ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 21-30 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 21-30 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

अथैकविंशस्य षडर्च्चस्य सूक्तस्य कण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। 1,3,4,6 गायत्री; 2 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; 5 निचृद्गायत्रीच्छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रेन्द्राग्निगुणा उपदिश्यन्ते। अब इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं- इ॒हेन्द्रा॒ग्नी उप॑ ह्वये॒ तयो॒रित्स्तोम॑मुश्मसि। ता सोमं॑ सोम॒पात॑मा॥1॥ इ॒ह। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। उप॑। ह्व॒ये॒। तयोः॑। इत्। स्तोम॑म्। उ॒श्म॒सि॒। ता। सोम॑म्। सो॒म॒ऽपात॑मा॥1॥ पदार्थः—(इह) अस्मिन् हवनशिल्पविद्यादिकर्मणि (इन्द्राग्नी) वायुवह्नी। यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः। (श॰ब्रा॰4.1.3.19) (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्वीकुर्वे (तयोः) इन्द्राग्न्योः (इत्) चार्थे (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदन्त आदेशः (ता) तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (सोमम्) उत्पन्नं पदार्थसमूहम् (सोमपातमा) सोमानां पदार्थानामतिशयेन पालकौ॥1॥ अन्वयः—इह यौ सोमपातमाविन्द्राग्नी सोमं रक्षतस्तावहमुपह्वये तयोरिच्च स्तोमं वयमुश्मसि॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैरिह वाय्वग्न्योर्गुणा जिज्ञासितव्याः। न चैतर्योर्गुणानामुपदेशश्रवणाभ्यां विनोपकारो ग्रहीतुं शक्योऽस्ति॥1॥ पदार्थः—(इह) इस संसार होमादि शिल्प में जो (सोमपातमा) पदार्थों की अत्यन्त पालन के निमित्त और (सोमम्) संसारी पदार्थों की निरन्तर रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं (ता) उनको मैं (उपह्वये) अपने समीप काम की सिद्धि के लिये वश में लाता हूं, और (तयोः) उनके (इत्) और (स्तोमम्) गुणों के प्रकाश करने को हम लोग (उश्मसि) इच्छा करते हैं॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को वायु और अग्नि के गुण जानने की इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी मनुष्य उनके गुणों के उपदेश वा श्रवण के विना उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते हैं॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ता य॒ज्ञेषु॒ प्र शं॑सतेन्द्रा॒ग्नी शु॑म्भता नरः। ता गा॑य॒त्रेषु॑ गायत॥2॥ ता। य॒ज्ञेषु॑। प्र। शं॒स॒त। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। शुम्भ॒त॒। न॒रः॒। ता। गा॒य॒त्रेषु॑। गा॒य॒त॒॥2॥ पदार्थः—(ता) तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (यज्ञेषु) पठनपाठनेषु शिल्पमयादिषु यज्ञेषु वा (प्र) क्रियायोगे (शंसत) स्तुवीत तद्गुणान् प्रकाशयत। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (इन्द्राग्नी) वाय्वग्नी (शुम्भत) सर्वत्र यानादिकृत्येषु प्रदीप्यत। अत्र अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घः। (नरः) नेतारो मनुष्याः। नयतेर्डिच्च। (उणा॰2.96) अनेन णीञ् धातोर्ऋः प्रत्ययो डिच्च। (ता) तौ (गायत्रेषु) यानि गायत्रीछन्दस्कानीमानि वेदोक्तानि स्तोत्राणि तेषु (गायत) षड्जादिस्वरैर्गानं कुरुत॥2॥ अन्वयः—हे नरो यूयं याविन्द्राग्नी यज्ञेषु प्रशंसत शुम्भत च ता तौ गायत्रेषु गायत॥2॥ भावार्थः—नैव मनुष्या अभ्यासेन विना वायोरग्नेश्च गुणज्ञानं कृत्वा तयोः सकाशादुपकारं ग्रहीतुं शक्नुवन्ति॥2॥ पदार्थः—हे (नरः) यज्ञ करनेवाले मनुष्यो! तुम जिस पूर्वोक्त (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि के (प्रशंसत) गुणों को प्रकाशित तथा (शुम्भत) सब जगह कामों में प्रदीप्त करते हो (ता) उनको (गायत्रेषु) गायत्री छन्दवाले वेद के स्तोत्रों में (गायत) षड्ज आदि स्वरों से गाओ॥2॥ भावार्थः—कोई भी मनुष्य अभ्यास के विना वायु और अग्नि के गुणों के जानने वा उनसे उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते॥2॥ तौ किमुपकारकौ भवत इत्युपदिश्यते। वे किस उपकार के करनेवाले होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ता मि॒त्रस्य॒ प्रश॑स्तय इन्द्रा॒ग्नी ता ह॑वामहे। सो॒म॒पा सोम॑पीतये॥3॥ ता। मि॒त्रस्य॑। प्रऽश॑स्तये। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। ता। ह॒वा॒म॒हे॒। सो॒म॒ऽपा। सोम॑ऽपीतये॥3॥ पदार्थः—(ता) तौ। अत्र त्रिषु सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (मित्रस्य) सर्वोपकारकस्य सर्वसुहृदः (प्रशस्तये) प्रशंसनीयसुखाय (इन्द्राग्नी) वाय्वग्नी (ता) तौ (हवामहे) स्वीकुर्महे। अत्र ‘हेञ्’ धातोर्बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (सोमपा) यौ सोमान् पदार्थसमूहान् रक्षतस्तौ (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीती रक्षणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै॥3॥ अन्वयः—यथा विद्वांसो याविन्द्राग्नी मित्रस्य प्रशस्तय आह्वयन्ति तथैव ता तौ वयमपि हवामहे यौ च सोमपौ सोमपीतय आह्वयन्ति ता तावपि वयं हवामहे॥3॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्या मित्रभावमाश्रित्य परस्परोपकाराय विद्यया वाय्वग्न्योः कार्य्येषु योजनरक्षणे कृत्वा पदार्थव्यवहारानुन्नयन्ति तदैव सुखिनो भवन्ति॥3॥ पदार्थः—जैसे विद्वान् लोग वायु और अग्नि के गुणों को जानकर उपकार लेते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन पूर्वोक्त (मित्रस्य) सबके उपकार करनेहारे और सब के मित्र के (प्रशस्तये) प्रशंसनीय सुख के लिये तथा (सोमपीतये) सोम अर्थात् जिस व्यवहार में संसारी पदार्थों की अच्छी प्रकार रक्षा होती है, उसके लिये (ता) उन (सोमपा) सब पदार्थों की रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि को (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य मित्रपन का आश्रय लेकर एक दूसरे के उपकार के लिये विद्या से वायु और अग्नि को कार्य्यों में संयुक्त करके रक्षा के साथ पदार्थ और व्यवहारों की उन्नति करते हैं, तभी वे सुखी होते हैं॥3॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- उ॒ग्रा सन्ता॑ हवामह॒ उपे॒दं सव॑नं सु॒तम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी एह ग॑च्छताम्॥4॥ उ॒ग्रा। सन्ता॑। ह॒वा॒म॒हे॒। उप॑। इ॒दम्। सव॑नम्। सु॒तम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒ता॒म्॥4॥ पदार्थः—(उग्रा) तीव्रौ (सन्ता) वर्त्तमानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारः। (हवामहे) विद्यासिध्यर्थमुपदिशामः शृणुमश्च (उप) उपगमार्थे (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत् (सुतम्) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (आ) समन्तात् (इह) शिल्पक्रियाव्यवहारे (गच्छताम्) गमयतः। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥4॥ अन्वयः—वयं याविदं सुतं सवनमुपागच्छतामुपागमयतस्तावुग्रोग्रौ सन्तासन्ताविन्द्राग्नी इह हवामहे॥4॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यत इमौ प्रत्यक्षीभूतौ तीव्रवेगादिगुणौ शिल्पक्रियाव्यवहारे सर्वकार्य्योपयोगिनौ स्तस्तस्मादेतौ विद्यासिद्धये कार्य्येषु सदोपयोजनीयाविति॥4॥ पदार्थः—हम लोग विद्या की सिद्धि के लिये जिन (उग्रा) तीव्र (सन्ता) वर्त्तमान (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि का (हवामहे) उपदेश वा श्रवण करते हैं, वे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (सवनम्) अर्थात् जिससे पदार्थों को उत्पन्न और (सुतम्) उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को (उपागच्छताम्) हमारे निकटवर्ती करते हैं॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को जिस कारण ये दृष्टिगोचर हुए तीव्र वेग आदि गुणवाले वायु और अग्नि शिल्पक्रियायुक्त व्यवहार में सम्पूर्ण कार्य्यों के उपयोगी होते हैं, इससे इनको विद्या की सिद्धि के लिये कार्यों में सदा संयुक्त करने चाहियें॥4॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ता म॒हान्ता॒ सद॒स्पती॒ इन्द्रा॑ग्नी॒ रक्ष॑ उब्जतम्। अप्र॑जाः सन्त्व॒त्रिणः॑॥5॥ ता। म॒हान्ता॑। सद॒स्पती॒ इति॑। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। रक्षः॑। उ॒ब्ज॒त॒म्। अप्र॑जाः। स॒न्तु॒। अ॒त्रिणः॑॥5॥ पदार्थः—(ता) तौ (महान्ता) महागुणौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (सदस्पती) सीदन्ति गुणा येषु द्रव्येषु तानि सदांसि तेषां यौ पालयितारौ तौ (इन्द्राग्नी) तावेव (रक्षः) दुष्टव्यवहारान्। अत्र व्यत्ययेनैकवचनम्। (उब्जतम्) कुटिलमपहतः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (अप्रजाः) अविद्यमानाः प्रजा येषां ते (सन्तु) भवेयुः। अत्र लडर्थे लोट्। (अत्रिणः) शत्रवः॥5॥ अन्वयः—मनुष्यैर्यौ सम्यक् प्रयुक्तौ महान्ता महान्तौ सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतं कुटिलं रक्षो दूरीकुरुतो याभ्यामत्रिणः शत्रवोऽप्रजाः सन्तु भवेयुरेतौ सर्वैर्मनुष्यैः कथं न सूपयोजनीयौ॥5॥ भावार्थः—विद्वद्भिः सर्वेषु पदार्थेषु स्वरूपेण गुणैरधिकौ वाय्वग्नी सम्यग्विदित्वा सम्प्रयोजितौ दुःखनिवारणेन रक्षणहेतू भवत इति॥5॥ पदार्थः—मनुष्यों ने जो अच्छी प्रकार क्रिया की कुशलता में संयुक्त किये हुए (महान्ता) बड़े-बड़े उत्तम गुणवाले (ता) पूर्वोक्त (सदस्पती) सभाओं के पालन के निमित्त (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं, जो (रक्षः) दुष्ट व्यवहारों को (उब्जतम्) नाश करते और उनसे (अत्रिणः) शत्रु जन (अप्रजाः) पुत्रादिरहित (सन्तु) हों, उनका उपयोग सब लोग क्यों न करें॥5॥ भावार्थः—विद्वानो को योग्य है कि जो सब पदार्थों के स्वरूप वा गुणों से अधिक वायु और अग्नि हैं, उनको अच्छी प्रकार जानकर क्रियाव्यवहार में संयुक्त करें तो वे दुःखों को निवारण करके अनेक प्रकार की रक्षा करनेवाले होते हैं॥5॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर भी वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- तेन॑ स॒त्येन॑ जागृत॒मधि॑ प्रचे॒तुने॑ प॒दे। इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्॥6॥3॥ तेन॑। स॒त्येन॑। जा॒गृ॒त॒म्। अधि॑। प्र॒ऽचे॒तुने॑। प॒दे। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्॥6॥ पदार्थः—(तेन) गुणसमूहाधारेण (सत्येन) अविनाशिस्वभावेन कारणेन (जागृतम्) प्रसिद्धगुणौ स्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (अधि) उपरिभावे (प्रचेतुने) प्रचेतयन्त्यानन्देन यस्मिँस्तस्मिन्। (पदे) प्राप्तुं योग्ये (इन्द्राग्नी) प्राणविद्युतौ (शर्म) सुखम् (यच्छतम्) दत्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥6॥ अन्वयः—याविन्द्राग्नी तेन सत्येन प्रचेतुने पदेऽधिजागृतं तौ शर्म यच्छतं दत्तः॥6॥ भावार्थः—ये नित्याः पदार्थाः सन्ति तेषां गुणा अपि नित्या भवितुमर्हन्ति, ये शरीरस्था बहिस्थाः प्राणा विद्युच्च सम्यक् सेविताश्चेतनत्वहेतवो भूत्वा सुखप्रदा भवन्ति ते कथं न सम्प्रयोक्तव्यौ॥6॥ विंशसूक्तोक्ता मेधाविनः पदार्थविद्यासिद्धेरिन्द्राग्नी मुख्यौ हेतू भवत इति जानन्त्यनेन पूर्वसूक्तार्थेन सहैकविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्च विरुद्धार्थं व्याख्यातम्॥ इत्येकविंशं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (इन्द्राग्नी) प्राण और बिजुली हैं वे (तेन) उस (सत्येन) अविनाशी गुणों के समूह से (प्रचेतुने) जिसमें आनन्द से चित्त प्रफुल्लित होता है (पदे) उस सुखप्रापक व्यवहार में (अधिजागृतम्) प्रसिद्ध गुणवाले होते और (शर्म) उत्तम सुख को भी (यच्छतम्) देते हैं, उनको क्यों उपयुक्त न करना चाहिये॥6॥ भावार्थः—जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण भी नित्य होते हैं, जो शरीर में वा बाहर रहने वाले प्राणवायु तथा बिजुली हैं, वे अच्छी प्रकार सेवन किये हुए चेतनता करानेवाले होकर सुख देनेवाले होते हैं॥6॥ बीसवें सूक्त में कहे हुए बुद्धिमानों की पदार्थविद्या की सिद्धि के वायु और अग्नि मुख्य हेतु होते हैं, इस अभिप्राय के जानने से पूर्वोक्त बीसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस इक्कीसवें सूक्त के अर्थ का मेल जानना चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विरुद्ध अर्थ से वर्णन किया है॥ यह इक्कीसवां सूक्त और तीसरा वर्ग पूरा हुआ॥ अथास्यैकविंशत्यृचस्य द्वाविंशस्य सूक्तस्य काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। 1-4 अश्विनौ; 5-8 सविता; 9,10 अग्निः; 11 देव्यः; 12 इन्द्राणीवरुणान्यग्नाय्यः; 13, 14 द्यावापृथिव्यौ; 15 पृथिवी; 16 विष्णुर्देवो वा; 17-21 विष्णुश्च देवताः। 1-3, 8,12,17,18 पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; 4,5,7,9-11,13-14,16,20-21 गायत्री; 6,19 निचृद्गायत्री; 15 विराड् गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रादावश्विगुणा उपदिश्यन्ते। अब बाईसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में अश्वि के गुणों का उपदेश किया है- प्रा॒त॒र्युजा॒ वि बो॑धया॒श्विना॒वेह ग॑च्छताम्। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑॥1॥ प्रा॒तः॒ऽयुजा॑। वि। बो॒ध॒य॒। अ॒श्विनौ॑। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒ता॒म्। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥1॥ पदार्थः—(प्रातर्युजा) प्रातः प्रथमं युङ्क्तस्तौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (वि) विशिष्टार्थे (बोधय) अवगमय (अश्विनौ) द्यावापृथिव्यौ (आ) समन्तात् (इह) शिल्पव्यवहारे (गच्छताम्) प्राप्नुतः। अत्र लडर्थे लोट् (अस्य) प्रत्यक्षस्य (सोमस्य) स्तोतव्यस्य सुखस्य (पीतये) प्राप्तये॥1॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यौ प्रातर्युजावश्विनाविह गच्छतां प्राप्नुतस्तावस्य सोमस्य पीतये सर्वसुखप्राप्तयेऽस्मान् विबोधयावगमय॥1॥ भावार्थः—शिल्पकार्य्याणि चिकीर्षुभिर्मनुष्यैर्भूम्यग्नी प्रथमं संग्राह्यौ नैताभ्यां विना यानादिसिद्धिगमने सम्भवत इतीश्वरस्योपदेशः॥1॥ पदार्थः—हे विद्वन् मनुष्य! जो (प्रातर्युजा) शिल्पविद्या सिद्ध यन्त्रकलाओं में पहिले बल देनेवाले (अश्विनौ) अग्नि और पृथिवी (इह) इस शिल्प व्यवहार में (गच्छताम्) प्राप्त होते हैं, इससे उनको (अस्य) इस (सोमस्य) उत्पन्न करनेयोग्य सुख समूह को (पीतये) प्राप्ति के लिये तुम हमको (विबोधय) अच्छी प्रकार विदित कराइये॥1॥ भावार्थः—शिल्प कार्य्यों की सिद्धि करने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि उसमें भूमि और अग्नि का पहिले ग्रहण करें, क्योंकि इनके विना विमान आदि यानों की सिद्धि वा गमन सम्भव नहीं हो सकता॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑। अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे॥2॥ या। सु॒ऽरथा॑। र॒थिऽत॑मा। उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒ऽस्पृशा॑। अ॒श्विना॑। ता। ह॒वा॒म॒हे॒॥2॥ पदार्थः—(या) यौ। अत्र षट्सु प्रयोगेषु सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (सुरथा) शोभना रथा याभ्यां तौ (रथीतमा) प्रशस्ता रथा विद्यन्ते ययोः सकाशात् तावतिशयितौ। रथिन ईद्वक्तव्यः। (अष्टा॰वा॰8.2.17) इतीकारादेशः। (उभा) द्वौ परस्परमाकांक्ष्यौ (देवा) देदीप्यमानौ (दिविस्पृशा) यौ दिव्यन्तरिक्षे यानानि स्पर्शयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (अश्विना) व्याप्तिगुणशीलौ (ता) तौ (हवामहे) आदद्मः। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्लोरभावः॥2॥ अन्वयः—वयं यौ दिविस्पृशा रथीतमा सुरथा देवाऽश्विनौ स्तस्तावुभौ हवामहे स्वीकुर्मः॥2॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यौ शिल्पानां साधकतमावग्निजले स्तस्तौ सम्प्रयोजितौ कार्य्यसिद्धिहेतू भवत इति॥2॥ पदार्थः—हम लोग (या) जो (दिविस्पृशा) आकाशमार्ग से विमान आदि यानों को एक स्थान से दूसरे स्थान में शीघ्र पहुंचाने (रथीतमा) निरन्तर प्रशंसनीय रथों को सिद्ध करनेवाले (सुरथा) जिनके योग से उत्तम-उत्तम रथ सिद्ध होते हैं (देवा) प्रकाशादि गुणवाले (अश्विनौ) व्याप्ति स्वभाववाले पूर्वोक्त अग्नि और जल हैं, (ता) उन (उभा) एक-दूसरे के साथ संयोग करने योग्यों को (हवामहे) ग्रहण करते हैं॥2॥ भावार्थः—जो मनुष्यों के लिये अत्यन्त सिद्धि करानेवाले अग्नि और जल हैं, वे शिल्पविद्या में संयुक्त किये हुए कार्य्यसिद्ध के हेतु होते हैं॥2॥ काभ्यामेतौ सम्प्रयोजितुं शक्यावित्युपदिश्यते। वे क्रिया में किनसे संयुक्त हो सकते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम्॥3॥ या। वा॒म्। कशा॑। मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृता॑ऽवती। तया॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्॥3॥ पदार्थः—(या) (वाम्) युवयोर्युवां वा (कशा) वाक्। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (मधुमती) मधुरगुणा (अश्विना) प्रकाशितगुणयोरध्वर्य्योः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा। सूनृतेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (तया) कशया (यज्ञम्) सुशिक्षोपदेशाख्यम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम्॥3॥ अन्वयः—हे उपदेष्ट्रुपदेश्यावध्यापकशिष्यौ वां युवयोरश्विनोर्या सूनृतावती मधुमती कशाऽस्ति तया युवां यज्ञं मिमिक्षतं सेक्तुमिच्छतम्॥3॥ भावार्थः—नैवोपदेशमन्तरा कस्यचित् किञ्चिदपि विज्ञानं वर्धते। तस्मात्सर्वैर्विद्वज्जिज्ञासुभिर्मनुष्यैर्नित्यमुपदेशः श्रवणं च कार्य्यमिति॥3॥ पदार्थः—हे उपदेश करने वा सुनने तथा पढ़ने-पढ़ानेवाले मनुष्यो! (वाम्) तुम्हारे (अश्विना) गुणप्रकाश करनेवालों की (या) जो (सूनृतावती) प्रशंसनीय बुद्धि से सहित (मधुमती) मधुरगुणयुक्त (कशा) वाणी है, (तया) उससे तुम (यज्ञम्) श्रेष्ठ शिक्षारूप यज्ञ को (मिमिक्षतम्) प्रकाश करने की इच्छा नित्य किया करो॥3॥ भावार्थः—उपदेश के विना किसी मनुष्य को ज्ञान की वृद्धि कुछ भी नहीं हो सकती, इससे सब मनुष्यों को उत्तम विद्या का उपदेश तथा श्रवण निरन्तर करना चाहिये॥3॥ एतं कृत्वाऽश्विनोर्योगेन किं भवतीत्युपदिश्यते। इसको करके अश्वियों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- न॒हि वा॒मस्ति॑ दू॒र॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। अश्वि॑ना सो॒मिनो॑ गृ॒हम्॥4॥ न॒हि। वा॒म्। अस्ति॑। दू॒र॒के। यत्र॑। रथे॑न। गच्छ॑थः। अश्वि॑ना। सो॒मिनः॑। गृ॒हम्॥4॥ पदार्थः—(नहि) प्रतिषेधार्थे (वाम्) युवयोः (अस्ति) भवति (दूरके) दूर एव दूरके। स्वार्थे कन्। (यत्र) यस्मिन्। ऋचि तुनुघ॰ (अष्टा॰6.3.133) इति दीर्घः। (रथेन) विमानादियानेन (गच्छथः) गमनं कुरुतम्। लट् प्रयोगोऽयम्। (अश्विना) अश्विभ्यां युक्तेन (सोमिनः) सोमाः प्रशस्ताः पदार्थाः सन्ति यस्य तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (गृहम्) गृह्णाति यस्मिंस्तत्॥4॥ अन्वयः—हे रथानां रचयितृचालयितारौ युवां यत्राश्विना रथेन सोमिनो गृहं गच्छथस्तत्र दूरस्थमपि स्थानं वा युवयोर्दूरके नह्यस्ति॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यतोऽश्विवेगयुक्तं यानमतिदूरमपि स्थानं शीघ्रं गच्छति तस्मादेताभिरेतन्नित्यमनुष्ठेयम्॥4॥ पदार्थः—हे रथों के रचने वा चलानेहारे सज्जन लोगो! तुम (यत्र) जहाँ उक्त (अश्विना) अश्वियों से संयुक्त (रथेन) विमान आदि यान से (सोमिनः) जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं, उस पदार्थविद्या वाले के (गृहम्) घर को (गच्छथः) जाते हो, वह दूरस्थान भी (वाम्) तुमको (दूरके) दूर (नहि) नहीं है॥4॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जिस कारण अग्नि और जल के वेग से युक्त किया हुआ रथ अति दूर भी स्थानों को शीघ्र पहुंचाता है, इससे तुम लोगों को भी यह शिल्पविद्या का अनुष्ठान निरन्तर करना चाहिये॥4॥ अथैश्वर्य्यहेतुरुपदिश्यते अगले मन्त्र में परम ऐश्वर्य्य करानेवाले परमेश्वर का प्रकाश किया है- हिर॑ण्यपाणिमू॒तये॑ सवि॒तार॒मुप॑ ह्वये। स चेत्ता॑ दे॒वता॑ प॒दम्॥5॥4॥ हिर॑ण्यऽपाणिम्। ऊ॒तये॑। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। ह्व॒ये॒। सः। चेत्ता॑। दे॒वता॑। प॒दम्॥5॥ पदार्थः—(हिरण्यपाणिम्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि पाणौ व्यवहारे लभन्ते यस्मात्तम् (ऊतये) प्रीतये (सवितारम्) सर्वजगदन्तर्यामिणमीश्वरम् (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (सः) जगदीश्वरः (चेत्ता) ज्ञानस्वरूपः (देवता) देव एवेति देवता पूज्यतमा। देवात्तल्। (अष्टा॰5.4.27) इति स्वार्थे तल् प्रत्ययः। (पदम्) पद्यते प्राप्तोऽस्ति चराचरं जगत् तम्॥5॥ अन्वयः—अहमूतये यं पदं हिरण्यपाणिं सवितारं परमात्मानमुपह्वये सा चेत्ता देवतास्ति॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यश्चिन्मयः सर्वत्र व्यापकः पूज्यतमः प्रीतिविषयः सर्वैश्वर्य्यप्रदः परमेश्वरोऽस्ति, स एव नित्यमुपास्यः। नैव तद्विषयेऽस्मादन्यः कश्चित्पदार्थ उपासितुमर्होऽस्तीति मन्तव्यम्॥5॥

इति चतुर्थों वर्गः सम्पूर्णः॥

पदार्थः—मैं (ऊतये) प्रीति के लिये जो (पदम्) सब चराचर जगत् को प्राप्त और (हिरण्यपाणिम्) जिससे व्यवहार में सुवर्ण आदि रत्न मिलते हैं, उस (सवितारम्) सब जगत् के अन्तर्यामी ईश्वर को (उपह्वये) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूं (सः) वह परमेश्वर (चेत्ता) ज्ञानस्वरूप और (देवता) पूज्यतम देव है॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को जो चेतनमय सब जगह प्राप्त होने और निरन्तर पूजन करने योग्य प्रीति का एक पुंज और ऐश्वर्य्यों का देनेवाला परमेश्वर है, वही निरन्तर उपासना के योग्य है। इस विषय में इसके विना कोई दूसरा पदार्थ उपासना के योग्य नहीं है॥5॥ यह चौथा वर्ग पूरा हुआ॥ पुनः स स्तोतव्य इत्युपदिश्यते। फिर उस परमेश्वर की स्तुति करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒पां नपा॑त॒मव॑से सवि॒तार॒मुप॑ स्तुहि। तस्य॑ व्र॒तान्यु॑श्मसि॥6॥ अ॒पाम्। नपा॑तम्। अव॑से। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। स्तु॒हि॒। तस्य॑। व्र॒तानि॑। उ॒श्म॒सि॒॥6॥ पदार्थः—(अपाम्) ये व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थानन्तरिक्षादयस्तेषां प्रणेतारम् (नपातम्) न विद्यते पातो विनाशो यस्येति तम्। नभ्राण्नपान्नवेदा॰ (अष्टा॰6.3.75) अनेनाऽयं निपातितः। (अवसे) रक्षणाद्याय (सवितारम्) सकलैश्वर्य्यप्रदम् (उप) सामीप्ये (स्तुहि) प्रशंसय (तस्य) जगदीश्वरस्य (व्रतानि) नियतधर्मयुक्तानि कर्माणि गुणस्वभावाँश्च (उश्मसि) प्राप्तुं कामयामहे॥6॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथाहमवसे यमपां नपातं सवितारं परमात्मानमुपस्तौमि तथा तं त्वमप्युपस्तुहि प्रशंसय यथा वयं यस्य व्रतान्युश्मसि प्रकाशितुं कामयामहे तथा तस्यैतानि यूयमपि प्राप्तुं कामयध्वम्॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वान् परमेश्वरं स्तुत्वा तस्याज्ञामाचरन्ति। तथैव युष्माभिरप्यनुष्ठाय तद्रचितायामस्यां सृष्टावुपकाराः संग्राह्या इति॥6॥ पदार्थः—हे धार्मिक विद्वान् मनुष्य! जैसे मैं (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अपाम्) जो सब पदार्थों को व्याप्त होने अन्त आदि पदार्थों के वर्त्ताने तथा (नपातम्) अविनाशी और (सवितारम्) सकल ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर की स्तुति करता हूँ, वैसे तू भी उसकी (उपस्तुहि) निरन्तर प्रशंसा कर। हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जिसके (व्रतानि) निरन्तर धर्मयुक्त कर्मों को (उश्मसि) प्राप्त होने की कामना करते हैं, वैसे (तस्य) उसके गुण कर्म्म और स्वभाव को प्राप्त होने की कामना तुम भी करो॥6॥ भावार्थः—जैसे विद्वान् मनुष्य परमेश्वर की स्तुति करके उसकी आज्ञा का आचरण करता है, वैसे तुम लोगों को भी उचित है कि उस परमेश्वर के रचे हुए संसार में अनेक प्रकार के उपकार ग्रहण करो॥6॥ अथ सवितृशब्देनेश्वरसूर्य्यगुणा उपदिश्यन्ते। अगले मन्त्र में सविता शब्द से ईश्वर और सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है- वि॒भ॒क्तारं॑ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥7॥ वि॒ऽभ॒क्तार॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। वसोः॑। चि॒त्रस्य॑। राध॑सः। स॒वि॒तारम्। नृ॒ऽचक्ष॑सम्॥7॥ पदार्थः—(विभक्तारम्) जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मानुकूलफलविभाजितारम्। विविधपदार्थानां पृथक् पृथक् कर्त्तारं वा (हवामहे) आदद्मः। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः स्थाने श्लोरभावः। (वसोः) वस्तुजातस्य (चित्रस्य) अद्भुतस्य (राधसः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य च (सवितारम्) उत्पादकमैश्वर्य्यहेतुं वा (नृचक्षसम्) नृषु चक्षा अन्तर्य्यामिरूपेण विज्ञानप्रकाशो वा यस्य तम्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा वयं नृचक्षसं वसोश्चित्रस्य राधसो विभक्तारं सवितारं परमेश्वरं सूर्य्यं वा हवामहे आददीमहि तथैव यूयमप्यादत्त॥7॥ भावार्थः—अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यतः परमेश्वरः सर्वशक्तिमत्त्वसर्वज्ञत्वाभ्यां सर्वजगद्रचनं कृत्वा सर्वेभ्यः कर्मफलप्रदानं करोति। सूर्य्योऽग्निमयत्वछेदकत्वाभ्यां मूर्त्तद्रव्याणां विभागप्रकाशौ करोति तस्मादेतौ सर्वदा युक्त्योपचर्य्यौ॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जैसे हम लोग (नृचक्षसम्) मनुष्यों में अन्तर्यामिरूप से विज्ञान प्रकाश करने (वसोः) पदार्थों से उत्पन्न हुए (चित्रस्य) अद्भुत (राधसः) विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ति राज्य आदि धन के यथायोग्य (विभक्तारम्) जीवों के कर्म के अनुकूल विभाग से फल देने वा (सवितारम्) जगत् के उत्पन्न करने वाले परमेश्वर और (नृचक्षसम्) जो मूर्त्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने (वसोः) (चित्रस्य) (राधसः) उक्त धनसम्बन्धी पदार्थों को (विभक्तारम्) अलग-अलग व्यवहारों में वर्त्ताने और (सवितारम्) ऐश्वर्य्य हेतु सूर्य्यलोक को (हवामहे) स्वीकार करें, वैसे तुम भी उनका ग्रहण करो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि जिससे परमेश्वर सर्वशक्तिपन वा सर्वज्ञता से सब जगत् की रचना करके सब जीवों को उसके कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता और जैसे सूर्य्यलोक अपने ताप वा छेदनशक्ति से मूर्त्तिमान् द्रव्यों का विभाग और प्रकाश करता है, इससे तुम भी सबको न्यायपूर्वक दण्ड वा सुख और यथायोग्य व्यवहार में चला के विद्यादि शुभ गुणों को प्राप्त कराया करो॥7॥ कथमयुमपकारो ग्रहीतुं शक्य इत्युपदिश्यते। कैसे मनुष्य इस उपकार को ग्रहण कर सकें, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया- सखा॑य॒ आ नि षी॑दत सवि॒ता स्तोम्यो॒ नु नः॑। दाता॒ राधां॑सि शुम्भति॥8॥ सखा॑यः। आ। नि। सी॒द॒त॒। स॒वि॒ता। स्तोम्यः॑। नु। नः॒। दाता॑। राधां॑सि। शुम्भ॒ति॒॥8॥ पदार्थः—(सखायः) परस्परं सुहृदः परोपकारका भूत्वा (आ) अभितः (नि) निश्चयार्थे (सीदत) वर्त्तध्वम् (सविता) सकलैश्वर्य्ययुक्तः। ऐश्वर्य्यहेतुर्वा (स्तोम्यः) प्रशंसनीयः (नु) क्षिप्रम्। न्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.15) (नः) अस्मभ्यम् (दाता) दानशीलो दानहेतुर्वा (राधांसि) नानाविधान्युत्तमानि धनानि (शुम्भति) शोभयति॥8॥ अन्वयः—हे मनुष्या यूयं सदा सखायः सन्त आनिषीदत यः स्तोम्यो नोऽस्मभ्यं राधांसि दाता सविता जगदीश्वरः सूर्य्यो वा शुम्भति तं नु नित्यं प्रशंसत॥8॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। नैव मनुष्याणां मित्रभावेन विना परस्परं सुखं सम्भवति। अतः सर्वैः परस्परं मिलित्वा जगदीश्वरस्याग्निमयस्य सूर्य्यादेर्वा गुणानुपदिश्य श्रुत्वा च तेभ्यः सुखाय सदोपकारो ग्राह्य इति॥8॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग सदा (सखायः) आपस में मित्र सुख वा उपकार करने वाले होकर (आनिषीदत) सब प्रकार स्थित रहो और जो (स्तोम्यः) प्रशंसनीय (नः) हमारे लिये (राधांसि) अनेक प्रकार के उत्तम धनों को (दाता) देनेवाला (सविता) सकल ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर (शुम्भति) सबको सुशोभित करता है उसकी (नु) शीघ्रता के साथ नित्य प्रशंसा करो। तथा हे मनुष्यो! जो (स्तोम्यः) प्रशंसनीय (नः) हमारे लिये (राधांसि) उक्त धनों को (शुम्भति) सुशोभित कराता वा उनके (दाता) देने का हेतु (सविता) ऐश्वर्य्य देने का निमित्त सूर्य्य है उसकी (नु) नित्य शीघ्रता के साथ प्रशंसा करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परस्पर मित्रभाव के विना कभी सुख नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि एक-दूसरे के साथ होकर जगदीश्वर वा अग्निमय सूर्य्यादि का उपदेश कर वा सुनकर उनसे सुखों के लिये सदा उपकार ग्रहण करें॥8॥ पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते। फिर अगले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है- अग्ने॒ पत्नी॑रि॒हा व॑ह दे॒वाना॑मुश॒तीरुप॑। त्वष्टा॑रं॒ सोम॑पीतये॥9॥ अग्ने॑। पत्नीः॑। इ॒ह। आ। व॒ह॒। दे॒वाना॑म्। उ॒श॒तीः। उप॑। त्वष्टार॑म्। सोम॑ऽपीतये॥9॥ पदार्थः—(अग्ने) अग्निर्भौतिकः (पत्नीः) पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। (अष्टा॰4.1.33) अनेन ङीप् प्रत्ययो नकारादेशश्च। इयं वै पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी। (श॰ब्रा॰5.2.5.4) देवानां पत्न्य उशत्योऽवन्तु नः। प्रावन्तु नस्तुजयेऽपत्यजननाय चान्नसंसननाय च। याः पार्थिवासो या अपामपि व्रते कर्मणि ता नो देव्यः सुहवाः शर्म यच्छन्तु शरणम्। अपि च ग्नाः व्यन्तु देवपत्न्य इन्द्राणीन्द्रस्य पत्न्यग्नाय्यग्नेः पत्न्यश्विन्यश्विनोः पत्नी राड् राजते रोदसी रुद्रस्य पत्नी वरुणानी च वरुणस्य पत्नी व्यन्तु देव्यः कामयन्तां य ऋतुः कालो जायानाम्। (निरु॰12.45-46) देवानां विदुषां पालनयोग्याऽग्न्यादीनां स्थित्यर्थेयं पृथिवी वर्त्तते तस्माद् दैवपत्नीत्युच्यते यस्मिन् यस्मिन् द्रव्ये या याः शक्तयः सन्ति तास्तास्तेषां द्रव्याणां पत्न्य इवेत्युच्यन्ते (इह) अस्मिन् शिल्पयज्ञे (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (देवानाम्) पृथिव्यादीनामेकत्रिंशतः (उशतीः) स्वस्वाधारगुणप्रकाशयन्तीः (उप) सामीप्ये (त्वष्टारम्) छेदन कर्त्तारं सूर्य्यं शिल्पिनं वा (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीतिर्ग्रहणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै॥9॥ अन्वयः—योऽयमग्निः सोमपीतये देवानामुशतीः पत्नीस्त्वष्टारं चोपावह समीपे प्रापयति तस्य प्रयोगो यथावत्कर्त्तव्यः॥9॥ भावार्थः—विद्वद्भिर्योऽग्निर्भौतिको विद्युत्पृथिवीस्थसूर्य्यरूपेण त्रिधा वर्त्तमानः शिल्पविद्यासिद्धये पृथिव्यादीनां सामर्थ्यप्रकाशको मुख्यहेतुरस्ति स स्वीकार्य्यः। अत्र शिल्पविद्यायज्ञे पृथिव्यादीनां संयोजनार्थत्वात् तत्तत्सामर्थ्यस्य पत्नीति संज्ञा विहिता॥9॥ पदार्थः—(अग्ने) जो यह भौतिक अग्नि (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम आदि पदार्थों का ग्रहण होता है उसके लिये (देवानाम्) इकत्तीस जो कि पृथिवी आदि लोक हैं उनकी (उशतीः) अपने-अपने आधार के गुणों का प्रकाश करने वाला (पत्नीः) स्त्रीवत् वर्त्तमान अदिति आदि पत्नी और (त्वष्टारम्) छेदन करनेवाले सूर्य्य वा कारीगर को (उपावह) अपने सामने प्राप्त करता है, उसका प्रयोग ठीक-ठीक करें॥9॥ भावार्थः—विद्वानों को उचित है कि जो बिजुली प्रसिद्ध और सूर्य्यरूप से तीन प्रकार का भौतिक अग्नि शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये पृथिवी आदि पदार्थों के सामर्थ्य प्रकाश करने में मुख्य हेतु है, उसी का स्वीकार करें और यह इस शिल्पविद्यारूपी यज्ञ में पृथिवी आदि पदार्थों के सामर्थ्य का पत्नी नाम विधान किया है, उसको जानें॥9॥ का का सा देवपत्नीत्युपदिश्यते। वे कौन-कौन देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- आ ग्ना अ॑ग्न इ॒हाव॑से॒ होत्रां॑ यविष्ठ॒ भार॑तीम्। वरू॑त्रीं धि॒षणां॑ वह॥10॥5॥ आ। ग्नाः। अ॒ग्ने॒। इ॒ह। अव॑से। होत्रा॑म्। य॒वि॒ष्ठ॒। भार॑तीम्। वरू॑त्रीम्। धि॒षणा॑म्। व॒ह॒॥10॥ पदार्थः—(आ) क्रियायोगे (ग्नाः) पृथिव्याः। ग्ना इत्युत्तरपदनामसु पठितम्। (निघं॰3.29) (अग्ने) पदार्थविद्यावेत्तर्विद्वन् (इह) शिल्पकार्य्येषु (अवसे) प्रवेशाय (होत्राम्) हुतद्रव्यगतिम् (यविष्ठ) यौति मिश्रयति विविनक्ति वा सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ। (भारतीम्) यो ययाशुभैर्गुणैर्बिभर्त्ति पृथिव्यादिस्थान् प्राणिनः स भरतस्तस्येमां भाम्। भरत आदित्यस्तस्य भा इळा। (निरु॰8.13) (वरूत्रीम्) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हाम्। अहोरात्राणि वै वरूत्रयः। (श॰ब्रा॰6.4.2.6) (धिषणाम्) धृष्णोति कार्य्येषु यया तामग्नेर्ज्वालाप्रेरितां वाचम्। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) धृषेर्धिषच् संज्ञायाम्। (उणा॰2.80) इति क्युः प्रत्ययो धिषजादेशश्च। (वह) प्राप्नुहि। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥10॥ अन्वयः—हे यविष्ठाग्ने विद्वँस्त्वमिहावसे ग्ना होत्रां भारतीं वरूत्रीं धिषणामा वह समन्तात् प्राप्नुहि॥10॥ भावार्थः—विद्वद्भिरस्मिन् संसारे मनुष्यजन्म प्राप्य वेदादिद्वारा सर्वा विद्याः प्रत्यक्षीकार्य्याः। नैव कस्यचिद् द्रव्यस्य गुणकर्मस्वभावानां प्रत्यक्षीकरणेन विना विद्या सफला भवतीति वेदितव्यम्॥10॥

इति पञ्चमो वर्गः सम्पूर्णः॥

पदार्थः—हे (यविष्ठ) पदार्थों को मिलाने वा उनमें मिलने वाले (अग्ने) क्रियाकुशल विद्वान्! तू (इह) शिल्पकार्य्यों में (अवसे) प्रवेश करने के लिये (ग्नाः) पृथिवी आदि पदार्थ (होत्राम्) होम किये हुए पदार्थों को बहाने (भारतीम्) सूर्य्य की प्रभा (वरूत्रीम्) स्वीकार करने योग्य दिन रात्रि और (धिषणाम्) जिससे पदार्थों को ग्रहण करते हैं, उस वाणी को (आवह) प्राप्त हो॥10॥ भावार्थः—विद्वानों को इस संसार में मनुष्य जन्म पाकर वेद द्वारा सब विद्या प्रत्यक्ष करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी विद्या पदार्थों के गुण और स्वभाव को प्रत्यक्ष किये विना सफल नहीं हो सकती॥10॥ यह पांचवा वर्ग पूरा हुआ॥ अथ विद्वत्स्त्रियोऽप्येतानि कार्य्याणि कुर्य्युरित्युपदिश्यते। अब विद्वानों की स्त्रियां भी उक्त कार्य्यों को करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है- अ॒भि नो॑ दे॒वीरव॑सा म॒हः शर्म्म॑णा नृ॒पत्नीः॑। अच्छि॑न्नपत्राः सचन्ताम्॥11॥ अ॒भि। नः॒। दे॒वीः। अव॑सा। म॒हः। शर्म्म॑णा। नृ॒ऽपत्नीः॑। अच्छि॑न्नऽपत्राः। स॒च॒न्ता॒म्॥11॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (नः) अस्मान् (देवीः) देवानां विदुषामिमाः स्त्रियो देव्यः। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इति पूर्वसवर्णः (अवसा) रक्षाविद्या प्रवेशादि कर्म्मणा सह (महः) महता। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति विभक्तेर्लुक्। (शर्म्मणा) गृहसंबन्धिसुखेन। शर्म्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (नृपत्नीः) याः क्रियाकुशलानां विदुषां नृणां स्वसदृश्यः पत्न्यः (अच्छिन्नपत्रा) अविच्छिन्नानि पत्राणि कर्मसाधनानि यासां ताः। (सचन्ताम्) संयुञ्जन्तु॥11॥ अन्वयः—इमा अच्छिन्नपत्रा देवीर्नृपत्नीर्महः शर्म्मणावसा सह नोऽस्मानभिसचन्तां संयुक्ता भवन्तु॥11॥ भावार्थः—यादृशविद्यागुणस्वभावाः पुरुषास्तेषां तादृशीभिः स्त्रीभिरेव भवितव्यम्। यतस्तुल्यविद्यागुणस्वभावानां सम्बन्धे सुखं सम्भवति नेतरेषाम्। तस्मात्स्वसदृशैः सह स्त्रियः स्वसदृशीभिः स्त्रीभिः सह पुरुषाश्च स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा सर्वाणि गृहकार्य्याणि निष्पाद्य सदानन्दितव्यमिति॥11॥ पदार्थः—(अच्छिन्नपत्राः) जिन के अविनष्ट कर्मसाधन और (देवीः) (नृपत्नीः) जो क्रियाकुशलता में चतुर विद्वान् पुरुषों की स्त्रियां हैं, वे (महः) बड़े (शर्मणा) सुखसम्बन्धी घर (अवसा) रक्षा विद्या में प्रवेश आदि कर्मों के साथ (नः) हम लोगों को (अभिसचन्ताम्) अच्छी प्रकार मिलें॥11॥ भावार्थः—जैसी विद्या, गुण, कर्म और स्वभाव वाले पुरुष हों, उनकी स्त्री भी वैसे ही होनी ठीक हैं, क्योंकि जैसा तुल्य रूप विद्या गुण कर्म स्वभाव वालों को सुख का सम्भव होता है, वैसा अन्य को कभी नहीं हो सकता। इससे स्त्री अपने समान पुरुष वा पुरुष अपने समान स्त्रियों के साथ आपस में प्रसन्न होकर स्वयंवर विधान से विवाह करके सब कर्मों को सिद्ध करें॥11॥ पुनस्ताः कीदृश्यो देवपत्न्य इत्युपदिश्यते। फिर वे कैसी देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- इ॒हेन्द्रा॒णीमुप॑ ह्वये वरुणा॒नीं स्व॒स्तये॑। अ॒ग्नायीं॒ सोम॑पीतये॥12॥ इ॒ह। इ॒न्द्राणीम्। उप॑। ह्वये॒। व॒रु॒णा॒नीम्। स्व॒स्तये॑। अ॒ग्नायी॑म्। सोम॑ऽपीतये॥12॥ पदार्थः—(इह) एतस्मिन् व्यवहारे। (इन्द्राणीम्) इन्द्रस्य सूर्य्यस्य वायोर्वा शक्तिं सामर्थ्यमिव वर्त्तमानम् (उप) उपयोगे (ह्वये) स्वीकुर्वे (वरुणानीम्) यथा वरुणस्य जलस्येयं शान्तिमाधुर्य्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथाभूतम् (स्वस्तये) अविनष्टा याभिपूजिताय सुखाय। स्वस्तीत्यविनाशिनामास्तिरभिपूजितः। (निरु॰3.21) (अग्नायीम्) यथाग्नेरियं ज्वालास्ति तादृशीम्। वृषाकप्यग्नि॰ (अष्टा॰4.1.37) अनेन ङीप्प्रत्यय ऐकारादेशश्च। (सोमपीतये) सोमानामैश्वर्य्याणां पीतिर्भोगो यस्मिन् तस्मै। सह सुपा इति समासः। अग्नाय्यग्नेः पत्नी तस्या एषा भवति। इहेन्द्राणीमुपह्वये॰ सा निगदव्याख्याता। (निरु॰8.34)॥12॥ अन्वयः—मनुष्या यथाहमिह स्वस्तये सोमपीतय इन्द्राणीं वरुणानीमग्नायीमिव स्त्रियमुपह्वये तथा भवद्भिरपि सर्वैरनुष्ठेयम्॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वररचितानां पदार्थानां सकाशादविनश्वरसुख- प्राप्तयेऽत्युत्तमाः स्त्रियः प्राप्तव्याः। नित्यमुद्योगेनान्योऽन्यं प्रीता विवाहं कुर्य्युः। नैव सदृशस्त्रीः पुरुषार्थं चान्तरा कस्यचित् किंचिदपि यथावत् सुखं सम्भवति॥12॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जैसे हम लोग (इह) इस व्यवहार में (स्वस्तये) अविनाशी प्रशंसनीय सुख वा (सोमपीतये) ऐश्वर्य्यों का जिसमें भोग होता है, उस कर्म के लिये जैसा (इन्द्राणीम्) सूर्य्य (वरुणानीम्) वायु वा जल और (अग्नायीम्) अग्नि की शक्ति हैं, वैसी स्त्रियों को पुरुष और पुरुषों को स्त्री लोग (उपह्वये) उपयोग के लिये स्वीकार करें, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि ईश्वर के बनाये हुए पदार्थों के आश्रय से अविनाशी निरन्तर सुख की प्राप्ति के लिये उद्योग करके परस्पर प्रसन्नता युक्त स्त्री और पुरुष का विवाह करें, क्योंकि तुल्य स्त्री पुरुष और पुरुषार्थ के विना किसी मनुष्य को कुछ भी ठीक-ठीक सुख का सम्भव नहीं हो सकता॥12॥ अत्र भूम्यग्नी मुख्ये साधने स्त इत्युपदिश्यते। शिल्पविद्या में भूमि और अग्नि मुख्य साधन हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ न इ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः॥13॥ म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मऽभिः॥13॥ पदार्थः—(मही) महागुणविशिष्टा (द्यौः) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्य्यादिलोकसमूहः (पृथिवी) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छताम् (पिपृताम्) प्रपिपूर्त्तः। अत्र लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणकरैर्गुणैः। ‘भृञ्’धातोर्मनिन् प्रत्ययो बहुलं छन्दसि इतीडागमः॥13॥ अन्वयः—हे उपदेश्योपदेष्टारौ युवां ये मही द्यौः पृथिवी च भरीमभिर्न इमं यज्ञं नोऽस्मांश्च पिपृतामङ्गैः सुखेन प्रपिपूर्त्तस्ताभ्यामिमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृतां च॥13॥ भावार्थः—द्यौरिति प्रकाशवतां लोकानामुपलक्षणं पृथिवीत्यप्रकाशवतां च। मनुष्यैरेताभ्यां प्रयत्नेन सर्वानुपकारान् गृहीत्वा पूर्णानि सुखानि सम्पादनीयानि॥13॥ पदार्थः—हे उपदेश के करने और सुनने वाले मनुष्यो! तुम दोनों जो (मही) बड़े-बड़े गुण वाले (द्यौः) प्रकाशमय बिजुली, सूर्य्य आदि और (पृथिवी) अप्रकाश वाले पृथिवी आदि लोकों का समूह (भरीमभिः) धारण और पुष्टि करने वाले गुणों से (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ (च) और (नः) हम लोगों को (पिपृताम्) सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, वे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को (मिमिक्षताम्) सिद्ध करने की इच्छा करो तथा (पिपृताम्) उन्हीं से अच्छी प्रकार सुखों को परिपूर्ण करो॥13॥ भावार्थः—‘द्यौः’ यह नाम प्रकाशमान लोकों का उपलक्षण अर्थात् जो जिसका नाम उच्चारण किया हो वह उसके समतुल्य सब पदार्थों के ग्रहण करने में होता है तथा ‘पृथिवी’ यह विना प्रकाश वाले लोकों का है। मनुष्यों को इन से प्रयत्न के साथ सब उपकारों को ग्रहण करके उत्तम-उत्तम सुखों को सिद्ध करना चाहिये॥13॥ एताभ्यां कि कार्य्यमित्युपदिश्यते। उक्त दो प्रकार के लोकों से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- तयो॒रिद् घृ॒तव॒त्पयो॒ विप्रा॑ रिहन्ति धी॒तिभिः॑। ग॒न्ध॒र्वस्य॑ ध्रु॒वे प॒दे॥14॥ तयोः॑। इत्। घृ॒तऽव॑त्। पयः॑। विप्राः॑। रि॒ह॒न्ति॒। धी॒तिभिः॑। ग॒न्ध॒र्व॒स्य॑। ध्रु॒वे। प॒दे॥14॥ पदार्थः—(तयोः) द्यावापृथिव्योः (इत्) एव (घृतवत्) घृतं प्रशस्तं जलं विद्यते यस्मिंस्तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (पयः) रसादिकम् (विप्राः) मेधाविनः (रिहन्ति) आददते श्लाघन्ते वा (धीतिभिः) धारणाकर्षणादिभिर्गुणैः (गन्धर्वस्य) यो गां पृथिवीं धरति सः। गन्धर्वो वायुस्तस्य वातो गन्धर्वस्तस्यापो अप्सरसः। (श॰ब्रा॰9.3.3.10) (ध्रुवे) निश्चले (पदे) सर्वत्र प्राप्तेऽन्तरिक्षे॥14॥ अन्वयः—ये विप्रा याभ्यां श्लाघन्ते तयोर्धीतिभिर्गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे विमानादीनि यानानि रिहन्ति ते श्लाघन्ते घृतवत्पय आददते॥14॥ भावार्थः—विद्वद्भिः पृथिव्यादिपदार्थैर्यानानि रचयित्वा तत्र कलासु जलाग्निप्रयोगेण भूसमुद्रान्तरिक्षेषु गन्तव्यमागन्तव्यं चेति॥14॥ पदार्थः—जो (विप्राः) बुद्धिमान् पुरुष जिनसे प्रशंसनीय होते हैं (तयोः) उन प्रकाशमय और अप्रकाशमय लोकों के (धीतिभिः) धारण और आकर्षण आदि गुणों से (गन्धर्वस्य) पृथिवी को धारण करने वाले वायु का (ध्रुवे) जो सब जगह भरा निश्चल (पदे) अन्तरिक्ष स्थान है, उसमें विमान आदि यानों को (रिहन्ति) गमनागमन करते हैं वे प्रशंसित होके, उक्त लोकों ही के आश्रय से (घृतवत्) प्रशंसनीय जल वाले (पयः) रस आदि पदार्थों को ग्रहण करते हैं॥14॥ भावार्थः—विद्वानों को पृथिवी आदि पदार्थों से विमान आदि यान बनाकर उनकी कलाओं में जल और अग्नि के प्रयोग से भूमि, समुद्र और आकाश में जाना आना चाहिये॥14॥ इयं भूमिः किमर्था कीदृशी चेत्युपदिश्यते। यह भूमि किसलिये और कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- स्यो॒ना पृ॑थिवि भवानृक्ष॒रा नि॒वेश॑नी। यच्छा॑ नः॒ शर्म॑ स॒प्रथः॑॥15॥6॥ स्यो॒ना। पृ॒थि॒वि॒। भ॒व॒। अ॒नृ॒क्ष॒रा। नि॒ऽवेश॑नी। यच्छ॑। नः॒। शर्म॑। स॒ऽप्रथः॑॥15॥ पदार्थः—(स्योना) सुखहेतुः। इदं ‘सिवु’धातो रूपम् सिवेष्टेर्यू च। (उ॰3.9) अनेन नः प्रत्ययष्टेर्यूरादेश्च। स्योनमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री भूमिः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (भव) भवति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (अनृक्षरा) अविद्यमाना ऋक्षरा दुःखप्रदाः कण्टकादयो यस्यां सा (निवेशनी) निविशन्ति प्रविशन्ति यस्यां सा (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (सप्रथः) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थैः सह वर्त्तते तत्। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-सुखा नः पृथिवि भवानृक्षरा निवेशन्यृक्षरः कण्टक ऋच्छतेः। कण्टकः कन्तपो कृन्ततेर्वा कण्टतेर्वा स्याद् गतिकर्म्मण उद्गततमो भवति। यच्छ नः शर्म्म यच्छन्तु शरणं सर्वतः पृथु। (निरु॰9.32)॥15॥ अन्वयः—येयं पृथिवी स्योनाऽनृक्षरा निवेशनी भवति सा नोऽस्मभ्यं सप्रथः शर्म्म यच्छ प्रयच्छति॥15॥ भावार्थः—मनुष्यैर्भूगर्भविद्यया गुणैर्विदितेयं भूमिरेव मूर्त्तिमतां निवासस्थानमनेकसुखहेतुः सती बहुरत्नप्रदा भवतीति वेद्यम्॥15॥

