒त्स्वंह॑सि न॒हि ते॒ अन्तः॒ शव॑सः परी॒णशे॑। अक्र॑न्दयो न॒द्यो॒ रोरु॑वद्व॒ना॑ क॒था न क्षो॒णीर्भि॒यसा॒ समा॑रत॥1॥ मा। नः॒। अ॒स्मिन्। म॒घ॒ऽव॒न्। पृ॒त्ऽसु। अंह॑सि। न॒हि। ते॒। अन्तः॑। शव॑सः। प॒रि॒ऽनशे॑। अक्र॑न्दयः। न॒द्यः॑। रोरु॑वत्। वना॑। क॒था। न। क्षो॒णीः। भि॒यसा॑। सम्। आ॒र॒त॒॥1॥ पदार्थः—(मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (अस्मिन्) जगति (मघवन्) प्रशस्तधनयुक्त (पृत्सु) सेनासु (अंहसि) पापे (नहि) निषेधार्थे (ते) तव (अन्तः) पारम् (शवसः) बलस्य (परीणशे) परितः सर्वतो नश्यन्त्यदृश्या भवन्ति यस्मिंस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कः प्रत्ययोऽन्येषामपि इति दीर्घश्च। (अक्रन्दयः) आह्वय (नद्यः) सरित इव (रोरुवत्) पुनः पुना रोदय (वना) सम्भक्तानि वस्तूनि (कथा) कथम् (न) निषेधे (क्षोणीः) बह्वीः पृथिवीः। क्षोणी इति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (भियसा) भयेन (सम्) सम्यक् (आरत) प्राप्नुत॥1॥ अन्वयः—हे मघवन् जगदीश्वर! यस्त्वं पृत्स्वस्मिन् परीणशेंऽहस्यस्मान् माक्रन्दयो यस्य ते तव शवसोऽन्तो नह्यस्ति स त्वमस्मान्नद्यः सरित इव मा भ्रामय भियसा मारोरुवन्मा रोदय यस्त्वं क्षोणीर्बह्वीः पृथिवीर्निर्मातुं धर्त्तुं शक्नोषि तन्त्वा मनुष्याः कथा न समारत कथं न प्राप्नुयुः॥1॥ भावार्थः—अत्र मनुष्यैः परमेश्वरस्यानन्तत्वात् सत्यभावेनोपासितः सन्नयं दुःखजनकादधर्ममार्गान्निवर्त्य सुखयति। एतस्यानन्तरूपगुणवत्त्वात् कश्चिदप्यस्यान्तं ग्रहीतुं न शक्नोति, तस्मादेतस्योपासनं त्यक्त्वा को भाग्यहीनोऽन्यमुपासीत॥1॥ पदार्थः—हे (मघवन्) उत्तम धनयुक्त जगदीश्वर! जो आप (पृत्सु) सेनाओं (अस्मिन्) इस जगत् और (परीणशे) सब प्रकार से नष्ट करने वाले (अंहसि) पाप में हम लोगों को (माक्रन्दयः) मत फँसाइये जिस (ते) आप के (शवसः) बल के (अन्तः) अन्त को कोई भी (नहि) नहीं पा सकता वह आप (नद्यः) नदियों के समान हम को मत भ्रमाइये (भियसा) भय से (मा रोरुवत्) बार-बार मत रुलाइये जो आप (क्षोणीः) बहुत गुणयुक्त पृथिवी के निर्माण वा धारण करने को समर्थ हैं, इसलिये मनुष्य आपको (कथा) क्यों (न) नहीं (समारत) प्राप्त होवे॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो परमेश्वर अनन्त होने से सत्य प्रेम के साथ उसकी उपासना किया हुआ दुःख उत्पन्न करने वाले अधर्म मार्ग से निवृत्त कर मनुष्यों को सुखी करता है, उसके अनन्त स्वरूप गुण होने से कोई भी अन्त को ग्रहण नहीं कर सकता। इस से उस ईश्वर की उपासना को छोड़ के कौन अभागी पुरुष दूसरे की उपासना करे॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अर्चा॑ श॒क्राय॑ शा॒किने॒ शची॑वते शृ॒ण्वन्त॒मिन्द्रं॑ म॒हय॑न्न॒भि ष्टु॑हि। यो धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा॒ रोद॑सी उ॒भे वृषा॑ वृष॒त्वा वृ॑ष॒भो न्यृ॒ञ्जते॑॥2॥ अर्च॑। श॒क्राय॑। शा॒किने॑। शची॑ऽवते। शृ॒ण्वन्त॑म्। इन्द्र॑म्। म॒हय॑न्। अ॒भि। स्तु॒हि॒। यः। धृ॒ष्णुना॑। शव॑सा। रोद॑सी॒ इति॑। उ॒भे इति॑। वृषा॑। वृ॒ष॒ऽत्वा। वृ॒ष॒भः। नि॒ऽऋ॒ञ्जते॑॥2॥ पदार्थः—(अर्च) सत्कुरु (शक्राय) समर्थाय (शाकिने) प्रशस्ताः शाकाः शक्तियुक्ता गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (शचीवते) प्रशस्ता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्मै। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (शृण्वन्तम्) श्रवणं कुर्वन्तम् (इन्द्रम्) प्रशस्तैश्वर्ययुक्तं सभाद्यध्यक्षम् (महयन्) सत्कुर्वन् (अभि) आभिमुख्ये (स्तुहि) प्रशंस (यः) (धृष्णुना) दृढत्वादिगुणयुक्तेन (शवसा) बलेन (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उभे) द्वे (वृषा) जलानां वर्षकः (वृषत्वा) सुखवर्षकाणां भावस्तानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति शेर्लोपः। (वृषभः) यो वृषान् वृष्टिनिमित्तानि भाति सः (नि) नितरां (ऋञ्जते) प्रसाध्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु॰6.1)॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्य! यथा सूर्य्यो वृषा वृषभो वृषत्वा धृष्णुना शवसोभे रोदसी निऋञ्जते तथा यो राज्यं साध्नोति तस्मै शाकिने शचीवते शक्राय त्वमर्च तं सर्वन्यायं शृण्वन्तमिन्द्रं महयन् सन्नभिस्तुहि॥2॥ भावार्थः—यो गुणोत्कृष्टत्वेन सार्वभौमः सभाद्यध्यक्षो धर्मेण सर्वान् प्रशास्य धर्मे संस्थापयति स एव सर्वैर्मनुष्यैराश्रयितव्यः॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जैसे (वृषा) जल वर्षाने और (वृषभः) वर्षा के निमित्त बादलों को प्रसिद्ध करानेहारा सूर्य्य (वृषत्वा) सुखों की वर्षा के तत्त्व और (धृष्णुना) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (शवसा) आकर्षण बल से (उभे) दोनों (रोदसी) द्यावापृथिवी को (न्यृञ्जते) निरन्तर प्रसिद्ध करता है, वैसे (यः) जो तू राज्य का यथायोग्य प्रबन्ध करता है उस (शाकिने) प्रशंसनीय शक्ति आदि गुणयुक्त (शचीवते) प्रशंसित बुद्धिमान् (शक्राय) समर्थ के लिये (अर्च) सत्कार कर उस सबके न्याय को (शृण्वन्तम्) श्रवण करने वाले (इन्द्रम्) प्रशंसनीय ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष का (महयन्) सत्कार करता हुआ (अभिष्टुहि) गुणों की प्रशंसा किया कर॥2॥ भावार्थः—जो गुणों की अधिकता होने से सार्वभौम सभाध्यक्ष धर्म से सबको शिक्षा देकर धर्म के नियमों में स्थापन करता है, उसी का सब मनुष्यों को सेवन वा आश्रय करना चाहिये॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः॥3॥ अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते। शू॒ष्य॑म्। वचः॑। स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य। धृ॒ष॒तः। धृ॒षत्। मनः॑। बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः। पु॒रः। हरि॑ऽभ्यास्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः॥3॥ पदार्थः—(अर्च) पूजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवे) सर्वथा शुभगुणस्य प्रकाशकाय (बृहते) विद्यादिगुणैर्वृद्धाय (शूष्यम) शूषे बले साधु यत्तत्। शूषमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (वचः) विद्याशिक्षासत्यप्रापकं वचनम् (स्वक्षत्रम्) स्वस्य राज्यम् (यस्य) सभाध्यक्षस्य (धृषतः) अधार्मिकान् दुष्टान् धर्षयतस्तत्कर्मफलं प्रापयतः (धृषत्) यो धृष्णोति दृढं कर्म करोति सः (मनः) सर्वक्रियासाधकं विज्ञानम् (बृहच्छ्रवाः) बृहच्छ्रवणं यस्य सः (असुरः) मेघो वा यः प्रज्ञां राति ददाति सः। असुर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) असुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (बर्हणा) वृद्धियुक्तेन (कृतः) निष्पन्नः (पुरः) पूर्वः (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यां तुरङ्गाभ्यां (वृषभः) यः पूर्वोक्तान् वृषान् भाति सः (रथः) रमणीयः (हि) खलु (सः)॥3॥ अन्वयः—हे विद्वन्मनुष्य! त्वं यस्य धृषतो मनो हि यो धृषद् बृहच्छ्रवा असुरः पुरो हरिभ्यां युक्तो दिव इव वृषभो रथो बर्हणा कृतस्तस्मै बृहते स्वक्षत्रं वर्धय शूष्यं वचोऽर्च च॥13॥ भावार्थः—मनुष्यैरीश्वरेष्टं सभाद्यध्यक्षप्रशासितमेकमनुष्यराजप्रशासनविरहं राज्यं सम्पादनीयम्। यतः कदाचिद् दुःखान्यायालस्याज्ञानशत्रुपरस्परविरोधपीडितं न स्यात्॥3॥ पदार्थः—हे विद्वान् मनुष्य! तू (यस्य) जिस (धृषतः) अधार्मिक दुष्टों को कर्मों के अनुसार फल प्राप्त कराने वाले सभाध्यक्ष का (धृषत्) दृढ़ कर्म करने वाला (मनः) क्रियासाधक विज्ञान (हि) निश्चय करके है जो (बृहच्छ्रवाः) महाश्रवण युक्त (असुरः) जैसे प्रज्ञा देने वाले (पुरः) पूर्व (हरिभ्याम्) हरण-आहरण करने वा अग्नि, जल वा घोड़े से युक्त मेघ (दिवे) सूर्य के अर्थ वर्त्तता है, वैसे (वृषभः) पूर्वोक्त वर्षाने वालों के प्रकाश करने वाले (रथः) यानसमूह को (बर्हणा) वृद्धि से (कृतः) निर्मित किया है, उस (बृहते) विद्यादि गुणों से वृद्ध (दिवे) शुभ गुणों के प्रकाश करने वाले के लिये (स्वक्षत्रम्) अपने राज्य बढ़ा और (शूष्यम्) बल तथा निपुणतायुक्त (वचः) विद्या शिक्षा प्राप्त करने वाले वचन का (अर्च) पूजन अर्थात् उनके सहाय युक्त शिक्षा कर॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को अपना राज्य ईश्वर इष्ट वाले सभाध्यक्ष के शिक्षा किये हुए को सम्पादन कर, एक मनुष्य राज के प्रशासन से अलग राज्य को सम्पादन करना चाहिये, जिससे कभी दुःख, अन्याय, आलस्य, अज्ञान और शत्रुओं के परस्पर विरोध से प्रजा पीड़ित न होवे॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं दि॒वो बृ॑ह॒तः सानु॑ कोप॒योऽव॒ त्मना॑ धृष॒ता शम्ब॑रं भिनत्। यन्मा॒यिनो॑ व्र॒न्दिनो॑ म॒न्दिना॑ धृ॒षच्छि॒तां गभ॑स्तिम॒शनिं॑ पृत॒न्यसि॑॥4॥ त्वम्। दि॒वः। बृ॒ह॒तः। सानु॑। को॒प॒यः॒। अव॑। त्मना॑। धृ॒ष॒ता। शम्ब॑रम्। भि॒न॒त्। यत्। मा॒यिनः॑। व्र॒न्दिनः॑। म॒न्दिना॑। धृ॒षत्। शि॒ताम्। गभ॑स्तिम्। अ॒शनि॑म्। पृ॒त॒न्यसि॑॥4॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) प्रकाशमयान्न्यायात् (बृहतः) महतः सत्यशुभगुणयुक्तात् (सानु) सनन्ति सम्भजन्ति येन कर्मणा तत्। अत्र दृसनिजनि॰ (उणा॰1.3) इति ञुण् प्रत्ययः। (कोपयः) कोपयसि (अव) निरोधे (त्मना) आत्मना (धृषता) दृढकर्मकारिणा (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघमिव शत्रुम् (भिनत्) विदृणाति (यत्) यः (मायिनः) कपटादिदोषयुक्ताँश्छत्रून् (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दा मनुष्यादिसमूहा विद्यन्ते येषां तान् (मन्दिना) हर्षकारेण बलिना (धृषत्) शत्रुधर्षणं कुर्वन् (शिताम्) तीक्ष्णधाराम् (गभस्तिम्) रश्मिम् (अशनिम्) छेदनभेदनेन वज्रस्वरूपाम् (पृतन्यसि) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छसि॥4॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्ष! यः शत्रून् धृषत्त्वं यथा सूर्य्यो बृहतो दिवः सानु शितामशनिं गभस्तिं वज्राख्यं किरणं प्रहृत्य शम्बरं मेघं भिनत्तथा शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्य त्मना दुष्ट जनानवकोपयो व्रन्दिनो मायिनो विदृणासि तन्निवारणाय पृतन्यसि स त्वं राज्यमर्हसि॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यः स्वस्वपापानुसारेण दुःखफलानि दत्वा यथायोग्यं पीडयत्येवं सभाध्यक्षः शस्त्रास्त्रशिक्षया धार्मिकशूरवीरसेनां सम्पाद्य दुष्टकर्मकारिणो निवार्य्य धार्मिकीं प्रजां सततं पालयेत्॥4॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष! जो (धृषत्) शत्रुओं का धर्षण करता (त्वम्) आप जैसे सूर्य्य (बृहतः) महासत्य शुभगुणयुक्त (दिवः) प्रकाश से (सानु) सेवने योग्य मेघ के शिखरों पर (शिताम्) अति तीक्ष्ण (अशनिम्) छेदन-भेदन करने से वज्रस्वरूप बिजुली और (गभस्तिम्) वज्ररूप किरणों का प्रहार कर (शम्बरम्) मेघ को (भिनत्) काट के भूमि में गिरा देता है, वैसे शस्त्र और अस्त्रों को चला के अपने (त्मना) आत्मा से दुष्ट मनुष्यों को (अवकोपयः) कोप कराते (व्रन्दिनः) निन्दित मनुष्यादि समूहों वाले (मायिनः) कपटादि दोषयुक्त शत्रुओं को विदीर्ण करते और उनके निवारण के लिये (पृतन्यसि) अपने न्यायादि गुणों की प्रकाश करने वाली विद्या वा वीर पुरुषों से युक्त सेना की इच्छा करते हो सो आप राज्य के योग्य होते हो॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर पापकर्म करने वाले मनुष्यों के लिये अपने-अपने पाप के अनुसार दुःख के फलों को देकर यथायोग्य पीड़ा देता है, इसी प्रकार सभाध्यक्ष को चाहिये कि शस्त्रों और अस्त्रों की शिक्षा से धार्मिक शूरवीर पुरुषों की सेना को सिद्ध और दुष्ट कर्म करने वाले मनुष्यों का निवारण करके धर्मयुक्त प्रजा का निरन्तर पालन करे॥4॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ नि यद्वृ॒णक्षि॑ श्वस॒नस्य॑ मू॒र्धनि॒ शुष्ण॑स्य चिद्व्र॒न्दिनो॒ रोरु॑व॒द्वना॑। प्रा॒चीने॑न॒ मन॑सा ब॒र्हणा॑वता॒ यदद्या चि॑त्कृ॒णवः॒ कस्त्वा॒ परि॑॥5॥17॥ नि। यत्। वृ॒णक्षि॑। श्व॒स॒नस्य॑। मू॒र्धनि॑। शुष्ण॑स्य। चि॒त्। व्र॒न्दिनः॑। रोरु॑वत्। वना॑। प्रा॒चीने॑न। मन॑सा। ब॒र्हणा॑ऽवता। यत्। अ॒द्य। चि॒त्। कृ॒णवः॑। कः। त्वा॒। परि॑॥5॥ पदार्थः—(नि) नितराम् (यत्) यः (वृणक्षि) त्यजसि (श्वसनस्य) श्वसन्ति येन प्राणेन तस्य (मूर्द्धनि) उत्तमाङ्गे (शुष्णस्य) बलस्य (चित्) इव (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दाः सन्ति येषां तान् दुष्टान् (रोरुवत्) पुनः पुनारोदनं कारयन् सन् (वना) रश्मियुक्तेन। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (प्राचीनेन) सनातनेन (मनसा) विज्ञानेन (बर्हणावता) बहुविधं बर्हणं वर्धनं विद्यते यस्य तेन। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (यत्) यस्मात् (अद्य) अस्मिन् दिने। निपातस्य च (अष्टा॰6.3.136) इति दीर्घः। (चित्) अपि (कृणवः) हिंसितुं शक्नोति (कः) कश्चिदेव (त्वा) त्वाम् (परि) निषेधे॥5॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यद्यस्त्वं सूर्य्यो वना मेघमिव प्राचीनेन बर्हणावता मनसा श्वसनस्य शुष्णस्य मूर्धनि वर्त्तमाने व्रन्दिनो रोरुवत्सन् यद्यस्मादद्य निवृणक्षि तत्तस्माच्चिदपि त्वा त्वां कः परि कृणवो हिंसितुं शक्नोति॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः स्वकीयेनानादिना विज्ञानेन सर्वं न्यायेन प्रशास्ति सूर्य्यश्च मेघं हिनस्ति तथैव सभाध्यक्षो धर्मेण सर्वं प्रशिष्याच्छत्रूँश्च हिंस्यात्॥5॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष विद्वान्! (यत्) जो आप जैसे सविता (वना) रश्मियुक्त मेघ का निवारण करता है, वैसे (प्राचीनेन) सनातन (बर्हणावता) अनेक प्रकार वृद्धियुक्त (मनसा) विज्ञान से (श्वसनस्य) प्राणवद् बलवान् (शुष्णस्य) शोषण कर्त्ता के (मूर्द्धनि) उत्तम अङ्ग में प्रहार के (चित्) समान (व्रन्दिनः) निन्दित कर्म करने वाले दुष्ट मनुष्यों को (रोरुवत्) रोदन कराते हुए (यत्) जिस कारण (अद्य) आज (निवृणक्षि) निरन्तर उन दुष्टों को अलग करते हो इससे (चित्) भी (त्वा) आप के (कृणवः) मारने को (कः) कोई भी समर्थ (परि) नहीं हो सकता॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलु्प्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर अपने अनादि विज्ञान युक्त न्याय से सबको शिक्षा देता और सूर्य मेघ को काट-काट कर गिराता है, वैसे ही सभापति आदि धर्म से सब की शिक्षा देवें और शत्रुओं को नष्ट-भ्रष्ट करें॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वमा॑विथ॒ नर्यं॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॒ त्वं तु॒र्वीतिं॑ व॒य्यं॑ शतक्रतो। त्वं रथ॒मेत॑शं॒ कृत्व्ये॒ धने॒ त्वं पुरो॑ नव॒तिं द॑म्भयो॒ नव॑॥6॥ त्वम्। आ॒वि॒थ॒। नर्य॑म्। तु॒र्वश॑म्। यदु॑म्। त्वम्। तु॒र्वीति॑म्। व॒य्य॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। त्वम्। रथ॑म्। एत॑शम्। कृत्व्ये॑। धने॑। त्वम्। पुरः॑। न॒व॒तिम्। द॒म्भ॒यः॒। नव॑॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाध्यक्षः (आविथ) रक्षणादिकं करोषि (नर्यम्) नृषु साधुम् (तुर्वशम्) उत्तमं मनुष्यम् (यदुम्) प्रयतमानम्। अत्र यती प्रयत्ने धातोः बाहुलकाद् औणादिक उः प्रत्ययो जश्त्वं च। (त्वम्) (तुर्वीतिम्) दुष्टान् प्राणिनो दोषांश्च हिंसन्तम्। अत्र संज्ञायां क्तिन्। बहुलं छन्दसि इतीडागमः। (वय्यम्) यो वयते जानाति तम्। अत्र वय धातोः बाहुलकाद् औणादिको यत्प्रत्ययः। (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ (त्वम्) शिल्पविद्योत्पादकः (रथम्) रमणस्यधिकरणम् (एतशम्) वेगादिगुणयुक्ताश्ववन्तम् (कृत्व्ये) कर्त्तव्ये (धने) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसिद्धे द्रव्ये (त्वम्) दुष्टानां भेत्ता (पुरः) पुराणि (नवतिम्) एतत्संख्याकानि (दम्भयः) हिंधि (नव) नवसंख्यासहितानि॥6॥ अन्वयः—हे शतक्रतो विद्वन्! यतस्त्वं नर्यं तुर्वशं यदुमाविथ त्वं तुर्वीतिं वय्यमाविथ त्वं कृत्व्ये धन एतशं रथं चाविथ त्वं नव नवतिं शत्रूणां पुरो दम्भयस्तस्माद् भवानेवास्माभिरत्र राज्यकार्य्ये समाश्रयितव्यः॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यो राज्यं रक्षितुं न क्षमः स राजा नैव कार्य्यः॥6॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धियुक्त विद्वन् सभाध्यक्ष! जिस कारण (त्वम्) आप (नर्य्यम्) मनुष्यों में कुशल (तुर्वशम्) उत्तम (यदुम्) यत्न करने वाले मनुष्य की रक्षा (त्वम्) आप (तुर्वीतिम्) दोष वा दुष्ट प्राणियों को नष्ट करने वाले (वय्यम्) ज्ञानवान् मनुष्य की रक्षा और (त्वम्) आप (कृत्व्ये) सिद्ध करने योग्य (धने) विद्या, चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध हुए द्रव्य के विषय (एतशम्) वेगादि गुण वाले अश्वादि से युक्त (रथम्) सुन्दर रथ की (आविथ) रक्षा करते और (त्वम्) आप दुष्टों के (नव) नौ संख्या युक्त (नवतिम्) नव्वे अर्थात् निन्नाणवे (पुरः) नगरों को (दम्भयः) नष्ट करते हो, इस कारण इस राज्य में आप ही का आश्रय हम लोगों को करना चाहिये॥6॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो राज्य की रक्षा करने में समर्थ न होवे उस को राजा कभी न बनावें॥6॥ पुनस्तेन सभाध्यक्षेण किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर उस सभाध्यक्ष को क्या करना चाहिये इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स घा॒ राजा॒ सत्प॑तिः शूशुव॒ज्जनो॑ रा॒तह॑व्यः॒ प्रति॒ यः शास॒मिन्व॑ति। उ॒क्था वा॒ यो अ॑भिगृ॒णाति॒ राध॑सा॒ दानु॑रस्मा॒ उप॑रा पिन्वते दि॒वः॥7॥ सः। घ॒। राजा॑। सत्ऽप॑तिः। शू॒शु॒व॒त्। जनः॑। रा॒तऽह॑व्यः। प्रति॑। यः। शास॑म्। इन्व॑ति। उ॒क्था। वा॒। यः। अ॒भि॒ऽगृ॒णाति॑। राध॑सा। दानुः॑। अ॒स्मै॒। उप॑रा। पि॒न्व॒ते॒। दि॒वः॥7॥ पदार्थः—(सः) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघ॰ इति दीर्घः। (राजा) न्यायविज्ञानादिभिः प्रकाशमानः (सत्पतिः) सतां पालयिता (शूशुवत्) यो ज्ञापयति वर्द्धयति वा। अयं ण्यन्तस्य श्विधातोर्लुङि प्रयोगोऽडभावश्च (जनः) उत्तमगुणकर्मभिर्वर्त्तमानः (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (प्रति) वीप्सायाम् (यः) ईदृग्लक्षणः (शासम्) शास्ति येन तं न्यायम् (इन्वति) व्याप्नोति। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.18) (उक्था) वक्तुं योग्यानि वेदस्तोत्राणि वचनानि वा (वा) पक्षान्तरे (यः) सत्यवक्ता (अभिगृणाति) अभिगतान्युपदिशति (राधसा) न्यायप्राप्तेन धनेन (दानुः) दानशीलः (अस्मै) सभाध्यक्षाय (उपरा) मेघ इव। उपर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) उपर उपलो मेघो भवति। उपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राणि। उपरता आप इति वा। (निरु॰2.21) (पिन्वते) सेवते सिञ्चति वा। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (दिवः) प्रकाशमानाद्धर्म्याचरणात्॥7॥ अन्वयः—यो रातहव्यः सत्पतिः सभाध्यक्षो जनो राजा प्रतिशासं प्रजा इन्वति न्यायं व्याप्नोति वा। यः शूशुवद् राज्यं कर्त्तुं जानाति राधसा दानुः सन्नुक्थाऽभिगृणाति सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य उपदिशत्यस्मै दिव उपरा सूर्य्यादुत्पद्य मेघो भूमिं सिञ्चतीव सर्वसुखानि पिन्वते सेवते स घ राज्यं कर्तुं शक्नोति॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कश्चित्सद्विद्याविनयन्यायवीरपुरुषसेनाग्रहणनुष्ठानेन विना राज्यं शासितुं शत्रून् जेतुं सर्वाणि सुखानि च प्राप्तुं शक्नोति तस्मादेतत्सभाध्यक्षेणावश्यमनुष्ठेयम्॥7॥ पदार्थः—(यः) जो (रातहव्यः) हव्य पदार्थों को देने (सत्पतिः) सत्पुरुषों का पालन करने (जनः) उत्तम गुण और कर्मों से सहित वर्त्तमान (राजा) न्यायविनयादि गुणों से प्रकाशमान सभाध्यक्ष (प्रतिशासम्) शास्त्र-शास्त्र के प्रति प्रजा को (इन्वति) न्याय में व्याप्त करता (वा) अथवा (शूशुवत्) राज्य करने को जानता है और जो (राधसा) न्याय करके प्राप्त हुए धन से (दानुः) दानशील हुआ (उक्था) कहने योग्य वेदस्तोत्र वा वचनों को (अभिगृणाति) सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है (अस्मै) इस सभाध्यक्ष के लिये (दिवः) (उपरा) जैसे सूर्य के प्रकाश से मेघ उत्पन्न होकर भूमि को (पिन्वते) सींचता है, वैसे सब सुखों को (पिन्वते) सेवन करे (सः) वही राज्य कर सकता है॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कोई भी मनुष्य उत्तम विद्या, विनय, न्याय और वीरपुरुषों की सेना के ग्रहण वा अनुष्ठान के विना राज्य के लिये शिक्षा करने, शत्रुओं को जीतने और सब सुखों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इसलिये सभाध्यक्ष को अवश्य इन बातों का अनुष्ठान करना चाहिये॥7॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अस॑मं क्ष॒त्रमस॑मा मनी॒षा प्र सो॑म॒पा अप॑सा सन्तु॒ नेमे॑। ये त॑ इन्द्र द॒दुषो॑ व॒र्धय॑न्ति॒ महि॑ क्ष॒त्रं स्थवि॑रं॒ वृष्ण्यं॑ च॥8॥ अस॑मम्। क्ष॒त्रम्। अस॑मा। म॒नी॒षा। प्र। सो॒म॒ऽपाः। अप॑सा। स॒न्तु॒। नेमे॑। ये। ते॒। इ॒न्द्र॒। द॒दुषः॑। व॒र्धय॑न्ति। महि॑। क्ष॒त्रम्। स्थवि॑रम्। वृष्ण्य॑म्। च॒॥8॥ पदार्थः—(असमम्) अविद्यमानः समः समता यस्मिंस्तत्कर्म सादृश्यरहितम् (क्षत्रम्) राज्यम् (असमा) अविद्यमाना समा यस्यां साऽनुपमा (मनीषा) मनो विज्ञानमीषते यया प्रज्ञया सा (प्र) प्रकृष्टार्थे (सोमपाः) ये वीराः सोमानोषधिरसान् पिबन्ति ते (अपसा) कर्मणा (सन्तु) भवन्तु (नेमे) सर्वे (ये) उक्ता वक्ष्यमाणश्च (ते) तव (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त (ददुषः) दत्तवतः (वर्धयन्ति) उन्नयन्ति (महि) महागुणविशिष्टम् (क्षत्रम्) राज्यम् (स्थविरम्) प्रवृद्धम् (वृष्ण्यम्) शत्रुसामर्थ्यप्रतिबन्धकेभ्यो वृषेभ्यो हितम् (च) समुच्चये॥8॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभेश! यदि ददुषस्ते तवासमं क्षत्रमसमा मनीषाऽस्तु तर्हि ये नेमे सोमपा धार्मिका वीरपुरुषा अपसा स्थविरं वृष्ण्यं मयि क्षत्रं प्रवर्धयन्ति, ते तव सभासदो भृत्याश्च सन्तु॥8॥ भावार्थः—नैव कदाचिद्राजपुरुषैः प्रजाविरोधः प्रजास्थै राजपुरुषविरोधश्च कार्य्यः, किन्तु परस्परं प्रीत्युपकारबुद्ध्या सर्वं राज्यं सुखैर्वर्धनीयम्। नह्येवं विना राज्यपालनव्यवस्था निश्चला जायते॥8॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष! जो (ददुषः) दान करते हुए (ते) आप का (असमम्) समता रहित कर्म वा सादृश्य रहित (क्षत्रम्) राज्य तथा (असमा) समता वा उपमा रहित (मनीषा) बुद्धि होवे तो (ये) जो (नेमे) सब (सोमपाः) सोम आदि ओषधीरसों के पीने वाले धार्मिक विद्वान् पुरुष (अपसा) कर्म से (स्थविरम्) वृद्ध (वृष्ण्यम्) शत्रुओं के बलनाशक सुख वर्षाने वाले के लिये कल्याणकारक (महि) महागुणयुक्त (क्षत्रम्) राज्य को (प्रवर्धयन्ति) बढ़ाते हैं, वे सब आपकी सभा में बैठने योग्य सभासद् (च) और भृत्य (सन्तु) होवें॥8॥ भावार्थः—राजपुरुषों को प्रजा से और प्रजा में रहने वाले पुरुषों को राजपुरुषों से विरोध कभी न करना चाहिये, किन्तु परस्पर प्रीति वा उपकार बुद्धि के साथ सब राज्य सुखों से बढ़ाना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार किये विना राज्यपालन की व्यवस्था निश्चल नहीं हो सकती॥8॥ पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तुभ्येदे॒ते ब॑हु॒ला अद्रि॑दुग्धाश्चमू॒षद॑श्चम॒सा इ॑न्द्र॒पानाः॑। व्य॑श्नुहि त॒र्पया॒ काम॑मेषा॒मथा॒ मनो॑ वसु॒देया॑य कृष्व॥9॥ तुभ्य॑। इत्। ए॒ते। ब॒हु॒लाः। अद्रि॑ऽदुग्धाः। च॒मू॒ऽसदः॑। च॒म॒साः। इ॒न्द्र॒ऽपानाः॑। वि। अ॒श्नु॒हि॒। त॒र्पय॑। काम॑म्। ए॒षा॒म्। अथ॑। मनः॑। व॒सु॒ऽदेया॑य। कृ॒ष्व॒॥9॥ पदार्थः—(तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति मलोपः। (इत्) एव (एते) वीराः (बहुलाः) बहूनि सुखानि युद्धकर्माणि लान्ति प्रयच्छन्ति ते (अद्रिदुग्धाः) अद्रेर्मेघात् पर्वतेभ्यो वा प्रपूरिताः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्त्यवस्थिता भवन्ति (चमसाः) ये चाम्यन्त्यदन्ति भोगान् येभ्यो मेघेभ्यस्ते। चमस इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (इन्द्रपानाः) य इन्द्रं परमैश्वर्य्यहेतुं सवितारं पान्ति ते। अत्र नन्दादित्वात् ल्युः प्रत्ययः। (वि) विविधार्थे (अश्नुहि) व्याप्नुहि। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (तर्पय) प्रीणय (कामम्) यः काम्यते तम् (एषाम्) भृत्यानाम् (अथ) आनन्तर्य्ये (मनः) मननात्मकम् (वसुदेयाय) दातव्यधनाय (कृष्व) विलिख॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभेश! यथैते बहुला इन्द्रपानाश्चमसाः सर्वान् कामान् पिप्रति तथाऽद्रिदुग्धाश्चमूषदो वीरास्तुभ्यं प्रीणयन्तु त्वमेतेभ्यो वसुदेयाय मनः कृष्व त्वमेताँस्तर्पयैषां कामं प्रपूर्द्धि अर्थात् सर्वान् कामान् व्यश्नुहि॥9॥ भावार्थः—सभाद्यध्यक्षः सुशिक्षितपालितोत्पादितान् शूरवीरान् रक्षित्वा प्रजा सततं पालयित्वैतेभ्यः सर्वाणि सुखानि दद्यादेते च सभाद्यध्यक्षान् नित्यं सन्तोषयेयुर्यतः सर्वे कामाः पूर्णाः स्युः॥9॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष! जैसे (एते) ये (बहुलाः) बहुत सुख वा कर्मों को देने वाले (इन्द्रपानाः) परमैश्वर्य के हेतु सूर्य्य को प्राप्त होने हारे (चमसा) मेघ सब कामों कों पूर्ण करते हैं, वैसे (अद्रिदुग्धाः) मेघ वा पर्वतों से प्राप्तविद्या (चमूषदः) सेनाओं में स्थित शूरवीर पुरुष (तुभ्यम्) आपको तृप्त करें तथा आप इन को (वसुदेयाय) सुन्दर धन देने के लिये (मनः) मन (कृष्व) कीजिये और आप इन को (तर्पय) तृप्त वा (एषाम्) इन की (कामान्) कामना पूर्ण कीजिये (अथ) इस के अनन्तर (इत्) ही सब कामनाओं को (व्यश्नुहि) प्राप्त हूजिये॥9॥ भावार्थः—सभा आदि के अध्यक्ष उत्तम शिक्षा वा पालन से उत्पादन किये हुए शूरवीरों और प्रजा की निरन्तर पालना करके इनके लिये सब सुखों को देवें और वे प्रजा के पुरुष भी सभाध्यक्षादिकों को निरन्तर सन्तुष्ट रक्खें, जिससे सब कामना पूर्ण होवें॥9॥ अथ स सूर्य इव किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ अब वह सूर्य्य के समान क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒पाम॑तिष्ठद् ध॒रुण॑ह्वरं॒ तमो॒ऽन्तर्वृ॒त्रस्य॑ ज॒ठरे॑षु॒ पर्व॑तः। अ॒भीमिन्द्रो॑ न॒द्यो॑ व॒व्रिणा॑ हि॒ता विश्वा॑ अनु॒ष्ठाः प्र॑व॒णेषु॑ जिघ्नते॥10॥ अ॒पाम्। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। ध॒रुण॑ऽह्वरम्। तमः॑। अ॒न्तः। वृ॒त्रस्य॑। ज॒ठरे॑षु। पर्व॑तः। अ॒भि। ई॑म्। इन्द्रः॑। न॒द्यः॑। व॒व्रिणा॑। हि॒ताः। विश्वाः॑। अ॒नु॒ऽस्थाः। प्र॒व॒णेषु॑। जि॒घ्न॒ते॒॥10॥ पदार्थः—(अपाम्) जलानाम् (अतिष्ठत्) तिष्ठति (धरुणह्वरम्) धरुणानि धारकाणि ह्वराणि कुटिलानि यस्मिंस्तत् (तमः) अन्धकारम् (अन्तः) मध्ये (वृत्रस्य) मेघस्य (जठरेषु) जायन्ते वृष्टयो येभ्यस्तेषु। अत्र जनेररष्ठ च। (उणा॰5.38) इत्यरः प्रत्ययष्ठकारादेशश्च। (पर्वतः) पर्वताकारो घनसमूहवान् मेघः (अभि) आभिमुख्ये (ईम्) जलम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यदाता (नद्यः) सरितः (वव्रिणा) रूपेण (हिताः) हिन्वन्ति गच्छन्ति यास्ताः (विश्वाः) सर्वाः (अनुष्ठाः) या अनुतिष्ठन्ति (प्रवणेषु) निम्नमार्गेषु (जिघ्नते) गच्छन्ति अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः व्यत्ययेन आत्मनेपदं च॥10॥ अन्वयः—हे सभेशेन्द्रस्त्वं यथा सूर्य्यो वृत्रस्यापामन्तर्जठरेषु स्थितं धरुणह्वरं तमोऽतिष्ठत् तन्निवार्य्य वव्रिणा सह वर्त्तमानो यः पर्वतो मेघ ईमभिपातयति येन प्रवणेष्वनुष्ठा विश्वा हिता नद्यो जिघ्नते तथा भव॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो यज्जलमाकृष्यान्तरिक्षं नयति तद्वायुर्धरति यदैतन्मिलित्वा पर्वताकारं भूत्वा सूर्य्यप्रकाशमावृणोति तद्विद्युच्छित्वा भूमौ निपातयति तदुद्भूता नानारूपा अधोगामिन्यो नद्यः प्रचलन्त्यः सत्यः पृथिवीपर्वतवृक्षादीन् छित्वा भित्वा च पुनस्तज्जलं सागरमन्तरिक्षं च प्राप्यैवं पुनः पुनर्वर्षति तथा राजाद्यध्यक्षा भवेयुरिति॥10॥ पदार्थः—हे सभेश! (इन्द्रः) परमैश्वर्य देनेहारे आप जैसे सूर्य्य (वृत्रस्य) मेघ सम्बन्धी (अपाम्) जलों के (अन्तः) मध्यस्थ (जठरेषु) जहाँ से वर्षा होती है, उनमें (धरुणह्वरम्) धारण करने वाला कुटिल कर्मों का हेतु (तमः) अन्धकार (अतिष्ठत्) स्थित है, उसका निवारण कर (वव्रिणा) रूप से सह वर्त्तमान जो (पर्वतः) पक्षीवत् आकाश में उड़नेहारा मेघ (ईम्) जल को (अभि) सन्मुख गिराता है, जिससे (प्रवणेषु) नीचे स्थानों में (अनुष्ठाः) अनुकूलता से बहने हारी (विश्वा) सब (हिताः) प्रतिक्षण चलने वाली (नद्यः) नदियां (जिघ्नते) समुद्र पर्यन्त चली जाती हैं, वैसे आप हूजिये॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य जिस जल को आकर्षण कर अन्तरिक्ष में पहुंचाता और उसको वायु धारण करता है, जब वह जल मिल तथा पर्वताकार होकर सूर्य के प्रकाश का आवरण करता है, उसको बिजुली छेदन करके भूमि में गिरा देती है, उससे उत्पन्न हुई नानारूपयुक्त नीचे चलने वाली चलती हुई नदियां पृथिवी, पर्वत और वृक्षादिकों को छिन्न-भिन्न कर फिर वह जल समुद्र वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर वार-वार इसी प्रकार वर्षता है, वैसे सभाध्यक्षादिकों को होना चाहिये॥10॥ पुनः सभाद्यध्यक्षकृत्यमुपदिश्यते॥ फिर सभा आदि के अध्यक्षों के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स शेवृ॑ध॒मधि॑ धा द्यु॒म्नम॒स्मे महि॑ क्ष॒त्रं ज॑ना॒षाळि॑न्द्र॒ तव्य॑म्। रक्षा॑ च नो म॒घोनः॑ पा॒हि सू॒रीन् रा॒ये च॑ नः स्वप॒त्या इ॒षे धाः॑॥11॥18॥ सः। शेऽवृ॑धम्। अधि॑। धाः॒। द्यु॒म्नम्। अ॒स्मे इति॑। महि॑। क्ष॒त्रम्। ज॒ना॒षाट्। इ॒न्द्र॒। तव्य॑म्। रक्ष॑। च॒। नः॒। म॒घोनः॑। पा॒हि। सू॒रीन्। रा॒ये। च॒। नः॒। सु॒ऽअ॒प॒त्यै। इ॒षे। धाः॒॥11॥ पदार्थः—(सः) सभाध्यक्षः (शेवृधम्) सुखम्। शेवृधमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (अधि) उपरिभावे (धाः) धेहि (द्युम्नम्) विद्याप्रकाशयुक्तं धनम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (महि) महासुखप्रदं पूज्यतमम् (क्षत्रम्) राज्यम् (जनाषाट्) यो जनान् सहते सः। अत्र छन्दसि सहः। (अष्टा॰3.2.63) इति सहधातोर्ण्विः प्रत्ययः। (इन्द्र) परमैश्वर्य्यसम्पादक सभाध्यक्ष (तव्यम्) तवे बले भवम् (रक्ष) पालय (च) समुच्चये (नः) अस्मान् (मघोनः) मघं प्रशस्तं धनं विद्यते येषां तान् (पाहि) पालय (सूरीन्) मेधाविनो विदुषः (राये) धनाय (च) समुच्चये (नः) अस्माकम् (स्वपत्यै) शोभनान्यपत्यानि यस्यां तस्यै (इषे) अन्नरूपायै राज्यलक्ष्म्यै (धाः) धेहि॥11॥ अन्वयः—हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष! यो जनाषाट् सँस्त्वमस्मे शेवृधं तव्यं महि क्षत्रमधिधा मघोनो नोऽस्मान् रक्ष सूरींश्च पाहि राये स्वपत्या इषे च द्युम्नं धाः सोऽस्माभिः कथन्न सत्कर्त्तव्यः॥11॥ भावार्थः—सभाद्यध्यक्षेण सर्वाः प्रजाः पालयित्वा सर्वान् सुशिक्षितान् विदुषः सम्पाद्य चक्रवर्त्तिराज्यं धनं चोन्नेयम्॥11॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्य्यविद्युत्सभाध्यक्षशूरवीरराज्यप्रशासनप्रजापालनानि विहितान्यत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥11॥ इति चतुःपञ्चाशं 54 सूक्तमष्टादशो 18 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यसम्पादक सभाध्यक्ष! जो (जनाषाट्) जनों को सहन करने हारे आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (शेवृधम्) सुख (तव्यम्) बलयुक्त (महि) महासुखदायक पूजनीय (क्षत्रम्) राज्य को (अधि) (धाः) अच्छे प्रकार सर्वोपरि धारण कर (मघोनः) प्रशंसनीय धन वा (नः) हम लोगों की (रक्ष) रक्षा (च) और (सूरीन्) बुद्धिमान् विद्वानों की (पाहि) रक्षा कीजिये (च) और (नः) हम लोगों के (राये) धन (च) और (स्वपत्यै) उत्तम अपत्ययुक्त (इषे) इष्टरूप राजलक्ष्मी के लिये (द्युम्नम्) कीर्त्तिकारक धन को (धाः) धारण करते हो (सः) वह आप हम लोगों से सत्कार योग्य क्यों न होवें॥11॥ भावार्थः—सभाध्यक्ष को योग्य है कि सब प्रजा की अच्छे प्रकार रक्षा और शिक्षा से युक्त विद्वान् करके चक्रवर्त्ती राज्य वा धन की उन्नति करे॥11॥ इस सूक्त में सूर्य्य, बिजुली, सभाध्यक्ष, शूरवीर और राज्य की पालना आदि का विधान किया है, इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह अठाहरवां 18 वर्ग और चौअनवां 54 सूक्त समाप्त हुआ॥54॥

अथास्याऽचष्टर्चस्य पञ्चपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,4 जगती। 2,5,6,7 निचृज्जगती। 3,8, विराड्जगती च छन्दः। निषादः स्वरः॥ तत्रादौ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब पचपनवें सूक्त के पहिले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥ दि॒वश्चि॑दस्य वरि॒मा वि प॑प्रथ॒ इन्द्रं॒ न म॒ह्ना पृ॑थि॒वी च॒न प्रति॑। भी॒मस्तुवि॑ष्माञ्चर्ष॒णिभ्य॑ आत॒पः शिशी॑ते॒ वज्रं॒ तेज॑से॒ न वंस॑गः॥1॥ दि॒वः। चि॒त्। अ॒स्य॒। व॒रि॒मा। वि। प॒प्र॒थे॒। इन्द्र॑म्। न। म॒ह्ना। पृ॒थि॒वी। च॒न। प्रति॑ भी॒मः। तुवि॑ष्मान्। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑। आ॒ऽत॒पः। शिशी॑ते। वज्र॑म्। तेज॑से। न। वंस॑गः॥1॥ पदार्थः—(दिवः) दिव्यगुणात् (चित्) एव (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (वरिमा) वरस्य भावः (वि) विविधार्थे (पप्रथे) प्रथते (इन्द्रम्) परमैश्वर्यस्य प्रापकम् (न) इव (मह्ना) महत्त्वेन। अत्र महधातोः बाहुलकाद् औणादिकः कनिन् प्रत्ययः। (पृथिवी) भूमिः (चन) अपि (प्रति) योगे (भीमः) दुष्टान् प्रति भयंकरः श्रेष्ठान् प्रति सुखकरः (तुविष्मान्) वृद्धिमान्। अत्र तुधातोः बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययः स च कित्। (चर्षणिभ्यः) दुष्टेभ्यः श्रेष्ठेभ्यो वा मनुष्येभ्यः (आतपः) समन्तात् प्रतापयुक्तः (शिशीते) उदके शिशीतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (वज्रम्) किरणान् (तेजसे) प्रकाशाय (न) इव (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं गच्छति गमयति वा स वृषभः॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथाऽस्य सवितुर्दिवो वरिमा मह्ना विपप्रथे पृथिवी चन मह्ना तुल्या न भवति नातपो वंसगो न गोसमूहान् वंसगो न पृथिवीं प्रति तेजसे वज्रं शिशीते प्रक्षिपति तथा यो दुष्टेभ्यो भीमो धार्मिकेभ्यः प्रियो भूत्वा प्रजाः पालयेत् स चित्सर्वैः सत्कर्त्तव्यो नेतरः खलु॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सवितृमण्डलं सर्वेभ्यो लोकेभ्य उत्कृष्टगुणं महद्वर्त्तते यथा वृषभो गोसमूहेषूत्तमो महाबलिष्ठो वर्त्तते तथैवोत्कृष्टगुणो महान् मनुष्यः सभाद्यधिपतिः कार्य्यः। स च सदैव स्वयं धर्मात्मा सन् दुष्टेभ्यो भयप्रदो धार्मिकेभ्यः सुखकारी च भवेत्॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (अस्य) इस सविता के (दिवः) प्रकाश से (वरिमा) उत्तमता का भाव (मह्ना) बड़ाई से (विपप्रथे) विशेष करके प्रसिद्ध करता है (पृथिवी) जिसके बराबर भूमि (चन) भी तुल्य (न) नहीं और न (आतपः) सब प्रकार प्रताप युक्त (वंसगः) बलवान् विभाग कर्त्ता के समान (पृथिवी) भूमि के (प्रति) मध्य में (तेजसे) प्रकाशार्थ (वज्रम्) किरणों को (शिशीते) अति शीतल उदक में प्रक्षेप करता है, वैसे जो दुष्टों के लिये भयंकर धर्मात्माओं के वास्ते सुखदाता हो के प्रजाओं का पालन करे, वह सब से सत्कार के योग्य है, अन्य नहीं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मण्डल सब लोकों से उत्कृष्ट गुणयुक्त और बड़ा है और जैसे बैल गोसमूहों में उत्तम और महाबलवान् होता है, वैसे ही उत्कृष्ट गुणयुक्त सब से बड़े मनुष्य को सब मनुष्यों को सभा आदि का पति करना चाहिये और वे सभाध्यक्षादि दुष्टों को भय देने और धार्मिकों के लिये आप भी धर्मात्मा हो के सुख देने वाले सदा होवें॥1॥ पुनः स कीदृग्गुण इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसे गुण वाला हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ सो अ॑णर्॒वो न न॒द्यः॑ समु॒द्रियः॒ प्रति॑ गृभ्णाति॒ विश्रि॑ता॒ वरी॑मभिः। इन्द्रः॑ सोम॑स्य पी॒तये॑ वृषायते स॒नात्स यु॒ध्म ओज॑सा पनस्यते॥2॥ सः। अ॒र्ण॒वः। न। न॒द्यः॑ स॒मु॒द्रियः॑। प्रति॑। गृ॒भ्णा॒ति॒। विऽश्रि॑ताः। वरी॑मऽभिः। इन्द्रः॑। सोम॑स्य। पी॒तये॑। वृ॒ष॒ऽय॒ते॒। स॒नात्। सः। यु॒ध्मः। ओज॑सा। प॒न॒स्य॒ते॒॥