ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 121-130 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 121-130 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

अथास्य पञ्चदशर्चस्यैकविंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्यौशिजः कक्षीवान् ऋषिः। विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः। 1,7,13 भुरिक्पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 2,8,10 त्रिष्टुप्। 3,4,6,12,14,15 विराट् त्रिष्टुप्। 5,9,11 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादौ स्त्रीपुरुषाः कथं वर्तेरन्नित्युपदिश्यते। अब 15 ऋचावाले एक सौ इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में स्त्रीपुरुष कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, यह उपदेश किया है॥ कदि॒त्था नँॄः पात्रं॑ देवय॒तां श्रव॒द्गिरो॒ अङ्गि॑रसां तुर॒ण्यन्। प्र यदान॒ड्विश॒ आ ह॒र्म्यस्यो॒रु क्रं॑सते अध्व॒रे यज॑त्रः॥1॥ कत्। इ॒त्था। नॄन्। पात्र॑म्। दे॒व॒ऽय॒ताम्। श्रव॑त्। गि॑रः। अङ्गि॑रसाम्। तु॒र॒ण्यन्। प्र। यत्। आन॑ट्। विशः॑। आ। ह॒र्म्यस्य॑। उ॒रु। क्रं॒स॒ते॒। अ॒ध्व॒रे। यज॑त्रः॥1॥ पदार्थः—(कत्) कदा। छान्दसो वर्णलोपो वेत्याकारलोपः। (इत्था) अनेन प्रकारेण (नॄन्) प्राप्तव्यशिक्षान् (पात्रम्) पालनम् (देवयताम्) कामयमानानाम् (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वेदविद्याशिक्षिता वाचः (अङ्गिरसाम्) प्राप्तविद्यासिद्धान्तरसानाम् (तुरण्यन्) त्वरन् (प्र) (यत्) याः (आनट्) अश्नुवीत। व्यत्ययेन श्नम् परस्मैपदं च। (विशः) प्रजाः (आ) (हर्म्यस्य) न्यायगृहस्य मध्ये (उरु) बहु (क्रंसते) क्रमेत (अध्वरे) अहिंसनीये प्रजापालनाख्ये व्यवहारे (यजत्रः) सङ्गमकर्त्ता॥1॥ अन्वयः—हे पुरुष! त्वमध्वरे यजत्रस्तुरण्यन् सन् यथा जिज्ञासुर्नॄन् पात्रं कुर्याद् देवयतामङ्गिरसां यद्या गिरः श्रवत्ता इत्था कच्छ्रोष्यसि। यथा च धार्मिको राजा हर्म्यस्य मध्ये वर्त्तमानः सन् विनयेन विशः प्रानडुर्वाक्रंसत इत्था कद्भविष्यसि॥1॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रीपुरुषौ! यथा आप्ताः सर्वान् मनुष्यादीन् सत्यं बोधयन्तोऽसत्यान्निवारयन्तः सुशिक्षन्ते तथा स्वापत्यादीन् भवन्तः सततं सुशिक्षन्ताम्। यतो युष्माकं कुलेऽयोग्याः सन्तानाः कदाचिन्न जायेरन्॥1॥ पदार्थः—हे पुरुष! तू (अध्वरे) न विनाश करने योग्य प्रजापालन रूप व्यवहार में (यजत्रः) सङ्ग करनेवाला (तुरण्यन्) शीघ्रता करता हुआ जैसे ज्ञान चाहनेहारा (नॄन्) सिखाने योग्य बालक वा मनुष्यों की (पात्रम्) पालना करे तथा (देवयताम्) चाहते (अङ्गिरसाम्) और विद्या के सिद्धान्त रस को पाये हुए विद्वानों की (यत्) जिन (गिरः) वेदविद्या की शिक्षारूप वाणियों को (श्रवत्) सुने, उनको (इत्था) इस प्रकार से (कत्) कब सुनेगा और जैसे धर्मात्मा राजा (हर्म्यस्य) न्यायघर के बीच वर्त्तमान हुआ विनय से (विशः) प्रजाजनों को (प्रानट्) प्राप्त होवे (उरु) और बहुत (आ, क्रंसते) आक्रमण करे अर्थात् उनके व्यवहारों में बुद्धि को दौड़ावे, इस प्रकार का कब होगा॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्री पुरुषो! जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् सब मनुष्यादि को सत्य बोध कराते और झूठ से रोकते हुए उत्तम शिक्षा देते हैं, वैसे अपने सन्तान आदि को आप निरन्तर अच्छी शिक्षा देओ, जिससे तुम्हारे कुल में अयोग्य सन्तान कभी न उत्पन्न हो॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्तम्भी॑द्ध॒ द्यां स ध॒रुणं॑ प्रुषायदृ॒भुर्वाजा॑य॒ द्रवि॑णं॒ नरो॒ गोः। अनु॑ स्व॒जां म॑हि॒षश्च॑क्षत॒ व्रां मेना॒मश्व॑स्य॒ परि॑ मा॒तरं॒ गोः॥2॥ स्तम्भी॑त्। ह॒। द्याम्। सः। ध॒रुण॑म्। प्रु॒षा॒य॒त्। ऋ॒भुः। वाजा॑य। द्रवि॑णम्। नरः॑। गोः। अनु॑। स्व॒ऽजाम्। म॒हि॒षः। च॒क्ष॒त॒। व्राम्। मेना॑म्। अश्व॑स्य। परि॑। मा॒तर॑म्। गोः॥2॥ पदार्थः—(स्तम्भीत्) धरेत्। अडभावः। (ह) खलु (द्याम्) प्रकाशम् (सः) मनुष्यः (धरुणम्) उदकम्। धरुणमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (प्रुषायत्) प्रुष्णीयात् सिञ्चेत्। अत्र शायच्। (ऋभुः) सकलविद्याजातप्रज्ञो मेधावी (वाजाय) विज्ञानायान्नाय वा (द्रविणम्) धनम् (नरः) धर्मविद्यानेता (गोः) पृथिव्याः (अनु) (स्वजाम्) स्वात्मजनिताम् (महिषः) महान्। महिष इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (चक्षत) चक्षीत। अत्र शपोऽलुक्। (व्राम्) वरीतुमर्हाम्। वृञ् धातोर्घञर्थे कः। (मेनाम्) विद्यासुशिक्षाभ्यां लब्धां वाचम् (अश्वस्य) व्याप्तुमर्हस्य राज्यस्य (परि) सर्वतः (मातरम्) मातृवत्पालिकाम् (गोः) भूमेः॥2॥ अन्वयः—यथा महिषः सूर्यो गोर्धर्त्ताऽस्ति तथा ऋभुर्नरो वाजायाश्वस्य स्वजां व्रां मातरं मेनां परि चक्षत यथा वा स सूर्य्यो द्यां स्तम्भीत्तथा सह गोर्मध्ये द्रविणं वर्धयित्वा क्षेत्रं धरुणमिवानु प्रुषायत्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तविद्वत्सङ्गेन विद्यां विनयन्यायादिकं च धरेत्स सुखेन वर्धेत महान् पूज्यश्च स्यात्॥2॥ पदार्थः—जैसे (महिषः) बड़ा सूर्य्य (गोः) भूमि का धारण करनेवाला है, वैसे (ऋभुः) सकल विद्याओं से युक्त आप्तबुद्धि मेधावी (नरः) धर्म और विद्या की प्राप्ति करानेवाला सज्जन (वाजाय) विज्ञान वा अन्न के लिये (अश्वस्य) व्याप्त होने योग्य राज्य की (स्वजाम्) आप से उत्पन्न की गई (व्राम्) स्वीकार करने के योग्य (मातरम्) माता के समान पालनेवाली (मेनाम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से पाई हुई वाणी को (परि, चक्षत) सब ओर से कहे वा जैसे सूर्य्य (द्याम्) प्रकाश को (स्तम्भीत्) धारण करे, वैसे (स, ह) वही (गोः) पृथिवी पर (द्रविणम्) धन को बढ़ा खेत को (धरुणम्) जल के समान (अनु, प्रुषायत्) सींचा करें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो आप्त अर्थात् उत्तम शास्त्री विद्वान् के संग से विद्या, विनय और न्याय आदि का धारण करे, वह सुख से बढ़े और बड़ा सत्कार करने योग्य हो॥