इति षष्ठो वर्गः समाप्तः॥

पदार्थः—जो यह (पृथिवी) अति विस्तारयुक्त (स्योना) अत्यन्त सुख देने तथा (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देने वाले कण्टक आदि न हों (निवेशनी) और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, वैसी (भव) होती है, सो (नः) हमारे लिये (सप्रथः) विस्तारयुक्त सुखकारक पदार्थ वालों के साथ (शर्म्म) उत्तम सुख को (यच्छ) देती है॥15॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है, कि यह भूमि ही सब मूर्त्तिमान् पदार्थों के रहने की जगह और अनेक प्रकार के सुखों की कराने वाली और बहुत रत्नों को प्राप्त कराने वाली होती है, ऐसा ज्ञान करें॥15॥ यह षष्ठ वर्ग समाप्त हुआ॥ अथ पृथिव्यादीनां रचको धारकश्च कोऽस्तीत्युपदिश्यते। अब पृथिवी आदि पदार्थों का रचने और धारण करने वाला कौन है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अतो॑ दे॒वा अ॑वन्तु नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः स॒प्त धाम॑भिः॥16॥ अतः॑। दे॒वाः। अ॒व॒न्तु॒। नः॒। यतः॑। विष्णुः॑। वि॒ऽच॒क्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः। स॒प्त। धाम॑ऽभिः॥16॥ पदार्थः—(अतः) अस्मात् कारणात् (देवाः) विद्वांसोऽग्न्यादयो वा (अवन्तु) अवगमयन्तु प्रापयन्ति वा पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (यतः) यस्मादनादिकारणात् (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः। विषेः किच्च। (उणा॰3.38) अनेन ‘विष्लृ’धातोर्नुः प्रत्ययः किच्च। (विचक्रमे) विविधतया रचितवान् (पृथिव्याः) पृथिवीमारभ्य। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्म्मण्युपसंख्यानम्। (अष्टा॰2.3.28) अनेन पञ्चमी। (सप्त) पृथिवीजलाग्निवायुविराट्परमाणु- प्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति विभक्तेर्लुक्। (धामभिः) दधति सर्वाणि वस्तूनि येषु तैः सह॥16॥ अन्वयः—यतोऽयं विष्णुर्जगदीश्वरः पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्य्यन्तैः सप्तभिर्धामभिः सह वर्त्तमानाँल्लोकान् विचक्रमे रचितवानत एतेभ्यो देवा विद्वांसो नोऽस्मानवन्त्वेतद्विद्यामवगमयन्तु॥16॥ भावार्थः—नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यचिन्मनुष्यस्य यथावत्सृष्टिविद्या सम्भवति नैवेश्वरोत्पादनेन विना कस्यचिद् द्रव्यस्य स्वतो महत्त्वपरिमाणेन मूर्त्तिमत्त्वं जायते नैवैताभ्यां विना मनुष्या उपकारान् ग्रहीतुं शक्नुवन्तीति बोध्यम्। विलसनाख्येनास्य मन्त्रस्य ‘पृथिव्यास्तस्मात्खण्डादवयवाद्विष्णोः सहायेन देवा अस्मान् रक्षन्तु’ इति मिथ्यात्वेनार्थो वर्णित इति विज्ञयेम्॥16॥ पदार्थः—(यतः) जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से (विष्णुः) चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी को लेकर (सप्त) सात अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति पर्य्यन्त लोकों को (धामभिः) जो सब पदार्थों को धारण करते हैं उनके साथ (विचक्रमे) रचता है (अतः) उसी से (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों को (अवन्तु) उक्त लोकों की विद्या को समझते वा प्राप्त कराते हुए हमारी रक्षा करते रहें॥16॥ भावार्थः—विद्वानों के उपदेश के विना किसी मनुष्य को यथावत् सृष्टिविद्या का बोध कभी नहीं हो सकता। ईश्वर के उत्पादन करने के विना किसी पदार्थ का साकार होना नहीं बन सकता और इन दोनों कारणों के जाने विना कोई मनुष्य पदार्थों से उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकता। और जो यूरोपदेश वाले विलसन साहिब ने ‘पृथिवी उस खण्ड के अवयव से तथा विष्णु की सहायता से देवता हमारी रक्षा करें’ यह इस मन्त्र का अर्थ अपनी झूंठी कल्पना से वर्णन किया है, सो समझना चाहिये॥16॥ ईश्वरेणैतज्जगत् कियत्प्रकारकं रचितमित्युपदिश्यते। ईश्वर ने इस संसार को कितने प्रकार का रचा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा नि द॑धे प॒दम्। समू॑ळ्हमस्य पांसु॒रे॥17॥ इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम्। सम्। ऊ॒ळ्हम्। अ॒स्य॒। पां॒सु॒रे॥17॥ पदार्थः—(इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत् (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (वि) विविधार्थे (चक्रमे) यथायोग्यं प्रकृतिपरमाण्वादिपादानंशान् विक्षिप्य सावयवं कृतवान् (त्रेधा) त्रिःप्रकारकम् (नि) नितराम् (दधे) धृतवान् (पदम्) यत्पद्यते प्राप्यते तत् (समूढम्) यत्सम्यक् तर्क्यते तर्केण यद्विज्ञायते तत् (अस्य) जगतः (पांसुरे) प्रशस्ताः पांसवो रेणवो विद्यन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्। नगपांसुपाण्डुभ्यश्चेति वक्तव्यम्। (अष्टा॰5.2.107) अनेन प्रशंसार्थे रः प्रत्ययः॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-विष्णुर्विशतेव्यश्नोतेर्वा यदिदं किं च तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणं विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरेऽप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे समूढमस्य पांसुर इव पदं न दृश्यत इति पांसवः पादैः सूयन्त इति वा पन्नाः शेरत इति वा पंसनीया भन्तीति वा। (निरु॰12.19) गयशिरसीत्यत्र गय इत्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.2) गय इति धननामसु च। (निघं॰2.10) प्राणा वै गयाः। (श॰ब्रा॰14.7.1.7) प्रजायाः शिर उत्तमभागो यत्कारणं तद्विष्णुपदं गयानां विद्यादिधनानां यच्छिरः फलमानन्दः सोऽपि विष्णुपदाख्यः। गयानां प्राणानां शिरः प्रीतिजनकं सुखं तदपि विष्णुपदमित्यौर्णवाभाचार्य्यस्य मतम्। पादैः सूयन्ते वाऽनेन कारणांशैः कार्य्यमुत्पद्यत इति बोध्यम्। पदं न दृश्यतेऽनेनातीन्द्रियाः परमाण्वादयोऽन्तरिक्षे विद्यमाना अपि चक्षुषा न दृश्यन्त इति वेदितव्यम्। इदं त्रेधाभावायेति। एकं प्रत्यक्षं प्रकाशरहितं पृथिवीमयं द्वितीयं कारणाख्यमदृश्यं तृतीयं प्रकाशमयं सूर्य्यादिकं च जगदस्तीति बोध्यम्। विष्णुशब्देनात्र व्यापकेश्वरो ग्राह्य इति॥17॥ अन्वयः—मनुष्यैर्यो विष्णुस्त्रेधेदं पदं विचक्रमेऽस्य त्रिविधस्य जगतः समूढं मध्यस्थं जगत्पांसुरेऽन्तरिक्षे विदधे विहितवानस्ति स एवोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥17॥ भावार्थः—परमेश्वरेणास्मिन् संसारे त्रिविधं जगद्रचितमेकं पृथिवीमयं द्वितीयमन्तरिक्षस्थं त्रसरेण्वादिमयं तृतीयं प्रकाशमयं च। एतेषां त्रयाणामेतानि त्रीण्येवाधारभूतानि यच्चान्तरिक्षस्थं तदेव पृथिव्याः सूर्य्यादेश्च वर्धकं नैवैतदीश्वरेण विना कश्चिज्जीवो विधातुं शक्नोति। सामर्थ्याभावात्। सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्येन चास्य मन्त्रस्यार्थस्य वामनाभिप्रायेण वर्णितत्वात्स पूर्वपश्चिमपर्वतस्थो विष्णुरस्तीति मिथ्यार्थोऽस्तीति वेद्यम्॥17॥ पदार्थः—मनुष्य लोग जो (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (त्रेधा) तीन प्रकार का (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (पदम्) प्राप्त होने वाला जगत् है, उसको (विचक्रमे) यथायोग्य प्रकृति और परमाणु आदि के पद वा अंशो को ग्रहण कर सावयव अर्थात् शरीर वाला करता और जिसने (अस्य) इस तीन प्रकार के जगत् का (समूढम्) अच्छी प्रकार तर्क से जानने योग्य और आकाश के बीच में रहने वाला परमाणुमय जगत् है, उसको (पांसुरे) जिसमें उत्तम-उत्तम मिट्टी आदि पदार्थों के अति सूक्ष्म कण रहते हैं, उनको आकाश में (विदधे) धारण किया है। जो प्रजा का शिर अर्थात् उत्तम भाग कारण रूप और जो विद्या आदि धनों का शिर अर्थात् उत्तम फल आनन्दरूप तथा जो प्राणों का शिर अर्थात् प्रीति उत्पादन करने वाला सुख है, ये सब ‘विष्णुपद’ कहाते हैं, यह और्णवाभ आचार्य्य का मत है। ‘पादैः सूयन्त इति वा’ इसके कहने से कारणों से कार्य्य की उत्पत्ति की है, ऐसा जानना चाहिये। ‘पदं न दृश्यते’ जो इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होते वे परमाणु आदि पदार्थ अन्तरिक्ष में रहते भी हैं, परन्तु आंखों से नहीं दीखते। ‘इदं त्रेधाभावाय’ इस तीन प्रकार के जगत् को जानना चाहिये अर्थात् एक प्रकाशरहित पृथिवीरूप, दूसरा कारणरूप जो कि देखने में नहीं आता, और तीसरा प्रकाशमय सूर्य्य आदि लोक हैं। इस मन्त्र में विष्णु शब्द से व्यापक ईश्वर का ग्रहण है॥17॥ भावार्थः—परमेश्वर ने इस संसार में तीन प्रकार का जगत् रचा है अर्थात् एक पृथिवीरूप, दूसरा अन्तरिक्ष आकाश में रहने वाला प्रकृति परमाणुरूप और तीसरा प्रकाशमय सूर्य्य आदि लोक तीन आधाररूप हैं, इनमें से आकाश में वायु के आधार से रहने वाला जो कारणरूप है, वही पृथिवी और सूर्य्य आदि लोकों का बढ़ाने वाला है और इस जगत् को ईश्वर के विना कोई बनाने को समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि किसी का ऐसा सामर्थ्य ही नहीं॥17॥ पुनर्विष्णुर्जगदीश्वरः किं कृतवानित्युपदिश्यते। फिर वह सर्वव्यापक जगदीश्वर क्या-क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- त्रीणि॑ प॒दा विच॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥18॥ त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥18॥ पदार्थः—(त्रीणि) त्रिविधानि (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वि) विविधार्थे (चक्रमे) विहितवान् (विष्णुः) विश्वान्तर्यामी (गोपाः) रक्षकः। (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः (अतः) कारणादुत्पद्य (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान् धर्मान् (धारयन्) धारणां कुर्वन्॥18॥ अन्वयः—यतोऽयमदाभ्यो गोपा विष्णुरीश्वरः सर्व जगद्धारयन् संस्त्रीणि पदानि विचक्रमेऽतः कारणादुत्पद्य सर्वे पदार्थाः स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति॥18॥ भावार्थः—मनुष्यैर्नैवेश्वरस्य धारणेन विना कस्यचिद् वस्तुनः स्थितिः सम्भवति। न चैतस्य रक्षणेन विना कस्यचिद् व्यवहारः सिध्यतीति वेदितव्यम्॥18॥ पदार्थः—जिस कारण यह (अदाभ्यः) अपने अविनाशीपन से किसी की हिंसा में नहीं आ सकता (गोपाः) और सब संसार की रक्षा करने वाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करने वाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) जाने, जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों को (विचक्रमे) विधान करता है, इसी कारण से सब पदार्थ उत्पन्न होकर अपने-अपने (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥18॥ भावार्थः—ईश्वर के धारण के विना किसी पदार्थ की स्थिति होने का सम्भव नहीं हो सकता। उसकी रक्षा के विना किसी के व्यवहार की सिद्धि भी नहीं हो सकती॥18॥ पुनस्तत्कृतानि कर्म्माणि मनुष्येण नित्यं द्रष्टव्यानीत्युपदिश्यते। फिर व्यापक परमेश्वर के किये हुए कर्म मनुष्य नित्य देखे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥19॥ विष्णोः॑। कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑॥19॥ पदार्थः—(विष्णोः) सर्वत्र व्यापकस्य शुद्धस्य स्वाभाविकानन्तसामर्थ्यस्येश्वरस्य (कर्माणि) जगद्रचनपालनन्यायकरणप्रलयत्वादीनि (पश्यत) सम्यग्विजानीत (यतः) कर्मबोधस्य सकाशात् (व्रतानि) सत्यभाषणन्यायकरणादीनि (पस्पशे) स्पृशति कर्त्तुं शक्नोति। अत्र लडर्थे लिट्। (इन्द्रस्य) जीवस्य (युज्यः) युञ्जन्ति व्याप्त्या सर्वान् पदार्थान् ते युजो दिक्कालाकाशादयस्तत्र भवः (सखा) सर्वस्य मित्रः सर्वसुखसम्पादकत्वात्॥19॥ अन्वयः—हे मनुष्या यूयं य इन्द्रस्य युज्यः सखास्ति, यतो जीवो व्रतानि पस्पशे स्पृशति, तस्य विष्णोः कर्माणि पश्यत॥19॥ भावार्थः—यस्मात् सर्वमित्रेण जगदीश्वरेण जीवानां पृथिव्यादीनि ससाधनानि शरीराणि रचितानि तस्मादेवं सर्वे प्राणिनः स्वानि स्वानि कर्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्तीति॥19॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! तुम जो (इन्द्रस्य) जीव का (युज्यः) अर्थात् जो अपनी व्याप्ति से पदार्थों में संयोग करने वाले दिशा, काल और आकाश हैं, उनमें व्यापक होके रमने वा (सखा) सर्व सुखों के सम्पादन करने से मित्र है (यतः) जिससे जीव (व्रतानि) सत्य बोलने और न्याय करने आदि उत्तम कर्मों को (पस्पशे) प्राप्त होता है उस (विष्णोः) सर्वत्र व्यापक शुद्ध और स्वभावसिद्ध अनन्त सामर्थ्य वाले परमेश्वर के (कर्माणि) जो कि जगत् की रचना पालना न्याय और प्रयत्न करना आदि कर्म हैं, उनको तुम लोग (पश्यत) अच्छे प्रकार विदित करो॥19॥ भावार्थः—जिस कारण सब के मित्र जगदीश्वर ने पृथिवी आदि लोक तथा जीवों के साधन सहित शरीर रचे हैं। इसी से सब प्राणी अपने-अपने कार्यों के करने को समर्थ होते हैं॥19॥ तद् ब्रह्म कीदृशमित्युपदिश्यते। वह ब्रह्म कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑। दि॒वीव॒ चक्षु॒रात॑तम्॥20॥ तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒वि॒ऽइ॑व। चक्षुः॑। आऽत॑तम्॥20॥ पदार्थः—(तत्) उक्तं वक्ष्यमाणं वा (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं॰3.16) अत्र सूङः क्रिः। (उणा॰4.64) अनेन ‘सूङ’ धातोः क्रिः प्रत्ययः। (दिवीव) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्। चक्षेः शिच्च। (उणा॰2.119) अनेन ‘चक्षे’ रुसिप्रत्ययः शिच्च। (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्॥20॥ अन्वयः—सूरयो विद्वांसो दिव्याततं चक्षुरिव यद्विष्णोराततं परमं पदमस्ति तत् स्वात्मनि सदा पश्यन्ति॥20॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणिनः सूर्यप्रकाशे शुद्धेन चक्षुषा मूर्त्तद्रव्याणि पश्यन्ति, तथैव विद्वांसो विमलेन ज्ञानेन विद्यासुविचारयुक्ते शुद्धे स्वात्मनि जगदीश्वरस्य सर्वानन्दयुक्तं प्राप्तुमर्हं मोक्षाख्यं पदं दृष्ट्वा प्राप्नुवन्ति। नैतत्प्राप्त्यया विना कश्चित्सर्वाणि सुखानि प्राप्तुमर्हति तस्मादेतत्प्राप्तौ सर्वैः सर्वदा प्रयत्नोऽनुविधेय इति। विलसनाख्येन ‘परमं पदम्’ इत्यस्यार्थो हि स्वर्गो भवितुमशक्य इति भ्रान्त्योक्तत्वान्मिथ्यार्थोऽस्ति। कुतः’ परमस्य पदस्य स्वर्गवाचकत्वादिति॥20॥ पदार्थः—(सूरयः) धार्मिक बुद्धिमान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद हैं (तत्) उस को (सदा) सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा अपने आत्मा में (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्राणी सूर्य्य के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं। वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल विज्ञान से विद्या वा श्रेष्ठ विचारयुक्त शुद्ध अपने आत्मा में जगदीश्वर को सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। इस की प्राप्ति के विना कोई मनुष्य सब सुखों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। इस से इसकी प्राप्ति के निमित्त सब मनुष्यों को निरन्तर यत्न करना चाहिये। इस मन्त्र में ‘परमम्’ ‘पदम्’ इन पदों के अर्थ में यूरोपियन विलसन साहब ने कहा है कि इन का अर्थ स्वर्ग नहीं हो सकता, यह उनकी भ्रान्ति है, क्योंकि परमपद का अर्थ स्वर्ग ही है॥20॥ कीदृशा एतत्प्राप्तुमर्हन्तीत्युपदिश्यते। कैसे मनुष्य उक्त पद को प्राप्त होने योग्य हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वांसः॒ समि॑न्धते। विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दम्॥21॥7॥5॥ तत्। विप्रा॑सः। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒ऽवांसः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒। विष्णोः॑। यत्। प॒र॒मम्। प॒दम्॥21॥ पदार्थः—(तत्) पूर्वोक्तम् (विप्रासः) मेधाविनः (विपन्यवः) विविधं जगदीश्वरस्य गुणसमूहं पनायन्ति स्तुवन्ति ये ते। अत्र बाहुलकादौणादिको युच् प्रत्ययः। (जागृवांसः) जागरूकाः। अत्र जागर्तेर्लिटः स्थाने क्वसुः। द्विर्वचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम्। (अष्टा॰वा॰6.1.8) अनेन द्विर्वचनाभावश्च। (सम्) सम्यगर्थे (इन्धते) प्रकाशयन्ते (विष्णोः) व्यापकस्य (यत्) कथितम् (परमम्) सर्वोत्तमगुणप्रकाशम् (पदम्) प्रापणीयम्॥21॥ अन्वयः—विष्णोर्जगदीश्वरस्य यत्परमं पदमस्ति तद्विपन्यवो जागृवांसो विप्रासः समिन्धते प्राप्नुवन्ति॥21॥ भावार्थः—ये मनुष्या अविद्याधर्माचरणाख्यां निद्रां त्यक्त्वा विद्याधर्माचरणे जागृताः सन्ति त एव सच्चिदाननन्दस्वरूपं सर्वोत्तमं सर्वैः प्राप्तुमर्हं नैरन्तर्येण सर्वव्यापिनं विष्णुं जगदीश्वरं प्राप्नुवन्ति॥21॥ पूर्वेसूक्तोक्ताभ्यां पदार्थाभ्यां सहचारिणामश्विसवित्रग्निदेवीन्द्राणीवरुणान्यग्नायीद्यावापृथिवी- भूमिविष्णूनामर्थानामत्रप्रकाशितत्वात् पूर्वसूक्तेन सहास्य सङ्गतिरस्तीतिबोध्यम्॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये सप्तमो वर्गः॥7॥

प्रथमे मण्डले पञ्चमेऽनुवाके द्वाविशं सूक्तं च समाप्तम्॥22॥ पदार्थः—(विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर का (यत्) जो उक्त (परमम्) सब उत्तम गुणों से प्रकाशित (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद है (तत्) उसको (विपन्यवः) अनेक प्रकार के जगदीश्वर के गुणों की प्रशंसा करनेवाले (जागृवांसः) सत्कर्म में जागृत (विप्रासः) बुद्धिमान् सज्जन पुरुष हैं, वे ही (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करके प्राप्त होते हैं॥21॥ भावार्थः—जो मनुष्य अविद्या और अधर्माचरणरूप नींद को छोड़कर विद्या धर्माचरण में जाग रहे हैं, वे ही सच्चिदानन्दस्वरूप सब प्रकार से उत्तम सबको प्राप्त होने योग्य निरन्तर सर्वव्यापी विष्णु अर्थात् जगदीश्वर को प्राप्त होते हैं॥21॥ पहिले सूक्त में जो दो पदों के अर्थ कहे थे उनके सहचारि अश्वि, सविता, अग्नि, देवी, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, द्यावापृथिवी, भूमि, विष्णु और इनके अर्थों का प्रकाश इस सूक्त में किया है, इससे पहिले सूक्त के साथ इस सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। इसके आगे सायण और विलसन आदि विषय में जो यह सूक्त के अन्त में खण्डन द्योतक पङ्क्ति लिखते हैं, सो न लिखी जायेगी, क्योंकि जो सर्वथा अशुद्ध है, उसको बारंबार लिखना पुनरुक्त और निरर्थक है, जहाँ कहीं लिखने योग्य होगा, वहाँ तो लिखा ही जायेगा, परन्तु इतने लेख से यह अवश्य जानना कि ये टीका वेदों की व्याख्या तो नहीं हैं, किन्तु इनको व्यर्थ दूषित करनेहारी हैं॥ इति 1.2 सप्तमो वर्गः॥ प्रथमे मण्डले पञ्चमेऽनुवाके द्वाविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥

अथास्य चतुर्विंशत्यृचस्य त्रयोविंशस्य सूक्तस्य काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। 1 वायुः; 2,3 इन्द्रवायू; 4-6 मित्रावरुणौ, 7-9 इन्द्रोमरुत्वान्; 10-12 विश्वेदेवाः, 13-15 पूषा; 16-22 आपः; 23,24 अग्निश्च देवताः। 1-18 गायत्री; 19 पुर उष्णिक्; 20 अनुष्टुप्; 21 प्रतिष्ठा; 22-24 अनुष्टुप् च छन्दांसि। 1-18 षड्जः; 19 ऋषभः; 20 गान्धारः। 21 षड्जः; 22-24 गान्धारश्च स्वरः॥ तत्रादिमेन वायुगुणा उपदिश्यन्ते। अब तेईसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके पहिले मन्त्र में वायु के गुण प्रकाशित किये हैं- ती॒व्राः सोमा॑स॒ आ ग॑ह्या॒शीर्व॑न्तः सु॒ता इ॒मे। वायो॒ तान् प्रस्थि॑तान् पिब॥1॥ ती॒व्राः। सोमा॑सः। आ। ग॒हि॒। आ॒शीःऽव॑न्तः। सु॒ताः। इ॒मे। वायो॒ इति॑। तान्। प्र॒ऽस्थि॑तान्। पि॒ब॒॥1॥ पदार्थः—(तीव्राः) तीक्ष्णवेगाः (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः। अत्र अर्तिस्तुसुहुसृ॰ (उणा॰1.140) अनेन षु धातोर्मन् प्रत्ययः। आज्जसरेसुग् इत्यसुक् च। (आ) सर्वतोऽर्थे (गहि) प्राप्नोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (आशीर्वन्तः) आशिषः प्रशस्ताः कामना भवन्ति येषां ते। अत्र शासइत्वे आशासः क्वावुपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰6.4.34) अनेन वार्त्तिकेनाशीरिति सिद्धम्। ततः प्रशंसार्थे मतुप्। छन्दसीर इति वत्वञ्च। सायणाचार्येण ‘श्रीञ् पाके’ इत्यस्मादिदं पदं साधितं तदिदं भाष्यविरोधादशुद्धमस्तीति बोध्यम्। (सुताः) उत्पन्नाः (इमे) प्रत्यक्षा अप्रत्यक्षाः (वायो) पवनः (तान्) सर्वान् (प्रस्थितान्) इतस्ततश्चलितान् (पिब) पिबत्यन्तःकरोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥1॥ अन्वयः—य इमे तीव्रा आशीर्वन्तः सुताः सोमासः सन्ति तान् वायुरागहि समन्तात् प्राप्नोत्ययमेव तान् प्रस्थितान् पिबान्तःकरोति॥1॥ भावार्थः—प्राणिनो यान् प्राप्तुमिच्छन्ति यान् प्राप्ता सन्त आशीर्वन्तो भवन्ति, तान् सर्वान् वायुरेव प्रापप्य स्वस्थान् करोति, येषु पदार्थेषु तीक्ष्णाः कोमलाश्च गुणाः सन्ति, तान् यथावद्विज्ञाय मनुष्या उपयोगं गृह्णीयुरिति॥1॥ पदार्थः—जो (इमे) (तीव्राः) तीक्ष्णवेगयुक्त (आशीर्वन्तः) जिनकी कामना प्रशंसनीय होती है (सुताः) उत्पन्न हो चुके वा (सोमासः) प्रत्यक्ष में होते हैं (तान्) उन सबों को (वायो) पवन (आगहि) सर्वथा प्राप्त होता है तथा यही उन (प्रस्थितान्) इधर-उधर अति सूक्ष्मरूप से चलायमानों को (पिब) अपने भीतर कर लेता है, जो इस मन्त्र में ‘आशीर्वन्तः’ इस पद को सायणाचार्य ने ‘श्रीञ् पाके’ इस धातु का सिद्ध किया है, सो भाष्यकार की व्याख्या से विरुद्ध होने से अशुद्ध ही है। भावार्थः—प्राणी जिनको प्राप्त होने की इच्छा करते और जिनके मिलने में श्रद्धालु होते हैं, उन सबों को पवन ही प्राप्त करके यथावत् स्थिर करता है, इससे जिन पदार्थों के तीक्ष्ण वा कोमल गुण हैं, उन को यथावत् जानके मनुष्य लोग उन से उपकार लेवें॥1॥ अथ परस्परानुषङ्गिणावुपदिश्येते। अब अगले मन्त्र में परस्पर संयोग करने वाले पदार्थों का प्रकाश किया है- उ॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशे॑न्द्रवा॒यू ह॑वामहे। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑॥2॥ उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒स्पृशा॑। इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। ह॒वा॒म॒हे॒। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥2॥ पदार्थः—(उभा) द्वौ। अत्र त्रिषु प्रयोगेषु सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (देवा) दिव्यगुणै (दिविस्पृशा) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (इन्द्रवायू) अग्निपवनौ (हवामहे) स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य (सोमस्य) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य (पीतये) भोगाय॥2॥ अन्वयः—वयमस्य सोमस्य पीतये दिविस्पृशा देवोभेन्द्रवायू हवामहे॥2॥ भावार्थः—योऽग्निर्वायुना प्रदीप्यते वायुरग्निना चेति परस्परमाकांक्षितौ सहायकारिणौ स्तो मनुष्या युक्त्या सदैव सम्प्रयोज्य साधयित्वा पुष्कलानि सुखानि प्राप्नुवन्ति तौ कुतो न जिज्ञासितव्यौ॥2॥ पदार्थः—हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (सोमस्य) उत्पन्न करने वाले संसार के सुख के (पीतये) भोगने के लिये (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुंचाने और (देवा) दिव्यगुण वाले (उभा) दोनों (इन्द्रवायू) अग्नि और पवन हैं, उनको (हवामहे) साधने की इच्छा करते हैं॥2॥ भावार्थः—जो अग्नि पवन और जो वायु अग्नि से प्रकाशित होता है, जो ये दोनों परस्पर आकांक्षायुक्त अर्थात् सहायकारी हैं, जिनसे सूर्य्य प्रकाशित होता है, मनुष्य लोग जिनको साध और युक्ति के साथ नित्य क्रियाकुशलता में सम्प्रयोग करते हैं, जिनके सिद्ध करने से मनुष्य बहुत से सुखों को प्राप्त होते हैं, उनके जानने की इच्छा क्यों न करनी चाहिये॥2॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- इ॒न्द्र॒वा॒यू म॑नो॒जुवा॒ विप्रा॑ हवन्त ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्रा॒क्षा धि॒यस्पती॑॥3॥ इ॒न्द्रा॒वा॒यू इति॑। म॒नः॒ऽजुवा॑। विप्राः॑। ह॒व॒न्ते॒। ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षा। धि॒यः। पती॒ इति॑॥3॥ पदार्थः—(इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ (मनोजुवा) यौ मनोवद्वेगेन जवेते। तौ अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः क्विप् च इति क्विप् प्रत्ययः। (विप्राः) विद्वांसः (हवन्ते) गृह्णन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै (सहस्राक्षा) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि साधनानि याभ्यां तौ (धियः) शिल्पकर्मणः (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पति पु॰ (अष्टा॰8.3.53) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः॥3॥ अन्वयः—विप्रा ऊतये यौ सहस्राक्षौ धियस्पती मनोजुवान्द्रिवायू हवन्ते, तौ कथं नान्यैरपि जिज्ञासितव्यौ॥3॥ भावार्थः—विद्वद्भिः शिल्पविद्यासिद्धये असंख्यातव्यवहारहेतू वेगादिगुणयुक्तौ विद्युद्वायू संसाध्याविति॥3॥ पदार्थः—(विप्राः) विद्वान् लोग (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये जो (सहस्राक्षा) जिन से असंख्यात अक्ष अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते (धियः) शिल्प कर्म के (पती) पालने और (मनोजुवा) मन के समान वेगवाले हैं उन (इन्द्रवायू) विद्युत् और पवन को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, उनके जानने की इच्छा अन्य लोग भी क्यों न करें॥3॥ भावार्थः—विद्वानों को उचित है कि शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये असंख्यात व्यवहारों को सिद्ध कराने वाले वेग आदि गुणयुक्त बिजुली और वायु के गुणों की क्रियासिद्धि के लिये अच्छे प्रकार सिद्धि करनी चाहिये॥3॥ एतद्विद्याप्रापकौ प्राणौदानौ स्त इत्युपदिश्यते। इस विद्या के प्राप्त कराने वाले प्राण और उदान हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- मि॒त्रं व॒यं ह॑वामहे॒ वरु॑णं॒ सोम॑पीतये। ज॒ज्ञा॒ना पू॒तद॑क्षसा॥4॥ मि॒त्रम्। व॒यम्। ह॒वा॒म॒हे॒। वरु॑णम्। सोम॑ऽपीतये। ज॒ज्ञा॒ना। पू॒तऽद॑क्षसा॥4॥ पदार्थः—(मित्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं जीवनहेतुं प्राणम् (वयम्) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (वरुणम्) ऊर्ध्वगमनबलहेतुमुदानं वायुम् (सोमपीतये) सोमानामनुकूलानां सुखादिरसयुक्तानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सहसुपेति समासः (जज्ञाना) अवबोधहेतू (पूतदक्षसा) पूतं पवित्रं दक्षोबलं याभ्यां तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः॥4॥ अन्वयः—वयं यौ सोमपीतये पूतदक्षसौ जज्ञानौ मित्रं वरुणं च हवामहे, तौ युष्माभिरपि कुतो न वेदितव्यौ॥4॥ भावार्थः—नैव मनुष्याणां प्राणोदानाभ्यां विना कदापि सुखभोगो बलं च सम्भवति, तस्मादेतयोः सेवनविद्या यथावद्वेद्यास्ति॥4॥ पदार्थः—(वयम्) हम पुरुषार्थी लोग जो (सोमपीतये) जिसमें सोम अर्थात् अपने अनुकूल सुखों को देने वाले रसयुक्त पदार्थों का पान होता है, उस व्यवहार के लिये (पूतदक्षसा) पवित्र बल करने वाले (जज्ञाना) विज्ञान के हेतु (मित्रम्) जीवन के निमित्त बाहर वा भीतर रहने वाले प्राण और (वरुणम्) जो श्वासरूप ऊपर को आता है, उस बल करने वाले उदान वायु को (हवामहे) ग्रहण करते हैं, उनको तुम लोगों को भी क्यों न जानना चाहिये॥4॥ भावार्थः—मनुष्यों को प्राण और उदान वायु के विना सुखों का भोग और बल का सम्भव कभी नहीं हो सकता, इस हेतु से इनके सेवन की विद्या को ठीक-ठीक जानना चाहिये॥4॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ऋ॒तेन॒ यावृ॑ता॒वृधा॑वृ॒तस्य॒ ज्योति॑ष॒स्पती॑। ता मि॒त्रावरु॑णा हुवे॥5॥8॥ ऋ॒तेन॑। यौ। ऋ॒त॒ऽवृधौ॑। ऋ॒तस्य॑। ज्योति॑षः। पती॒ इति॑। ता। मित्रावरु॑णा। हु॒वे॒॥5॥ पदार्थः—(ऋतेन) सत्यरूपेण ब्रह्मणा निर्मितौ सन्तौ (यौ) (ऋतावृधौ) ऋतं सत्यं कारणं जलं वा वर्द्धयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (ऋतस्य) यथार्थस्वरूपस्य (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपार॰ (अष्टा॰8.3.53) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः। (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च द्वौ सूर्यवायू। अत्र देवताद्वन्द्वे च। (अष्टा॰6.3.26) अनेन पूर्वपदस्यानङादेशः। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (हुवे) आददे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥5॥ अन्वयः—अहं यावृतेन जगदीश्वरेणोत्पाद्य धारितावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती मित्रावरुणौ स्तस्तौ हुवे॥5॥ भावार्थः—नैव सूर्यवायुभ्यां विना जलज्योतिषोरुत्पत्तेः सम्भवोऽस्ति नैव चेश्वरोत्पादनेन विना सूर्य्यवाय्वोरुत्पत्तिर्भवितुं शक्या, न चैताभ्यां विना मनुष्याणां व्यवहारसिद्धिर्भवितुमर्हतीति॥5॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयोऽध्यायेऽष्टमो वर्गः॥8॥

पदार्थः—मैं (यौ) जो (ऋतेन) परमेश्वर ने उत्पन्न करके धारण किये हुए (ऋतावृधौ) जल को बढ़ाने और (ऋतस्य) यथार्थ स्वरूप (ज्योतिषः) प्रकाश के (पती) पालन करने वाले (मित्रावरुणौ) सूर्य और वायु हैं, उनको (हुवे) ग्रहण करता हूं॥5॥ भावार्थः—न सूर्य और वायु के विना जल और ज्योति अर्थात् प्रकाश की योग्यता, न ईश्वर के उत्पादन किये विना सूर्य्य और वायु की उत्पत्ति का सम्भव और न इनके विना मनुष्यों के व्यवहारों की सिद्धि हो सकती है॥5॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्यायेऽष्टमो वर्गः समाप्तः॥6॥

पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते। फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- वरु॑णः प्रावि॒ता भु॑वन्मि॒त्रो विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑। कर॑तां नः सु॒राध॑सः॥6॥ वरु॑णः। प्र॒ऽअ॒वि॒ता। भु॒व॒त्। मि॒त्रः। विश्वा॑भिः। ऊ॒तिऽभिः॑। कर॑ताम्। नः॒। सु॒ऽराध॑सः॥6॥ पदार्थः—(वरुणः) बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः (प्राविता) सुखप्रापकः (भुवत्) भवति। अत्र लडर्थे लेट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि। (अष्टा॰7.3.88) अनेन गुणनिषेधः। (मित्रः) सूर्य्यः। अत्र अमिचिमिश॰ (उणा॰4.164) अनेन क्त्रः प्रत्ययः। (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः कर्मभिः (करताम्) कुरुतः। अत्रापि लडर्थे लोट्। विकरणव्यत्ययश्च। (नः) अस्मान् (सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसंम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तानेवं भूतान्॥6॥ अन्वयः—यथायं सुयुक्त्या सेवितो वरुणो विश्वाभिरूतिभिः सर्वैः पदार्थैः प्राविता भुवत् भवति मित्रश्च यौ नोस्मान् सुराधसः करताम् कुरुतस्तमादेतावस्माभिरप्येवं कथं न परिचर्य्यौ वर्त्तेते॥6॥ भावार्थः—यस्मादेतयोः सकाशेन सर्वेषां पदार्थानां क्षणादयो व्यवहारास्सम्भवन्त्यस्माद्विद्वांस एनाभ्यां बहूनि कार्याणि संसाध्योत्तमानि धनानि प्राप्नुवन्तीति॥6॥ पदार्थः—जैसे यह अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ (वरुणः) बाहर वा भीतर रहनेवाला वायु (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षा आदि निमित्तों से सब प्राणि या पदार्थों को करके (प्राविता) सुख प्राप्त करने वाला (भुवत्) होता है (मित्रश्च) और सूर्य्य भी जो (नः) हम लोगों को (सुराधसः) सुन्दर विद्या और चक्रवर्त्ति राज्यसम्बन्धी धनयुक्त (करताम्) करते हैं, जैसे विद्वान् लोग इन से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे हम लोग भी इसी प्रकार इन का सेवन क्यों न करें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसलिये इन उक्त वायु और सूर्य के आश्रय करके सब पदार्थों के रक्षा आदि व्यवहार सिद्ध होते हैं, इसलिये विद्वान् लोग भी इनसे बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके उत्तम-उत्तम धनों को प्राप्त होते हैं॥6॥ अथ वायुसहचारीन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते। अब अगले मन्त्र में वायु के सहचारी इन्द्र के गुण उपदेश किये हैं- म॒रुत्व॑न्तं हवामह॒ इन्द्र॒मा सोम॑पीतये। स॒जूर्ग॒णेन॑ तृम्पतु॥7॥ म॒रुत्व॑न्तम्। ह॒वा॒म॒हे॒। इन्द्र॑म्। आ। सोम॑ऽपीतये। स॒ऽजूः। ग॒णेन॑। तृ॒म्प॒तु॥7॥ पदार्थः—(मरुत्वन्तम्) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम्। अत्र सम्बन्धेऽर्थे मतुप्। तसौ मत्वर्थे। (अष्टा॰1.4.19) इति भत्वाज्जस्त्वाभावः। (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (इन्द्रम्) विद्युतम् (आ) समन्तात् (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय (सजूः) समानं सेवनं यस्य सः। इदं जुषी इत्यस्य क्विबन्तं रूपं, समानस्य छन्दस्य॰ इति समानस्य सकारादेशश्च। (गणेन) वायुसमूहेन (तृम्पतु) प्रीणयति। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या यथाऽस्मिन् संसारे वयं सोमपीतये यं मरुत्वन्तमिन्द्रं हवामहे, यः सजूर्गणेनास्मानातृम्पतु समन्तात् तर्पयति तथा तं यूयमपि सेवध्वम्॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नैव कदाचिदपि सहकारिणा वायुना विनाऽग्निः प्रदीपयितुं शक्यते, न चैवंभूतया विद्युता विना कस्यचित् पदार्थस्य वृद्धिः सम्भवतीति वेद्यम्॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जैसे इस संसार में हम लोग (सोमपीतये) पदार्थों के भोगने के लिये जिस (मरुत्वन्तम्) पवनों के सम्बन्ध से प्रसिद्ध होने वाली (इन्द्रम्) बिजुली को (हवामहे) ग्रहण करते हैं (सजूः) जो सब पदार्थों में एकसी वर्तने वाली (गणेन) पवनों के समूह के साथ (नः) हम लोगों को (आतृम्पतु) अच्छे प्रकार तृप्त करती है, वैसे उसको तुम लोग भी सेवन करो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिस सहायकारी पवन के विना अग्नि कभी प्रज्वलित होने को समर्थ और उक्त प्रकार बिजुली रूप अग्नि के विना किसी पदार्थ की बढ़ती का सम्भव नहीं हो सकता, ऐसा जानें॥7॥ अथ कीदृशा मरुद्गणा इत्युपदिश्यते। अब वे पवनों के समूह किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- इन्द्र॑ज्येष्ठा॒ मरु॑द्ग॒णा देवा॑सः॒ पूष॑रातयः। विश्वे॒ मम॑ श्रुता॒ हव॑म्॥8॥ इन्द्र॑ऽज्येष्ठाः। मरुत्ऽगणाः। देवा॑सः। पूष॑ऽरातयः। विश्वे॑। मम॑। श्रु॒त॒। हव॑म्॥8॥ पदार्थः—(इन्द्रज्येष्ठाः) इन्द्रः सूर्य्यो ज्येष्ठः प्रशंस्यो येषां ते (मरुद्गणाः) मरुतां समूहाः (देवासः) दिव्यगुणविशिष्टाः (पूषरातयः) पूष्णः सूर्याद् रातिर्दानं येषां ते (विश्वे) सर्वे (मम) (श्रुत) श्रावयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति शपो लुग् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (हवम्) कर्तव्यं शब्दव्यवहारम्॥8॥ अन्वयः—ये पूषरातय इन्द्रज्येष्ठा देवासो विश्वे मरुद्गणा मम हवं श्रुत श्रावयन्ति ते युष्माकमपि॥8॥ भावार्थः—नैव कश्चिदपि वायुगणेन विना कथनं श्रवणं पुष्टिं च प्राप्तुं शक्नोति। योऽयं सूर्य्यलोको महान् वर्त्तते यस्य य एव प्रदीपनहेतवः सन्ति, योऽग्निरूप एवास्ति नैतैर्विद्युतया च विना कश्चिद्वाचमपि चालयितुं शक्नोतीति॥8॥ पदार्थः—जो (पूषरातयः) सूर्य्य के सम्बन्ध से पदार्थों को देने (इन्द्रज्येष्ठाः) जिनके बीच में सूर्य्य बड़ा प्रशंसनीय हो रहा है और (देवासः) दिव्य गुण वाले (विश्वे) सब (मरुद्गणाः) पवनों के समूह (मम) मेरे (हवम्) कार्य्य करने योग्य शब्द व्यवहार को (श्रुत) सुनाते हैं, वे ही आप लोगों को भी॥8॥ भावार्थः—कोई भी मनुष्य जिन पवनों के विना कहना, सुनना और पुष्ट होनादि व्यवहारों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। जिन के मध्य में सूर्य्य लोक सब से बड़ा विद्यमान, जो इसके प्रदीपन करानेवाले हैं, जो यह सूर्य्य लोक अग्निरूप ही है, जिन और जिस बिजुली के विना कोई भी प्राणी अपनी वाणी के व्यवहार करने को भी समर्थ नहीं हो सकता, इत्यादि इन सब पदार्थों की विद्या को जान के मनुष्यों को सदा सुखी होना चाहिये॥8॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ह॒त वृ॒त्रं सु॑दानव॒ इन्द्रे॑ण॒ सह॑सा यु॒जा। मा नो॑ दुः॒शंस॑ ईशत॥9॥ ह॒त। वृ॒त्रम्। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। इन्द्रे॑ण। सह॑सा। यु॒जा। मा। नः॒। दुः॒ऽशंसः॑। ई॒श॒त॒॥9॥ पदार्थः—(हत) घ्नन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (वृत्रम्) मेघम् (सुदानवः) शोभनं दानं येभ्यो मरुद्भ्यस्ते। अत्र दाभाभ्यां नुः। (उणा॰3.31) अनेन नुः प्रत्ययः। (इन्द्रेण) सूर्य्येण विद्युता वा (सहसा) बलेन। सह इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (युजा) यो युनक्ति मुहूर्त्तादिकालावयवपदार्थैः सह तेन संयुक्ताः सन्तः (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (दुःशंसः) दुःखेन शंसितुं योग्यास्तान् (ईशत) समर्थयत। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥9॥ अन्वयः—हे विद्वांसो यूयं ये सुदानवो वायवः सहसा बलेन युजेन्द्रेण संयुक्ता सन्तो वृत्रं हत घ्नन्ति, तैर्नोऽस्मान् दुःशंसो मेशत दुःखकारिणः कदापि मा भवत॥9॥ भावार्थः—वयं यथावत्पुरुषार्थं कृत्वेश्वरमुपास्याचार्य्यान् प्रार्थयामो ये वायवः सूर्य्यस्य किरणैर्वा विद्युता सह मेघमण्डलस्थं जलं छित्वा निपात्य पुनः पृथिव्या सकाशादुत्थाप्योपरि नयन्ति, तद्विद्या मनुष्यैः प्रयत्नेन विज्ञातव्येति॥9॥ पदार्थः—हे विद्वान् लोगो! आप जो (सुदानवः) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने (सहसा) बल और (युजा) अपने आनुषङ्गी (इन्द्रेण) सूर्य्य वा बिजुली के साथी होकर (वृत्रम्) मेघ को (हत) छिन्न-भिन्न करते हैं, उनसे (नः) हम लोगों के (दुःशंसः) दुःख कराने वाले (मा) (ईशत) कभी मत हूजिये॥9॥ भावार्थः—हम लोग ठीक पुरुषार्थ और ईश्वर की उपासना करके विद्वानों की प्रार्थना करते हैं कि जिससे हम लोगों को जो पवन, सूर्य्य की किरण वा बिजुली के साथ मेघमण्डल में रहने वाले जल को छिन्न-भिन्न और वर्षा करके और फिर पृथिवी से जल समूह को उठाकर ऊपर को प्राप्त करते हैं, उनकी विद्या मनुष्यों को प्रयत्न से अवश्य जाननी चाहिये॥9॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते। फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- विश्वा॑न् दे॒वान् ह॑वामहे म॒रुतः॒ सोम॑पीतये। उ॒ग्रा ही पृश्नि॑मातरः॥10॥9॥ विश्वा॑न्। दे॒वान्। ह॒वा॒म॒हे॒। म॒रुतः॑। सोम॑ऽपीतये। उ॒ग्राः। हि। पृश्नि॑ऽमातरः॥10॥ पदार्थः—(विश्वान्) सर्वान् (देवान्) दिव्यगुणसाहित्येनोत्तमगुणप्रकाशकान् (हवामहे) विद्यासिद्धये स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (मरुतः) ज्ञानक्रियानिमित्तेन शिल्पव्यवहारप्रापकान्। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (सोमपीतये) पदार्थानां यथावद्भोगाय (उग्राः) तीव्रसंवेगादिगुणसहितः (हि) हेत्वर्थे (पृश्निमातरः) पृश्निराकाशमन्तरिक्षं मातोत्पत्तिनिमित्तं येषां ते। पृश्निरिति साधारणनामसु पठितम्। (निघं॰1.4)॥10॥ अन्वयः—हि यतो विद्यां चिकीर्षवो वयं य उग्राः पृश्निमातरः सन्ति, तस्मादेतान् विश्वान् देवान् मरुतो हवामहे॥10॥ भावार्थः—यत एत आकाशादुत्पन्ना वायवो यत्र तत्र गमनागमनकर्त्तारस्तीक्ष्णस्वभावास्सन्त्यत एव विद्वांसः कार्य्यार्थं तान् स्वीकुर्वन्ति॥10॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये नवमो वर्गः॥

पदार्थः—विद्या की इच्छा करने वाले हम लोग (हि) जिस कारण से जो ज्ञान क्रिया के निमित्त से शिल्प व्यवहारों को प्राप्त कराने वाले (उग्राः) तीक्ष्णता वा श्रेष्ठ वेग के सहित और (पृश्निमातरः) जिनकी उत्पत्ति का निमित्त आकाश वा अन्तरिक्ष है, इससे उन (विश्वान्) सब (देवान्) दिव्यगुणों के सहित उत्तम गुणों के प्रकाश कराने वाले वायुओं को (हवामहे) उत्तम विद्या की सिद्धि के लिये जानना चाहते हैं॥10॥ भावार्थः—जिससे यह वायु आकाश ही से उत्पन्न आकाश में आने-जाने और तेज स्वभाव वाले हैं, इसी से विद्वान् लोग कार्य्य के अर्थ इनका स्वीकार करते हैं॥10॥

इति प्रथमाष्टक द्वितीयाध्याये नवमो वर्गः॥

अथाग्रिमे मन्त्रे वायुविद्युद्गुणा उपदिश्यन्ते। अब अगले मन्त्र में पवन और बिजुली के गुण उपदेश किये हैं- जय॑तामिव तन्य॒तुर्म॒रुता॑मेति धृष्णु॒या। यच्छुभं॑ या॒थना॑ नरः॥11॥ जय॑ताम्ऽइव। त॒न्य॒तुः। म॒रुता॑म्। ए॒ति॒। धृ॒ष्णु॒ऽया। यत्। शुभ॑म्। या॒थन॑। न॒रः॒॥11॥ पदार्थः—(जयतामिव) विजयकारिणां शूराणामिव (तन्यतुः) विस्तृतवेगस्वभावा विद्युत्। अत्र ऋतन्यञ्जिवन्यञ्ज्यर्पि॰ (उणा॰4.2) अनेन ‘तन’ धातोर्यतुच् प्रत्ययः (मरुताम्) वायूनां सङ्गेन (एति) गच्छति (धृष्णुया) दृढत्वादिगुणयुक्ता। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति सोः स्थाने याच् आदेशः (यत्) यावत् (शुभम्) कल्याणयुक्तं सुखं तावत्सर्वं (याथन) प्राप्नुत। अत्र तकारस्य स्थाने थनादेशोऽन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (नरः) ये नयन्ति धर्म्यं शिल्पसमूहं च ते नरस्तत्सम्बोधने। अत्र नयतेर्डिच्च। (उणा॰2.100) अनेन ऋः प्रत्ययष्टिलोश्च॥11॥ अन्वयः—हे नरा! यूयं या जयतां योद्धृणां सङ्गेन राजा शत्रुविजयमेतीव मरुतां सम्प्रयोगेण धृष्णुया तन्यतुर्वेगमेत्य मेघं तपति तत्सम्प्रयोगेण यच्छुभं तत्सर्वं याथन प्राप्नुत॥11॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यतो विद्वांसो शूरवीरसेनया शत्रुविजयं यथा च वायुघर्षणविद्यया विद्युद्यन्त्रचालनेन दूरस्थान् देशान् गत्वाऽग्नेयास्त्रादिसिद्धिं च कृत्वा सुखानि प्राप्नुवन्ति, तथैव युष्माभिरपि विज्ञानपुरुषार्थाभ्यामेतैर्व्यावहारिकपारमार्थिके सुखे नित्ये वर्द्धितव्ये॥11॥ पदार्थः—हे (नरः) धर्मयुक्त शिल्पविद्या के व्यवहारों को प्राप्त करने वाले मनुष्यो! आप लोग भी (जयतामिव) जैसे विजय करने वाले योद्धाओं के सहाय से राजा विजय को प्राप्त होता और जैसे (मरुताम्) पवनों के संग से (धृष्णुया) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (तन्यतुः) अपने वेग को अति शीघ्र विस्तार करने वाली बिजुली मेघ को जीतती है, वैसे (यत्) जितना (शुभम्) कल्याणयुक्त सुख है, उस सबको प्राप्त हूजिये॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे विद्वान् लोग शूरवीरों को सेना से शत्रुओं के विजय वा जैसे पवनों के घिसने से बिजुली के यन्त्र को चलाकर दूरस्थ देशों को जा वा आग्नेयादि अस्त्रों की सिद्धि को करके सुखों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही तुमको भी विज्ञान वा पुरुषार्थ करके इनसे व्यावहारिक और पारमार्थिक सुखों को निरन्तर बढ़ाना चाहिये॥11॥ पुनः कीदृशा मरुत इत्युपदिश्यते। फिर वे पवन किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- ह॒स्का॒राद् वि॒द्युत॒स्पर्य्यतो॑ जा॒ता अ॑वन्तु नः। म॒रुतो॑ मृळयन्तु नः॥12॥ ह॒स्का॒रात्। वि॒ऽद्युतः॑। परि॑। अतः॑। जा॒ताः। अ॒व॒न्तु॒। नः॒। म॒रुतः॑ मृळ॒य॒न्तु॒। नः॒॥12॥ पदार्थः—(हस्कारात्) हसनं हस्तत्करोति येन तस्मात् (विद्युतः) विविधतया द्योतयन्ते यास्ताः (परि) सर्वतोभावे (अतः) हेत्वर्थे (जाता) प्रकटत्वं प्राप्ताः (अवन्तु) प्रापयन्ति। अत्र ‘अव’ धातोर्गत्यर्थात् प्राप्त्यर्थो गृह्यते, लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (नः) अस्मान् (मरुतः) वायवः (मृळयन्तु) सुखयन्ति। अत्रापि लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान्॥12॥ अन्वयः—वयं यतो हस्काराज्जाता विद्युतो नोस्मान् सुखान्यवन्तु प्रापयन्त्यतस्ताः परितः सर्वतः संसाधयेम। यतो मरुतो नोस्मान् मृडयन्तु सुखयन्त्यतस्तानपि कार्येषु सम्प्रयोजयेम॥12॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यदा पूर्वं वायुविद्या ततो विद्युद्विद्या तदनन्तरं जलपृथिव्योषधि विद्याश्चैता विज्ञायन्ते तदा सम्यक् सुखानि प्रापयन्त इति॥12॥ पदार्थः—हम लोग जिस कारण (हस्कारात्) अति प्रकाश से (जाताः) प्रकट हुई (विद्युतः) जो कि चपलता के साथ प्रकाशित होती हैं, वे बिजली (नः) हम लोगों के सुखों को (अवन्तु) प्राप्त करती हैं। जिसने उन को (परि) सब प्रकार से साधते और जिससे (मरुतः) पवन (नः) हम लोगों को (मृळयन्तु) सुखयुक्त करते हैं (अतः) इससे उनको भी शिल्प आदि कार्यों में (परि) अच्छे प्रकार से साधें॥12॥ भावार्थः—मनुष्य लोग जब पहिले वायु फिर बिजुली के अनन्तर जल पृथिवी और ओषधी की विद्या को जानते हैं, तब अच्छे प्रकार सुखों को प्राप्त होते हैं॥12॥ अथ सूर्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते। अब अगले मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुण प्रकाशित किये हैं- आ पू॑षञ्चि॒त्रब॑र्हिष॒माघृ॑णे ध॒रुणं॑ दि॒वः॥ आजा॑ न॒ष्टं यथा॑ प॒शुम्॥13॥ आ। पू॒ष॒न्। चि॒त्रऽब॑र्हिषम्। आघृ॑णे। ध॒रुण॑म्। दि॒वः। आ। अ॒ज॒। न॒ष्टम्। यथा॑। प॒शुम्॥13॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (पूषन्) पोषयतीति पूषा सूर्यलोकः। अत्रान्तर्गतो णिच श्वनुक्षन्पूषन्प्लीहन्। (उणा॰1.159) अनेनायं निपातितः। (चित्रबर्हिषम्) चित्रमाश्चर्यं बर्हिरन्तरिक्षं भवति यस्मात्तत् (आघृणे) समन्तात् घृणयः किरणा दीप्तयो यस्य सः (धरुणम्) धारणकर्त्री पृथिवी (दिवः) स्वप्रकाशात् (आ) समन्तात् (अज) अजति प्रकाशं प्रक्षिप्य द्योतयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (नष्टम्) अदृश्यम् (यथा) येन प्रकारेण (पशुम्) गवादिकम्॥13॥ अन्वयः—यथा कश्चित्पशुपालो नष्टं पशुं प्राप्य प्रकाशयति तथाऽयमाघृण आघृणिः पूषन्पूषा सूर्यलोको दिवश्चित्रबर्हिषं धरुणमन्तरिक्षं प्राप्याज समतात् प्रकाशयति॥13॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा पशुपाला अनेकैः कर्म्मभिः पशून् पोषित्वा दुग्धादिभिर्मनुष्यादीन् सुखयति तथैवायं सूर्यलोको विचित्रैर्लोकैर्युक्तामाकाशं तत्स्थान् पदार्थांश्च स्वस्य किरणैराकर्षणेन पोषित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयतीति॥13॥ पदार्थः—जैसे कोई पशुओं का पालने वाला मनुष्य (नष्टम्) खोगये (पशुम्) गौ आदि पशुओं को प्राप्त होकर प्रकाशित करता है, वैसे यह (आघृणे) परिपूर्ण किरणों (पूषन्) पदार्थों को पुष्ट करने वाला सूर्यलोक (दिवः) अपने प्रकाश से (चित्रबर्हिषम्) जिससे विचित्र आश्चर्य्यरूप अन्तरिक्ष विदित होता है (धरुणम्) धारण करनेहारे भूगोलों को (आज) अच्छे प्रकार प्रकाश करता है॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पशुओं को पालने वाले अनेक काम करके, गो आदि पशुओं को पुष्ट करके, उनके दुग्ध आदि पदार्थों से मनुष्यों को सुखी करते हैं, वैसे ही यह सूर्य्यलोक चित्र-विचित्र लोकों से युक्त आकाश वा आकाश में रहने वाले पदार्थों को, अपनी किरण वा आकर्षण शक्ति से पुष्ट करके प्रकाशित करता है॥13॥ अथ पूषन् शब्देनेश्वरस्य सर्वज्ञताप्रकाशः क्रियते॥ अब अगले मन्त्र में पूषन् शब्द से ईश्वर की सर्वज्ञता का प्रकाश किया है- पू॒षा राजा॑न॒माघृ॑णि॒रप॑गूढं॒ गुहा॑ हि॒तम्। अवि॑न्दच्चि॒त्रब॑र्हिषम्॥14॥ पू॒षा। राजा॑नम्। आघृ॑णिः। अप॑ऽगूढम्। गुहा॑। हि॒तम्। अवि॑न्दत्। चि॒त्रऽब॑र्हिषम्॥14॥ पदार्थः—(पूषा) यो जगदीश्वरः स्वाभिव्याप्त्या सर्वान् पदार्थान् पोषयति सः (राजानम्) प्राणं जीवं वा (आघृणिः) समन्ताद् घृणयो दीप्तयो यस्य सः (अपगूढम्) अपगतश्चासौ गूढश्च तम् (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे बुद्धौ वा। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति ङेराकारादेशः। (हितम्) स्थापितं वा (अविन्दत्) जानाति। अत्र लडर्थे लङ् (चित्रबर्हिषम्) चित्रमनेकविधं बर्हिरुत्तमं कर्म क्रियते येन तम्॥14॥ अन्वयः—यतोऽयमाघृणिः पूषा परमेश्वरो गुहाहितं चित्रबर्हिषमपगूढं राजानमविन्दत्, जानाति तस्मात् सर्वशक्तिमान् वर्त्तते॥14॥ भावार्थः—यतो जगत्स्रष्टेश्वरः प्रकाशमानं सर्वस्य पुष्टिहेतुं हृदयस्थं प्राणं जीवं चापि जानाति तस्मात् सर्वज्ञोऽस्ति॥14॥ पदार्थः—जिससे यह (आघृणिः) पूर्ण प्रकाश वा (पूषा) जो अपनी व्याप्ति से सब पदार्थों को पुष्ट करता है, वह जगदीश्वर (गुहा) (हितम्) आकाश वा बुद्धि में यथायोग्य स्थापन किये हुए वा स्थित (चित्रबर्हिषम्) जो अनेक प्रकार के कार्य्य को करता (अपगूढम्) अत्यन्त गुप्त (राजानम्) प्रकाशमान प्राणवायु और जीव को (अविन्दत्) जानता है, इससे वह सर्वशक्तिमान् है॥14॥ भावार्थः—जिस कारण जगत् का रचने वाला ईश्वर सबको पुष्ट करने हारे हृदस्यस्थ प्राण और जीव को जानता है, इससे सबका जानने वाला है॥14॥ पुनस्तस्यैव गुणा उपदिश्यन्ते। फिर अगले मन्त्र में उस ईश्वर ही के गुणों का उपदेश किया है- उ॒तो स मह्यमिन्दु॑भिः॒ षड्यु॒क्ताँ अ॑नु॒सेषि॑धत्। गोभि॒र्यवं॒ न च॑र्कृषत्॥15॥10॥ उ॒तो इति॑। सः। मह्य॑म्। इन्दु॑ऽभिः। षट्। यु॒क्तान्। अ॒नु॒ऽसेषि॑धत्। गोभिः॑। यव॑म्। न। च॒र्कृ॒ष॒त्॥15॥ पदार्थः—(उतो) पक्षान्तरे (सः) जगदीश्वरः (मह्यम्) धर्मात्मने पुरुषार्थिने (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थैः सह (षट्) वसन्तादीनृतून् (युक्तान्) सुखसम्पादकान् (अनुसेषिधत्) पुनःपुनरनुकूलान् प्रापयेत्। अत्र यङलुगन्ताल्लेट् सेधतेर्गतौ। (अष्टा॰8.3.113) इत्यभ्यासस्य षत्वप्रतिषेधः। उपसर्गादिति वक्तव्यं किं प्रयोजनम्। उपसर्गाद् या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो यथा स्याद्, अभ्यासाद्या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो मा भूदिति। स्तुम्भुसिवु॰ (अष्टा॰वा॰8.3.116) अत्र महाभाष्यकारेणोक्तम्। सायणाचार्येणेदमज्ञानान्न बुद्धमिति (गोभिः) गो हस्त्यश्वादिभिः सह (यवम्) यवादिकमन्नम् (न) इव (चर्कृषत्) पुनः पुनर्भूमिं कर्षेत्। अत्र यङ्लुगन्ताल्लेट्॥15॥ अन्वयः—कृषीवलो भूमिं चर्कृषद्धान्यादिप्राप्त्यर्थं पुनः पुर्नभूमिं कर्षतो वायमीश्वरो मह्यमिन्दुभिस्सह वसन्तादीन् युक्तान् गोभिः सह यवमनुसेषिधत् पुनः पुनरनुगतं प्रापयेत् तस्मादहं तमेवेष्टं मन्ये॥15॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः कृषीवलो वा किरणैर्हलादिभिर्वा पुनः पुनर्भूमिमाकृष्य कर्षित्वा समुप्य धान्यादीनि प्राप्य वसन्तादीन् षड्ऋतून् सुखसंयुक्तान् करोति, तथेश्वरोऽप्यनुसमयं सर्वेभ्यो जीवेभ्यः कर्मानुसारेण रसोत्पादनविभजनेनर्तून् सुखसंपादकान् करोति॥15॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये दशमो वर्ग॥10॥