2॥ पदार्थः—(सः) उक्तार्थः (अर्णवः) समुद्रः (न) इव (नद्यः) सरितः (समुद्रियः) समुद्रे भवो नौसमूहः (प्रति) क्रियायोगे (गृभ्णाति) गृह्णाति (विश्रिताः) विविध प्रकारैः सेवमानाः (वरीमभिः) वृण्वन्ति ये तैः शिल्पिभिः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (सोमस्य) वैद्यविद्यासम्पादितस्य (पीतये) पानाय (वृषायते) वृष इवाचरति (सनात्) सर्वदा (सः) (युध्मः) यो युध्यते सः (ओजसा) बलेन (पनस्यते) यः पनायति व्यवहरति स पना, पना इवाचरति॥2॥ अन्वयः—य इन्द्रः सूर्य इव सोमस्य पीतये वृषायते सयुध्मो विश्रिता नद्योऽर्णवो न समुद्रियः सनादोजसा वरीमभिः पनस्यते राज्यं प्रति गृभ्णाति स राज्याय सत्काराय च सर्वैर्मनुष्यैः स्वीकार्य्यः॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सागरो विविधानि रत्नानि नानानदींश्च स्वमहिम्ना स्वस्मिन् संरक्षति तथैव सभाद्यध्यक्षो विविधान् पदार्थान्नानाविधाः सेनाः स्वीकृत्य दुष्टान् पराजित्य श्रेष्ठान् संरक्ष्य स्वमहिमानं विस्तारयेत्॥2॥ पदार्थः—जो (इन्द्रः) सभाध्यक्ष सूर्य के समान (सोमस्य) वैद्यक विद्या से सम्पादित वा स्वभाव से उत्पन्न हुए रस के (पीतये) पीने के लिये (वृषायते) बैल के समान आचरण करता है (सः) वह (युध्मः) युद्ध करने वाला पुरुष (न) जैसे (विश्रिताः) नाना प्रकार के देशों को सेवन करने हारी (नद्यः) नदियाँ (अर्णवः) समुद्र को प्राप्त होके स्थिर होती और जैसे (समुद्रियः) सागरों में चलने योग्य नौकादि यान समूह पार पहुंचाता है, जैसे (सनात्) निरन्तर (ओजसा) बल से (वरीमभिः) धर्म वा शिल्पी क्रिया से (पनस्यते) व्यवहार करने वाले के समान आचरण और पृथिवी आदि के राज्य को (प्रतिगृभ्णाति) ग्रहण कर सकता है, वह राज्य करने और सत्कार के योग्य है, उस को सब मनुष्य स्वीकार करें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र नाना प्रकार के रत्न और नाना प्रकार की नदियों को अपनी महिमा से अपने में रक्षा करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि भी अनेक प्रकार के पदार्थ और अनेक प्रकार की सेनाओं को स्वीकार कर दुष्टों को जीत और श्रेष्ठों की रक्षा करके अपनी महिमा फैलावें॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं॒ न भोज॑से म॒हो नृ॒म्णस्य॒ धर्म॑णामिरज्यसि। प्र वी॒र्ये॑ण दे॒वताति॑ चेकिते॒ विश्व॑स्मा उ॒ग्रः कर्म॑णे पु॒रोहि॑तः॥3॥ त्वम्। तम्। इ॒न्द्र॒। पर्व॑तम्। न। भोज॑से। म॒हः। नृ॒म्णस्य॑। धर्म॑णाम्। इ॒र॒ज्य॒सि॒। प्र। वी॒र्येण। दे॒वता॑। अति॑। चे॒कि॒ते॒। विश्व॑स्मै। उ॒ग्रः। कर्म॑णे। पु॒रःऽहि॑तः॥3॥ पदार्थः—(त्वम्) (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (पर्वतम्) मेघम् (न) इव (भोजसे) पालनाय भोगाय वा (महः) महागुणविशिष्टस्य (नृम्णस्य) धनस्य। नृम्णमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (धर्मणाम्) धर्माणां योगेन (इरज्यसि) ऐश्वर्यं प्राप्नोसि। इरज्यतीत्यैश्वर्य्यकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.21) (प्र) प्रकृष्टार्थे (वीर्येण) पराक्रमेण (देवता) द्योतमान एव (अति) अतिशये (चेकिते) जानाति। वा छन्दसिस॰ इत्यभ्यासस्य गुणः (विश्वस्मै) सर्वस्मै (उग्रः) तीव्रकारी (कर्मणे) कर्त्तव्याय (पुरोहितः) पुरोहितवदुपकारी॥3॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यो देवतोग्रः पुरोहितस्त्वं विद्युद्वत्पर्वतं न वीर्य्येण भोजसे तं शत्रुं हत्वा महो नृम्णस्य धर्मणां योगेनातीरज्यसि यो भवान् विश्वस्मै कर्मणे प्रचेकिते सोऽस्मासु राजा भवतु॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रवृत्तिमाश्रित्य धनं सम्पाद्य भोगान् प्राप्नुवन्ति ते ससभाध्यक्षा विद्याबुद्धिविनयधर्मवीरसेनाः प्राप्य दुष्टेषूग्रा धार्मिकेषु क्षमान्विताः सर्वेषां हितकारका भवन्ति॥3॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष! जो (देवता) विद्वान् (उग्रः) तीव्रकारी (पुरोहितः) पुरोहित के समान उपकार करने वाले (त्वम्) आप जैसे बिजुली (पर्वतम्) मेघ के आश्रय करने वाले बादलों के (न) समान (वीर्येण) पराक्रम से (भोजसे) पालन वा भोग के लिये (तम्) उस शत्रु को हनन कर (महः) बड़े (नृम्णस्य) धन और (धर्मणाम्) धर्मों के योग से (अतीरज्यसि) अतिशय ऐश्वर्य करते हो जो आप (विश्वस्मै) सब (कर्मणे) कर्मों के लिये (प्रचेकिते) जानते हो, वह आप हम लोगों में राजा हूजिये॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रवृत्ति का आश्रय और धन को सम्पादन करके भोगों को प्राप्त करते हैं, वे सभाध्यक्ष के सहित विद्या, बुद्धि, विनय और धर्मयुक्त वीरपुरुषों की सेना को प्राप्त होकर दुष्ट जनों के विषय में तेजधारी और धर्मात्माओं में क्षमायुक्त हों, वे ही सबके हितकारक होते हैं॥3॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा कर्म करे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स इद्वने॑ नम॒स्युभि॑र्वचस्यते॒ चारु॒ जने॑षु प्रब्रुवा॒ण इ॑न्द्रि॒यम्। वृषा॒ छन्दु॑र्भवति हर्य॒तो वृषा॒ क्षेमे॑ण॒ धेनां॑ म॒घवा॒ यदिन्व॑ति॥4॥ सः। इत्। वने॑। न॒म॒स्युऽभिः॑। व॒च॒स्य॒ते॒। चारु॑। जनें॑षु। प्र॒ऽब्रु॒वा॒णः। इ॒न्द्रि॒यम्। वृषा॑। छन्दुः॑। भ॒व॒ति॒। ह॒र्य॒तः। वृषा॑। क्षेमे॑ण। धेना॑म्। म॒घऽवा॑। यत्। इन्व॑ति॥4॥ पदार्थः—(सः) अध्यापक उपदेशको वा (इत्) एव (वने) एकान्ते (नमस्युभिः) नम्रैर्विद्यार्थिभिः श्रोतृभिः (वचस्यते) परिभाष्यते सर्वतः स्तूयते (चारु) सुन्दरम् (जनेषु) प्रसिद्धेषु मनुष्येषु (प्रब्रुवाणः) यः प्रकर्षेण वाचयत्युपदेशयति वा सः (इन्द्रियम्) विज्ञानयुक्तं मनः (वृषा) समर्थः (छन्दुः) स्वच्छन्दः (भवति) वर्त्तते (हर्यतः) सर्वेषां सुबोधं कामयमानः (वृषा) सत्योपदेशवर्षकः (क्षेमेण) रक्षणेन (धेनाम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (मघवा) प्रशस्तविद्याधनवान् (यत्) यः (इन्वति) व्याप्नोति॥4॥ अन्वयः—यद्योऽध्यापक उपदेशको वा वने जनेषु चार्वन्द्रियं ब्रुवाणो हर्यतः प्रभवति वृषा मघवा छन्दुर्वृषा क्षेमेण सहितां धेनामिन्वति स इन्नमस्युभिर्वचस्यते॥4॥ भावार्थः—परमविद्वान् सर्वान् मनुष्यान् सर्वा विद्याः प्रापय्य विद्यावतो बहुश्रुतान् स्वच्छन्दान् सुरक्षितान् कुर्याद्यतो निःसंशयाः सन्तः सदा सुखिनः स्युः॥4॥ पदार्थः—(यत्) जो अध्यापक वा उपदेशकर्त्ता (वने) एकान्त में एकाग्र चित्त से (जनेषु) प्रसिद्ध मनुष्यों में (चारु) सुन्दर (इन्द्रियम्) मन को (ब्रुवाणः) अच्छे प्रकार कहता (हर्य्यतः) और सबको उत्तम बोध की कामना करता हुआ (प्रभवति) समर्थ होता है (वृषा) दृढ़ (मघवा) प्रशंसित विद्या और धनवाला (छन्दुः) स्वच्छन्द (वृषा) सुख वर्षाने वाला (क्षेमेण) रक्षण के सहित (धेनाम्) विद्या शिक्षायुक्त वाणी को (इन्वति) व्याप्त करता है (स इत्) वही (नमस्युभिः) नम्र विद्वानों से (वचस्यते) प्रशंसा को प्राप्त होता है॥4॥ भावार्थः—उत्तम विद्वान् सभाध्यक्ष सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को प्राप्त करके सबको विद्यायुक्त, बहुश्रुत, रक्षा वा स्वच्छन्दता युक्त करें कि जिससे सब निस्सन्देह होकर सदा सुखी रहें॥4॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स इन्म॒हानि॑ समि॒थानि॑ म॒ज्मना॑ कृ॒णोति॑ यु॒ध्म ओज॑सा॒ जने॑भ्यः। अधा॑ च॒न श्रद्द॑धति॒ त्विषी॑मत॒ इन्द्रा॑य॒ वज्रं॑ नि॒घनि॑घ्नते व॒धम्॥5॥19॥ सः। इत्। म॒हानि॑। स॒म्ऽइ॒थानि॑। म॒ज्मना॑। कृ॒णोति॑। यु॒ध्मः। ओज॑सा। जने॑भ्यः। अध॑। च॒न। श्रत्। द॒ध॒ति॒॒। त्विषि॑ऽमते। इन्द्रा॑य। वज्र॑म्। नि॒ऽघनि॑घ्नते। व॒धम्॥5॥ पदार्थः—(सः) (इत्) एव (महानि) महान्ति पूज्यानि (समिथानि) सम्यक् यन्ति यानि विज्ञानानि तानि (मज्मना) बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (कृणोति) करोति (युध्मः) अविद्याकुटुम्बस्य प्रहर्त्ता (ओजसा) पराक्रमेण (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (अध) अथ। निपातस्य च इति दीर्घः। (चन) अपि (श्रत्) सत्यम्। श्रदिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) (दधति) धरन्ति (त्विषीमते) प्रशस्तप्रकाशान्तःकरणवते (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययोजकाय (वज्रम्) शस्त्रमिवाज्ञानच्छेदकमुपदेशम् (निघनिघ्नते) यो हन्ति स निघ्नः स इवाचरति। अत्र निघ्नशब्दाद् आचारे क्विप् ततो लट् शपः श्लुः व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वधम्) हननम्॥5॥ अन्वयः—यदि स युध्मो मज्मनौजसा जनेभ्य उपदेशेन महानि समिथानि कृणोति करोति वज्रमिव वधं निघनिघ्नतेऽधाथ तर्ह्यस्मा इत् त्विषीमत इन्द्राय चन जनाः श्रद्दधति॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघमुत्पाद्य छित्वा वर्षित्वा स्वप्रकाशेन सर्वानानन्दयति तथाऽध्यापकोपदेशकावन्धपरम्परां निवार्य विद्यान्यायादीन् प्रकाश्य सर्वाः प्रजाः सुखिनीः कुर्याताम्॥5॥ पदार्थः—जो (सः) वह (युध्मः) युद्ध करने वाला उपदेशक (मज्मना) बल वा (ओजसा) पराक्रम से युक्त हो के (जनेभ्यः) मनुष्यादिकों के सुख के लिये उपदेश से (महानि) बड़े पूजनीय (समिथानि) संग्रामों को जीतने वाले के तुल्य अविद्या विजय को (कृणोति) करता है (वज्रम्) वज्रप्रहार के समान शत्रुओं के (वधम्) मारने को (निघनिघ्नते) मारने वाले के समान आचरण करता है तो (अध) इसके अनन्तर (इत्) ही (अस्मै) इस (त्विषीमते) प्रशंसनीय प्रकाशयुक्त (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति कराने वाले के लिये सब मनुष्य लोग (चन) भी (श्रद्दधति) प्रीति से सत्य का धारण करते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को उत्पन्न, काट और वर्षा करके अपने प्रकाश से सब मनुष्यों को आनन्द युक्त करता है, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक लोग विद्या को प्राप्त करा और अविद्या को जीत के अन्धपरम्परा को निवारण कर विद्यान्यायादि का प्रकाश करके सब प्रजा को सुखी करें॥5॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स हि श्र॑व॒स्युः सद॑नानि कृ॒त्रिमा॑ क्ष्म॒या वृ॑धा॒न ओज॑सा विना॒शय॑न्। ज्योतीं॑षि कृ॒ण्वन्न॑वृकाणि॒ यज्य॒वेऽव॑ सु॒क्रतुः॒ सर्त॒वा अ॒पः सृ॑जत्॥6॥ सः। हि। श्र॒व॒स्युः। सद॑नानि। कृ॒त्रिमा॑। क्ष्म॒या। वृ॒धा॒नः। ओज॑सा। वि॒ऽना॒शय॑न्। ज्योतीं॑षि। कृ॒ण्वन्। अ॒वृ॒काणि॑। यज्य॑वे। अव॑। सु॒ऽक्रतुः॑। सतर्॒वै। अ॒पः। सृ॒ज॒त्॥6॥ पदार्थः—(सः) उक्तः (हि) किल (श्रवस्युः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छुः (सदनानि) स्थानान्युदकानि वा। सदनमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (कृत्रिमा) कृत्रिमाणि (क्ष्मया) पृथिव्या सह। क्ष्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (वृधानः) वर्धमानः (ओजसा) विद्याबलेन (विनाशयन्) अविद्याऽदर्शनं प्रापयन् (ज्योतींषि) विद्यादिसद्गुणप्रकाशकानि तेजांसि (कृण्वन्) कुर्वन् (अवृकाणि) अविद्यमानचोराणि (यज्यवे) यज्ञाऽनुष्ठानाय (अव) विनिग्रहे (सुक्रतुः) शोभना प्रज्ञा कर्म वा यस्य सः (सर्त्तवै) सर्त्तंु ज्ञातुं गन्तुं वा (अपः) जलानि (सृजत) सृजति॥6॥ अन्वयः—यः सुक्रतुरोजसा क्ष्मया सह वृधानः श्रवस्युर्यज्यवे सर्तवै कृत्रिमाण्यवृकाणि सदनानि कृण्वन्नपो ज्योतींषि प्रकाशयन् सूर्य इव विनाशयन्निव सृजत् स हि सर्वैर्मनुष्यैर्माता पिता सुहृद्रक्षकश्च मन्तव्यः॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य सूर्यवद्विद्याधर्मराजनीतिप्रकाशकः सन् सर्वान् सुबोधान् करोति स सर्वैरखिलमनुष्यादिप्राणिनां कल्याणकार्य्यस्तीति वेद्यम्॥6॥ पदार्थः—जो (सुक्रतुः) श्रेष्ठ बुद्धि वा कर्मयुक्त (ओजसा) पराक्रम से (क्ष्मया) पृथिवी के साथ (वृधानः) बढ़ता हुआ और (श्रवस्युः) अपने आत्मा के वास्ते अन्न की इच्छा से सब शास्त्रों का श्रवण कराता हुआ (यज्यवे) राज्य के अनुष्ठान के वास्ते (सर्त्तवै) जाने-आने को (कृत्रिमाणि) किये हुए (अवृकाणि) चोरादि रहित (सदनानि) मार्ग और सुन्दर घरों को सुशोभित (कृण्वन्) करता हुआ (अपः) जलों को वर्षाने हारा (ज्योतींषि) चन्द्रादि नक्षत्रों को प्रकाशित करते हुए सूर्य्य के तुल्य (विनाशयन्) अविद्या का नाश करता हुआ राज्य (अवसृजत्) बनावे, वही सब मनुष्यों को माता, पिता, मित्र और रक्षक मानने योग्य है॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्य जो सूर्य्य के सदृश विद्या, धर्म और राजनीति का प्रचारकर्त्ता हो के सब मनुष्यों को उत्तम बोधयुक्त करता है, वह मनुष्यादि प्राणियों का कल्याणकारी है, ऐसा निश्चित जानें॥6॥ पुनः स कथंभूतः स्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ दा॒नाय॒ मनः॑ सोमपावन्नस्तु ते॒ऽर्वाञ्चा॒ हरी॑ वन्दनश्रु॒दा कृ॑धि। यमि॑ष्ठासः॒ सार॑थयो॒ य इ॑न्द्र ते॒ न त्वा॒ केता॒ आ द॑भ्नुवन्ति॒ भूर्ण॑यः॥7॥ दा॒नाय॑। मनः॑। सो॒म॒ऽपा॒व॒न्। अ॒स्तु॒। ते॒। अ॒र्वाञ्चा॑। हरी॒ इति॑। व॒न्द॒न॒ऽश्रु॒त्। आ। कृ॒धि॒। यमि॑ष्ठासः। सार॑थयः। ये। इ॒न्द्र॒। ते॒। न। त्वा॒। केताः॑। आ। द॒भ्नु॒व॒न्ति॒। भूर्ण॑यः॥7॥ पदार्थः—(दानाय) सुपात्रेभ्यो विद्यादिदानाय (मनः) अन्तःकरणम् (सोमपावन्) यः सोमान् श्रेष्ठान् रसान् पिबति तत्सम्बुद्धौ (अस्तु) भवतु (ते) तव (अर्वाञ्चा) यावर्वागऽञ्चतस्तौ (हरी) हरणशीलौ (वन्दनश्रुत्) येन वायुना वन्दनं स्तवनं भाषणं शृणोति श्रावयति वा तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (कृधि) कुरु (यमिष्ठासः) अतिशयेन नियन्तारः (सारथयः) यानगमयितारः (ये) सुशिक्षिताः (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (ते) तव (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (केताः) प्रज्ञाः प्रज्ञापनव्यवहारान् (आ) अभितः (दभ्नुवन्ति) हिंसन्ति (भूर्णयः) ये बिभ्रति ते। अत्र घृणिपृश्नि॰ (उणा॰4.54) अनेनायं निपातितः॥7॥ अन्वयः—हे वन्दनश्रुत्सोमपावन्निन्द्र! ते तव मनो दानायास्तु समन्ताद्भवतु यथा वायोरर्वाञ्चौ हरी यथा भूर्णयो यमिष्ठासः सारथयस्तथा सर्वान् धर्मे नियच्छ सर्वेषु केता आकृधि एवंकृते ये तव शत्रवः सन्ति, ते तव वशे भवन्तु त्वा न दभ्नुवन्ति॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुसारथयोऽश्वान् संशिक्ष्य नियच्छन्ति यथा तिर्यग्गामी वायुश्च तथाऽऽध्यापकोपदेशका विद्यासूपदेशाभ्यां सर्वान् सत्याचरणे निश्चितान् कुर्वन्तु न ह्येताभ्यां विना मनुष्यान् धार्मिकान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥7॥ पदार्थः—हे (वन्दनश्रुत्) स्तुति वा भाषण के सुनने-सुनाने और (सोमपावन्) श्रेष्ठ रसों के पीने वाले (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष! (ते) आपका (मनः) मन (दानाय) पुत्रों को विद्यादि दान के लिये (अस्तु) अच्छे प्रकार होवे, जैसे वायु वा सूर्य्य के (अर्वाञ्चा) वेगादि गुणों को प्राप्त कराने वाली (हरी) धारणाऽकर्षण गुण और जैसे (भूर्णयः) पोषक (यमिष्ठासः) अतिशय करके यमन करता (सारथयः) रथों को चलाने वाले सारथि घोड़े आदि को सुशिक्षा कर नियम में रखते हैं, वैसे तू सब मनुष्यादि को धर्म में चला और सब में (केताः) शास्त्रीय प्रज्ञाओं को (आकृधि) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये, इस प्रकार करने से (ये) जो तेरे शत्रु हैं वे (ते) तेरे वश में हो जायें, जिससे (त्वा) तुझ को (न दभ्नुवन्ति) दुःखित न कर सकें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उत्तम सारथि लोग घोड़े को अच्छे प्रकार शिक्षा करके नियम में चलाते हैं और जैसे तिरछा चलने वाला वायु नियन्ता है, वैसे धार्मिक पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वान् लोग सत्य विद्या और सत्य उपदेशों से सबको सत्याचार में निश्चित करें, इन दोनों के विना मनुष्यों को धर्मात्मा करने के वास्ते कोई भी समर्थ नहीं हो सकता॥7॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अप्र॑क्षितं॒ वसु॑ बिभर्षि॒ हस्त॑यो॒रषा॑ळ्हं॒ सह॑स्त॒न्वि॑ श्रु॒तो द॑धे। आवृ॑तासोऽव॒तासो॒ न क॒र्तृभि॑स्त॒नूषु॑ ते॒ क्रत॑व इन्द्र॒ भूर॑यः॥8॥20॥ अप्र॑ऽक्षितम्। वसु॑। बि॒भ॒र्षि॒। हस्त॑योः। अषा॑ळ्हम्। सहः॑। त॒न्वि॑। श्रु॒तः। द॒धे॒। आऽवृ॑तासः। अ॒व॒तासः॑। न। क॒र्तृऽभिः॑। त॒नूषु॑। ते॒। क्रत॑वः। इ॒न्द्र। भूर॑यः॥8॥ पदार्थः—(अप्रक्षितम्) यन्न प्रक्षीयते तत् (वसु) वसन्ति सुखेन यत्र तद्विज्ञानम् (बिभर्षि) धरसि (हस्तयोः) करयोः (अषाढम्) पापिभिः सोढुमशक्यम् (सहः) बलम् (तन्वि) शरीरे। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे॰ इत्याडामोरभावः। (श्रुतः) यः श्रूयते सः (दधे) (आवृतासः) समन्तात् सुखैराच्छादिताः (अवतासः) सर्वतो रक्षिताः (न) इव (कर्त्तृभिः) पुरुषार्थिभिः (तनूषु) शरीरेषु (ते) तव (क्रतवः) प्रज्ञाः (इन्द्र) विद्यैश्वर्य (भूरयः) बहव्यः। भूरिरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1)॥8॥ अन्वयः—हे इन्द्र! श्रुतस्त्वं यदप्रक्षितं वस्वषाढं सहश्च तन्वि हस्तयोरामलकमिव बिभर्षि य आवृतासोऽवतासो न ते भूरयः क्रतवः कर्त्तृभिस्तनूषु ध्रियन्ते तान्यहं दधे॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभ्यैर्विद्वद्भिश्चाक्षयं विज्ञानं बलं धनं श्रवणं बहूनि सुकर्माणि च धार्यन्ते तथैवैतत्सर्वं प्रजास्थैर्मनुष्यैरपि सन्धार्य्यम्॥8॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्यप्रजासभाद्यध्यक्षकृत्यं वर्णितमत एवैतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति विंशतितमो 20 वर्गः पञ्चपञ्चाशं 55 सूक्तञ्च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष (श्रुतः) प्रशंसायुक्त तू जिस (अप्रक्षितम्) क्षयरहित (वसु) धन और (अषाढम्) शत्रुओं से असह्य (सहः) बल को (तन्वि) शरीर में (हस्तयोः) हाथ में आंवले के फल के समान (बिभर्षि) धारण करता है जो (आवृतासः) सुखों से युक्त (अवतासः) अच्छे प्रकार रक्षित मनुष्यों के (न) समान (ते) आपकी (भूरयः) बहुत शास्त्र विद्यायुक्त (क्रतवः) बुद्धि और कर्मों को (कर्त्तृभिः) पुरुषार्थी मनुष्य (तनूषु) शरीरों में धारण करते हैं, उनको मैं (दधे) धारण करता हूं॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सभाध्यक्ष वा सभासद् विद्वान् लोग क्षयरहित विज्ञान, बल, धन, श्रवण और बहुत उत्तम कर्मों को धारण करते हैं, वैसे ही इन सब कामों को सब प्रजा के मनुष्यों को धारण करना चाहिये॥8॥ इस सूक्त में सूर्य्य, प्रजा और सभाध्यक्ष के कृत्य का वर्णन किया है, इसी से इस सूक्तार्थ-की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये॥ यह बीसवां वर्ग 20 और पचपनवां 55 सूक्त समाप्त हुआ॥55॥