2॥ अथ राजधर्मविषयमाह॥ अब राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ नक्ष॒द्धव॑मरु॒णीः पू॒र्व्यं राट् तु॒रो वि॒शामङ्गि॑रसा॒मनु॒ द्यून्। तक्ष॒द्वज्रं॒ नियु॑तं त॒स्तम्भ॒द् द्यां चतु॑ष्पदे॒ नर्या॑य द्वि॒पादे॑॥3॥ नक्ष॑त्। हव॑म्। अ॒रु॒णीः। पू॒र्व्यम्। राट्। तु॒रः। वि॒शाम्। अङ्गि॑रसाम्। अनु॑। द्यून्। तक्ष॑त्। वज्र॑म्। निऽयु॑तम्। त॒स्तम्भ॑त्। द्याम्। चतुः॑ऽपदे। नर्या॑य। द्वि॒ऽपादे॑॥3॥ पदार्थः—(नक्षत्) प्राप्नुयात् (हवम्) दातुमादातुमर्हं न्यायम् (अरुणीः) उषसोऽरुण्यो दीप्तय इव वर्त्तमानराजनीतीः (पूर्व्यम्) पूर्वैविद्वद्भिः कृतमनुष्ठितम् (राट्) राजते सः (तुरः) त्वरितोऽनलसः सन् (विशाम्) पालनीयानां प्रजानाम् (अङ्गिरसाम्) अङ्गानां रसप्राणवत् प्रियाणाम् (अनु) (द्यून्) दिनानि (तक्षत्) तीक्ष्णीकृत्य शत्रून् हिंस्यात् (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् (नियुतम्) नित्यं युक्तम् (तस्तम्भत्) स्तभ्नीयात् (द्याम्) विद्यान्यायप्रकाशम् (चतुष्पदे) गवाद्याय पशवे (नर्य्याय) नृषु साधवे (द्विपादे) मनुष्याद्याय॥3॥ अन्वयः—यस्तुरो मनुष्यो विद्वान् चतुष्पदे द्विपादे नर्य्याय चानुद्यून् पूर्व्यं हवमुषसो दीप्तय इवारुणीश्च नक्षद् वियुतं वज्रं तक्षद् द्यां तस्तम्भत् सोऽङ्गिरसां विशां मध्ये राड् भवति॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विनयादिभिर्मनुष्यादीन् गवादींश्चातीताप्तराजवद् रक्षन्त्यन्यायेन कंचिन्न हिंसन्ति त एव सुखानि प्राप्नुवन्ति नेतरे॥3॥ पदार्थः—जो (तुरः) तुरन्त आलस्य छोड़े हुए विद्वान् मनुष्य (चतुष्पदे) गोआदि पशु वा (द्विपादे) मनुष्य आदि प्राणियों वा (नर्य्याय) मनुष्यों में अति उत्तम महात्माजन के लिये (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (पूर्व्यम्) अगले विद्वानों ने अनुष्ठान किये हुए (हवम्) देने-लेने योग्य और (अरुणीः) प्रातः समय की वेला लाल रंगवाली उजेली के समान राजनीतियों को (नक्षत्) प्राप्त हो (नियुतम्) नित्य कार्य में युक्त किये हुए (वज्रम्) शस्त्र-अस्त्रों को (तक्षत्) तीक्ष्ण करके शत्रुओं को मारे तथा उनके (द्याम्) विद्या और न्याय के प्रकाश का (तस्तम्भत्) निबन्ध करे, वह (अङ्गिरसाम्) अङ्गों के रस अथवा प्राण के समान प्यारे (विशाम्) प्रजाजनों के बीच (राट्) प्रकाशमान राजा होता है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विनय आदि से मनुष्य आदि प्राणी और गौ आदि पशुओं को व्यतीत हुए आप्त, निष्कपट, सत्यवादी राजाओं के समान पालते और अन्याय से किसी को नहीं मारते हैं, वे ही सुखों को पाते हैं, और नहीं॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य मदे॑ स्व॒र्यं॑ दा ऋ॒तायापी॑वृतमु॒स्रिया॑णा॒मनी॑कम्। यद्ध॑ प्र॒सर्गे॑ त्रिक॒कुम्नि॒वर्त॒दप॒ द्रुहो॒ मानु॑षस्य॒ दुरो॑ वः॥4॥ अ॒स्य। मदे॑। स्व॒र्य॑म्। दाः॒। ऋ॒ताय॑। अपि॑ऽवृतम्। उ॒स्रिया॑णाम्। अनी॑कम्। यत्। ह॒। प्र॒ऽसर्गे॑। त्रि॒ऽक॒कुप्। नि॒ऽवर्त॑त्। अप॑। द्रु॒हः॑। मानु॑षस्य। दुरः॑। व॒रिति॑। वः॥4॥ पदार्थः—(अस्य) प्रत्यक्षविषयस्य (मदे) आनन्दनिमित्ते सति (स्वर्य्यम्) स्वरेषु विद्यासु शिक्षितासु वाक्षु साधु (दाः) दद्यात्। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (ऋताय) सत्यलक्षणान्वितायोदकाय वा (अपिवृतम्) सुखबलैर्युक्तम् (उस्रियाणाम्) गवाम् (अनीकम्) सैन्यम् (यत्) यः (ह) खलु (प्रसर्गे) प्रकृष्ट उत्पादने (त्रिककुप्) त्रिभिः सेनाध्यापकोपदेशकैर्युक्ताः ककुभो दिशो यस्य सः (निवर्त्तत्) निवर्त्तयेत्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अप) (द्रुहः) गोहिंसकान् शत्रून् (मानुषस्य) मनुष्यजातस्य (दुरः) द्वाराणि (वः) वृणुयात्॥4॥ अन्वयः—यद्यस्त्रिककुम् मनुष्योऽस्य मानुषस्योस्रियाणां च प्रसर्गे मदे ऋतायापीवृतं स्वर्य्यमनीकं दाः। एतान् द्रुहो निवर्त्तत् दुरोऽपवः स ह सम्राड् भवितुं योग्यो भवेत्॥4॥ भावार्थः—त एव राजपुरुषा उत्तमा भवन्ति ये प्रजास्थानां मनुष्यगवादिप्राणिनां सुखाय हिंसकान् मनुष्यान् निवर्त्य धर्मे राजन्ते परोपकारिणश्च सन्ति। येऽधर्ममार्गान्निरुध्य धर्ममार्गान् प्रकाशयन्ति त एव राजकर्माण्यर्हन्ति॥4॥ पदार्थः—(यत्) जो (त्रिककुप्) मनुष्य ऐसा है कि जिसकी पूर्व आदि दिशा सेना वा पढ़ाने और उपदेश करनेवालों से युक्त हैं (अस्य) इस प्रत्यक्ष (मानुषस्य) मनुष्य के (उस्रियाणाम्) गौओं के (प्रसर्गे) उत्तमता से उत्पन्न कराने रूप (मदे) आनन्द के निमित्त (ऋताय) सत्य व्यवहार वा जल के लिये (अपीवृतम्) सुख और बलों से युक्त (स्वर्य्यम्) विद्या और अच्छी शिक्षा रूप वचनों में श्रेष्ठ (अनीकम्) सेना को (दाः) देवे तथा इन (द्रुहः) गो आदि पशुओं के द्रोही अर्थात् मारनेहारे पशुहिंसक मनुष्यों को (निवर्त्तत्) रोके, हिंसा न होने दे, (दुरः) उक्त दुष्टों के द्वारे (अप, वः) बन्द कर देवे (ह) वही चक्रवर्त्ती राजा होने को योग्य है॥4॥ भावार्थः—वे ही राजपुरुष उत्तम होते हैं जो प्रजास्थ मनुष्य और गौ आदि प्राणियों के सुख के लिये हिंसक दुष्ट पुरुषों की निवृत्ति कर धर्म में प्रकाशमान होते और जो परोपकारी होते हैं। जो अधर्म मार्गों को रोक धर्म मार्गों को प्रकाशित करते हैं, वे ही राजकामों के योग्य होते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तुभ्यं॒ पयो॒ यत् पि॒तरा॒वनी॑तां॒ राधः॑ सु॒रेत॑स्तु॒रणे॑ भुर॒ण्यू। शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑याः॒ पय॑ उ॒स्रिया॑याः॥5॥24॥ तुभ्य॑म्। पयः॑। यत्। पि॒तरौ॑। अनी॑ताम्। राधः॑। सु॒ऽरेतः॑। तु॒रणे॑। भु॒र॒ण्यू इति॑। शुचि॑। यत्। ते॒। रेक्णः॑। आ। अय॑जन्त। स॒बः॒ऽदुघा॑याः। पयः॑। उ॒स्रिया॑याः॥5॥ पदार्थः—(तुभ्यम्) (पयः) दुग्धम् (यत्) यस्मै (पितरौ) जननी जनकौ (अनीताम्) प्रापयेताम् (राधः) संसिद्धिकरं धनम् (सुरेतः) शोभनं रेतो वीर्य्यं यस्मात्तत् (तुरणे) दुग्धादिपानार्थं त्वरमाणय। अत्र तुरण धातोः क्विप्। (भुरण्यू) धारणपोषणकर्त्तारौ (शुचि) पवित्रं शुद्धिकारकम् (यत्) यस्मै (ते) तुभ्यम् (रेक्णः) प्रशस्तं धनमिव (आ) (अयजन्त) ददतु (सबर्दुघायाः) समानं सुखं बिभर्त्ति येन दुग्धेन तत्सबस्तद् दोग्धि तस्याः। अत्र समानोपपदाद् भृञ्धातोर्विच् वर्णव्यत्ययेन भस्य बः। (पयः) पातुमर्हम् (उस्रियायाः) धेनोर्गोः॥5॥ अन्वयः—हे सज्जन! यद्यस्मै तुरणे तुभ्यं भुरण्यू पितरौ सुरेतः पयो राधश्चानीताम्। यद्यस्मै तुरणे ते तुभ्यं दयालवो गोरक्षका मनुष्याः सबर्दुघाया उस्रियायाः शुचि पयो रेक्णो धनं चायजन्तेव त्वमेतान् सततं सेवस्व कदाचिन्मा हिन्धि॥5॥ भावार्थः—मनुष्या यथा मातापितृविदुषां सेवनेन धर्मेण सुखमाप्नुयुस्तथैव गवादीनां रक्षणेन धर्मेण सुखमाप्नुयुः। एतेषामप्रियाचरणं कदाचिन्न कुर्युः, कुत एते सर्वस्योपकारका सन्त्यतः॥5॥ पदार्थः—हे सज्जन! (यत्) जिस (तुरणे) दूध आदि पदार्थ के पीने को जल्दी करते हुए (तुभ्यम्) तेरे लिये (भुरण्यू) धारण और पुष्टि करनेवाले (पितरौ) माता-पिता (सुरेतः) जिससे उत्तम वीर्य उत्पन्न होता उस (पयः) दूध और (राधः) उत्तम सिद्धि करनेवाले धन की (अनीताम्) प्राप्ति करावें और जैसे (यत्) दूध आदि के पीने को जल्दी करते हुए जिस (ते) तेरे लिये दयालु गौ आदि पशुओं को राखनेवाले मनुष्य (सबर्दुघायाः) जिससे एकसा सुख धारण करना होता है, उस दूध को पूरा करनेहारी (उस्रियायाः) उत्तम पुष्टि देती हुई गौ के (शुचि) शुद्ध पवित्र (पयः) पीने योग्य दूध को (रेक्णः) प्रशंसित धन के समान (आ, अयजन्त) भली-भांति देवें, वैसे उन मनुष्यों की तू निरन्तर सेवा कर और उनके उपकार को कभी मत तोड़॥5॥ भावार्थः—मनुष्य लोग जैसे माता-पिता और विद्वानों की सेवा से धर्म के साथ सुखों को प्राप्त होवें, वैसे ही गौ आदि पशुओं की रक्षा से धर्म के साथ सुख पावें। इनके मन के विरुद्ध आचरण को कभी न करें, क्योंकि ये सबका उपकार करनेवाली प्राणी हैं, इससे॥5॥ पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अध॒ प्र ज॑ज्ञे त॒रणि॑र्ममत्तु॒ प्र रो॑च्य॒स्या उ॒षसो॒ न सूरः॑। इन्दु॒र्येभि॒राष्ट॒ स्वेदु॑हव्यैः स्रु॒वेण॑ सि॒ञ्चञ्ज॒रणा॒भि धाम॑॥6॥ अध॑। प्र। ज॒ज्ञे॒। त॒रणिः॑। म॒म॒त्तु॒। प्र। रो॒चि॒। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। न। सूरः॑। इन्दुः॑। येभिः॑। आष्ट॑। स्वऽइदु॑हव्यैः। स्रु॒वेण॑। सि॒ञ्चन्। ज॒रणा॑। अ॒भि। धा॑म॥6॥ पदार्थः—(अध) अथ (प्र) (जज्ञे) जायताम् (तरणिः) दुःखात् पारगः सुखविस्तारकः (ममत्तु) आनन्द। अत्र विकरणस्य श्लुः। (प्र) (रोचि) जगति प्रकाश्येत (अस्याः) गोः (उषसः) प्रभातात् (न) इव (सूरः) सविता (इन्दुः) (येभिः) यैः (आष्ट) अश्नुवीत। अत्र लिङि लुङ् विकरणस्य लुक्। (स्वेदुहव्यैः) स्वानि इदूनि ऐश्वर्य्याणि हव्यानि दातुमादातुं योग्यानि येभ्यो दुग्धादिभ्यस्तैः (स्रुवेण) (सिञ्चन्) (जरणा) जरणानि स्तुत्यानि कर्माणि (अभि) (धाम) स्थलम्॥6॥ अन्वयः—हे सत्कर्मानुष्ठातो! भवानुषसः सूरो न येभिः स्वेदुहव्यैः स्रुवेण धामाभिसिञ्चन्निवास्या दुग्धादिभिः प्ररोचि। इन्दुः सन् जरणाष्ट तरणिः सन् ममत्तु। अध प्रजज्ञे प्रसिद्धौ भवतु॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्या गवादीन् संरक्ष्योन्नीय वैद्यकशास्त्रानुसारेणैतेषां दुग्धादीनि सेवमाना बलिष्ठा अत्यैश्वर्ययुक्ताः सततं भवन्तु, यथा कश्चिदुपसाधनेन युक्त्या क्षेत्रं निर्माय जलेन सिञ्चन्नन्नादियुक्तो भूत्वा बलैश्वर्येण सूर्यवत्प्रकाशते तथैवैतानि स्तुत्यानि कर्माणि कुर्वन्तः प्रदीप्यन्ताम्॥6॥ पदार्थः—हे अच्छे कामों के अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य! आप (उषसः) प्रभात समय से (सूरः) सूर्य के (न) समान (येभिः) जिनसे (स्वेदुहव्यैः) अपने देने-लेने के योग्य दूध आदि पदार्थों से ऐश्वर्य्य अर्थात् उत्तम पदार्थ सिद्ध होते हैं, उनसे और (स्रुवेण) श्रुवा आदि के योग से (धाम) यज्ञभूमि को (अभिसिञ्चन्) सब ओर से सींचते हुए सज्जनों के समान (अस्याः) इन गौ के दूध आदि पदार्थों से (प्र, रोचि) संसार में भली-भांति प्रकाशमान हो और (इन्दुः) ऐश्वर्य्ययुक्त (जरणा) प्रशंसित कामों को (आष्ट) प्राप्त हो (तरणिः) दुःख से पार पहुंचे हुए सुख का विस्तार करने अर्थात् बढ़ानेवाले आप (ममत्तु) आनन्द भोगो, (अध) इसके अनन्तर (प्र, जज्ञे) प्रसिद्ध होओ॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्य गौ आदि पशुओं को राख और उनकी वृद्धि कर वैद्यकशास्त्र के अनुसार इन पशुओं से दूध आदि को सेवते हुए बलिष्ठ और अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त निरन्तर हों, जैसे कोई हल, पटेला आदि साधनों से युक्ति के साथ खेत को सिद्ध कर जल सींचता हुआ अन्न आदि पदार्थों से युक्त होकर बल और ऐश्वर्य्य से सूर्य्य के समान प्रकाशमान होता है, वैसे इन प्रशंसा योग्य कामों को करते हुए प्रकाशित हों॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्वि॒ध्मा यद्व॒नधि॑तिरप॒स्यात् सूरो॑ अध्व॒रे परि॒ रोध॑ना॒ गोः। यद्ध॑ प्र॒भासि॒ कृत्व्याँ॒ अनु॒ द्यूनन॑र्विशे प॒श्विषे॑ तु॒राय॑॥7॥ सु॒ऽइ॒ध्मा। यत्। व॒नऽधि॑तिः। अ॒प॒स्यात्। सूरः॑। अ॒ध्व॒रे। परि॑। रोध॑ना। गोः। यत्। ह॒। प्र॒ऽभासि॑। कृत्व्या॑न्। अनु॑। द्यून्। अन॑र्विशे। प॒शु॒ऽइषे॑। तु॒राय॑॥7॥ पदार्थः—(स्विध्मा) सुष्ठु इध्मा सुखप्रदीप्तिर्यया सा (यत्) या (वनधितिः) वनानां धृतिः (अपस्यात्) आत्मगोऽपांसि कर्माणीच्छेत् (सूरः) प्रेरकः सविता (अध्वरे) अविद्यमानोऽध्वरो हिंसन् यस्मिन् रक्षणे (परि) सर्वतः (रोधना) रक्षणार्थानि (गोः) धेनोः (यत्) यानि (ह) किल (प्रभासि) प्रदीप्यसे (कृत्व्यान्) कर्मसु साधून्। कृत्वीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (अनु) (द्यून्) दिवसान् (अनर्विशे) अनस्सु शकटेषु विट् प्रवेशस्तस्मै। अत्र वा छन्दसीत्युत्त्वाभावः। (पश्विषे) पशूनामिषे वृद्धीच्छायै (तुराय) सद्यो गमनाय॥7॥ अन्वयः—हे सज्जन! त्वया यद्या स्विध्मा वनधितिः कृता यानि गोरोधना कृतानि तैस्त्वमध्वरे कृत्व्याननुद्यून् सूर इवानर्विशे पश्विषे तुराय यद्ध प्रभासि तद्भवान् पर्यपस्यात्॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पशुपालनवर्द्धनाद्याय वनानि रक्षित्वा तत्रैताञ्चारयित्वा दुग्धादीनि सेवित्वा कृष्यादीनि कर्माणि यथावत् कुर्युस्ते राज्यैश्वर्येण सूर्य इव प्रकाशमाना भवन्ति नेतरे गवादिहिंसकाः॥7॥ पदार्थः—हे सज्जन मनुष्य! तूने (यत्) जो ऐसी उत्तम क्रिया कि (स्विध्मा) जिससे सुन्दर सुख का प्रकाश होता वह (वनधितिः) वनों की धारणा अर्थात् रक्षा किई और जो (गोः) गौ की (रोधना) रक्षा होने के अर्थ काम किये हैं, उनसे तू (अध्वरे) जिसमें हिंसा आदि दुःख नहीं हैं, उस रक्षा के निमित्त (कृत्व्यान्) उत्तम कामों का (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (सूरः) प्रेरणा देनेवाले सूर्यलोक के समान (अनर्विशे) लढ़ा आदि गाड़ियों में जो बैठना होता उसके लिये और (पश्विषे) पशुओं के बढ़ने की इच्छा के लिये और (तुराय) शीघ्र जाने के लिये (यत्) जो (ह) निश्चय से (प्रभासि) प्रकाशित होता है सो आप (पर्यपस्यात्) अपने को उत्तम-उत्तम कामों की इच्छा करो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पशुओं की रक्षा और बढ़ने आदि के लिये वनों को राख, उन्हीं में उन पशुओं को चरा, दूध आदि का सेवन कर, खेती आदि कामों को यथावत् करें, वे राज्य के ऐश्वर्य से सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं और गौ आदि पशुओं के मारनेवाले नहीं॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒ष्टा म॒हो दि॒व आदो॒ हरी॑ इ॒ह द्यु॒म्ना॒साह॑म॒भि यो॑धा॒न उत्स॑म्। हरिं॒ यत्ते॑ म॒न्दिनं॑ दु॒क्षन् वृ॒धे गोर॑भस॒मद्रि॑भिर्वा॒ताप्य॑म्॥8॥ अ॒ष्टा। म॒हः। दि॒वः। आदः॑। हरी॒ इति॑। इ॒ह। द्यु॒म्न॒ऽसह॑म्। अ॒भि। यो॒धा॒नः। उत्स॑म्। हरि॑म्। यत्। ते॒। म॒न्दिन॑म्। धु॒क्षन्। वृ॒धे। गोऽर॑भसम्। अद्रि॑ऽभिः। वा॒ताप्य॑म्॥8॥ पदार्थः—(अष्टा) व्यापकः (महः) महतः (दिवः) दीप्त्याः (आदः) अत्ता। अत्र कृतो बहुलमिति कर्त्तरि घञ्। बहुलं छन्दसीति घस्लादेशो न। (हरी) सूर्यस्य प्रकाशाकर्षणे इव (इह) जगति (द्युम्नासाहम्) द्युम्नानि धनानि सहन्ते येन (अभि) (योधानः) योद्धुं शीलाः। अत्रौणादिको निः प्रत्ययः। (उत्सम्) कूपम् (हरिम्) हयम् (यत्) ये (ते) तव (मन्दिनम्) कमनीयम् (दुक्षन्) अधुक्षन् दुहन्तु प्रपिपुरतु (वृधे) सुखानां वर्धनाय (गोरभसम्) गवां महत्त्वम्। रभस इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (अद्रिभिः) मेघैः शैलैर्वा (वाताप्यम्) वातेन शुद्धेन वायुनाप्तुं योग्यम्॥8॥ अन्वयः—हे राजँस्ते यद्योधानो वृध आदोऽष्टा सूर्यो महो दिवो हरी अद्रिभिः प्रचरती वेह उत्सं विधाय द्युम्नसाहं हरिं मन्दिनं वाताप्यं गोरभसमभिदुक्षँस्ते त्वया सत्कर्त्तव्याः॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यूयं यथा सूर्यो स्वप्रकाशेन सर्वं जगदानन्द्याकर्षणेन भूगोलं धरति, तथैव नदीस्रोतः कूपादीन्निर्माय वनेषु वा घासादिकं वर्द्धयित्वा गोऽश्वादीनां रक्षणवर्द्धने विधाय दुग्धादिसेवनेन सततमानन्दत॥8॥ पदार्थः—हे राजन्! (ते) तुम्हारे (यत्) जो (योधानः) युद्ध करनेवाले (वृधे) सुखों के बढ़ने के लिये जैसे (आदः) रस आदि पदार्थ का भक्षण करने और (अष्टा) सब जगह व्याप्त होने वाला सूर्यलोक (महः) बड़ी (दिवः) दीप्ति से अपने (हरी) प्रकाश और आकर्षण को (अद्रिभिः) मेघ वा पर्वतों के साथ प्रचरित करता है, वैसे (इह) इस संसार में (उत्सम्) कुएँ को बनाय (द्युम्नसाहम्) जिससे धन सहे जाते अर्थात् मिलते उस (हरिम्) घोड़ा और (मन्दिनम्) मनोहर (वाताप्यम्) शुद्ध वायु से पाने योग्य (गोरभसम्) गौओं के बड़प्पन को (अभि, दुक्षन्) सब प्रकार से पूर्ण करें, वे आपको सत्कार करने योग्य हैं॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सब जगत् को आनन्द देकर अपनी आकर्षण शक्ति से भूगोल का धारण करता है, वैसे ही नदी, सोता, कुआं, बावरी, तालाब आदि को बना कर वन वा पर्वतों में घास आदि को बढ़ा, गौ और घोड़े आदि पशुओं की रक्षा और वृद्धि कर, दूध आदि के सेवन से निरन्तर आनन्द को प्राप्त होओ॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वमा॑य॒सं प्रति॑ वर्तयो॒ गोर्दि॒वो अश्मा॑न॒मुप॑नीत॒मृभ्वा॑। कुत्सा॑य॒ यत्र॑ पुरुहूत व॒न्वञ्छुष्ण॑मन॒न्तैः प॑रि॒यासि॑ व॒धैः॥9॥ त्वम्। आ॒य॒सम्। प्रति॑। व॒र्त॒यः॒। गोः। दि॒वः। अश्मा॑नम्। उप॑ऽनीतम्। ऋभ्वा॑। कुत्सा॑य। यत्र॑। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। व॒न्वन्। शुष्ण॑म्। अ॒न॒न्तैः। प॒रि॒ऽयासि॑। व॒धैः॥9॥ पदार्थः—(त्वम्) प्रजापालकः (आयसम्) अयोनिर्मितं शस्त्रास्त्रादिकम् (प्रति) (वर्त्तयः) (गोः) गवादेः पशोः (दिवः) दिव्यसुखप्रदात् प्रकाशात् (अश्मानम्) व्यापनशीलं मेघम्। अश्मेति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (उपनीतम्) प्राप्तसमीपम् (ऋभ्वा) मेधाविना (कुत्साय) वज्राय (यत्र) स्थले (पुरुहूत) बहुभिः स्पर्द्धित (वन्वन्) संभजमान (शुष्णम्) शोषकं बलम् (अनन्तैः) अविद्यमानसीमभिः (परियासि) सर्वतो याहि (वधैः) गोहिंस्राणां मारणोपायैः॥9॥ अन्वयः—हे वन्वन् पुरुहूत! त्वं सूर्यो दिवस्तमो हत्वाऽश्मानमुपनीतं प्रापयतीव ऋभ्वा सहायसं गृहीत्वा कुत्साय शुष्णं चादधन् यत्र गोहिंसका वर्त्तन्ते, तत्र तेषामनन्तैर्वधैः परियासि तान् गोः सकाशात्प्रति वर्त्तयश्च॥9॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यूयं यथा सविता मेघं वर्षयित्वाऽन्धकारं निवर्त्य सर्वमाह्लादयति, तथा गवादीनां रक्षणं विधायैतद्धिंसकान् प्रतिरोध्य सततं सुखयत नह्येतत्कर्म बुद्धिमत्सहायमन्तरा संभवति तस्माद्धीमतां सहायेनैव तदाचरत॥9॥ पदार्थः—हे (वन्वन्) अच्छे प्रकार सेवन करते और (पुरुहूत) बहुत मनुष्यों से ईर्ष्या के साथ बुलाये हुए मनुष्य! (त्वम्) तू जैसे सूर्य (दिवः) दिव्य सुख देनेहारे प्रकाश से अन्धकार को दूर करके (अश्मानम्) व्याप्त होनेवाले (उपनीतम्) अपने समीप आये हुए मेघ को छिन्न-भिन्न कर संसार में पहुंचाता है, वैसे (ऋभ्वा) मेधावी अर्थात् धीरबुद्धि वाले पुरुष के साथ (आयसम्) लोहे से बनाये हुए शस्त्र-अस्त्रों को ले के (कुत्साय) वज्र के लिये (शुष्णम्) शत्रुओं के पराक्रम को सुखानेहारे बल को धारण करता हुआ (यत्र) जहां गौओं के मारनेवाले हैं, वहाँ उनको (अनन्तैः) जिनकी संख्या नहीं उन (वधैः) गोहिंसकों को मारने के उपायों से (परियासि) सब ओर से प्राप्त होते हो, उनको (गोः) गौ आदि पशुओं के समीप से (प्रति, वर्त्तयः) लौटाओ भी॥9। भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे सूर्य मेघ की वर्षा और अन्धकार को दूर कर सबको हर्ष आनन्दयुक्त करता है, वैसे गौ आदि पशुओं की रक्षा कर उनके मारनेवालों को रोक निरन्तर सुखी होओ। यह काम बुद्धिमानों के सहाय के विना होने को संभव नहीं है, इससे बुद्धिमानों के सहाय से ही उक्त काम का आचरण करो॥9॥ पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह॥ फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पु॒रा यत् सूर॒स्तम॑सो॒ अपी॑ते॒स्तम॑द्रिवः फलि॒गं हे॒तिम॑स्य। शुष्ण॑स्य चि॒त् परि॑हितं॒ यदोजो॑ दि॒वस्परि॒ सुग्र॑थितं॒ तदादः॑॥10॥25॥ पु॒रा। यत्। सूरः॑। तम॑सः। अपि॑ऽइतेः। तम्। अ॒द्रि॒ऽवः॒। फ॒लि॒गम्। हे॒तिम्। अ॒स्य॒। शुष्ण॑स्य। चि॒त्। परि॑ऽहितम्। यत्। ओजः॑। दि॒वः। परि॑। सुऽग्र॑थितम्। तत्। आ। अ॒द॒रित्य॑दः॥10॥ पदार्थः—(पुरा) पूर्वम् (यत्) यम् (सूरः) सविता (तमसः) (अपीतेः) विनाशनात् (तम्) शत्रुबलम् (अद्रिवः) प्रशस्ता अद्रयो विद्यन्ते यस्य राज्ये तत्सम्बुद्धौ (फलिगम्) मेघम्। फलिग इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (हेतिम्) वज्रम्। हेतिरिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.20) (अस्य) (शुष्णस्य) शोषकस्य शत्रोः (चित्) अपि (परिहितम्) सर्वतः सुखप्रदम् (यत्) (ओजः) बलम् (दिवः) प्रकाशात् (परि) (सुग्रथितम्) सुष्ठु निबद्धम् (तत्) (आ) (अदः) विदृणीहि। विकरणस्यालुक् लङ् प्रयोगः॥10॥ अन्वयः—हे अद्रिवस्त्वं सूरः फलिगं हत्वा तमसोऽपीतेर्दिवः प्रकाशत इव सेनया तमादः यद्यं पुरा निवर्त्तयस्तं सुग्रथितं स्थापय। यदस्य परिहितमोजोऽस्ति तन्निवार्य शुष्णस्य परि चिदपि हेतिं निपातय। यतोऽयं गोहन्ता न स्यात्॥10॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे राजपुरुषा! यथा सूर्यो मेघं हत्वा भूमौ निपात्य सर्वान् प्राणिनः प्रीणयति तथैव गोहिंस्रान्निपात्य गवादीन् सततं सुखयत॥10॥ पदार्थः—(अद्रिवः) जिनके राज्य में प्रशंसित पर्वत विद्यमान हैं, वैसे विख्यात हे राजन्! आप जैसे (सूरः) सूर्य (फलिगम्) मेघ छिन्न-भिन्न कर (तमसः) अन्धकार के (अपीतेः) विनाश करनेहारे (दिवः) प्रकाश से प्रकाशित होता है, वैसे अपनी सेना से (तम्) उस शत्रुबल को (आ, अदः) विदारो अर्थात् उसका विनाश करो, (यत्) जिसको (पुरा) पहिले निवृत्त करते रहे हो, उसको (सुग्रथितम्) अच्छा बांध कर ठहराओ, (यत्) जो (अस्य) इसका (परिहितम्) सब ओर से सुख देनेवाला (ओजः) बल है (तत्) उसको निवृत्त कर (शुष्णस्य) सुखानेवाले शत्रु के (परि) सब ओर से (चित्) भी (हेतिम्) वज्र को उसके हाथ से गिरा देओ, जिससे यह गौओं का मारनेवाला न हो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो! जैसे सूर्य मेघ को मार और उसको भूमि में गिराय सब प्राणियों को प्रसन्न करता है, वैसे ही गौओं के मारनेवालों को मार गौ आदि पशुओं को निरन्तर सुखी करो॥10॥ पुना राजप्रजाकृत्यमाह॥ फिर राजा और प्रजा का काम यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अनु॑ त्वा म॒ही पाज॑सी अच॒क्रे द्यावा॒क्षामा॑ मदतामिन्द्र॒ कर्म॑न्। त्वं वृ॒त्रमा॒शया॑नं सि॒रासु॑ म॒हो वज्रे॑ण सिष्वपो व॒राहु॑म्॥11॥ अनु॑। त्वा॒। म॒ही इति॑। पाज॑सी॒ इति॑। अ॒च॒क्रे इति॑। द्यावा॒क्षामा॑। म॒द॒ता॒म्। इ॒न्द्र॒। कर्म॑न्। त्वम्। वृ॒त्रम्। आ॒ऽशया॑नम्। सि॒रासु॑। म॒हः। वज्रे॑ण। सि॒स्व॒पः॒। व॒राहु॑म्॥11॥ पदार्थः—(अनु) (त्वा) त्वाम् (मही) महत्यौ (पाजसी) रक्षणनिमित्ते। अत्र विभक्तेः पूर्वसवर्णः। पातेर्बले जुट् च। (उणा॰4.203) इति पा धातोरसुन् जुडागमश्च। (अचक्रे) अप्रतिहते। चक्रं चकतेर्वा। (निरु॰4.27) (द्यावाक्षामा) क्षमा एव क्षामा द्यौश्च क्षामा च द्यावाक्षामा सूर्यपृथिव्यौ (मदताम्) आनन्दतु (इन्द्र) प्राप्तपरमैश्वर्य (कर्मन्) राज्यकर्मणि (त्वम्) (वृत्रम्) मेघम् (आशयानम्) समन्तात् प्राप्तनिद्रम् (सिरासु) बन्धनरूपासु नाडीषु (महः) महता (वज्रेण) शस्त्रास्त्रसमूहेन (सिष्वपः) स्वापय। छन्दसीति संप्रसारणनिषेधः। (वराहुम्) वराणां धर्म्याणां व्यवहाराणां धार्मिकाणां जनानां च हन्तारं दस्युं शत्रुम्॥11॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं सूर्यो वृत्रमिव सिरासु सहो वज्रेण वराहुं हत्वाऽऽशयानमिव सिस्वपः। यतो मही पाजसी अचक्रे द्यावाक्षामा त्वा प्राप्य प्रत्येककर्मन्ननुमदताम्॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्विनयपराक्रमाभ्यां दुष्टान् शत्रून् बध्वा हत्वा निवर्त्य मित्राणि धार्मिकान् सम्पाद्य सर्वाः प्रजाः सत्कर्मसु प्रवर्त्यानन्दनीयाः॥11॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य को पाये हुए सभाध्यक्ष आदि सज्जन पुरुष! (त्वम्) आप सूर्य जैसे (वृत्रम्) मेघ को छिन्न-भिन्न करे वैसे (सिरासु) बन्धनरूप नाड़ियों में (महः) बड़े (वज्रेण) शस्त्र और अस्त्रों के समूह से (वराहुम्) धर्मयुक्त उत्तम व्यवहार वा धार्मिक जनों के मारनेवाले दुष्ट शत्रु को मारके (आशयानम्) जिसने सब ओर से गाढ़ी नींद पाई उसके समान (सिष्वपः) सुलाओ जिससे (मही) बड़े (पाजसी) रक्षा करनेहारा और अपने प्रकाश करने में (अचक्रे) न रुके हुए (द्यावाक्षामा) सूर्य और पृथिवी (त्वा) आपको प्राप्त होकर उनमें से प्रत्येक (कर्मन्) राज्य के काम में तुमको (अनु मदताम्) अनुकूलता से आनन्द देवें॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि विनय और पराक्रम से दुष्ट शत्रुओं को बांध, मार और निवार अर्थात् उनको धार्मिक मित्र बनाकर समस्त प्रजाजनों को अच्छे कामों में प्रवृत्त करा आनन्दित करें॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वमि॑न्द्र॒ नर्यो॒ याँ अवो॒ नॄन् तिष्ठा॒ वात॑स्य सु॒युजो॒ वहि॑ष्ठान्। यं ते॑ का॒व्य उ॒शना॑ म॒न्दिनं॒ दाद् वृ॑त्र॒हणं॒ पार्यं॑ ततक्ष॒ वज्र॑म्॥