पदार्थः—जैसे खेती करने वाला मनुष्य हर एक अन्न की सिद्धि के लिये भूमि को (चर्कृषत्) वारंवार जोतता है (न) वैसे (सः) वह ईश्वर (मह्यम्) जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूं, उसके लिये (इन्दुभिः) स्निग्ध मनोहर पदार्थों और वसन्त आदि (षट्) छः (ऋतून्) ऋतुओं को (युक्तान्) (गोभिः) गौ, हाथी और घोड़े आदि पशुओं के साथ सुखसंयुक्त और (यवम्) यव आदि अन्न को (अनुसेषिधत्) वारंवार हमारे अनुकूल प्राप्त करे, इससे मैं उसी को इष्टदेव मानता हूँ॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य वा खेती करने वाला किरण वा हल आदि से वारंवार भूमि को आकर्षित वा खन, बो और धान्य आदि की प्राप्ति कर सचिक्कनकर पदार्थों के सेवन के साथ वसन्त आदि छः ऋतुओं को सुखों से संयुक्त करता है, वैसे ईश्वर भी समय के अनुकूल सब जीवों को कर्मों के अनुसार रस को उत्पन्न वा ऋतुओं के विभाग से उक्त ऋतुओं को सुख देने वाली करता है॥15॥

इति दशमो वर्गः॥

अथ जलगुणा उपदिश्यन्ते। अब अगले मन्त्र में जल के गुण प्रकाशित किये हैं- अ॒म्बयो॑ य॒न्त्यध्व॑भिर्जा॒मयो॑ अध्वरीय॒ताम्। पृ॒ञ्च॒तीर्मधु॑ना॒ पयः॑॥16॥ अ॒म्बयः॑। य॒न्ति॒। अध्व॑ऽभिः। जा॒मयः॑। अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒ताम्। पृ॒ञ्च॒तीः। मधु॑ना। पयः॑॥16॥ पदार्थः—(अम्बयः) रक्षणहेतव आपः (यन्ति) गच्छन्ति (अध्वभिः) मार्गैः (जामयः) बन्धव इव (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छतामस्माकम्। अत्र न छन्दस्यपुत्रस्य। (अष्टा॰7.4.35) अपुत्रादीनामिति वक्तव्यम् (अष्टा॰वा॰7.4.35) इति वचनादीकारनिषेधो न भवति वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। (अष्टा॰7.4.39) इत्यकारलोपोऽपि न भवति (पृञ्चतीः) स्पर्शयन्त्यः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति पूर्वसवर्णादेशोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (मधुना) मधुरगुणेन सह (पयः) सुखकारकं रसम्॥16॥ अन्वयः—यथा बन्धूनां जामयो बन्धवोऽनुकूलाचरणैः सुखानि सम्पादयन्ति, तथैवेमा अम्बय आपो अध्वरीयतामस्माकमध्वभिर्मधुना पयः पृञ्चतीः स्पर्शयन्त्यो यन्ति॥16॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बन्धवः स्वबन्धून् सम्पोष्य सुखयन्ति, तथेमा आप उपर्य्यधो गच्छन्त्यः सत्यो मित्रवत् प्राणिनां सुखानि सम्पादयन्ति, नैताभिर्विना केषांचित् प्राण्यप्राणिनामुन्नतिः सम्भवति तस्मादेताः सम्यगुपयोजनीयाः॥16॥ पदार्थः—जैसे भाइयों को (जामयः) भाई लोग अनुकूल आचरण सुख सम्पादन करते हैं, वैसे ये (अम्बयः) रक्षा करने वाले जल (अध्वरीयताम्) जो कि हम लोग अपने आप को यज्ञ करने की इच्छा करते हैं, उनको (मधुना) मधुरगुण के साथ (पयः) सुखकारक रस को (अध्वभिः) मार्गों से (पृञ्चतीः) पहुंचाने वाले (यन्ति) प्राप्त होते हैं॥16॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बन्धुजन अपने भाई को अच्छी प्रकार पुष्ट करके सुख करते हैं, वैसे ये जल ऊपर-नीचे जाते-आते हुए मित्र के समान प्राणियों के सुखों को सम्पादन करते हैं और इनके विना किसी प्राणी वा अप्राणी की उन्नति नहीं हो सकती। इससे ये रस को उत्पत्ति के द्वारा सब प्राणियों को माता पिता के तुल्य पालन करते हैं॥16॥ पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्य्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम्॥17॥ अ॒मूः। याः। उप॑। सूर्य्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्य्यः॑। स॒ह। ताः॒। नः॒। हि॒न्व॒न्तु॒। अ॒ध्व॒रम्॥17॥ पदार्थः—(अमूः) परोक्षाः (याः) आप (उप) सामीप्ये (सूर्य्ये) सूर्य्ये तत्प्रकाशमध्ये वा (याभिः) अद्भिः (वा) पक्षान्तरे (सूर्यः) सवितृलोकस्तत्प्रकाशो वा (सह) सङ्गे (ताः) आपः (नः) अस्माकम् (हिन्वन्तु) प्रीणयन्ति सेधयन्ति। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (अध्वरम्) अहिंसनीयं सुखरूपं यज्ञम्॥17॥ अन्वयः—या अमूरापः सूर्य्ये तत्प्रकाशे वा वर्त्तते, याभिः सह सूर्य्यो वर्त्तते, ता नोऽस्माकमध्वरमुपहिन्वन्तूपसेधयन्ति॥17॥ भावार्थः—यज्जलं पृथिव्यादयो मूर्त्तिमतो द्रव्यात् सूर्यकिरर्णैश्छन्नं संल्लघुत्वं प्राप्य सूर्याभिमुखं गच्छति, तदेवोपरिष्टाद् वृष्टिद्वाराऽऽगतं यानादिव्यवहारे यानेषु वा सुयोजितं सुखं वर्द्धयतीति॥17॥ पदार्थः—(याः) जो (अमूः) जल दृष्टिगोचर नहीं होते (सूर्य्ये) सूर्य वा इसके प्रकाश के मध्य में वर्त्तमान हैं (वा) अथवा (याभिः) जिन जलों के (सह) साथ (सूर्यः) सूर्यलोक वर्त्तमान है (ताः) वे (नः) हमारे (अध्वरम्) हिंसारहित सुखरूप यज्ञ को (उपहिन्वन्तु) प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं॥17॥ भावार्थः—जो जल पृथिवी आदि मूर्त्तिमान् पदार्थों से सूर्य्य की किरणों करके छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण होता हुआ सूर्य के सामने ऊपर को जाता है, वही ऊपर से वृष्टि के द्वारा गिरा हुआ पान आदि व्यवहार वा विमान आदि यानों में अच्छे प्रकार संयुक्त किया हुआ सुख बढ़ाता है॥17॥ पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर भी वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः। सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः॥18॥ अ॒पः। दे॒वीः। उप॑। ह्व॒ये॒। यत्र॑। गावः॑। पिब॑न्ति। नः॒। सिन्धु॑ऽभ्यः। कर्त्व॑म्। ह॒विः॥18॥ पदार्थः—(अपः) या आप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थान् ताः (देवीः) दिव्यगुणवत्त्वेन दिव्यगुणप्रापिकाः (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (यत्र) (गावः) किरणाः (पिबन्ति) स्पृशन्ति (नः) अस्माकम् (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यो नदीभ्यो वा (कर्त्वम्) कर्तुम्। अत्र कृत्यार्थे तवै॰ इति त्वन्प्रत्ययः। (हविः) हवनीयम्॥18॥ अन्वयः—यस्मिन् व्यवहारे गावः सिन्धुभ्यो देवीरपः पिबन्ति, ता नोऽस्माकं हविः कर्त्वमहमुपह्वये॥18॥ भावार्थः—सूर्य्यस्य किरणा यावज्जलं छित्त्वा वायुनाभित आकर्षति, तावदेव तस्मान्निवृत्य भूम्योषधीः प्राप्नोति, विद्वद्भिस्तावज्जलं पानस्नानशिल्पकार्यादिषु संयोज्य नानाविधानि सुखानि सम्पादनीयानि॥18॥ पदार्थः—(यत्र) जिस व्यवहार में (गावः) सूर्य की किरणें (सिन्धुभ्यः) समुद्र और नदियों से (देवीः) दिव्यगुणों को प्राप्त करने वाले (अपः) जलों को (पिबन्ति) पीती हैं, उन जलों को (नः) हम लोगों के (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों के (कर्त्वम्) उत्पन्न करने के लिये मैं (उपह्वये) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूं॥18॥ भावार्थः—सूर्य की किरणें जितना जल छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण कर वायु के संयोग से खैंचती हैं, उतना ही वहाँ से निवृत्त होकर भूमि और ओषधियों को प्राप्त होता है। विद्वान् लोगों को वह जल, पान, स्नान और शिल्पकार्य आदि में संयुक्त कर नाना प्रकार के सुख सम्पादन करने चाहिये॥18॥ पुनस्ता कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒प्स्वःन्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्तये। देवा॒ भव॑त वा॒जिनः॑॥19॥ अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒मृत॑म्। अ॒प्ऽसु। भे॒ष॒जम्। अ॒पाम्। उ॒त। प्रऽश॑स्तये। देवाः॑। भव॑त। वा॒जिनः॑॥19॥ पदार्थः—(अप्सु) जलेषु (अन्तः) मध्ये (अमृतम्) मृत्युकारकरोगनिवारकं रसम् (अप्सु) जलेषु (भेषजम्) औषधम् (अपाम्) जलानाम् (उत) अप्यर्थे (प्रशस्तये) उत्कर्षाय (देवाः) विद्वांसः (भवत) स्तः (वाजिनः) प्रशस्तो बाधो येषामस्ति ते। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। गत्यर्थाद्विज्ञानं गृह्यते॥19॥ अन्वयः—हे देवा विद्वांसो यूयं प्रशस्तयेऽप्स्वन्तरमृतमुताऽप्सु भेषजम् विदित्वाऽपां प्रयोगेण वाजिनो भवत॥14॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयममृतरसाभ्य ओषधिगर्भाभ्योऽद्भ्यः शिल्पवैद्यकविद्याभ्यां गुणान् विदित्वा शिल्पकार्य्यसिद्धिं रोगनिवारणं च नित्यं कुरुतेति॥19॥ पदार्थः—हे (देवाः) विद्वानो! तुम (प्रशस्तये) अपनी उत्तमता के लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) भीतर जो (अमृतम्) मार डालने वाले रोग का निवारण करने वाला अमृतरूप रस (उत) तथा (अप्सु) जलों में (भेषजम्) औषध हैं, उनको जानकर (अपाम्) उन जलों की क्रियाकुशलता से (वाजिनः) उत्तम श्रेष्ठ ज्ञान वाले (भवत) हो जाओ॥19॥ भावार्थः—हे मनुष्यो तुम अमृतरूपी रस वा ओषधि वाले जलों से शिल्प और वैद्यकशास्त्र की विद्या से उनके गुणों को जानकर कार्य्य की सिद्धि वा सब रोगों की निवृत्ति नित्य करो॥19॥ पुनस्ता कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒प्सु मे॒ सोमो॑ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा॑नि भेष॒जा। अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वशं॑भुव॒माप॑श्च वि॒श्वभे॑षजीः॥20॥11॥ अ॒प्ऽसु। मे॒। सोमः॑। अ॒ब॒वी॒त्। अ॒न्तः। विश्वा॑नि। भे॒ष॒जा। अ॒ग्निम्। च। वि॒श्वऽशं॑भुवम्। आपः॑। च॒। वि॒श्वऽभे॑षजीः॥20॥ पदार्थः—(अप्सु) जलेषु (मे) मह्यम् (सोमः) ओषधिराजश्चन्द्रमाः सोमलताख्यरसो वा (अब्रवीत्) ज्ञापयति। अत्र लडर्थे लुङन्तर्गतो ण्यर्थः प्रसिद्धीकरणं धात्वर्थश्च। (अन्तः) मध्ये (विश्वानि) सर्वाणि (भेषजा) औषधानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः (अग्निम्) विद्युदाख्यम् (च) समुच्चये (विश्वशंभुवम्) यः सर्वस्मै जगते शं सुखं भावयति प्रकटयति तम्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः क्विप् च इति क्विप्। (आपः) जलानि (च) समुच्चये (विश्वभेषजीः) विश्वाः सर्वा भेषज्य ओषध्यो यासु ताः। अत्र केवलमाम॰ (अष्टा॰4.1.30) अनेन भेषजशब्दान्ङीप् प्रत्ययः॥20॥ अन्वयः—यथाऽयं सोमो मे मह्यमप्स्वन्तर्विश्वानि भेषजौषधानि विश्वशंभुवमग्निं चाब्रवीज्ज्ञापयत्येवं विश्वभेषजीरापः स्वासु सोमाद्यानि विश्वानि भेषजौषधानि विश्वशंभुवमग्निं चाब्रुवन् ज्ञापयन्ति॥20॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सर्वे पदार्थाः स्वगुणैः स्वान् प्रकाशयन्ति तथौषधिगणपुष्टिकारकश्चन्द्रमा ओषधिगणग्राह्याणीति प्रकाशयन्त्यः सर्वौषधिहेतव आपः स्वान्तर्गतं समस्तकल्याणहेतुं स्तनयित्नुं प्रकाशयन्त्यर्थात् जलगतमौषधनिमित्तजलगतमग्निनिमित्तं चास्तीति वेद्यम्॥20॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याय एकादशो वर्गः॥20॥

पदार्थः—जैसे यह (सोमः) ओषधियों का राजा चन्द्रमा वा सोमलता (मे) मेरे लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) बीच में (विश्वानि) सब (भेषजा) ओषधि (च) तथा (विश्वशंभुवम्) सब जगत् के लिये सुख करने वाले (अग्निम्) बिजुली को (अब्रवीत्) प्रसिद्ध करता है, इसी प्रकार (विश्वभेषजीः) जिनके निमित्त से सब ओषधियाँ होती हैं, वे (आपः) जल भी अपने में उक्त सब ओषधियों और उक्त गुण वाले अग्नि को जानते हैं॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब पदार्थ अपने गुणों से अपने-अपने स्वभावों और उनमें ओषधियों की पुष्टि कराने वाला चन्द्रमा और जो ओषधियों में मुख्य सोमलता है, ये दोनों जल के निमित्त और ग्रहण करने योग्य सब ओषधियों का प्रकाश करते हैं, वैसे सब ओषधियों के हेतु जल अपने अन्तर्गत समस्त सुखों का हेतु मेघ का प्रकाश और जो जलों में ओषधियों का निमित्त और जो जल में अग्नि का निमित्त है, ऐसा जानना चाहिये॥20॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याय एकादशो वर्गः॥

पुनस्ताः कीदृशा इत्युपदिश्यते। फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॒ मम॑। ज्योक् च॒ सूर्य्यं॑ दृ॒शे॥21॥ आपः॑। पृ॒णी॒त। भे॒ष॒जम्। वरू॑थम्। त॒न्वे॑। मम॑। ज्योक्। च॒। सूर्य्य॑म्। दृ॒शे॥21॥ पदार्थः—(आपः) आप्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थास्ते प्राणाः (पृणीत) पूरयन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (भेषजम्) रोगनाशकव्यवहारम् (वरूथम्) वरं श्रेष्ठम्। अत्र जॄवृभ्यामूथन्। (उणा॰2.6) अनेन ‘वृञ्’ धातोरूथन्प्रत्ययः। (तन्वे) शरीराय (मम) जीवस्य (ज्योक्) चिरार्थे (च) समुच्चये (सूर्य्यम्) सवितृलोकम् (दृशे) द्रष्टुम्। दृशे विख्ये च। (अष्टा॰3.4.11) अनेनायं निपातितः॥21॥ अन्वयः—मनुष्यैर्या आपः प्राणाः सूर्य्यं दृशे द्रष्टुं ज्योक् चिरं जीवनाय मम तन्वे वरूथं भेषजं वृणीत प्रपूरयन्ति ता यथावदुपयोजनीयाः॥21॥ भावार्थः—नैव प्राणैर्विना कश्चित्प्राणी वृक्षादयश्च शरीरं धारयितुं शक्नुवन्ति, तस्मात् क्षुत्तृषादिरोगनिवारणार्थं परममौषधं युक्त्या प्राणसेवनमेवास्तीति बोध्यम्॥11॥ पदार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि सब पदार्थों को व्याप्त होने वाले प्राण (सूर्य्यम्) सूर्यलोक के (दृशे) दिखलाने वा (ज्योक्) बहुत काल जिवाने के लिये (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (वरूथम्) श्रेष्ठ (भेषजम्) रोगनाश करने वाले व्यवहार को (पृणीत) परिपूर्णता से प्रकट कर देते हैं, उनका सेवन युक्ति ही से करना चाहिये॥21॥ भावार्थः—प्राणों के विना कोई प्राणी वा वृक्ष आदि पदार्थ बहुत काल शरीर धारण करने को समर्थ नहीं हो सकते, इससे क्षुधा और प्यास आदि रोगों के निवारण के लिये परम अर्थात् उत्तम से उत्तम औषधों को सेवने से योगयुक्ति से प्राणों का सेवन ही परम उत्तम है, ऐसा जानना चाहिये। पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- इ॒दमा॑पः॒ प्र व॑हत॒ यत्किञ्च॑ दुरि॒तं मयि॑। यद्वा॒हम॑भिदु॒द्रोह॒ यद्वा॒॑ शे॒प उ॒तानृ॑तम्॥22॥ इ॒दम्। आ॒प॒। प्र। व॒ह॒त॒। यत्। किञ्च॒। दुरितम्। मयि॑। यत्। वा॒। अ॒हम्। अ॒भि॒ऽदु॒द्रोह॑। यत्। वा॒। शे॒पे। उ॒त। अनृ॑तम्॥22॥ पदार्थः—(इदम्) आचरितम् (आपः) प्राणः (प्र) प्रकृष्टार्थे (वहत) वहन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (यत्) यादृशम् (किञ्च) किंचिदपि (दुरितम्) दुष्टस्वभावानुष्ठानजनितं पापम् (मयि) कर्तरि जीवे (यत्) ईर्ष्याप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (अहम्) कर्मकर्ताजीवः (अभिदुद्रोह) आभिमुख्येन द्रोहं कृतवान् (यत्) क्रोधप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (शेपे) कंचित्साधुजनमाक्रुष्टवान् (उत) अपि (अनृतम्) असत्यमाचरणमानभाषणं कृतवान्॥22॥ अन्वयः—अहं यत्किंच मयि दुरितमस्ति यद्वा पुण्यमस्ति यच्चाहमभिदुद्रोह या मित्रत्वमाचरितवान् यद्वा कञ्चिच्छेपे वाऽनुगृहीतवान् यदनृतं वोत सत्यं चाचरितवानस्मि तत्सर्वमिदमापो मम प्राणा मया सह प्रवहत प्राप्नुवन्ति॥22॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यादृशं पापं पुण्यं चाचर्य्यते तत्तदेवेश्वरव्यवस्थया प्राप्यत इति निश्चयः॥22॥ पदार्थः—मैं (यत्) जैसा (किम्) कुछ (मयि) कर्म का अनुष्ठान करने वाले मुझमें (दुरितम्) दुष्ट स्वभाव के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ पाप (च) वा श्रेष्ठता से उत्पन्न हुआ पुण्य (वा) अथवा (यत्) अत्यन्त क्रोध से (अभिदुद्रोह) प्रत्यक्ष किसी से द्रोह करता वा मित्रता करता (वा) अथवा (यत) जो कुछ अत्यन्त ईर्ष्या से किसी सज्जन को (शेपे) शाप देता वा किसी को कृपादृष्टि से चाहता हुआ जो (अनृतम्) झूंठ (उत) वा सत्य काम करता हूं (इदम्) सो यह सब आचरण किये हुए को (आपः) मेरे प्राण मेरे साथ होके (प्रवहत) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं॥22॥ भावार्थः—मनुष्य लोग जैसा कुछ पाप वा पुण्य करते हैं, सो सो ईश्वर अपनी न्याय व्यवस्था से उनको प्राप्त कराता ही है॥22॥ पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते। फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- आपो॑ अ॒द्यान्व॑चारिषं॒ रसे॑न॒ सम॑गस्महि। पय॑स्वानग्न॒ आ ग॑हि॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा॥23॥ आपः॑। अ॒द्य। अनु॑। अ॒चा॒रि॒ष॒म्। रसे॑न। सम्। अ॒ग॒स्म॒हि॒। पय॑स्वान्। अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒। तम्। मा॒। सम्। सृ॒ज॒। वर्च॑सा॥23॥ पदार्थः—(आपः) जलानि (अद्य) अस्मिन् दिने। अत्र सद्यः परुत्परार्य्यै॰ (अष्टा॰5.3.22) अनेनायं निपातितः। (अनु) पश्चादर्थे (अचारिषम्) अनुतिष्ठामि। अत्र लडर्थे लुङ्। (रसेन) स्वाभाविकेन रसगुणेन सह वर्त्तमानाः (सम्) सम्यगर्थे (अगस्महि) सङ्गच्छामहे। अत्र लडर्थे लुङ्, मन्त्रे घसह्वरणश॰ इति च्लेर्लुक् वर्णव्यत्ययेन मकारस्थाने सकारादेशश्च। (पयस्वान्) रसवच्छरीरयुक्तो भूत्वा (अग्ने) अग्निभौतिकः (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (तम्) कर्मानुष्ठातारम् (मा) माम् (सम्) एकीभावे (सृज) सृजाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (वर्चसा) दीप्त्या॥23॥ अन्वयः—वयं या रसेन युक्ता आपः सन्ति ताः समगस्महि, याभिरहं पयस्वान् यत्किंचिदन्वचारिषं कर्मानुचरामि, तदेव प्राप्नोमि योऽग्निर्जन्मान्तर आगहि प्राप्नोति, स पूर्वजन्मनि तमेव कर्मानुष्ठातारं मा मामद्य वर्चसा संसृज सम्यक् सृजति ताः स च युक्त्या समुपयोजनीयः॥23॥ भावार्थः—सर्वान् प्राणिनः पूर्वाचरितफलं वायुजलाग्न्यादिद्वाराऽस्मिञ्जन्मनि पुनर्जन्मनि वा प्राप्नोत्येवेति॥23॥ पदार्थः—हम लोग जो (रसेन) स्वाभाविक रसगुण संयुक्त (आपः) जल हैं, उनको (समगस्महि) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, जिनसे मैं (पयस्वान्) रसयुक्त शरीर वाला होकर जो कुछ (अन्वचारिषम्) विद्वानों के अनुचरण अर्थात् अनुकूल उत्तम काम करके उसको प्राप्त होता और जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (मा) तुझको इस जन्म और जन्मान्तर अर्थात एक जन्म से दूसरे जन्म में (आगहि) प्राप्त होता है अर्थात् वही पिछले जन्म में (तम्) उसी कर्मों के नियम से पालने वाले (मा) मुझे (अद्य) आज वर्त्तमान भी (वर्चसा) दीप्ति (संसृज) सम्बन्ध कराता है, उन और उसको युक्ति से सेवन करना चाहिये॥23॥ भावार्थः—सब प्राणियों को पिछले जन्म में किये हुए पुण्य वा पाप का फल वायु जल और अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा इस जन्म वा अगले जन्म में प्राप्त होता ही है॥23॥ सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते। वह अग्नि किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- सं मा॑ग्ने॒ वर्च॑सा सृज॒ सं प्र॒जया॒ समायु॑षा। वि॒द्युर्मे॑ अस्य दे॒वा इन्द्रो॑ विद्यात् स॒ह ऋषि॑भिः॥24॥12॥5॥ सम्। मा॒। अ॒ग्ने॒। वर्च॑सा। सृ॒ज॒। सम्। प्र॒जया॑। सम्। आयु॑षा। विद्युः। मे॒। अ॒स्य॒। दे॒वाः। इन्द्रः॑। वि॒द्यात्। स॒ह। ऋषि॑ऽभिः॥24॥ पदार्थः—(सम्) योगार्थे (मा) माम् (अग्ने) विद्युदाख्यः (वर्चसा) दीप्त्या (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सम्) मेलनार्थे (प्रजया) सन्तानादिना (सम्) एकीभावे (आयुषा) जीवनेन (विद्युः) विदन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (मे) मम जीवस्य (अस्य) मनुष्यपशुवृक्षादिस्थस्य (देवाः) विद्वांसः (इन्द्रः) परमेश्वरः (विद्यात्) वेत्ति। अत्र लडर्थे लिङ्। (सह) सङ्गार्थे (ऋषिभिः) विचारशीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः॥24॥ अन्वयः—मनुष्यैर्ऋषिभिः सह देवाः विद्वांसः परमात्मा च यदग्ने अग्निर्वर्चसा प्रजयाऽऽयुषा मा मां सृजति संयुनक्ति, यन्मे मम पापपुण्यात्मकं कर्म जन्मनः कारणं विद्युर्विदन्ति विद्यात् वेत्ति च तस्मान्मया तत्सङ्गस्तदुपासना च नित्यं कार्य्या॥24॥ भावार्थः—यदा जीवः पूर्व शरीरं त्यक्त्वोत्तरं प्राप्नोति तदा तेन सह यः स्वाभाविको मानसोऽग्निर्गच्छति स एव पुनः शरीरादिकं प्रकाशयति जीवानां यत्पापं पुण्यं च जन्मकारणमस्ति तदृषिसहिता विद्वांसो जानन्ति नेतरे, परमेश्वरस्तु खलु यथार्थतया सर्वं विदित्वा स्वस्वकर्मानुसारेण जीवान् शरीरसंयुक्तान् कृत्वा फलं भोजयतीति॥24॥ पूर्वसूक्तेनोक्तैरश्व्यादिभिर्वाय्वादीनामनुषङ्गीणामत्रोक्तत्वाद् द्वाविंशेनातीतेन सूक्तार्थेन सहास्य त्रयोविंशस्य सूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयध्याये द्वादशो वर्गः प्रथममण्डले त्रयोविंशं सूक्तं पञ्चमोऽनुवाकश्च समाप्तः॥

पदार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो (ऋषिभिः) वेदार्थ जानने वालों के (सह) साथ (देवाः) विद्वान् लोग और (इन्द्रः) परमात्मा (अग्ने) भौतिक अग्नि (वर्चसा) दीप्ति (प्रजया) सन्तान आदि पदार्थ और (आयुषा) जीवन से (मा) मुझे (संसृज) संयुक्त करता है उस और (मे) मेरे (अस्य) इस जन्म के कारण को जानते और (विद्यात्) जानता है, इससे उनका संग और उसकी उपासना नित्य करें॥24॥ भावार्थः—जब जीव पिछले शरीर को छोड़कर अगले शरीर को प्राप्त होता है, तब उसके साथ जो स्वाभाविक मानस अग्नि जाता है, वही फिर शरीर आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है, जो जीवों के पाप-पुण्य और जन्म का कारण है, उसको वे (ऋषि और विद्वान्) ही परमेश्वर के सिवाय जानते हैं, किन्तु परमेश्वर तो निश्चय के साथ यथायोग्य जीवों के पाप वा पुण्य को जानकर, उनके कर्म के अनुसार शरीर देकर, सुख दुःख का भोग कराता ही है॥24॥ पूर्व सूक्त से कहे हुए अश्वि आदि पदार्थों के अनुषङ्गी जो वायु आदि पदार्थ हैं, उनके वर्णन से पिछले बाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस तेईसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥ 1 मण्डल दूसरे 2 अध्याय में 12 बारहवां वर्ग 5 पांचवां अनुवाक और यह तेईसवां सूक्त समाप्त हुआ॥

अथास्य पञ्चदशर्चस्य चतुर्विंशस्य सूक्तस्य आजीगर्त्तिः शुनःशेपः कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातिर्ऋषिः। 1 प्रजापतिः। 2 अग्निः। 3-5 सविता भगो वा। 6-15 वरुणश्च देवताः। 1,2, 6-15 त्रिष्टुप्। 3-5 गायत्रीछन्दः। 1,2, 6-15 धैवतः। 3-5 षड्जश्च स्वरौ॥ तत्रादिमेन प्रजापतिरुपदिश्यते। अब चौबीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में प्रजापति का प्रकाश किया है- कस्य॑ नू॒नं क॑त॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। को नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥1॥ कस्य॑। नू॒नम्। क॒त॒मस्य॑। अ॒मृता॑नाम्। मना॑महे। चारु॑। दे॒वस्य॑। नाम॑। कः। नः॒। म॒ह्यै। अदि॑तये। पुनः॑। दा॒त्। पि॒तर॑म्। च॒। दृ॒शेय॑म्। मा॒तर॑म्। च॒॥1॥ पदार्थः—(कस्य) कीदृशगुणस्य (नूनम्) निश्चयार्थे (कतमस्य) बहूनां मध्ये व्यापकस्यामृतस्याऽनादेरेकस्य (अमृतानाम्) उत्पत्तिविनाशरहितानां प्राप्तमोक्षाणां जीवानां (मनामहे) विजानीयाम्। अत्र प्रश्नार्थे लेट् व्यत्ययेन श्यनः स्थाने शप् च। (चारु) सुन्दरम् (देवस्य) प्रकाशमानस्य दातुः (नाम) प्रसिद्धार्थे (कः) सुखस्वरूपो देवः (नः) अस्मान् (मह्ये) महत्याम् (अदितये) कारणरूपेण नाशरहितायां पृथिव्याम्। अदितिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) अत्रोभयत्र सप्तम्यर्थे चतुर्थी। (पुनः) पश्चात् (दात्) ददाति। अत्र लडर्थे लङडभावश्च। (पितरम्) जनकम् (च) समुच्चये (दृशेयम्) दृश्यासम् इच्छां कुर्याम्। अत्र दृशेरग्वक्तव्यः। (अष्टा॰3.1.86) अनेन वार्त्तिकेनाशीर्लिङि दृशेरग्विकरणेन रूपम्। (मातरम्) गर्भस्य धात्रीम् (च) पुनरर्थे॥1॥ अन्वयः—वयं कस्य कतमस्य बहूनाममृतानामनादीनां प्राप्तमोक्षाणां जीवानां जगत्कारणानां नित्यानां मध्ये व्यापकस्यामृतस्यानादेरेकस्य पदार्थस्य देवस्य चारु नाम नूनं मनामहे कश्च देवो नः प्राप्तमोक्षानप्यस्मान् मह्या अदितये पुनर्दातु ददाति येनाहं पितरं मातरं च दृशेयम्॥1॥ भावार्थः—अत्र प्रश्नः कोऽस्तीदृशः सनातनानां पदार्थानां मध्ये सनातनस्याविनाशिनोऽर्थोऽस्ति यस्यात्युत्कृष्टं नाम्नः स्मरेम जानीयाम? कश्चास्मिन् संसारेऽस्मभ्यं केन हेतुना मोक्षसुखभोगानन्तरं जन्मान्तरं सम्पादयति? कथं च वयमानन्दप्रदां मुक्तिं प्राप्य पुनर्मातापित्रोः सकाशात् पुनर्जन्मनि शरीरं धारयेमेति॥1॥ पदार्थः—हम लोग (कस्य) कैसे गुण कर्म स्वभाव युक्त (कतमस्य) किस बहुतों (अमृतानाम्) उत्पत्ति विनाशरहित अनादि मोक्षप्राप्त जीवों और जो जगत् के कारण नित्य के मध्य में व्यापक अमृतस्वरूप अनादि तथा एक पदार्थ (देवस्य) प्रकाशमान सर्वोत्तम सुखों को देने वाले देव का निश्चय के साथ (चारु) सुन्दर (नाम) प्रसिद्ध नाम को (मनामहे) जानें कि जो (नूनम्) निश्चय करके (कः) कौन सुखस्वरूप देव (नः) मोक्ष को प्राप्त हुए भी हम लोगों को (मह्यै) बड़ी कारणरूप नाशरहित (अदितये) पृथिवी के बीच में (पुनः) पुनर्जन्म (दात) देता है। जिससे कि हम लोग (पितरम्) पिता (च) और (मातरम्) माता (च) और स्त्री पुत्र बन्धु आदि को (दृशेयम्) देखने की इच्छा करें॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में प्रश्न का विषय है कौन ऐसा पदार्थ है जो सनातन अर्थात् अविनाशी पदार्थों में भी सनातन अविनाशी है कि जिसका अत्यन्त उत्कर्ष युक्त नाम का स्मरण करें वा जानें? और कौन देव हम लोगों के लिये किस-किस हेतु से एक जन्म से दूसरे जन्म का सम्पादन करता? और अमृत वा आनन्द के कराने वाली मुक्ति को प्राप्त होकर भी फिर हम लोगों को माता-पिता से दूसरे जन्म में शरीर को धारण करता है॥1॥ एतयोः प्रश्नयोरुत्तरे उपदिश्येते। इन प्रश्नों के उत्तर अगले मन्त्र में प्रकाशित किये हैं- अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। स नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥2॥ अ॒ग्नेः। व॒यम्। प्र॒थ॒मस्य॑। अ॒मृता॑नाम्। मना॑महे। चारु॑। दे॒वस्य॑। नाम॑। सः। नः॒। म॒ह्यै। अदि॑तये। पुनः॑। दा॒त्। पि॒तर॑म्। च॒। दृ॒शेय॑म्। मा॒त॑रम्। च॒॥2॥ पदार्थः—(अग्नेः) यस्य ज्ञानस्वरूपस्य (वयम्) विद्वांसः सनातना जीवाः (प्रथमस्य) अनादिस्वरूपस्यैवाद्वितीयस्य परमेश्वरस्य (अमृतानाम्) विनाशधर्मरहितानां जगत्कारणानां वा प्राप्तमोक्षानां जीवनां मध्ये (मनामहे) विजानीयाम् (चारु) पवित्रम् (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सृष्टौ सकलपदार्थानां दातुः (नाम) आह्वानम् (सः) जगदीश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (मह्यै) महागुणविशिष्टायाम् (अदितये) पृथिव्याम् (पुनः॰) इत्यारभ्य निरूपितपूर्वार्थानि पदानि विज्ञेयानि॥2॥ अन्वयः—वयं यस्याग्नेर्ज्ञानस्वरूपस्यामृतानां प्रथमस्यानादेर्देवस्य चारु नाम मनामहे, स एव नोऽस्मभ्यं मह्या अदितये पुनर्जन्म दात् ददाति, यतश्चाहं पुनः पितरं मातरं च स्त्रीपुत्रबन्ध्वादीनपि दृशेयं पश्येयम्॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्या वयं यमनादिममृतं सर्वेषामस्माकं पापपुण्यानुसारेण फलव्यवस्थापकं जगदीश्वरं देवं निश्चिनुमः। यस्य न्यायव्यवस्थया पुनर्जन्मानि प्राप्नुमो यूयप्येतमेव देवं पुनर्जन्मदातारं विजानीत, न चैतस्मादन्यः कश्चिदर्थ एतत्कर्म कर्तंु शक्नोति। अयमेव मुक्तानामपि जीवानां महाकल्पान्ते पुनः पापपुण्यतुल्यतया पितरि मातरि च मनुष्यजन्म कारयतीति च॥2॥ पदार्थः—हम लोग जिस (अग्ने) ज्ञानस्वरूप (अमृतानाम्) विनाश धर्मरहित पदार्थ वा मोक्ष प्राप्त जीवों में (प्रथमस्य) अनादि विस्तृत अद्वितीय स्वरूप (देवस्य) सब जगत् के प्रकाश करने वा संसार में सब पदार्थों के देने वाले परमेश्वर का (चारु) पवित्र (नाम) गुणों का गान करना (मनामहे) जानते हैं, (सः) वही (नः) हमको (मह्यै) बड़े-बड़े गुण वाली (अदितये) पृथिवी के बीच में (पुनः) फिर जन्म (दात्) देता है, जिससे हम लोग (पुनः) फिर (पितरम्) पिता (च) और (मातरम्) माता (च) और स्त्री-पुत्र-बन्धु आदि को (दृशेयम्) देखते हैं॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! हम लोग जिस अनादि स्वरूप सदा अमर रहने वा जो हम सब लोगों के किये हुए पाप और पुण्यों के अनुसार यथायोग्य सुख-दुःख फल देने वाले जगदीश्वर देव को निश्चय करते और जिसकी न्याययुक्त व्यवस्था से पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, तुम लोग भी उसी देव को जानो, किन्तु इससे और कोई उक्त कर्म करने वाला नहीं है, ऐसा निश्चय हम लोगों को है कि वही मोक्षपदवी को पहुंचे हुए जीवों का भी महाकल्प के अन्त में फिर पाप-पुण्य की तुल्यता से पिता-माता और स्त्री आदि के बीच में मनुष्यजन्म धारण करता है॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। सदा॑वन्भा॒गमी॑महे॥3॥ अ॒भि। त्वा॒। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। ईशा॑नम्। वार्य्या॑णाम्। सदा॑। अ॒व॒न्। भा॒गम्। ई॒महे॒॥3॥ पदार्थः—(अभि) आभिमुख्ये (त्वा) त्वाम् (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर (सवितः) पृथिव्याद्युत्पादक (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम् (वार्य्याणाम्) स्वीकर्त्तुमर्हाणां पृथिव्यादिपदार्थानां (सदा) सर्वदा (अवन्) रक्षन् (भागम्) भजनीयम् (ईमहे) याचामहे॥3॥ अन्वयः—हे सवितरवन् देव जगदीश्वर! वयं वार्य्याणामीशानं भागं त्वा त्वां सदाऽभीमहे॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः सर्वप्रकाशकः सकलजगदुत्पादकः सर्वरक्षको जगदीश्वरो देवोऽस्ति, स एव सर्वदोपासनीयः। नैवास्माद्भिन्नं कंचिदर्थमुपास्येश्वरोपासनाफलं प्राप्तुमर्हति, तस्मान्नैतस्येश्वरस्योपासना- विषये केनापि मनुष्येण कदाचिदन्योऽर्थो व्यस्थापनीय इति॥3॥ पदार्थः—हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देने वाले जगदीश्वर हम लोग (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की (ईशानम्) यथायोग्य व्यवस्था करने (भागम्) सब के सेवा करने योग्य (त्वा) आपको (सदा) सब काल में (अभि) (ईमहे) प्रत्यक्ष याचते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो सब का प्रकाशक सकल जगत् को उत्पन्न वा सब की रक्षा करने वाले जगदीश्वर है, वही सब समय में उपासना करने योग्य है, क्योंकि इसको छोड़ के अन्य किसी की उपासना करके ईश्वर की उपासना का फल चाहे तो कभी नहीं हो सकता, इससे इसकी उपासना के विषय में कोई भी मनुष्य किसी दूसरे पदार्थ का स्थापन कभी न करे॥3॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते। फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर ने अपना ही प्रकाश किया है- यश्चि॒द्धि त॑ इ॒त्था भगः॑ शशमा॒नः पु॒रा नि॒दः। अ॒द्वे॒षो हस्त॑योर्द॒धे॥4॥ यः। चि॒त्। हि। ते॒। इ॒त्था। भगः॑। श॒श॒मा॒नः। पु॒रा। नि॒दः। अ॒द्वे॒षः। हस्त॑योः। द॒धे॥4॥ पदार्थः—(यः) धनसमूहः (चित्) सत्कारार्थे अप्यर्थे वा (हि) खलु (ते) तव (इत्था) अनेन हेतुना (भगः) सेवितुमर्हो धनसमूहः (शशमानः) स्तोतुमर्हः (पुरा) पूर्वम् (निदः) निन्दकः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नकारलोपः। (अद्वेषः) अविद्यमानो द्वेषो यस्मिन् सः (हस्तयोः) करयोरामलकमिव कर्मफलम् (दधे) धारये॥4॥ अन्वयः—हे जीव! यथाऽद्वेषोहमीश्वर इत्था सुखहेतुना यः शशमानो भगोऽस्ति, तं सुकर्मणस्ते हस्तयोरामलकमिव दधे, यश्च निदोऽस्ति तस्य हस्तयोः सकाशादिवैतत्सुखं च विनाशये॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कार। यथाऽहमीश्वरो निन्दकाय मनुष्याय दुःखं यः कश्चित्सृष्टौ धर्मानुसारेण वर्त्तते, तस्मै सुखविज्ञाने प्रयच्छामि, तथैव सर्वैर्युष्माभिरपि कर्त्तव्यमिति॥4॥ पदार्थः—हे जीव जैसे (अद्वेषः) सब से मित्रतापूर्वक वर्तने वाला द्वेषादि दोषरहित मैं ईश्वर (इत्था) इस प्रकार सुख के लिये (यः) जो (शशमानः) स्तुति (भगः) और स्वीकार करने योग्य धन है, उसको (ते) तेरे धर्मात्मा के लिये (हि) निश्चय करके (हस्तयोः) हाथों में आमले का फल वैसे धर्म के साथ प्रशंसनीय धन को (दधे) धारण करता हूं और जो (निदः) सब की निन्दा करनेहारा है, उसके लिये उस धन समूह का विनाश कर देता हूं, वैसे तुम लोग भी किया करो॥4॥ भावार्थः—यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मैं ईश्वर सब के निन्दक मनुष्य के लिये दुःख और स्तुति करने वाले के लिये सुख देता हूं, वैसे तुम भी सदा किया करो॥4॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते। फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर ही का प्रकाश किया है- भग॑भक्तस्य ते व॒यमुद॑शेम॒ तवाव॑सा। मू॒र्द्धानं॑ रा॒य आ॒रभे॑॥5॥13॥ भग॑ऽभक्तस्य। ते॒। व॒यम्। उत्। अ॒शे॒म॒। तव॑। अव॑सा। मू॒र्द्धान॑म्। रा॒यः। आ॒ऽरभे॑॥5॥ पदार्थः—(भगभक्तस्य) भगाः सर्वैः सेवनीया भक्ता येन तस्य (ते) तव जगदीश्वरस्य (वयम्) ऐश्वर्य्यमिच्छुकाः (उत्) उत्कृष्टार्थे (अशेम) व्याप्नुयाम। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाच्छपः स्थाने श्नुर्न। (तव) (अवसा) रक्षणेन (मूर्द्धानम्) उत्कृष्टभागम् (रायः) धनसमूहस्य (आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे। अत्र कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः (अष्टा॰3.4.14) अनेन ‘रभ’ धातोः केन् प्रत्ययः॥5॥ अन्वयः—हे परात्मन्! भगभक्तस्य ते तव कीर्त्तिं यतो वयमुदशेम तस्मात्तवावसा रायो मूर्द्धानं प्राप्यारभ आरब्धव्ये व्यवहारे नित्यं प्रवर्त्तामहे॥5॥ भावार्थः—येऽनुष्ठानेनेश्वराज्ञां व्याप्नुवन्ति त एवेश्वरात् सर्वतो रक्षणं प्राप्य सर्वेषां मनुष्याणां मध्य उत्तमैश्वर्य्या भूत्वा प्रशसां प्राप्नुवन्ति, कुतः? स एवेश्वरः स्वस्वकर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलं विभज्य ददात्यतः॥5॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर जिससे हम लोग (भगभक्तस्य) जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करने वाले (ते) आपकी कीर्त्ति को (उदशेम) अत्यन्त उन्नति के साथ व्याप्त हों कि उसमें (तव) आपकी (अवसा) रक्षणादि कृपादृष्टि से (रायः) अत्यन्त धन के (मूर्द्धानम्) उत्तम से उत्तम भाग को प्राप्त होकर (आरभे) आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में नित्य प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर सकें॥5॥ भावार्थः—जो मनुष्य अपने क्रिया कर्म से ईश्वर की आज्ञा में प्राप्त होते हैं, वही उससे रक्षा को सब प्रकार से प्राप्त और सब मनुष्यों में उत्तम ऐश्वर्य वाले होकर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वही ईश्वर जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय व्यवस्था से विभाग कर फल देता है इससे॥5॥ पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते। पुनः वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- न॒हि ते॑ क्ष॒त्रं न सहो॒ न म॒न्युं वय॑श्च॒नामी प॒तय॑न्त आ॒पुः। नेमा आपो॑ अनिमि॒षं चर॑न्ती॒र्न ये वात॑स्य प्रमि॒नन्त्यभ्व॑म्॥6॥ न॒हि। ते॒। क्ष॒त्रम्। न। सहः॑। न। म॒न्युम्। वयः॑। च॒न। अ॒मी इति॑। प॒तय॑न्तः। आ॒पुः। न। इमाः। आपः॑। अ॒नि॒ऽमि॒षम्। चर॑न्तीः। न। ये। वात॑स्य। प्र॒ऽमि॒नन्ति॑। अभ्व॑म्॥6॥ पदार्थः—(नहि) निषेधे (ते) तव सर्वेश्वरस्य (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् (न) निषेधार्थे (सहः) बलम् (न) निषेधार्थे (मन्युम्) दुष्टान् प्राणिनः प्रति यः क्रोधस्तम् (वयः) पक्षिणः (चन) कदाचित् (अमी) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोका वा (पतयन्तः) इतस्ततश्चलन्तः सन्तः (आपुः) प्राप्नुवन्ति अत्र वर्त्तमाने लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (इमाः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (आपः) जलानि प्राणा वा (अनिमिषम्) निरन्तरम् (चरन्तीः) चरन्त्यः (न) निषेधे (ये) वेगाः (वातस्य) वायोः (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति (अभ्वम्) सत्तानिषेधम्। अत्र ‘भू’ धातोः क्विप् ततश्छन्दस्युभयथा। (अष्टा॰6.4.86 इत्यभिपरे यणादेशः॥6॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर ते तव क्षत्रं पतयन्तः सन्तोऽमी लोका लोकान्तरानापुर्न व्याप्नुवन्ति न वयश्च न सहो न मन्युं च व्याप्नुवन्ति नेमा अनिमिषं चरन्त्य आपस्तव सामर्थ्यं प्रमिनन्ति, ये वातस्य वेगास्तेऽपि तव सत्तां न प्रमिनन्त्यर्थान्नेमे सर्वे पदार्थास्तवाभ्वम्-सत्तानिषेधं च कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥6॥ भावार्थः—ईश्वरस्यानन्तसामर्थ्यवत्त्वान्नैतं कश्चिदपि परिमातुं हिंसितुं वा शक्नोति। इमे सर्वे लोकाश्चरन्ति नैतेषु चलत्सु जगदीश्वरश्चलति तस्य पूर्णत्वात् नैतस्माद्भिन्नेनोपासितेनार्थेन कस्यचिज्जीवस्य पूर्णमखण्डितं राज्यं भवितुमर्हति। तस्मात् सर्वै र्मनुष्यैरयं जगदीश्वरोऽप्रमेयोऽविनाशी सदोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥6॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर (क्षत्रम्) अखण्ड राज्य को (पतयन्तः) इधर-उधर चलायमान होते हुए (अमी) ये लोक-लोकान्तर (न) नहीं (आपुः) व्याप्त होते हैं और न (वयः) पक्षी भी (न) नहीं (सहः) बल को (न) नहीं (मन्युम्) जो कि दुष्टों पर क्रोध है, उसको भी (न) नहीं व्याप्त होते हैं (न) नहीं ये (अनिमिषम्) निरन्तर (चरन्तीः) बहने वाले (आपः) जल वा प्राण आपके सामर्थ्य को (प्रमिनन्ति) परिमाण कर सकते और (ये) जो (वातस्य) वायु के वेग हैं, वे भी आपकी सत्ता का परिमाण (न) नहीं कर सकते। इसी प्रकार और भी सब पदार्थ आपकी (अभ्वम्) सत्ता का निषेध भी नहीं कर सकते॥6॥ भावार्थः—ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य होने से उसका परिमाण वा उसकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता है। ये सब लोक चलते हैं, परन्तु लोकों के चलने से उनमें व्याप्त ईश्वर नहीं चलता, क्योंकि जो सब जगह पूर्ण है, वह कभी चलेगा? इस ईश्वर की उपासना को छोड़ कर किसी जीव का पूर्ण अखण्डित राज्य वा सुख कभी नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को प्रमेय वा विनाश रहित परमेश्वर की सदा उपासना करनी योग्य है॥5॥ अथ वायुसवितृगुणा उपदिश्यन्ते। अब अगले मन्त्र में वायु और सविता के गुण प्रकाशित करते हैं- अ॒बु॒ध्ने राजा॒ वरु॑णो॒ वन॑स्यो॒र्ध्वं स्तूपं॑ ददते पू॒तद॑क्षः। नी॒चीनाः॑ स्थुरु॒परि॑ बु॒ध्न ए॑षाम॒स्मे अ॒न्तर्निहि॑ताः के॒तवः॑ स्युः॥7॥ अ॒बु॒ध्ने। राजा॑। वरु॑णः। वन॑स्य। ऊ॒र्ध्वम्। स्तूप॑म्। द॒द॒ते॒। पू॒तऽद॑क्षः। नी॒चीनाः॑। स्थुः॒। उ॒परि॑। बु॒ध्नः। ए॒षा॒म्। अ॒स्मे इति॑। अ॒न्तः। निऽहि॑ताः। के॒तवः॑। स्यु॒रिति॑ स्युः॥7॥ पदार्थः—(अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति। (निरु॰10.44) (राजा) यो राजते प्रकाशते। अत्र कनिन्युवृषितक्षि॰ (उणा॰1.154) अनेन कनिन्प्रत्ययः। (वरुणः) श्रेष्ठः (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य (ऊर्ध्वम्) उपरि (स्तूपम्) किरणसमूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः। (निरु॰10.33) (ददते) ददाति (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः (स्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (उपरि) ऊर्ध्वम् (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः। बुध्न इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम् (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति सप्तमीस्थाने शे आदेशः (अन्तः) मध्ये (निहिताः) स्थिताः (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा (स्युः) सन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यः पूतदक्षो राजा वरुणो जलसमूहस्सविता वा बुध्ने वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते यस्य नीचीनाः केतव एषामुपरि स्थुस्तिष्ठन्ति पदान्तर्निहिता आप स्युस्सन्ति यदन्तःस्थो बुध्नश्च ते केतवोऽस्मेऽस्मास्वन्तर्निहिताश्च भवन्तीति विजानीत॥7॥ भावार्थः—न चैवायं सूर्य्यो रूपरहितेनान्तरिक्षं प्रकाशयितुं शक्नोति तस्माद्यान्यस्योपर्य्यधःस्थानि ज्योतींषि सन्ति, तान्येव मेघस्य निमित्तानि ये जलपरमाणवः किरणस्थाः सन्ति, यथा नैव तेऽतीन्द्रियत्वाद् दृश्यन्त एवं वाय्वग्निपृथिव्यादीनामपि सूक्ष्मा अवयवा अन्तरिक्षस्था वर्त्तमाना अपि न दृश्यन्त इति॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो तुम जो (पूतदक्षः) पवित्र बल वाला (राजा) प्रकाशमान (वरुणः) श्रेष्ठ जलसमूह वा सूर्य्यलोक (अबुध्ने) अन्तरिक्ष से पृथक् असदृश्य बड़े आकाश में (वनस्य) जो कि व्यवहारों के सेवने योग्य संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उस पर (स्तूपम्) अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है, जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः) किरणें (एषाम्) इन संसार के पदार्थों (उपरि) पर (स्थुः) ठहरती हैं (अन्तर्हिताः) जो उनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ (स्युः) हैं और जो (केतवः) किरणें वा प्रज्ञान (अस्मे) हम लोगों में (निहिताः) स्थिर (स्युः) होते हैं, उनको यथावत् जानो॥7॥ भावार्थः—जिससे यह सूर्य्य रूप के न होने से अन्तरिक्ष का प्रकाश नहीं कर सकता, इससे जो ऊपरली वा बिचली किरणें हैं, वे ही मेघ की निमित्त हैं, जो उनमें जल के परमाणु रहते तो हैं, परन्तु वे अतिसूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। इसी प्रकार वायु अग्नि और पृथिवी आदि के भी अतिसूक्ष्म अवयव अन्तरिक्ष में रहते तो अवश्य हैं, परन्तु वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते॥7॥ इदानीं वरुणशब्देनात्मवाय्वोर्गुणोपदेशः क्रियते। अब अगले मन्त्र में वरुण शब्द से आत्मा और वायु के गुणों का प्रकाश करते हैं- उ॒रुं हि राजा॒ वरु॑णश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्॥8॥ उ॒रुम्। हि। राजा॑। वरु॑णः। च॒कार॑। सूर्य्या॑य। पन्था॑म्। अनु॑। ए॒त॒वै। ऊ॒म्। इति॑। अ॒पदे॑। पादा॑। प्रति॑ऽधातवे। अ॒क॒ः उ॒त। अ॒प॒ऽव॒क्ता। हृ॒द॒या॒ऽविधः॑। चि॒त्॥8॥ पदार्थः—(उरुम्) विस्तीर्णम् (हि) चार्थे (राजा) प्रकाशमानः परमेश्वरः प्रकाशहेतुर्वा (वरुणः) वरः श्रेष्ठतमो जगदीश्वरो वरत्वहेतुर्वायुर्वा (चकार) कृतवान् (सूर्याय) सूर्यस्य। अत्र चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰2.3.62) अनेन षष्ठीस्थाने चतुर्थी। (पन्थाम्) मार्गम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति नकारलोपः। (अनु) अनुकूलार्थे (एतवै) एतुं गन्तुम्। अत्रेणधातोः कृत्यार्थे तवैके॰ अनेन तवै प्रत्ययः। (उ) वितर्के (अपदे) न विद्यन्ते पदानि चिह्नानि यस्मिन् तस्मिन्नन्तरिक्षे (पादा) पद्यन्ते गम्यन्ते याभ्यां गमनागमनाभ्यां तौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (प्रतिधातवे) प्रतिधातुम्। अत्र तुमर्थे सेसेन॰ अनेन तवेन्प्रत्ययः। (अकः) कृतवान्। अत्र मन्त्रे घसह्वरण॰ इति च्लेर्लुक्। (उत) अपि (अपवक्ता) विरुद्धवक्ता वाचयिता वाऽस्ति तस्य (हृदयाविधः) हृदयं विध्यति तस्याधर्मस्याधार्मिकस्य शत्रोर्वा। अत्र नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ। (अष्टा॰6.3.116) अनेन दीर्घः। (चित्) इव॥8॥ अन्वयः—हृदयाविधोऽपवक्ताऽपवाचयिता शत्रुरस्ति तस्य चिदिव यौ वरुणौ राजा जगद्धाता जगदीश्वरो वायुर्वा सूर्याय सूर्यस्यान्वेतव उरुं पन्थां चकारोताप्यपदे पादा प्रतिधातवे सूर्य्यमक उ इति वितर्के सर्वस्यैतद्विधत्ते स सर्वैरुपासनीय उपयोजनीयो वास्तीति निश्चेतव्यम्॥8॥ भावार्थः—अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यः परमेश्वरः खलु यस्य महतः सूर्यलोकस्य भ्रमणार्थं महतीं कक्षां निर्मितवान् यो वायुनेन्धनेन प्रदीप्यते, य इमे सर्वे लोका अन्तरिक्षपरिधयः सन्ति, न च कस्याचिल्लोकस्य केनचिल्लोकान्तरेण सह सङ्गोऽस्ति, किन्तु सर्वेऽन्तरिक्षस्थाः सन्तः स्वं स्वं परिधिं प्रति परिभ्रमन्त्येते सर्वे यस्येश्वरस्य वायोर्वाकर्षणधारणाभ्यां स्वं स्वं परिधिं विहायेतस्ततश्चलितुं न शक्नुवन्ति, नैव यस्मात् कश्चिदन्य एषां धर्तार्थोऽस्ति, यथा परमेश्वरोऽधार्मिकस्य वक्तुर्हृदयस्य विदारकोऽस्ति तथा प्राणोऽपि रोगाविष्टो हृदयस्य विदारकोऽस्ति, स सर्वैर्मनुष्यैः कथं नोपासनीय उपयोजनीयो भवेदिति बोध्यम्॥8॥ पदार्थः—(चित्) जैसे (अपवक्ता) मिथ्यावादी छली दुष्ट स्वभावयुक्त पराये पदार्थ (हृदयाविधः) अन्याय से परपीड़ा करने हारे शत्रु को दृढ़ बन्धनों से वश में रखते हैं, वैसे जो (वरुणः) (राजा) अतिश्रेष्ठ और प्रकाशमान परमेश्वर वा श्रेष्ठता और प्रकाश का हेतु वायु (सूर्याय) सूर्य के (अन्वेतवै) गमनागमन के लिये (उरुम्) विस्तारयुक्त (पन्थाम्) मार्ग को (चकार) सिद्ध करते (उत) और (अपदे) जिसके कुछ भी चाक्षुष चिह्न नहीं है, उस अन्तरिक्ष में (प्रतिधातवे) धारण करने के लिये सूर्य के (पादा) जिनसे जाना-आना बने, उन गमन और आगमन गुणों को (अकः) सिद्ध करते हैं (उ) और जो परमात्मा सब का धर्त्ता (हि) और वायु इस काम के सिद्ध कराने का हेतु है, उसकी सब मनुष्य उपासना और प्राण का उपयोग क्यों न करें॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जिस परमेश्वर ने निश्चय के साथ जिस सब से बड़े सूर्य लोक के लिये बड़ी-सी कक्षा अर्थात् उसके घूमने का मार्ग बनाया है, जो इसको वायुरूपी ईंधन से प्रदीप्त करता और जो सब लोक अन्तरिक्ष में अपनी-अपनी परिधियुक्त हैं कि किसी लोक का किसी लोकान्तर के साथ संग नहीं है, किन्तु सब अन्तरिक्ष में ठहरे हुए अपनी-अपनी परिधि पर चारों और घूमा करते हैं और को आपस में जिस ईश्वर और वायु के आकर्षण और धारणशक्ति से अपनी-अपनी परिधि को छोड़कर इधर-उधर चलने को समर्थ नहीं हो सकते तथा जिस परमेश्वर और वायु के विना अन्य कोई भी इनका धारण करने वाला नहीं है, जैसे परमेश्वर मिथ्यावादी अधर्म करने वाले से पृथक् है, वैसे प्राण भी हृदय के विदीर्ण करने वाले रोग से अलग है, उसकी उपासना वा कार्य्यों में योजना सब मनुष्य क्यों न करें॥8॥ अथ यौ राजप्रजापुरुषौ स्तस्तौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते। अब जो राजा और प्रजा के मनुष्य हैं, वे किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है- श॒तं ते॑ राजन् भि॒षजः॑ स॒हस्र॑मु॒र्वी ग॑भी॒रा सु॑म॒तिष्टे॑ अस्तु। बाध॑स्व दू॒रे निर्ऋ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥9॥ श॒तम्। ते॒। रा॒ज॒न्। भि॒षजः॑। स॒हस्र॑म्। उ॒र्वी। ग॒भी॒रा। सु॒ऽम॒तिः। ते॒। अ॒स्तु॒। बाध॑स्व। दू॒रे। निःऽर्ऋतिम्। प॒रा॒चैः। कृ॒तम्। चि॒त्। एनः॑। प्र। मु॒मु॒ग्धि॒। अ॒स्मत्॥9॥ पदार्थः—(शतम्) असंख्यातान्यौषधानि (ते) तव राज्ञः प्रजापुरुषस्य वा (राजन्) प्रकाशमान (भिषजः) सर्वरोगनिवारकस्य वैद्यस्य (सहस्रम्) असंख्याता (उर्वी) विस्तीर्णा भूमिः (गभीराः) अगाधा (सुमतिः) शोभना चासौ मतिर्विज्ञानं यस्य सः (ते) तव। अत्र युष्मत्तत्ततक्षु॰ (अष्टा॰8.3.103) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (अस्तु) भवतु (बाधस्व) दुष्टशत्रून् दोषान् वा निवारय (दूरे) विप्रकृष्टे (निर्ऋतिम्) भूमिम्। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (पराचैः) धर्मात् पराङ्मुखैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस्भावः कृतः (कृतम्) आचरितम् (चित्) एव (एनः) पापम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (मुमुग्धि) त्यज मोचय वा। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपःश्लु। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात्॥9॥ अन्वयः—हे राजन् प्रजाजन वा! यस्य भिषजस्ते तव शतमौषधानि सहस्रसंख्याता गम्भीरोर्वी भूमिरस्ति, तां त्वं सुमतिर्भूत्वा निर्ऋतिं भूमिं रक्ष, दुष्टस्वभावं प्राणिनं दुष्कर्मणः प्रमुमुग्धि, यत्पराचैः कृतमेनोऽस्ति तदस्मद्दूरे रक्षैतान् पराचो दुष्टान् स्वस्वकर्मानुसारफलदानेन बाधस्वास्मान् शत्रुचोरदस्युभयाख्यात् पापात् प्रमुमुग्धि सम्यग् विमोचय॥9॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यौ राजप्रजाजनौ पापसर्वरोगनिवारकौ पृथिव्याधारकावुत्कृष्टबुद्धिप्रदातारौ धार्मिकेभ्यो बलप्रदानेन दुष्टानां बाधनहेतूभवतस्तावेव नित्यं सङ्गन्तव्यौ नैव कस्यचित् पापं भोगेन विना निवर्त्तते, किन्तु यद्भूतवर्त्तमानभविष्यत्काले च पापं कृतवान् करोति करिष्यति वा तन्निवारणार्थाः खलु प्रार्थनोपदेशपुरुशषार्था भवन्तीति वेदितव्यम्॥9॥ पदार्थः—(राजन्) हे प्रकाशमान प्रजाध्यक्ष प्रजाजन वा जिस (भिषजः) सर्व रोग निवारण करने वाले (ते) आपकी (शतम्) असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्यात (गभीरा) गहरी (उर्वी) विस्तारयुक्त भूमि है, उस (निर्ऋतिम्) भूमि की (त्वम्) आप (सुमतिः) उत्तम बुद्धिमान् होके रक्षा करो, जो दुष्ट स्वभावयुक्त प्राणी को (प्रमुमुग्धि) दुष्ट कर्मों को छुड़ादे और जो (पराचैः) धर्म से अलग होने वालों ने (कृतम्) किया हुआ (एनः) पाप है, उसको (अस्मत्) हम लोगों से (दूरे) दूर रखिये और उन दुष्टों को उनके कर्म के अनुकूल फल देकर आप (बाधस्व) उनकी ताड़ना और हम लोगों के दोषों को भी निवारण किया कीजिये॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो सभाध्यक्ष और प्रजा के उत्तम मनुष्य पाप वा सर्वरोग निवारण और पृथिवी के धारण करने, अत्यन्त बुद्धि बल देकर दुष्टों को दण्ड दिलवाने वाले होते हैं, वे ही सेवा के योग्य हैं और यह भी जानना कि किसी का किया हुआ पाप भोग के विना निवृत्त नहीं होता और इसके निवारण के लिये कुछ परमेश्वर की प्रार्थना वा अपना पुरुषार्थ करना भी योग्य ही है, किन्तु यह तो है जो कर्म जीव वर्त्तमान में करता वा करेगा, उसकी निवृत्ति के लिये तो परमेश्वर की प्रार्थना वा उपदेश भी होता है॥9॥ य उपरि लोका दृश्यन्ते ते कस्योपरि सन्ति केन धार्यन्त इत्युपदिश्यते॥ जो लोक अन्तरिक्ष में दिखाई पड़ते हैं, वे किस के ऊपर वा किसने धारण किये हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒मी य ऋक्षा॒ निहि॑तास उ॒च्चा नक्तं॒ ददृ॑श्रे॒ कुह॑ चि॒द्दिवे॑युः। अद॑ब्धानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ वि॒चाक॑शच्च॒न्द्रमा॒ नक्त॑मेति॥10॥14॥ अ॒मी इति॑। ये। ऋक्षाः॑। निऽहि॑तासः। उ॒च्चाः। नक्त॑म्। ददृ॑श्रे। कुह॑। चि॒त्। दिवा॑। ई॒युः॒। अद॑ब्धानि। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑। वि॒ऽचाक॑शत्। च॒न्द्रमाः॑। नक्त॑म्। ए॒ति॒॥10॥ पदार्थः—(अमी) दृश्यादृश्याः (ऋक्षाः) सूर्याचन्द्रनक्षत्रादिलोकाः। ऋक्षास्त्रिभिरिति नक्षत्राणाम्। (निरु॰3.20) (निहितासः) ईश्वरेण स्थापिताः। अत्र आज्जसरेसुग् इत्यसुक्। (उच्चाः) ऊर्ध्वं स्थिताः (नक्तम्) रात्रौ (ददृशे) दृश्यन्ते। अत्र दृशेर्लिटि। इरयो रे (अष्टा॰6.4.76) इति सूत्रेणस्य सिद्धिः। (कुह) क्व। अत्र वा ह च छन्दसि। (अष्टा॰5.3.13) अनेन किमो हः प्रत्ययः। कुतिहोः। (अष्टा॰7.2.104) इति कुरादेशश्च। (चित्) वितर्के (दिवा) दिवसे (ईयुः) यान्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (अदब्धानि) अहिंसनीयानि (वरुणस्य) जगदीश्वरस्य सूर्यस्य वा (व्रतानि) कर्माणि नियमा वा (विचाकशत्) विशिष्टतया प्रकाशमानः (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्तम्) रात्रौ (एति) प्रकाशं प्राप्नोति॥10॥ अन्वयः—वयं पृच्छामोऽमी य उच्चा केन निहितास ऋक्षा नक्तं न ददृश्रे ते दिवा कुह चिदीयुरिति। यानि वरुणस्य परमेश्वरस्य सूर्यस्य वा अदब्धानि व्रतानि यैर्नक्तं विचाकशत् संश्चन्द्रमाः—चन्द्रादिनक्षत्रसमूह एति प्रकाशं प्राप्नोति, स रचयिता स च प्रकाशयितास्तीत्युत्तरम्॥10॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। अत्र पूर्वार्द्धेन प्रश्न उत्तरार्द्धेन समाधानं कृतमस्ति, यदा कश्चित् कंचित् प्रति पृच्छेदिमे नक्षत्रलोकाः केन रचिताः केन धारिता रात्रौ दृश्यन्ते दिवसे न दृश्यन्त एते क्व गच्छन्ति तदैतस्यौत्तरमेवं दद्यात्, येनेमे सर्वे लोका वरुणेनेश्वरेण रचिता धारिताः सन्ति। एतेषां मध्ये स्वतः प्रकाशो नास्ति, किन्तु सूर्यस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिता भवन्ति, नैवैते क्वापि गच्छन्ति, किन्तु दिवस आव्रियमाणा न दृश्यन्ते, रात्रौ च सूर्यकिरणैः प्रकाशमाना दृश्यन्ते, तान्येतानि धन्यवादार्हाणि कर्माणि परमेश्वरस्यैव सन्तीति वेद्यम्॥10॥