अथास्य षडर्चस्य षट्पञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,3,4 निचृज्जगती। 2 जगती च छन्दः। निषादः स्वर। 5 त्रिष्टुप्। भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादावध्यापकोपदेशकगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब छप्पनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक के गुणों का उपदेश किया है॥ ए॒ष प्र पू॒र्वीरव॒ तस्य॑ च॒म्रिषोऽत्यो॒ न योषा॒मुद॑यंस्त भु॒र्वणिः॑। दक्षं॑ म॒हे पा॑ययते हिर॒ण्ययं॒ रथ॑मा॒वृत्या॒ हरि॑योग॒मृभ्व॑सम्॥1॥ ए॒षः। प्र। पूर्वीः॑। अव॑। तस्य॑। च॒म्रिषः॑। अत्यः॑। न। योषा॑म्। उत्। अ॒यं॒स्त॒। भु॒र्वणिः॑। दक्ष॑म्। म॒हे। पा॒य॒य॒ते॒। हि॒र॒ण्यय॑म्। रथ॑म्। आ॒ऽवृत्य॑। हरि॑ऽयोगम्। ऋभ्व॑सम्॥1॥ पदार्थः—(एषः) अध्यापक उपदेशको वा (प्र) प्रकृष्टार्थे (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातनीः प्रजाः (अव) विरुद्धार्थे (तस्य) परमैश्वर्य्यस्य प्राप्तये (चम्रिषः) चाम्यन्त्यदन्ति भोगाँस्तान्। अत्र बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययो रुडागमश्च। (अत्यः) अश्वः। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (न) इव (योषाम्) भार्य्याम् (उत्) (अयँस्त) उद्यच्छति (भुर्वणिः) बिभर्त्ति यः सः। अत्र भृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिकः क्वणिः प्रत्ययः। (दक्षम्) बलं चातुर्य्यं वा (महे) पूज्ये व्यवहारे (पाययते) रक्षां कार्यते (हिरण्ययम्) तेजः सुवर्णं वा प्रचुरं यस्मिँस्तम् (रथम्) यानसमूहम् (आवृत्य) सामग्र्याच्छाद्य (हरियोगम्) हरीणामश्वादीनां योगो यस्मिँस्तम् (ऋभ्वसम्) ऋभून् मनुष्यादीन् पदार्थान् वाऽस्यन्ति येन तम्॥1॥ अन्वयः—य एष भुर्वणिस्तस्य चम्रिषः पूर्वीः प्रजा उत्पादयितुमत्यो न योषामुदयँस्त स तस्यै प्रजायै महे सत्योपदेशैः श्रोत्राण्यावृत्य हिरण्ययमृभ्वसं हरियोगं रथं दक्षं च प्रापय्य पाययते स सर्वैर्माननीयो भवति॥1॥ भावार्थः—अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। उपदेशकः स्वसदृशी विदुषीं स्त्रियं परिणीय यथा स्वयं पुरुषानुपदिशेद् बालकानध्यापयेत् तथातत्स्त्री स्त्रिय उपदिशेत् कन्याश्च पाठयेदेवं कृते कुतश्चिदप्यविद्याभये न पीडयेताम्॥1॥ पदार्थः—जो (एषः) यह (भुर्वणिः) धारण वा पोषण करने वाला सभा का अध्यक्ष वा सूर्य (न) जैसे (अत्यः) घोड़ा घोड़ियों से संयोग करता है, वैसे (योषाम्) विद्वान् स्त्री से युक्त हो के (तस्य) उस परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (चम्रिषः) भोगों को करने वाली (पूर्वीः) सनातन प्रजा को (प्रावोदयंस्त) अच्छे प्रकार अधर्म वा निकृष्टता से निवृत्त कर वह उस प्रजा के वास्ते (महे) पूजनीय मार्ग में कान आदि इन्द्रियों को (आवृत्य) युक्त कर (हिरण्यम्) बहुत तेज वा सुवर्ण (ऋभ्वसम्) मनुष्यादिकों के प्रक्षेपण करने वाला (हरियोगम्) अग्नियुक्त वा अश्वादि युक्त हुए (दक्षम्) बल चतुर शिल्पी मनुष्य युक्त (रथम्) यान समूह को (आवृत्य) सामग्री से आच्छादन करके सुखीरूपों रसों को (पाययते) पान करता है, वह सब से मान्य को प्राप्त होता है॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। उपदेशक अपने तुल्य विदुषी स्त्री के साथ विवाह करके जैसे आप पुरुषों को उपदेश और बालकों को पढ़ावे, वैसे उसकी स्त्री स्त्रियों को उपदेश और कन्याओं को पढ़ावें, ऐसे करने से किसी ओर से अविद्या और भय से दुःख नहीं हो सकता॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इस विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तं गू॒र्तयो॑ नेम॒न्निषः॒ परी॑णसः समु॒द्रं न सं॒चर॑णे सनि॒ष्यवः॑। पतिं॒ दक्ष॑स्य वि॒दथ॑स्य॒ नू सहो॑ गि॒रिं न वे॒ना अधि॑ रोह॒ तेज॑सा॥2॥ तम्। गू॒र्तयः॑। ने॒म॒न्ऽइषः॑। परी॑णसः। स॒मु॒द्रम्। न। स॒म्ऽचर॑णे। स॒नि॒ष्यवः॑। पति॑म्। दक्ष॑स्य। वि॒दथ॑स्य। नु। सहः॑। गि॒रिम्। न। वे॒नाः। अधि॑। रो॒॒ह॒। तेज॑सा॥2॥ पदार्थः—(तम्) पूर्वोक्तम् (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्ताः कन्याः (नेमन्निषः) नीयन्त इष्यन्ते च यास्ताः (परीणसः) बह्वयः। परीणस इति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (संचरणे) सङ्गमने (सनिष्यवः) संविभागमिच्छवः (पतिम्) स्वामिनम् (दक्षस्य) चतुरस्य (विदथस्य) विज्ञानयुक्तस्य (नु) शीघ्रम् (सहः) बलम् (गिरिम्) मेघम् (न) इव (वेनाः) मेधाविनः। वेन इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (अधि) उपरिभावे (रोह) (तेजसा) प्रतापेन॥2॥ अन्वयः—हे कन्ये! त्वं संचरणे सनिष्यवः समुद्रं नद्यो न गिरिं न परीणसो नेमन्निषो गूर्त्तयो धीमत्यो ब्रह्मचारिण्यो वेना मेधाविनो ब्रह्मचारिणः समावर्त्तनात् पश्चात् परस्परं प्रीत्या विवाहं कुर्वन्तु, दक्षस्य विदथस्य विदुषः सकाशात् प्राप्तविद्यां पतिमधिरोह तं तेजसा प्राप्य सहो नु प्राप्नुहि॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारौ। सर्वैर्बालकैः कन्याभिश्च यथाविधिसेवितेन ब्रह्मचर्य्येणाऽखिला विद्या अधीत्य पूर्णयुवावस्थायां तुल्यगुणकर्मस्वभावान् परीक्ष्यान्योन्यमतिप्रेमोद्भवानन्तरं विवाहं कृत्वा पुनर्यदि पूर्णविद्यास्तर्हि बालिका अध्यापयेयुः। क्षत्रियवैश्यशूद्रवर्णयोग्याश्चेत्तर्हि स्व-स्व वर्णोचितानि कर्माणि कुर्य्युः॥2॥ पदार्थः—हे कन्ये! तू (संचरणे) अच्छे प्रकार समागम में (न) जैसे (सनिष्यवः) सम्यक् विविध सेवन करनेहारी नदियां (समुद्रम्) सागर को प्राप्त होती और (न) जैसे बादल (गिरिम्) मेघ को प्राप्त होते हैं, वैसे जो (परीणसः) बहुत (नेमन्निषः) प्राप्त होने योग्य इष्ट सुखदायक (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्त बुद्धिमती ब्रह्मचारिणी और (वेनाः) बुद्धिमान् ब्रह्मचारी लोग समावर्त्तन के पश्चात् परस्पर प्रीति के साथ विवाह करें (दक्षस्य) हे कन्ये! तू सब विद्याओं में अतिचतुर (विदथस्य) पूर्णविद्या युक्त विद्वान् से विद्या को प्राप्त हुए (पतिम्) स्वामी को (अधिरोह) प्राप्त हो (तेजसा) अतीव तेज से (तम्) उसको प्राप्त हो के (सहः) बल को (नु) शीघ्र प्राप्त हो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब लड़के और लड़कियों को योग्य है कि यथोक्त ब्रह्मचर्य्य के सेवन से सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के पूर्ण युवावस्था में अपने तुल्य, गुण कर्म और स्वभाव वाले परस्पर परीक्षा करके अतीव प्रेम के साथ विवाह कर पुनः जो पूर्ण विद्या वाले हों तो ल़ड़का लड़कियों को पढ़ाया करें, जो क्षत्रिय हों तो राजपालन और न्याय किया करें, जो वैश्य हों तो अपने वर्ण के कर्म और जो शूद्र हों तो अपने कर्म किया करें॥2॥ पुनस्तौ कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स तु॒र्वणि॑र्म॒हाँ अ॑रे॒णु पौंस्ये॑ गि॒रेर्भृ॒ष्टिर्न भ्रा॑जते तु॒जा शवः॑। येन॒ शुष्णं॑ मा॒यिन॑माय॒सो मदे॑ दु॒ध्र आ॒भूषु॑ रा॒मय॒न्नि दाम॑नि॥3॥ सः। तु॒र्वणिः॑। म॒हान्। अ॒रे॒णु। पौंस्ये॑। गि॒रेः। भृ॒ष्टिः। न। भ्रा॒ज॒ते॒। तु॒जा। शवः॑। येन॑। शुष्ण॑म्। मा॒यिन॑म्। आ॒य॒सः। मदे॑। दु॒ध्रः। आ॒भूषु॑। र॒मय॑त्। नि। दाम॑नि॥3॥ पदार्थः—(सः) उक्तार्थः (तुर्वणिः) शीघ्रानन्ददाता। तुर्वणिस्तूर्णवनिः। (निरु॰6.14) महान् गुणैर्महत्त्वयुक्तः (अरेणु) अहिंसनीयम् (पौंस्ये) पुंसो भवे यौवने (गिरेः) मेघस्य (भृष्टिः) भृज्जन्ति परिपचन्ति यस्यां वृष्टौ सा (न) इव (भ्राजते) प्रकाशते (तुजा) तोजति हिनस्ति दुःखानि येन तेन (शवः) बलम् (येन) बलेन (शुष्णम्) बलवन्तम् (मायिनम्) प्रशंसितप्रज्ञादियुक्तम् (आयसः) विज्ञानात् (मदे) हर्षयुक्ते (दुध्रः) बलेन पूर्णः। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य धः। (आभूषु) समन्ताद्भूषिता जना येन तत् (रामयत्) रामं रमणं कारयितृ (नि) नितराम् (दामनि) यः सुखानि ददाति तस्मिन् गृहाश्रमे॥3॥ अन्वयः—हे वरमिच्छुके कन्ये! यथा त्वं यस्तुर्वणिर्दुध्र आयसो महान् पौंस्ये तुजाऽऽभूष्वरेणु मदे रामयच्छवः प्राप्य गिरेर्भृष्टिरुन्नतो नेव भ्राजते तं शुष्णं मायिनं जनं दामनि निबध्नासि तथा स वरोऽपि तेन त्वां निबध्नीयात्॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। स विवाह उत्तमो यत्र समानरूपशीलौ कन्यावरौ स्यातां परन्तु कन्यायाः सकाशाद् वरस्य बलायुषी द्विगुणे सार्द्धैकगुणे वा भवेताम्॥3॥ पदार्थः—हे उत्तम वर की इच्छा करनेहारी कन्या! जैसे तू जो (तुर्वणिः) शीघ्र सुखकारी (दुध्रः) बल से पूर्ण (आयसः) विज्ञान से युक्त (महान्) सर्वोत्कृष्ट (पौंस्ये) पुरुषार्थ युक्त व्यवहार में प्रवीण (तुजा) दुःखों का नाशक (आभूषु) सब प्रकार सबको सुभूषित कारक (अरेणु) क्षयरहित कर्म को (मदे) हर्षित होने में (रमयत्) क्रीड़ा का हेतु (शवः) उत्तम बल को प्राप्त हो के (न) जैसे (गिरेः) मेघ के (भृष्टिः) उत्तम शिखर (भ्राजते) प्रकाशित होते हैं, वैसे (तम्) उस (शुष्णम्) बलयुक्त (मायिनम्) अत्युत्तम बुद्धिमान् वर को (येन) जिस बल से (दामनि) सुखदायक गृहाश्रम में स्वीकार करती हो, वैसे (सः) वह वर भी तुझे उसी बल से प्रेमबद्ध करे॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। अति उत्तम विवाह वह है, जिसमें तुल्य रूप स्वभाव युक्त कन्या और वर का सम्बन्ध होवे, परन्तु कन्या से वर का बल और आयु दूना वा ड्योढ़ा होना चाहिये॥3॥ पुनस्तौ कीदृशौ स्यातामित्याह॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ दे॒वी यदि॒ तवि॑षी॒ त्वावृ॑धो॒तय॒ इन्द्रं॒ सिष॑क्त्यु॒षसं॒ न सूर्यः॑। यो धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा॒ बाध॑ते॒ तम॒ इय॑र्ति रे॒णुं बृ॒हद॑र्हरि॒ष्वणिः॑॥4॥ दे॒वी। यदि॑। तवि॑षी। त्वाऽवृ॑धा। ऊ॒तये॑। इन्द्र॑म्। सिष॑क्ति। उ॒षस॑म्। न। सूर्यः॑। यः। धृ॒ष्णुना॑। शव॑सा। बाध॑ते। तमः॑। इय॑र्ति। रे॒णुम्। बृ॒हत्। अ॒र्ह॒रि॒ऽस्वनिः॑॥4॥ पदार्थः—(देवी) दिव्यगुणैर्वर्त्तमाना स्त्री (यदि) चेत् (तविषी) बलादिगुणयुक्ता (त्वावृधा) या त्वां वर्धयते सा (ऊतये) रक्षणाद्याय (इन्द्रम्) परमसुखप्रदं पतिम् (सिषक्ति) समवैति (उषसम्) प्रत्युषःकालम् (न) इव (सूर्य्यः) सविता (यः) (धृष्णुना) धृष्टेन दृढेन (शवसा) बलेन (बाधते) निवर्त्तयति (तमः) रात्रिम् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (रेणुम्) विद्यादिशुभप्राप्तम् (बृहत्) महत् (अर्हरिष्वणिः) योऽर्हान् हिंसकाँश्च सम्भजति सः॥4॥ अन्वयः—हे स्त्रियोऽर्हरिष्वणिर्धृष्णुना शवसोषसं प्राप्य सूर्यो बृहत्तमो न दुःखं बाधते। हे पुरुष! यदि त्वावृधा तविषी देवी रेणुं त्वामिर्यत्यूतये इन्द्रं त्वा सिषक्ति स सा च युवां परस्परस्यानन्दाय सततं वर्त्तेयाथाम्॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदा स्त्रीप्रियः पुरुषः पुरुषप्रिया भार्या च भवेत्तदैव मङ्गलं वर्द्धेत॥4॥ पदार्थः—हे स्त्रि! (यः) जो (अर्हरिष्वणिः) अहिंसक, धार्मिक और पापी लोगों का विवेककर्त्ता पुरुष (धृष्णुना) दृढ़ (शवसा) बल से (न) जैसे (सूर्य्यः) रवि (उषसम्) प्रातःसमय को प्राप्त हो के (बृहत्) बड़े (तमः) अन्धकार को दूर कर देता है, वैसे तेरे दुःख को दूर कर देता है। हे पुरुष! (यदि) जो (त्वावृधा) तुझे सुख से बढ़ाने हारी (तविषी) पूर्ण बलयुक्त (देवी) विदुषी अतीव प्रिया स्त्री (रेणुम्) रमणीय स्वरूप तुझ को (इयर्त्ति) प्राप्त होती है और (ऊतये) रक्षादि के वास्ते (इन्द्रम्) परम सुखप्रद तुझे (सिषक्ति) उत्तम सुख से युक्त करती है, सो तू और वह स्त्री तुम दोनों एक-दूसरे के आनन्द के लिये सदा वर्त्ता करो॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जब स्त्री से प्रसन्न पुरुष और पुरुष से प्रसन्न स्त्री होवे, तभी गृहाश्रम में निरन्तर आनन्द होवे॥4॥ पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वि यत्ति॒रो ध॒रुण॒मच्यु॑तं॒ रजोऽति॑ष्ठिपो दि॒व आता॑सु ब॒र्हणा॑। स्व॑र्मीळ्हे॒ यन्मद॑ इन्द्र॒ हर्ष्याह॑न् वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जो अर्ण॒वम्॥5॥ वि। यत्। ति॒रः। ध॒रुण॑म्। अच्यु॑तम्। रजः॑। अति॑स्थिपः। दि॒वः। आता॑सु। ब॒र्हणा॑। स्वः॑ऽमीळ्हे। यत्। मदे॑। इ॒न्द्र॒। हर्ष्या॑। अह॑न्। वृ॒त्रम्। निः। अ॒पाम्। औ॒ब्जः॒। अ॒र्ण॒वम्॥5॥ पदार्थः—(वि) विशेषार्थे (यत्) यम् (तिरः) तिरस्करणे (धरुणम्) आधारकम् (अच्युतम्) कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशि (रजः) पृथिव्यादिलोकजातम् (अतिष्ठिपः) संस्थापयेः (दिवः) प्रकाशादाकर्षणाद्वा (आतासु) सर्वासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.6) (बर्हणा) बृह्यते येन तत् (स्वर्मीढे) स्वः किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मादन्तरिक्षात् तस्मिन् (यत्) तम् (मदे) माद्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्य्यकारक (हर्ष्या) हर्षं जनितुं योग्यानि कर्माणि कुर्वन् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (औब्जः) य उब्जत्यार्जवी करोति तेन निर्वृत्तः सः (अर्णवम्) समुद्रम्॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यथौब्जो सूर्य्यलोको दिव आतासु तिरो बर्हणाऽच्युतं धरुणं रजो व्यतिष्ठिपो व्यवस्थापयति मदे स्वर्मीढेऽन्तरिक्षे हर्ष्या हर्षकराणि कर्माणि कुर्वन् यद्यं वृत्रमहन्नपामर्वणं निर्वर्त्तयति यथा स्वराज्यन्यायौ धृत्वा शत्रून् हत्वा पत्न्या आनन्दं जनय॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोकः स्वप्रकाशाकर्षणादिगुणैः सर्वाल्ँलोकान् स्वस्वकक्षासु भ्रामयन् सर्वासु दिक्षु स्वतेजसा रसं हृत्वा वर्षां जनयन् प्रजापालनहेतुर्वर्त्तते तथा स्त्रीपुरुषाभ्यां वर्त्तितव्यम्॥5॥ पदार्थः—हे परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्र) सभेश! जैसे (औब्जः) कोमल करने वाले से सिद्ध हुआ (यत्) जो सूर्य (दिवः) प्रकाश वा आकर्षण से (आतासु) दिशाओं में (तिरः) तिरछा किया हुआ (बर्हणा) वृद्धि युक्त (अच्युतम्) कारणरूप वा प्रवाहरूप से अविनाशि (धरुणम्) आधारकर्त्ता (रजः) पृथिवी आदि सब लोकों को (व्यतिष्ठिपः) विशेष करके स्थापन करता और (मदे) आनन्दयुक्त (स्वर्मीढे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (हर्ष्या) हर्ष उत्पन्न कराने योग्य कर्मों को करता हुआ (यत्) जिस (वृत्रम्) मेघ को (अहन्) नष्ट कर (आतासु) दिशाओं में (अपाम्) जलों के सकाश से (अर्णवम्) समुद्र को सिद्ध करता है, वैसे अपने राज्य और न्याय को धारण कर शत्रुओं को मार अपनी स्त्री को आनन्द दिया कर॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपने प्रकाश और आकर्षणादि गुणों से सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कराता, सब दिशाओं में अपना तेज वा रस को विस्तार और वर्षा को उत्पन्न करता हुआ प्रजा के पालन का हेतु होता है, वैसे स्त्री-पुरुषों को भी वर्त्तना चाहिये॥5॥ पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं दि॒वो ध॒रुणं॑ धिष॒ ओज॑सा पृथि॒व्या इ॑न्द्र॒ सद॑नेषु॒ माहि॑नः। त्वं सु॒तस्य॒ मदे॑ अरिणा अ॒पो वि वृ॒त्रस्य॑ स॒मया॑ पा॒ष्या॑रुजः॥6॥21॥ त्वम्। दि॒वः। ध॒रुण॑म्। धि॒षे॒। ओज॑सा। पृ॒थि॒व्याः। इ॒न्द्र॒। सद॑नेषु। माहि॑नः। त्वम्। सु॒तस्य॑। मदे॑। अ॒रि॒णाः॒। अ॒पः। वि। वृ॒त्रस्य॑। स॒मया॑। पा॒ष्या॑। अ॒रु॒जः॒॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) दिव्यगुणसमूहान् (धरुणम्) सर्वमूर्त्तद्रव्याणामाधारम् (धिषे) दधासि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे॰ इति द्विर्वचनाभावः। (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) भूमे राज्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक (सदनेषु) गृहादिषु (माहिनः) पूज्या महत्त्वगुणविशिष्टाः (त्वम्) शत्रुविनाशकः (सुतस्य) सम्पादितस्य (मदे) आह्लादकारके व्यवहारे (अरिणाः) प्राप्नोसि (अपः) जलानि (वि) विशेषेण (वृत्रस्य) मेघस्य (समया) यथासमयम् (पाष्या) पेषणयोग्यानि कर्माणि। अत्र पिष्लृधातोर्ण्यत् वर्णव्यत्ययेन पूर्वस्याऽऽकारः सुपां सुलुग् इत्याकारादेशश्च। (अरुजः) आमर्दय॥6॥ अन्वयः—हे इन्द्र! माहिनस्त्वमोजसा यथा सूर्यो दिवः पृथिव्या धरुणं सदनेषु धरति तथा प्रजा धिषे यथेन्द्रो विद्युद् वृत्रस्य हननं कृत्वाऽपो वर्षति तथा त्वं सुतस्य मदे समया पाष्या शत्रून् व्यरुजः सुखमरिणाः॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यवन्न्यायं प्रकाश्य शत्रून्निवार्य्य प्रजाः पालयन्ति तथैवाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम्॥6॥ अत्र सूर्य्यविद्युद्गुणवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्येकविंशो 21 वर्गः षट्पञ्चाशं 56 सूक्तं च समाप्तम्॥56॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक सभाध्यक्ष! (माहिनः) पूजनीय महत्त्व गुणवाले (त्वम्) आप (ओजसा) बल से जैसे सविता (दिवः) दिव्यगुणयुक्त प्रकाश से (पृथिव्याः) पृथिवी और पदार्थों का (धरुणम्) आधार है, वैसे (सदनेषु) गृहादिकों में (धिषे) धारण करते हो वा जैसे बिजुली (वृत्रस्य) मेघ को मार कर (अपः) जलों को वर्षाती है, वैसे (त्वम्) आप (सुतस्य) उत्पन्न हुए वस्तुओं के (मदे) आनन्दकारक व्यवहार में (समया) समय में (अपः) जलों की वर्षा से सुख देते हो, वैसे (पाष्या) अच्छे प्रकार चूर्ण करने रूप सिद्ध किये हुए रस के (मदे) आनन्दरूपी व्यवहार में (पाष्या) चूर्ण कारक क्रिया से शत्रुओं को (व्यरुजः) मरणप्रायः करके (अरिणाः) सुख को प्राप्त कीजिये॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् सूर्य्य के समान राज्य को सुप्रकाशित कर शत्रुओं का निवारण करके प्रजा का पालन करते हैं, वैसा ही हम सब लोगों को भी अनुष्ठान करना चाहिये॥6॥ इस सूक्त में सूर्य्य वा विद्वान् के गुण वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह इक्कीसवां 21 वर्ग और छप्पनवां 56 सूक्त समाप्त हुआ॥6॥