12॥ त्वम्। इ॒न्द्र॒। नर्यः॑। यान्। अवः॑। नॄन्। तिष्ठ॑। वात॑स्य। सु॒ऽयुजः॑। वहि॑ष्ठान्। यम्। ते॒। का॒व्यः। उ॒शना॑। म॒न्दिन॑म्। दात्। वृ॒त्र॒ऽहन॑म्। पार्य॑म्। त॒त॒क्ष॒। वज्र॑म्॥12॥ पदार्थः—(त्वम्) (इन्द्र) प्रजापालक (नर्य्यः) नृषुः साधुः सन् (यान्) (अवः) रक्षेः (नॄन्) धार्मिकान् जनान् (तिष्ठ) धर्मे वर्त्तस्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वातस्य) प्राणस्य मध्ये योगाभ्यासेन (सुयुजः) सुष्ठु युक्तान् योगिनः (वहिष्ठान्) अतिशयेन वोढॄन् विद्याधर्मप्रापकान् (यम्) (ते) तुभ्यम् (काव्यः) कवेर्मेधाविनः पुत्रः (उशना) धर्मकामुकः। अत्र डादेशः। (मन्दिनम्) स्तुत्यं जनम् (दात्) दद्यात् (वृत्रहणम्) शत्रुहन्तारं वीरम् (पार्य्यम्) पार्य्यते समाप्यते कर्म येन तम् (ततक्ष) प्रक्षिपेत् (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम्॥12॥ अन्वयः—हे इन्द्र काव्य उशना नर्यस्त्वं यान् वहिष्ठान् वातस्य सुयुजो नॄनवस्तैः सह धर्मे तिष्ठ यस्ते यं वृत्रहणं मन्दिनं पार्यं जनं दात् यः शत्रूणामुपरि वज्रं ततक्ष तेनापि सह धर्मेण वर्त्तस्व॥12॥ भावार्थः—यथा राजपुरुषाः परमेश्वरोपासकानध्यापकोपदेशकानन्योत्तमव्यवहारस्थान् प्रजासेनाजनान् रक्षेयुस्तथैवैतानेतेऽपि सततं रक्षेयुः॥12॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) प्रजा पालनेहारे (काव्यः) धीर उत्तम बुद्धिमान् के पुत्र (उशना) धर्म की कामना करनेहारे (नर्य्यः) मनुष्यों में साधु श्रेष्ठ हुए जन! (त्वम्) आप (यान्) जिन (वहिष्ठान्) अतीव विद्या धर्म की प्राप्ति करानेहारे (वातस्य) प्राण के बीच योगाभ्यास से (सुयुजः) अच्छे युक्त योगी (नॄन्) धार्मिक जनों की (अवः) रक्षा करते हो उनके साथ धर्म के बीच (तिष्ठ) स्थिर होओ, जो (ते) आपके लिये (यम्) जिस (वृत्रहणम्) शत्रुओं के मारनेवाले वीर (मन्दिनम्) प्रशंसा के योग्य (पार्य्यम्) जिससे पूर्ण काम बने, उस मनुष्य को (दात्) देवे वा जो शत्रुओं पर (व्रजम्) अति तेज शस्त्र और अस्त्रों को (ततक्ष) फेंके, उस-उसके साथ भी धर्म से वर्त्तो॥12॥ भावार्थः—जैसे राजपुरुष परमेश्वर की उपासना करने, पढ़ने और उपदेश करनेवाले तथा और उत्तम व्यवहारों में स्थिर प्रजा और सेनाजनों की रक्षा करें, वैसे वे भी उनकी निरन्तर रक्षा किया करें॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं सूरो॑ ह॒रितो॑ रामयो॒ नॄन् भर॑च्च॒क्रमेत॑शो॒ नायमि॑न्द्र। प्रास्य॑ पा॒रं न॑व॒तिं ना॒व्या॑ना॒मपि॑ क॒र्तम॑वर्त॒योऽय॑ज्यून्॥13॥ त्वम्। सूरः॑। ह॒रितः॑। र॒म॒यः॒। नॄन्। भर॑त्। च॒क्रम्। एत॑शः। न। अ॒यम्। इ॒न्द्र॒। प्र॒ऽअस्य॑। पा॒रम्। न॒व॒तिम्। ना॒व्या॑नाम्। अपि॑। क॒र्तम्। अ॒व॒र्त॒यः॒। अय॑ज्यून्॥13॥ पदार्थः—(त्वम्) राज्यपालनाधिकृतः (सूरः) सवितेव (हरितः) रश्मीन्। हरित इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.6) (रामयः) आनन्देन क्रीडय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नॄन्) प्रजाधर्मनायकान् (भरत्) भरेः (चक्रम्) क्रामति रथो येन तत् (एतशः) साधुरश्वः। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (न) इव (अयम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (प्रास्य) प्रकृष्टतया प्रापय (पारम्) (नवतिम्) (नाव्यानाम्) नौभिस्तार्य्याणाम् (अपि) (कर्त्तम्) कूपम्। कर्त्तमिति कूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.23) (अवर्त्तयः) प्रवर्त्तय (अयज्यून्) असङ्गतिकर्तॄन्॥13॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वमयं सूरो हरित इवैतशश्चक्रं नायज्यून् नॄन् भरत्। नाव्यानां नवतिं नवतिसंख्याकानि जलगमनार्थानि यानानि पारं प्रास्यैतान् पुरुषार्थिनोऽपि कर्त्तुं खनितुं कर्म कर्त्तुं चावर्त्तयस्त्वमत्रास्मान् सदा रमयः॥13॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमाश्लेषालङ्कारौ। यथा सूर्यः सर्वान् स्वे स्वे कर्मणि प्रेरयति तथाप्ता विद्वांसोऽविदुषः शास्त्रशारीरकर्मणि प्रवर्त्य सर्वाणि सुखानि संसाधयन्तु॥13॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले सभाध्यक्ष! (त्वम्) आप (अयम्) यह (सूरः) सूर्य्यलोक जैसे (हरितः) किरणों को वा जैसे (एतशः) उत्तम घोड़ा (चक्रम्) जिससे रथ ढुरकता है, उस पहिये को यथायोग्य काम में लगाता है (न) वैसे (अयज्यून्) विषयों में न संग करने और (नॄन्) प्रजाजनों को धर्म की प्राप्ति करानेहारे मनुष्यों की (भरत्) पुष्टि और पालना करो तथा (नाव्यानाम्) नौकाओं से पार करने योग्य जो (नवतिम्) जल में चलने के लिये नब्बे रथ हैं, उनको (पारम्) समुद्र के पार (प्रास्य) उत्तमता से पहुंचावो। तथा उन उक्त पुरुषार्थी पुरुषों को (अपि) भी (कर्त्तम्) कूंआ खुदाने और कर्म करने को (अवर्त्तयः) प्रवृत्त कराओ और आप यहाँ हम लोगों को सदा (रमयः) आनन्द से रमाओ॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमा और श्लेषालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य सबको अपने-अपने-अपने कामों में लगाता है, वैसे उत्तम शास्त्र जाननेवाले विद्वान् जन मूर्खजनों को शास्त्र और शरीर कर्म मे प्रवृत्त करा सब सुखों को सिद्ध करावें॥13॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं नो॑ अ॒स्या इ॑न्द्र दु॒र्हणा॑याः पा॒हि व॑ज्रिवो दुरि॒तादभीके॑। प्र नो॒ वाजा॑न् र॒थ्यो॒ अश्व॑बुध्यानि॒षे य॑न्धि॒ श्रव॑से सू॒नृता॑यै॥14॥ त्वम्। नः॒। अ॒स्याः। इ॒न्द्र॒। दुः॒ऽहना॑याः। पा॒हि। व॒ज्रि॒वः॒। दुः॒ऽइ॒तात्। अ॒भीके॑। प्र। नः॒। वाजा॑न्। र॒थ्यः॑। अश्व॑ऽबुध्यान्। इ॒षे। य॒न्धि॒। श्रव॑से। सू॒नृता॑यै॥14॥ पदार्थः—(त्वम्) (नः) अस्मान् (अस्याः) प्रत्यक्षायाः (इन्द्र) अधर्मविदारक (दुर्हणायाः) दुःखेन हन्तुं योग्यायाः शत्रुसेनायाः (पाहि) (वज्रिवः) प्रशस्ता वज्रयो विज्ञानयुक्ता नीतयो विद्यन्तेऽस्य तत्सम्बुद्धौ। वज धातोरौणादिक इः प्रत्ययो रुडागमश्च ततो मतुप् च। (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (प्र) (नः) अस्माकम् (वाजान्) विज्ञानवेगयुक्तान् संबन्धिनः (रथ्यः) रथस्य वोढा सन् (अश्वबुध्यान्) अश्वानन्तरिक्षे भवानग्न्यादीन् चालयितुं वर्द्धितुं बुध्यन्ते तान् (इषे) इच्छायै (यन्धि) यच्छ (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा। श्रव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (सूनृतायै) उत्तमायै प्रियसत्यवाचे॥14॥ अन्वयः—हे वज्रिव इन्द्र! रथस्त्वमभीकेऽस्या दुर्हणाया दुरिताच्च नः पाहि। इषे श्रवसे सूनृतायै नोऽस्माकमश्वबुध्यान् वाजान् सुखं प्रयन्धि॥14॥ भावार्थः—सेनाधीशेन स्वसेना शत्रुहननाद् दुष्टाचाराच्च पृथग्रक्षणीया वीरेभ्यो बलमिच्छानुकूलं बलवर्द्धकं पेयं पुष्कलमन्नं च प्रदाय हर्षयित्वा शत्रून् विजित्य प्रजाः सततं पालनीयाः॥14॥ पदार्थः—(वज्रिवः) जिसकी प्रशंसित विशेष ज्ञानयुक्त नीति विद्यमान सो (इन्द्र) अधर्म का विनाश करनेहारे हे सेनाध्यक्ष! (रथ्यः) रथ का लेजानेवाला होता हुआ (त्वम्) तू (अभीके) संग्राम में (अस्याः) इस प्रत्यक्ष (दुर्हणायाः) दुःख से मारने योग्य शत्रुओं की सेना और (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा कर तथा (इषे) इच्छा (श्रवसे) सुनना वा अन्न और (सूनृतायै) उत्तम सत्य तथा प्रिय वाणी के लिये (नः) हम लोगों के (अश्वबुध्यान्) अन्तरिक्ष में हुए अग्नि आदि पदार्थों को चलाने वा बढ़ाने को जो जानते उन्हें और (वाजान्) विशेष ज्ञान वा वेगयुक्त सम्बन्धियों को (प्र, यन्धि) भली-भांति दे॥14॥ भावार्थः—सेनाधीश को चाहिये कि अपनी सेना को शत्रु के मारने से और दुष्ट आचरण से अलग रक्खे तथा वीरों के लिये बल तथा उनकी इच्छा के अनुकूल बल के बढ़ानेवाले पीने योग्य पदार्थ तथा पुष्कल अन्न दे, उनको प्रसन्न और शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीत कर प्रजा की निरन्तर रक्षा करें॥14॥ अथेश्वरविषयमाह॥ अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मा सा ते॑ अ॒स्मत्सु॑म॒तिर्वि द॑स॒द् वाज॑प्रमहः॒ समिषो॑ वरन्त। आ नो॑ भज मघव॒न् गोष्व॒र्यो मंहि॑ष्ठास्ते सध॒मादः॑ स्याम॥15॥26॥8॥1॥ मा। सा। ते॒। अ॒स्मत्। सु॒ऽम॒तिः। वि। द॒स॒त्। वाज॑ऽप्रमहः। सम्। इषः॑। व॒र॒न्त॒। आ। नः॒। भ॒ज॒। म॒घ॒ऽव॒न्। गोऽषु॑। अ॒र्यः। मंहि॑ष्ठाः। ते॒। स॒ध॒ऽमादः॑। स्या॒म॒॥15॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (सा) प्रतिपादितपूर्वा (ते) तव (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (सुमतिः) शोभना बुद्धिः (वि) (दसत्) क्षयेत् (वाजप्रमहः) वाजैर्विज्ञानादिर्विद्वद्भिर्वा प्रकृष्टतया मह्यते पूज्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (सम्) (इषः) इच्छा अन्नादीनि वा (वरन्त) वृणवन्तु। विकरणव्यत्ययेन शप्। (आ) (नः) अस्मान् (भज) अभिलष (मघवन्) प्रशस्तपूज्यधनयुक्त (गोषु) पृथिवीवाणीधेनुधर्मप्रकाशेषु (अर्यः) स्वामीश्वरः (मंहिष्ठा) अतिशयेन सुखविद्यादिभिर्वर्द्धमानाः (ते) तव (सधमादः) महानन्दिताः (स्याम) भवेम॥15॥ अन्वयः—हे वाजप्रमहो मघवञ्जगदीश्वर! ते तव कृपया या सुमतिस्साऽस्मन्मा वि दसत्कदाचिन्न विनश्येत् सर्वे जना इषः संवरन्त। अर्यस्त्वं नोऽस्मान् गोष्वाभज यतो मंहिष्ठाः सन्तो वयं ते तव सधमादः स्याम॥15॥ भावार्थः—मनुष्यैः सुप्रज्ञादिप्राप्तये परमेश्वरः स्वामी मन्तव्यः प्रार्थनीयश्च। यत ईश्वरस्य यादृशा गुणकर्मस्वभावाः सन्ति तादृशान् स्वकीयान् सम्पाद्य परमात्मना सहानन्दे सततं तिष्ठेयुः॥15॥ अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजादिधर्मवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ हे जगदीश्वर! यथा भवत्कृपाकटाक्षसहायप्राप्तेन मयर्ग्वेदस्य प्रथमाष्टकस्य भाष्यं सुखेन सम्पादितं तथैवाग्रेऽपि कर्त्तुं शक्येत्॥ इति प्रथमाष्टकेऽष्टमेऽध्याये षड्विंशो 26 वर्गः प्रथमोऽष्टकोऽष्टमोऽध्याय एकविंशत्युत्तरं शततमं 121 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (वाजप्रमहः) विशेष ज्ञान वा विद्वानों से अच्छे प्रकार सत्कार को प्राप्त किये (मघवन्) और प्रशंसित सत्कार करने योग्य धन से युक्त जगदीश्वर! (ते) आपकी कृपा से जो (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है (सा) सो (अस्मत्) हमारे निकट से (मा) मत (वि, दसत्) विनाश को प्राप्त होवे, सब मनुष्य (इषः) इच्छा और अन्न आदि पदार्थों को (सं, वरन्त) अच्छे प्रकार स्वीकार करें (अर्यः) स्वामी ईश्वर आप (नः) हम लोगों को (गोषु) पृथिवी, वाणी, धेनु और धर्म के प्रकाशों में (आ, भज) चाहो, जिससे (मंहिष्ठाः) अत्यन्त सुख और विद्या आदि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुए हम लोग (ते) आपके (सधमादः) अति आनन्दसहित (स्याम) अर्थात् आप के विचार में मग्न हों॥15॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम बुद्धि आदि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर को स्वामी मानें और उनकी प्रार्थना करें। जिससे ईश्वर के जैसे गुण, कर्म और स्वभाव हैं, वैसे अपने सिद्ध करके परमात्मा के साथ आनन्द में निरन्तर स्थित हों॥15॥ इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राज-प्रजा आदि के धर्म का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये॥ हे जगदीश्वर! जैसे आपकी कृपाकटाक्ष का सहाय जिसको प्राप्त हुआ, उस मैने ऋग्वेद के प्रथम अष्टक का भाष्य सुख से बनाया, वैसे आगे भी वह ऋग्वेदभाष्य मुझसे बन सके॥ यह प्रथम अष्टक के आठवें अध्याय में छब्बीसवां 26 वर्ग, प्रथम अष्टक, आठवां अध्याय और एकसौ इक्कीसवां 121 सूक्त समाप्त हुआ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमाष्टकेऽष्टमोऽध्यायोऽलमगात्॥