इति 14 वर्गः॥

पदार्थः—हम पूछते हैं कि जो ये (अमी) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (ऋक्षाः) सूर्य्यचन्द्रतारकादि नक्षत्र लोक किसने (उच्चाः) ऊपर को ठहरे हुए (निहितासः) यथायोग्य अपनी-अपनी कक्षा में ठहराये हैं, क्यों ये (नक्तम्) रात्रि में (ददृश्रे) देख पड़ते हैं और (दिवा) दिन में (कुहचित्) कहाँ (ईयुः) जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर-जो (वरुणस्य) परमेश्वर वा सूर्य के (अदब्धानि) हिंसारहित (व्रतानि) नियम वा कर्म हैं कि जिनसे ये ऊपर ठहरे हैं (नक्तम्) रात्रि में (विचाकशत्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान होते हैं, ये कहीं नहीं जाते न आते हैं, किन्तु आकाश के बीच में रहते हैं (चन्द्रमाः) चन्द्र आदि लोक (एति) अपनी-अपनी दृष्टि के सामने आते और दिन में सूर्य्य के प्रकाश वा किसी लोक की आड़ से नहीं दीखते हैं, ये प्रश्नों के उत्तर हैं॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है तथा इस मन्त्र के पहिले भाग से प्रश्न और पिछले भाग से उनका उत्तर जानना चाहिये कि जब कोई किसी से पूछे कि ये नक्षत्र लोक अर्थात् तारागण किसने बनाये और किसने धारण किये हैं और रात्रि में दीखते तथा दिन में कहाँ जाते हैं, इनके उत्तर ये हैं कि ये सब ईश्वर ने बनाये और धारण किये हैं, इनमें आपही प्रकाश नहीं किन्तु सूर्य्य के ही प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं और ये कहीं नहीं जाते, किन्तु दिन में ढपे हुए दीखते नहीं और रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं, ये सब धन्यवाद देने योग्य ईश्वर के ही कर्म हैं, ऐसा सब सज्जनों को जानना चाहिये॥20॥ पुनः स वरुणः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑ळमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शंस॒ मा न॒ आयुः॒ प्र मो॑षीः॥11॥ तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विःऽभिः॑। अहे॑ळमानः। व॒रु॒णः॒। इ॒॒ह। बो॒धि॒। उरु॑ऽशंस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒॥11॥ पदार्थः—(तत्) सुखम् (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदेन (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन् (तत्) सुखम् (आ) अभितः (शास्ते) इच्छति (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः (वरुण) जगदीश्वर वायुर्वा। (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) विदितो भव विदितगुणो वा भवति। अत्र लोडर्थे लडर्थे च लुङडभावश्च। (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो वा (मा) निषेधार्थे (नः) अस्माकम् (आयुः) वयः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मोषीः) नाशय विनाशयेद्वा। अत्र लोडर्थे लिङर्थे च लुङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥11॥ अन्वयः—हे उरुशंस वरुण! यं त्वामाश्रित्य यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते, तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥1॥11॥ तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमान- स्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥11॥ भावार्थः—मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्यं च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषोवृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥2॥11॥ पदार्थः—हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके (यजमानः) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करने वाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है, उन आप को (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेळमानः) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि) आपको प्राप्त होता हूं, आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोधयुक्त कीजिये और (नः) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अति शीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये॥1॥1॥ (तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को (आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य्य को (ब्रह्मणा) वेदोक्त क्रियाकुशलता से (वन्दमानः) स्मरण करता हुआ (अहेळमानः) किन्तु उसके गुणों को न भूलता और (इह) इस संसार में (तत्) उक्त सुख की इच्छा करता हुआ मैं (यामि) प्राप्त होता हूं कि जिससे यह (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय सूर्य्य हमको (बोधि) विदित होकर (नः) हम लोगों की (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषीः) न नष्ट करे अर्थात् अच्छे प्रकार बढ़ावे॥2॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्य को जानकर सुखों को प्राप्त होना चाहिये और किसी मनुष्य को परमेश्वर वा सूर्य विद्या का अनादर न करना चाहिये, सर्वदा ईश्वर की आज्ञा का पालन और उसके रचे हुए जो कि सूर्यादिक पदार्थ हैं, उनके गुणों को जानकर उनसे उपकार लेके अपनी उमर निरन्तर बढ़ानी चाहिये॥11॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तदिन्नक्तं॒ तद्दिवा॒ मह्य॑माहु॒स्तद॒यं केतो॑ हृ॒द आ वि च॑ष्टे। शुनः॒शेपो॒ यमह्व॑द् गृभी॒तः सो अ॒स्मान् राजा॒ वरु॑णो मुमोक्तु॥12॥ तत्। इत्। नक्त॑म्। तत्। दिवा॑। मह्यम्। आहुः। तत्। अ॒यम्। केतः॑। हृ॒दः। आ। वि। च॒ष्टे। शुनः॒ऽशेपः॑। यम्। अह्व॑त्। गृ॒भी॒तः। सः। अ॒स्मान्। राजा॑। वरु॑णः। मु॒मो॒क्तु॒॥12॥ पदार्थः—(तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम् (इत्) एव (नक्तम्) रात्रौ (तत्) शास्त्रबोधयुक्तम् (दिवा) दिवसे (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे (आहुः) कथयन्ति (तत्) गुणदोषविवेचकः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति विभक्तेर्लुक्। (अयम्) प्रत्यक्षः (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये (आ) सर्वतः (वि) विविधार्थे (चष्टे) प्रकाशयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः। श्वा शुयायी शवतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः। (निरु॰3.18) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः। (निरु॰3.21) (यम्) परमेश्वरं सूर्यं वा (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडर्थे लुङ्। (गृभीतः) गृहीतः। हृग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वम्। अनेनात्रः हस्य भः (सः) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (मुमोक्तु) मोचयति वा। अत्रान्त्यपक्षे लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुरन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥12॥ अन्वयः—विद्वांसो यन्नक्तं दिवाऽहर्निशं ज्ञानमाहुर्यश्च मह्यं हृदः केत आविचष्टे तत्तमहं मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुनःशेपो विद्वानह्वत् येन वरुणो राजाऽस्मान् पापाद्दुःखाच्च मुमोक्तु मोचयति वा सम्यग्विदितः उपयुक्तः सन्नीश्वरः सूर्य्योऽपि तदा दारिद्र्यं नाशयति योऽस्माभिर्गृहीत उपास्य उपकृतश्च॥12॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवमुपदेष्टव्यं मन्तव्यं च विद्वांसो वेदा ईश्वरश्च मह्यं यं बोधमुपदिशन्ति, य चाहं शुद्धया प्रज्ञया निश्चिनोमि तमेव मया सर्वैर्युष्माभिश्च स्वीकृत्य पापाचरणाद्दूरे स्थातव्यम्॥12॥ पदार्थः—विद्वान् लोग (नक्तम्) रात (दिवा) दिन जिस ज्ञान का (आहुः) उपदेश करते हैं (तत्) उस और जो (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करने वाले मेरे लिये (हृदः) मन के साथ आत्मा के बीच में (केतः) उत्तम बोध (आविचष्टे) सब प्रकार से सत्य प्रकाशित होता है (तदित्) उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान को मैं मानता कहता और करता हूं (यम्) जिस को (शुनःशेपः) अत्यन्त ज्ञान वाले विद्या व्यवहार के लिये प्राप्त और परमेश्वर वा सूर्य्य का (अह्वत्) उपदेश करते हैं, जिससे (वरुणः) श्रेष्ठ (राजा) प्रकाशमान परमेश्वर हमारी उपासना को प्राप्त होकर छुड़ावे और उक्त सूर्य्य भी अच्छे प्रकार जाना और क्रिया कुशलता में युक्त किया हुआ बोध (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करने वाले मुझ को प्राप्त होता है (सः) हम लोगों को योग्य है कि उस ईश्वर की उपासना और सूर्य्य का उपयोग यथावत् किया करें॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को इस प्रकार उपदेश करना तथा मानना चाहिये कि विद्वान् वेद और ईश्वर हमारे लिये जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं तथा हम जो अपनी शुद्ध बुद्धि से निश्चय करते हैं, वही मुझ को और हे मनुष्य! तुम सब लोगों को स्वीकार करके पाप अधर्म करने से दूर रक्खा करे॥12॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ शुनः॒शेपो॒ ह्यह्व॑द् गृभी॒तस्त्रि॒ष्वा॑दि॒त्यं द्रु॑प॒देषु॑ ब॒द्धः। अवै॑नं॒ राजा॒ वरु॑णः ससृज्याद् वि॒द्वाँ अद॑ब्धो॒ वि मु॑मोक्तु॒ पाशा॑न्॥13॥ शुनः॒शेपः॑। हि। अह्व॑त्। गृ॒भी॒तः। त्रि॒षु। आ॒दि॒त्यम्। द्रुऽप॒देषु॑। ब॒द्धः। अव॑। ए॒न॒म्। राजा॑। वरुणः॑। स॒सृ॒ज्या॒त्। वि॒द्वान्। अद॑ब्धः। वि। मु॒मो॒क्तु॒ पाशा॑न्॥13॥ पदार्थः—(शुनःशेपः) उक्तार्थो विद्वान् (हि) निश्चयार्थे (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडर्थे लङ्। (गृभीतः) स्वीकृतः हृग्रहोः॰ इति हस्य भः (त्रिषु) कर्मोपासनाज्ञानेषु (आदित्यम्) विनाशरहितं परमेश्वरं प्रकाशमयं व्यवहारहेतुं प्राणं वा (द्रुपदेषु) द्रूणां वृक्षादीनां पदानि फलादिप्राप्तिनिमित्तानि येषु तेषु (बद्धः) नियमेन नियोजितः (अव) पृथक्करणे (एनम्) पूर्वप्रतिपादितं विद्वांसम् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) श्रेष्ठतमः। उत्तमव्यवहारहेतुर्वा (ससृज्यात्) पुनः पुनर्निष्पद्येत निष्पादयेद्वा। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात्। रुग्रिकौ च लुकि। (अष्टा॰7.4.91) इत्यभ्यासस्य रुग्रिगागमौ न भवतः। दीर्घोऽकितः। (अष्टा॰7.4.83) इति दीर्घादेशश्च न भवति। (विद्वान्) ज्ञानवान् (अदब्धः) हिंसितुमनर्हः (वि) विशिष्टार्थे (मुमोक्तु) मुञ्चतु मोचयतु वा। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपःश्लुरन्तर्गतो ण्यर्थो वा (पाशान्) अधर्माचरणजन्यबन्धान्॥13॥ अन्वयः—हे मनुष्या यूयं शुनःशेपो विद्वान् त्रिषु यमादित्यमह्वत् सोऽस्माभिर्हि गृभीतः संस्त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि प्रकाशयति, यश्च विद्वद्भिर्द्रुपदेषु बद्धो वायुलोको गृह्यते तथा सोऽस्माभिरपि ग्राह्यो यादृशगुणपदार्थादब्धो विद्वान् वरुणो राजा परमेश्वरोऽवससृज्यात् सोऽस्माभिस्तादृशगुण एवोपयोक्तव्यः। हे भगवन्! भवानस्माकं पाशान् विमुमोक्तु। एवमस्माभिस्संसारस्थः सूर्यादिपदार्थसमूहः सम्यगुपयोजितः सन् पाशान् सर्वान् दारिद्र्यबन्धान् पुनः पुनर्विमोचयति तथैतत्सर्वं कुरुत॥13॥ भावार्थः—अत्रापि श्लेषोऽलङ्कारः लुप्तोपमा च। मनुष्यैर्यथेश्वरो यं पदार्थं यादृशगुणं निर्मितवांस्तथैव तद्गुणान् बुद्धवा कर्मोपासनाज्ञानानि तेषु नियोजितव्यानि यथा परमेश्वरो न्याय्यं कर्म करोति, तथैवास्माभिरप्यनुष्ठातव्यम्। यानि पापात्मकानि बन्धकराणि कर्माणि सन्ति, तानि दूरतस्त्यक्त्वा पुण्यात्मकानि सदा सेवनीयानि चेति॥13॥ पदार्थः—जैसे (शुनःशेपः) उक्त गुणवाला विद्वान् (त्रिषु) कर्म उपासना और ज्ञान में (आदित्यम्) अविनाशी परमेश्वर का (अह्वत्) आह्वान करता है, वह हम लोगों ने (गृभीतः) स्वीकार किया हुआ उक्त तीनों कर्म उपासना और ज्ञान को प्रकाशित कराता है और जो (द्रुपदेषु) क्रिया कुशलता की सिद्धि के लिये विमान आदि यानों के खंभों में (बद्धः) नियम से युक्त किया हुआ वायु ग्रहण किया है, वैसे वह लोगों को भी ग्रहण करना चाहिये जैसे-जैसे गुणवाले पदार्थ को (अदब्धः) अति प्रशंसनीय (वरुणः) अत्यन्त श्रेष्ठ (राजा) और प्रकाशमान परमेश्वर (अवससृज्यात्) पृथक्-पृथक् बनाकर सिद्ध करे, वह हम लोगों को भी वैसे ही गुणवाले कामों में संयुक्त करे। हे भगवन्! परमेश्वर आप हमारे (पाशान्) बन्धनों को (विमुमोक्तु) बार-बार छुड़वाइये। इसी प्रकार हम लोगों की क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए प्राण आदि पदार्थ (पाशान्) सकल दरिद्ररूपी बन्धनों को (विमुमोक्तु) बार-बार छुड़वा देवें वा देते हैं॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में भी लुप्तोपमा और श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर ने जिस-जिस गुण वाले जो-जो पदार्थ बनाये हैं, उन-उन पदार्थों के गुणों को यथावत् जानकर इन-इन को कर्म, उपासना और ज्ञान में नियुक्त करे, जैसे परमेश्वर न्याय अर्थात् न्याययुक्त कर्म करता है, वैसे ही हम लोगों को भी कर्म नियम के साथ नियुक्त कर जो बन्धनों के करने वाले पापात्मक कर्म हैं, उनको दूर ही से छोड़कर पुण्यरूप कर्मों का सदा सेवन करना चाहिये॥13॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह वरुण कैसा है, इस का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अव॑ ते॒ हेळो॑ वरुण॒ नमो॑भि॒रव॑ य॒ज्ञेभि॑रीमहे ह॒विर्भिः॑। क्षय॑न्न॒स्मभ्य॑मसुर प्रचेता॒ राज॒न्नेनां॑सि शिश्रथः कृ॒तानि॑॥14॥ अव॑। ते॒। हेळः॑। व॒रु॒ण॒। नमः॑ऽभिः। अव॑। य॒ज्ञेभिः॑। ई॒म॒हे॒। ह॒विःऽभिः॑। क्षय॑न्। अ॒स्मभ्य॑म्। अ॒सुरः॒। प्र॒चे॒त॒ इति॑ प्रऽचेतः। राज॑न्। एनांसि। शि॒श्र॒थः॒। कृ॒तानि॑॥14॥ पदार्थः—(अव) क्रियार्थे (ते) तव (हेळः) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्जलैर्वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) जलनामसु वा। (निघं॰1.12) (अव) पृथगर्थे (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (ईमहे) बुध्यामहे (हविर्भिः) दातुं ग्रहीतुमर्हैः। अत्र अर्चिशुचिहुसृपि॰ (उणा॰2.104) अनेन हु धातोरिसिः प्रत्ययः। (क्षयन्) विनाशयन् (अस्मभ्यम्) विद्यानुष्ठातृभ्यः (असुर) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ स वा (प्रचेतः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ स वा (राजन्) प्रकाशमान (एनांसि) पापानि (शिश्रथः) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु (कृतानि) अनुचरितानि॥14॥ अन्वयः—हे राजन् प्रचेतोऽसुर वरुणास्मभ्यं विज्ञानप्रदातो भगवन् यतस्त्वमस्मत्कृतान्येनांसि क्षयन् सन्नवशिश्रथस्तस्माद्वयं नमोभिर्यज्ञेभिस्ते तव हेळोऽवेमहे मुख्यप्राणस्य वा॥14॥ भावार्थः—यैर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वररचितसृष्टौ विज्ञापितेन बोधेन कृतानि पापकर्माणि फलैः शिथिलायन्ते तथानुष्ठातव्यम्। यथा ज्ञानरहितं पुरुषं कर्मफलानि पीडयन्ति तथा नैव ज्ञानसहितं पीडयितुं समर्थानि भवन्तीति वेद्यम्॥14॥ पदार्थः—हे (राजन्) प्रकाशमान (प्रचेतः) अत्युत्तम विज्ञान (असुर) प्राणों में रमने (वरुण) अत्यन्त प्रशंसनीय (अस्मभ्यम्) हमको विज्ञान देनेहारे भगवन् जगदीश्वर जिसलिये हम लोगों के (कृतानि) किये हुए (एनांसि) पापों को (क्षयन्) विनाश करते हुए (अवशिश्रथः) विज्ञान आदि दान से उनके फलों को शिथिल अच्छे प्रकार करते हैं, इसलिये हम लोग (नमोभिः) नमस्कार वा (यज्ञेभिः) कर्म उपासना और ज्ञान और (हविर्भिः) होम करने योग्य अच्छे-अच्छे पदार्थों से (ते) आपका (हेळः) निरादर (अव) न कभी (ईमहे) करना जानते और मुख्य प्राण की भी विद्या को चाहते हैं॥14॥ भावार्थः—जिन मनुष्यों ने परमेश्वर के रचे हुए संसार में पदार्थ करके प्रकट किये हुए बोध से किये पाप कर्मों को फलों से शिथिल कर दिया वैसा अनुष्ठान करें। जैसे अज्ञानी पुरुष को पापफल दुःखी करते हैं, वैसे ज्ञानी पुरुष को दुःख नहीं दे सकते॥14॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते। फिर भी अगले मन्त्र में वरुण शब्द ही का प्रकाश किया है॥ उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ अदि॑तये स्याम॥15॥15॥ उत्। उ॒त्ऽत॒मम्। व॒रु॒ण॒। पाश॑म्। अ॒स्मत्। अव॑। अ॒ध॒मम्। वि। म॒ध्य॒मम्। श्र॒था॒य॒। अथ॑। व॒यम्। आ॒दि॒त्य॒। व्र॒ते। तव॑। अना॑गसः। अदि॑तये। स्या॒म॒॥15॥ पदार्थः—(उत्) अपि (उत्तमम्) उत्कृष्टं दृढम् (वरुण) स्वीकर्त्तुमर्हेश्वर (पाशम्) बन्धनम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (अव) क्रियार्थे (अधमम्) निकृष्टम् (वि) विशेषार्थे (मध्यमम्) उत्तमाधमयोर्मध्यस्थम् (श्रथाय) शिथिली कुरु। अत्र छन्दसि शायजपि। (अष्टा॰3.1.84) अनेन शायजादेशः। (अथ) अनन्तरार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (वयम्) मनुष्यादयः प्राणिनः (आदित्य) विनाशरहित (व्रते) सत्याचरणादावचरिते सति (तव) सत्योपदेष्टुस्सर्वगुरोः (अनागसः) अविद्यमान आगोऽपराधो येषां ते (अदितये) अखण्डितसुखाय (स्याम) भवेम॥15॥ अन्वयः—हे वरुण! त्वमस्मदधमं मध्यममुदुत्तमं पाशं व्यवश्रथाय दूरतो विनाशयाथेत्यनन्तरं हे आदित्य! तव व्रत आचरिते सत्यनागसः सन्तो वयमदितये स्याम भवेम॥15॥ भावार्थः—य ईश्वराज्ञां यथावत्पालयन्ति ते पवित्रास्सन्तः सर्वेभ्यो दुःखबन्धनेभ्यः पृथग्भूत्वा नित्यं सुखं प्राप्नुवन्ति नेतर इति॥15॥ त्रयोविंशसूक्तोक्तार्थानां वाय्वादीनामनुयोगिनां प्राजापत्यादीनामर्थानामत्र कथनादेतस्य चतुर्विंशस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गति रस्तीति बोध्यम्॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये पञ्चदशो वर्गः॥

प्रथम मण्डले षष्ठेऽनुवाके चतुर्विंशं सूक्तं च समाप्तिमगमत्॥ पदार्थः—हे (वरुण) स्वीकार करने योग्य ईश्वर! आप (अस्मत्) हम लोगों से (अधमम्) निकृष्ट (मध्यमम्) अर्थात् निकृष्ट से कुछ विशेष (उत्) और (उत्तमम्) अति दृढ़ अत्यन्त दुःख देने वाले (पाशम्) बन्धन को (व्यवश्रथाय) अच्छे प्रकार नष्ट कीजिये (अथ) इसके अनन्तर हे (आदित्य) विनाशरहित जगदीश्वर (तव) उपदेश करने वाले सब के गुरु आपके (व्रते) सत्याचरणरूपी व्रत को करके (अनागसः) निरपराधी होके हम लोग (अदितये) अखण्ड अर्थात् विनाशरहित सुख के लिये (स्याम) नियत होवें॥15॥ भावार्थः—जो ईश्वर की आज्ञा को यथावत् नित्य पालन करते हैं, वे ही पवित्र और सब दुःख बन्धनों से अलग होकर सुखों को निरन्तर प्राप्त होते हैं॥15॥ तेईसवें सूक्त के कहे हुए वायु आदि अर्थों के अनुकूल प्रजापति आदि अर्थों के कहने से इस चौबीसवें सूक्त की उक्त सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ प्रथमाष्टक के प्रथमाध्याय में यह 15 पन्द्रहवां वर्ग तथा प्रथम मण्डल के षष्ठानुवाक में चौबीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥24॥

अथैकविंशत्यृचस्य पञ्चविंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। वरुणो देवता। गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रादौ प्रथममन्त्रे दृष्टान्तेन जगदीश्वरस्य प्रार्थना प्रकाश्यते॥ अब पच्चीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में परमेश्वर ने दृष्टान्त के साथ अपनी प्रार्थना का प्रकाश किया है॥ यच्चि॒द्धि ते॒ विशो॑ यथा॒ प्र दे॑व वरुण व्र॒तम्। मि॒नी॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥1॥ यत्। चि॒त्। हि। ते॒। विशः॑। य॒था॒। प्र। दे॒व॒। व॒रु॒ण॒। व्र॒तम्। मि॒नी॒मसि॑। द्यवि॑ऽद्यवि॥1॥ पदार्थः—(यत्) स्पष्टार्थः (चित्) अपि (हि) कदाचिदर्थे (ते) तव (विशः) प्रजाः (यथा) येन प्रकारेण (प्र) क्रियायोगे (देव) सुखप्रद (वरुण) सर्वोत्कृष्ट जगदीश्वर (व्रतम्) सत्याचरणम् (मिनीमसि) हिंस्मः। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदागमः। (द्यविद्यवि) प्रतिदिनम्। अत्र वीप्सायां द्विर्वचनम्। द्यविद्यवीत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं॰1.9)॥1॥ अन्वयः—हे देव वरुण जगदीश्वर! त्वं यथाऽज्ञानात्कस्यचिद्राज्ञो मनुष्यस्य वा विशः प्रजाः सन्तानादयो वा द्यविद्यव्यपराध्यन्ति कदाचित्कार्याणि हिंसन्ति स तन्न्यायं करुणां च करोति, तथैव वयं ते तव यद्व्रतं हि प्रमिणीमस्यस्मभ्यं तन्न्यायं करुणां चित्करोषि॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे भगवन् यथा पित्रादयो विद्वांसो राजानश्च क्षुद्राणां बालबुद्धीनामुन्मत्तानां वा बालकानामुपरि करुणां न्यायशिक्षां च विदधति, तथैव भवानपि प्रतिदिनमस्माकं न्यायाधीशः करुणाकरः शिक्षको भवत्विति॥1॥ पदार्थः—हे (देव) सुख देने (वरुण) उत्तमों में उत्तम जगदीश्वर आप (यथा) जैसे अज्ञान से किसी राजा वा मनुष्य के (विशः) प्रजा वा सन्तान आदि (द्यविद्यवि) प्रतिदिन अपराध करते हैं, किन्हीं कामों को नष्ट कर देते हैं, वह उन पर न्याययुक्त दण्ड और करुणा करता है, वैसे ही हम लोग (ते) आपका (यत्) जो (व्रतम्) सत्य आचरण आदि नियम हैं (हि) उन को कदाचित् (प्रमिणीमसि) अज्ञानपन से छोड़ देते हैं, उसका यथायोग्य न्याय (चित्) और हमारे लिये करुणा करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे भगवन् जगदीश्वर! जैसे पिता आदि विद्वान् और राजा छोटे-छोटे अल्पबुद्धि उन्मत्त बालकों पर करुणा, न्याय और शिक्षा करते हैं, वैसे ही आप भी प्रतिदिन हमारे न्याय करुणा और शिक्षा करने वाले हों॥1॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥ फिर भी अगले मन्त्र में उक्त अर्थ ही का प्रकाश किया है॥ मा नो॑ व॒धाय॑ ह॒त्नवे॑ जिहीळा॒नस्य॑ रीरधः। मा हृ॑णा॒नस्य॑ म॒न्यवे॑॥2॥ मा। नः॒। व॒धाय॑। ह॒त्नवे॑। जि॒ही॒ळा॒नस्य॑। री॒र॒धः॒। मा। हृ॒णा॒नस्य॑। म॒न्यवे॑॥2॥ पदार्थः—(मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (वधाय) (हत्नवे) हननकरणाय। अत्र कृहनिभ्यां क्त्नुः। (उणा॰3.29) अनेन हनधातोः क्त्नुः प्रत्ययः। (जिहीळानस्य) अज्ञानादस्माकमनादरं कृतवतो जनस्य। अत्र पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्। इत्यकारस्येकारः। (रीरधः) संराधयः। अत्र ‘रध’ हिंसासंराध्योरस्माण्णिजन्ताल्लोडर्थे लुङ। (मा) निषेधे (हृणानस्य) लज्जितस्योपरि (मन्यवे) क्रोधाय। अत्र यजिमनि॰ इति युच् प्रत्ययः॥2॥ अन्वयः—हे वरुण जगदीश्वर! त्वं जिहीडानस्य हत्नवे वधाय चास्मान्कदाचिन्मा रीरधो मा संराधयैवं हृणानस्यास्माकं समीपे लज्जितस्योपरि मन्यवे मा रीरधः॥2॥ भावार्थः—ईश्वर उपदिशति हे मनुष्या! यूयं बलबुद्धिभिरज्ञानादपराधे कृते हननाय मा प्रवर्त्तध्वं कश्चिदपराधं कृत्वा लज्जां कुर्यात्तस्योपरि क्रोधं मा निपातयतेति॥2॥ पदार्थः—हे वरुण जगदीश्वर! आप जो (जिहीळानस्य) अज्ञान से हमारा अनादर करे उसके (हत्नवे) मारने के लिये (नः) हम लोगों को कभी (मा रीरधः) प्रेरित और इसी प्रकार (हृणानस्य) जो कि हमारे सामने लज्जित हो रहा है, उस पर (मन्यवे) क्रोध करने को हम लोगों को (मा रीरधः) कभी मत प्रवृत्त कीजिये॥2॥ भावार्थः—ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! जो अल्पबुद्धि अज्ञानीजन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें, तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराध करके लज्जित हो अर्थात् तुम से क्षमा करवावे तो उस पर क्रोध मत छोड़ो, किन्तु उसका अपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो॥2॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥ फिर भी उक्त अर्थ ही का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है॥ वि मृ॑ळी॒काय॑ ते॒ मनो॑ र॒थीरश्वं॒ न संदि॑तम्। गी॒र्भिर्व॑रुण सीमहि॥3॥ वि। मृ॒ळी॒काय॑। ते॒। मनः॑। र॒थीः। अश्व॑म्। न। सम्ऽदि॑तम्। गीः॒ऽभिः। व॒रु॒ण॒। सी॒म॒हि॒॥3॥ पदार्थः—(वि) क्रियार्थे (मृळीकाय) उत्तमसुखाय अत्र मृडः कीकच्कङ्कणौ। (उणा॰4.25) अनेन कीकच्प्रत्ययः। (ते) तव (मनः) ज्ञानम् (रथीः) रथस्वामी अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति सोर्लोपो न। (अश्वम्) रथवोढारं वाजिनम् (न) इव (संदितम्) सम्यग्बलावखण्डितम् (गीर्भिः) संस्कृताभिर्वाणीभिः (वरुण) जगदीश्वर (सीमहि) हृदये प्रेम वा कारागृहे चोरादिकं बन्धयामः। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक वर्णव्यत्ययेन दीर्घश्च॥3॥ अन्वयः—हे वरुण! वयं रथीः संदितमश्वं न=इव मृळीकाय ते तव गीर्भिर्मनो विषीमहि॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे भगवन्! यथा रथपतेर्भृत्योऽश्वं सर्वतो बध्नाति, तथैव वयं तव वेदस्थं विज्ञानं हृदये निश्चलीकुर्मः॥3॥ पदार्थः—हे (वरुण) जगदीश्वर! हम लोग (रथीः) रथवाले के (संदितम्) रथ में जोड़े हुए (अश्वम्) घोड़े के (न) समान (मृळीकाय) उत्तम सुख के लिये (ते) आपके सम्बन्ध में (गीर्भिः) पवित्र वाणियों द्वारा (मनः) ज्ञान (विषीमहि) बांधते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे भगवन् जगदीश्वर! जैसे रथ के स्वामी का भृत्य घोड़े को चारों ओर से बांधता है, वैसे ही हम लोग आपका जो वेदोक्त ज्ञान है, उसको अपनी बुद्धि के अनुसार मन में दृढ़ करते हैं॥3॥ पुनः स एवार्थो दृष्टान्तेन साध्यते॥ फिर भी उसी अर्थ को दृष्टान्त से अगले मन्त्र में सिद्ध किया है॥ परा॒ हि मे॒ विम॑न्यवः॒ पत॑न्ति॒ वस्य॑इष्टये। वयो॒ न व॑स॒तीरुप॑॥4॥ परा॑। हि। मे॒। विऽम॑न्यवः। पत॑न्ति। वस्यः॑ऽइष्टये। वयः॑। न। व॒स॒तीः। उप॑॥4॥ पदार्थः—(परा) उपरिभावे। प्र परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु॰1.3) (हि) खलु (मे) मम (विमन्यवः) विविधो मन्युर्येषां ते (पतन्ति) पतन्तु गच्छन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (वस्यइष्टये) वसीयत इष्टये सङ्गतये। अत्र वसुशब्दान्मतुप् ततोऽतिशय ईयसुनि। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा॰5.3.65) इति मतोर्लुक्। टेः। (अष्टा॰6.4.155) इति टेर्लोपस्ततश्छान्दसो वर्णलोपो वा इतीकारस्य लोपश्च। (वयः) पक्षिणः (न) इव (वसतीः) वसन्ति यासु ता विहाय (उप) सामीप्ये॥4॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! त्वत्कृपया वयो वसतीर्विहाय दूरस्थानान्युपपतन्ति न इव। मे मम वासात् वस्यइष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा ताडिताः पक्षिणो दूरं गत्वा वसन्ति, तथैव क्रोधयुक्ताः प्राणिनो मत्तो दूरे वसन्त्वहमपि तेभ्यो दूरे वसेयम्। यस्मादस्माकं स्वभावविपर्यासो धनहानिश्च कदाचिन्न स्यातामिति॥4॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर जैसे (वयः) पक्षी (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ दूर देश को (उपपतन्ति) उड़ जाते हैं (न) वैसे (मे) मेरे निवास स्थान से (वस्यइष्टये) अत्यन्त धन होने के लिये (विमन्यवः) अनेक प्रकार के क्रोध करने वाले दुष्ट जन (परापतन्ति) (हि) दूर ही चले जावें॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं, वैसे ही क्रोधी मुझ से दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूं, जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥4॥ पुनः स वरुणः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥ फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ क॒दा क्ष॑त्र॒श्रियं॒ नर॒मा वरु॑णं करामहे। मृ॒ळी॒कायो॑रु॒चक्ष॑सम्॥5॥16॥ क॒दा। क्ष॒त्र॒ऽश्रिय॑म्। नर॑म्। आ। वरु॑णम्। क॒रा॒म॒हे। मृ॒ळी॒काय॑। उ॒रु॒ऽचक्ष॑सम्॥5॥ पदार्थः—(कदा) कस्मिन्काले (क्षत्रश्रियम्) चक्रवर्त्तिराजलक्ष्मीम् (नरम्) नयनकर्त्तारम् (आ) समन्तात् (वरुणम्) परमेश्वरम् (करामहे) कुर्य्याम (मृळीकाय) सुखाय (उरुचक्षसम्) बहुविधं वेदद्वारा चक्ष आख्यानं यस्य तम्॥5॥ अन्वयः—वयं कदा मृळीकायोरुचक्षसं नरं वरुणं परमेश्वरं संसेव्य क्षत्रश्रियं करामहे॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैः परमेश्वराज्ञां यथावत् पालयित्वा सर्वसुखं चक्रवर्त्तिराज्यं न्यायेन सदा सेवनीयमिति॥5॥