अथ षडृचस्य सप्तपञ्चाशस्य सूक्तस्याङ्गिरसः सव्य ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,2,4 जगती। 3 विराट्। 6 निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 5 भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। मध्यमः स्वरः॥ पुनः सभाध्यक्षो कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते॥ फिर सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम्॥1॥ प्र। मंहि॑ष्ठाय। बृ॒ह॒ते। बृ॒हत्ऽर॑ये। स॒त्यऽशु॑ष्माय। त॒वसे॑। म॒तिम्। भ॒रे॒। अ॒पाम्ऽइ॑व। प्र॒व॒णे। यस्य॑। दुः॒ऽधर॑म्। राधः॑। वि॒श्वऽआ॑यु। शव॑से। अप॑ऽवृतम्॥1॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टार्थे (मंहिष्ठाय) योऽतिशयेन मंहिता दाता तस्मै। मंह इति दानकर्मसु पठितम्। (निघं॰3.20) (बृहते) गुणैर्महते (बृहद्रये) बृहन्तो रायो धनानि यस्य तस्मै। अत्र वर्णव्यत्ययेन ऐकारस्य स्थान एकारः। (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं बलं यस्य तस्मै (तवसे) बलवते (मतिम्) विज्ञानम् (भरे) धरे (अपामिव) जलानामिव (प्रवणे) निम्ने (यस्य) सभाध्यक्षस्य (दुर्धरम्) शत्रुभिर्दुःखेन धर्तंु योग्यम् (राधः) विद्याराज्यसिद्धं धनम् (विश्वायु) विश्वं सर्वमायुर्यस्मात्तत् (शवसे) सैन्यबलाय (अपावृतम्) दानाय भोगाय वा प्रसिद्धम्॥1॥ अन्वयः—यथाऽहं यस्य सभाद्यध्यक्षस्य शवसे प्रवणेऽपामिवापावृतं विश्वायु दुर्धरं राधोऽस्ति, तस्मै सत्यशुष्माय तवसे बृहद्रये बृहते मंहिष्ठाय मतिं प्रभरे तथा यूयमपि संधारयत॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा जलमूर्ध्वाद्देशादागत्य निम्नदेशस्थं जलाशयं प्राप्य स्थिरं स्वच्छं भवति तथा नम्राय धार्मिकाय बलवते पुरुषार्थिने मनुष्यायाक्षयं धनं निश्चलं जायते। यो राज्यश्रियं प्राप्य सर्वहिताय विद्यावृद्धये शरीरात्मबलोन्नतये प्रददाति, तमेव शूरं प्रदातारं सभाशालासेनापतित्वे वयमभिषिञ्चेम॥1॥ पदार्थः—जैसे मैं यस्य जिस सभा आदि के अध्यक्ष के (शवसे) बल के लिये (प्रवणे) नीचे स्थान में (अपामिव) जलों के समान (अपावृतम्) दान वा भोग के लिये प्रसिद्ध (विश्वायु) पूर्ण आयुयुक्त (दुर्धरम्) दुष्ट जनों को दुःख से धारण करने योग्य (राधः) विद्या वा राज्य से सिद्ध हुआ धन है, उस (सत्यशुष्माय) सत्य बलों का निमित्त (तवसे) बलवान् (बृहद्रये) बड़े उत्तम-उत्तम धन युक्त (बृहते) गुणों से बड़े (मंहिष्ठाय) अत्यन्त दान करने वाले सभाध्यक्ष के लिये (मतिम्) विज्ञान को (प्रभरे) उत्तम रीति से धारण करता हूं, वैसे तुम भी धारण कराओ॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जल ऊंचे देश से आकर नीचे देश अर्थात् जलाशय को प्राप्त होके स्वच्छ, स्थिर होता है, वैसे नम्र, बलवान् पुरुषार्थी, धार्मिक, विद्वान् मनुष्य को प्राप्त हुआ विद्यारूप धन निश्चल होता है। जो राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हो के सबके हित, न्याय वा विद्या की वृद्धि तथा शरीर, आत्मा के बल की उन्नति के लिये देता है, उसी शूरवीर, विद्यादि देने वाले सभाशाला सेनापति मनुष्य का हम लोग अभिषेक करें॥1॥ पुनः विद्युद्वत्सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर बिजुली के दृष्टान्त से सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः। यत्पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑॥2॥ अध॑। ते॒। विश्व॑म्। अनु॑। ह॒। अ॒स॒त्। इ॒ष्टये॑। आपः॑। नि॒म्नाऽइ॑व। सव॑ना। ह॒विष्म॑तः। यत्। पर्व॑ते। न। स॒म्ऽअशी॑त। ह॒र्य॒तः। इन्द्र॑स्य। वज्रः॒। श्नथि॑ता। हि॒र॒ण्ययः॑॥2॥ पदार्थः—(अध) आनन्तर्ये (ते) तव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) अनुयोगे (ह) निश्चये (असत्) भवेत् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (आपः) जलानि (निम्नेव) यथा निम्नानि स्थानानि गच्छन्ति तथा (सवना) ऐश्वर्याणि (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य (यत्) यस्य (पर्वते) गिरौ मेघे वा (न) इव (समशीत) सम्यग् व्याप्नुयात्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (हर्यतः) गमयिता कमनीयो वा (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) ऊष्मसमूहः (श्नथिता) हिंसिता (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः॥2॥ अन्वयः—यद्यस्य हविष्मतो जनस्येन्द्रस्य हिरण्ययो ज्योतिर्मयो वज्रः पर्वते श्नथिता नेव हर्यतो व्यवहारः समशीताध ते समाश्रयेन विश्वं सर्वं जगत्सवनाऽऽपो निम्नेवेष्टये ह खल्वन्वसत् सोऽस्माभिः समाश्रयितव्यः॥2॥ भावार्थः—अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शैलं मेघं वा समाश्रित्य सिंहादयो जलानि वा रक्षितानि स्थिराणि जायन्ते, तथैव सभाद्यध्यक्षाश्रयेण प्रजाः स्थिरानन्दा भवन्ति॥2॥ पदार्थः—(यत्) जिस (हविष्मतः) उत्तम दानग्रहणकर्त्ता (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य वाले सभाध्यक्ष का (हिरण्ययः) ज्योतिःस्वरूप (वज्रः) शस्त्ररूप किरणें (पर्वते) मेघ में (न) जैसे (श्नथिता) हिंसा करने वाला होता है, वैसे (हर्यतः) उत्तम व्यवहार (समशीत) प्रसिद्ध हो (अध) इसके अनन्तर (ते) आप के समाश्रय से (विश्वम्) सब जगत् (सवना) ऐश्वर्य को (आपः) जल (निम्नेव) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (इष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये (ह) निश्चय करके (अन्वसत्) हो उसी सभाध्यक्ष वा बिजुली का हम सब मनुष्यों को समाश्रय वा उपयोग करना चाहिये॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पर्वत वा मेघ का समाश्रय कर सिंह आदि वा जल रक्षा को प्राप्त होकर स्थित होते हैं, जैसे नीचे स्थानों में रहने वाला जलसमूह सुख देने वाला होता है, वैसे ही सभाध्यक्ष के आश्रय से प्रजा की रक्षा तथा बिजुली की विद्या से शिल्प विद्या की सिद्धि को प्राप्त होकर सब प्राणी सुखी होवें॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे। यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से॥3॥ अ॒स्मै। भी॒माय॑। नम॑सा। सम्। अ॒ध्व॒रे। उषः॑। न। शु॒भ्रे॒। आ। भ॒र॒। पनी॑यसे। यस्य॑। धाम॑। श्रव॑से। नाम। इ॒न्द्रि॒यम्। ज्योतिः॑। अका॑रि। ह॒रितः॑। न। अय॑से॥3॥ पदार्थः—(अस्मै) सभाध्यक्षाय (भीमाय) दुष्टानां भयंकराय (नमसा) सत्कारेण (सम्) सम्यगर्थे (अध्वरे) अहिंसानीये धर्मे यज्ञे (उषः) उषाः। अत्र सुपाम् इति विभक्तेर्लुक्। (न) इव (शुभ्रे) शोभमाने सुखे (आ) समन्तात् (भर) धर (पनीयसे) यथायोग्यं व्यवहारं कुर्वते स्तोतुमर्हाय (यस्य) उक्तार्थस्य (धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिंस्तत् (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (नाम) प्रख्यातिः (इन्द्रियम्) प्रशस्तं बुद्ध्यादिकं चक्षुरादिकं वा (ज्योतिः) न्यायविनयप्रचारकम् (अकारि) क्रियते (हरितः) दिशः (न) इव (अयसे) विज्ञानाय। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.6)॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्य! त्वं यस्य धाम श्रवसेऽस्ति येनायसे हरितो न येन नामेन्द्रियं ज्योतिकारि क्रियतेऽस्मै भीमाय पनीयसे शुभ्र अध्वर उषो न प्रातःकाल इव नमसा समाभर॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा प्रातःकालः सर्वान्धकारं निवार्य सर्वान् प्रकाश्याह्लादयति तथैव अन्यायविनाशको गुणाधिक्येन प्रशंसितः सत्कृत्य संग्रामादिव्यवहारे संस्थाप्यः। यथा दिशो व्यवहारं प्रज्ञापयन्ति तथैव विद्यासुशिक्षासेनाविनयन्यायानुष्ठानादिना सर्वान् भूषयित्वा धनान्नादिभिः संयोज्य सततं सुखयेत्। स एव सभाद्यधिकारे प्रधानः कर्त्तव्यः॥3॥ पदार्थः—हे विद्वान् मनुष्य! तू (यस्य) जिस सभाध्यक्ष का (धाम ) विद्यादि सुखों का धारण करने वाला (श्रवसे) श्रवण वा अन्न के लिये है, जिसने (अयसे) विज्ञान के वास्ते (हरितः) दिशाओं के (न) समान (नाम) प्रसिद्ध (इन्द्रियम्) प्रशंसनीय बुद्धिमान् आदि वा चक्षु आदि (अकारि) किया है (अस्मै) इस (भीमाय) दुष्ट वा पापियों को भय देने (पनीयसे) यथायोग्य व्यवहार, स्तुति करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (शुभ्रे) शोभायमान शुद्धिकारक (अध्वरे) अहिंसनीय धर्मयुक्त यज्ञ (उषः) प्रातःकाल के (न) समान (नमसा) नमस्ते वाक्य के साथ (समाभर) अच्छे प्रकार धारण वा पोषण कर॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को समुचित है कि जैसे प्रातःकाल सब अन्धकार को निवारण और सबको प्रकाश से आनन्दित करता है, वैसे ही शत्रुओं को भय करने वाले मनुष्य को गुणों की अधिकता से स्तुति, सत्कार वा संग्रामादि व्यवहारों में स्थापन करें। जैसे दिशा व्यवहार की जाननेहारी होती है, वैसे ही जो विद्या उत्तम शिक्षा, सेना, विनय, न्यायादि से सबको सुभूषित धन अन्न आदि से संयुक्त कर सुखी करे, उसी को सभा आदि अधिकारों में सब मनुष्यों को अधिकार देवें॥3॥ अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है॥ इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त् क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑॥4॥ इ॒मे। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। ये। त्वा॒। आ॒ऽरभ्य॑। चरा॑मसि। प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो। न॒हि। त्वत्। अ॒न्यः। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। सघ॑त्। क्षो॒णीःऽइ॑व। प्रति॑। नः॒। ह॒र्य॒। तत्। वचः॑॥4॥ पदार्थः—(इमे) सर्वे प्रत्यक्षा मनुष्याः (ते) तव (इन्द्र) जगदीश्वर (ते) सर्वे परोक्षाः (वयम्) सर्वे मिलित्वा (पुरुष्टुत्) पुरुभिर्बहुभिः स्तुतस्तत्सम्बुद्धौ (ये) पूर्वोक्ताः (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) त्वत्सामर्थ्यमाश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) प्रभूः सर्वसमर्थश्च वसुः सुखेषु वासप्रदश्चासौ तत्सम्बुद्धौ (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) भिन्नस्त्वत्सदृक् (गिर्वणः) योगीभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिर्वाग्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ। अत्र गिरुपदाद्वनधातोरौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (गिरः) वाचः (सघत्) हिंसन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (क्षोणीरिव) यथा पृथिवीः। क्षोणीरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (प्रति) प्राप्त्यर्थे (न) अस्मभ्यम् (हर्य) कमनीय सर्वसुखप्रापक (तत्) वक्ष्यमाणम् (वचः) उपदेशकारकं वेदवचनम्॥4॥ अन्वयः—हे प्रभूवसो! गिर्वणः पुरुष्टुत हर्येन्द्र जगदीश्वर ते तव कृपासहायेनेमे वयं सघत् क्षोणीरिव त्वारभ्य पृथिवीराज्यं चरामसि त्वं नोऽस्मभ्यं गिरः श्रुधि त्वदन्यः कश्चिदपि नो रक्षक इति नहि विजानीमो यच्च भवदुक्तं वेदवचस्तद्वयमाश्रयेम॥4॥ भावार्थः—ये मनुष्या परब्रह्मणो भिन्नं वस्तूपास्यत्वेन नाङ्गीकुर्वन्ति तदुक्तवेदाभिहितं मतं विहायान्यन्नैव मन्यन्ते त एवात्र पूज्या जायन्ते॥4॥ पदार्थः—हे (प्रभूवसो) समर्थ वा सुखों में वास देने (गिर्वणः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणियों से सेवनीय (पुरुष्टुत) बहुतों से स्तुति करने वाले (हर्य) कमनीय वा सर्वसुखप्रापक (इन्द्र) जगदीश्वर! (ते) आपकी कृपा के सहाय से हम लोग (सघत्) (क्षोणीरिव) जैसे शूरवीर शत्रुओं को मारते हुए पृथिवी राज्य को प्राप्त होते हैं, वैसे (नः) हम लोगों के लिये (गिरः) वेद विद्या से अधिष्ठित वाणियों को प्राप्त कराने की इच्छा करने वाले (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न (नहि) कोई भी नहीं है (तत्) उन (वचः) वचनों को सुन कर वा प्राप्त करा जो (इमे) ये सन्मुख मनुष्य वा (ये) जो (ते) दूर रहने वाले मनुष्य और (वयम्) हम लोग परस्पर मिलकर (ते) आप के शरण होकर (त्वारभ्य) आप के सामर्थ्य का आश्रय करके निर्भय हुए (प्रतिचरामसि) परस्पर सदा सुखयुक्त विचरते हैं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे शूरवीर शत्रुओं के बलों को निवारण और राज्य को प्राप्त कर सुखों को भोगते हैं, वैसे ही हे जगदीश्वर! हम लोग अद्वितीय आप का आश्रय करके सब प्रकार विजय वाले होकर विद्या की वृद्धि को कराते हुए सुखी होते हैं॥4॥ पुनः सः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ भूरि॑ त इन्द्र वी॒र्यं तव॑ स्मस्य॒स्य स्तो॒तुर्म॑घव॒न्काम॒मा पृ॑ण। अनु॑ ते॒ द्यौर्बृ॑ह॒ती वी॒र्यं॑ मम इ॒यं च॑ ते पृथि॒वी ने॑म॒ ओज॑से॥5॥ भूरि॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। वी॒र्य॑म्। तव॑। स्म॒सि॒। अ॒स्य। स्तो॒तुः। म॒घ॒ऽव॒न्। काम॑म्। आ। पृ॒ण॒। अनु॑। ते॒। द्यौः। बृ॒ह॒ती। वी॒र्य॑म्। म॒मे॒। इ॒यम्। च॒। ते॒। पृ॒थि॒वी। ने॒मे॒। ओज॑से॥5॥ पदार्थः—(भूरि) बहु (ते) तव (इन्द्र) परमात्मन् (वीर्य्यम्) बलं पराक्रमो वा (तव) (स्मसि) स्मः (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (स्तोतुः) गुणप्रकाशकस्य (मघवन्) परमपूज्य (कामम्) इच्छाम् (आ) समन्तात् (पृण) प्रपूर्द्धि (अनु) पश्चात् (ते) तव (द्यौः) सूर्यादिः (बृहती) महती (वीर्य्यम्) पराक्रमम् (ममे) मिमीते (इयम्) वक्ष्यमाणा (च) समुच्चये (ते) तव (पृथिवी) भूमिः (नेमे) प्रह्वीभूता भवति (ओजसे) बलयुक्ताय॥5॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! यस्य ते तव यद्भूरि वीर्य्यमस्ति यद्वयं स्मसि यस्य तवेयं बृहती द्यौः पृथिवी चौजसे नेमे भोगाय प्रह्वीभूता नम्रेव भवति, स त्वमस्य स्तोतुः काममापृण॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैरीश्वरस्यानन्तं वीर्य्यमाश्रित्य कामसिद्धिं पृथिवीराज्यं सम्पाद्य सततं सुखयितव्यम्॥5॥ पदार्थः—हे (मघवन्) उत्तम धनयुक्त (इन्द्र) सेनादि बल वाले सभाध्यक्ष! जिस (ते) आप का जो (भूरि) बहुत (वीर्यम्) पराक्रम है, जिस के हम लोग (स्मसि) आश्रित और जिस (तव) आपकी (इयम्) यह (बृहती) बड़ी (द्यौः) विद्या, विनययुक्त न्यायप्रकाश और राज्य के वास्ते (पृथिवी) भूमि (ओजसे) बलयुक्त के लिये और भोगने के लिये (नेमे) नम्र के समान है, वह आप (अस्य) इस (स्तोतुः) स्तुति कर्त्ता के (कामम्) कामना को (आपृण) परिपूर्ण करें॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर का आश्रय करके सब कामनाओं की सिद्धि वा पृथिवी के राज्य की प्राप्ति करके निरन्तर सुखी रहें॥5॥ पुनस्तदुपासकः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वर का उपासक कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॒ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ। अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑॥6॥22॥10॥ त्वम्। तम्। इ॒न्द्र॒। पर्व॑तम्। म॒हाम्। उ॒रुम्। वज्रे॑ण। व॒ज्रि॒न्। प॒र्व॒ऽशः। च॒क॒र्ति॒थ॒। अव॑। अ॒सृ॒जः॒। निऽवृ॑ताः। सर्त॒वै। अ॒पः। स॒त्रा। विश्व॑म्। द॒धि॒षे॒। केव॑लम्। सहः॑।॥6॥ पदार्थः—(त्वम्) सेनेशः (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक (पर्वतम्) मेघाश्रितं जलमिव पर्वताश्रितं शत्रुम् (महाम्) पूज्यतमम् (उरुम्) बहुबलादिगुणविशिष्टिम् (वज्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्रसमूहेन (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) अङ्गमङ्गम् (चकर्तिथ) कृन्तसि (अव) विनिग्रहे (असृजः) सृज (निवृताः) निवारिताः (सर्तवै) सर्त्तंु गन्तुम् (अपः) जलानीव (सत्रा) सत्यकारणरूपेणाविनाशि। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) (विश्वम्) जगत् (दधिषे) धरसि (केवलम्) असहायम् (सहः) बलम्॥6॥ अन्वयः—हे वज्रिन्निन्द्र! यस्त्वं महामुरुं वीराणां पूज्यतमां सेनामवासृजो वज्रेण यथा सूर्यः पर्वतं छित्वा निवृता अपस्तथा शत्रुसमूहं पर्वशश्चकर्त्तिथाङ्गमङ्गं कृन्तसि निवारयसि सत्रा विश्वं केवलं सहश्च सर्तवै दधिषे तन्त्वां सभाद्यधिपतिं वयं गृह्णीमः॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः शत्रूणां छेत्ता प्रजापालनतत्परो बलविद्यायुक्तोऽस्ति, स एव सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः॥6॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निसभाध्यक्षादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या॥ इति द्वाविंशो 22 वर्गः सप्तपञ्चाशं 57 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (वज्रिन्) प्रशस्त शस्त्रविद्यावित् (इन्द्र) दुष्टों के विदारण करनेहारे सभाध्यक्ष! जो (त्वम्) आप (महाम्) श्रेष्ठ (उरुम्) बड़ी वीर पुरुषों की सत्कार के योग्य उत्तम सेना को (अवासृजः) बनाइये और (वज्रेण) वज्र से जैसे सूर्य्य (पर्वतम्) मेघ को छिन्न-भिन्न कर (निवृताः) निवृत्त हुए (अपः) जलों को धारण करता और पुनः पृथिवी पर गिराता है, वैसे शत्रुदल को (पर्वशः) अङ्ग अङ्ग से (चकर्त्तिथ) छिन्न-भिन्न कर शत्रुओं का निवारण करते हो (सत्रा) कारणरूप से सत्यस्वरूप (विश्वम्) जगत् को अर्थात् राज्य को धारण करके (केवलम्) असहाय (सहः) बल को (सर्त्तवै) सबको सुख से जाने-आने के न्यायमार्ग में चलने को (दधिषे) धरते हो (तम्) उस आपको सभा आदि के पति हम लोग स्वीकार करते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो शत्रुओं के छेदन, प्रजा के पालन में तत्पर, बल और विद्या से युक्त है, उसी को सभा आदि का रक्षक अधिष्ठाता स्वामी बनावें॥6॥ इस सूक्त में अग्नि और सभाध्यक्ष आदि के गुणों के वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह बाईसवां 22 वर्ग और सत्तावनवां 57 सूक्त समाप्त हुआ॥

अथ नवर्चस्याष्टपञ्चाशस्य सूक्तस्य गौतमो नोधा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,5, जगती। 2 विराड्जगती। 4 निचृज्जगती च छन्दः। निषादः स्वरः। 3 त्रिष्टुप्। 6,7,9 निचृत्त्रिष्टुप्। 8 विराड्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथाऽग्निदृष्टान्तेन जीवगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अट्ठावनवें सूक्त का आरम्भ है। उस के पहिले मन्त्र में अग्नि के दृष्टान्त से जीव के गुणों का उपदेश किया है॥ नू चि॑त्सहो॒जा अ॒मृतो॒ नि तु॑न्दते॒ होता॒ यद्दू॒तो अभ॑वद्वि॒वस्व॑तः। वि साधि॑ष्ठेभिः प॒थिभी॒ रजो॑ मम॒ आ दे॒वता॑ता ह॒विषा॑ विवासति॥1॥ नु। चि॒त्। स॒हः॒ऽजाः। अ॒मृतः॑। नि। तु॒न्द॒ते॒। होता॑। यत्। दू॒तः। अभ॑वत्। वि॒वस्व॑तः। वि। साधि॑ष्ठेभिः। प॒थिऽभिः॑। रजः॑। म॒मे॒। आ। दे॒वऽता॑ता। ह॒विषा॑। वि॒वा॒स॒ति॒॥1॥ पदार्थः—(नु) शीघ्रम् (चित्) इव (सहोजाः) यः सहसा बलेन प्रसिद्धः (अमृतः) नाशरहितः (नि) नितराम् (तुन्दते) व्यथते। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नुमागमः। (होता) अत्ता खल्वादाता (यत्) यः (दूतः) उपतप्ता देशान्तरं प्रापयिता (अभवत्) भवति (विवस्वतः) परमेश्वरस्य (वि) विशेषार्थे (साधिष्ठेभिः) अधिष्ठोऽधिष्ठानं समानमधिष्ठानं येषां तैः (पथिभिः) मार्गैः (रजः) पृथिव्यादिलोकसमूहम् (ममे) मिमीते (आ) सर्वतः (देवताता) देवा एव देवतास्तासां भावः (हविषा) आदत्तेन देहेन (विवासति) परिचरति॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यद्यश्चिद्विद्युदिवाऽमृतः सहोजा होता दूतोऽभवद् देवताता साधिष्ठेभिः पथिभी रजो नु निर्मातुर्विवस्वतो मध्ये वर्त्तमानः सन् हविषा सह विवासति स्वकीये कर्मणि व्याममे स जीवात्मा वेदितव्यः॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयमनादौ सच्चिदानन्दस्वरूपे सर्वशक्तिमति स्वप्रकाशे सर्वाऽऽधारेऽखिल- विश्वोत्पादके देशकालवस्तुपरिच्छेदशून्ये सर्वाभिव्यापके परमेश्वरे नित्येन व्याप्यव्यापकसम्बन्धेन योऽनादि- र्नित्यश्चेतनोऽल्पोऽल्पज्ञोऽस्ति स एव जीवो वर्त्तत इति बोध्यम्॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जो (चित्) विद्युत् के समान स्वप्रकाश (अमृतः) स्वस्वरूप से नाशरहित (सहोजाः) बल को उत्पादन करने हारा (होता) कर्मफल का भोक्ता सब मन और शरीर आदि का धर्त्ता (दूतः) सबको चलाने हारा (अभवत्) होता है (देवताता) दिव्यपदार्थों के मध्य में दिव्यस्वरूप (साधिष्ठेभिः) अधिष्ठानों से सह वर्त्तमान (पथिभिः) मार्गो से (रजः) पृथिवी आदि लोकों को (नु) शीघ्र बनाने हारे (विवस्वतः) स्वप्रकाश स्वरूप परमेश्वर के मध्य में वर्त्तमान होकर (हविषा) ग्रहण किये हुए शरीर से सहित (नि तुन्दते) निरन्तर जन्म-मरण आदि में पीड़ित होता और अपने कर्मों के फलों का (विवासति) सेवन और अपने कर्म में (व्याममे) सब प्रकार से वर्त्तता है, सो जीवात्मा है, ऐसा तुम लोग जानो॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्यो लोगो! तुम अनादि अर्थात् उत्पत्तिरहित, सत्यस्वरूप, ज्ञानमय, आनन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान्, स्वप्रकाश, सबको धारण और सबके उत्पादक, देश-काल और वस्तुओं के परिच्छेद से रहित और सर्वत्र व्यापक परमेश्वर में नित्य व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से जो अनादि, नित्य, चेतन, अल्प, एक देशस्थ और अल्पज्ञ है, वही जीव है, ऐसा निश्चित जानो॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ आ स्वमद्म॑ यु॒वमा॑नो अ॒जर॑स्तृ॒ष्व॑वि॒ष्यन्न॑त॒सेषु॑ तिष्ठति। अत्यो॒ न पृ॒ष्ठं प्रु॑षि॒तस्य॑ रोचते दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय॑न्नचिक्रदत्॥2॥ आ। स्वम्। अद्म॑। यु॒वमा॑नः। अ॒जरः॑। तृ॒षु। अ॒वि॒ष्यन्। अ॒त॒सेषु॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। अत्यः॑। न। पृ॒ष्ठम्। प्रु॒षि॒तस्य॑। रोच॒ते॒। दि॒वः। न। सानु॑। स्त॒नय॑न्। अ॒चि॒क्र॒द॒त्॥2॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (स्वम्) स्वकीयम् (अद्म) अत्तुमर्हं कर्मफलम् (युवमानः) संयोजको भेदकश्च। अत्र विकरणव्यत्ययेन श आत्मनेपदं च। (अजरः) स्वस्वरूपेण जीर्णावस्थारहितः (तृषु) शीघ्रम्। तृष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15) (अविष्यन्) रक्षणादिकं करिष्यन् (अतसेषु) विस्तृतेष्वाकाशपवनादिषु पदार्थेषु (तिष्ठति) वर्त्तते (अत्यः) अश्वः (न) इव (पृष्ठम्) पृष्ठभागम् (प्रुषितस्य) स्निग्धस्य मध्ये (रोचते) प्रकाशते (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (न) इव (सानु) मेघस्य शिखरः (स्तनयन्) शब्दयन् (अचिक्रदत्) विकलयति॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्याः! यूयं यो युवमानोऽजरो देहादिकमविष्यन्नतसेषु तिष्ठति प्रुषितस्य पूर्णस्य मध्ये स्थितः सन् पृष्ठमत्यो न देहादि वहति सानु दिवो न रोचते विद्युत् स्तनयन्निवाचिक्रदत् स्वमद्म तृष्वाभुङ्क्ते स देही जीव इति मन्तव्यम्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः पूर्णेनेश्वरेण धृत आकाशादिषु प्रयतते सर्वान् बुध्यादीन् प्रकाशते ईश्वरनियोगेन स्वकृतस्य शुभाशुभाचरितस्य कर्मणः सुखदुःखात्मकं फलं भुङ्क्ते, सोऽत्र शरीरे स्वतन्त्रकर्त्ता भोक्ता जीवोऽस्तीति मनुष्यैर्वेदितव्यम्॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जो (युवमानः) संयोग और विभाग कर्त्ता (अजरः) जरादि रोगरहित देह आदि की (अविष्यन्) रक्षा करने वाला होता हुआ (अतसेषु) आकाशादि पदार्थों में (तिष्ठति) स्थित होता (प्रुषितस्य) पूर्ण परमात्मा में कार्य्य का सेवन करता हुआ (न) जैसे (अत्यः) घोड़ा (पृष्ठम्) अपनी पीठ पर भार को बहाता है, वैसे देहादि को बहाता है (न) जैसे (दिवः) प्रकाश से (सानु) पर्वत के शिखर वा मेघ की घटा प्रकाशित होती है, वैसे (रोचते) प्रकाशमान होता है, जैसे (स्तनयन्) बिजुली शब्द करती है, वैसे (अचिक्रदत्) सर्वथा शब्द करता है, जो (स्वम्) अपने किये (अद्म) भोक्तव्य कर्म को (तृषु) शीघ्र (आ) सब प्रकार से भोगता है, वह देह का धारण करने वाला जीव है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पूर्ण ईश्वर ने धारण किया, आकाशादि तत्त्वों में प्रयत्नकर्त्ता, सब बुद्धि आदि का प्रकाशक, ईश्वर के न्याय-नियम से अपने किये शुभाशुभ कर्म के सुखदुःखरूप फल को भोगता है, सो इस शरीर में स्वतन्त्रकर्ता भोक्ता जीव है, ऐसा सब मनुष्य जानें॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ क्रा॒णा रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिः पु॒रोहि॑तो॒ होता॒ निष॑त्तो रयि॒षाळम॑र्त्यः। रथो॒ न वि॒क्ष्वृ॑ञ्जसा॒न आ॒युषु॒ व्या॑नु॒षग्वार्या॑ दे॒व ऋ॑ण्वति॥3॥ क्रा॒णा। रु॒द्रेभिः॑। वसु॑ऽभिः। पु॒रःऽहि॑तः। होता॑। निऽस॑त्तः। र॒यि॒षाट्। अम॑र्त्यः। रथः॑। न। वि॒क्षु। ऋ॒ञ्ज॒सा॒नः। आ॒युषु॑। वि। आ॒नु॒षक्। वार्या॑। दे॒वः। ऋ॒ण्व॒ति॒॥3॥ पदार्थः—(क्राणा) कर्त्ता। अत् कृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः। सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशश्च। (रुद्रेभिः) प्राणैः (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः सहः (पुरोहितः) पूर्वं ग्रहीता (होता) अत्ता (निषत्तः) स्थितः (रयिषाट्) यो रयिं द्रव्यं सहते (अमर्त्यः) नाशरहितः (रथः) रमणीयस्वरूपः (न) इव (विक्षु) प्रजासु (ऋञ्जसानः) य ऋञ्जति प्रसाध्नोति सः। अत्र ऋञ्जिवृधिमदि॰ (उणा॰2.87) अनेन सानच् प्रत्ययः। (आयुषु) बाल्यावस्थासु (वि) विशिष्टार्थे (आनुषक्) अनुकूलतया (वार्या) वर्त्तुं योग्यानि वस्तूनि (देवः) देदीप्यमानः (ऋण्वति) कर्माणि साध्नोति॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यो रुद्रेभिर्वसुभिः सह निषत्तो होता पुरोहितो रयिषाडमर्त्यः क्राणा ऋञ्जसानो विक्षु रथो नेवायुष्वानुषग्वार्य्या व्यृण्वति साध्नोति, स एव देवो जीवात्माऽस्तीति यूयं विजानीत॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये पृथिव्यां प्राणैश्चेष्टन्ते, मनोऽनुकूलेन रथेनेव शरीरेण सह रमन्ते, श्रेष्ठानि वस्तूनि सुखं चेच्छन्ति, त एव जीवा इति वेद्यम्॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम जो (रुद्रेभिः) प्राणों और (वसुभिः) वास देनेहारे पृथिवी आदि पदार्थों के साथ (निसत्तः) स्थित चलता फिरता (होता) देहादि का धारण करने हारा (पुरोहितः) प्रथम ग्रहण करने योग्य (रयिषाट्) धन का सहन कर्त्ता (अमर्त्यः) मरण धर्मरहित (क्राणा) कर्मों का कर्त्ता (ऋञ्जसानः) जो किये हुए कर्म को प्राप्त होता (विक्षु) प्रजाओं में (रथो न) रथ के समान शरीरसहित होके (आयुषु) बाल्यादि जीवनावस्थाओं में (आनुषक्) अनुकूलता से वर्त्तमान (वार्या) उत्तम पदार्थ और सुखों को (व्यृण्वति) विविध प्रकार सिद्ध करता है, वही (देवः) शुद्ध प्रकाशस्वरूप जीवात्मा है, ऐसा जानो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी में प्राणों के साथ चेष्टा, मन के अनुकूल, रथ के समान शरीर के साथ क्रीड़ा, श्रेष्ठ वस्तु और सुख की इच्छा करते हैं, वे ही जीव हैं, ऐसा सब लोग जानें॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वि वात॑जूतो अत॒सेषु॑ तिष्ठते॒ वृथा॑ जु॒हूभिः॒ सृण्या॑ तुवि॒ष्वणिः॑। तृ॒षु यद॑ग्ने व॒निनो॑ वृषा॒यसे॑ कृ॒ष्णं त॒ एम॒ रुश॑दूर्मे अजर॥4॥ वि। वात॑ऽजूतः। अ॒त॒सेषु॑। ति॒ष्ठ॒ते॒। वृथा॑। जु॒हूभिः॑। सृण्या॑। तु॒वि॒ऽस्वनिः॑। तृ॒षु। यत्। अ॒ग्ने॒। व॒निनः॑। वृ॒ष॒ऽयसे॑। कृ॒ष्णम्। ते॒। एम॑। रुश॑त्ऽऊर्मे। अ॒ज॒र॒॥4॥ पदार्थः—(वि) विशेषार्थे (वातजूतः) वातेन वायुना जूतः प्राप्तवेगः (अतसेषु) व्याप्तव्येषु तृणकाष्ठभूमिजलादिषु (तिष्ठते) वर्त्तते (वृथा) व्यर्थे (जुहूभिः) जुह्वति याभिः क्रियाभिः (सृण्या) धारणेन हननेन वा। द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च। (निरु॰13.5) (तुविष्वणिः) यस्तुविषो बहून् पदार्थान् वनति सम्भजति सः (तृषु) शीघ्रम् (यत्) यः (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान (वनिनः) प्रशस्ता रश्मयो वनानि वा येषां तेषु वा तान् (वृषायसे) वृष इवाचरसि (कृष्णम्) कर्षति विलिखति येन ज्योतिः समूहेन तम् (ते) तव (एम) विज्ञाय प्राप्नुयाम (रुशदूर्मे) रुशन्त्य ऊर्मयो ज्वाला यस्य तत्सम्बुद्धौ (अजर) स्वयं जरादिदोषरहित॥4॥ अन्वयः—हे रुशदूर्मेऽजराग्ने जीव! यो भवानतसेषु वितिष्ठते यद्यो वातजूतो जुहूभिः सृण्या च सह वनिनः प्राप्य त्वं वृथाऽभिमानं परित्यज्य स्वात्मानं जानीहि॥4॥ भावार्थः—सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वरोऽभिवदति मया यदुपदिष्टं तदेव युष्मदात्मस्वरूपमस्तीति वेदितव्यम्॥4॥ पदार्थः—हे (रुशदूर्मे) अपने स्वभाव की लहरी युक्त (अजर) वृद्धावस्था से रहित (अग्ने) बिजुली के तुल्य वर्त्तमान जीव! जो तू (अतसेषु) आकाशादि व्यापक पदार्थों में (वितिष्ठते) ठहरता (यत्) जो (वातजूतः) वायु का प्रेरक और वायु के समान वेग वाला (तुविष्वणिः) बहुत पदार्थों का सेवक (जुहूभिः) ग्रहण करने के साधनरूप क्रियाओं और (सृण्या) धारण तथा हननरूप कर्म्म से सह वर्त्तमान (वनिनः) विद्युत् युक्त प्राणों को प्राप्त होके तू (तृषु) शीघ्र (वृषायसे) बलवान् होता है, जिस (ते) तेरे (कृष्णम्) कर्षणरूप गुण को हम लोग (एम) प्राप्त होते हैं, सो तू (वृथा) अभिमान को छोड़ के अपने स्वरूप को जान॥4॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है कि जैसा मैंने जीव के स्वभाव का उपदेश किया है, वही तुम्हारा स्वरूप है, यह निश्चित जानो॥4॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तपु॑र्जम्भो॒ वन॒ आ वात॑चोदितो यू॒थे न सा॒ह्वाँ अव॑ वाति॒ वंस॑गः। अ॒भि॒व्रज॒न् नक्षि॑तं॒ पाज॑सा॒ रजः॑ स्था॒तुश्च॒रथं॑ भयते पत॒त्रिणः॑॥5॥23॥ तपुः॑ऽजम्भः। वने॑। आ। वात॑ऽचोदितः। यू॒थे। न। सा॒ह्वान्। अव॑। वा॒ति॒। वंस॑गः। अ॒भि॒ऽव्रज॑न्। अक्षि॑तम्। पाज॑सा। रजः॑। स्था॒तुः। च॒रथ॑म्। भ॒य॒ते॒। प॒त॒त्रिणः॑॥5॥ पदार्थः—(तपुर्जम्भः) तपूंषि तापा जम्भो वक्रमिव यस्य सः (वने) रश्मौ (आ) समन्तात् (वातचोदितः) वायुना प्रेरितः (यूथे) सैन्ये (न) इव (साह्वान्) सहनशीलो वीरः (अव) विनिग्रहे (वाति) गच्छति (वंसगः) यो वंसान् सम्भक्तान् पदार्थान् गच्छति प्राप्नोति सः (अभिव्रजन्) अभितः सर्वतो गच्छन् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (पाजसा) बलेन। पाज इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (रजः) सकारणं लोकसमूहम् (स्थातुः) कृतस्थितेः (चरथम्) चर्यते गम्यते भक्ष्यते यस्तम् (भयते) भयं जनयति। अत्र व्यत्ययेन बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् आत्मनेपदञ्च (पतत्रिणः) पक्षिणः॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यो वंसगो वाचचोदितस्तपुर्जम्भोऽग्निरिव जीवो यूथे साह्वानाववाति विस्तृतो भूत्वा हिनस्ति योऽभिव्रजन् चरथमक्षितं रजः पाजसा धरति स्थातुस्तिष्ठतो वृक्षादेर्मध्ये पतत्रिण इव भयते तद्युष्माकमात्मस्वरूपमस्तीति विजानीत॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैर्योऽन्तःकरणप्राणेन्द्रियशरीरप्रेरकः सर्वेषामेतेषां धर्त्ता नियन्ताऽधिष्ठातेच्छाद्वेषप्रयत्नसुख- दुःखज्ञानादिगुणोऽस्ति सोऽत्र देहे जीवोऽस्तीति वेद्यम्॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जो (वंसगः) भिन्न-भिन्न पदार्थों को प्राप्त होता (वातचोदितः) प्राणों से प्रेरित (तपुर्जम्भः) जिस का मुख के समान प्रताप, वह जीव अग्नि के सदृश जैसे (यूथम्) सेना में (साह्वान्) सहनशील जीव (अववाति) सब शरीर की चेष्टा कराता है, जो विस्तृत होके दुःखों का हनन करता जो (अभिव्रजन्) जाता-आता हुआ (चरथम्) चरनेहारे (अक्षितम्) क्षयरहित (रजः) कारण के सहित लोकसमूह को (पाजसा) बल से धरता जो (स्थातुः) स्थिर वृक्ष में बैठे हुए (पतत्रिणः) पक्षी के समान (भयते) भय करता है, सो तुम्हारा आत्मस्वरूप है, इस प्रकार तुम लोग जानो॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार, प्राण अर्थात् प्राणादि दशवायु इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्रादि दश इन्द्रियों का प्रेरक, इन का धारक और नियन्ता, स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुण वाला है, वह इस देह में जीव है, ऐसा निश्चित जानो॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ द॒धुष्ट्वा॒ भृग॑वो॒ मानु॑षे॒ष्वा र॒यिं न चारुं॑ सु॒हवं॒ जने॑भ्यः। होता॑रमग्ने॒ अति॑थिं॒ वरे॑ण्यं मि॒त्रं न शेवं॑ दि॒व्याय॒ जन्म॑ने॥6॥ द॒धुः। त्वा॒। भृग॑वः। मानु॑षेषु। आ। र॒यिम्। न। चारु॑म्। सु॒ऽहव॑म्। जने॑भ्यः। होता॑रम्। अ॒ग्ने॒। अति॑थिम्। वरे॑ण्यम्। मि॒त्रम्। न। शेव॑म्। दि॒व्याय॑। जन्म॑ने॥6॥ पदार्थः—(दधुः) धरन्तु (त्वा) त्वाम् (भृगवः) परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः (मानुषेषु) मानवेषु (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम् (न) इव (चारुम्) सुन्दरम् (सुहवम्) सुखेन होतुं योग्यम् (जनेभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (होतारम्) दातारम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (अतिथिम्) न विद्यते नियता तिथिर्यस्य तम् (वरेण्यम्) वरीतुमर्हं श्रेष्ठम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (शेवम्) सुखस्वरूपम्। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (दिव्याय) दिव्यभोगान्विताय (जन्मने) प्रादुर्भावाय॥6॥ अन्वयः—हे अग्ने स्वप्रकाशस्वरूप! त्वं यं त्वा भृगवो मानुषेषु जनेभ्यश्चारुं सुहवं रयिं न धनमिव होतारमतिथिं वरेण्यं शेवं लब्ध्वा दिव्याय जन्मने मित्रं न सखायमिव त्वाऽऽदधुस्तमेव जीवं विजानीहि॥6॥ भावार्थः—यथा मनुष्या विद्याश्रियौ मित्रांश्च प्राप्य सुखमेधन्ते, तथैव जीवस्वरूपस्य वेदितारोऽत्यन्तानि सुखानि प्राप्नुवन्ति॥6॥ पदार्थः—हे (अग्ने) अग्नि के सदृश स्वप्रकाश स्वरूप जीव! तू जिस (त्वा) तुझको (भृगवः) परिपक्व ज्ञान वाले विद्वान् (मानुषेषु) मनुष्यों में (जनेभ्यः) विद्वानों से विद्या को प्राप्त होके (चारुम्) सुन्दरस्वरूप (सुहवम्) सुखों के देनेहारे (रयिम्) धन के (न) समान (होतारम्) दानशील (अतिथिम्) अनियत स्थिति अर्थात् अतिथि के सदृश देह-देहान्तर और स्थान-स्थानान्तर में जानेहारा (वरेण्यम्) ग्रहण करने योग्य (शेवम्) सुखरूप जीव को प्राप्त होके (दिव्याय) शुद्ध (जन्मने) जन्म के लिये (मित्रन्न) मित्र के सदृश तुझ को (आदधुः) सब प्रकार धारण करते हैं, उसी को जीव जान॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य विद्या वा लक्ष्मी तथा मित्रों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही जीव के स्वरूप को जानने वाले विद्वान् लोग अत्यन्त सुखों को प्राप्त होते हैं॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ होता॑रं स॒प्त जु॒ह्वो॒3॒॑ यजि॑ष्ठं॒ यं वा॒घतो॑ वृ॒णते॑ अध्व॒रेषु॑। आ॒Åग्न विश्वे॑षामर॒तिं वसू॑नां सप॒र्यामि॒ प्रय॑सा॒ यामि॒ रत्न॑म्॥7॥ होता॑रम्। स॒प्त। जु॒ह्वः॑। यजि॑ष्ठम्। यम्। वा॒घतः। वृ॒णते॑। अ॒ध्व॒रेषु॑। अ॒ग्निम्। विश्वे॑षाम्। अ॒र॒तिम्। वसू॑नाम्। स॒प॒र्यामि॑। प्रय॑सा। यामि॑। रत्न॑म्॥7॥ पदार्थः—(होतारम्) सुखदातारम् (सप्त) एतत्संख्याकाः (जुह्वः) याभिर्जुह्वत्युपदिशन्ति परस्परं ताः (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (यम्) शिल्पकार्योपयोगिनम् (वाघतः) मेधाविनः। वाघत इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (वृणते) सम्भजन्ते (अध्वरेषु) अनुष्ठातव्येषु कर्ममयेषु यज्ञेषु (अग्निम्) पावकम् (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (अरतिम्) प्रापकम् (वसूनाम्) पृथिव्यादीनाम् (सपर्यामि) परिचरामि (प्रयसा) प्रयत्नेन (यामि) प्राप्नोमि (रत्नम्) रमणीयस्वरूपम्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यस्य सप्त जुह्वस्तं होतारं यजिष्ठं विश्वेषां वसूनामरतिं यं वाघतः प्रयसाऽग्निमिवाध्वरेषु वृणते सम्भजन्ते, तं रत्नमहं यामि सपर्यामि च॥7॥ भावार्थः—ये मनुष्याः स्वात्मानं विदित्वा परंब्रह्म विजानन्ति त एव मोक्षमधिगच्छन्ति॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जिस के (सप्त) सात (जुह्वः) सुख की इच्छा के साधन हैं, उस (होतारम्) सुखों के दाता (यजिष्ठम्) अतिशय सङ्गति में निपुण (विश्वेषाम्) सब (वसूनाम्) पृथिव्यादि लोकों को (अरतिम्) प्राप्त होनेहारा (यम्) जिस को (वाघतः) बुद्धिमान् लोग (प्रयसा) प्रीति से (अध्वरेषु) अहिंसनीय गुणों में (अग्निम्) अग्नि के सदृश (वृणते) स्वीकार करते हैं, उस (रत्नम्) रमणीयानन्द स्वरूप वाले जीव को मैं (यामि) प्राप्त होता और (सपर्यामि) सेवा करता हूं॥7॥ भावार्थः—जो मनुष्य अपने आत्मा को जान के परब्रह्म को जानते हैं, वे ही मोक्ष पाते हैं॥