इति षोडशो वर्गः॥

पदार्थः—हम लोग (कदा) कब (मृळीकाय) अत्यन्त सुख के लिये (उरुचक्षसम्) जिसको वेद अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं और (नरम्) सबको सन्मार्ग पर चलाने वाले उस (वरुणम्) परमेश्वर को सेवन करके (क्षत्रश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी को (करामहे) अच्छे प्रकार सिद्ध करें॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को परमेश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन करके सब सुख और चक्रवर्त्ति राज्य न्याय के साथ सदा सेवन करने चाहियें॥5॥ यह सोलहवां वर्ग पूरा हुआ॥ अथ वायुसूर्य्यावुपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में सूर्य्य और वायु का प्रकाश किया है॥ तदित्स॑मा॒नमा॑शाते॒ वेन॑न्ता॒ न प्र यु॑च्छतः। धृ॒तव्र॑ताय दा॒शुषे॑॥6॥ तत्। इत्। स॒मा॒नम्। आ॒शा॒ते॒ इति॑। वेन॑न्ता। न। प्र। यु॒च्छ॒तः॒। धृ॒तऽव्र॑ताय। दा॒शुषे॑॥6॥ पदार्थः—(तत्) हुतं हविः। विमानादिरचनविधानं वा (इत्) एव (समानम्) तुल्यम् (आशाते) व्याप्नुतः (वेनन्ता) वादित्रवादकौ। अत्र ‘वेनृ’ धातोर्वादित्राद्यर्थो गृह्यते। सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशश्च। (न) इव। निरुक्तकारनियमेन परः प्रयुज्यमानो नकार उपमार्थे भवतीति हेतोः सायणाचार्य्यस्य निषेधार्थव्याख्यानमशुद्धमेव। (प्र) प्रकृष्टार्थे (युच्छतः) हर्षं कुरुतः (धृतव्रताय) धृतं धारितं व्रतं सत्यभाषणादिकं क्रियामयं वा येन तस्मै (दाशुषे) दानकर्त्रे॥6॥ अन्वयः—एतौ वेनन्ता प्रयुच्छतो न=इव मित्रावरुणौ धृतव्रताय दाशुषे तदिद्यानं समानमाशाते व्याप्नुतः॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा हर्षवन्तौ वादित्रवादनकुशलौ वादित्राणि गृहीत्वा चालयित्वा शब्दयतस्तथैव साधितं धृतविद्येन मनुष्येण हुतं हविर्विमानादियानं च कलायन्त्रेयषु यथावत् प्रयोजितौ वायुसूर्य्यौ धृत्वा चालयित्वा शब्दयतः॥6॥ पदार्थः—ये (प्रयुच्छतः) आनन्द करते हुए (वेनन्ता) बाजा बजाने वालों के (न) समान सूर्य और वायु (धृतव्रताय) जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है, उस (दाशुषे) उत्तम दान आदि धर्म करने वाले पुरुष के लिये (तत्) जो उसका होम में चढ़ाया हुआ पदार्थ वा विमान आदि रथों की रचना (इत्) उसी को (समानम्) बराबर (आशाते) व्याप्त होते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अति हर्ष करने वाले बाजे बजाने में अति कुशल दो पुरुष बाजों को लेकर चलाकर बजाते हैं, वैसे ही सिद्ध किये विद्या के धारण करने वाले मनुष्य से होम हुए पदार्थों को सूर्य और वायु चालन करके धारण करते हैं॥6॥ एतद्यथावत्को वेदेत्युपदिश्यते॥ उक्त विद्या को यथावत् कौन जानता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वेदा॒ यो वी॒नां प॒दम॒न्तरि॑क्षेण॒ पत॑ताम्। वेद॑ ना॒वः स॑मु॒द्रियः॑॥7॥ वेद॑। यः। वी॒नाम्। प॒दम्। अ॒न्तरि॑क्षेण। पत॑ताम्। वेद॑। ना॒वः। स॒मु॒द्रियः॑॥7॥ पदार्थः—(वेद) जानाति। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यः) विद्वान् मनुष्यः (वीनाम्) विमानानां सर्वलोकानां पक्षिणां वा (पदम्) पदनीयं गन्तव्यमार्गम् (अन्तरिक्षेण) आकाशमार्गेण। अत्र अपवर्गे तृतीया। (अष्टा॰2.3.6) इति तृतीया विभक्तिः। (पतताम्) गच्छताम् (वेद) जानाति (नावः) नौकायाः (समुद्रियः) समुद्रेऽन्तरिक्षे जलमये वा भवः। अत्र समुद्राभ्राद् घः। (अष्टा॰4.4.118) अनेन समुद्रशब्दाद् घः प्रत्ययः॥7॥ अन्वयः—यः समुद्रियो मनुष्योऽन्तरिक्षेण पततां वीनां पदं वेद समुद्रे गच्छन्त्या नावश्च पदं वेद स शिल्प विद्यासिद्धिं कर्त्तुं शक्नोति नेतरः॥7॥ भावार्थः—या ईश्वरेण वेदेष्वन्तरिक्षभूसमुद्रेषु गमनाय यानानां विद्या उपदिष्टाः सन्ति ताः साधितुं यः पूर्णविद्याशिक्षाहस्तक्रियाकौशलेषु विचक्षण इच्छति स एवैतत्कार्यकरणे समर्थो भवतीति॥7॥ पदार्थः—(यः) जो (समुद्रियः) समुद्र अर्थात् अन्तरिक्ष वा जलमय प्रसिद्ध समुद्र में अपने पुरुषार्थ से युक्त विद्वान् मनुष्य (अन्तरिक्षेण) आकाश मार्ग से (पतताम्) जाने-आने वाले (वीनाम्) विमान सब लोक वा पक्षियों के और समुद्र में जाने वाली (नावः) नौकाओं के (पदम्) रचन, चालन, ज्ञान और मार्ग को (वेद) जानता है, वह शिल्पविद्या की सिद्धि के करने को समर्थ हो सकता है, अन्य नहीं॥7॥ भावार्थः—जो ईश्वर ने वेदों में अन्तरिक्ष भू और समुद्र में जाने आने वाले यानों की विद्या का उपदेश किया है, उन को सिद्ध करने को जो पूर्ण विद्या शिक्षा और हस्त क्रियाओं के कलाकौशल में कुशल मनुष्य होता है, वही बनाने में समर्थ हो सकता है॥7॥ पुनः स किं जानातीत्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या जानता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वेद॑ मा॒सो धृ॒तव्र॑तो॒ द्वाद॑श प्र॒जाव॑तः। वेदा॒ य उ॑प॒जाय॑ते॥8॥ वेद॑। मा॒सः। धृतऽव्र॑तः। द्वाद॑श। प्र॒जाऽव॑तः। वेद॑। यः। उ॒प॒जाय॑ते॥8॥ पदार्थः—(वेद) जानाति (मासः) चैत्रादीन् (धृतव्रतः) धृतं व्रतं सत्यं विद्याबलं येन सः (द्वादश) मासान् (प्रजावतः) बह्व्यः प्रजा उत्पन्ना विद्यन्ते येषु मासेषु तान्। अत्र भूमार्थे मतुप्। (वेद) जानाति। अत्रापि द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यः) विद्वान् मनुष्यः (उपजायते) यत्किंचिदुत्पद्यते तत्सर्वं त्रयोदशो मासो वा॥8॥ अन्वयः—यो धृतव्रतो मनुष्यः प्रजावतो द्वादश मासान् वेद तथा योऽत्र त्रयोदश मास उपजायते तमपि वेद स सर्वकालावयवान् विदित्वोपकारी भवति॥8॥ भावार्थः—यथा सर्वज्ञत्वात् परमेश्वरः सर्वाधिष्ठानं कालचक्रं विजानाति, तथा लोकानां कालस्य च महिमानं विदित्वा नैव कदाचिदस्यैककणः क्षणोऽपि व्यर्थो नेय इति॥8॥ पदार्थः—(यः) जो (धृतव्रतः) सत्य नियम, विद्या और बल को धारण करने वाला विद्वान् मनुष्य (प्रजावतः) जिनमें नाना प्रकार के संसारी पदार्थ उत्पन्न होते हैं (द्वादश) बारह (मासः) महीनों और जो कि (उपजायते) उनमें अधिक मास अर्थात् तेरहवां महीना उत्पन्न होता है, उस को (वेद) जानता है, वह काल के सब अवयवों को जानकर उपकार करने वाला होता है॥8॥ भावार्थः—जैसे परमेश्वर सर्वज्ञ होने से सब लोक वा काल की व्यवस्था को जानता है, वैसे मनुष्यों को सब लोक तथा काल के महिमा की व्यवस्था को जानकर इस को एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये॥8॥ पुनः स किं किं जानातीत्युपदिश्यते फिर वह क्या-क्या जानता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वेद॒ वात॑स्य वर्त॒निमु॒रोर्ऋ॒ष्वस्य॑ बृह॒तः। वेदा॒ ये अ॒ध्यास॑ते॥9॥ वेद॑। वात॑स्य। व॒र्त॒निम्। उ॒रोः। ऋ॒ष्वस्य॑। बृ॒हतः॒। वेद॑। ये। अ॒धि॒ऽआस॑ते॥9॥ पदार्थः—(वेद) जानाति (वातस्य) वायोः (वर्त्तनिम्) वर्त्तन्ते यस्मिंस्तं मार्गम् (उरोः) बहुगुणयुक्तस्य (ऋष्वस्य) सर्वत्रागमनशीलस्य। अत्र ‘ऋषी गतौ’ अस्माद् बाहुलकादौणादिको वन् प्रत्ययः (बृहतः) महतो महाबलविशिष्टस्य (वेद) जानाति (ये) पदार्थाः (अध्यासते) तिष्ठन्ति ते॥9॥ अन्वयः—यो मनुष्य ऋष्वस्योरोर्बृहतो वातस्य वर्त्तनिं वेद जानीयात्, येऽत्र पदार्था अध्यासते तेषां च वर्त्तनिं वेद, स खलु भूखगोलगुणविज्जायते॥9॥ भावार्थः—यो मनुष्योऽग्न्यादीनां पदार्थानां मध्ये परिमाणतो गुणतश्च महान् सर्वाधारो वायुर्वर्त्तते तस्य कारणमुत्पत्तिं गमनागमनयोगर्मार्गं ये तत्र स्थूलसूक्ष्माः पदार्थाः वर्त्तन्ते, तानपि यथार्थतया विदित्वैतेभ्य उपकारं गृहीत्वा ग्राहयित्वा कृतकृत्यो भवेत्, स इह गण्यो विद्वान् भवतीति वेद्यम्॥9॥ पदार्थः—जो मनुष्य (ऋष्वस्य) सब जगह जाने-आने (उरोः) अत्यन्त गुणवान् (बृहतः) बड़े अत्यन्त बलयुक्त (वातस्य) वायु के (वर्त्तनिम्) मार्ग को (वेद) जानता है (ये) और जो पदार्थ इस में (अध्यासते) इस वायु के आधार से स्थित हैं, उनके भी (वर्त्तनिम्) मार्ग को (वेद) जाने, वह भूगोल वा खगोल के गुणों का जानने वाला होता है॥9॥ भावार्थः—जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों में परिमाण वा गुणों से बड़ा सब मूर्त्ति वाले पदार्थों का धारण करने वाला वायु है, उसका कारण अर्थात् उत्पत्ति और जाने-आने के मार्ग और जो उसमें स्थूल वा सूक्ष्म पदार्थ ठहरे हैं, उनको भी यथार्थता से जान इनसे अनेक कार्य सिद्ध कर करा के सब प्रयोजनों को सिद्ध कर लेता है, वह विद्वानों में गणनीय विद्वान् होता है॥9॥ य एतं जानाति स किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते जो मनुष्य इस वायु को ठीक-ठीक जानता है, वह किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है। नि ष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्या॒स्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑॥10॥17॥ नि। स॒सा॒द। धृ॒तऽव्र॑तः। वरु॑णः। प॒स्त्या॑सु। आ। साम्ऽरा॑ज्याय। सु॒क्रतुः॑॥10॥ पदार्थः—(नि) नित्यार्थे (ससाद) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लिट्। सदेः परस्य लिटि। (अष्टा॰8.3.107) अनेन परसकारस्य मूर्द्धन्यादेशनिषेधः। (धृतव्रतः) सत्याचारशीलः (वरुणः) उत्तमो विद्वान् (पस्त्यासु) पस्त्येभ्यो गृहेभ्यो हितास्तासु प्रजासु। पस्त्यमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (आ) समन्तात् (साम्राज्याय) यद्राष्ट्रं सर्वत्र भूगोले सम्यक् राजते प्रकाशते तस्य भावाय (सुक्रतुः) शोभनाः क्रतवः कर्माणि प्रजा वः यस्य सः॥10॥ अन्वयः—यथा यो धृतव्रतः सुक्रतुर्वरुणो विद्वान् मनुष्यः पस्त्यासु प्रजासु साम्राज्यायानिषसाद तथाऽस्माभिरपि भवितव्यम्॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः सर्वासां प्रजानां सम्राड् वर्त्तते तथा य ईश्वराज्ञायां वर्त्तमानो विद्वान् धार्मिकः शरीरबुद्धिबलसंयुक्तो मनुष्यो भवति स एव साम्राज्यं कर्तुमर्हतीति॥10॥ पदार्थः—जैसे जो (धृतव्रतः) सत्य नियम पालने (सुक्रतुः) अच्छे-अच्छे कर्म वा उत्तम बुद्धियुक्त (वरुणः) अति श्रेष्ठ सभा सेना का स्वामी (पस्त्यासु) अत्युत्तम घर आदि पदार्थों से युक्त प्रजाओं में (साम्राज्याय) चक्रवर्त्ती राज्य को करने की योग्यता से युक्त मनुष्य (आनिषसाद) अच्छे प्रकार स्थित होता है, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर सब प्राणियों का उत्तम राजा है, वैसे जो ईश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान धार्मिक शरीर और बुद्धि बलयुक्त मनुष्य हैं, वे ही उत्तम राज्य करने योग्य होते हैं॥10॥ पुनः स एवार्थ उपदिश्यते॥ फिर अगले मन्त्र में उक्त अर्थ का ही प्रकाश किया है॥ अतो॒ विश्वा॒न्यद्भु॑ता चिकि॒त्वाँ अ॒भि प॑श्यति। कृ॒तानि॒ या च॒ कर्त्वा॑॥11॥ अतः॑। विश्वा॑नि। अद्भु॑ता। चि॒कि॒त्वान्। अ॒भि। प॒श्य॒ति॒। कृ॒तानि॑। या। च॒। कर्त्वा॑॥11॥ पदार्थः—(अतः) पूर्वोक्तात्कारणात् (विश्वानि) सर्वाणि (अद्भुता) आश्चर्यरूपाणि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि इति लोपः। (चिकित्वान्) केतयति जानातीति चिकित्वान्। अत्र ‘कित ज्ञाने’ अस्माद् वेदोक्ताद् धातोः क्वसुः प्रत्ययः। चिकित्वान् चेतनावान्। (निरु॰2.11) (अभि) सर्वतः (पश्यति) प्रेक्षते (कृतानि) अनुष्ठितानि (या) यानि (च) समुच्चये (कर्त्वा) कर्त्तव्यानि। अत्र कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वन इति त्वन् प्रत्ययः॥11॥ अन्वयः—यतो यश्चिकित्वान् वरुणो धार्मिकोऽखिलविद्यो न्यायकारी मनुष्यो वा यानि विश्वानि सर्वाणि कृतानि यानि च कर्त्त्वा कर्त्तव्यान्यद्भुतानि कर्माण्यभिपश्यत्यतः स न्यायाधीशो भवितुं योग्यो जायते॥11॥ भावार्थः—यथेश्वरः सर्वत्राभिव्याप्तः सर्वशक्तिमान् सन् सृष्टिरचनादीन्याश्चर्य्यरूपाणि कृत्वा वस्तूनि विधाय जीवनां त्रिकालस्थानि कर्म्माणि च विदित्वैतेभ्यस्तत्तत्कर्माश्रितं फलं दातुमर्हति। एवं यो विद्वान् मनुष्यो भूतपूर्वाणां विदुषां कर्माणि विदित्त्वाऽनुष्ठातव्यानि कर्माण्येव कर्त्तमुद्युङ्क्ते स एव सर्वाभिद्रष्टा सन् सर्वोपकारकाण्यनुत्तमानि कर्माणि कृत्वा सर्वेषां न्यायं कर्त्तुं शक्नोतीति॥11॥ पदार्थः—जिस कारण जो (चिकित्वान्) सबको चेताने वाला धार्मिक सकल विद्याओं को जानने न्याय करने वाला मनुष्य (या) जो (विश्वानि) सब (कृतानि) अपने किये हुए (च) और (कर्त्त्वा) जो आगे करने योग्य कर्मों और (अद्भुतानि) आश्चर्य्यरूप वस्तुओं को (अभिपश्यति) सब प्रकार से देखता है (अतः) इसी कारण वह न्यायाधीश होने को समर्थ होता है॥11॥ भावार्थः—जिस प्रकार ईश्वर सब जगह व्याप्त और सर्वशक्तिमान् होने से सृष्टि रचनादि रूपी कर्म और जीवों के तीनों कालों के कर्मों को जानकर इनको उन-उन कर्मों के अनुसार फल देने को योग्य है। इसी प्रकार जो विद्वान् मनुष्य पहिले हो गये उनके कर्मों और आगे अनुष्ठान करने योग्य कर्मों के करने में युक्त होता है, वही सबको देखता हुआ सब सब के उपकार करने वाले उत्तम से उत्तम कर्मों को कर सब का न्याय करने को योग्य होता है॥11॥ पुनरपि स एवार्थ उपदिश्यते॥ फिर भी अगले मन्त्र में उसी अर्थ का प्रकाश किया है॥ स नो॑ वि॒श्वाहा॑ सु॒क्रतु॑रादि॒त्यः सु॒पथा॑ करत्। प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत्॥12॥ सः। नः॒। वि॒श्वाहा॑। सु॒ऽक्रतुः॑। आ॒दि॒त्यः। सु॒ऽपथा॒। क॒र॒त्। प्र। नः॒। आयूं॑षि। ता॒रि॒ष॒त्॥12॥ पदार्थः—(सः) वक्ष्यमाणः (नः) अस्मान् (विश्वाहा) विश्वानि चाहानि च तेषु। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति सप्तम्या बहुवचनस्याकारादेशः। (सुक्रतुः) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन (करत्) कुर्यात्। लेट् प्रयोगोऽयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (तारिषत्) सन्तारयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः॥12॥ अन्वयः—यथादित्यः परमेश्वरः प्राणः सूर्यो वा विश्वाहा सर्वेषु दिनेषु नोऽस्मान् सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् तथा सुक्रतुरादित्यो न्यायकारी मनुष्यो विश्वाहेषु नः सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् सन्तारयेत्॥12॥ भावार्थः—अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण जितेन्द्रियत्वादिनाऽऽयु- र्वर्द्धयित्वा धर्ममार्गे विचरन्ति, तान् जगदीश्वरोऽनुगृह्यानन्दयुक्तान् करोति। यथाऽयं प्राणः सूर्य्यो वा स्वबलतेजोभ्यामुच्चावचानि स्थलानि प्रकाश्य प्राणिनः सुखयित्वा सर्वानहोरात्रादीन् कालविभागान् विभजतस्तथैव स्वात्मशरीरसेनाबलेन धर्म्याणि कनिष्ठमध्यमोत्तमानि कर्माणि प्रचार्य्याधर्म्याणि निवर्त्त्योत्तमनीचजनसमूहौ सदा विभजेत॥12॥ पदार्थः—जैसे (आदित्यः) अविनाशी परमेश्वर, प्राण वा सूर्य्य (विश्वाहा) सब दिन (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में चलाने और (नः) हमारी (आयूंषि) उमर (प्रतारिषत्) सुख के साथ परिपूर्ण (करत्) करते हैं, वैसे ही (सुक्रतुः) श्रेष्ठ कर्म और उत्तम-उत्तम जिससे ज्ञान हो वह (आदित्यः) विद्या धर्म प्रकाशित न्यायकारी मनुष्य (विश्वाहा) सब दिनो में (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में (करत्) करे। और (नः) हम लोगों की (आयूंषि) उमरों को (प्रतारिषत्) सुख से परिपूर्ण करे॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि से आयु बढ़ाकर धर्ममार्ग में विचरते हैं, उन्हीं को जगदीश्वर अनुगृहीत कर आनन्दयुक्त करता है। जैसे प्राण और सूर्य्य अपने बल और तेज से ऊंचे नीचे स्थानों को प्रकाशित कर प्राणियों को सुख के मार्ग से युक्त करके उचित समय पर दिन-रात आदि सब कालविभागों को अच्छे प्रकार सिद्ध करते हैं, वैसे ही अपने आत्मा, शरीर और सेना के बल से न्यायाधीश मनुष्य धर्मयुक्त छोटे मध्यम और बड़े कर्मों के प्रचार से अधर्म युक्त को छुड़ा उत्तम और नीच मनुष्यों का विभाग सदा किया करे॥12॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ बिभ्र॑द्द्रा॒पिं हि॑र॒ण्ययं॒ वरु॑णो वस्त नि॒र्णिज॑म्। परि॒ स्पशो॒ नि षे॑दिरे॥13॥ बिभ्र॑त्। द्रा॒पिम्। हिर॒ण्यय॑म्। वरु॑णः। व॒स्त॒। निःऽनिज॑म्। परि॑। स्पशः॑। नि। से॒दि॒रे॒॥13॥ पदार्थः—(बिभ्रत्) धारयन् (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा। अत्र ‘द्रै स्वप्ने’ अस्माद् इञ्वपादिभ्य इतीञ् (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मयम्। ऋत्व्यवास्त्व्य॰ (अष्टा॰6.4.175) अनेनायं निपातितः ‘ज्योतिर्वै हिरण्यम्’ इति पूर्ववत्प्रमाणं विज्ञेयम्। (वरुणः) विविधपाशैः शत्रूणां बन्धकः (वस्त) वस्ते आच्छादयति। अत्र वर्त्तमाने लङडभावश्च। (निर्णिजम्) शुद्धम् (परि) सर्वतोभावे (स्पशः) स्पर्शवन्तः पदार्थाः (नि) नितराम् (सेदिरे) सीदन्ति। अत्र लडर्थे लिट्॥13॥ अन्वयः—यथाऽस्मिन् वरुणे सूर्य्ये वा स्पर्शवन्तः सर्वे पदार्था निषेदिरे एतौ निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत एतान् सर्वान् पदार्थान् सर्वतोऽभिव्याप्याच्छादयतस्तथा विद्यान्यायप्रकाशे सर्वान् स्पर्शवन्तः पदार्थान् निषाद्य निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत् सन् वरुण विद्वान् परिवस्त वस्ते सर्वान् शत्रून् स्वतेजसाऽऽच्छादयेत्॥13॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वे मनुष्या यथा वायुर्बलकारित्वात् सर्वमग्न्यादिकं मूर्त्तामूर्तं वस्तु धृत्वाऽऽकाशे गमनागमने कुर्वन् गमयति। यथा सूर्य्यलोको प्रकाशस्वरूपत्वाद् रात्र्यन्धकारं निवार्य्य स्वतेजसा प्रकाशते, तथैव सुशिक्षाबलेन सर्वान् मनुष्यान् धृत्वा धर्मे गमनागमने कृत्वा कार्येरन्॥13॥ पदार्थः—जैसे इस वायु वा सूर्य्य के तेज में (स्पशः) स्पर्शवान् अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म सब पदार्थ (निषेदिरे) स्थिर होते हैं और वे दोनों (वरुणः) वायु और सूर्य्य (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) अग्न्यादिरूप पदार्थों को (बिभ्रत) धारण करते हुए (द्रापिम्) बल तेज और निद्रा को (परिवस्त) सब प्रकार से प्राप्त कर जीवों के ज्ञान को ढांप देते हैं, वैसे (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय प्रकाशयुक्त को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (द्रायिम्) निद्रादि के हेतु रात्रि को (परिवस्त) निवारण कर अपने तेज से सबको ढांप लेता है॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे वायु बल का करने हारा होने से सब अग्नि आदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों को धरके आकाश में गमन और आगमन करता हुआ चलता और जैसे सूर्य्यलोक भी स्वयं प्रकाशरूप होने से रात्रि को निवारण कर अपने प्रकाश से सबको प्रकाशता है, वैसे विद्वान् लोग भी विद्या और उत्तम शिक्षा के बल से सब मनुष्यों को धारण कर धर्म में चल सब अन्य मनुष्यों को चलाया करें॥13॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ न यं दिप्स॑न्ति दि॒प्सवो॒ न द्रुह्वा॑णो॒ जना॑नाम्। न दे॒वम॒भिमा॑तयः॥14॥ न। यम्। दिप्स॑न्ति। दि॒प्सवः॑। न। द्रुह्वा॑णः। जना॑नाम्। न। दे॒वम्। अ॒भिऽमा॑तयः॥14॥ पदार्थः—(न) निषेधे (यम्) वरुणं परमेश्वरं विद्वांसं वा (दिप्सन्ति) विरोद्धुमिच्छन्ति। (दिप्सवः) मिथ्याभिमानव्यवहारमिच्छवः शत्रवः। अत्रोभयत्र वर्णव्यत्ययेन धकारस्य दकारः। (न) प्रतिषेधे (द्रुह्वाणः) द्रोहकर्त्तारः (न) निवारणे (देवम्) दिव्यगुणं (अभिमातयः) अभिमानिनः। ‘मा माने इत्यस्य रूपम्॥14॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं जनानां दिप्सवो यं न दिप्सन्ति द्रुह्वाणो यं न द्रह्यन्त्यभिमातयो यं नाभिमन्यन्ते तं परमेश्वरं देवमुपास्यं कार्य्यहेतुं विद्वांसं वा सर्वे जानीत॥14॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। ये हिंसका परद्रोहयुक्ता अभिमानसहिता जना वर्त्तन्ते, ते विद्याहीनत्वात् परमेश्वरस्य विदुषां वा गुणान् ज्ञात्वा नैवोपकर्त्तुमर्हन्ति, तस्मात् सर्वैरेतेषां गुणकर्मस्वभावैः सह सदा भवितव्यम्॥14॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम सब लोग (जनानाम्) विद्वान् धार्मिक वा मनुष्य आदि प्राणियों से (दिप्सवः) झूठे अभिमान और झूठे व्यवहार को चाहने वाले शत्रुजन (यम्) जिस (देवम्) दिव्य गुणवाले परमेश्वर वा विद्वान् को (न) (दिप्सन्ति) विरोध से न चाहें (द्रुह्वाणः) द्रोह करने वाले जिस को द्रोह से (न) चाहें। तथा जिसके साथ (अभिमातयः) अभिमानी पुरुष (न) अभिमान से न वर्त्तें, उन उपासना करने योग्य परमेश्वर वा विद्वानों को जानो॥14॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो हिंसक परद्रोही अभिमानयुक्त जन हैं, वे अज्ञानपन से परमेश्वर वा विद्वानों के गुणों को जान कर उनसे उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये सब मनुष्यों को योग्य है कि उनके गुण, कर्म और स्वभाव का सदैव ग्रहण करें॥14॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उ॒त यो मानु॑षे॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या। अ॒स्माक॑मु॒दरे॒ष्वा॥15॥18॥ उ॒त। यः। मानु॑षेषु। आ। यशः॑। च॒क्रे। असा॑मि। आ। अ॒स्माक॑म्। उ॒दरे॑षु। आ॥15॥ पदार्थः—(उत) अपि (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु (आ) अभितः (यशः) कीर्त्तिमन्नं वा। यश इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (चक्रे) कृतवान् (असामि) समस्तम् (आ) समन्तात् (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम् (उदरेषु) अन्तर्देशेषु (आ) अभितोऽर्थे॥15॥ अन्वयः—योऽस्माकमुदरेषूतापि बहिरसामि यश आचक्रे यो मानुषेषु जीवेषूतापि जडेषु पदार्थेष्वाकीर्त्तिं प्रकाशितवानस्ति, स वरुणो जगदीश्वरो विद्वान् वा सकलैर्मानवैः कुतो नोपासनीयो जायेत॥15॥ भावार्थः—येन सृष्टिकर्त्तान्तर्यामिणा जगदीश्वरेण परोपकाराय जीवानां तत्तकर्मफलभोगाय समस्तं जगत्प्रतिकल्पं विरच्यते, यस्य सृष्टौ बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः सर्वचेष्टा हेतुरस्ति, विद्वांसो विद्याप्रकाशका अविद्याहन्तारश्च प्रायतन्ते, तदिदं धन्यवादार्हं कर्म परमेश्वरस्यैवाखिलैर्मनुष्यैर्विज्ञेयम्॥15॥ पदार्थः—(यः) जो हमारे (उदरेषु) अर्थात् भीतर (उत) और बाहर भी (असामि) पूर्ण (यशः) प्रशंसा के योग्य कर्म को (आचक्रे) सब प्रकार से करता है, जो (मानुषेषु) जीवों और जड़ पदार्थों में सर्वथा कीर्त्ति को किया करता है, सो वरुण अर्थात् परमात्मा वा विद्वान् सब मनुष्यों को उपासनीय और सेवनीय क्यों न होवे॥15॥ भावार्थः—जिस सृष्टि करने वाले अन्तर्यामी जगदीश्वर ने परोपकार वा जीवों को उनके कर्म के अनुसार भोग कराने के लिये सम्पूर्ण जगत् कल्प-कल्प में रचा है, जिसकी सृष्टि में पदार्थों के बाहर-भीतर चलने वाला वायु सब कर्मों का हेतु है और विद्वान् लोग विद्या का प्रकाश और अविद्या का हनन करने वाले प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये इस परमेश्वर के धन्यवाद के योग्य कर्म सब मनुष्यों को जानना चाहिये॥15॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ परा॑ मे यन्ति धी॒तयो॒ गावो॒ न गव्यू॑ती॒रनु॑। इ॒च्छन्ती॑रुरु॒चक्ष॑सम्॥16॥ परा॑। मे॒। य॒न्ति॒। धी॒तयः॑। गावः॑। न। गव्यू॑तीः। अनु॑। इ॒च्छन्तीः॑। उ॒रु॒ऽचक्ष॑सम्॥16॥ पदार्थः—(परा) प्रकृष्टार्थे (मे) मम (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (धीतयः) दधात्यर्थान् याभिः कर्मवृत्तिभिस्ताः (गावः) पशुजातयः (न) इव (गव्यूतीः) गवां यूतयः स्थानानि। गोर्यूतौ छन्दस्युपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰6.1.79) (अनु) अनुगमार्थे (इच्छन्तीः) इच्छन्त्यः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति पूर्वसवर्णः। (उरुचक्षसम्) उरुषु बहुषु चक्षो विज्ञानं प्रकाशनं वा यस्य तं कर्मकर्त्तारं जीवं माम्॥16॥ अन्वयः—यथा गव्यूतीरन्विच्छन्त्यो गावो न इव मे ममेमा धीयत उरुचक्षसं मां परायन्ति तथा सर्वान् कर्त्तॄन् प्रति स्वानि स्वानि कर्माणि प्राप्नुवन्त्येवेति विज्ञेयम्॥16॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं निश्चतेव्यं यथा गावः स्व-स्ववेगानुसारेण धावन्त्योऽभीष्टं स्थानं गत्वा परिश्रान्ता भवन्ति, तथैव मनुष्याः स्व-स्वबुद्धिबलानुसारेण परमेश्वरस्य सूर्यादेर्वा गुणानन्विष्य यथाबुद्धि विदित्वा परिश्रान्ता भवन्ति, नैव कस्यापि जनस्य बुद्धिशरीरवेगोऽपरिमितो भवितुमर्हति। यथा पक्षिणः स्व-स्वबलानुसारेणाकाशं गच्छन्तो नैतस्यान्तं कश्चिदपि प्राप्नोति, तथैव कश्चिदपि मनुष्यो विद्या विषयस्यान्तं गन्तुं नार्हति॥16॥ पदार्थः—जैसे (गव्यूतीः) अपने स्थानों को (इच्छन्तीः) जाने की इच्छा करती हुई (गावः) गो आदि पशु जाति के (न) समान (मे) मेरी (धीतयः) कर्म की वृत्तियां (उरुचक्षसम्) बहुत विज्ञान वाले मुझ को (परायन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होती हैं, वैसे सब कर्त्ताओं को अपने-अपने किये हुए कर्म प्राप्त होते ही हैं, ऐसा जानना योग्य है॥16॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को ऐसा निश्चय करना चाहिये कि जैसे गौ आदि पशु अपने-अपने वेग के अनुसार दौड़ते हुए चाहे हुए स्थान को पहुंच कर थक जाते हैं, वैसे ही मनुष्य अपनी-अपनी बुद्धि बल के अनुसार परमेश्वर वायु और सूर्य्य आदि पदार्थों के गुणों को जानकर थक जाते हैं। किसी मनुष्य की बुद्धि वा शरीर का वेग ऐसा नहीं हो सकता कि जिस का अन्त न हो सके, जैसे पक्षी अपने-अपने बल के अनुसार आकाश को जाते हुए आकाश का पार कोई भी नहीं पाता, इसी प्रकार कोई मनुष्य विद्या विषय के अन्त को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता है॥16॥ मनुष्यैर्यथायोग्या विद्या कथं प्राप्तव्या इत्युपदिश्यते। मनुष्यों को यथायोग्य विद्या किस प्रकार प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तम्। होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यम्॥17॥ सम्। नु। वो॒चा॒व॒है। पुनः॑। यतः॑। मे॒। मधु॑। आऽभृ॑तम्। होता॑ऽइव। क्षद॑से। प्रि॒यम्॥17॥ पदार्थः—(सम्) सम्यगर्थे (नु) अनुपृष्टे (निरु॰1.4) (वोचावहै) परस्परमुपदिशेव। लेट्प्रयोगोऽयम्। (पुनः) पश्चाद्भावे (यतः) हेत्वर्थे (मे) मम (मधु) मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् (आभृतम्) विद्वद्भिर्यत्समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् (होतेव) यज्ञसम्पादकवत् (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय (प्रियम्) यत् प्रीणाति तत्॥17॥ अन्वयः—यत आवामुपदेशोपदेष्टारौ होतेवानुक्षदस आभृतं यजमानप्रियं मधुमधुरगुणविशिष्टं विज्ञानं संवोचावहै, यतो मे मम तव च विद्यावृद्धिर्भवेत्॥17॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा होतृयजमानौ प्रीत्या परस्परं मिलित्वा हवनादिकं कर्म प्रपूर्त्तस्तथैवाध्यापकाध्येतारौ समागम्य सर्वा विद्याः प्रकाशयेतामेवं समस्तैर्मनुष्यैरस्माकं विद्यावृद्धिर्भूत्वा वयं सुखानि प्राप्नुयामेति नित्यं प्रयतितव्यम्॥17॥ पदार्थः—(यतः) जिससे हम आचार्य और शिष्य दोनों (होतेव) जैसे यज्ञ कराने वाला विद्वान् (नु) परस्पर (क्षदसे) अविद्या और रोगजन्य दुःखान्धकार विनाश के लिये (आभृतम्) विद्वानों के उपदेश से जो धारण किया जाता है, उस यजमान के (प्रियम्) प्रियसम्पादन करने के समान (मधु) मधुर गुण विशिष्ट विज्ञान का (वोचावहै) उपदेश नित्य करें कि उससे (मे) हमारी और तुम्हारी (पुनः) बार-बार विद्यावृद्धि होवे॥17॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ कराने और करने वाले प्रीति के साथ मिलकर यज्ञ को सिद्ध कर पूरण करते हैं, वैसे ही गुरु शिष्य मिलकर सब विद्याओं का प्रकाश करें। सब मनुष्यों को इस बात की चाहना निरन्तर रखनी चाहिये कि जिससे हमारी विद्या की वृद्धि प्रतिदिन होती रहे॥17॥ पुनस्ते किं किं कुर्युरित्युपदिश्यते। फिर भी वे क्या-क्या करें, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है। दर्शं॒ नु वि॒श्वद॑र्शतं॒ दर्शं॒ रथ॒मधि॒ क्षमि॑। ए॒ता जु॑षत मे॒ गिरः॑॥18॥ दर्श॑म्। नु। वि॒श्वऽद॑र्शतम्। दर्श॑म्। रथ॑म्। अधि॑। क्षमि॑। ए॒ताः। जु॒ष॒त॒। मे॒। गिरः॑॥18॥ पदार्थः—(दर्शम्) पुनः पुनर्द्रष्टुम् (नु) अनुपृष्टे (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिर्द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् (दर्शम्) पुनः पुनः सम्प्रेक्षितुम् (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (अधि) उपरिभावे (क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। (अष्टा॰6.4.15) इति दीर्घो न भवति (एताः) वेदविद्यासुशिक्षासंस्कृताः (जुषत) सेवध्वम् (मे) मम (गिरः) वाणीः॥18॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयमधि क्षमि स्थित्वा विश्वदर्शतं वरुणं परेशं दर्शं रथं नु दर्शं मे ममैता गिरो वाणीर्जुषत नित्यं सेवध्वम्॥18॥ भावार्थः—यस्मात् क्षमादिगुणसहितैर्मनुष्यैः प्रश्नोत्तरव्यवहारेणानुष्ठानेन विनेश्वरं शिल्पविद्यासिद्धानि यानानि च वेदितुं न शक्यानि, तत्र ये गुणास्तेऽपि चास्मादेतेषां विज्ञानाय सर्वदा प्रयतितव्यम्॥18॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम (अधिक्षमि) जिन व्यवहारों में उत्तम और निकृष्ट बातों का सहना होता है, उनमें ठहर कर (विश्वदर्शतम्) जो कि विद्वानों की ज्ञानदृष्टि से देखने के योग्य परमेश्वर है उसको (दर्शम्) बारंबार देखने (रथम्) विमान आदि यानों को (नु) भी (दर्शम्) पुनः—पुनः देख के सिद्ध करने के लिये (मे) मेरी (गिरः) वाणियों को (जुषत) सदा सेवन करो॥18॥ भावार्थः—जिससे क्षमा आदि गुणों से युक्त मनुष्यों को यह जानना योग्य है कि प्रश्न और उत्तर के व्यवहार के किये विना परमेश्वर को जानने और शिल्पविद्या सिद्ध विमानादि रथों को कभी बनाने को शक्य नहीं और जो उनमें गुण हैं, वे भी इससे इनके विज्ञान होने के लिये सदैव प्रयत्न करना चाहिये॥18॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ इ॒मं मे॑ वरुण श्रुधी॒ हव॑म॒द्या च॑ मृळय। त्वाम॑व॒स्युरा च॑के॥19॥ इ॒मम्। मे॒। व॒रु॒ण॒। श्रु॒धि॒। हव॑म्। अ॒द्य। च॒। मृ॒ळ॒य॒। त्वाम्। अ॒व॒स्युः। आ। च॒के॒॥19॥ पदार्थः—(इमम्) प्रत्यक्षमनुष्ठितम् (मे) मम (वरुण) सर्वोत्कृष्टजगदीश्वर विद्वन् वा (श्रुधी) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसि श्नोर्लुक् श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा॰6.4.102) इति हेर्द्ध्यादेशो अन्येषामपि इति दीर्घश्च। (हवम्) आदातुमर्हं स्तुतिसमूहम् (अद्य) अस्मिन् दिने (च) समुच्चये (मृळय) सुखय (त्वाम्) विद्वांसम् (अवस्युः) आत्मनो रक्षणं विज्ञानं चेच्छुः (आ) समन्तात् (चके) प्रशंसामि॥19॥ अन्वयः—हे वरुण विद्वन्! अद्यावस्युरहं त्वामाचके प्रशंसामि त्वं मे मम हवं श्रुधि शृणु, मां च मृळय॥19॥ भावार्थः—यथेश्वरः खलूपासकैः सत्यप्रेम्णा यां प्रयुक्तां स्तुतिं सर्वज्ञतया यथावच्छ्रुत्त्वा तदनुकूलतया स्तावकेभ्यः सुखं प्रयच्छति, तथैव विद्वद्भिरपि भवितव्यम्॥19॥ पदार्थः—हे (वरुण) सब से उत्तम विपश्चित्! (अद्य) आज (अवस्युः) अपनी रक्षा वा विज्ञान को चाहता हुआ मैं (त्वाम्) आपकी (आ चके) अच्छी प्रकार प्रशंसा करता हूं, आप (मे) मेरी की हुई (हवम्) ग्रहण करने योग्य स्तुति को (श्रुधि) श्रवण कीजिये तथा मुझको (मृळय) विद्यादान से सुख दीजिये॥19॥ भावार्थः—जैसे परमात्मा जो उपासकों द्वारा निश्चय करके सत्य भाव और प्रेम के साथ की हुई स्तुतियों को अपने सर्वज्ञपन से यथावत् सुन कर उनके अनुकूल स्तुति करने वालों को सुख देता है, वैसे विद्वान् लोग भी धार्मिक मनुष्यों की योग्य प्रशंसा को सुन सुखयुक्त किया करें॥19॥ पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं विश्व॑स्य मेधिर दि॒वश्च॒ ग्मश्च॑ राजसि। स याम॑नि॒ प्रति॑ श्रुधि॥20॥ त्वम्। विश्व॑स्य। मे॒धि॒र॒। दि॒वः। च॒। ग्मः। च॒। रा॒ज॒सि॒। सः। याम॑नि। प्रति॑। श्रु॒धि॒॥20॥ पदार्थः—(त्वम्) यो वरुणो जगदीश्वरः (विश्वस्य) सर्वस्य जगतो मध्ये (मेधिर) मेधाविन् (दिवः) प्रकाशसहितस्य सूर्य्यादेः (च) अन्येषां लोकलोकान्तराणां समुच्चये (ग्मः) पृथिव्यादेः। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (च) अनुकर्षणे (राजसि) प्रकाशसे (सः) (यामनि) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे प्रहरे तस्मिन् (प्रति) प्रतीतार्थे (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्य- श्छन्दसि (अष्टा॰6.4.102) इति हेर्धिश्च॥20॥ अन्वयः—हे मेधिर वरुण! त्वं यथा यो जगदीश्वरो दिवश्च ग्मश्च विश्वस्य यामनि राजति, सोऽस्माकं स्तुतिं प्रतिशृणोति तथैतन्मध्ये राजसि राजेः स्तुतिं प्रतिश्रुधि शृणु॥20॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सर्वस्य जगतो द्विधाभेदः कृतोऽस्ति। एकः प्रकाशसहितः सूर्य्यादिर्द्वितीयः प्रकाशरहितः पृथिव्यादिश्च यस्तयोरुत्पत्तिर्विनाशनिमित्तः कालोऽस्ति, तत्राभिव्याप्तः सर्वेषां प्राणिनां संकल्पोत्पन्ना अपि वार्त्ताः शृणोति, तस्मान्नैव केनापि कदाचिदधर्मानुष्ठानकल्पना कर्त्तव्याऽस्ति, तथैव सकलैर्मानवैर्विज्ञायानुचरितव्यमिति॥20॥ पदार्थः—हे (मेधिर) अत्यन्त विज्ञानयुक्त वरुण विद्वन्! (त्वम्) आप जैसे जो ईश्वर (दिवः) प्रकाशवान् सूर्य्य आदि (च) वा अन्य सब लोक (ग्मः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि (विश्वस्य) सब लोकों के (यामनि) जिस-जिस काल में जीवों का आना-जाना होता है, उस-उसमें प्रकाश हो रहे हैं (सः) सो हमारी स्तुतियों को सुनकर आनन्द देते हैं, वैसे होकर इस राज्य के मध्य में (राजसि) प्रकाशित हूजिये और हमारी स्तुतियों को (प्रतिश्रुधि) सुनिये॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परब्रह्म ने इस सब संसार के दो भेद किये हैं-एक प्रकाश वाला सूर्य्य आदि और दूसरा प्रकाश रहित पृथिवी आदि लोक। जो इनकी उत्पत्ति वा विनाश का निमित्त कारण काल है, उसमें सदा एक-सा रहने वाला परमेश्वर सब प्राणियों के संकल्प से उत्पन्न हुई बातों का भी श्रवण करता है, इससे कभी अधर्म के अनुष्ठान की कल्पना भी मनुष्यों को नहीं करनी चाहिये, वैसे इस सृष्टिक्रम को जानकर मनुष्यों को ठीक-ठीक वर्त्तना चाहिये॥20॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उदु॑त्त॒मं मु॑मुग्धि नो॒ वि पाशं॑ मध्य॒मं चृ॑त। अवा॑ध॒मानि॑ जी॒वसे॑॥21॥19॥ उत्। उ॒त्ऽत॒मम्। मु॒मु॒ग्धि॒। नः॒। वि। पाश॑म्। म॒ध्य॒मम्। चृ॒त॒। अव॑। अ॒ध॒मानि॑। जी॒वसे॑॥21॥ पदार्थः—(उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे वा (उत्तमम्) उत्कृष्टम् (मुमुग्धि) मोचय। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्लुः। (नः) अस्माकम् (वि) विविधार्थे (पाशम्) बन्धनम् (मध्यमम्) उत्कृष्टानुकृष्टयोरन्तर्भवम् (चृत) नाशय। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (अव) क्रियायोगे (अधमानि) निकृष्टानि बन्धनानि (जीवसे) चिरं जीवितुम्। अत्र तुमर्थे से॰ इत्यसेन्प्रत्ययः॥21॥ अन्वयः—हे वरुणाविद्यान्धकारविदारकेश्वर! त्वं करुणया नोऽस्माकं जीवस उत्तमं मध्यमं पाशमुन्मुमुग्ध्यधमानि बन्धनानि च व्यवचृत॥21॥ भावार्थः—यथा धार्मिकाः परोपकारिणो विद्वांसो भूत्वेश्वरं प्रार्थयन्ते तेषां जगदीश्वरः सर्वाणि दुःखबन्धनादीनि निवार्य्यैतान् सुखयति, तथास्माभिः कथं नानुचरणीयानि॥21॥ चतुर्विंशसूक्तोक्तानां प्राजापत्यादीनामर्थानां मध्यस्थस्य वरुणार्थस्योक्तत्त्वाच्चातीत- सूक्तार्थेनास्य पञ्चविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

इति प्रथमस्य द्वितीय एकोनविंशो वर्गः।1।6॥

पञ्चविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥25॥ पदार्थः—हे अविद्यान्धकार के नाश करने वाले जगदीश्वर! आप (नः) हम लोगों के (जीवसे) बहुत जीने के लिये हमारे (उत्तमम्) श्रेष्ठ (मध्यमम्) मध्यम दुःखरूपी (पाशम्) बन्धनों को (उन्मुमुग्धि) अच्छे प्रकार छुड़ाइये तथा (अधमानि) जो कि हमारे दोषरूपी निकृष्ट बन्धन हैं, उनका भी (व्यवचृत) विनाश कीजिये॥21॥ भावार्थः—जैसे धार्मिक परोपकारी विद्वान् होकर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं जगदीश्वर उनके सब दुःख बन्धनों को छुड़ाकर सुख युक्त करता है, वैसे कर्म हम लोगों को क्या न करना चाहिये॥21॥ चौबीसवें सूक्त में कहे हुए प्रजापति आदि अर्थों के बीच जो वरुण शब्द है, उसके अर्थ को इस पच्चीसवें सूक्त में कहने से सूक्त के अर्थ की सङ्गति पहिले सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये॥ यह पहिले अष्टक और दूसरे अध्याय में उन्नीसवां वर्ग और पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में पच्चीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥25॥

अथास्य दशर्चस्य षड्विंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। अग्निर्देवता। 1,8,9 आर्ची उष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः। 2,6। निचृद्गायत्री। 3 प्रतिष्ठागायत्री। 4,10 गायत्री। 5,7 विराड्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥ तत्रादिमे मन्त्रे होतृयजमानगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब छब्बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में यज्ञ कराने और करने वालों के गुण प्रकाशित किये हैं॥ वसि॑ष्वा॒ हि मि॑येध्य॒ वस्त्रा॑ण्यूर्जां पते। सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज॥1॥ वसि॑ष्व। हि। मि॒ये॒ध्य॒। वस्त्रा॑णि। ऊ॒र्जा॒म्। प॒ते॒। सः। इ॒मम्। नः। अध्व॒रम्। य॒ज॒॥1॥ पदार्थः—(वसिष्व) धर। अत्र छन्दस्युभयथा (अष्टा॰3.4.117) इत्यार्द्धधातुकत्वमाश्रित्य लोट्यपि वलादिलक्षण इट्। (हि) खलु (मियेध्य) मिनोति प्रक्षिपत्यन्तरिक्षं प्रत्यग्निद्वारा पदार्थांस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र ‘डुमिञ्’ धातोरौणादिको बाहुलकात् केध्यच् प्रत्ययः। (वस्त्राणि) कार्पासौर्णकौशेयकादीनि (ऊर्जाम्) बलपराक्रमान्नानाम् (पते) पालयितः (सः) होता यजमानो वा (इमम्) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) त्रिविधं यज्ञम् (यज) सङ्गच्छस्व॥1॥ अन्वयः—हे ऊर्जां पते! मियेध्य होतर्यजमान वा त्वमेतानि वस्त्राणि वसिष्व हि नोऽस्माकमध्वरं यज सङ्गमय॥1॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। यजमानो बहून् हस्तक्रियाप्रत्यक्षान् विदुषोवरित्वैतान् सत्कृत्यानेकानि कार्य्याणि संसेध्य सुखं प्राप्नुयात् प्रापयेच्च। नहि कश्चित् खलूत्तमपुरुषसंप्रयोगेण विना किञ्चिदपि व्यवहारपरमार्थकृत्यं साद्धुं शक्नोति॥1॥ पदार्थः—हे (ऊर्जाम्) बल पराक्रम और अन्न आदि पदार्थों का (पते) पालन करने और कराने वाले तथा (मियेध्य) अग्नि द्वारा पदार्थों को फैलाने वाले विद्वान्! तू (वस्त्राणि) वस्त्रों को (वसिष्व) धारण कर (सः) (हि) ही (नः) हम लोगों के (इमम्) इस प्रत्यक्ष (अध्वरम्) तीन प्रकार के यज्ञ को (यज) सिद्ध कर॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। यज्ञ करने वाला विद्वान् हस्तक्रियाओं से बहुत पदार्थों को सिद्ध करने वाले विद्वानों को स्वीकार और उनका सत्कार कर अनेक कार्य्यों को सिद्ध कर सुख को प्राप्त करे वा करावे। कोई भी मनुष्य उत्तम विद्वान् पुरुषों के प्रसङ्ग किये विना कुछ भी व्यवहार वा परमार्थरूपी कार्य्य को सिद्ध करने को समर्थ नहीं हो सकता है॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ नि नो॒ होता॒ वरे॑ण्यः॒ सदा॑ यविष्ठ॒ मन्म॑भिः। अग्ने॑ दि॒वित्म॑ता॒ वचः॑॥2॥ नि। नः॒। होता॑। वरे॑ण्यः। सदा॑। य॒वि॒ष्ठ॒। मन्म॑ऽभिः। अग्ने॑। दि॒वित्म॑ता। वचः॑॥2॥ पदार्थः—(नि) नितराम् (नः) अस्माकम् (होता) सुखदाता (वरेण्यः) वरितुमर्हः। वृञ एण्यः। (उणा॰3.26) अनेनैण्यप्रत्ययः। (सदा) सर्वस्मिन् काले (यविष्ठ) अतिशयेन बलवान् यजमान (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थैस्तैः। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकेन। अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा॰3.2.75) अनेन करणे मनिन् प्रत्ययः। (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप। (दिवित्मता) दिवं प्रकाशमिन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैस्तद्वता। अत्र दिव्शब्दोपपदादिन्धधातोः कृतो बहुलम् इति करणकारके (अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते। अनेन सूत्रेण) क्विप्। ततः प्रशंसायां मतुप्। (वचः) उच्यते यत् तत्॥2॥ अन्वयः—हे यविष्ठाग्ने यजमान! यो मन्मभिः सह वर्त्तमानो वरेण्यो होता नोऽस्माकं दिवित्मता वचः सङ्गमयति स त्वया सदा सङ्गन्तव्यः॥2॥ भावार्थः—अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज) इत्यस्याऽनुवृतिः। मनुष्यैः सज्जनजनसाहित्येन सकलकामनासिद्धिः कार्य्या। नैतेन विना कश्चित्सुखी भवितुमर्हतीति॥2॥ पदार्थः—हे (यविष्ठ) अत्यन्त बल वाले (अग्ने) यजमान जो (मन्मभिः) जिनसे पदार्थ जाने जाते हैं, उन पुरुषार्थों के साथ वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता) सुख देने वाला (नः) हम लोगों के (दिवित्मता) जिनसे अत्यन्त प्रकाश होता है, उससे प्रसिद्ध (वचः) वाणी को (यज) सिद्ध करता है, उसी का (सदा) सब काल में संग करना चाहिये॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को योग्य है कि सज्जन मनुष्यों के सङ्ग से सकल कामनाओं की सिद्धि करें। इसके विना कोई भी मनुष्य सुखी रहने को समर्थ नहीं हो सकता॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ हि ष्मा॑ सू॒नवे॑ पि॒तापिर्यज॑त्या॒पये॑। सखा॒ सख्ये॒ वरे॑ण्यः॥3॥ आ। हि। स्म॒। सू॒नवे॑। पि॒ता। आ॒पिः। यज॑ति। आ॒पये॑। सखा॑। सख्ये॑। वरे॑ण्यः॥3॥ पदार्थः—(आ) अभितः (हि) निश्चये (स्म) स्पष्टार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सूनवे) अपत्याय (पिता) पालकः (आपिः) सुखप्रापकः। अत्र ‘आप्लृ व्याप्तौ’ अस्मात्। इञजादिभ्यः। (अष्टा॰वा॰3.3.108) इति वार्त्तिकेन ‘इञ्’ प्रत्ययः। (यजति) सङ्गच्छते (आपये) सद्गुणव्यापिने (सखा) सुहृत् (सख्ये) सुहृदे (वरेण्यः) सर्वत उत्कृष्टतमः॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा पिता सूनवे सखा सख्य आपिरापय आयजति, तथैवान्योऽयं सम्प्रीत्या कार्याणि संसाध्य हि ष्म सर्वोपकाराय यूयं सङ्गच्छध्वम्॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सन्तानसुखसम्पादकः कृपायमाणः पिता मित्राणां सुखप्रदः सखा विद्यार्थिने विद्याप्रदो विद्वाननुकूलो वर्त्तते, तथैव सर्वे मनुष्याः सर्वोपकाराय सततं प्रयतेरन्नितीश्वरोपदेशः॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (पिता) पालन करने वाला (सूनवे) पुत्र के (सखा) मित्र (सख्ये) मित्र के और (आपिः) सुख देने वाला विद्वान् (आपये) उत्तम गुण व्याप्त होने विद्यार्थी के लिये (आयजति) अच्छे प्रकार यत्न करता है, वैसे परस्पर प्रीति के साथ कार्यों को सिद्धकर (हि) निश्चय करके (स्म) वर्त्तमान में उपकार के लिये तुम सङ्गत हो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अपने लड़कों को सुख सम्पादक उन पर कृपा करने वाला पिता, स्वमित्रों को सुख देने वाला मित्र और विद्यार्थियों को विद्या देने वाला विद्वान् अनुकूल वर्त्तता है, वैसे ही सब मनुष्य सबके उपकार के लिये अच्छे प्रकार निरन्तर यत्न करें, ऐसा ईश्वर का उपदेश है॥3॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ नो॑ ब॒र्ही रि॒शाद॑सो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। सीद॑न्तु॒ मनु॑षो यथा॥4॥ आ। नः॒। ब॒र्हिः। रिशाद॑सः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒र्य॒मा। सीद॑न्तु। मनु॑षः। य॒था॒॥4॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (नः) अस्माकं (बर्हिः) सर्वसुखप्रापकमासनम्। बर्हिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.2) (रिशादसः) रिशानां हिंसकानां रोगाणां वा अदस उपक्षयितारः (वरुणः) सकलविद्यासु वरः (मित्रः) सर्वसुहृत् (अर्यमा) न्यायाधीशः (सीदन्तु) समासताम् (मनुषः) जानन्ति ये सभ्या मर्त्यास्ते। अत्र मनधातार्बाहुलकादौणादिक उसिः प्रत्ययः। (यथा) येन प्रकारेण॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा रिशादसो दुष्टहिंसकाः सभ्या वरुणो मित्रोऽर्यमा मनुषो नो बर्हिः सीदन्ति तथा भवन्तोऽपि सीदन्तु॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभ्यतया सभाचतुराः सभायां वर्त्तेरंस्तथा सर्वैर्मनुष्यैः सदा वर्त्तितव्यमिति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो (यथा) जैसे (रिशादसः) दुष्टों के मारनेवाले (वरुणः) सब विद्याओं में श्रेष्ठ (मित्रः) सबका सुहृद् (अर्यमा) न्यायकारी (मनुषः) सभ्य मनुष्य (नः) हम लोगों के (बर्हिः) सब सुख के देने वाले आसन में बैठते हैं, वैसे आप भी बैठिये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सभ्यतापूर्वक सभाचतुर मनुष्य सभा में वर्त्तें, वैसे ही सब मनुष्यों को सब दिन वर्त्तना चाहिये॥4॥ पुनः स कथं वर्त्तेत इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ पूर्व्य॑ होतर॒स्य नो॒ मन्द॑स्व स॒ख्यस्य॑ च। इ॒मा उ॒ षु श्रु॑धी॒ गिरः॑॥5॥20॥ पूर्व्य॑। हो॒तः॒। अ॒स्य। नः॒। मन्द॑स्व। स॒ख्यस्य॑। च॒। इ॒माः। ऊ॒म् इति॑। सु। श्रु॒धि॒। गिरः॑॥5॥ पदार्थः—(पूर्व्य) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतो मित्रः। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। (अष्टा॰4.4.133) अनेन पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः (होतः) यज्ञसम्पादक (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (नः) अस्माकम् (मन्दस्व) मोदस्व (सख्यस्य) सखीनां कर्मणः (च) पुत्रादीनां समुच्चये (इमाः) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानाः (उ) वितर्के (सु) शोभनार्थे (श्रुधि) शृणु श्रावय वा। अत्रैकपक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक् श्रुशृणुपॄकृवृभ्यः इति हेर्ध्यादेशश्च। (गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः॥5॥ अन्वयः—हे पूर्व्य होतर्यजमान वा त्वं नोऽस्माकमस्य सख्यस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नोऽस्माकमिमा वेदविद्या संस्कृता गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैः सर्वेषु मनुष्येषु मैत्रीं कृत्वा सुशिक्षाविद्ये श्रुत्वा विद्वद्भिर्भवितव्यम्॥5॥

इति विंशो वर्गः॥20॥

पदार्थः—हे (पूर्व्य) पूर्व विद्वानों ने किये हुए मित्र (होतः) यज्ञ करने वा कराने वाले विद्वान् तू (नः) हमारे (अस्य) इस (सख्यस्य) मित्रकर्म की (मन्दस्व) इच्छा कर (उ) निश्चय है कि हम लोगों को (इमाः) ये जो प्रत्यक्ष (गिरः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणी हैं, उनको (सुश्रुधि) अच्छे प्रकार सुन और सुनाया कर॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों में मित्रता रखकर उत्तम शिक्षा और विद्या को पढ़ सुन और विचार के विद्वान् होवें॥5॥ यह बीसवां वर्ग पूरा हुआ॥20॥ पुनर्होत्रादिभिरस्माभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर यज्ञ करने-कराने वाले आदि हम लोगों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यच्चि॒द्धि शश्व॑ता॒ तना॑ दे॒वंदे॑वं॒ यजा॑महे। त्वे इद् धू॑यते ह॒विः॥6॥ यत्। चि॒त्। हि। शश्व॑ता। तना॑। दे॒वम्ऽदे॑वम्। यजा॑महे। त्वे इति॑। इत्। हू॒य॒ते॒। ह॒विः॥6॥ पदार्थः—(यत्) वक्ष्यमाणम् (चित्) अपि (हि) खलु (शश्वता) अनादिना कारणेन (तना) विस्तृतेन (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थं पदार्थं वा। अत्र वचनव्यत्ययो वीप्सा च। (यजामहे) सङ्गच्छामहे (त्वे) तस्मिन् (इत्) एव (हूयते) प्रक्षिप्यते (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥6॥ अन्वयः—हे नरो! यथा वयं शश्वता तना कारणेनेदेव सहितमुत्पन्नं यं देवंदेवं चिदपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविर्हूयते तथा यूयमपि जुहोत॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वा अस्मिन् जगति यावन्तो दृश्यादृश्याः पदार्थाः सन्ति, ते सर्व अनादिना विस्तृतेन कारणेनोत्पद्यन्त इति बोध्यम्॥6॥ पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जैसे हम लोग (यत्) जिससे ये (शश्वता) अनादि (तना) विस्तारयुक्त कारण से (इत्) ही उत्पन्न हैं, इससे उन (देवंदेवम्) विद्वान् विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्यगुण वाले पदार्थ पदार्थ को (चित्) भी (यजामहे) सङ्गत अर्थात् सिद्ध करते हैं (त्वे) उसमें (हि) ही (हविः) हवन करने योग्य वस्तु (हूयते) छोड़ते हैं, वैसे तुम भी किया करो॥6॥ भावार्थः—यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, वे सब अनादि अति विस्तार वाले कारण से उत्पन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये॥6॥ पुनरस्माभिः परस्परं कथं वर्त्तिव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर हम लोगों को परस्पर किस प्रकार वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ प्रि॒यो नो॑ अस्तु वि॒श्पति॒र्होता॑ म॒न्द्रो वरे॑ण्यः। प्रि॒याः स्व॒ग्नयो॑ व॒यम्॥7॥ प्रि॒यः। नः॒। अ॒स्तु। वि॒श्पतिः॑। होता॑। म॒न्द्रः। वरे॑ण्यः। प्रि॒याः। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। व॒यम्॥7॥ पदार्थः—(प्रियः) प्रीतिविषयः (नः) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालकः सभापती राजा। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज॰ (अष्टा॰8.2.36) इति षत्वं न भवति (होता) यज्ञसम्पादकः (मन्द्रः) स्तोतुमर्हो धार्मिकः। अत्र स्फायितञ्चिवञ्चि॰ (उणा॰2.13) इति रक्प्रत्ययः। (वरेण्यः) स्वीकर्तुं योग्यः (प्रियाः) राज्ञः प्रीतिविषयाः। (स्वग्नयः) शोभनः सुखकारकोऽग्निः सम्पादितो यैस्ते (वयम्) प्रजास्था मनुष्याः॥7॥ अन्वयः—हे मानवा! यथा स्वग्नयो वयं राजप्रियाः स्मो यथा होता मन्द्रो वरेण्यो विश्पतिर्नः प्रियोऽस्ति तथाऽन्योऽपि प्रियोऽस्तु॥7॥ भावार्थः—यथा वयं सर्वैः सह सौहार्देन वर्त्तामहेऽस्माभिः सह सर्वे वर्त्तेरंस्तथा यूयमपि वर्त्तध्वम्॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (स्वग्नयः) जिन्होंने अग्नि को सुखकारक किया है, वे हम लोग (प्रियाः) राजा को प्रिय हैं, जैसे (होता) यज्ञ का करने-कराने (मन्द्रः) स्तुति के योग्य धर्मात्मा (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य विद्वान् (विश्पतिः) प्रजा का स्वामी सभाध्यक्ष (नः) हम को प्रिय है, वैसे अन्य भी मनुष्य हों॥7॥ भावार्थः—जैसे हम लोग सब के साथ मित्रभाव से वर्त्तते और ये सब लोग हम लोगों के साथ मित्रभाव और प्रीति से सब लोग वर्त्तते हैं, वैसे आप लोग भी होवें॥7॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स्व॒ग्नयो॒ हि वार्यं॑ दे॒वासो॑ दधि॒रे च॑ नः। स्व॒ग्नयो॑ मनामहे॥8॥ सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। हि। वार्य॑म्। दे॒वासः। द॒धि॒रे। च॒। नः॒। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। म॒ना॒म॒हे॒॥8॥ पदार्थः—(स्वग्नयः) शोभनोऽग्निर्येषां ते मनुष्याः पृथिव्यादयो वा (हि) खलु (वार्यम्) वरितुमर्हं पदार्थसमूहम् (देवासः) दिव्यगुणयुक्ता विद्वांसः। अत्र आज्जसेरसुक् (अष्टा॰7.1.50) इत्यसुगागमः। (दधिरे) हितवन्तः (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (स्वग्नयः) ये शोभनानुष्ठानतेजोयुक्ताः (मनामहे) विजानीयाम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्॥8॥ अन्वयः—यथा स्वग्नयो देवासः पृथिव्यादयो वा नोऽस्मभ्यं वार्यं दधिरे हितवन्तस्तथा वयमपि स्वग्नयो भूत्वैतेभ्यो विद्यासमूहं मनामहे विजानीयाम॥8॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरस्मिन् जगति यावन्तः पदार्था ईश्वरेणोत्पादितास्तेषां विज्ञानाय विद्यां सम्पाद्य कार्यसिद्धिः कार्येति॥8॥ पदार्थः—जैसे (स्वग्नयः) उत्तम अग्नियुक्त (देवासः) दिव्यगुण वाले विद्वान् (च) वा पृथिवी आदि पदार्थ (नः) हम लोगों के लिये (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे हम लोग (स्वग्नयः) अग्नि के उत्तम अनुष्ठान युक्त होकर इन्हों से विद्या समूह को (मनामहे) जानते हैं, वैसे तुम भी जानो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर ने इस संसार में जितने पदार्थ उत्पन्न किये हैं, उनके जानने के लिये विद्याओं का सम्पादन करके कार्यों की सिद्धि करें॥8॥ पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अथा॑ न उ॒भये॑षा॒ममृ॑त॒ मर्त्या॑नाम्। मि॒थः स॑न्तु॒ प्रश॑स्तयः॥9॥ अथ॑। नः॒। उ॒भये॑षाम्। अमृ॑त। मर्त्या॑नाम्। मि॒थः। स॒न्तु॒। प्रश॑स्तयः॥9॥ पदार्थः—(अथ) अनन्तरे (नः) अस्माकम् (उभयेषाम्) पण्डितापण्डितानाम् (अमृत) अविनाशिस्वरूपेश्वर (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (मिथः) अन्योन्यार्थे (सन्तु) भवन्तु (प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्मग्रहणप्रशंसाः॥9॥ अन्वयः—हे अमृत जगदीश्वर! भवत्कृपया यथोत्तमगुणकर्मग्रहणोनाथ नोऽस्माकमुभयेषां मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्त्विति प्रार्थयामः॥9॥ भावार्थः—यावन्मनुष्या रागद्वेषौ विहाय परस्परोपकाराय विद्याशिक्षापुरुषार्थैः प्रशस्तानि कर्माणि न कुर्वन्ति नैव तावत्तेषु सुखानि सम्पत्तुं शक्नुवन्ति। अथेत्यनन्तरं सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वराज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वहितं नित्यं साधनीयमिति॥9॥ पदार्थः—हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर! आप की कृपा से जैसे उत्तम गुण कर्मों के ग्रहण से (अथ) अनन्तर (नः) हम लोग जो कि विद्वान् वा मूर्ख हैं (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में (प्रशस्तयः) प्रशंसा (सन्तु) हों, वैसे सब मनुष्यों की हों, ऐसी प्रार्थना करते हैं॥9॥ भावार्थः—जब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते, तब तक वे सुखों के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये सबको योग्य है कि परमेश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान होकर सब का कल्याण करें॥9॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ विश्वे॑भिरग्ने अ॒ग्निभि॑रि॒मं य॒ज्ञमि॒दं वचः॑। चनो॑ धाः सहसो यहो॥10॥21॥ विश्वे॑भिः। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निऽभिः॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒दम्। वचः॑। चनः॑। धाः॒। स॒ह॒सः॒। य॒हो॒ इति॑॥10॥ पदार्थः—(विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐसादेशाभावः। (अग्ने) विद्यासुशिक्षायुक्तविद्वन् (अग्निभिः) विद्युत्सूर्यप्रसिद्धैः कार्यरूपैस्त्रिभिः (इमम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (इदम्) अस्माभिः प्रयुक्तम् (वचः) विद्यायुक्तं स्तुतिसम्पादकं वचनम् (चनः) भक्ष्यभोज्यलेह्यचूष्याख्यमन्नम्। अत्र चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा॰4.207) अनेनासुन् प्रत्ययो नुडागमश्च। (धाः) हितवान्। अत्राडभावश्च। (सहसः) सहते सहो वायुस्तस्य बलस्वरूपस्य (यहो) क्रिया-कौशलयुक्तस्यापत्यं तत्सम्बुद्धौ। यहुरित्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.2)॥10॥ अन्वयः—हे अग्ने! यहो त्वं यथा दयालुर्विद्वान् सर्वसुखार्थं सहसो बलाद् विष्वेभिरग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचश्चनश्च धा हितवांस्तथा त्वमपि सततं धेहि॥10॥ भावार्थः—अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं स्वसन्तानानि नित्यं योज्यानि यः कारणरूपोऽग्निर्नित्योऽस्ति तस्मादीश्वररचनया विद्युदादिरूपाणि कार्य्याणि जायन्ते पुनस्तेभ्यो जाठरादिरूपाण्यनेकानि च तान् सर्वानग्नीन् कारणरूप एव धरति, यावन्त्यग्निकार्य्याणि सन्ति तावन्ति वायुनिमित्तेनैव जायन्ते, सर्वं जगत् तत्रस्थानि वस्तूनि च धरन्ति नैवाग्निवायुभ्यां विना कदाचित्कस्यापि वस्तुनो धारणं सम्भवतीति॥10॥ पूर्वसूक्तोक्तेन वरुणार्थेनात्रोक्तस्याग्नेरनुषङ्गित्वात् पूर्वसूक्तार्थेनास्य षड्विंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयध्याय एकविंशो वर्गः॥21॥

प्रथममण्डले षष्ठेऽनुवाके षड्विंशं सूक्तं च समाप्तम्॥26॥ पदार्थः—हे (यहो) शिल्पकर्म में चतुर के अपत्य कार्य्यरूप अग्नि के उत्पन्न करने वाले (अग्ने) विद्वान् जैसे आप सब सुखों के लिये (सहसः) अपने बल स्वरूप से (विश्वेभिः) सब (अग्निभिः) विद्युत् सूर्य्य और प्रसिद्ध कार्य्यरूप अग्नियों से (इमम्) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (यज्ञम्) संसार के व्यवहाररूप यज्ञ और (इदम्) हम लोगों ने कहा हुआ (वचः) विद्यायुक्त प्रशंसा का वाक्य (चनः) और खाने स्वाद लेने चाटने और चूसने योग्य पदार्थों को (धाः) धारण कर चुका हो, वैसे तू भी सदा धारण कर॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि अपने सन्तानों को निम्नलिखित ज्ञान कार्य्य में युक्त करें। जो कारणरूप नित्य अग्नि है, उससे ईश्वर की रचना में बिजुली आदि कार्य्यरूप पदार्थ सिद्ध होते हैं, फिर उनसे जो सब जीवों के अन्न को पचाने वाले अग्नि के समान अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उन सब अग्नियों को कारण रूप ही अग्नि धारण करता है, जितने अग्नि के कार्य हैं, वे वायु के निमित्त ही प्रसिद्ध होते हैं, उन सबको पदार्थ धारण करते हैं, अग्नि और वायु के विना कभी किसी पदार्थ का धारण नहीं हो सकता है इत्यादि॥10॥ पहिले सूक्त में वरुण के अर्थ के अनुषङ्गी अर्थात् सहायक अग्नि शब्द के इस सूक्त में प्रतिपादन करने से पिछले सूक्त के अर्थ के साथ इस छब्बीसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह पहिले अष्टक में दूसरे अध्याय में इक्कीसवां वर्ग तथा पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में छब्बीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥26॥

अथ त्रयोदशर्चस्य सप्तविंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। 1-12 अग्निः। 13 विश्वेदेवा देवताः। 1-12 गायत्री। 13 त्रिष्टुप् छन्दः। 1-12 षड्जः। 13 धैवतः स्वरश्च॥ तत्रादिमेनग्निरुपदिश्यते॥ अब सत्ताईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में अग्नि का प्रकाश किया है॥ अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑वन्तं व॒न्दध्या॑ आ॒Åग्न नमो॑भिः। स॒म्राज॑न्तमध्व॒राणा॑म्॥1॥ अश्व॑म्। न। त्वा॒। वार॑ऽवन्तम्। व॒न्दध्यै॑। अ॒ग्निम्। नमः॑ऽभिः। स॒म्ऽराज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्॥1॥ पदार्थः—(अश्वम्) वेगवन्तं वाजिनम् (न) (त्वा) त्वां तं वा (वारवन्तम्) वालवन्तम् (वन्दध्यै) वन्दितुम्। अत्र तुमर्थे सेसे॰ इति कध्यै प्रत्ययः। (अग्निम्) विद्वांसं वा भौतिकम् (नमोभिः) नमस्कारैरन्नादिभिः सह (सम्राजन्तम्) सम्यक् प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) राज्यपालनाग्निहोत्रादिशिल्पान्तानां यज्ञानां मध्ये (अश्वम्) मार्गे व्यापिनम् (न) इव (त्वा) त्वाम् (वारवन्तम्)। एतद्यास्कमुनिरेवं व्याचष्टे। अश्वमिव त्वा वालवन्तं वाला दंशवारणार्था भवन्ति दंशो दशतेः। (निरु॰1.20)॥1॥ अन्वयः—वयं नमोभिर्वारवन्तमश्वं न इवाध्वराणां सम्राजन्तं त्वामग्निं वन्दध्यै वन्दितुं प्रवृत्ताः सेवामहे॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चित्स्वविद्यादिगुणैः स्वराज्ये राजते तथैव परमेश्वरः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः सर्वत्र प्रकाशते चेति॥1॥ पदार्थः—हम लोग (नमोभिः) नमस्कार, स्तुति और अन्न आदि पदार्थों के साथ (वारवन्तम्) उत्तम केशवाले (अश्वम्) वेगवान् घोड़े के (न) समान। (अध्वराणाम्) राज्य के पालन अग्निहोत्र से लेकर शिल्प पर्य्यन्त यज्ञों में (सम्राजन्तम्) प्रकाशयुक्त (त्वा) आप विद्वान् को (वन्दध्यै) स्तुति करने को प्रवृत्त हुए भये सेवा करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् स्वविद्या के प्रकाश आदि गुणों से अपने राज्य में अविद्या अन्धकार को निवारण कर प्रकाशित होते हैं, वैसे परमेश्वर सर्वज्ञपन आदि से प्रकाशमान है॥1॥ अथाऽपत्यगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब अगले मन्त्र में सन्तान के गुण प्रकाशित किये हैं॥ स घा॑ नः सू॒नुः शव॑सा पृ॒थुप्र॑गामा सु॒शेवः॑। मी॒ढ्वाँ अ॒स्माकं॑ बभूयात्॥2॥ सः। घ॒। नः॒। सू॒नुः। शव॑सा। पृ॒थुऽप्र॑गामा। सु॒ऽशेवः॑। मी॒ढ्वान्। अ॒स्माक॑म्। ब॒भू॒या॒त्॥2॥ पदार्थः—(सः) वक्ष्यमाणः (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु॰ (अष्टा॰6.3.133) अनेन दीर्घः। (नः) अस्माकम् (सूनुः) कार्यकारी सन्तानः। सूनुरित्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.2) (शवसा) बलादिगुणेन सह (पृथुप्रगामा) पृथुभिः विस्तृतैर्यानैः प्रकृष्टो गामो गमनं यस्य सः। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति विभक्तेराकारादेशः। (सुशेवः) शोभनं शेवं सुखं यस्मात् सः। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) अत्र। इण्शीभ्यां वन्। (उणा॰1.150) अनेन शीङ्धातोर्वन् प्रत्ययः। (मीढ्वान्) वृष्टिद्वारा सेचकः। अत्र दाश्वान् साह्वान्॰ (अष्टा॰6.1.12) इति निपाताद् द्वित्वं न। (अस्माकम्) पुरुषार्थिनां सुक्रियया (बभूयात्) भवेत्। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नियमात् लिटः स्थाने लिङ् तद्वत्कार्यं च। अत्र सायणाचार्य्येण लिटः स्थाने लिङित्युच्चार्य्य तिङां तिङो भवन्तीत्यशुद्धं व्याख्यातम्॥2॥ अन्वयः—यः सूनुः सुपुत्रः शवसा पृथुप्रगामा मीढ्वानस्ति, स नोऽस्माकं पुरुषार्थिना घ एव कार्य्यकारी बभूयात् भवेत्॥2॥ भावार्थः—यथा विद्यासुशिक्षया धार्मिका विद्वांसः पुत्रा अनेकान्यनुकूलानि कर्माणि संसेव्य पित्रादीनां सुखानि नित्यं सम्पादयन्ति, तथैव बहुगुणयुक्तोऽयमग्निर्विद्यानुकूलरीत्या सम्प्रयोजितः सन्नस्माकं सर्वाणि सुखानि साधयति॥2॥ पदार्थः—जो (सूनुः) धर्मात्मा पुत्र (शवसा) अपने पुरुषार्थ बल आदि गुण से (पृथुप्रगामा) अत्यन्त विस्तारयुक्त विमानादि रथों से उत्तम गमन करने तथा (मीढ्वान्) योग्य सुख का सींचने वाला है, वह (नः) हम लोगों की (घ) ही उत्तम क्रिया से धर्म और शिल्प कार्यों को करने वाला (बभूयात्) हो। इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने लिट् के स्थान में लिङ् लकार कहकर तिङ् को तिङ् होना यह अशुद्धता से व्याख्यान किया है, क्योंकि (तिङां तिङो भवन्तीति वक्तव्यम्) इस वार्तिक से तिङों का व्यत्यय होता है, कुछ लकारों का व्यत्यय नहीं होता है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या सुशिक्षा से धार्म्मिक सुशील पुत्र अनेक अपने कहे के अनुकूल कामों को करके पिता माता आदि के सुखों को नित्य सिद्ध करता है, वैसे ही बहुत गुण वाला यह भौतिक अग्नि विद्या के अनुकूल रीति से सम्प्रयुक्त किया हुआ हम लोगों के सब सुखों को सिद्ध करता है॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स नो॑ दू॒राच्चा॒साच्च॒ नि मर्त्या॑दघा॒योः। पा॒हि सद॒मिद् वि॒श्वायुः॑॥3॥ सः। नः॒। दू॒रात्। च॒। आ॒सात्। च॒। नि। मर्त्या॑त्। अ॒घ॒ऽयोः। पा॒हि। सद॑म्। इत्। वि॒श्वऽआ॑युः॥3॥ पदार्थः—(सः) जगदीश्वरो विद्वान् वा (नः) अस्मानस्माकं वा (दूरात्) विप्रकृष्टात् (च) समुच्चये (आसात्) समीपात् (च) पुनरर्थे (नि) नितराम् (मर्त्यात्) मनुष्यात् (अघायोः) आत्मनोऽघमिच्छतः शत्रोः (पाहि) रक्ष (सदम्) सीदन्ति सुखानि यस्मिंस्तं शिल्पव्यवहारं देहादिकं वा (इत्) एव (विश्वायुः) विश्वं सम्पूर्णमायुर्यस्मात् सः॥3॥ अन्वयः—स विश्वायुरघायोः शत्रोर्मर्त्त्याद् दूरादासाच्च नोऽस्मानस्माकं सदं च निपाहि सततं रक्षति॥3॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरुपासित ईश्वरः संसेवितो विद्वान् वा युद्धे शत्रूणां सकाशाद् रक्षको रक्षाहेतुर्भूत्वा शरीरादिकं विमानादिकं च संरक्ष्यास्मभ्यं सर्वमायुः सम्पादयति॥3॥ पदार्थः—(विश्वायुः) जिससे कि समस्त आयु सुख से प्राप्त होती है (सः) वह जगदीश्वर वा भौतिक अग्नि (अघायोः) जो पाप करना चाहते हैं, उन (मर्त्त्यात्) शत्रुजनों से (दूरात्) दूर वा (आसात्) समीप से (नः) हम लोगों की वा हम लोगों के (सदः) सब सुख रहने वाले शिल्पव्यवहार वा देहादिकों की (नि) (पाहि) निरन्तर रक्षा करता है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों से उपासना किया हुआ ईश्वर वा सम्यक् सेवित विद्वान् युद्ध में शत्रुओं से रक्षा करने वाला वा रक्षा का हेतु होकर शरीर आदि वा विमानादि की रक्षा करके हम लोगों के लिये सब आयु देता है॥3॥ अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर का प्रकाश किया है॥ इ॒ममू॒ षु त्वम॒स्माकं॑ स॒निं गा॑य॒त्रं नव्यां॑सम्। अग्ने॑ दे॒वेषु॒ प्र वो॑चः॥4॥ इ॒मम्। ऊ॒म् इति॑। सु। त्वम्। अ॒स्माक॑म्। स॒निम्। गा॒य॒त्रम्। नव्यां॑सम्। अग्ने॑। दे॒वेषु॑। प्र। वो॒चः॒॥4॥ पदार्थः—(इमम्) वक्ष्यमाणम् (ऊ) वितर्के अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सु) शोभने (त्वम्) सर्वमङ्गलप्रदातेश्वरः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (सनिम्) सनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र ‘सन’ धातोः। खनिकृष्यज्यसिवसिवनिसनि॰ (उणा॰4.145) अनेनाऽधिकरण ‘इः’ प्रत्ययः। (गायत्रम्) गायत्रीप्रगाथा येषु चतुर्षु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम् (नव्यांसम्) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात्तम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनेकारलोपश्च। (अग्ने) अनन्तविद्यामय जगदीश्वर (देवेषु) सुष्ट्यादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वोचः) प्रोक्तवान्। अत्र ‘वच’ धातोर्वर्त्तमाने लुङडभावश्च॥4॥ अन्वयः—हे अग्ने! त्वं यथा देवेषु नव्यांसं गायत्रं सुसनिं प्रवोचस्तथेममु इति वितर्केऽस्माकमात्मसु प्रवग्धि॥4॥ भावार्थः—हे जगदीश्वर! भवान् यथा ब्रह्मादीनां महर्षीणां धार्मिकाणां विदुषामात्मसु सत्यं बोधं प्रकाश्य परमं सुखं दत्तवान्, तथैवास्माकमात्मसु तादृशमेव प्रकाशय यतो वयं विद्वांसो भूत्वा श्रेष्ठानि धर्म्मकार्य्याणि सदैव कुर्य्यामेति॥4॥ पदार्थः—हे (अग्ने) अनन्त विद्यामय जगदीश्वर (त्वम्) सब विद्याओं का उपदेश करने और सब मङ्गलों के देने वाले आप जैसे सृष्टि की आदि में (देवेषु) पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अङ्गिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में (नव्यांसम्) नवीन-नवीन बोध कराने वाला (गायत्रम्) गायत्री आदि छन्दों से युक्त (सुसनिम्) जिन में सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं, उन चारों वेदों का (प्रवोचः) उपदेश किया और अगले कल्प-कल्पादि में फिर भी करोगे, वैसे उसको (उ) विविध प्रकार से (अस्माकम्) हमारे आत्माओं में (सु) अच्छे प्रकार कीजिये॥4॥ भावार्थः—हे जगदीश्वर! आप ने जैसे ब्रह्मा आदि महर्षि धार्मिक विद्वानों के आत्माओं में वेद द्वारा सत्य बोध का प्रकाश कर उनको उत्तम सुख दिया वैसे ही हम लोगों के आत्माओं में बोध प्रकाशित कीजिये, जिससे हम लोग विद्वान् होकर उत्तम-उत्तम धर्मकार्यों का सदा सेवन करते रहें॥ पुनर्मनुष्यान् प्रति विदुषा कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर मनुष्यों के प्रति विद्वानों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ नो॑ भज पर॒मेष्वा वाजे॑षु मध्य॒मेषु॑। शिक्षा॒ वस्वो॒ अन्त॑मस्य॥5॥22॥ आ। नः॒। भ॒ज॒। प॒र॒मेषु॑। आ। वाजे॑षु। म॒ध्य॒मेषु॑। शिक्ष॑। वस्वः॑। अन्त॑मस्य॥5॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (भज) सेवस्व (परमेषु) उत्कृष्टेषु (आ) अभ्यर्थे (वाजेषु) सुखप्राप्तिमयेषु युद्धेषूत्तमेष्वन्नादिषु वा (मध्यमेषु) मध्यमसुखविशिष्टेषु (शिक्ष) सर्वा विद्या उपदिशेः। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वस्वः) सुखपूर्वकं वसन्ति यैस्तानि वसूनि द्रव्याणि (अन्तमस्य) सर्वेषां दुःखानामन्तं मिमीते येन युद्धेन तस्य मध्ये॥5॥ अन्वयः—हे विद्वंस्त्वं परमेषु मध्यमेषु वाजेषु वान्तमस्य मध्ये नोऽस्मान् सर्वा विद्या आशिक्षैवं नोऽस्मान् वस्वो वसून्याभज समन्तात्सेवस्व॥5॥ भावार्थः—एवं यैर्धामिकैः पुरुषार्थिभिर्मनुष्यैः सेवितः सन् विद्वान् सर्वा विद्याः प्राप्य तान् सुखिनः कुर्य्यात्। अस्मिन् जगत्युत्तममध्यमनिकृष्टभेदेन त्रिविधा भोगालोका मनुष्याश्च सन्त्येतेषु यथाबुद्धि जनान् विद्यां दद्यात्॥5॥ पदार्थः—हे विद्वान् मनुष्य (परमेषु) उत्तम (मध्यमेषु) मध्यम आनन्द के देने वाले वा (वाजेषु) सुख प्राप्तिमय युद्धों वा उत्तम अन्नादि में (अन्तमस्य) जिस प्रत्यक्ष सुख मिलने वाले संग्राम के बीच में (नः) हम लोगों को (आशिक्ष) सब विद्याओं की शिक्षा कीजिये इसी प्रकार हम लोगों के (वस्वः) धन आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों का (आभज) अच्छे प्रकार स्वीकार कीजिये॥5॥ भावार्थः—इस प्रकार जिन धार्मिक पुरुषार्थी पुरुषों से सेवन किया हुआ विद्वान् सब विद्याओं को प्राप्त कराके उनको सुख युक्त करे तथा इस जगत् में उत्तम, मध्यम और निकृष्ट भेद से तीन प्रकार के भोगलोक और मनुष्य हैं, इन को यथा बुद्धि विद्या देता रहे॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिन्धो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ। स॒द्यो दा॒शुषे॑ क्ष॒र॒सि॒॥6॥ वि॒ऽभ॒क्ता। अ॒सि॒। चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो। सिन्धोः॑। ऊ॒र्म्मौ। उ॒पा॒के। आ। स॒द्यः। दा॒शुषे॑। क्ष॒र॒सि॒॥6॥ पदार्थः—(विभक्ता) विविधानां पदार्थानां सम्भागकर्त्ता (असि) वर्त्तसे (चित्रभानो) यथा चित्रा अद्भुता भानवो विज्ञानादिदीप्तयो यस्य विदुषस्तत्सम्बुद्धौ तथा (सिन्धोः) समुद्रस्य (ऊर्मौ) तरङ्ग इव (उपाके) समीपे (आ) सर्वतः (सद्यः) शीघ्रम् (दाशुषे) विद्याग्रहणाऽनुष्ठानकृतवते मनुष्याय (क्षरसि) वर्षसि॥6॥ अन्वयः—यथा हे चित्रभानो विविधविद्यायुक्त विद्वँस्त्वं सिन्धोरूर्मौ जलकणविभाग इव सर्वेषां पदार्थानां विद्यानां विभक्तासि, दाशुष उपाके सत्योपदेशेन बोधान् सद्य आक्षरसि समन्ताद्वर्षसि तथा त्वं भाग्यशाली विद्वानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्य जलकणाः पृथक् भूत्वा आकाशं प्राप्यैकीभूत्वा अभिवर्षन्ति यथा विद्वान् विद्याभिः सर्वान् पदार्थान् विभज्यैतान् पुनः पुनर्मनुष्यात्मसु प्रकाशयेत् तथाऽस्माभिः कथं नानुष्ठातव्यम्॥6॥ पदार्थः—जैसे हे (चित्रभानो) विविधविद्यायुक्त विद्वान्! मनुष्य आप (सिन्धोः) समुद्र की (ऊर्मौ) तरंगों में जल के बिन्दु कणों के समान सब पदार्थ विद्या के (विभक्ता) अलग-अलग करने वाले (असि) हैं और (दाशुषे) विद्या का ग्रहण वा अनुष्ठान करने वाले मनुष्य के लिये (उपाके) समीप सत्य बोध उपदेश को (सद्यः) शीघ्र (आक्षरसि) अच्छे प्रकार वर्षाते हो, वैसे भाग्यशाली विद्वान् आप हम सब लोगों के सत्कार के योग्य हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के जलकण अलग हुए आकाश को प्राप्त होकर वहाँ इकट्ठे होके वर्षते हैं, वैसे ही विद्वान् अपनी विद्या से सब पदार्थों का विभाग करके उनका बार-बार मनुष्यों के आत्माओं में प्रवेश किया करते हैं॥6॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यम॑ग्ने पृ॒त्सु मर्त्य॒मवा॒ वाजे॑षु॒ यं जु॒नाः। स यन्ता॒ शश्व॑ती॒रिषः॑॥7॥ यम्। अ॒ग्ने॒। पृ॒ऽत्सु। मर्त्य॑म्। अवाः॑। वाजे॑षु। यम्। जु॒नाः। सः। यन्ता॑। शश्व॑तीः। इषः॑॥7॥ पदार्थः—(यम्) धार्मिकं शूरवीरम् (अग्ने) स्वबलतेजसा प्रकाशमान (पृत्सु) पृतनासु। पदादिषु मांस्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰6.1.63) इति वार्त्तिकेन पृतनाशब्दस्य पृदादेशः। (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अवाः) रक्षेः। अयं लेट्प्रयोगः। (वाजेषु) संग्रामेषु (यम्) योद्धारम् (जुनाः) प्रेरयेः। अयं ‘जुन गतौ’ इत्यस्य लेट्प्रयोगः। (सः) मनुष्यः (यन्ता) शत्रूणां निग्रहीता (शश्वतीः) अनादिस्वरूपाः (इषः) इष्यन्ते यास्ताः प्रजाः। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्॥7॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! त्वं यं मर्त्यं पृत्स्ववा रक्षेर्यं च वाजेषु जुनाः प्रेरयेर्य इमाः शश्वतीः प्रजाः सततमवरक्षेरस्मात् कारणात् स भवानस्माकं सदा यन्ता भवत्विति वयं प्रतिजानीमः॥7॥ भावार्थः—यथा यो जगदीश्वर एवानादिकालाद् वर्तमानायाः प्रजाया रक्षारचनाव्यवस्थाकारकोऽस्ति, तथा यो मनुष्य एतं सर्वव्यापिनं सर्वतोऽभिरक्षकं परमेश्वरमुपास्यैवं विदधाति तस्य नैव कदाचित्पीडापराजयौ भवत इति॥7॥ पदार्थः—हे (अग्ने) सेनाध्यक्ष! आप (यम्) जिस युद्ध करने वाले (मर्त्यम्) मनुष्य को (पृत्सु) सेनाओं के बीच (अवाः) रक्षा करें (यम्) जिस धार्मिक शूरवीर को (वाजेषु) संग्रामों में (जुनाः) प्रेरें जो इस (शश्वतीः) अनादि काल से वर्त्तमान (इषः) प्रजा की निरन्तर रक्षा करें, इस कारण से (सः) सो आप हमारा (यन्ता) नियमों में चलाने वाला नायक हूजिये, इस प्रकार हम प्रतिज्ञा करते हैं॥7॥ भावार्थः—जैसे जगदीश्वर जो अनादि काल से वर्त्तमान प्रजा की रक्षा, रचना और व्यवस्था करने वाला है, वैसे जो मनुष्य इस सर्वव्यापी सब प्रकार की रक्षा करने वाले परमेश्वर की उपासना कर यथोक्त काम करता है, उसको न कभी पीड़ा वा पराजय होता है॥7॥ पुनः सः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ नकि॑रस्य सहन्त्य पर्ये॒ता कय॑स्य चित्। वाजो॑ अस्ति श्र॒वाय्यः॑॥8॥ नकि॑ः। अ॒स्य॒। स॒ह॒न्त्य॒। प॒रि॒ऽए॒ता। कय॑स्य। चि॒त्। वाजः॑। अ॒स्ति॒। श्र॒वाय्यः॑॥8॥ पदार्थः—(नकिः) धर्ममर्यादा या नाक्रमिता। नकिरिति सर्वसमानीयेषु पठितम्। (निघं॰3.12) अनेन क्रमणनिषेधार्थो गृह्यते (अस्य) सेनाध्यक्षस्य (सहन्त्य) सहनशील विद्वन् (पर्येता) सर्वतोऽनुग्रहीता (कयस्य) चिकेति जानाति योद्धुं शत्रून् पराजेतुं यः स कयस्तस्य। अत्र सायणाचार्येण यकारोपजनश्छान्दस इति भ्रमादेवोक्तम्। (चित्) एव (वाजः) संग्रामः (अस्ति) भवति (श्रवाय्यः) श्रोतुमर्हः। अत्र श्रुदक्षिस्पृहि॰ (उणा॰3.94) अनेनाय्य प्रत्ययः॥8॥ अन्वयः—हे सहन्त्य सहनशील विद्वन्नकिः पर्येता त्वं यस्यास्य कयस्य धर्मात्मनो वीरस्य श्रवाय्यो वाजोऽस्ति, तस्मै सर्वमभीष्टं पदार्थं दद्या इति नियोज्यते भवानस्माभिः॥8॥ भावार्थः—यथा नैव कश्चिद् विद्वानप्यनन्तशुभगुणस्याप्रमेयस्याक्रमितव्यस्य परमेश्वरस्य क्रमणं परिमाणं कर्त्तुमर्हति यस्य सर्वं विज्ञानं निर्भ्रान्तमस्ति, तथैव येनैवं प्रवृत्त्यते स एव सर्वैर्मनुष्यै राजकार्य्याधिपतिः स्थापनीयः॥8॥ पदार्थः—हे (सहन्त्य) सहनशील विद्वान्! (नकिः) जो धर्म की मर्यादा उल्लङ्घन न करने और (पर्येता) सब पर पूर्ण कृपा करने वाले आप (यस्य) जिस (कयस्य) युद्ध करने और शत्रुओं को जीतने वाले शूरवीर पुरुष का (श्रवाय्यः) श्रवण करने योग्य (वाजः) युद्ध करना (अस्ति) होता है, उसको सब उत्तम पदार्थ सदा दिया कीजिये, इस प्रकार आप का नियोग हम लोग करते हैं॥8॥ भावार्थः—जैसे कोई भी जीव जिस अनन्त शुभ गुणयुक्त परिमाण सहित सब से उत्तम परमेश्वर के गुणों की न्यूनता वा उसका परिमाण करने को योग्य नहीं हो सकता, जिसका सब ज्ञान निर्भ्रम है, वैसे जो मनुष्य वर्त्तता है, वही सब राजकार्यो का स्वामी नियत करना चाहिये॥8॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स वाजं॑ वि॒श्वच॑र्षणि॒रर्व॑द्भिरस्तु॒ तरु॑ता। विप्रे॑भिरस्तु॒ सनि॑ता॥9॥ सः। वाज॑म्। वि॒श्वऽच॑र्षणिः। अर्व॑त्ऽभिः। अ॒स्तु॒। तरु॑ता। विप्रे॑भिः। अ॒स्तु॒। सनि॑ता॥9॥ पदार्थः—(सः) सेनाध्यक्षः (वाजम्) संग्रामम् (विश्वचर्षणिः) विश्वे सर्वे चर्षणयो मनुष्या रक्ष्या यस्य सः। अत्र कृषेरादेश्च चः। (उणा॰2.100) अनेनानि प्रत्यय आदेश्चकारादेशश्च। (अर्वद्भिः) सेनास्थैरश्वादिभिः सेनाङ्गैः। अर्वा इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (अस्तु) भवतु (तरुता) तर्त्ता तारयिता पारंगमयिता। ग्रसितस्कभितस्तभि॰ (अष्टा॰7.2.34) अनेनायं निपातितः। (विप्रेभिः) मेधाविभिः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (अस्तु) भवतु (सनिता) ज्ञानस्य सुखस्य विभक्ता॥9॥ अन्वयः—यो विश्वचर्षणिस्तरुता सेनाध्यक्षोऽस्माकं सेनायां विप्रेभिर्नरैरर्वद्भिरश्वादिभिः सहितः सन्नो वाजं विजयप्रदः शत्रूणां पराजयकृदस्तु भवेत्, स एवास्माकं मध्ये सेनापतिरस्तु॥9॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः सर्वदुःखेभ्यः पारं गमयिता युद्धे विजयप्रापको युद्धकुशलो धार्मिको विद्वान् भवेत्, स एव नः सेनास्वामी भवतु॥9॥ पदार्थः—जो (विश्वचर्षणिः) जिसके सब मनुष्य रक्षा के योग्य (तरुता) शत्रुनिमित्तक दुःखों के पार पहुंचने-पहुंचाने वाला (सनिता) ज्ञान और सुख का विभाग करके देनेहारा सेनापति हमारी सेना में (विप्रेभिः) बुद्धिचातुर्ययुक्त पुरुष (अर्वद्भिः) घोड़े आदि से सहित हो हमको (वाजम्) युद्ध में विजय की प्राप्ति और शत्रुओं का पराजय करने हारा सेनापति है, वही हमारे बीच में सेना स्वामी (अस्तु) हो॥9॥ भावार्थः—जो मनुष्यों को सब दुःखरूपी सागर से पार करने और युद्ध में विजय देने वाला विद्वान् है, वही अच्छे विद्वानों के समागम से सेना का अधिपति होने योग्य है॥9॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ जरा॑बोध॒ तद्वि॑विड्ढि वि॒शेवि॑शे य॒ज्ञिया॑य। स्तोमं॑ रु॒द्राय॒ दृशी॑कम्॥10॥23॥ जरा॑ऽबोध। तत्। वि॒वि॒ड्ढि॒। वि॒शेऽवि॑शे। य॒ज्ञिया॑य। स्तोम॑म्। रु॒द्राय॑। दृशी॑कम्॥10॥ पदार्थः—(जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ (तत्) तस्मात् (विविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात्। निजां त्रयाणां गुणः॰ (अष्टा॰7.4.75) अनेनाभ्यासस्य गुणनिषेधः । (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै (यज्ञियाय) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै। अत्र तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰5.1.71) अनेन वार्त्तिकेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्ययः (स्तोमम्) स्तुतिसमूहम् (रुद्राय) रोदकाय (दृशीकम्) द्रष्टुमर्हम्। अत्र बाहुलकादौणादिक ईकन् प्रत्ययः। किच्च। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणस्तां बोधय तया बोधयितरिति वा। तद्विविड्ढि तत्कुरु। मनुष्यस्य मनुष्यस्य वा यज्ञियाय स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम्। (निरु॰10.8)॥10॥ अन्वयः—हे जराबोध सेनाधिपते! त्वं यस्माद् विशेविशे यज्ञियाय रुद्राय दृशीकं स्तोमं विविड्ढि तत्तस्मान्मानार्होऽसि॥10॥ भावार्थः—अत्र पूर्णोपमालङ्कारः। नैव धनुर्वेदविदो गुणश्रवणेन विनाऽस्य बोधः सम्भवति, यः प्रजासुखाय तीक्ष्णस्वभावान् शत्रुबलहृद्भृत्यान् सुशिक्ष्य रक्षति, स एव प्रजापालो भवितुमर्हति॥10॥ पदार्थः—हे (जराबोध) गुण कीर्त्तन से प्रकाशित होने वाले सेनापति आप जिससे (विशेविशे) प्राणी-प्राणी के सुख के लिये (यज्ञियाय) यज्ञकर्म के योग्य (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने वाले के लिये सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाले (दृशीकम्) देखने योग्य (स्तोमम्) स्तुतिसमूह गुणकीर्त्तन को (विविड्ढि) व्याप्त करते हो, (तत्) इससे माननीय हो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पूर्णोपमालङ्कार है। युद्धविद्या के जानने वाले के गुणों को श्रवण करे विना इस का ज्ञान नहीं होता और जो प्रजा के सुख के लिये अतितीक्ष्ण स्वभाव वाले शत्रुओं के बल के नाश करनेहारे भृत्त्यों को अच्छी शिक्षा दे कर रखता है, वही प्रजापालन में योग्य होता है॥10॥ पुनर्भौतिकगुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं॥ स नो॑ म॒हाँ अ॑निमा॒नो धू॒मके॑तुः पुरुश्च॒न्द्रः। धि॒ये वाजा॑य हिन्वतु॥11॥ सः। नः॒। म॒हान्। अ॒नि॒ऽमा॒नः। धू॒मऽके॑तुः। पु॒रुऽच॒न्द्रः। धि॒ये। वाजा॑य। हि॒न्व॒तु॒॥11॥ पदार्थः—(सः) भौतिकोऽग्निः (नः) अस्मान् (महान्) महागुणविशिष्ट (अनिमानः) अविद्यमानं निमानं परिमाणं यस्य सः (धूमकेतुः) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्य सः (पुरुश्चन्द्रः) पुरूणां बहूनां चन्द्र आह्लादकः। अत्र ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे॰ (अष्टा॰6.1.151) अनेन सुडागमः। (धिये) कर्मणे (वाजाय) वेगाय (हिन्वतु) प्रीणयतु। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थः॥11॥ अन्वयः—मनुष्यैर्यतोऽयं धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रोऽनिमानो महानग्निरस्ति, स धिये वाजाय नोऽस्मान् हिन्वतु प्रीणयेत्, तस्मादेतस्य साधनं कार्यम्॥11॥ भावार्थः—यः सर्वथोत्कृष्टः केनापि परीच्छेत्तुमनर्हः सर्वाधारः सर्वानन्दप्रदः विज्ञानधनो जगदीश्वरोऽस्ति, येन महागुणयुक्तोऽयमग्निर्निर्मितः स एव शुभे कर्मणि शुद्धे विज्ञाने अस्मान् प्रेरयत्विति॥11॥ पदार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि जो (धूमकेतुः) जिसका धूम ध्वजा के समान (पुरुश्चन्द्रः) बहुतों को आनन्द देने (अनिमानः) जिसका निमान अर्थात् परिमाण नहीं है (महान्) अत्यन्त गुणयुक्त भौतिक अग्नि है (सः) वह (धिये) उत्तम कर्म वा (वाजाय) विज्ञानरूप वेग के लिये (नः) हम लोगों को (हिन्वतु) तृप्त करता है॥11॥ भावार्थः—जो सब प्रकार श्रेष्ठ किसी के छिन्न-भिन्न करने में नहीं आता, सब का आधार, सब आनन्द का देने वा विज्ञानसमूह परमेश्वर है और जिसने महागुण युक्त भौतिक अग्नि रची है, वही उत्तम कर्म वा शुद्ध विज्ञान में हम लोगों को सदा प्रेरणा करे॥11॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स रे॒वाँ इ॑व वि॒श्पति॒र्दैव्यः॑ के॒तुः शृ॑णोतु नः। उ॒क्थैर॒ग्निर्बृ॒हद्भा॑नुः॥12॥ सः। रे॒वान्ऽइ॑व। वि॒श्पतिः॑। दैव्यः॑। के॒तुः। शृ॒णो॒तु॒। नः॒। उ॒क्थैः। अ॒ग्निः। बृ॒हत्ऽभा॑नुः॥12॥ पदार्थः—(सः) श्रीमान् (रेवान्इव) महाधनाढ्य इव। अत्र रैशब्दान्मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा॰वा॰6.1.37) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणं छन्दसीरः (अष्टा॰8.2.15) इति वत्वम्। (विश्पतिः) विशां प्रजानां पतिः पालनहेतुः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति व्रश्चभ्रस्जसृज॰ (अष्टा॰8.2.36) अनेन षकारादेशो न। (दैव्यः) देवेषु कुशलः। अत्र देवाद्यञञौ। (अष्टा॰वा॰4.1.85) अनेन प्राग्दीव्यतीयकुशलेऽर्थे देवशब्दाद्यञ् प्रत्ययः। (केतुः) रोगदूरकरणे हेतुः (शृणोतु) श्रावयतु वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (नः) अस्मभ्यम् (उक्थैः) वेदस्तोत्रैः सुखप्रापकः (बृहद्भानुः) बृहन्तो भानवः प्रकाशा यस्य सः॥12॥ अन्वयः—हे विद्वँस्त्वं यो दैव्यः केतुर्विश्पतिर्बृहद्भानू रेवान् इवाग्निरस्ति तमुक्थैः शृणोतु नोऽस्मभ्यं श्रावयतु॥12॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा पूर्णधनो विद्वान् मनुष्यो धनभोगैः सर्वान् मनुष्यान् सुखयति, सर्वेषां वार्त्ताः प्रीत्या शृणोति, तथैव जगदीश्वरोऽपि प्रीत्या सम्पादितां स्तुतिं श्रुत्वा तान् सदैव सुखयतीति॥12॥ पदार्थः—हे विद्वान् मनुष्य! तुम जो (दैव्यः) देवों में कुशल (केतुः) रोग को दूर करने में हेतु (विश्पतिः) प्रजा को पालने वाला (बृहद्भानुः) बहुत प्रकाशयुक्त (रेवान् इव) अत्यन्त धन वाले के समान (अग्निः) सबको सुख प्राप्त करने वाला अग्नि है (उक्थैः) वेदोक्त स्तोत्रों के साथ सुना जाता है, उसको (शृणोतु) सुन और (नः) हम लोगों के लिये सुनाइये॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पूर्ण धन वाला विद्वान् मनुष्य धन भोगने योग्य पदार्थों से सब मनुष्यों को सुख संयुक्त करता और सब की वार्त्ताओं को सुनता है, वैसे ही जगदीश्वर सबकी की हुई स्तुति को सुनकर उनको सुखसंयुक्त करता है॥12॥ अथ सर्वेषां सत्कारः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में सब का सत्कार करना अवश्य है, इस बात का प्रकाश किया है॥ नमो॑ म॒हद्भ्यो॒ नमो॑ अर्भ॒केभ्यो॒ नमो॒ युव॑भ्यो॒ नम॑ आशि॒नेभ्यः॑। यजा॑म दे॒वान् यदि॑ श॒क्नवा॑म॒ मा ज्याय॑सः॒ शंस॒मा वृ॑क्षि देवाः॥13॥24॥ नमः॑। म॒हत्ऽभ्यः॑। नमः॑। अ॒र्भ॒केभ्यः॑। नमः॑। युव॑ऽभ्यः। नमः॑। आ॒शि॒नेभ्यः॑। यजा॑म। दे॒वान्। यदि॑। श॒क्नवा॑म। मा। ज्याय॑सः। शंस॑म्। आ। वृ॒क्षि॒। दे॒वाः॒॥13॥ पदार्थः—(नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (महद्भ्यः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) प्रीणनाय (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (नमः) सत्काराय (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्ठेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) सेवायै (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः (यजाम) दद्याम (देवान्) विदुषः (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे (शक्नवाम) समर्था भवेम (मा) निषेधार्थे (ज्यायसः) विद्याशुभगुणैर्ज्येष्ठान् (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम् (आ) समन्तात् (वृक्षि) वर्जयेयम्। अत्र ‘वृजी वर्जन’ इत्यस्माल्लिडर्थे लुङ् छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणादिण् न। वृजीत्यस्य सिद्धे सति सायणाचार्य्येण ओव्रश्चू इत्यस्य व्यत्ययं मत्त्वा प्रमादादेवोक्तमिति (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने॥13॥ अन्वयः—हे देवा विद्वांसो वयं महद्भ्योऽन्नं यजाम दद्यामैवमर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यश्च नमो ददन्तो वयं यदि शक्नवाम ज्यायसो देवानायजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्यामैवं प्रतिजनोऽहमेतेषां शंसम्मावृक्षि कदाचिन्मा वर्जयेयम्॥13॥ भावार्थः—अत्र मनुष्यैर्निरभिमानत्वं प्राप्यान्नादिभिः सर्वे सत्कर्त्तव्या इतीश्वर उपदिशति यावत्स्वसामर्थ्यं तावद्विदुषां सङ्गसत्कारौ नित्यं कर्त्तव्यौ नैव कदाचित्तेषां निन्दा कर्त्तव्येति॥13॥ पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षडविंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