7॥ अथात्मविदो योगिनः कीदृशः स्युरित्युपदिश्यते॥ अब आत्मज्ञ योगीजन कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अच्छि॑द्रा सूनो सहसो नो अ॒द्य स्तो॒तृभ्यो॑ मित्रमहः॒ शर्म॑ यच्छ। अग्ने॑ गृ॒णन्त॒मंह॑स उरु॒ष्योर्जो॑ नपात् पू॒र्भिराय॑सीभिः॥8॥ अच्छि॑द्रा। सू॒नो॑ इति॑। स॒ह॒सः॒। नः॒। अ॒द्य। स्तो॒तृऽभ्यः॑। मि॒त्र॒ऽम॒हः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। अग्ने॑। गृ॒णन्त॑म्। अंह॑सः। उ॒रु॒ष्य॒। ऊर्जः॑। न॒पा॒त्। पूः॒ऽभिः। आय॑सीभिः॥8॥ पदार्थः—(अच्छिद्रा) अच्छिद्राणि छिद्ररहितानि (सूनो) यः सूयते सुनोति वा तत्सम्बुद्धौ (सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तोतृभ्यः) विद्यया पदार्थगुणस्तावकेभ्यः (मित्रमहः) मित्राणां महः सत्कारस्य कारयितः (शर्म) शर्माणि सुखानि (यच्छ) प्रदेहि (अग्ने) अग्निमिव प्रकाशक विद्वन् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (अंहसः) दुःखात् (उरुष्य) पृथग्रक्ष। अयं कण्वादिगणे नामधातुर्गणनीयः। (ऊर्जः) पराक्रमात् (नपात्) न कदाचिदधः पतति (पूर्भिः) पूर्णाभिः पालनसमर्थाभिः क्रियायुक्ताभिरन्नमयादिभिः (आयसीभिः) अयसः सुवर्णनिर्मितान्याभूषणानीवेश्वरेण रचिताभिः॥8॥ अन्वयः—हे सहसः सूनो मित्रमहोऽग्ने विद्वँस्त्वमद्यात्मस्वरूपोपदेशेन नोंऽहसः पाह्यच्छिद्रा शर्म यच्छ स्तोतृभ्यो नो विद्याः प्रापय। हे विद्वँस्त्वमात्मानं गृणन्तं स्तुवन्तमायसीभिः पूर्भिरूर्ज उरुष्य दुःखात् पृथग्रक्ष॥8॥ भावार्थः—हे आत्मपरमात्मविदो योगिनो यूयमात्मपरमात्मन उपदेशेन सर्वान् नॄन् दुःखाद् दूरे कृत्वा सततं सुखिनः कुरुत॥8॥ पदार्थः—हे (सहसः) पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से शरीर और विद्या से आत्मा के बलयुक्त जन का (सूनो) पुत्र (मित्रमहः) सबके मित्र और पूजनीय (अग्नेः) अग्निवत् प्रकाशमान विद्वन्! (नपात्) नीच कक्षा में न गिरने वाला तू (अद्य) आज अपने आत्मस्वरूप के उपदेश से (नः) हम को (अंहसः) पापाचरण से (पाहि) अलग रक्षा कर (अच्छिद्रा) छेद-भेद रहित (शर्म) सुखों को (यच्छ) प्राप्त कर (स्तोतृभ्यः) विद्वानों से विद्याओं की प्राप्ति हम को करा। हे विद्वन्! तू आत्मा की (गृणन्तम्) स्तुति के कर्त्ता को (आयसीभिः) सुवर्ण आदि आभूषणों की ईश्वर की रचनारूप (पूर्भिः) रक्षा करने में समर्थ अन्न आदि क्रियाओं के साथ (ऊर्जः) पराक्रम के बल से (उरुष्य) दुःख से पृथक् रख॥8॥ भावार्थः—हे आत्मा और परमात्मा को जानने वाले योगी लोगो! तुम आत्मा और परमात्मा के उपदेश से सब मनुष्यों को दुःख से दूर करके निरन्तर सुखी किया करो॥8॥ पुनः स सभेशः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभापति कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ भवा॒ वरू॑थं गृण॒ते वि॑भावो॒ भवा॑ मघवन्म॒घव॑द्भ्यः॒ शर्म॑। उ॒रु॒ष्याग्ने॒ अंह॑सो गृ॒णन्तं॑ प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात्॥9॥24॥ भव॑। वरू॑थम्। गृ॒ण॒ते। वि॒भा॒ऽवः॒। भव॑। म॒घ॒ऽव॒न्। म॒घव॑त्ऽभ्यः। शर्म॑। उ॒रु॒ष्य। अ॒ग्ने॒। अंह॑सः। गृ॒णन्त॑म्। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त्॥9॥ पदार्थः—(भव) (वरूथम्) गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (गृणते) गुणान् कीर्तयते (विभावः) विभावय (भव) अत्रोभयत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मघवन्) परमधनवन् (मघवद्भ्यः) विद्यादिधनयुक्तेभ्यः (शर्म) सुखम् (उरुष्य) पाहि (अग्ने) विज्ञानादियुक्त (अंहसः) पापात् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (प्रातः) दिनारम्भे (मक्षु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनु॰ (अष्टा॰6.3.133) इति दीर्घः। (धियावसुः) धिया कर्मणा प्रज्ञया वा वासयितुं योग्यः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात्॥9॥ अन्वयः—हे मघवन्नग्ने विद्वँस्त्वं गृणते मघवद्भ्यश्च वरूथं विभावो विभावय शर्म च गृणन्तमंहसो मक्षूरुष्य पाहि त्वमप्यंहसः पृथग्भव यो धियावसुरेवं प्रातः प्रतिदिनं प्रजारक्षणं विधत्ते, स सुखानि जगम्याद् भृशं प्राप्नुयात्॥9॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यो विद्वान् धर्मविनयाभ्यां सर्वाः प्रजाः प्रशास्य पालयेत्, स एव सभाद्यध्यक्षः स्वीकार्य्यः॥9॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या॥ इत्यष्टपञ्चाशं 58 सूक्तं चतुर्विंशो 24 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (मघवन्) उत्तम धन वाले (अग्ने) विज्ञान आदि गुणयुक्त सभाध्यक्ष विद्वन्! तू (गृणते) गुणों के कीर्त्तन करने वाले और (मघवद्भ्यः) विद्यादि धनयुक्त विद्वानों के लिये (वरूथम्) घर को और (शर्म) सुख को (विभावः) प्राप्त कीजिये तथा आप भी घर और सुख को (भव) प्राप्त हो (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए मनुष्य को (अंहसः) पाप से (मक्षु) शीघ्र (उरुष्य) रक्षा कीजिये; आप भी पाप से अलग (भव) हूजिये, ऐसा जो (धियावसुः) प्रज्ञा वा कर्म से वास कराने योग्य (प्रातः) प्रतिदिन प्रजा की रक्षा करता है, वह सुखों को (जगम्यात्) अतिशय करके प्राप्त होवे॥9॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो विद्वान् धर्म वा विनय से सब प्रजा को शिक्षा देकर पालना करता है, उसी को सभा आदि का अध्यक्ष करें॥9॥ इस सूक्त में अग्नि वा विद्वानों के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह अट्ठावनवां 58 सूक्त और चौबीसवां 24 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य सप्तर्चस्यैकोनषष्टितमस्य सूक्तस्य गौतमो नोधा ऋषिः। अग्निर्वैश्वानरो देवता। 1 निचृत् त्रिष्टुप्। 2,4, विराट्त्रिष्टुप्। 5-7 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 3 पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथाग्नीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब उनसठवें सूक्त का आरम्भ है, उस के प्रथम मन्त्र में अग्नि और ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥ व॒या इद॑ग्ने अ॒ग्नय॑स्ते अ॒न्ये त्वे विश्वे॑ अ॒मृता॑ मादयन्ते। वैश्वा॑नर॒ नाभि॑रसि क्षिती॒नां स्थूणे॑व॒ जनाँ॑ उप॒मिद्य॑यन्थ॥1॥ व॒याः। इत्। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्नयः॑। ते॒। अ॒न्ये। त्वे इति॑। विश्वे॑। अ॒मृताः॑। मा॒द॒य॒न्ते॒। वैश्वा॑नर। नाभिः॑। अ॒सि॒। क्षि॒ती॒नाम्। स्थूणा॑ऽइव। जना॑न्। उ॒प॒ऽमित्। य॒य॒न्थ॒॥1॥ पदार्थः—(वयाः) शाखाः। वयाः शाखा वेतेर्वातायना भवन्ति। (निरु॰1.4) (इत्) इव (अग्ने) सर्वाधारेश्वर (अग्नयः) सूर्यादय इव ज्ञानप्रकाशकाः (ते) तव (अन्ये) त्वत्तो भिन्नाः (त्वे) त्वयि (विश्वे) सर्वे (अमृताः) अविनाशिनो जीवाः (मादयन्ते) हर्षयन्ति (वैश्वानर) यो विश्वान् सर्वान् पदार्थान् नयति तत्सम्बुद्धौ (नाभिः) मध्यवर्त्तिः (असि) (क्षितीनाम्) मनुष्याणाम् (स्थूणेव) यथा धारकस्तम्भः (जनान्) मनुष्यादीन् (उपमित्) य उप समीपे मिनोति प्रक्षिपति सः (ययन्थ) यच्छति॥1॥ अन्वयः—हे वैश्वानराऽग्ने जगदीश्वर! यस्य ते तव ये त्वत्तोऽभिन्ना विश्वेऽमृता अग्नय इव जीवास्त्वे त्वयि वया इन्मादयन्ते यस्त्वं क्षितीनान्नाभिरसि जनानुपमित् सन् स्थूणेव ययन्थ यच्छ सोऽस्माभिरुपासनीयः॥1॥ भावार्थः—यथा वृक्षः शाखाः स्थूणाश्च गृहं धृत्वाऽऽनन्दयन्ति, तथैव परमेश्वरः सर्वान् धृत्वाऽऽनन्दयति॥1॥ पदार्थः—हे (वैश्वानर) सम्पूर्ण विश्व को नियम में रखने हारे (अग्ने) जगदीश्वर! जिस (ते) आप के सकाश से जो (अन्ये) भिन्न (विश्वे) सब (अमृताः) अविनाशी (अग्नयः) सूर्य आदि ज्ञानप्रकाशक पदार्थों के तुल्य जीव (त्वे) आप में (वयाः) शाखा के (इत्) समान बढ़ के (मादयन्ते) आनन्दित होते हैं, जो आप (क्षितीनाम्) मनुष्यादिकों के (नाभिः) मध्यवर्त्ति (असि) हो (जनान्) मनुष्यादिकों को (उपमित्) धर्मविद्या में स्थापित करते हुए (स्थूणेव) धारण करने वाले खंभे के समान (ययन्थ) सबको नियम में रखते हो, वही आप हमारे उपास्य देवता हो॥1॥ भावार्थः—जैसे वृक्ष अपनी शाखा और खंभे गृहों को धारण करके आनन्दित करते हैं, वैसे ही परमेश्वर सबको धारण करके आनन्द देता है॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ मू॒र्धा दि॒वो नाभि॑र॒ग्निः पृ॑थि॒व्या अथा॑भवदर॒ती रोद॑स्योः। तं त्वा॑ दे॒वासो॑ऽजनयन्त दे॒वं वैश्वा॑नर॒ ज्योति॒रिदार्या॑य॥2॥ मू॒र्धा। दि॒वः। नाभिः॑। अ॒ग्निः। पृ॒थि॒व्याः। अथ॑। अ॒भ॒व॒त्। अ॒र॒तिः। रोद॑स्योः। तम्। त्वा॒। दे॒वासः॑। अ॒ज॒न॒य॒न्त॒। दे॒वम्। वैश्वा॑नर। ज्योतिः॑। इत्। आर्या॑य॥2॥ पदार्थः—(मूर्द्धा) उत्कृष्टः (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशात् (नाभिः) मध्यवर्त्तिः (अग्निः) नियन्त्री विद्युदिव (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः (अथ) अनन्तरे (अभवत्) भवति (अरतिः) स्वव्याप्त्या धर्त्ता (रोदस्योः) प्रकाशाऽप्रकाशयोर्भूमिसूर्ययोः (तम्) उक्तार्थम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (अजनयन्त) प्रकटयन्ति (देवम्) द्योतकम् (वैश्वानर) सर्वप्रकाशक (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशम् (इत्) एव (आर्याय) उत्तमगुणस्वभावाय॥2॥ अन्वयः—ये वैश्वानर यो भवानग्निरिव दिवः पृथिव्या मूर्द्धा नाभिश्चाभवदथ रोदस्योररतिरभवदार्यायेज्ज्योतिरिदेव यं देवं देवासोऽजनयन्त तन्त्वा वयमुपासीमहि॥2॥ भावार्थः—यो जगदीश्वर आर्य्याणां विज्ञानाय सर्वविद्याप्रकाशकान् वेदान् प्रकाशितवान् यः सर्वतः उत्कृष्टः सर्वाधारो जगदीश्वरोस्ति, तं विदित्वा स एव मनुष्यैः सर्वदोपासनीयः॥2॥ पदार्थः—हे (वैश्वानर) सब संसार के नायक! जो आप (अग्निः) बिजुली के समान (दिवः) प्रकाश वा (पृथिव्याः) भूमि के मध्य समान (मूर्द्धा) उत्कृष्ट और (नाभिः) मध्यवर्त्तिव्यापक (अभवत्) होते हो (अथ) इन सब लोकों की रचना के अनन्तर जो (रोदस्योः) प्रकाश और अप्रकाश रूप सूर्यादि और भूमि आदि लोकों के (अरतिः) आप व्यापक होके अध्यक्ष (अभवत्) होते हो जो (आर्याय) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव वाले मनुष्य के लिये (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाश वा मूर्त्त द्रव्यों के प्रकाश को (इत्) ही करते हैं, जिस (देवम्) प्रकाशमान (त्वा) आपको (देवासः) विद्वान् लोग (अजनयन्त) प्रकाशित करते हैं वा जिस बिजुलीरूप अग्नि को विद्वान् लोग (अजनयन्त) प्रकट करते हैं (तम्) उस आप ही की उपासना हम लोग करें॥2॥ भावार्थः—जिस जगदीश्वर ने आर्य अर्थात् उत्तम मनुष्यों के विज्ञान के लिये सब विद्याओं के प्रकाश करने वाले वेदों को प्रकाशित किया है तथा जो सब से उत्तम सब का आधार जगदीश्वर है, उस को जानकर मनुष्यों को उसी की उपासना करनी चाहिये॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ सूर्ये॒ न र॒श्मयो॑ ध्रु॒वासो॑ वैश्वान॒रे द॑धिरे॒ऽग्ना वसू॑नि। या पर्व॑ते॒ष्वोष॑धीष्व॒प्सु या मानु॑षे॒ष्वसि॒ तस्य॒ राजा॑॥3॥ आ। सूर्ये॑। न। र॒श्मयः॑। ध्रु॒वासः॑। वै॒श्वा॒न॒रे। द॒धि॒रे॒। अ॒ग्ना। वसू॑नि। या। पर्व॑तेषु। ओष॑धीषु। अ॒प्ऽसु। या। मानु॑षेषु। असि॑। तस्य॑। राजा॑॥3॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (सूर्ये) सवितृमण्डले (न) इव (रश्मयः) किरणा (ध्रुवासः) निश्चलाः (वैश्वानरे) जगदीश्वरे (दधिरे) धरन्ति (अग्ना) विद्युदिव वर्त्तमाने। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति डादेशः। (वसूनि) सर्वाणि द्रव्याणि (या) यानि (पर्वतेषु) शैलेषु (ओषधीषु) यवादिषु (अप्सु) जलेषु (या) यानि (मानुषेषु) मानवेषु (असि) (तस्य) द्रव्यसमूहस्य जगतः (राजा) प्रकाशकः॥3॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! यस्यास्य जगतस्त्वं राजाऽसि तस्य मध्ये या पर्वतेषु यौषधीषु याऽप्सु यानि मानुषेषु वसूनि वर्त्तन्ते, तानि सर्वाणि सूर्ये रश्मयो नेव वैश्वानरेऽग्ना त्वयि सति ध्रुवासः प्रजाः सर्वे देवास आदधिरे धरन्ति॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद्देवास इति पदमनुवर्त्तते। मनुष्यैर्यथा प्रकाशमाने सूर्ये विद्यमाने सति कार्याणि निर्वर्त्तन्ते तथैवोपासिते जगदीश्वरे सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्ति। एव कुर्वन्नृणां नैव कदाचित् सुखधननाशो दुःखदारिद्र्ये चोपजायेते॥3॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर! जिस इस द्रव्यसमूह जगत् के आप (राजा) प्रकाशक (असि) हैं (तस्य) उस के मध्य में (या) जो (पर्वतेषु) पर्वतों में (या) जो (ओषधीषु) ओषधियों में जो (अप्सु) जलों में और (मानुषेषु) जो मनुष्यों में वसूनि द्रव्य हैं, उन सबको (सूर्ये) सवितृलोक में (रश्मयः) किरणों के (न) समान (अग्ना) (वैश्वानरे) आप में (ध्रुवासः) निश्चल प्रजाओं को विद्वान् लोग (आ दधिरे) धारण कराते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। तथा पूर्व मन्त्र से (देवासः) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे प्राणी लोग प्रकाशमान सूर्य के विद्यमान होने में सब कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे मनुष्यों को उपासना किये हुए जगदीश्वर में सब कार्यों को सिद्ध करना चाहिये। इसी प्रकार करते हुए मनुष्यों को कभी सुख और धन का नाश होकर दुःख वा दरिद्रता उत्पन्न नहीं होते॥3॥ अथ नरोत्तमगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में पुरुषोत्तम के गुणों का उपदेश किया है॥ बृ॒ह॒तीइ॑व सू॒नवे॒ रोद॑सी॒ गिरो॒ होता॑ मनु॒ष्यो॒ न दक्षः॑। स्व॑र्वते स॒त्यशु॑ष्माय पू॒र्वीर्वैश्॑वान॒राय॒ नृत॑माय य॒ह्वीः॥4॥ बृ॒ह॒ती इ॒वेति॑ बृ॒ह॒तीऽइ॑व। सू॒नवे॑। रोद॑सी॒ इति॑। गिरः॑। होता॑। म॒नु॒ष्यः॑। न। दक्षः॑। स्वः॑ऽवते। स॒त्यऽशु॑ष्माय। पू॒र्वीः। वै॒श्वा॒न॒राय॑। नृऽत॑माय। य॒ह्वीः॥4॥ पदार्थः—(बृहतीइव) यथा महागुणयुक्ता पूज्या माता (सूनवे) पुत्राय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरः) वाणीः (होता) दाता ग्रहीता (मनुष्यः) मानवः (न) इव (दक्षः) चतुरः (स्वर्वते) प्रशस्तं स्वः सुखं वर्त्तते यस्मिँस्तस्मै (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं यस्य तस्मै (पूर्वीः) पुरातनीः (वैश्वानराय) परब्रह्मोपासकाय (नृतमाय) अतिशयेन ना तस्मै (यह्वीः) महतीः। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) अस्माद् बह्वादिभ्यश्चान्तर्गत्वात् ङीष् (अष्टा॰4.1.45)॥4॥ अन्वयः—यथा सूनवे बृहती इव रोदसी दक्षो मनुष्यः पिता न विद्वान् पुरुष इव होतेश्वरे सभाध्यक्षे वा प्रीतो भवति यथा विद्वांसोऽस्मै स्वर्वते सत्यशुष्माय नृतमाय वैश्वानराय पूर्वीर्यह्वीर्गिरो वेदवाणीर्दधिरे तथैव तस्मिन् सर्वैर्मनुष्यैर्वर्त्तिव्यम्॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा भूमिसूर्यप्रकाशौ धृत्वा सुखयतो यथा पिताऽध्यापको वा पुत्रशिष्ययोर्हिताय प्रवर्त्तते, यथेश्वरः प्रजासुखाय प्रवर्तते, तथैव सभाध्यक्षः प्रयतेतेति सर्वा वेदवाण्यः प्रतिपादयन्ति॥4॥ पदार्थः—जैसे (सूनवे) पुत्र के लिये (बृहतीइव) महागुणयुक्त माता वर्त्तती है, जैसे (रोदसी) प्रकाश भूमि और (दक्षः) चतुर (मनुष्यः) पढ़ानेहारे विद्वान् मनुष्य पिता के (न) समान (होता) देने-लेने वाला विद्वान् ईश्वर वा सभापति विद्वान् में प्रसन्न होता है, जैसे विद्वान् लोग इस (स्वर्वते) प्रशंसनीय सुख वर्त्तमान (सत्यशुष्माय) सत्यबलयुक्त (नृतमाय) पुरुषों में उत्तम (वैश्वानराय) परमेश्वर के लिये (पूर्वीः) सनातन (यह्वीः) महागुण लक्षणयुक्त (गिरः) वेदवाणियों को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे ही परमेश्वर के उपासक सभाध्यक्ष में सब मनुष्यों को वर्त्तना चाहिये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे भूमि वा सूर्यप्रकाश सबको धारण करके सुखी करते हैं, जैसे पिता वा अध्यापक पुत्र के हित के लिये प्रवृत्त होता है, जैसे परमेश्वर प्रजासुख के वास्ते वर्तता है, वैसे सभापति प्रजा के अर्थ वर्ते, इस प्रकार सब देववाणियां प्रतिपादन करती हैं॥4॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ दि॒वश्चि॑त्ते बृह॒तो जा॑तवेदो॒ वैश्वा॑नर॒ प्र रि॑रिचे महि॒त्वम्। राजा॑ कृष्टी॒नाम॑सि॒ मानु॑षीणां यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरिव॑श्चकर्थ॥5॥ दि॒वः। चि॒त्। ते॒। बृ॒ह॒तः। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। वैश्वा॑नर। प्र। रि॒रि॒चे॒। म॒हि॒ऽत्वम्। राजा॑। कृ॒ष्टी॒नाम्। अ॒सि॒। मानु॑षीणाम्। यु॒धा। दे॒वेभ्यः॑। वरि॑वः। च॒क॒र्थ॒॥5॥ पदार्थः—(दिवः) विज्ञानप्रकाशात् (चित्) अपि (ते) तव (बृहतः) महतः (जातवेदः) जाता वेदा यस्माज्जगदीश्वराज्जातान् वेदान् वेत्ति जातान् सर्वान् पदार्थान् विदन्ति जातेषु पदार्थेषु विद्यते वा तत्सम्बुद्धौ (वैश्वानर) सर्वनेतः (प्र) प्रकृष्टार्थे (रिरिचे) रिणक्ति। (महित्वम्) महागुणस्वभावम् (राजा) प्रकाशमानोऽधीशः (कृष्टीनाम्) मनुष्याणाम् (असि) (मानुषीणाम्) मनुष्यसम्बन्धिनीनां प्रजानाम् (युधा) युध्यन्ते यस्मिन् संग्रामे तेन। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (वरिवः) परिचरणम् (चकर्थ) करोषि॥5॥ अन्वयः—हे जातवेदो वैश्वानर जगदीश्वर! यस्य ते तव महित्वं बृहतो दिवश्चित् सूर्यादेर्महतः प्रकाशादपि प्ररिरिचे प्रकृष्टतयाऽधिकमस्ति यस्त्वं कृष्टीनां मानुषीणां प्रजानां राजासि यस्त्वं देवेभ्यो युधा वरिवश्चकर्थ स भवानस्माकं न्यायाधीशोऽस्त्विति॥5॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। सभासद्भिर्मनुष्यैः परमेश्वरोऽनन्तसामर्थ्यवत्त्वात् सर्वाधीशत्वेनोपासनीयः। सभाद्यध्यक्षो महाशुभगुणान्वितत्वात् सर्वाधिपतित्वेन समाश्रित्य युद्धेन दुष्टान् विजित्य धार्मिकान् प्रसाद्य प्रजापालनं विधाय विदुषां सेवासङ्गौ सदैव कर्त्तव्यौ॥5॥ पदार्थः—हे (जातवेदः) जिससे वेद उत्पन्न हुए वेदों को जानने वा उन को प्राप्त कराने तथा उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान (वैश्वानर) सबको प्राप्त होने वाले (प्रजापते) जगदीश्वर! जिस (ते) आप का (महित्वम्) महागुणयुक्त प्रभाव (बृहतः) बड़े (दिवः) सूर्य्यादि प्रकाश से (चित्) भी (प्ररिरिचे) अधिक है जो आप (कृष्टीनाम्) मनुष्यादि (मानुषीणाम्) मनुष्य सम्बन्धी प्रजाओं के (राजा) प्रकाशमानाधीश (असि) हो और जो आप (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (युधा) संग्राम से (वरिवः) सेवा को (चकर्थ) प्राप्त कराते हो, सो आप ही हम लोगों के न्यायाधीश हूजिये॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। सभा में रहने वाले मनुष्यों को अनन्त सामर्थ्यवान् होने से, परमेश्वर की सबके अधिष्ठाता होने से उपासना वा महाशुभगुण युक्त होने से, सभा आदि के अध्यक्ष के अधीश का सेवन और युद्ध से दुष्टों को जीत के प्रजा का पालन करके विद्वानों की सेवा तथा सत्सङ्ग को सदा करना चाहिये॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्र नू म॑हि॒त्वं वृ॑ष॒भस्य॑ वोचं॒ यं पू॒रवो॑ वृत्र॒हणं॒ सच॑न्ते। वै॒श्वा॒न॒रो दस्यु॑म॒ग्निर्ज॑घ॒न्वाँ अधू॑नो॒त्काष्ठा॒ अव॒ शम्ब॑रं भेत्॥6॥ प्र। नु। म॒हि॒ऽत्वम्। वृ॒ष॒भस्य॑। वो॒च॒म्। यम्। पू॒रवः॑। वृ॒त्र॒ऽहन॑म्। सच॑न्ते। वै॒श्वा॒न॒रः। दस्यु॑म्। अ॒ग्निः। ज॒घ॒न्वान्। अधू॑नोत्। काष्ठाः॑। अव॑। शम्ब॑रम्। भे॒त्॥6॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (महित्वम्) महत्त्वम् (वृषभस्य) सर्वोत्कृष्टस्य (वोचम्) कथयेयम् (यम्) वक्ष्यमाणम् (पूरवः) मनुष्याः। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं शत्रुं वा हन्ति तम् (सचन्ते) समवयन्ति (वैश्वानरः) सर्वनियन्ता (दस्युम्) दुष्टस्वभावयुक्तम् (अग्निः) स्वयंप्रकाशः (जघन्वान्) हतवान् (अधूनोत्) कम्पयति (काष्ठाः) दिशस्तत्रस्थाः प्रजाः (अव) विनिग्रहे (शम्बरम्) मेघम्। शम्बरमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (भेत्) भिन्द्यात्॥6॥ अन्वयः—यं परमेश्वरं पूरवः सचन्तेऽग्निर्वृत्रहणं सवितारमिव सर्वान् पदार्थान् दर्शयति यथा वैश्वानरो दस्युं शम्बरं जघन्वानधूनोदवभेत् यस्य मध्ये काष्ठाः सन्ति, तस्य वृषभस्य महित्वमहं नु प्रवोचं तथा सर्वे विद्वांसः कुर्युः॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्यायं सर्वः संसारो महिमास्ति स एवानन्तशक्तिमान् परमेश्वरः सर्वैरुपास्यो मन्तव्यः॥6॥ पदार्थः—(तम्) जिस परमेश्वर को (पूरवः) विद्वान् लोग अपने आत्मा के साथ (सचन्ते) युक्त करते हैं, जैसे (अग्निः) सर्वत्र व्यापक विद्युत् (वृत्रहणम्) मेघ के नाशकर्त्ता सूर्य को दिखलाती है, जैसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण प्रजा को नियम में रखने वाला सूर्य्य (दस्युम्) डाकू के तुल्य (शम्बरम्) मेघ को (जघन्वान्) हनन (अधूनोत्) कँपाता (अवभेत्) विदीर्ण करता है, जिस के बीच में (काष्ठाः) दिशा भी व्याप्य है, उस (वृषभस्य) सब से उत्तम सूर्य के (महित्वम्) महिमा को मैं (नु) शीघ्र (प्रवोचम्) प्रकाशित करूं, वैसे सब विद्वान् लोग किया करें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस की महिमा को सब संसार प्रकाशित करता है, वही अनन्त शक्तिमान् परमेश्वर सबको उपासना के योग्य है॥6॥ पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥ वै॒श्वा॒न॒रो म॑हि॒म्ना वि॒श्वकृ॑ष्टिर्भ॒रद्वा॑जेषु यज॒तो वि॒भावा॑। शा॒त॒व॒ने॒ये श॒तिनी॑भिर॒ग्निः पु॑रुणी॒थे ज॑रते सू॒नृता॑वान्॥7॥25॥ वै॒श्वा॒न॒रः। म॒हि॒म्ना। वि॒श्वऽकृ॑ष्टिः। भ॒रत्ऽवा॑जेषु। य॒ज॒तः। वि॒भाऽवा॑। शा॒त॒ऽव॒ने॒ये। श॒तिनी॑भिः। अ॒ग्निः। पु॒रु॒ऽनी॒थे। ज॒र॒ते॒। सू॒नृता॑ऽवान्॥7॥ पदार्थः—(वैश्वानरः) सर्वनेता (महिम्ना) स्वप्रभावेण (विश्वकृष्टिः) विश्वाः सर्वाः कृष्टीर्मनुष्यादिकाः प्रजाः (भरद्वाजेषु) ये भरन्ति ते भरतः। वज्यन्ते ज्ञायन्ते यैस्ते वाजा भरतश्च ते वाजाश्च तेषु पृथिव्यादिषु। भरणाद्भारद्वाजः। (निरु॰3.17) (यजतः) यष्टुं सङ्गन्तुमर्हः (विभावा) यो विशेषेण भाति प्रकाशयति सः (शातवनेये) शतान्यसंख्यातानि वनयः सम्भक्तयो येषान्ते शतवनयस्तैर्निर्वृत्ते जगति (शतिनीभिः) शतसंख्याताः प्रशस्ता गतयो यासु क्रियासु ताभिः सह वर्त्तमानः (अग्निः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशः (पुरुणीथे) यत्पुरुभिर्बहुभिः प्राणिभिः पदार्थैर्वा नीयते तस्मिन् (जरते) सत्करोति। जरत इत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰3.14) (सूनृतावान्) सूनृता अन्नादीनि प्रशस्तानि विद्यन्ते यस्मिन् सः॥7॥ अन्वयः—यो विश्वकृष्टीरुत्पादितवान् यजतो विभावा सूनृतावान् वैश्वानरोऽग्निः सर्वद्योतकः परमात्मा स्वमहिम्ना भरद्वाजेषु शतिनीभिः सह वर्त्तमानः सन् पुरुनीथे शातवनेये वर्तते तं यो जरतेऽर्चति स सत्कारं प्राप्नोति॥7॥ भावार्थः—यो संख्यातेषु पदार्थेष्वसंख्यातक्रियाहेतुर्विद्युदिवेश्वरो वर्तते, स एव सर्वं जगद्धरति यो मनुष्यस्तद्विद्यां जानाति स सततं महीयते॥7॥ अत्र वैश्वानरशब्दार्थवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति पञ्चविंशो 25 वर्गः एकोनषष्टितमं 59 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—जो (विश्वकृष्टीः) सबको उत्पन्न कर्त्ता (यजतः) पूजन के योग्य (विभावा) विशेष करके प्रकाशमान (सूनृतावान्) प्रशंसनीय अन्नादि का आधार (वैश्वानरः) सबको प्राप्त कराने वाला (अग्निः) सूर्य्य के समान जगदीश्वर अपने जगत्रूप (महिम्ना) महिमा के साथ (भरद्वाजेषु) धारण करने वा जानने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों में (शतिनीभिः) असंख्यात गतियुक्त क्रियाओं से सहित (पुरुणीथे) बहुत प्राणियों में प्राप्त (शातवनेये) असंख्यात विभागयुक्त क्रियाओं से सिद्ध हुए संसार में वर्त्तता है, उसका जो मनुष्य (जरते) अर्चन पूजन करता है, वह निरन्तर सत्कार को प्राप्त होता है॥7॥ भावार्थः—जो असख्यात पदार्थों में असंख्यात क्रियाओं का हेतु बिजुलीरूप अग्नि के समान ईश्वर है, वही सब जगत् को धारण करता है, उसका पूजन जो मनुष्य करता है, वह सदा महिमा को प्राप्त होता है॥7॥ इस सूक्त में वैश्वानर शब्दार्थ वर्णन से इसके अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह पच्चीसवां 25 वर्ग और उनसठवां 59 सूक्त समाप्त हुआ॥59॥

अथास्य पञ्चर्चस्य षष्टितमस्य सूक्तस्य गौतमो नोधा ऋषिः। अग्निर्देवता। 1 विराट् त्रिष्टुप्। 3,5 त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः। 2,4 भुरिक् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ पुनः स परेशः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह ईश्वर कैसा है यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ वह्निं॑ य॒शसं॑ वि॒दथ॑स्य के॒तुं सु॑प्रा॒व्यं॑ दू॒तं स॒द्योअ॑र्थम्। द्वि॒जन्मा॑नं र॒यिमि॑व प्रश॒स्तं रा॒तिं भ॑र॒द्भृग॑वे मात॒रिश्वा॑॥1॥ वह्नि॑म्। य॒शस॑म्। वि॒दथ॑स्य। के॒तुम्। सु॒प्र॒ऽअ॒व्य॑म्। दू॒तम्। स॒द्यःऽअ॑र्थम्। द्वि॒ऽजन्मा॑नम्। र॒यिम्ऽइ॑व। प्र॒ऽश॒स्तम्। रा॒तिम्। भ॒र॒त्। भृग॑वे। मा॒त॒रिश्वा॑॥1॥ पदार्थः—(वह्निम्) पदार्थानां वोढारम् (यशसम्) कीर्त्तिकरम् (विदथस्य) विज्ञातव्यजगतोऽस्य मध्ये (केतुम्) ध्वजवद्वर्त्तमानम् (सुप्राव्यम्) सुष्ठु प्रावितं चालितुमर्हम् (दूतम्) देशान्तरप्रापकम् (सद्योअर्थम्) शीघ्रगामिपृथिव्यादि द्रव्यम् (द्विजन्मानम्) द्वाभ्यां वायुकारणाभ्यां जन्म यस्य तम् (रयिमिव) यथोत्तमां श्रियम् (प्रशस्तम्) श्रेष्ठतमम् (रातिम्) दातारम् (भरत्) धरति (भृगवे) भर्ज्जनाय परिपाचनाय (मातरिश्वा) आकाशे शयिता वायुः॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा मातरिश्वा भृगवे विदथस्य केतुं यशसं सुप्राव्यं दूतं रातिं प्रशस्तं द्विजन्मानं वह्निं रयिमिव सद्योअर्थं भरद्धरति तथा यूयमप्याचरत॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा वायुः पावकादिवस्तु धृत्वा सर्वाञ्चराऽचराँल्लोकान् धरति तथा राजपुरुषैर्विद्या धर्मधारणपुरःसरं प्रजा न्याये धर्त्तव्याः॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में शयन करता वायु (भृगवे) भूजने वा पकाने के लिये (विदथस्य) युद्ध के (केतुम्) ध्वजा के समान (यशसम्) कीर्त्तिकारक (सुप्राव्यम्) उत्तमता से चलाने के योग्य (दूतम्) देशान्तर को प्राप्त करने (रातिम्) दान का निमित्त (प्रशस्तम्) अत्यन्त श्रेष्ठ (द्विजन्मानम्) वायु वा कारण से जन्मसहित (वह्निम्) सबको वहनेहारे अग्नि को (रयिमिव) उत्तम लक्ष्मी के समान (सद्योअर्थम्) शीघ्रगामी पृथिव्यादि द्रव्य को (भरत्) धरता है, वैसे तुम भी काम किया करो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वायु बिजुली आदि वस्तु का धारण करके सब चराऽचर लोकों का धारण करता है, वैसे राजपुरुष विद्याधर्म धारणपूर्वक प्रजाओं को न्याय में रक्खें॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒स्य शासु॑रु॒भया॑सः सचन्ते ह॒विष्म॑न्त उ॒शिजो॒ ये च॒ मर्ताः॑। दि॒वश्चि॒त्पूर्वो॒ न्य॑सादि॒ होता॒ऽऽपृच्छ्यो॑ वि॒श्पति॑र्वि॒क्षु वे॒धाः॥2॥ अ॒स्य। शासुः॑। उ॒भया॑सः। स॒च॒न्ते॒। ह॒विष्म॑न्तः। उ॒शिजः॑। ये। च॒। मर्ताः॑। दि॒वः। चि॒त्। पूर्वः॑। नि। अ॒सा॒दि॒। होता॑। आ॒ऽपृच्छ्यः॑। वि॒श्पतिः॑। वि॒क्षु। वे॒धाः॥2॥ पदार्थः—(अस्य) वक्ष्यमाणस्य (शासुः) न्यायेन प्रजायाः प्रशासितुः (उभयासः) राजप्रजाजनाः (सचन्ते) समवयन्ति (हविष्मन्तः) प्रशस्तसामग्रीमन्तः (उशिजः) कामयितारः (ये) धर्मविद्ये चिकीर्षवः (च) समुच्चये (मर्त्ताः) मनुष्याः (दिवः) प्रकाशादुत्पन्नः (चित्) अपि (पूर्वः) अर्वाग्वर्त्तमानः (नि) नितराम् (असादि) साद्यते (होता) ग्रहीता (आपृच्छ्यः) समन्तान्निश्चयार्थं प्रष्टुं योग्यः (विश्पतिः) प्रजायाः पालयिता (विक्षु) प्रजासु (वेधाः) विविधशास्त्रजन्यमेधायुक्तः। विधाञो वेध च। (उणा॰4.225) अनेनासुन् प्रत्ययो वेधादेशश्च॥2॥ अन्वयः—ये हविष्मन्त उशिज उभयासा मर्त्ता यस्यास्य शासुर्विक्षु सचन्ते यो होताऽऽपृच्छ्यो वेधा विश्पतिर्दिवः पूर्वश्चिदिव धार्मिकै राज्याय न्यसादि नियोज्यते सर्वैः स च समाश्रयितव्यः॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वद्भिर्धार्मिकैर्न्यायाधीशैः प्रशंस्यन्ते, येषां च विनयात् सर्वाः प्रजाः सन्तुष्यन्ते, ते सर्वैः पितृवत्सेवितव्याः॥2॥ पदार्थः—(ये) जो (हविष्मन्तः) उत्तम सामग्रीयुक्त (उशिजः) शुभ गुण कर्मों की कामना करनेहारे (उभयासः) राजा और प्रजा के (मर्त्ताः) मनुष्य जिस (अस्य) इस (शासुः) सत्यन्याय के शासन करने वाले (विक्षु) प्रजाओं में (सचन्ते) संयुक्त होते हैं जो (होता) शुभ कर्मों का ग्रहण करनेहारा (आपृच्छ्यः) सब प्रकार के प्रश्नों के पूछने योग्य (वेधाः) विविध विद्या का धारण करने वाला (विश्पतिः) प्रजाओं का स्वामी (दिवः) प्रकाश के (पूर्वः) पूर्व स्थित सूर्य के (चित्) समान धार्मिक जनों ने जो राज्यपालन के लिये नियुक्त किया हो (च) वही सब मनुष्यों को आश्रय करने के योग्य है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो विद्वान् धर्मात्मा और न्यायधीशों से प्रशंसा को प्राप्त हों, जिनके शील से सब प्रजा सन्तुष्ट हो, उनकी सेवा पिता के समान सब लोग करें॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तं नव्य॑सी हृ॒द आ जाय॑मानम॒स्मत्सु॑कीर्तिर्मधु॑जिह्वमश्याः। यमृ॒त्विजो॑ वृ॒जने॒ मानु॑षासः॒ प्रय॑स्वन्त आ॒यवो॒ जीज॑नन्त॥3॥ तम्। नव्य॑सी। हृ॒दः। आ। जाय॑मानम्। अ॒स्मत्। सु॒ऽकी॒र्तिः। मधु॑ऽजिह्वम्। अ॒श्याः॒। यम्। ऋ॒त्विजः॑। वृ॒जने॑। मानु॑षासः। प्रय॑स्वन्तः। आ॒यवः॑। जीज॑नन्त॥3॥ पदार्थः—(तम्) विनयादिशुभगुणाढ्यम् (नव्यसी) नवतरा प्रजा (हृदः) सुहृदः (आ) समन्तात् (जायमानम्) उत्पद्यमानम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् प्राप्तया शिक्षया (सुकीर्त्तिः) अतिप्रशंसनीयः (मधुजिह्वम्) मधुरजिह्वम् (अश्याः) भोगं कुर्याः (यम्) उक्तम् (ऋत्विजः) य ऋतुषु यजन्ते ते विद्वांसः (वृजने) त्यक्ताधर्मे मार्गे। अत्र कृपृवृजिमन्दि॰ (उणा॰2.79) अनेन वृजधातोः क्युः प्रत्ययः। (मानुषासः) मननशीला मानवाः (प्रयस्वन्तः) प्रशस्तानि प्रयांसि प्रज्ञानानि विद्यन्ते येषान्ते (आयवः) प्राप्तसत्यासत्यविवेचनाः (जीजनन्त) जनयन्ति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्य! यथा ऋत्विजः प्रयस्वन्त आयवो हृदो मानुषासो जिज्ञासून् वृजने जीजनन्त जनयन्ति, यं जायमानं मधुजिह्वं नव्यसी प्रजा प्रीत्या सेवते, तमस्मत्सुकीर्त्तिस्त्वमाश्याः॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैर्येऽधर्मं त्याजयित्वा धर्मं ग्राहयन्ति ते सर्वथा सत्कर्त्तव्याः सन्ति॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्य! जैसे (ऋत्विजः) ऋतुओं के योग्य कर्मकर्त्ता (प्रयस्वन्तः) उत्तम विज्ञानयुक्त (आयवः) सत्याऽसत्य का विवेक करनेहारे (हृदः) सबके मित्र (मानुषासः) विद्वान् मनुष्य जानने की इच्छा करने वालों को (वृजने) अधर्मरहित धर्ममार्ग में (जीजनन्त) विद्याओं से प्रकट कर देते हैं, जिस (जायमानम्) प्रसिद्ध हुए (मधुजिह्वम्) स्वादिष्ट भोग को (नव्यसी) अति नूतन प्रजा सेवन करती है (तम्) उसको (अस्मत्) हम से प्राप्त हुई शिक्षा से युक्त (सुकीर्त्तिः) अति प्रशंसा के योग्य तू (आश्याः) अच्छे प्रकार भोग कर॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि जो अधर्म को छुड़ा के धर्म का ग्रहण कराते हैं, उन का सब प्रकार से सन्मान किया करें॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उ॒शिक् पा॑व॒को वसु॒र्मानु॑षेषु॒ वरे॑ण्यो॒ होता॑ऽधायि वि॒क्षु। दमू॑ना गृ॒हप॑ति॒र्दम॒ आँ अ॒ग्निर्भु॑वद्रयि॒पती॑ रयी॒णाम्॥4॥ उ॒शिक्। पा॒व॒कः। वसुः॑। मानु॑षेषु। वरे॑ण्यः। होता॑। अ॒धा॒यि॒। वि॒क्षु। दमू॑नाः। गृ॒हऽप॑तिः। दमे॑। आ। अ॒ग्निः। भु॒व॒त्। र॒यि॒ऽपतिः॑। र॒यी॒णाम्॥4॥ पदार्थः—(उशिक्) सत्यं कामयमानः (पावकः) पवित्रः (वसुः) वासयिता (मानुषेषु) युक्त्याहारविहारकर्त्तृषु (वरेण्यः) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हः (होता) सुखानां दाता (अधायि) धीयते (विक्षु) प्रजासु (दमूनाः) दाम्यति येन सः। अत्र दमेरुनसि॰ (उणा॰4.240) इत्युनस् प्रत्ययो अन्येषामपि इति दीर्घः। (गृहपतिः) गृहस्य पालयिता (दमे) गृहे (आ) समन्तात् (अग्निः) भौतिकोऽग्निरिव (भुवत्) भवेत्। अयं लेट् प्रयोगः। (रयिपतिः) धनानां पालयिता (रयीणाम्) राज्यादिधनानाम्॥4॥ अन्वयः—मनुष्यैर्य उशिक् पावको वसुर्वरेण्यो दमूना गृहपती रयिपतिरग्निरिव मानुषेषु विक्षु दमे च रयीणां होता दाता भुवद्भवेत्, स प्रजापालनक्षम अधायि॥4॥ भावार्थः—मनुष्यैर्नैव कदाचिदविद्वानधार्मिको राज्यरक्षायामधिकर्त्तव्यः॥4॥ पदार्थः—मनुष्यों को उचित है कि जो (उशिक्) सत्य की कामनायुक्त (पावकः) अग्नि के तुल्य पवित्र करने (वसुः) वास कराने (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (दमूनाः) दम अर्थात् शान्तियुक्त (गृहपतिः) गृह का पालन करने तथा (रयिपतिः) धनों को पालने (अग्निः) अग्नि के समान (मानुषेषु) युक्तिपूर्वक आहार-विहार करने वाले मनुष्य (विक्षु) प्रजा और (दमे) गृह में (रयीणाम्) राज्य आदि धन और होता सुखों का देने वाला (भुवत्) होवे, वही प्रजा में राजा (अधायि) धारण करने योग्य है॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि अधर्मी मूर्खजन को राज्य की रक्षा का अधिकार कदापि न देवें॥4॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तं त्वा॑ व॒यं पति॑मग्ने रयी॒णां प्र शं॑सामो म॒तिभि॒र्गोत॑मासः। आ॒शुं न वा॑जंभ॒रं म॒र्जय॑न्तः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात्॥5॥26॥ तम्। त्वा॒। व॒यम्। पति॑म्। अ॒ग्ने॒। र॒यी॒णाम्। प्र। शं॒सा॒मः॒। म॒तिऽभिः॑। गोत॑मासः। आ॒शुम्। न। वा॒ज॒म्ऽभ॒रम्। म॒र्जय॑न्तः। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त्॥5॥ पदार्थः—(तम्) विद्वांसम् (त्वा) त्वाम् (वयम्) (पतिम्) पालयितारम् (अग्ने) विद्युद्वर्त्तमान (रयीणाम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियादिधनानाम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (शंसामः) स्तुमः (मतिभिः) मेधाविभिः सह। मतय इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (गोतमासः) येऽतिशयेन गावो वेदाद्यर्थानां स्तोतारस्ते। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं॰3.16) (आशुम्) शीघ्रगमनहेतुमश्वम् (न) इव (वाजम्भरम्) यो वाजं वेगं बिभर्त्ति तम् (मर्जयन्तः) शोधयन्तः (प्रातः) प्रातःकाले (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) धियां बुद्धीनां वासयिता (जगम्यात्) पुनः पुनर्भृशं ज्ञानानि गमयेत्॥5॥ अन्वयः—हेऽग्ने पावकवत्प्रकाशमान धियावसुर्मतिभिः सह वाजम्भरं प्रातराशुमश्वं न मक्षु रयीणां पतिं जगम्यात् तथा त्वा तं मर्जयन्तो गोतमासो वयं प्रशंसामः॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्या यानेऽश्वान् योजयित्वा तूर्णं गच्छन्ति, तथैव विद्वद्भिः सह सङ्गत्य विद्यापारावारं प्राप्नुवन्ति॥5॥ अत्र शरीरयानादिषु सम्प्रयोज्यस्याऽग्नेर्दृष्टान्तेन विद्वद्गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति षड्विंशो 26 वर्गः षष्टितमं 60 सूक्तञ्च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (अग्ने) पावकवत्पवित्र स्वरूप विद्वन्! जैसे (धियावसुः) बुद्धियों में वसाने वाला (मतिभिः) बुद्धिमानों के साथ (वाजंभरम्) वेग को धारण करने वाले को (प्रातः) प्रतिदिन (आशुं न) जैसे शीघ्र चलने वाले घोड़े को जोड़ के स्थानान्तर को तुरन्त जाते-आते हैं, वैसे (मक्षु) शीघ्र (रयीणाम्) चक्रवर्त्ति राज्यलक्ष्मी आदि धनों के (पतिम्) पालन करने वाले को (जगम्यात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, वैसे (तम्) उस (त्वा) तुझ को (मर्जयन्तः) शुद्ध कराते हुए (गोतमासः) अतिशय करके स्तुति करने वाले (वयम्) हम लोग (प्रशंसामः) स्तुति से प्रशंसित करते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य लोग उत्तम यान अर्थात् सवारियों में घोड़ों को जोड़ कर शीघ्र देशान्तर को जाते हैं, वैसे ही विद्वानों के सङ्ग से विद्या के पाराऽवार को प्राप्त होते हैं॥5॥ इस सूक्त में शरीर और यान आदि में संयुक्त करने योग्य अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों के गुणवर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह छब्बीसवां 26 वर्ग और साठवां 60 समाप्त हुआ॥