इति प्रथमस्य द्वितीये चतुर्विंशो वर्गः।

प्रथममण्डले षष्ठेऽनुवाके सप्तविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (देवाः) सब विद्याओं को प्रकाशित करने वाले विद्वानो! हम लोग (महद्भ्यः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के लिये (नमः) सत्कार अन्न (यजाम) करें और दें (अर्भकेभ्यः) थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के (नमः) तृप्ति (युवभ्यः) युवावस्था से जो बल वाले विद्वान् हैं उनके लिये (नमः) सत्कार (आशिनेभ्यः) समस्त विद्याओं में व्याप्त जो बुड्ढे विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सेवापूर्वक देते हुए (यदि) जो सामर्थ्य के अनुकूल विचार में (शक्नवाम) समर्थ हों तो (ज्यायसः) विद्या आदि उत्तम गुणों से अति प्रशंसनीय (देवान्) विद्वानों को (आयजाम) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण करें, इसी प्रकार हम सब जने (शंसम्) इनकी स्तुति प्रशंसा को (मा वृक्षि) कभी न काटें॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में ईश्वर का यह उपदेश है कि मनुष्यों को चाहिये अभिमान छोड़कर अन्नादि से सब उत्तम जनों का सत्कार करें अर्थात् जितना धन पदार्थ आदि उत्तम बातों से अपना सामर्थ्य हो उतना उनका संग करके विद्या प्राप्त करें, किन्तु उनकी कभी निन्दा न करें॥13॥ पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जानने वाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। यह पहले अष्टक में दूसरे अध्याय में चौबीसवां वर्ग और पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में सत्ताईसवां सूक्त समाप्त हुआ॥27॥ अथ नवर्चस्याष्टाविंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रयज्ञसोमा देवताः। 1-6 अनुष्टुप् 7-9 गायत्री च छन्दसी। 1-6 गान्धारः 7-9 षड्जश्च स्वरौ॥ कर्मानुष्ठात्रा जीवेन यद्यत्कर्त्तव्यं तदुपदिश्यते॥ अब अट्ठाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में कर्म के अनुष्ठान करने वाले जीव को जो-जो करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥ यत्र॒ ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्न ऊ॒र्ध्वो भव॑ति॒ सोत॑वे। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥1॥ यत्र॑। ग्रावा॑। पृ॒थुऽबु॑ध्नः। ऊ॒र्ध्वः। भव॑ति। सोत॑वे। उ॒लूख॑लऽसुतानाम्। अव॑। इत्। ऊ॒म् इति॑। इ॒न्द्र॒। ज॒ल्गु॒लः॒॥1॥ पदार्थः—(यत्र) यस्मिन् यज्ञव्यवहारे (ग्रावा) पाषाणः (पृथुबुध्नः) पृथुमहद् बुध्नं मूलं यस्य सः (ऊर्ध्वः) पृथिव्याः सकाशात् किंचिदुन्नतः (भवति) (सोतवे) यवाद्योषधीनां सारं निष्पादयितु। अत्र तुमर्थे सेसेनसे॰ इति सुञ् धातोस्तवेन् प्रत्ययः। (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन सुता निष्पादिताः पदार्थास्तेषाम् (अव) रक्ष (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) ऐश्वर्यप्राप्तये तत्तकर्मानुष्ठातर्मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन गृणीहि। अत्र ‘गॄ शब्दे’ इत्यस्माद्यङ्लुगन्ताल्लेट्। बहुलं छन्दसि इत्युपधाया उत्वं च॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र यज्ञकर्मानुष्ठातर्मनुष्य त्वं यत्र पृथुबुध्न ऊर्ध्वो ग्रावा धान्यानि सोतवे अभिषोतुं भवति, तत्रोलूखलसुतानां पदार्थानां ग्रहणं कृत्वा तान् सदाऽव उ इति वितर्के तमुलूखलं युक्त्या धान्यसिद्धये जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥1॥ भावार्थः—ईश्वर उपदिशति हे मनुष्या! यूयं यवाद्योषधीनामसारत्यागाय सारग्रहणाय स्थूलं पाषाणं यथायोग्यं मध्यगर्तं कृत्वा निवेशयत स च भूमितलात् किञ्चिदूर्ध्वं स्थापनीयो येन धान्यसारनिस्सरण यथावत् स्यात्, तत्र यवादिकं स्थापयित्वा मुसलेन हत्वा शब्दयतेति॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त कर्म के करने वाले मनुष्य! तुम (यत्र) जिन यज्ञ आदि व्यवहारों में (पृथुबुध्नः) बड़ी जड़ का (ऊर्ध्वः) जो कि भूमि से कुछ ऊंचे रहने वाले (ग्रावा) पत्थर और मुसल को (सोतवे) अन्न आदि कूटने के लिये (भवति) युक्त करते हो, उनमें (उलूखलसुतानाम्) उखली मुशल के कूटे हुए पदार्थों को ग्रहण करके उनकी सदा उत्तमता के साथ रक्षा करो (उ) और अच्छे विचारों से युक्ति के साथ पदार्थ सिद्ध होने के लिये (जल्गुलः) इस को नित्य ही चलाया करो॥1॥ भावार्थः—ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! तुम यव आदि ओषधियों के असार निकालने और सार लेने के लिये भारी से पत्थर में जैसा चाहिये, वैसा गड्ढा करके उसको भूमि में गाड़ो और वह भूमि से कुछ ऊंचा रहे, जिससे कि अनाज के सार वा असार का निकालना अच्छे प्रकार बने, उसमें यव आदि अन्न स्थापन करके मुसल से उसको कूटो॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यत्र॒ द्वावि॑व ज॒घना॑धिषव॒ण्या॑ कृ॒ता। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥2॥ यत्र॑। द्वौऽइ॑व। ज॒घना॑। अ॒धि॒ऽस॒व॒न्या॑। कृ॒ता। उ॒लूख॑लऽसुतानाम्। अव॑। इत्। ऊ॒म् इति॑। इ॒न्द्र॒। ज॒ल्गु॒लः॒॥2॥ पदार्थः—(यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (द्वाविव) उभे यथा (जघना) उरुणी। जघनं जङ्घन्यतेः। (निरु॰9.20) अत्र हन्तेः शरीरावयवे द्वे च। (उणा॰5.32) अनेनाच् प्रत्ययो द्वित्वं सुपां सुलुग्॰ इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च। (अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे। अत्र भवे छन्दसि (अष्टा॰4.4.110) इति यत् (कृता) कृते (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् (अव) प्राप्नुहि (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) अन्तःकरणबहिष्करणशरीरादिसाधनैऽश्वर्य्यवन् मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्र! विद्वंस्त्वं यत्र द्वे जङ्घे इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतस्ते सम्यक् कृत्वोलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारमव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा द्वाभ्यामुरुभ्यां गमनादिका क्रिया निष्पाद्यते, तथैव पाषाणस्याध एका स्थूला शिला स्थापनार्था द्वितीया हस्तेनोपरि पेषणार्था कार्ये ताभ्यामोषधीनां पेषणं कृत्वा यथावद्भक्षणादि संसाध्य भक्षणीयमिदमपि मुसलोलूखलवद् द्वितीयं साधनं रचनीयमिति॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) भीतर बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्य वाले विद्वान् मनुष्य! तुम (द्वाविव) (जघना) दो जंघाओं के समान (यत्र) जिस व्यवहार में (अधिषवण्या) अच्छे प्रकार वा असार अलग-अलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको (कृता) अच्छे प्रकार सिद्ध करके (उलूखलसुतानाम्) शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए पदार्थों के सकाश से सार को (अव) प्राप्त हो (उ) और उत्तम विचार से (इत्) उसी को (जल्गुलः) बार-बार पदार्थों पर चला॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे दोनों जांघों के सहाय से मार्ग का चलना-चलाना सिद्ध होता है, वैसे ही एक तो पत्थर की शिला नीचे रक्खें और दूसरा ऊपर से पीसने के लिये बट्टा जिसको हाथ में लेकर पदार्थ पीसे जायें, इनसे औषधि आदि पदार्थों को पीसकर यथावत् भक्ष्य आदि पदार्थों को सिद्ध करके खावें। यह भी दूसरा साधन उखली मुसल के समान बनाना चाहिये॥2॥ अथेयं विद्या कथं ग्राह्येत्युपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में यह विद्या कैसे ग्रहण करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥ यत्र॒ नार्य॑पच्य॒वमु॑पच्य॒वं च॒ शिक्ष॑ते। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥3॥ यत्र॑। नारी॑। अ॒प॒ऽच्य॒वम्। उ॒प॒ऽच्य॒वम्। च॒। शिक्ष॑ते। उ॒लूख॑लसुतानाम्। अव॑। इत्। ऊ॒म् इति॑। इ॒न्द्र॒। ज॒ल्गु॒लः॒॥3॥ पदार्थः—(यत्र) यस्मिन् कर्मणि (नारी) नरस्य पत्नी गृहमध्ये (अपच्यवम्) त्यागम् (उपच्यवम्) प्रापणम्। च्युङ् गतावित्यस्य प्रयोगौ (च) तत् क्रियाकरणशिक्षादेः समुच्चये (शिक्षते) ग्राहयति (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेनोत्पादितानाम् (अव) जानीहि (इत्) एवं (उ) जिज्ञासने (इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातर्जीव (जल्गुलः) शृणूपदिश च। सिद्धिः पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं यत्र नारीकर्मकारीभ्य उलूखलसुतानामपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते तद्विद्यामुपादत्ते, तत्र तदेतत्सर्वमु इदेव जल्गुलः शृण्वेता उपदिश च॥3॥ भावार्थः—उलूखलादिविद्याया भोजनादिसाधिकाया गृहसम्बन्धिकार्यकारित्वादेषा स्त्रीभिर्नित्यं ग्राह्याऽन्याभ्यो ग्राहयितव्या च। यत्र पाकक्रिया साध्यते तत्रैतानि स्थापनीयानि नैतैर्विना कुट्टनपेषणादिक्रियाः सिध्यन्तीति॥3॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) इन्द्रियों के स्वामी जीव! तू (यत्र) जिस कर्म में घर के बीच (नारी) स्त्रियां काम करने वाली अपनी संगि स्त्रियों के लिये (उलूखलसुतानाम्) उक्त उलूखलों से सिद्ध की हुई विद्या को (अपच्यवम्) (उपच्यवम्) (च) अर्थात् जैसे डालना निकालनादि क्रिया करनी होती है, वैसे उस विद्या को (शिक्षते) शिक्षा से ग्रहण करती और कराती हैं, उसको (उ) अनेक तर्कों के साथ (जल्गुलः) सुनो और इस विद्या का उपदेश करो॥3॥ भावार्थः—यह उलूखलविद्या जो कि भोजनादि के पदार्थ सिद्ध करने वाली है, गृहसम्बन्धि कार्य करने वाली होने से यह विद्या स्त्रियों को नित्य ग्रहण करनी और अन्य स्त्रियों को सिखाना भी चाहिये। जहाँ पाक सिद्ध किये जाते हों वहाँ ये सब उलूखल आदि साधन स्थापन करने चाहिये, क्योंकि इनके विना कूटना-पीसना आदि क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती॥3॥ एतत्सम्बन्ध्यन्यदपि साधनमुपदिश्यते॥ इसके सम्बन्धी और भी साधन का अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ यत्र॒ मन्थां॑ विब॒ध्नते॑ र॒श्मी॑न् य॒मि॑त॒वा इ॑व। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥4॥ यत्र॑। मन्था॑म्। वि॒ऽब॒ध्नते॑। र॒श्मी॑न्। य॒मित॒वैऽइ॑व। उ॒लूख॑लऽसुतानाम्। अव॑। इत्। ऊ॒म् इति॑। इ॒न्द्र॒। ज॒ल्गु॒लः॒॥4॥ पदार्थः—(यत्र) यस्मिन् क्रियासाध्ये व्यवहारे (मन्थाम्) घृतादिनिस्सारणं मन्थानम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति नकारलोपः। (विबध्नते) विशिष्टतया बध्नन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (रश्मीन्) रज्जूः (यमितवाइव) निग्रहीतुमर्ह इव। अत्र यम धातोस्तवै प्रत्ययः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति इडागमः। (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन सम्पादितानां प्राप्तिम्। उलूखलशब्दार्थं यास्कमुनिरेवं समाचष्टे। उलूखलमुरुकरं वोर्ध्वखं वोर्क्करं वा। उरु मे कुर्वित्यब्रवीत् तदुलूखलमभवत्। उरुकरं वै तदुलूखलमित्याचक्षते (निरु॰9.20)। (अव) इच्छ (इत्) निश्चये (उ) वितर्के (इन्द्र) रसाभिसिंचन् जीव (जल्गुलः) शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! सुखाभिलाषिन् विद्वंस्त्वं रश्मीन् यमितवै सूर्यो वा सारथिरिव यत्र मन्थां विबध्नते, तत्रोलूखलसुतानां प्राप्तिमवेच्छ। एतामिदुविद्यां युक्त्या जल्गुलः शब्दयोपदिश॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वर उपदिशति हे विद्वांसो! यथा सूर्यो रश्मिभिर्भूमिमाकर्षणेन बध्नाति यथा सारथी रज्जुभिरश्वान् नियच्छति, तथैव मन्थनबन्धनचालनविद्यया दुग्धादिभ्य ओषधिभ्यश्च नवनीतादिसारान् युक्त्या निष्पादयतेति॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सुख की इच्छा करने वाले विद्वान् मनुष्य! तू (रश्मीन्) (इव) जैसे (यमितवै) सूर्य्य अपनी किरणों को वा सारथी जैसे घोड़े आदि पशुओं की रस्सियों को (यत्र) जिस क्रिया से सिद्ध होने वाले व्यवहार में (मन्थाम्) घृत आदि पदार्थों के निकालने के लिये मन्थनियों को (विबध्नते) अच्छे प्रकार बांधते हैं, वहाँ (उलूखलसुतानाम्) उलूखल से सिद्ध हुए पदार्थों को (अव) वैसे ही सिद्ध करने की इच्छा कर (उ) और (इत्) उसी विद्या को (जल्गुलः) युक्ति के साथ उपदेश कर॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर उपदेश करता है कि हे विद्वानो! जैसे सूर्य्य अपनी किरणों के साथ भूमि को आकर्षण शक्ति से बांधता और जैसे सारथी रश्मियों से घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे ही मथने बांधने और चलाने की विद्या से दूध आदि वा औषधि आदि पदार्थों से मक्खन आदि पदार्थों को युक्ति के साथ सिद्ध करो॥4॥ तेनोलूखलेन किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ उक्त उलूखल से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यच्चि॒द्धि त्वं गृ॒हेगृ॑ह॒ उलू॑खलक यु॒ज्यसे॑। इ॒ह द्यु॒मत्त॑मं वद॒ जय॑तामिव दुन्दु॒भिः॥5॥25॥ यत्। चि॒त्। हि। त्वम्। गृ॒हेगृ॑हे। उलू॑खलक। यु॒ज्यसे॑। इ॒ह। द्यु॒मत्॑ऽतमम्। व॒द॒। जय॑ताम्। इव। दु॒न्दु॒भिः॥5॥ पदार्थः—(यत्) यस्मात् (चित्) चार्थे (हि) प्रसिद्धौ (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् वीप्सायां द्वित्वं (उलूखलक) उलूखलं कायति शब्दयति यस्तत्सम्बुद्धौ विद्वन् (युज्यसे) समादधासि (इह) अस्मिन्संसारे गृहे स्थाने वा (द्युमत्तमम्) प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिन् स शब्दो द्युमान् अतिशयेन द्युमान् द्युमत्तमस्तम्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (वद) वादय वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (जयतामिव) विजयकरणशीलानां वीराणामिव (दुन्दुभिः) वादित्रविशेषैः॥5॥ अन्वयः—हे उलूखलक! विद्वँस्त्वं यद्धि गृहेगृहे युज्यसे तद्विद्यां समादधासि, स त्वमिह जयतां दुन्दुभिरिव द्युमत्तममुलूखलं वादयैतद्विद्यां (चित्) वदोपदिश॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। सर्वेषु गृहेषूलूखलक्रिया योजनीया यथा भवति शत्रूणां विजेतारः सेनास्थाः शूरा दुन्दुभिः वादयित्वा युध्यन्ते, यथैव रससम्पादकेन मनुष्येणोलूखले यवाद्योषधीर्योजयित्वा मुसलेन हत्वा तुषादिकं निवार्य्य सारांशः संग्राह्य इति॥5॥ पदार्थः—हे (उलूखलक) उलूखल से व्यवहार लेने वाले विद्वान्! तू (यत्) जिस कारण (हि) प्रसिद्ध (गृहेगृहे) घर-घर में (युज्यसे) उक्त विद्या का व्यवहार वर्त्तता है (इह) इस संसार गृह वा स्थान में (जयताम्) शत्रुओं को जीतने वालों के (दुन्दुभिः) नगाड़ों के (इव) समान (द्युमत्तमम्) जिसमें अच्छे शब्द निकले, वैसे उलूखल के व्यवहार की (वद) विद्या का उपदेश करें॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब घरों में उलूखल और मुसल को स्थापन करना चाहिये, जैसे शत्रुओं के जीतने वाले शूरवीर मनुष्य अपने नगाड़ों को बजा कर युद्ध करते हैं, वैसे ही रस चाहने वाले मनुष्यों को उलूखल में यव आदि ओषधियों को डालकर मुसल से कूटकर भूसा आदि दूर करके सार-सार लेना चाहिये॥5॥ पुनस्तत्किमर्थं ग्राह्यमित्युपदिश्यते। फिर वह किसलिये ग्रहण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उ॒त स्म॑ ते वनस्पते॒ वातो॒ वि वा॒त्यग्र॒मित्। अथो॒ इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒नु सोम॑मुलूखल॥6॥ उ॒त। स्म॒। ते॒। व॒न॒स्प॒ते॒। वातः॑। वि। वा॒ति॒। अग्र॑म्। इत्। अथो॒ इति॑। इन्द्रा॑य। पात॑वे। सु॒नु। सोम॑म्। उ॒लू॒ख॒ल॒॥6॥ पदार्थः—(उत) अपि (स्म) अतीतार्थे क्रियायोगे (ते) तस्य (वनस्पते) वृक्षादेः (वातः) वायुः (वि) विविधार्थे क्रियायोगे (वाति) गच्छति (अग्रम्) उपरिभागम् (इत्) एव (अथो) अनन्तरे (इन्द्राय) जीवाय (पातवे) पातुं पानं कर्त्तुम्। अत्र तुमर्थे सेसेनसे॰ इति तवेन्प्रत्ययः। (सुनु) सेधय (सोमम्) सर्वौषधं सारम् (उलूखल) उलूखलेन बहुकार्यकरेण साधनेन। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति तृतीयैकवचनस्य लुक्॥6॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथा वात इत्तस्यास्य वनस्पतेरग्रमुत विवाति स्माथो इत्यनन्तरमिन्द्राय जीवाय सोमं पातवे पातुं सुनोति निष्पादयति तथोलूखलेन यवाद्यमोषधिसमुदायं सुनु॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा पवनेन सर्वे वनस्पत्योषध्यादयो वर्ध्यन्ते, तदैव प्राणिनस्तेषां पुष्टानामुलूखले स्थापनं कृत्वा सारं गृहीत्वा भुञ्जते, रसमपि पिबन्ति, नैतेन विना कस्यचित्पदार्थस्य वृद्धिपुष्टी सम्भवतः॥6॥ पदार्थः—हे विद्वन्! जैसे (वातः) वायु (इत्) ही (वनस्पते) वृक्ष आदि पदार्थों के (अग्रम्) ऊपरले भाग को (उत) भी (वि वाति) अच्छे प्रकार पहुंचाता (स्म) पहुंचा वा पहुंचेगा (अथो) इसके अनन्तर (इन्द्राय) प्राणियों के लिये (सोमम्) सब ओषधियों के सार को (पातवे) पान करने को सिद्ध करता है, वैसे (उलूखल) उखरी में यव आदि ओषधियों के समुदाय के सार को (सुनु) सिद्ध कर॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब पवन सब वनस्पति ओषधियों को अपने वेग से स्पर्श कर बढ़ाता है, तभी प्राणी उनको उलूखल में स्थापन करके उनका सार ले सकते और रस भी पीते हैं। इस वायु के विना किसी पदार्थ की वृद्धि वा पुष्टि होने का सम्भव नहीं हो सकता है॥6॥ पुनर्मुसलोलूखले कीदृशस्त इत्युपदिश्यते॥ फिर मुसल और उलूखल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ॒य॒जी वा॑ज॒सात॑मा॒ ता ह्युच्चा वि॑जर्भृ॒तः। हरी॑ इ॒वान्धां॑सि॒ बप्स॑ता॥7॥ आ॒य॒जीइत्या॑ऽय॒जी। वा॒ज॒ऽसात॑मा। ता। हि। उ॒च्चा। वि॒ऽज॒र्भृ॒तः। हरी॑ इ॒वेति॒ हरी॑ऽइव। अन्धां॑सि। बप्स॑ता॥7॥ पदार्थः—(आयजी) समन्ताद् यज्यन्ते सङ्गम्यन्ते पदार्था याभ्यां तौ स्त्रीपुरुषौ। अत्र बाहुलकादौणादिकः करणाकारके इः प्रत्ययः। (वाजसातमा) वाजान् युद्धसमूहान् सनन्ति सम्भज्य विजयन्ते याभ्यां तावतिशायितौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (ता) तौ (हि) खलु (उच्चा) उत्कृष्टानि कार्याणि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्लोपः। (विजर्भृतः) विविधं धरतः (हरीइव) यथाऽश्वौ तथा (अन्धांसि) अन्नानि। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (बप्सता) बप्सन्तौ। अत्र भसभर्त्सनदीप्योरित्यस्माल्लटः शत्रादेशः। घसिभसोर्हलि च। (अष्टा॰6.4.100) अनेनोपधालोपः सुगममन्यत्। भस धातोर्भर्त्सन इत्यर्थो नवीनो भक्षण इति प्राचीनोऽर्थः॥7॥ अन्वयः—यावायजी वाजसातमौ स्तस्तौ स्त्रीपुरुषावन्धांसि बप्सन्तौ भक्षयस्तौ हरीइव मुसलोलूखलादिभ्य उच्चा उत्कृष्टानि कार्याणि विजर्भृतः॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा भक्षणकर्त्तारावश्वौ यानादीनि वहतस्तथैव मुसलोलूखले बहूनि विभागकरणादीनि कार्याणि प्रापयत इति॥7॥ पदार्थः—(आयजी) जो अच्छे प्रकार पदार्थों को प्राप्त होने वाले (वाजसातमा) संग्रामों को जीतते हैं (ता) वे स्त्री पुरुष (अन्धांसि) अन्नों को (बप्सता) खाते हुए (हरी) घोड़ों के (इव) समान उलूखल आदि से (उच्चा) जो अति उत्तम काम हैं, उनको (विजर्भृतः) अनेक प्रकार से सिद्धकर धारण करते रहें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे खाने वाले घोड़े रथ आदि को वहते हैं, वैसे ही मुसल और ऊखरी से पदार्थों को अलग-अलग करने आदि अनेक कार्यों को सिद्ध करते हैं॥7॥ पुनस्ते कथंभूते कार्ये इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे करने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ता नो॑ अ॒द्य व॑नस्पती ऋ॒ष्वावृ॒ष्वेभिः॑ सो॒तृभिः॑। इन्द्रा॑य॒ मधु॑मत्सुतम्॥8॥ ता। नः॒। अ॒द्य। व॒न॒स्प॒ती॒ इति॑। ऋ॒ष्वौ। ऋ॒ष्वेभिः॑। सो॒तृऽभिः॑। इन्द्रा॑य। मधु॑ऽमत्। सु॒त॒म्॥8॥ पदार्थः—(ता) तौ मुसलोलूखलाख्यौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन् दिने (वनस्पती) काष्ठमयौ (ऋष्वौ) महान्तौ। ऋष्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (ऋष्वेभिः) महद्भिर्विद्वद्भिः। बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (सोतृभिः) अभिषवकरणकुशलैः (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय (मधुमत्) मधवो मधुरादयः प्रशस्ता गुणा विद्यते यस्मिन् तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (सुतम्) सम्पादितुं वस्तु॥8॥ अन्वयः—यौ सोतृभिर्ऋष्वौ वनस्पती सम्पादितौ स्तो यौ नोऽस्माकमिन्द्रायाद्य मधुमद्वस्तु सुतं सम्पादनहेतुभवतस्तौ सर्वैः सम्पादनीयौ॥8॥ भावार्थः—यथा पाषाणस्य मुसलोलूखलानि भवन्ति, तथैव काष्ठायः पित्तलरजतसुवर्णादीनामपि क्रियन्ते, तैः श्रेष्ठैरोषधाभिषवादीन् साधयेयुरिति॥8॥ पदार्थः—जो (सोतृभिः) रस खींचने में चतुर (ऋष्वेभिः) बड़े विद्वानों ने (ऋष्वौ) अतिस्थूल (वनस्पती) काठ के उखली-मुसल सिद्ध किये हों, जो (नः) हमारे (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाले व्यवहार के लिये (अद्य) आज (मधुमत्) मधुर आदि प्रशंसनीय गुण वाले पदार्थों को (सुतम्) सिद्ध करने के हेतु होते हों (ता) वे सब मनुष्यों को साधने योग्य हैं॥8॥ भावार्थः—जैसे पत्थर के मूसल और उखली होते हैं, वैसे ही काष्ठ, लोहा, पीतल, चाँदी, सोना तथा औरों के भी किये जाते हैं, उन उत्तम उलूखल मुसलों से मनुष्य औषध आदि पदार्थों के अभिषव अर्थात् रस आदि खींचने के व्यवहार करें॥8॥ पुनस्ताभ्यां किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते॥ फिर उन से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उच्छि॒ष्टं च॒म्वो॑र्भर॒ सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज। नि धे॑हि॒ गोरधि॑ त्व॒चि॥9॥26॥ उत्। शि॒ष्टम्। च॒म्वो॑। भ॒र॒। सोम॑म्। प॒वित्रे॑। आ। सृ॒ज॒। नि। धे॒हि॒। गोः। अधि॑। त्व॒चि॥9॥ पदार्थः—(उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे (शिष्टम्) शिष्यते यस्तम् (चम्वोः) पदातिहस्त्यश्वादिरूढयोः सेनयोरिव (भर) धर (सोमम्) सर्वरोगनाशकबलपुष्टिबुद्धिवर्द्धकमुत्तमौषध्यभिषवम् (पवित्रे) शुद्धे सेविते (आ) समन्तात् (सृज) निष्पादय (नि) नितराम् (धेहि) संस्थापय (गोः) पृथिव्याः। गौरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (अधि) उपरि (त्वचि) पृष्ठे॥9॥ अन्वयः—हे विद्वँस्त्वं चम्वोरिव शिष्टं सोममुद्भर तेनोभे सेने पवित्रे आसृज गोः पृथिव्या अधि त्वचि ते निधेहि नितरां संस्थापय॥9॥ भावार्थः—राजपुरुषादिभिर्द्विविधे सेने सम्पादनीये एका यानारूढा द्वितीया पदातिरूपा तदर्थमुत्तमा रसाः शस्त्रादिसामग्र्यश्च सम्पादनीयाः सुशिक्षयौषधादिदानेन च शुद्धबले सर्वरोगरहिते सङ्गृह्य पृथिव्या उपरि चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवनीयमिति॥9॥ सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥9॥ इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये षड्विंशो वर्गः॥ प्रथमण्डले षष्ठेऽनुवाकेऽष्टाविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥28॥ पदार्थः—हे विद्वान् तुम (चम्वोः) पैदल और सवारों की सेनाओं के समान (शिष्टम्) शिक्षा करने योग्य (सोमम्) सर्व रोगविनाशक बलपुष्टि और बुद्धि को बढ़ाने वाले उत्तम ओषधि के रस को (उद्भर) उत्कृष्टता से धारण कर उस से दो सेनाओं को (पवित्रे) उत्तम (आसृज) कीजिये (गोः) पृथिवी के (अधि) ऊपर अर्थात् (त्वचि) उस की पीठ पर सेनाओं को (निधेहि) स्थापन करो॥9॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि दो प्रकार की सेना रक्खें अर्थात् एक तो सवारों की दूसरी पैदलों की, उनके लिये उत्तम रस और शस्त्र आदि सामग्री इकट्ठी करें अच्छी शिक्षा और औषधि देकर शुद्ध बलयुक्त और नीरोग कर पृथिवी पर एक चक्रराज्य नित्य करें॥9॥ सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥9॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये षड्विंशो वर्गः ॥26॥ प्रथमण्डले षष्ठेऽनुवाकेऽष्टाविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥28॥

[प्रथम अष्टक के द्वितीय अध्याय में छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ तथा प्रथम मण्डल में छठे अनुवाक में अट्ठाईसवाँ सूक्त समाप्त हुआ।]

अथ सप्तर्चस्यैकोनत्रिंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथेन्द्रशब्देन न्यायाधीशगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब उनतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्द से न्यायाधीश के गुणों का प्रकाश किया है॥ यच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ताइ॑व॒ स्मसि॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥1॥ यत्। चि॒त्। हि। स॒त्य॒। सो॒म॒ऽपाः॒। अ॒ना॒श॒स्ताऽइ॑व। स्मसि॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॥1॥ पदार्थः—(यत्) येषु (चित्) अपि (हि) खलु (सत्य) अविनाशिस्वरूप सत्सु साधो (सोमपाः) सोमानुत्पन्नान् सर्वान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्सम्बुद्धौ (अनाशस्ताइव) अप्रशस्तगुणसामर्थ्या इव (स्मसि) भवामः। इदन्तो मसि इति इदागमः। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। ऋचि तुनु॰ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) प्रशस्तैश्वर्यप्राप्त (शंसय) प्रशस्तान् कुरु (गोषु) पश्विन्द्रियपृथिवीषु (अश्वेषु) वेगाग्निहयेषु (शुभ्रिषु) शोभनसुखप्रदेषु (सहस्रेषु) असंख्यातेषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं मघं पूज्यतमं धनं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ अन्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः॥1॥ अन्वयः—हे सोमपास्तुविमघ सत्येन्द्रन्यायाधीशत्वमनाशस्ताइव वयं यच्चित् स्मसि तू (नः) तानस्माँश्चतुःसहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु हि खल्वाशंसय॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽऽलस्येनाश्रेष्ठामनुष्या भवन्ति, तद्वद्वयमपि यदि कदाचिदलसा भवेम तानस्मान् प्रशस्तपुरुषार्थगुणान् सम्पादयतु, यतो वयं पृथिव्यादिराज्यं बहूनुत्तमान् हस्त्यश्वगवादिपशून् प्राप्य पालित्वा वर्द्धिवा तेभ्य उपकारेण प्रशस्ता भवेमेति॥1॥ पदार्थः—हे (सोमपाः) उत्तम पदार्थों की रक्षा करने वाले (तुविमघ) अनेक प्रकार के प्रशंसनीय धनयुक्त (सत्य) अविनाशिस्वरूप (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्य प्रापक न्यायाधीश! आप (यच्चित्) जो कभी हम लोग (अनाशस्ताइव) अप्रशंसनीय गुण सामर्थ्य वालों के समान (स्मसि) हों (तु) तो (नः) हम लोगों को (सहस्रेषु) असंख्यात (शुभ्रिषु) अच्छे सुख देने वाले (गोषु) पृथिवी इन्द्रियाँ वा गो बैल (अश्वेषु) घोड़े आदि पशुओं में (हि) ही (आशंसय) प्रशंसा वाले कीजिये॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे आलस्य के मारे अश्रेष्ठ अर्थात् कीर्त्तिरहित मनुष्य होते हैं, वैसे हम लोग भी जो कभी हों तो यह न्यायाधीश हम लोगों को प्रशंसनीय पुरुषार्थ और गुणयुक्त कीजिये, जिससे हम लोग पृथिवी आदि राज्य और बहुत उत्तम-उत्तम हाथी, घोड़े, गौ, बैल आदि पशुओं को प्राप्त होकर उनका पालन वा उनकी वृद्धि करके उनके उपकार से प्रशंसा वाले हों॥1॥ पुनः स ऐश्वर्ययुक्तः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह विभूतियुक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ शिप्रि॑न् वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥2॥ शिप्रि॑न्। वा॒जा॒ना॒म्। प॒ते॒। शची॑ऽवः। तव॑। दं॒सना॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॥2॥ पदार्थः—(शिप्रिन्) शिप्रे प्राप्तुमर्हे प्रशस्ते व्यावहारिकपारमार्थिके सुखे विद्येते यस्य सभापते-स्तत्सम्बुद्धौ। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्॥ (निघं॰4.1) (वाजानाम्) संग्रामाणां मध्ये (पते) पालक (शचीवः) शची बहुविधं कर्म बह्वी प्रजा वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ। शचीति प्रजानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) कर्मनामसु च (निघं॰2.1) अत्र छन्दसीरः। (अष्टा॰8.2.15) इति मतुपो मस्य वः। मतुवसोरु॰ (अष्टा॰8.3.1) इति रुत्वं च। (तव) न्यायाधीशस्य (दंसना) दंसयति भाषयत्यनया क्रियया सा। ण्यासश्रन्थो युच्। (अष्टा॰3.3.10) अनेन दंसिभाषार्थ इत्यस्माद्युच् प्रत्ययः। (आ) अभ्यर्थे क्रियायोगे (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः (नः) अस्माँस्त्वदाज्ञायां वर्त्तमानान् विदुषः (इन्द्र) सर्वराज्यैश्वर्यधारक (शंसय) प्रकृष्टगुणवतः कुरु (गोषु) सत्यभाषणशास्त्रशिक्षासहितेषु वागादीन्द्रियेषु। गौरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (अश्वेषु) वेगादिगुणवत्सु अग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शोभनेषु विमानादियानेषु तत् साधकतमेषु वा (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) बहुविधं मघं पूज्यं विद्याधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। मघमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) मघमिति धननामधेयम्। मंहतेर्दानकर्मणः। (निरु॰1.7) अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥2॥ अन्वयः—हे शिप्रिन् शचीवो वाजानां पते तुवीमघेद्र न्यायाधीश! या तव दंसनास्ति तया सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय प्रकृष्टगुणवतः सम्पादय॥2॥ भावार्थः—मनुष्यैरित्थं जगदीश्वरं प्रार्थनीयः। हे भगवन्! त्वया कृपया यथा न्यायाधीशत्वमुत्तमं राज्यादिकं च सम्पाद्यते तथास्मान् पृथिवीराज्यवतः सत्यभाषणयुक्तान् ब्रह्मशिल्पविद्यादिसिद्धिकारकान् बुद्धिमतो नित्यं सम्पादयेति॥2॥ पदार्थः—हे (शिप्रिन्) प्राप्त होने योग्य प्रशंसनीय ऐहिक पारमार्थिक वा सुखों को देने हारे (शचीवः) बहुविध प्रजा वा कर्मयुक्त (वाजानाम्) बड़े-बड़े युद्धों के (पते) पालन करने और (तुविमघ) अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन युक्त (इन्द्र) परमैश्वर्य सहित सभाध्यक्ष जो (तव) आपकी (दंसना) वेद विद्यायुक्त वाणी सहित क्रिया है, उससे आप (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) शोभन विमान आदि रथ वा उनके उत्तम साधन (गोषु) सत्यभाषण और शास्त्र की शिक्षा सहित वाक् आदि इन्द्रियाँ (अश्वेषु) तथा वेग आदि गुण वाले अग्नि आदि पदार्थों से युक्त घोड़े आदि व्यवहारों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) अच्छे गुणयुक्त कीजिये॥2॥ भावार्थः—मनुष्यों को इस प्रकार जगदीश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन्! कृपा करके जैसे न्यायाधीश अत्युत्तम राज्य आदि को प्राप्त कराता है, वैसे हम लोगों को पृथिवी के राज्य सत्य बोलने और शिल्पविद्या आदि व्यवहारों की सिद्धि करने में बुद्धिमान् नित्य कीजिये॥2॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या-क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ नि ष्वा॑पया मिथू॒दृशा॑ स॒स्तामबु॑ध्यमाने। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥3॥ नि। स्वा॒प॒य॒। मि॒थू॒ऽदृशा॑। स॒स्ताम्। अबु॑ध्यमाने॒ इति॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॥3॥ पदार्थः—(नि) नितरां क्रियायोगे (स्वापय) निवारय। अत्र अन्तर्गतो णिज् अन्येषामपि इति दीर्घश्च (मिथूदृशा) मिथूविषयाशक्तिप्रमादौ हिंसनं च दर्शयतस्तौ। अत्र मिथृमेथृ मेधाहिंसनयोरित्यस्मादौणादिकः कुः प्रत्ययस्तदुपपदाद् दृशेः कर्त्तरि क्विप् सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशोऽन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घश्च। (सस्ताम्) शयाताम् (अबुध्यमाने) बोधनिवारके शरीरमनसी आलस्ये कर्मणि (आ) आदरार्थे (तु) पश्चादर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) अविद्यानिद्रादोषनिवारकविद्वन् (शंसय) प्रकृष्टज्ञानवतः कुरु (गोषु) पृथिव्यादिषु (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेशष्वग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु (सहस्रेषु) अनेकेषु (तुविमघ) तुविबहुविधं धनमस्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ। अन्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः॥3॥ अन्वयः—हे तुविमघेन्द्रविद्वन्! ये मिथूदृशाबुध्यमाने शरीरमनसी आलस्ये वर्त्तमाने सस्तां शयातां पुरुषार्थनाशं प्रापयतस्ते त्वं निष्वापय निवारय पुनः सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैः शरीरात्मनोरालस्ये दूरतस्त्यक्त्वा सत्कर्मसु नित्यं प्रयत्नोऽनुसंधेय इति॥3॥ पदार्थः—हे (तुविमघ) अनेक प्रकार के धनयुक्त (इन्द्र) अविद्यारूपी निद्रा और दोषों को दूर करने वाले विद्वान्! जो-जो (मिथूदृशा) विषयाशक्ति अर्थात् खोटे काम वा प्रमाद अच्छे कामों के विनाश को दिखाने वाले वा (अबुध्यमाने) बोधनिवारक शरीर और मन (सस्ताम्) शयन और पुरुषार्थ का नाश करते हैं, उनको आप (निष्वापय) अच्छे प्रकार निवारण कर दीजिये (तु) फिर (सहस्रेषु) हजारहों (शुभ्रिषु) प्रशंसनीय गुण वाले (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थ वा (अश्वेषु) वस्तु-वस्तु में रहने वाले अग्नि आदि पदार्थों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) अच्छे गुण वाले कीजिये॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को शरीर और आत्मा से आलस्य को दूर छोड़ के उत्तम कर्मों में नित्य प्रयत्न करना चाहिये॥3॥ मनुष्यैः कीदृशान् वीरान् सङ्गृह्य शत्रवो निवारणीया इत्युपदिश्यते॥ मनुष्यों को कैसे वीरों को ग्रहण करके शत्रु-निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स॒सन्तु॒ त्या अरा॑तयो॒ बोध॑न्तु शूर रा॒तयः॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥4॥ स॒सन्तु॑। त्याः। अरा॑तयः। बोध॑न्तु। शूर॒। रा॒तयः॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॒॥4॥ पदार्थः—(ससन्तु) निद्रां प्राप्नुवन्तु (त्याः) वक्ष्यमाणाः (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते (बोधन्तु) जानन्तु (शूर) शृणाति हिनस्ति शत्रुबलान्याक्रमति। अत्र ‘शॄ हिंसायाम्’ इत्यस्माद् बाहुलकाड्डूरन्प्रत्ययः। (रातयः) दातारः (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। ऋचि तुनु॰ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्यसभाध्यक्ष सेनापते (शंसय) शत्रूणां विजयेन प्रशंसायुक्तान् कुरु (गोषु) सूर्य्यादिषु (अश्वेषु) (शुभ्रिषु) (सहस्रेषु) उक्तार्थेषु (तुविमघ) अस्यार्थसाधुत्वे पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—हे तुवीमघ शूर सेनापते! तवारातयः ससन्तु ये रातयश्च ते सर्वे बोधन्तु तु पुनः हे इन्द्र वीरपुरुष! त्वं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥4॥ भावार्थः—अस्माभिः स्वसेनासु शूरा मनुष्या रक्षित्वा हर्षणीया येषां भयाद् दुष्टाः शत्रवः शयीरन् कदाचिन्मा जाग्रतु, येन वयं निष्कण्टकं चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवेमहीति॥4॥ पदार्थः—हे (तुविमघ) विद्या सुवर्ण सेना आदि धनयुक्त (शूर) शत्रुओं के बल को नष्ट करने वाले सेनापति! आप के (अरातयः) जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (ससन्तु) सो जावें और जो (रातयः) दान आदि धर्म के कर्त्ता हैं (त्याः) वे (बोधन्तु) जाग्रत होकर शत्रु और मित्रों को जानें (तु) फिर हे (इन्द्र) अत्युत्तम ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष सेनापते वीरपुरुष! तू (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) अच्छे-अच्छे गुण वाले (गोषु) गौ वा (अश्वेषु) घोड़े हाथी सुवर्ण आदि धनों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) शत्रुओं के विजय से प्रशंसा वाले करो॥4॥ भावार्थः—हम लोगों को अपनी सेना में शूर ही मनुष्य रखकर आनन्दित करने चाहिये, जिससे भय के मारे दुष्ट और शत्रुजन जैसे निद्रा में शान्त होते हैं, वैसे सर्वदा हों, जिससे हम लोग निष्कंटक अर्थात् बेखटके चक्रवर्त्ति राज्य का सेवन नित्य करें॥4॥ पुनः स वीरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह वीर कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥5॥ सम्। इ॒न्द्र॒। ग॒र्द॒भम्। मृ॒ण॒। नु॒वन्त॑म्। पा॒पया॑। अ॒मु॒या। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॒॥5॥ पदार्थः—(सम्) सम्यगर्थे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (गर्दभम्) गर्दभस्य स्वभावयुक्तमिव (मृण) हिंस। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (नुवन्तम्) स्तुवन्तम् (पापया) अधर्मरूपया (अमुया) प्रत्यक्षतया वाचा। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् धर्मकारिणः (इन्द्र) न्यायाधीश (शंसय) सत्याननपराधान् संपादय (गोषु) स्वकीयेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वादिषु पशुषु (शुभ्रिषु) शुद्धभावेन धर्मव्यवहारेण गृहीतेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं विद्याधर्मधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं गर्दभं तत् स्वभावमिवामुया पापया मिथ्याभाषणान्वितया भाषयाऽस्मान्नुवन्तं कपटेन स्तुवन्तं शत्रुं सम्मृण। हे तुविमघेन्द्र सभाध्यक्षन्यायाधीश! त्वं स्वकीयेषु सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोस्मानाशंसय प्राप्तन्यायान् कुरु॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सभाध्यक्षो न्यायासने स्थित्वा यथा गर्दभतुल्यस्वभावं मूर्खं व्यभिचारिणं पुरुषं कुत्सितं शब्दमुच्चरन्तं तथाऽन्यायमिथ्याभाषणरूपेण साक्ष्येण तिरस्कुर्वन्तं यथायोग्यं दण्डयेत्। ये च सत्यवादिनो धार्मिकास्तेषां सत्कारं च कुर्यात्। यैरन्यायेन परपदार्था गृह्यन्ते तान् दण्डयित्वा ये यस्य पदार्थास्तान् तेभ्यो दापयेत्। एषां सनातनं न्यायाधीशानां धर्मं सदैव समाश्रयेत् तं वयं सततं सत्कुर्याम॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष! तू (गर्दभम्) गदहे के समान (अमुया) हमारे पीछे (पापया) पापरूप मिथ्याभाषण से युक्त गवाही और भाषण आदि कपट से हम लोगों की (नुवन्तम्) स्तुति करते हुए शत्रु को (सम्मृण) अच्छे प्रकार दण्ड दे (तु) फिर (तुविमघ) हे बहुत से विद्या वा धर्मरूपी धनवाले (इन्द्र) न्यायाधीश तू (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) शुद्धभाव वा धर्मयुक्त व्यवहारों से ग्रहण किये हुए (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थ वा (अश्वेषु) हाथी घोड़ा आदि पशुओं के निमित्त (नः) हम लोगों को (आशंसय) सच्चे व्यवहार वर्तने वाले अपराधरहित कीजिए॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सभा स्वामी न्याय से अपने सिंहासन पर बैठकर जैसे गदहा रूखे और खोटे शब्द को उच्चारण से औरों की निन्दा करते हुए जन को दण्ड दे और जो सत्यवादी धार्मिक जन का सत्कार करे जो अन्याय के साथ औरों के पदार्थ को लेते हैं, उनको दण्ड दे के जिसका जो पदार्थ हो, वह उसको दिला देवे, इस प्रकार सनातन न्याय करने वालों के धर्म में जो प्रवृत्त पुरुष का सत्कार हम लोग निरन्तर करें॥5॥ इदानीमशुद्धवायोर्निवारणमुपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में अशुद्ध वायु के निवारण का विधान किया है।॥ पता॑ति कुण्डृ॒णाच्या॑ दू॒रं वातो॒ वना॒दधि॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥6॥ पता॑ति। कु॒ण्डृ॒णाच्या॑। दू॒रम्। वातः॑। वना॑त्। अधि॑। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॒॥6॥ पदार्थः—(पताति) गच्छेत् (कुण्डृणाच्या) यया कुटिलां गतिमञ्चति प्राप्नोति तया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वन्यते सेव्यते तद्वनं जगत् तस्मात्किरणेभ्यो वा। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (अधि) उपरिभावे (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) परमविद्वन् (शंसय) (गोषु) पृथिवीन्द्रियकिरणचतुष्पात्सु (अश्वेषु) वेगादिगणेषु (शुभ्रिषु) शुद्धेषु व्यवहारेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनं साध्यते येन तत्सम्बुद्धौ। अत्र पूर्ववद्दीर्घः॥6॥ अन्वयः—हे तुविमघेन्द्र! त्वं यथा वातः कुण्डृणाच्यागत्यावनाज्जगतः किरणेभ्यो वाधिपताति उपर्यधो गच्छेत् तथानुतिष्ठ सहस्रेषु गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु नोऽस्मानाशंसय॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं वेदितव्यं योऽयं वायुः स एव सर्वतोऽभिगच्छन्नग्न्यादिभ्योऽधिकः कुटिलगतिर्बद्धैश्वर्यप्राप्तिः पशुवृक्षादीनां चेष्टावृद्धिभञ्जनकारकः सर्वस्य व्यवहारस्य च हेतुस्तीति बोध्यम्॥6॥ पदार्थः—हे (तुविमघ) अनेकविध धनों को सिद्ध करने हारे (इन्द्र) सर्वोत्कृष्ट विद्वान्! आप जैसे (वातः) पवन (कुण्डृणाच्या) कुटिलगति से (वनात्) जगत् और सूर्य की किरणों से (अधि) ऊपर वा इनके नीचे से प्राप्त होकर आनन्द करता है, वैसे (तु) बारम्बार (सहस्रेषु) हजारह (अश्वेषु) वेग आदि गुण वाले घोड़े आदि (गोषु) पृथिवी, इन्द्रिय, किरण और चौपाए (शुभ्रिषु) शुद्ध व्यवहारों में सब प्राणियों और अप्राणियों को सुशोभित करता है, वैसे (नः) हम को (आशंसय) प्रशंसित कीजिये॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि जो यह पवन है वही सब जगह जाता हुआ अग्नि आदि पदार्थों से अधिक कुटिलता से गमन करने हारा और बहुत से ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा पशु वृक्षादि पदार्थों के व्यवहार उनके बढ़ने-घटने और समस्त वाणी के व्यवहार का हेतु है॥6॥ पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ सर्वं॑ परिक्र॒ोशं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्व॑म्। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥7॥27॥ सर्व॑म्। प॒रि॒ऽक्रो॒शम्। ज॒हि॒। ज॒म्भय॑। कृ॒क॒दा॒श्व॑म्। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वि॒ऽम॒घ॒॥7॥ पदार्थः—(सर्वम्) समस्तम् (परिक्रोशम्) परितः सर्वतः क्रोशन्ति रुदन्ति यस्मिन् दुःखसमूहे तम् (जहि) हिंधि (जम्भय) विनाशय अदर्शनं प्रापय। अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कृकदाश्वम्) कृकं हिसनं दाशति ददाति तं शत्रुम्। अत्र दाशृ धातोर्बाहुकादौणादिक उण् प्रत्ययस्ततोऽमिपूर्व इत्यत्र वा छन्दसि इत्यनुवृत्तौ पूर्वसवर्णविकल्पेन यणादेशः। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्माकमस्मान् वा (इन्द्र) सर्वशत्रुनिवारकसेनाध्यक्ष (शंसय) सुखिनः सम्पादय (गोषु) पृथिव्या राज्यव्यवहारेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वसेनाङ्गेषु (शुभ्रिषु) शुद्धेषु धर्म्येषु व्यवहारेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) अधिकं मघं वलाख्यं धनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्रापि पूर्ववद्दीर्घः॥7॥ अन्वयः—हे तुवीमघेन्द्रसेनाध्यक्षस्त्वं यो नोऽस्माकं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु सर्वं परिक्रोशं जहि कृकदाश्वं च जम्भयानेन तु पुनर्नोऽस्मानाशंसय॥7॥ भावार्थः—मनुष्यैरित्थं जगदीश्वरं प्रार्थनीयः। हे परमात्मन्! भवान् येऽस्मासु दृष्टव्यवहाराश्शत्रवः सन्ति तान् सर्वान् निवार्य्यास्मभ्यं सकलैश्वर्य्यं देहीति॥7॥ पूर्वेण पदार्थविद्यासाधनान्युक्तानि तदुपादानं जगत्पदार्थाः सन्ति ते जगदीश्वरेणोत्पादिता इत्युक्त्वात्र तेषां सकाशादुपकारग्रहणसमर्थाः स सभाध्यक्षः सभ्याजना भवन्तीत्युक्तत्वादष्टाविंश- सूक्तोक्तार्थेन सहास्यैकोनत्रिंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीतिबोध्यम्॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये सप्तविंशो वर्गः॥

प्रथममण्डले षष्ठेऽनुवाक एकोनत्रिंशत्तमं सूक्तं च समाप्तम्॥29॥ पदार्थः—हे (तुविमघ) अनन्त बलरूप धनयुक्त (इन्द्र) सब शत्रुओं के विनाश करने वाले जगदीश्वर आप जो (नः) हमारे (सहस्रेषु) अनेक (शुभ्रिषु) शुद्ध कर्मयुक्त व्यवहार वा (गोषु) पृथिवी के राज्य आदि व्यवहार तथा (अश्वेषु) घोड़े आदि सेना के अङ्गों में विनाश का कराने वाला व्यवहार हो उस (परिक्रोशम्) सब प्रकार से रुलाने वाले व्यवहार को (जहि) विनष्ट कीजिये तथा जो (नः) हमारा शत्रु हो (कृकदाश्वम्) उस दुःख देने वाले को भी (जम्भय) विनाश को प्राप्त कीजिये। इस रीति से (तु) फिर (नः) हम लोगों को (आशंसय) शत्रुओं से पृथक् कर सुखयुक्त कीजिये॥7॥ भावार्थः—मनुष्यों को इस प्रकार जगदीश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमात्मन्! आप हम लोगों में जो दुष्ट व्यवहार अर्थात् खोटे चलन तथा जो हमारे शत्रु हैं, उनको दूर कर हम लोगों के लिये सकल ऐश्वर्य दीजिये॥7॥ पिछले सूक्त में पदार्थ विद्या और उसके साधन कहे हैं, उनके उपादान अत्यन्त प्रसिद्ध कराने हारे संसार के पदार्थ हैं जो कि परमेश्वर ने उत्पन्न किये हैं, इस सूक्त में उन पदार्थों से उपकार ले सकने वाली सभाध्यक्ष सहित सभा होती है, उसके वर्णन करने से पूर्वोक्त अट्ठाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस उनतीसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। यह प्रथम अष्टक में दूसरे अध्याय में सत्ताईसवां वर्ग वा प्रथम मण्डल में छठे अनुवाक में उनतीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥29॥

अथ द्वाविंशत्यृचस्य त्रिंशत्तमस्य सूक्तस्याजीगर्त्ति शुनःशेप ऋषिः। 1-16 इन्द्रः। 17-19 अश्विनौ। 20-22 उषादेवताः। 1-10, 12-15, 17-22 गायत्री। 11 पादनिचृद्गायत्री त्रिष्टुप् च छन्दांसि। 1-22 षड्जः। 16 धैवतश्च स्वरः॥ तत्रादिमे इन्द्रशब्देन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते। इसके पहले मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीरों के गुणों का प्रकाश किया है॥ आ व॒ इ॒न्द्रं॒ क्रिविं॑ यथा वाज॒यन्तः॑ श॒तक्र॑तुम्। मंहि॑ष्ठं सिञ्च॒ इन्दु॑भिः॥1॥ आ। वः॒। इन्द्र॑म्। क्रिवि॑म्। य॒था॒। वा॒ज॒ऽयन्तः॑। श॒तऽक्र॑तुम्। मंहि॑ष्ठम्। सि॒ञ्च॒। इन्दु॑ऽभिः॥1॥ पदार्थः—(आ) सर्वतः (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यहेतुप्रापकम् (क्रिविम्) कूपम्। क्रिविरिति कूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.23) (यथा) येन प्रकारेण (वाजयन्तः) जलं चालयन्तो वायवः (शतक्रतुम्) शतमसंख्याताः क्रतवः कर्म्माणि यस्मात्तम् (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तम् (सिञ्च) (इन्दुभिः) जलैः॥1॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्ष! मनुष्या यथा कृषीवलाः क्रिविं कूपं सम्प्राप्य तज्जलेन क्षेत्राणि सिंचन्ति यथा वाजयन्तो वायव इन्दुभिः शतक्रतुं मंहिष्ठमिन्द्रं च तथा त्वमपि प्रजाः सुखैः सिंच संयोजय॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः पूर्वं कूपं खनित्वा तज्जलेन स्नानपानक्षेत्रवाटिकादि सिंचनादि व्यवहारं कृत्वा सुखिनो भवन्ति, तथैव विद्वांसो यथावत् कलायन्त्रेष्वऽग्निं योजयित्वा तत्सम्बन्धेन जलं स्थापयित्वा चालनेन बहूनि कार्य्याणि कृत्वा सुखिनो भवन्ति॥1॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष मनुष्य! (यथा) जैसे खेती करने वाले किसान (क्रिविम्) कुएँ को खोद कर उसके जल से खेतों को (सिञ्च) सींचते हैं और जैसे (वाजयन्तः) वेगयुक्त वायु (इन्दुभिः) जलों से (शतक्रतुम्) जिससे अनेक कर्म होते हैं (मंहिष्ठम्) बड़े (इन्द्रम्) सूर्य को सींचते, वैसे तू भी प्रजाओं को सुखों से अभिषिक्त कर॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य पहिले कुएँ को खोद कर उसके जल से स्नान-पान और खेत बगीचे आदि स्थानों के सींचने से सुखी होते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग यथायोग्य कलायन्त्रों में अग्नि को जोड़ के उसकी सहायता से कलों में जल को स्थापन करके उनको चलाने से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके सुखी होते हैं॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ श॒तं वा॒ यः शुची॑नां स॒हस्रं॑ वा॒ समा॑शिराम्। एदु॑ नि॒म्नं न री॑यते॥2॥ श॒तम्। वा॒। यः। शुची॑नाम्। स॒हस्र॑म्। वा॒। सम्ऽआ॑शिराम्। आ। इत्। ऊ॒म् इति॑। नि॒म्नम्। न। री॒य॒ते॒॥2॥ पदार्थः—(शतम्) असंख्यातम् (वा) पक्षान्तरे (यः) बहुशुभगुणयुक्तो जनः (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये। शुचिश्शोचतेर्ज्वलतिकर्म्मणः। (निरु॰6.1) (सहस्रम्) बह्वर्थे (वा) पक्षान्तरे (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्। अत्र श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। (उणा॰4.200) अनेनासुन् प्रत्ययः शिर आदेशश्चासुनि। (आ) आधारार्थे (इत्) एव (उ) वितर्के (निम्नम्) अधःस्थानम् (न) इव (रीयते) विजानाति। रीयतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰2.14)॥2॥ अन्वयः—पवित्रश्चोपचितो विद्वान् योऽग्निर्भौतिकोऽस्ति सोऽयं निम्नमधः स्थानं गच्छतीव शुचीनां शतं शतगुणो वा समाशिरां सहस्रं वैद्वाधारभूतो दाहको वा रीयते विजानाति॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। अयमग्निः सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपेण शतशः शुद्धीः करोति पच्यमानानां पदार्थानां मध्ये वेगैस्सहस्रशः पदार्थान् पचति, यथा जलमधःस्थानमभिद्रवति तथैवायमग्निरूर्ध्वमभिगच्छत्यनयोर्विपर्यासकरणेनाग्निमधः स्थापयित्वा तदुपरि जलस्य स्थापनेन द्वयोर्योगाद् वाष्पैर्वेगादयो गुणा जायन्त इति॥2॥ पदार्थः—जो शुद्धगुण, कर्म, स्वभावयुक्त विद्वान् है, उसी से यह जो भौतिक अग्नि है वह (निम्नम्) (न) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (शुचीनाम्) शुद्ध कलायन्त्र वा प्रकाश वाले पदार्थों का (शतम्) (वा) सौ गुना अथवा (समाशिराम्) जो सब प्रकार से पकाए जावें, उन पदार्थों का (सहस्रम्) (वा) हजार गुना (आ) (इत्) (उ) आधार और दाह गुणवाला (रीयते) जानता है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यह अग्नि सूर्य और बिजली जो इसके प्रसिद्ध रूप हैं, सैकड़ों पदार्थों की शुद्धि करता है और पकने योग्य पदार्थों में हजारों पदार्थों को अपने वेग से पकाता है, जैसे जल नीची जगह को जाता है, वैसे ही यह अग्नि ऊपर को जाता है। इन अग्नि और जल को लौट-पौट करने अर्थात् अग्नि को नीचे और जल को ऊपर स्थापन करने से वा दोनों के संयोग से वेग आदि गुण उत्पन्न होते हैं॥2॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑। स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे॥3॥ सम्। यत्। मदा॑य। शु॒ष्मिणे॑। ए॒ना। हि। अ॒स्य॒। उ॒दरे॑। स॒मु॒द्रः। न। व्यचः॑। द॒धे॥3॥ पदार्थः—(सम्) सम्यगर्थे (यत्) याः (मदाय) हर्षाय (शुष्मिणे) शुष्मं प्रशस्तं बलं विद्यते यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। शुष्ममिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (एना) एनेन शतेन सहस्रेण वा। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (हि) खलु (अस्य) इन्द्राख्यस्याग्नेः (उदरे) मध्ये (समुद्रः) जलाधिकरणः (न) इव (व्यचः) विविधं जलादिवस्त्वञ्चन्ति ताः। अत्र व्युपपदादऽचेः किन् ततो जस्। (दधे) धरेयम्॥3॥ अन्वयः—अहं कि खलु मदाय शुष्मिणे समुद्रो व्यचो नो वाऽस्येन्द्राख्यस्याग्नेरुदर एना एनेन शतेन सहस्रेण च गुणैः सह वर्त्तमाना यत् याः क्रियाः सन्ति ताः सन्दधे॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्योदरेऽनेके गुणा रत्नानि सन्त्यगाधं जलं वास्ति तथैवाग्नेर्मध्येऽनेके गुणा अनेकाः क्रिया वसन्ति। तस्मान्मनुष्यैरग्निजलयोः सकाशात् प्रयत्नेन बहुविध उपकारो ग्रहीतुं शक्य इति॥3॥ पदार्थः—मैं (हि) अपने निश्चय से (मदाय) आनन्द और (शुष्मिणे) प्रशंसनीय बल और ऊर्जा जिस व्यवहार में हो, उसके लिये (समुद्रः) (न) जैसे समुद्र (व्यचः) अनेक व्यवहार (न) सैकड़ह हजार गुणों सहित (यत्) जो क्रिया हैं, उन क्रियाओं को (सन्दधे) अच्छे प्रकार धारण करूं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के मध्य में अनेक गुण, रत्न और जीव-जन्तु और अगाध जल है, वैसे ही अग्नि और जल के सकाश से प्रयत्न के साथ बहुत प्रकार का उपकार लेना चाहिये॥3॥ पुनः स एवोपदिश्यते। फिर भी उसी विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥ अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑ इव गर्भ॒धिम्। वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे॥4॥ अ॒यम्। ऊ॒म् इति॑। ते॒। सम्। अ॒त॒सि॒। क॒पोत॑ऽइव। ग॒र्भ॒धिम्। वचः॑। तत्। चि॒त्। नः॒। ओ॒ह॒से॒॥4॥ पदार्थः—(अयम्) इन्द्राख्योऽग्निः (उ) वितर्के (ते) तव (सम्) सम्यगर्थे (अतसि) निरन्तरं गच्छति प्रापयति। अत्र व्यत्ययः (कपोत इव) पारावत इव (गर्भधिम्) गर्भो धीयतेऽस्यां ताम् (वचः) वर्त्तनम् (तत्) तस्मै पूर्वोक्ताय बलादिगुणवर्द्धकायानन्दाय (चित्) पुनरर्थे (नः) अस्माकम् (ओहसे) आप्नोति॥4॥ अन्वयः—अयमिन्द्राख्योऽग्निरु गर्भधिं कपोत इव नो वचः समोहसे चिन्नस्तत् अतसि॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा कपोतो वेगेन कपोतीमनुगच्छति, तथैव शिल्पविद्यया साधितोऽग्निरनुकूलां गतिं गच्छति, मनुष्या एनां विद्यामुपदेशश्रवणाभ्यां प्राप्तुं शक्नुवन्तीति॥4॥ पदार्थः—(अयम्) यह इन्द्र अग्नि जो कि परमेश्वर का रचा है (उ) हम जानते हैं कि जैसे (गर्भधिम्) कबूतरी को (कपोत इव) कबूतर प्राप्त हो, वैसे (नः) हमारी (वचः) वाणी को (समोहसे) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है और (चित्) वही सिद्ध किया हुआ (नः) हम लोगों को (तत्) पूर्व कहे हुये बल आदि गुण बढ़ाने वाले आनन्द के लिये (अतसि) निरन्तर प्राप्त करता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कबूतर अपने वेग से कबूतरी को प्राप्त होता है, वैसे ही शिल्पविद्या से सिद्ध किया हुआ अग्नि अनुकूल अर्थात् जैसे चाहिये वैसे गति को प्राप्त होता है। मनुष्य इस विद्या को उपदेश वा श्रवण से पा सकते हैं॥4॥ अथेन्द्रशब्देन सभासेनाध्यक्ष उपदिश्यते॥ अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सभा वा सेना के स्वामी का उपदेश किया है॥ स्तो॒त्रं रा॑धानां पते॒ गिर्वा॑हो वीर॒ यस्य॑ ते। विभू॑तिरस्तु सू॒नृता॑॥5॥28॥ स्तो॒त्रम्। रा॒धा॒ना॒म्। प॒ते॒। गिर्वा॑हः। वी॒र॒। यस्य॑। ते॒। विऽभू॑तिः। अ॒स्तु॒। सू॒नृता॑॥5॥ पदार्थः—(स्तोत्रम्) स्तुवन्ति येन तत् (राधानाम्) राध्नुवन्ति सुखानि येषु पृथिव्यादि धनेषु तेषाम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) अत्र हलश्च। (अष्टा॰3.3.121) इति घञ्। अत्र सायणाचार्येण राध्नुवन्ति एभिरिति राधनानि धनानीत्यशुद्धमुक्तं घञन्तस्य नियतपुल्लिङ्गत्वात् (पते) पालयितः (गिर्वाहः) गीर्भिर्वेदस्थवाग्भिरुह्यते प्राप्यते यस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र कारकोपपदाद्वहधातोः सर्वधातुभ्योऽसुन्। (उणा॰4.196) अनेनासुन् प्रत्ययः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति पूर्वपदस्य दीर्घादेशो न। (वीर) अजति वेद्यं जानाति प्रक्षिपति विनाशयति सर्वाणि दुःखानि वा यस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र स्फायितञ्चिवञ्चि॰ (उणा॰2.12) अनेनाजेरक् प्रत्ययः। (यस्य) स्पष्टार्थः (ते) तव (विभूतिः) विविधमैश्वर्यम् (अस्तु) भवतु (सूनृता) सुष्ठु ऋतं यस्यां सा। पृषोदरादी॰ इति दीर्घत्वं नुडागमश्च॥5॥ अन्वयः—हे गिर्वाहो वीर राधानां पते सभासेनाध्यक्ष विद्वन्! यस्य ते तव सूनृता विभूतिरस्ति तस्य तव सकाशादस्माभिर्गृहीतं स्तोत्रं नोऽस्माकं प्रदाय शुष्मिणेऽस्तु॥5॥ भावार्थः—अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (मदाय) (शुष्मिणे) (नः) इति पदत्रयमनुवर्त्तते। मनुष्यैर्यः सर्वस्य स्वामी वेदोक्तगुणाधिष्ठानो विज्ञानरतः सत्यैश्वर्य्यः यथायोग्यन्यायकारी सभाध्यक्षः सेनापतिर्वा विद्वानस्ति स एवास्माभिर्न्यायाधीशो मन्तव्य इति॥5॥ पदार्थः—हे (गिर्वाहः) जानने योग्य पदार्थों के जानने और सुख-दुःखों के नाश करने वाले तथा (राधानाम्) जिन पृथिवी आदि पदार्थों में सुख सिद्ध होते हैं, उनके (पते) पालन करने वाले सभा वा सेना के स्वामी विद्वान् (यस्य) जिन (ते) आपका (सूनृता) श्रेष्ठता से सब गुण का प्रकाश करने वाला (विभूतिः) अनेक प्रकार का ऐश्वर्य्य है, सो आप के सकाश से हम लोगों के लिये (स्तोत्रम्) स्तुति (नः) हमारे पूर्वोक्त (मदाय) आनन्द और (शुष्मिणे) बल के लिये (अस्तु) हो॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पिछले तीसरे मन्त्र से (मदाय) (शुष्मिणे) (नः) इन तीन पदों अनुवृत्ति है। हम लोगों को सब का स्वामी जो कि वेदों से परिपूर्ण विज्ञानरत ऐश्वर्य्ययुक्त और यथायोग्य न्याय करने वाला सभाध्यक्ष वा सेनापति विद्वान् है, उसी को न्यायाधीश मानना चाहिये॥5॥ पुनरयं कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर यह सभाध्यक्ष वा सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र मंश किया है॥ ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठा न ऊ॒तये॒ऽस्मिन्वाजे॑ शतक्रतो। सम॒न्येषु॑ ब्रवावहै॥6॥ ऊ॒र्ध्वः। ति॒ष्ठ॒। नः॒। ऊ॒तये॑। अ॒स्मिन्। वाजे॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो। सम्। अ॒न्येषु॑। ब्र॒वा॒व॒है॒॥6॥ पदार्थः—(ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमानः (तिष्ठ) स्थिरो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अस्मिन्) वर्त्तमाने (वाजे) युद्धे (शतक्रतो) शतानि बहुविधानि कर्माणि वा बहुविधाप्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। सभासेनाध्यक्ष (सम्) सम्यगर्थे (अन्येषु) युद्धेतरेषु साधनीयेषु कार्येषु (ब्रवावहै) परस्परमुपदेशश्रवणे नित्यं कुर्य्यावहै॥6॥ अन्वयः—हे शतक्रतो! नोऽस्माकमूतये ऊर्ध्वस्तिष्ठैवं सति वाजेऽन्येषु साधनीयेषु कर्मसु त्वं प्रतिजनोऽहं च द्वौ द्वौ सम्ब्रवावहै॥6॥ भावार्थः—सत्याचारैर्ध्यानावस्थितैर्मनुष्यैरात्मस्थानान्तर्यामि जगदीश्वरस्याज्ञया सेनाधिष्ठात्रा सभाध्यक्षेण च सत्यासत्ययोः कर्तव्याकर्तव्ययोश्च सम्यङ्निश्चयः कार्यो नैतेन विना कदाचित् कस्यचिद्विजयसत्यबोधौ भवतः। ये सर्वव्यापिनं जगदीश्वरं न्यायाधीशं मत्वा धार्मिकं शूरवीरं च सेनापतिं कृत्वा शत्रुभिः सह युध्यन्ति तेषां ध्रुवो विजयो नेतरेषामिति॥6॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) अनेक प्रकार के कर्म वा अनेक प्रकार की बुद्धियुक्त सभा वा सेना के स्वामी! जो आप के सहाय के योग्य हैं, उन सब कार्यों में हम (सम्ब्रवावहै) परस्पर कह सुन सम्मति से चलें और तू (नः) हम लोगों की (ऊतये) रक्षा करने के लिये (ऊर्ध्वः) सभों से ऊँचे (तिष्ठ) बैठ। इस प्रकार आप और हम सभों में प्रतिजन अर्थात् दो-दो होकर (वाजे) युद्ध तथा (अन्येषु) अन्य कर्त्तव्य जो कि उपदेश वा श्रवण है, उस को नित्य करें॥6॥ भावार्थः—सत्य प्रचार के विचारशील पुरुषों को योग्य है कि जो अपने आत्मा में अन्तर्यामी जगदीश्वर है, उसकी आज्ञा से सभापति वा सेनापति के साथ सत्य और मिथ्या वा करने और न करने योग्य कामों का निश्चय करना चाहिये। इसके विना कभी किसी को विजय या सत्य बोध नहीं हो सकता। जो सर्वव्यापी जगदीश्वर न्यायाधीश को मानकर वा धार्मिक शूरवीर को सेनापति करके शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं, उन्हीं का निश्चय से विजय होता है, औरों का नहीं॥6॥ पुनरीश्वरसेनाध्यक्षौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥ फिर ईश्वर वा सेनाध्यक्ष कैसे हैं, इस का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे। सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑॥7॥ योगे॑ऽयोगे। त॒वःऽत॑रम्। वाजे॑ऽवाजे। ह॒वा॒म॒हे॒। सखा॑यः। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑॥7॥ पदार्थः—(योगेयोगे) अनुपात्तस्योपात्तलक्षणो योगस्तस्मिन् प्रतियोगे (तवस्तरम्) तूयते विज्ञायत इति तवाः सोऽतिशयितस्तम्। सायणाचार्येणात्र विन्प्रत्ययस्य छान्दसो लोप इति यदुक्तं तदशुद्धं प्रमाणाभावात् (वाजेवाजे) युद्धं युद्धं प्रति (हवामहे) आह्वयामहि। अत्र लेटोऽस्मद्बहुवचने लेटोऽडाटौ। (अष्टा॰3.4.94) अनेनाडागमे कृते। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰6.1.34) इति सम्प्रसारणम्। (सखायः) सुहृदो भूत्वा (इन्द्रम्) सर्वविजयप्रदं जगदीश्वरं वा दुष्टशत्रुनिवारकमात्मशरीरबलवन्तं धार्म्मिकं वीरं सेनापतिम् (ऊतये) रक्षणाद्याय विजयसुखप्राप्तये वा॥7॥ अन्वयः—वयं सखायो भूत्वा स्वोतये योगेयोगे वाजेवाजे तवस्तरमिन्द्रं परमात्मानं सभाध्यक्षं वा हवामहे॥7॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्मित्रतां सम्पाद्य प्राप्तानां पदार्थानां रक्षणं सर्वत्र विजयश्च कार्यः। परमेश्वरः सेनापतिश्च नित्यमाश्रयणीयः नैवैतावन्मात्रेणैवैतत्सिद्धिर्भवितुमर्हति। किं तर्हि? विद्यापुरुषार्थाभ्यामेतस्य सिद्धिर्जायत इति॥7॥ पदार्थः—हम लोग (सखायः) परस्पर मित्र होकर अपनी (ऊतये) उन्नति वा रक्षा के लिये (योगेयोगे) अति कठिनता से प्राप्त होने वाले पदार्थ-पदार्थ में वा (वाजेवाजे) युद्ध-युद्ध में (तवस्तरम्) जो अच्छे प्रकार वेदों से जाना जाता है, उस (इन्द्रम्) सब से विजय देने वाले जगदीश्वर वा दुष्ट शत्रुओं को दूर करने और आत्मा वा शरीर के बल वाले धार्म्मिक सभाध्यक्ष को (हवामहे) बुलावें अर्थात् बार-बार उसकी विज्ञप्ति करते रहें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परस्पर मित्रता सिद्ध कर अलभ्य पदार्थों की रक्षा और सब जगह विजय करना चाहिये तथा परमेश्वर और सेनापति का नित्य आश्रय करना चाहिये और यह भी स्मरण रखना चाहिये कि उक्त आश्रय से ही उत्तम कार्यसिद्धि होने के योग्य हो, सो ही नहीं, किन्तु विद्या और पुरुषार्थ भी उनके लिये करने चाहिये॥7॥ स केन सहागच्छदित्युपदिश्यते॥ वह किसके साथ प्राप्त हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ घा॑ गम॒द्यदि॒ श्रव॑त्सह॒स्रिणी॑भिरू॒तिभिः॑। वाजे॑भि॒रुप॑ नो॒ हव॑म्॥8॥ आ। घ॒। ग॒म॒त्। यदि॑। श्रव॑त्। स॒ह॒स्रिणी॑भिः। ऊ॒तिऽभिः॑। वाजे॑भिः। उप॑। नः॒। हव॑म्॥8॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (घ) एव। ऋचि तुनुघ॰ इति दीर्घः। (गमत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (यदि) चेत् (श्रवत्) शृणुयात्। अत्र श्रुधातोर्लेट् बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (सहस्रिणीभिः) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः सह (वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न (उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म॥8॥ अन्वयः—यदि स इन्द्रः सभासेनाध्यक्षो नोऽस्माकमाहवमाह्वानं श्रवत् शृणुयात्तर्हि सद्य स एव सहस्रिणीभिरूतिभिर्वाजेभिः सह नोऽस्माकं हवमाह्वानमुपागमदुपागच्छेत्॥8॥ भावार्थः—यत्र मनुष्यैः सत्यभावेन यस्य सभासेनाध्यक्षस्य सेवनं क्रियते, तत्र संरक्षणाय ससेनाङ्गै रत्नादिभिस्सह तानुपतिष्ठते नैतस्य सहायेन विना कस्यचित्सत्यौ सुखविजयौ सम्भवत इति॥8॥ पदार्थः—(यदि) जो वह सभा वा सेना का स्वामी (नः) हम लोगों की (आ) (हवम्) प्रार्थना को (श्रवत्) श्रवण करे (घ) वही (सहस्रिणीभिः) हजारों प्रशंसनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं, जिनमें उन (ऊतिभिः) रक्षा आदि व्यवहार वा (वाजेभिः) अन्न ज्ञान और युद्ध निमित्तक विजय के साथ प्रार्थना को (उपागमत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो॥8॥ भावार्थः—जहाँ मनुष्य सभा वा सेना के स्वामी का सेवन करते हैं, वहाँ वह सभाध्यक्ष अपनी सेना के अङ्ग वा अन्नादि पदार्थों के साथ उनके समीप स्थिर होता है। इस की सहायता के विना किसी को सत्य-सत्य सुख वा विजय नहीं होते हैं॥8॥ अथेश्वरसभाध्यक्षयोः प्रार्थना सर्वमनुष्यैः कार्येत्युपदिश्यते॥ अब ईश्वर और सभाध्यक्ष की प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॒वे॥9॥ अनु॑। प्र॒त्नस्य॑। ओक॑सः। हु॒वे। तु॒वि॒ऽप्र॒तिम्। नर॑म्। यम्। ते॒। पूर्व॑म्। पि॒ता। हु॒वे॥9॥ पदार्थः—(अनु) पश्चादर्थे (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य। प्रत्नमिति पुराणनामसु पठितम्। (निघं॰3.27) अत्र त्नप् प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च। (अष्टा॰वा॰4.3.23) अनेन प्रशब्दात्तनप् प्रत्ययः। (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्याकाशस्य (हुवे) स्तौमि (तुविप्रतिम्) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम्। अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते। (नरम्) सर्वस्य जगतो नेतारम् (यम्) जगदीश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा (ते) तव (पूर्वम्) प्रथमम् (पिता) जनक आचार्यो वा (हुवे) गृह्णात्याह्वयति। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुगात्मनेपदं च॥9॥ अन्वयः—हे मनुष्य! ते पिता यं प्रत्नस्यौकसः सनातनस्य कारणस्य सकाशात् तुविप्रतिं बहुकार्यप्रतिमातारं नरं परमेश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा पूर्वं हुवे तमेवाहमनुकूलं हुवे स्तौमि॥9॥ भावार्थः—ईश्वरो मनुष्यानुपदिशति। हे मनुष्या! युष्माभिरेवमन्यान् प्रत्युपदेष्टव्यं योऽनादिकारणस्य सकाशादनेकविधानि कार्याण्युत्पादयति। किञ्च यस्योपासनं पूर्वे कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति च तस्यैवोपासनं नित्यं कर्त्तव्यमिति। अत्र कञ्चित्प्रति कश्चित् पृच्छेत्त्वं कस्योपासनं करोषीति तस्मा उत्तरं दद्यात् यस्योपासनं तव पिता करोति यस्य च सर्वे विद्वांसः। यं वेदा निराकारं सर्वव्यापिनं सर्वशक्तिमन्तमजमनादिस्वरूपं जगदीश्वरं प्रतिपादयन्ति तमेवाहं नित्यमुपासे॥9॥ पदार्थः—हे मनुष्य! (ते) तेरा (पिता) जनक वा आचार्य्य (यम्) जिस (प्रत्नस्य) सनातन कारण वा (ओकसः) सबके ठहरने योग्य आकाश के सकाश से (तुविप्रतिम्) बहुत पदार्थों को प्रसिद्ध करने और (नरम्) सबको यथायोग्य कार्य्यों में लगाने वाले परमेश्वर वा सभाध्यक्ष का (पूर्वम्) पहिले (हुवे) आह्वान करता रहा उन का मैं भी (अनुहुवे) तदनुकूल आह्वान वा स्तवन करता हूं॥9॥ भावार्थः—ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! तुम को औरों के लिये ऐसा उपदेश करना चाहिये कि जो अनादि कारण से अनेक प्रकार के कार्य्यों को उत्पन्न करता है तथा जिस की उपासना पहिले विद्वानों ने की वा अब के करते और अगले करेंगे, उसी की उपासना नित्य करनी चाहिये। इस मन्त्र में ऐसा विषय है कि कोई किसी से पूछे कि तुम किस की उपासना करते हो? उसके लिये ऐसा उत्तर देवे कि जिसकी तुम्हारे पिता वा सब विद्वान् जन करते तथा वेद जिस निराकर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, अज और अनादि स्वरूप जगदीश्वर का प्रतिपादन करते हैं, उसी की उपासना मैं निरन्तर करता हूं॥9॥ अथोक्तस्येश्वरस्य प्रार्थनाविषय उपदिश्यते॥ अब ईश्वर की प्रार्थना के विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तं त्वा॑ व॒यं वि॑श्ववा॒रा शा॑स्महे पुरुहूत। सखे॑ वसो जरि॒तृभ्यः॑॥10॥29॥ तम्। त्वा॒। व॒यम्। वि॒श्व॒ऽवा॒र॒। आ। शा॒स्म॒हे॒। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। सखे॑। व॒सो॒ इति॑। ज॒रि॒तृऽभ्यः॑॥10॥ पदार्थः—(तम्) पूर्वोक्तं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (यम्) उपासनामभीप्सवः (विश्ववार) विश्वं वृणीते सम्भाजयति तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (शास्महे) इच्छामः (पुरुहूत) पुरुभिर्बहुभिराहूयते स्तूयते यस्तत् सम्बुद्धौ (सखे) मित्र (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति तत्सम्बुद्धौ (जरितृभ्यः) स्तावकेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यो मनुष्येभ्यः॥10॥ अन्वयः—हे विश्ववार पुरुहूत वसो सखे जगदीश्वर! पूर्वप्रतिपादितं त्वां वयं जरितृभ्य आशास्महे भवद्विज्ञानप्रकाशमिच्छाम इति यावत्॥10॥ भावार्थः—मनुष्यैर्विदुषां सङ्गमेनैवास्य सर्वरचकस्य सर्वपूज्यस्य सर्वमित्रस्य सर्वाधारस्य पूर्वमन्त्रप्रतिपादितस्य परमेश्वरस्य विज्ञानमुपासनं नित्यमन्वेष्टव्यम्, कुतो नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यापि यथार्थतया विज्ञानं भवितुमर्हति॥10॥ पदार्थः—हे (विश्ववार) संसार को अनेक प्रकार सिद्ध करने (पुरुहूत) सब से स्तुति को प्राप्त होने (वसो) सब में रहने वा सबको अपने में बसाने वाले (सखे) सबके मित्र जगदीश्वर! (तम्) पूर्वोक्त (त्वा) आपकी (वयम्) हम लोग (जरितृभ्यः) स्तुति करने वाले धार्मिक विद्वानों से (आ) सब प्रकार से (शास्महे) आशा करते हैं अर्थात् आपके विशेष ज्ञान प्रकाश की इच्छा करते हैं॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों को विद्वानों के समागम ही से सब जगत् के रचने, सबके पूजने योग्य, सबके मित्र, सबके आधार, पिछले मन्त्र से प्रतिपादित किये हुए परमेश्वर के विज्ञान वा उपासना की नित्य इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि विद्वानों के उपदेश के विना किसी को यथायोग्य विशेष ज्ञान नहीं हो सकता है॥10॥ पुनः सभासेनाध्यक्षप्राप्तीच्छाकरणमुपदिश्यते॥ फिर सभा सेनाध्यक्ष के प्राप्त होने की इच्छा करने का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ अ॒स्माकं॑ शि॒प्रिणी॑नां॒ सोम॑पाः सोम॒पाव्ना॑म्। सखे॑ वज्रि॒न्त्सखी॑नाम्॥11॥ अ॒स्माक॑म्। शि॒प्रिणी॑नाम्। सोम॑ऽपाः। सो॒म॒ऽपाव्ना॑म्। सखे॑। व॒ज्रि॒न्। सखी॑नाम्॥11॥ पदार्थः—(अस्माकम्) विदुषां सकाशाद् गृहीतोपदेशानाम् (शिप्रिणीनाम्) शिप्रे ऐहिकपारमार्थिकव्यवहारज्ञाने विद्येते यासां ता विदुष्यः स्त्रियस्तासाम्। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.3)। अनेनात्र ज्ञानार्थो गृह्यते। (सोमपाः) सोमान् उत्पादितान् कार्याख्यान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सोमपाव्नाम्) सोमानां पावनो रक्षकास्तेषाम् (सखे) सर्वसुखप्रद (वज्रिन्) वज्रोऽविद्यानिवारकः प्रशस्तो बोधो विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ। अत्र व्रजेर्गत्यर्थाज्ज्ञानार्थे प्रशंसायां मतुप्। (सखीनाम्) सर्वमित्राणां पुरुषाणां सखीनां स्त्रीणां वा॥11॥ अन्वयः—हे सोमपा वज्रिन्! सोमपाव्नां सखीनामस्माकं सखीनां शिप्रिणीनां स्त्रीणां च सर्वप्रधानं त्वा त्वां वयमाशास्महे प्राप्तुमिच्छामः॥11॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् (त्वा) (वयम्) (आ) (शास्महे) इति पदचतुष्टयाऽनुवृत्तिः। सर्वैः पुरुषैः सर्वाभिः स्त्रीभिश्च परस्परं मित्रतामासाद्य परमेश्वरोपासनाऽऽर्यराजविद्या धर्मसभा सर्वव्यवहारसिद्धिश्च प्रयत्नेन सदैव सम्पादनीया॥11॥ पदार्थः—हे (सोमपाः) उत्पन्न किये हुए पदार्थ की रक्षा करने वाले (वज्रिन्) सब अविद्यारूपी अन्धकार के विनाशक उत्तम ज्ञानयुक्त (सखे) समस्त सुख देने और (सोमपाव्नाम्) सांसारिक पदार्थों की रक्षा करने वाले (सखीनाम्) सबके मित्र हम लोगों के तथा (सखीनाम्) सबका हित चाहनेहारी वा (शिप्रिणीनाम्) इस लोक और परलोक के व्यवहार ज्ञानवाली हमारी स्त्रियों को सब प्रकार से प्रधान (त्वा) आप को (वयम्) करने वाले हम लोग (आशास्महे) प्राप्त होने की इच्छा करते हैं॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और पूर्व मन्त्र से (त्वा) (वयम्) (आ) (शास्महे) इन चार पदों की अनुवृत्ति है। सब पुरुष वा सब स्त्रियों को परस्पर मित्रभाव का वर्त्ताव कर व्यवहार की सिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना वा आर्य्य राजविद्या और धर्म सभा प्रयत्न के साथ सदा सम्पादन करनी चाहिये॥11॥ अथ सभाध्यक्षाय किं किमुपदेशनीयमित्युपदिश्यते॥ अब उस सभाध्यक्ष को क्या-क्या उपदेश करने के योग्य है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥ तथा॒ तद॑स्तु सोमपाः॒ सखे॑ वज्रि॒न् तथा॑ कृणु। यथा॑ त उ॒श्मसी॒ष्टये॑॥12॥ तथा॑। तत्। अ॒स्तु॒। सो॒म॒पाः॒। सखे॑। व॒ज्रि॒न्। तथा॑। कृ॒णु॒। यथा॑। ते॒। उ॒श्मसि॑। इ॒ष्टये॑॥12॥ पदार्थः—(तथा) तेन प्रकारेण (तत्) मित्राचरणम् (अस्तु) भवतु (सोमपाः) यः सोमैर्जगत्युत्पन्नैः पदार्थैः सर्वान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सखे) सर्वेषां सुखदातः (वज्रिन्) वज्रः सर्वदुःखनाशनो बहुविधो दृढो बोधो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (तथा) प्रकारार्थे (कृणु) कुरु (यथा) येन प्रकारेण (ते) तव (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसिरादेशः। (इष्टये) इष्टसुखसिद्धये॥12॥ अन्वयः—हे सोमपा वज्रिन्सखे सभाध्यक्ष! यथा वयमिष्टये ते तवाऽनुकूलं यन्मित्राचरणं कर्त्तुमुश्मसि कामयामहे कुर्म्मश्च तथा तदस्तु तथा तत् त्वमपि कृणु कुरु॥12॥ भावार्थः—यथा सर्वेषां हितैषी सकलविद्यान्वितः सभासेनाध्यक्षः प्रजाः सततं रक्षेत्, तथैव प्रजासेनास्थैरपि मनुष्यैस्तदवनं सदा सम्भावनीयमिति॥12॥ पदार्थः—हे (सोमपाः) सांसारिक पदार्थों से जीवों की रक्षा करने वाले (वज्रिन्) सभाध्यक्ष! जैसे हम लोग (इष्टये) अपने सुख के लिये (ते) आप शस्त्रास्त्रवित् (सखे) मित्र की मित्रता के अनुकूल जिस मित्राचरण के करने को (उश्मसि) चाहते और करते हैं (तथा) उसी प्रकार से आपकी (तत्) मित्रता हमारे में (अस्तु) हो आप (तथा) वैसे (कृणु) कीजिये॥12॥ भावार्थः—जैसे सब का हित चाहनेवाला और सकल विद्यायुक्त सभा सेनाध्यक्ष निरन्तर प्रजा की रक्षा करे, वैसे ही प्रजा सेना के मनुष्यों को भी उसकी रक्षा की सम्भावना करनी चाहिये॥12॥ तस्मिन्किं किं स्थापयित्वा सर्वैः सुखयितव्यमित्युपदिश्यते॥ उसमें क्या-क्या स्थापन करके सब मनुष्यों को सुखयुक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः। क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म॥13॥ रे॒वतीः॑। नः॒। स॒ध॒ऽमादे॑। इन्द्रे॑। स॒न्तु॒। तु॒विऽवा॑जाः। क्षु॒ऽमन्तः॑। याभिः॑। मदे॑म॥13॥ पदार्थः—(रेवतीः) रयिः शोभा धनं प्रशस्तं विद्यते यासु ताः (प्रजाः)। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा॰वा॰6.1.37) अनेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीर इति मस्य वत्वम्। सुपां सुलुग्॰ इति पूर्वसवर्णादेशश्च। (नः) अस्माकम् (सधमादे) मादेनान्देन सह वर्त्तमाने। अत्र सध मादस्थयोश्छन्दसि। (अष्टा॰6.3.96) इति सहस्य सधादेशः। (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (सन्तु) भवन्तु (तुविवाजाः) तुवि बहुविधो वाजो विद्याबोधो यासां ताः (क्षुमन्तः) बहुविधं क्ष्वन्नं विद्यते येषां ते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। क्ष्वित्यन्ननामसुपठितम्। (निघं॰2.7) (याभिः) प्रजाभिः (मदेम) आनन्दं प्राप्नुयाम॥13॥ अन्वयः—यथा क्षुमन्तो वयं याभिः प्रजाभिः सधमादे मदेम तुविवाजा रेवतीः रेवत्यः प्रजा इन्द्रे परमैश्वर्ये नियुक्ताः सन्तु॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः ससभासेनाध्यक्षेषु सभासत्सु सर्वाणि राज्यविद्याधर्मप्रचारकराणि कार्य्याणि संस्थाप्य प्रशस्तं सुखं भोज्यं भोजयतिव्यं च वेदाज्ञया समानविद्यारूपस्वभावानां युवावस्थानां स्त्रीपुरुषाणां परस्परानुमत्या स्वयंवरो विवाहो भवितुं योग्यस्ते खलु गृहकृत्ये परस्परसत्कारे नित्यं प्रयतेरन् सर्व एते परमेश्वरस्योपासने तदाज्ञायां सत्पुरुषसभाज्ञायां च सदा वर्त्तेरन् नैतद्भिन्ने व्यवहारे कदाचित् केनचित्पुरुषेण कयाचित् स्त्रिया च क्षणमपि स्थातुं योग्यमस्तीति॥13॥ पदार्थः—(क्षुमन्तः) जिनके अनेक प्रकार के अन्न विद्यमान हैं, वे हम लोग (याभिः) जिन प्रजाओं के साथ (सधमादे) आनन्दयुक्त एक स्थान में जैसे आनन्दित होवें, वैसे (तुविवाजाः) बहुत प्रकार के विद्याबोधवाली (रेवतीः) जिनके प्रशंसनीय धन है, वे प्रजा (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (सन्तु) हों॥13॥ भावार्थः—यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सभाध्यक्ष सेनाध्यक्ष सहित सभाओं में सब राज्य विद्या और धर्म के प्रचार करने वाले कार्य स्थापन करके सब सुख भोगना वा भोगाना चाहिये और वेद की आज्ञा से एक से रूप स्वभाव और एकसी विद्या तथा युवा अवस्था वाले स्त्री और पुरुषों की परस्पर इच्छा से स्वयंवर विधान से विवाह होने योग्य हैं और वे अपने घर के कामों में तथा एक-दूसरे के सत्कार में नित्य यत्न करें और वे ईश्वर की उपासना वा उस की आज्ञा तथा सत्पुरुषों की आज्ञा में सदा चित्त देवें, किन्तु उक्त व्यवहार से विरुद्ध व्यवहार में कभी किसी पुरुष वा स्त्री को क्षणभर भी रहना न चाहिये॥13॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्तः स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒॒णोरक्षं॒ न चक्र्योः॥14॥ आ। घ॒। त्वाऽवा॑न्। त्मना॑। आ॒प्तः। स्तो॒तृऽभ्यः॑। धृ॒ष्णो॒ इति॑। इ॒या॒नः। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। च॒क्र्योः॑॥14॥ पदार्थः—(आ) अभ्यर्थे (घ) एव (त्वावान्) त्वादृशः। अत्र वतुप् प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰5.2.39) इति सादृश्यार्थे वतुप्। (त्मना) आत्मना। मन्त्रेष्वाङ्योदरात्मनः। (अष्टा॰6.4.141) इत्याकारलोपः। (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः। गत्यर्थकर्म्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि। (अष्टा॰2.3.12) इति चतुर्थी (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता। अत्रेङ्गतावित्यस्मात्। छन्दसि लिट्। (अष्टा॰3.2.105) इति लिट्। लिटः कानज्वा। (अष्टा॰3.2.106) इति कानच्। (ऋणोः) प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि इत्यडभावश्च। (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्र्योः) रथाङ्गयोः। अत्र कृञ् धातोः आदृगमहनजनः॰ (अष्टा॰3.2.171) इति किप्रत्ययः॥14॥ अन्वयः—हे धृष्णो अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष! त्मनाप्त इयानस्त्वावान् त्वं घ त्वमेवासि यस्त्वं चक्र्योरक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आऋणोः स्तावकान् आप्नोसीति यावत्॥14॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः प्रतीपालङ्कारश्च। यथा चक्र्यार्धू रथधारिका सती परिभ्रमणेनापि स्वस्मिन्नैव स्थापनी रथस्य देशान्तरप्रापिका भवति। तथैव सकलगुणकर्मस्वभावाभिव्याप्त- स्त्वमेतत्सर्वन्नियच्छसीति॥14॥ पदार्थः—हे (धृष्णो) अति धृष्ट (त्मना) अपनी कुशलता से (आप्तः) सर्व विद्यायुक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) राज्य को जानने वाले राजन्! (त्वावान्) आप से (घ) आप ही हो जो आप (चक्र्योः) रथ के पहियों की (अक्षम्) धुरी के (न) समान (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वालों को (आऋणोः) प्राप्त होते हो॥14॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार और प्रतीपालङ्कार हैं। जैसे पहियों की धुरी रथ को धारण करने वाली घूमती भी अपने ही में ठहरी सी रहती है और रथ को देशान्तर में प्राप्त करने वाली होती है, वैसे ही आप राज्य को व्याप्त होकर यथायोग्य नियम में रखते हो॥14॥ पुनस्तत्सेवनात् किं फलमित्युपदिश्यते॥ फिर उसके सेवन से क्या फल होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितृॄ॒णाम्। ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः॥15॥30॥ आ। यत्। दुवः॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। आ। काम॑म्। ज॒रि॒तृॄ॒णाम्। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। शची॑भिः॥15॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (यत्) वक्ष्यमाणम् (दुवः) परिचरणम् (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन् (आ) अभितः पूर्त्यर्थे (कामम्) काम्यते यस्तम्। (जरितॄणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम् (ऋणोः) प्रापयसि। अस्यापि सिद्धिः पूर्ववत् (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः॥15॥ अन्वयः—हे शतक्रतो सभापते! त्वं जरितृभिः यत्तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटार्हकर्मभिरक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामं आऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि॥15॥ भावार्थः— अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभास्वामी राजा विद्वत्सेवनं विद्यार्थिनामभीष्टं पूरयति तथा परमेश्वरस्य सेवनं धार्मिकाणां जनानां सर्वमभीष्टं प्रापयति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तत् सेवनीयमिति॥15॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त राजसभा स्वामिन्! आप स्तुति करने वाले धार्मिक जनों से (तत्) जो आप का (दुवः) सेवन है, उस को प्राप्त होकर (शचीभिः) रथ के योग्य कर्मों से (अक्षम्) उसकी धुरी के (न) समान उन (जरितॄणाम्) स्तुति करने वाले धार्मिक जनों की (कामम्) कामनाओं को (आ) (ऋणोः) अच्छी प्रकार पूरी करते हो॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों का सेवन विद्यार्थियों का अभीष्ट अर्थात् उनकी इच्छा के अनुकूल कामों को पूरा करता है, वैसे परमेश्वर का सेवन धार्मिक सज्जन मनुष्यों का अभीष्ट पूरा करता है। इसलिये उनको चाहिये कि परमेश्वर की सेवा नित्य करें॥15॥ पुनः स सभाध्यक्षः कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते॥ फिर वह सभाध्यक्ष कैसा और क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ शश्व॒दिन्द्रः॒ पोप्रु॑थद्भिर्जिगाय॒ नान॑दद्भिः॒ शाश्व॑सद्भि॒र्धना॑नि। स नो॑ हिरण्यर॒थं दं॒सना॑वा॒न्त्स नः॑ सनि॒ता स॒नये॒ स नो॑ऽदात्॥16॥ श॒श्व॑त्। इन्द्रः॑। पोप्रु॑थत्ऽभिः। जि॒गा॒य॒। नान॑दत्ऽभिः। शाश्व॑सत्ऽभिः। धना॑नि। सः। नः॒। हि॒र॒ण्य॒ऽर॒थम्। दं॒सना॑ऽवान्। सः। नः॒। स॒नि॒ता। स॒नये॑। सः। नः॒। अ॒दा॒त्॥16॥ पदार्थः—(शश्वत्) अनादिस्वरूपाज्जगत्कारणात् (इन्द्रः) सृष्टिकर्त्तेश्वरः राज्यशास्ता (पोप्रुथद्भिः) अतिशयेन स्थूलैरचरैः कार्यैः। अत्र प्रोथृ पर्याप्तावित्यस्माद् यङ्लुगन्ताच्छतृप्रत्यय उपधाया उत्वं च वर्णव्यत्ययेन (जिगाय) जयति प्रकर्षतां प्रापयति। अत्र लडर्थे लिट्। (नानदद्भिः) अतिशयेनाव्यक्तशब्दं कुर्वद्भिर्जीवैर्विद्युदादिभिर्वा (शाश्वसद्भिः) अतिशयेन प्राणवद्भिश्चरैः (धनानि) पृथिवीसुवर्णविद्यादीनि (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (हिरण्यरथम्) हिरण्यानां ज्योतिर्मयानां सूर्यादीनां लोकानां सुवर्णादीनां वा रथो देशान्तरप्रापणो यानसमूहः। अत्र रथ इति रमु क्रीडायामित्यस्य रूपं रमधातो रूपं वा। (दंसनावान्) दंसः कर्म आचष्टेऽनया सा दंसना। सा बह्वी विद्यते यस्य सः। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) अस्मात् तत्करोति तदाचष्टे इति णिच् ततो ण्यासश्रन्थो युच् इति युच् ततो भूम्न्यर्थे मतुप्। (सः) सर्वेषां जीवानां पापपुण्यफलानां विभागदाता (नः) अस्माकम् (सनिता) विद्याकर्मोपदेशेन सम्भाजिता (सनये) सुखानां सम्भोगाय (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (अदात्) दत्तवान्। ददाति दास्यति वा। अत्र छन्दसि लुङ्लङ्लिटः इति सामान्यकाले लुङ्॥16॥ अन्वयः—इन्द्रो जगदीश्वरः शश्वत् शश्वतोऽनादेः कारणात् नानदद्भिः शाश्वसद्भिः पोप्रुथद्भिः कार्यैर्द्रव्यैर्जिगाय जयति स दंसनावानीश्वरो नोऽस्मभ्यं हिरण्यरथमदाद् ददाति दास्यति स नोऽस्माकं सनये सुखानां सनिता सर्वाणि सुखान्यदादिव सभासेनापतिर्वर्त्तेत॥16॥ भावार्थः—यथा जगदीश्वरः सनातनाज्जगत्कारणाच्चराचराणि कार्याण्युत्पाद्यैतेः सर्वेभ्यो जीवेभ्यस्सर्वाणि सुखानि ददाति तथा सभासेनापतिर्न्यायाधीशाः सर्वाणि सभासेनान्यायाङ्गानि निष्पाद्य सर्वाः प्रजा निरन्तरमानन्दयेयुः यथा नैतस्माद्भिन्नः कश्चिज्जगत्स्रष्टा कर्मफलप्रदाता राज्यप्रशास्ता च भवितुमर्हति तथैव सर्वमेतदनुतिष्ठेरन्॥16॥ पदार्थः—(इन्द्रः) जगत् का रचने वाला ईश्वर (शश्वत्) अनादि सनातन कारण से (नानदद्भिः) तड़फ और गर्जना आदि शब्दों को करती हुई बिजली और नदी अचेतन और जीव तथा (शाश्वसद्भिः) अति प्रशंसनीय प्राण वाले चर वा (पोप्रुथद्भिः) स्थूल जो कि अचर हैं, उन कार्य्यरूपी पदार्थों से (धनानि) पृथिवी सुवर्ण और विद्या आदि धनों को (जिगाय) प्रकर्षता अर्थात् उन्नति को प्राप्त करता है (सः) वह (दंसनावान्) कर्मों का फल देने हारा के और साधनों से संयुक्त ईश्वर (नः) हमारे लिये (हिरण्यरथम्) ज्योति वाले सूर्य आदि लोक वा सुवर्ण आदि पदार्थों के प्राप्त कराने वाले पदार्थों को और विमान आदि रथों को (अदात्) प्रत्यक्ष करता है (सः) (नः) हम को सुखों के (सनये) भोग के लिये (सनिता) विद्या, कर्म और उपदेश से विभाग करने वाला होकर सब सुखों को (अदात्) देता है, वैसा सभा, सेनापति और न्यायाधीश भी वर्तें॥16॥ भावार्थः—जैसे जगदीश्वर सनातन कारण से चर और अचर कार्यों को उत्पन्न करके इन्हीं से सब जीवों को सुख देता है, वैसे सभा, सेनापति, न्यायाधीश लोग सब सभा, सेना और न्याय के अङ्गों को सिद्ध कर सब प्रजा को निरन्तर आनन्दयुक्त करते हैं, जैसे इससे और कोई संसार का रचने वा कर्म फल का देने और ठीक न्याय से राज्य का पालन करने वाला नहीं हो सकता, वैसे वे भी सब कार्य्य करें॥16॥ पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, इसका अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥ आश्वि॑ना॒वश्वा॑वत्ये॒षा या॑तं॒ शवी॑रया। गोम॑द् दस्रा॒ हिर॑ण्यवत्॥17॥ आ। अ॒श्वि॒नौ॒। अश्व॑ऽवत्या। इ॒षा। या॒त॒म्। शवी॑रया। गोऽम॑त्। द॒स्रा॒। हिर॑ण्यऽवत्॥17॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (अश्विनौ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्वं तथा विद्याक्रियाकुशलौ (अश्वावत्या) वेगादिगुणसहितया। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्व॰ (अष्टा॰6.3.131) अनेन पूर्वपदस्य दीर्घः। (इषाः) इष्यते यया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (यातम्) प्रापयतम् (शवीरया) देशान्तरप्रापिकया गत्या शु गतावित्यस्माद्धातोर्बाहुलकादौणादिक ईरन् प्रत्ययः। (गोमत्) गावः सुखप्रापिका बह्व्यो विद्यन्ते यस्मिंस्तत्। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰5.5) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (दस्रा) दारिद्र्योपक्षयहेतू। अत्र सुपां सुलुग्॰ इति आकारादेशः (हिरण्यवत्) हिरण्यं सुवर्णादिकं बहुविधं साधने यस्य तत्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥17॥ अन्वयः—हे विद्याक्रियाकुशलौ विद्वांसौ शिल्पिनौ दस्रावश्विनौ सभासेनास्वामिनौ द्यावापृथिव्याविवेषाभीष्टयाऽश्ववत्या शवीरया गत्या हिरण्यवद् गोमद् यानमायातं समन्ताद्देशान्तरं प्रापयतम्॥17॥ भावार्थः—पूर्वोक्ताभ्यामश्विभ्यां चालितं यानं शीघ्रगत्या भूमौ जलेऽन्तरिक्षे च गच्छति तस्मादेतत्सद्यः साध्यम्॥17॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दारिद्र्यविनाश कराने वाले (अश्विनौ) बिजली और पृथिवी के समान विद्या और क्रियाकुशल शिल्पी लोगो! तुम (इषा) चाही हुई (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त कराने वाली गति के साथ (हिरण्यवत्) जिसके सुवर्ण आदि साधन हैं और (गोमत्) जिसमें सिद्ध किये हुए धन से सुख प्राप्त कराने वाली बहुत सी क्रिया हैं, उस रथ को (आयातम्) अच्छे प्रकार देशान्तर को पहुंचाइये॥17॥ भावार्थः—पूर्वोक्त अश्वि अर्थात् सूर्य्य और पृथिवी के गुणों से चलाया हुआ रथ शीघ्र गमन से भूमि, जल और अन्तरिक्ष में पदार्थों को प्राप्त करता है, इसलिये इसको शीघ्र साधना चाहिये॥17॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स॒मा॒नयो॑जनो॒ हि वाँ॒ रथो॑ दस्रा॒वम॑र्त्यः। स॒मु॒द्रे अ॑श्वि॒नेय॑ते॥18॥ स॒मा॒नऽयो॑जनः। हि। वा॒म्। रथः॑। द॒स्रौ॒। अम॑र्त्यः। स॒मु॒द्रे। अ॒श्वि॒ना॒। ईय॑ते॥18॥ पदार्थः—(समानयोजनः) समानं तुल्यं योजनं संयोगकरणं यस्मिन् सः (हि) खलु (वाम्) युवयोः (रथः) नौकादियानम् (दस्रौ) गमनकर्त्तारौ (अमर्त्यः) अविद्यमाना आकर्षका मनुष्यादयः प्राणिनो यस्मिन् सः (समुद्रे) जलेन सम्पूर्णे समुद्रेऽन्तरिक्षे वा (अश्विना) अश्विनौ क्रियाकौशलव्यापिनौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ इत्याकारादेशः। (ईयते) गच्छति॥18॥ अन्वयः—हे दस्रौ मार्गगमनपीडोपक्षेतारावश्विना अश्विनौ विद्वांसौ! यो वां युवयोर्हि खलु समानयोजनोऽमर्त्यो रथः समुद्र ईयते यस्य वेगेनाश्वावत्या शवीरया गत्या समुद्रस्य पारावारौ गन्तुं युवां शक्नुतस्तं निष्पादयतम्॥18॥ भावार्थः—अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (अश्वावत्या) (शवीरया) इति द्वयोः पदयोरनुवृत्तिः। मनुष्यैर्यानि महान्त्यग्निवाष्पजलकलायन्त्रैः सम्यक् चालितानि नौकायानानि तानि निर्विघ्नतया समुद्रान्तं शीघ्रं गमयन्ति। नैवेदृशैर्विना नियतेन कालेनाभीष्टं स्थानान्तरं गन्तुं शक्यत इति॥18॥ पदार्थः—हे (दस्रौ) मार्ग चलने की पीड़ा को हरने वाले (अश्विना) उक्त अश्वि के समान शिल्पकारी विद्वानो! (वाम्) तुम्हारा जो सिद्ध किया हुआ (समानयोजनः) जिसमें तुल्य गुण से अश्व लगाये हों (अमर्त्यः) जिसके खींचने में मनुष्य आदि प्राणि न लगे हों, वह (रथः) नाव आदि रथसमूह (समुद्रे) जल से पूर्ण सागर वा अन्तरिक्ष में (ईयते) (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त कराने वाली गति के साथ समुद्र के पार और वार को प्राप्त कराने वाला होता है, उसको सिद्ध कीजिये॥18॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (अश्वावत्या) (शवीरया) इन दो पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों की जो अग्नि, वायु और जलयुक्त कलायन्त्रों से सिद्ध की हुई नाव हैं, वे निस्सन्देह समुद्र के अन्त को जल्दी पहुंचाती हैं, ऐसी-ऐसी नावों के विना अभीष्ट समय में चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना नहीं हो सकता है॥18॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ न्यघ्न्यस्य॑ मू॒र्धनि॑ च॒क्रं रथ॑स्य येमथुः। परि॒ द्याम॒न्यदी॑यते॥19॥ नि। अ॒घ्न्यस्य॑। मू॒र्धनि॑। च॒क्रम्। रथ॑स्य। ये॒म॒थुः॒। परि॑। द्याम्। अ॒न्यत्। ई॒य॒ते॒॥19॥ पदार्थः—(नि) क्रियायोगे (अघ्न्यस्य) हन्तुं विनाशयितुमनर्हस्य यानस्य (मूर्धनि) उत्तमाङ्गेऽग्रभागे (चक्रम्) एकं यन्त्रकलासमूहम् (रथस्य) विमानादियानस्य (येमथुः) देशान्तरे यच्छथः। अत्र लडर्थे लिट्। (परि) सर्वतः (द्याम्) दिवमुपर्य्याकाशम् (अन्यत्) द्वितीयं चक्रम (ईयते) गमयति॥19॥ अन्वयः—हे अश्विनौ! विद्याव्याप्तौ युवां यद्येकमघ्न्यस्य रथस्य मूर्द्धन्यपरं द्वितीयं च चक्रमधो रचयेतां तर्ह्येते समुद्रमाकाशं वा नियेमथुर्नियच्छथ एताभ्यां द्वाभ्यां युक्तं यानं यथेष्टे मार्गे ईयते प्रापयति॥19॥ भावार्थः—शिल्पिभिः शीघ्रगमनार्थं यद्यद्यानं चिकीर्ष्यते तस्य तस्याग्रभाग एकं कलायन्त्रचक्रं सर्वकलाभ्रमणार्थं द्वितीयमपरभागे च रचनीयं तद्रचने जलाग्न्यादि प्रयोज्यैतेन यानेन ससम्भाराः शिल्पिनो भूमिसमुद्रान्तरिक्षमार्गेण सुखेन गन्तुं शक्नुवन्तीति निश्चयः॥19॥ पदार्थः—हे अश्विनौ विद्यायुक्त शिल्पि लोगो! तुम दोनों (अघ्न्यस्य) जो कि विनाश करने योग्य नहीं है, उस (रथस्य) विमान आदि यान के (मूर्धनि) उत्तम अङ्ग अग्रभाग में जो एक और (अन्यत्) दूसरा नीचे की ओर कलायन्त्र बनाओं तो वे दो चक्र समुद्र वा (द्याम्) आकाश पर भी (नियेमथुः) देश-देशान्तर में जाने के वास्ते बहुत अच्छे हों, इन दोनों चक्रों से जुड़ा हुआ रथ जहाँ चाहो वहाँ (ईयते) पहुंचाने वाला होता है॥19॥ भावार्थः—शिल्पि विद्वानों को योग्य है कि जो शीघ्र जाने आने के लिये रथ बनाना चाहें तो उसके आगे एक-एक कलायन्त्रयुक्त चक्र तथा सब कलाओं के घूमने के लिये दूसरा चक्र नीचे भाग में रच के उसमें यन्त्र के साथ जल और अग्नि आदि पदार्थों का प्रयोग करें। इस प्रकार रचे हुए यान भारसहित शिल्पि विद्वान् लोगों को भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष मार्ग से सुखपूर्वक देशान्तर को प्राप्त करता है॥19॥ अथैतद्विद्योपयोग्योषसः काल उपदिश्यते॥ अब इस विद्या के उपयोग करने वाले प्रातःकाल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ कस्त॑ उषः कधप्रिये भु॒जे मर्तो॑ अमर्त्ये। कं न॑क्षसे विभावरि॥20॥ कः। ते॒। उ॒षः॒। क॒ध॒ऽप्रि॒ये॒। भु॒जे। मर्तः॑। अ॒म॒र्त्ये॒। कम्। न॒क्ष॒से॒। वि॒भा॒ऽव॒रि॒॥20॥ पदार्थः—(कः) वक्ष्यमाणः (ते) तव विदुषः (उषः) उषाः (कधप्रिये) कथनं कथा प्रिया यस्यां सा। अत्र वर्णव्यत्ययेन थकारस्य स्थाने धकारः। (भुजे) भुज्यते यः स भुक् तस्मै। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्। (मर्तः) मनुष्यः (अमर्त्यः) कारणप्रवाहरूपेण नाशरहिता (कम्) मनुष्यम् (नक्षसे) प्राप्नोसि (विभावरि) विविधं जगत् भाति दीपयति सा विभावरि। अत्र वनो र च। (अष्टा॰4.1.7) अनेन ङीप् रेफादेशश्च॥20॥ अन्वयः—हे विद्वन्! येयममर्त्ये कधप्रिये विभावर्युषरुषा भुजे सुखभोगाय प्रत्यहं प्राप्नोति, तां प्राप्य त्वं कं मनुष्यं न नक्षसे प्राप्नोसि, को मर्तो भुजे ते तव सनीडं न प्राप्नोति॥20॥ भावार्थः—अत्र काक्वर्थः। को मनुष्यः कालस्य सूक्ष्मां व्यर्थगमनानर्हां गतिं वेद, नहि सर्वो मनुष्यः पुरुषार्थारम्भस्य सुखाख्यामुषसं यथावज्जानाति, तस्मात्सर्वे मनुष्याः प्रातरुत्थाय यावन्नसुषुपुस्तावदेकं क्षणमपि कालस्य व्यर्थं न नयेयुः, एवं जानन्तो जनाः सर्वकालं सुखं भोक्तुं शक्नुवन्ति नेतरेऽलसाः॥20॥ पदार्थः—हे विद्याप्रियजन! जो यह (अमर्त्ये) कारण प्रवाह रूप से नाशरहित (कधप्रिये) कथनप्रिय (विभावरि) और विविध जगत् को प्रकाश करने वाली (उषा) प्रातःकाल की वेला (भुजे) सुख भोग कराने के लिये प्राप्त होती है, उसको प्राप्त होकर तू (कम्) किस मनुष्य को (नक्षसे) प्राप्त नहीं होता और (कः) कौन (मर्त्तः) मनुष्य (भुजे) सुख भोगने के लिये (ते) तेरे आश्रय को नहीं प्राप्त होता॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में काक्वर्थ है। कौन मनुष्य इस काल की सूक्ष्म गति जो व्यर्थ खोने के अयोग्य है, उसको जाने जो पुरुषार्थ के आरम्भ का आदि समय प्रातःकाल है, उसके निश्चय से प्रातःकाल उठ कर जब तक सोने का समय न हो, एक भी क्षण व्यर्थ न खोवे। इस प्रकार समय के सार्थपन को जानते हुए मनुष्य सब काल सुख भोग सकते हैं, किन्तु आलस्य करने वाले नहीं॥20॥ पुनः सा कीदृशी ज्ञातव्येत्युपदिश्यते॥ फिर उस वेला को कैसी जाननी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ व॒यं हि ते॒ अम॑न्म॒ह्यान्ता॒दा प॑रा॒कात्। अश्वे॒ न चि॑त्रे अरुषि॥21॥ व॒यम्। हि। ते॒। अम॑न्महि। आ। अन्ता॑त्। आ। प॒रा॒कात्। अश्वे॑। न। चि॒त्रे॒। अ॒रु॒षि॒॥21॥ पदार्थः—(वयम्) कालमहिम्नो वेदितारः (हि) निश्चये (ते) तव (अमन्महि) विजानीयाम। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्यनोर्लुक्। (आ) मर्यादायाम् (पराकात्) दूरदेशात् (अश्वे) प्रतिक्षणं शिक्षिते तुरंगे (न) इव (चित्रे) आश्चर्य्यव्यवहारे (अरुषि) रक्तगुणप्रकाशयुक्ता॥21॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथा वयं या चित्रेऽरुष्यद्भुतता रक्तगुणाढ्यास्ति तामन्तादाभिमुख्यात् समीपस्थाद् देशादापराकाद् दूरदेशाच्चाश्वेनामन्महि तथा त्वमपि विजानीहि॥21॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालान् यथावदुपयोजितुं जानन्ति, तेषां पुरुषार्थेन दूरस्थ समीपस्थानि सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्ति। अतो नैव केनापि मनुष्येण क्षणमात्रोऽपि व्यर्थः कालः कदाचिन्नेय इति॥21॥ पदार्थः—हे कालविद्यावित् जन! जैसे (वयम्) समय के प्रभाव को जानने वाले हम लोग जो (चित्रे) आश्चर्यरूप (अरुषि) कुछ एक लाल गुणयुक्त उषा है, उस को (आ अन्तात्) प्रत्यक्ष समीप वा (आपराकात्) एक नियम किये हुए दूर देश से (अश्वे) नित्य शिक्षा के योग्य घोड़े पर बैठ के जाने आने वाले के (न) समान (अमन्महि) जानें, वैसे इस को तू भी जान॥21॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल का यथायोग्य उपयोग लेने को जानते हैं, उनके पुरुषार्थ से समीप वा दूर के सब कार्य सिद्ध होते हैं। इससे किसी मनुष्य को कभी क्षण भर भी व्यर्थ काल खोना न चाहिये॥21॥ पुनः सः कीदृशीत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ त्वं त्येभि॒रा ग॑हि॒ वाजे॑भिर्दुहितर्दिवः। अ॒स्मे र॒यिं नि धा॑रय॥22॥31॥6॥ त्वम्। त्येभिः॑। आ। ग॒हि॒। वाजे॑भिः। दु॒हि॒तः॒। दि॒वः। अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। नि। धा॒र॒य॒॥22॥ पदार्थः—(त्वम्) कालकृत्यवित् (त्येभिः) शोभनैः कालावयवैः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नुहि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (वाजेभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः। अत्रापि पूर्ववद् भिस ऐस न। (दुहितः) दुहिता पुत्रीव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। (निरु॰3.4) (दिवः) दिवो द्योतनकर्मणामादित्यरश्मीनाम्। (निरु॰13.25) अनेन सूर्यप्रकाशस्य दिव इति नामास्ति। (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) विद्यासुवर्णादिधनम् (नि) नितरां क्रियायोगे (धारय) सम्पादय॥22॥ अन्वयः—हे कालमाहात्म्यवित् विद्वंस्त्वं या दिवो दुहितर्दुहितोषाः संसाधिता सती त्येभिः कालावयवैरस्मे अस्मान् वाजेभिरन्नादिभिश्च सहानन्दाय समन्तात् प्राप्नोति तथाऽस्मभ्यं रयिर्निधारय धारय नित्यं सम्पादयैवमागहि सर्वथा तद्विद्यां ज्ञापय यतो वयमपि कालं व्यर्थं न नयेम॥22॥ भावार्थः—ये मनुष्याः कालं व्यर्थं न नयन्ति तेषां सर्वः कालः सर्वकार्यसिद्धिप्रदो भवति नेतरेषामिति॥22॥

अत्र पूर्वसूक्तोक्तविद्यानुषङ्गिणामिन्द्राश्व्युषसामर्थानां प्रतिपादनात् पूर्वसूक्तार्थेनैतत् सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याय एकत्रिंशो वर्गः प्रथममण्डले षष्ठोऽनुवाकस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम्॥30॥

पदार्थः—हे काल के माहात्म्य को जानने वाले विद्वान् (त्वम्) तू जो (दिवः) सूर्य किरणों से उत्पन्न हुई उनकी (दुहितः) ल़ड़की के समान प्रातःकाल की वेला (त्येभिः) उसके उत्तम अवयव अर्थात् दिन महीना आदि विभागों से वह हम लोगों को (वाजेभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ प्राप्त होती और धनादि पदार्थों की प्राप्ति का निमित्त होती है, उससे (अस्मे) हम लोगों के लिये (रयिम्) विद्या, सुवर्णादि धनों को (निधारय) निरन्तर ग्रहण कराओ और (आगहि) इस प्रकार इस विद्या की प्राप्ति कराने के लिये प्राप्त हुआ कीजिये कि जिससे हम लोग भी समय को निरर्थक न खोवें॥22॥ भावार्थः—जो मनुष्य कुछ भी व्यर्थ काल नहीं खोते उन का सब काल सब कामों की सिद्धि का करने वाला होता है॥22॥ इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अनुषङ्गी (इन्द्र) (अश्वि) और (उषा) समय के वर्णन से पिछले सूक्त के अनुषङ्गी अर्थो के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये। यह पहिले अष्टक में दूसरे अध्याय में इकतीसवां वर्ग तथा पहिले मण्डल में छठा अनुवाक और तीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥30॥