॥ओ३म्॥ अथ द्वितीयाष्टकारम्भः॥ तत्र प्रथमोऽध्यायः॥ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥ ऋ॰5.82.5॥ प्र व इत्यस्य पञ्चदशर्चस्य द्वाविंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्य कक्षीवान् ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। 1,5,14 भुरिक् पङ्क्तिः। 4 निचृत्पङ्क्तिः। 3,15 स्वराट्पङ्क्तिः। 6 विराट् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 2,9,10,13 विराट् त्रिष्टुप्। 8,12 निचृत् त्रिष्टुप्। 7,11 त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादौ सभापतिकार्यमुपदिश्यते॥ अब द्वितीय अष्टक के प्रथम अध्याय का आरम्भ है। उसमें एक सौ बाईसवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में सभापति के कार्य्य का उपदेश किया जाता है॥ प्र वः॒ पान्तं॑ रघुमन्य॒वोऽन्धो॑ य॒ज्ञं रु॒द्राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ भरध्वम्। दि॒वो अ॑स्तो॒ष्यसु॑रस्य वी॒रैरि॑षु॒ध्येव॑ म॒रुतो॒ रोद॑स्योः॥1॥ प्र। वः॒। पान्त॑म्। र॒घु॒ऽम॒न्य॒वः॒। अन्धः॑। य॒ज्ञम्। रु॒द्राय॑। मी॒ळ्हुषे॑। भ॒र॒ध्व॒म्। दि॒वः। अ॒स्तो॒षि॒। असु॑रस्य। वी॒रैः। इ॒षु॒ध्याऽइ॑व। म॒रुतः॑। रोद॑स्योः॥1॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टे (वः) युष्मान् (पान्तम्) रक्षन्तम् (रघुमन्यवः) लघुक्रोधाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य रः। (अन्धः) अन्नम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (रुद्राय) दुष्टानां रोदयित्रे (मीढुषे) सज्जनान् प्रति सुखसेचकाय (भरध्वम्) धरध्वम् (दिवः) विद्याप्रकाशान् (अस्तोषि) स्तौमि (असुरस्य) अविदुषः (वीरैः) (इषुध्येव) इषवो धीयन्ते यस्यां तयेव (मरुतः) वायवः (रोदस्योः) भूमिसूर्ययोः॥1॥ अन्वयः—हे रघुमन्यवो! रोदस्योर्मरुत इव इषुध्येव वीरैः सह वर्त्तमाना यूयं मीढुषे रुद्राय वः पान्तं यज्ञमन्धश्च दिवोऽसुरस्य सम्बन्धे वर्त्तमानान् यथा प्रभरध्वं तथाहमेतमस्तोषि॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यदा योग्यपुरुषैः सह प्रयत्यते तदा कठिनमपि कृत्यं सहजतया साद्धुं शक्यते॥1॥ पदार्थः—हे (रघुमन्यवः) थोड़े क्रोधवाले मनुष्यो! (रोदस्योः) भूमि और सूर्य्यमण्डल में जैसे (मरुतः) पवन विद्यमान वैसे (इषुध्येव) जिसमें वाण धरे जाते उस धुनष से जैसे वैसे (वीरैः) वीर मनुष्यों के साथ वर्त्तमान तुम (मीढुषे) सज्जनों के प्रति सुखरूपी वृष्टि करने और (रुद्राय) दुष्टों को रुलानेहारे सभाध्यक्षादि के लिये (वः) तुम लोगों की (पान्तम्) रक्षा करते हुए (यज्ञम्) सङ्गम करने योग्य उत्तम व्यवहार और (अन्धः) अन्न को तथा (दिवः) विद्या प्रकाशों जो कि (असुरस्य) अविद्वानों के सम्बन्ध में वर्त्तमान उपदेश आदि उनको जैसे (प्र, भरध्वम्) धारण वा पुष्ट करो, वैसे मैं इस तुम्हारे व्यवहार की (अस्तोषि) स्तुति करता हूँ॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पूर्णोपमा और वाचकलुप्तोपमा ये दोनों अलङ्कार हैं। जब मनुष्यों का योग्य पुरुषों के साथ अच्छा यत्न बनता है, तब कठिन भी काम सहज से सिद्ध कर सकते हैं॥1॥ अथ दम्पत्योर्व्यवहारमाह॥ अब स्त्री-पुरुषों के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है॥ पत्नी॑व पू॒र्वहू॑तिं वावृ॒धध्या॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ पुरु॒धा विदा॑ने। स्त॒रीर्नात्कं॒ व्यु॑तं॒ वसा॑ना॒ सूर्य॑स्य श्रि॒या सु॒दृशी॒ हिर॑ण्यैः॥2॥ पत्नी॑ऽइव। पू॒र्वऽहू॑तिम्। व॒वृ॒धध्यै॑। उ॒षसा॒नक्ता॑। पु॒रु॒धा। विदा॑ने॒ इति॑। स्त॒रीः। न। अत्क॑म्। विऽउ॑तम्। वसा॑ना। सूर्य॑स्य। श्रि॒या। सु॒ऽदृशी॑। हिर॑ण्यैः॥2॥ पदार्थः—(पत्नीव) यथा विदुषी स्त्री (पूर्वहूतिम्) पूर्वा हूतिराह्वानं यस्य तम् (ववृधध्यै) वर्धयितुम्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुस्तुजादित्वाद्दीर्घश्च। (उषासानक्ता) रात्रिदिने (पुरुधा) ये पुरून् बहून् धरतस्ते (विदाने) विज्ञायमाने (स्तरीः) कलायन्त्रादिसंयोगेनास्तारिषत यास्ता नौकाः (न) इव (अत्कम्) कूपमिव (व्युतम्) विविधतयोतं विस्तृतं वस्त्रम् (वसाना) परिदधती (सूर्यस्य) सवितुः (श्रिया) शोभया (सुदृशी) सुष्ठु दर्शनं यस्याः सा (हिरण्यैः) ज्योतिभिरिव॥2॥ अन्वयः—हे सति स्त्रि! त्वं पत्नीव ववृधध्यै पूर्वहूतिं पतिं स्वीकृत्य पुरुधा विदाने उषासानक्तेव वर्त्तस्व सूर्यस्य हिरण्यैः श्रिया च सुदृशी अत्कमिव व्युतं वसाना सती स्तरीर्न सततं भव॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। पतिव्रता सन्तं पतिं प्रीणाति स्त्रीव्रतः पतिः स्त्रियं च तौ यथाऽहोरात्रः सम्बद्धो वर्त्तते तथा वर्त्तमानौ वस्त्रालङ्कारैः सुशोभितौ धर्म्ये व्यवहारे यथावत्प्रयतेताम्॥2॥ पदार्थः—हे सरलस्वभावयुक्त उत्तम स्त्री! तू (पत्नीव) जैसे यज्ञादि कर्म में साथ रहने वाली विद्वान् की स्त्री (ववृधध्यै) वृद्धि करने को अर्थात् गृहस्थाश्रम् आदि व्यवहारों के बढ़ाने को (पूर्वहूतिम्) जिसका पहिले बुलाना होता अर्थात् सब कामों से जिसकी प्रथम सेवा करनी होती, उस अपने पति को स्वीकार कर (पुरुधा) जो बहुत व्यवहार वा पदार्थों की धारण करने हारे (विदाने) जाने जाते उन (उषासानक्ता) रात्रिदिन के समान वर्त्त वैसी वर्त्ता कर तथा (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (हिरण्यैः) सुवर्ण सी चिलकती हुई ज्योतियों और (श्रिया) उत्तम शोभा से (सुदृशी) जिस तेरा अच्छा दर्शन वह (अत्कम्) कुएं के समान (व्युतम्) अनेक प्रकार बुने हुए विस्तारयुक्त वस्त्र को (वसाना) पहिनती हुई (स्तरीः) जैसे कलायन्त्रादिकों के संयोग से ढांपी हुई नाव हों (न) वैसी निरन्तर हो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। पतिव्रता स्त्री विद्यमान अपने पति को प्रसन्न करती और स्त्रीवत् अर्थात् नियम से अपनी स्त्री में रमनेहारा पति जैसे दिनरात्रि सम्बन्ध से मिला हुआ वर्त्तमान है, वैसे सम्बन्ध से वर्त्तमान कपड़े और गहने पहिने हुए सुशोभित धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् प्रयत्न करें॥2॥ अथ सद्गुणानां व्यवसायं व्यवहारं चाह॥ अब अगले मन्त्र में अच्छे गुणों के विचार और व्यवहार का उपदेश करते हैं॥ म॒मत्तु॑ नः॒ परि॑ज्मा वस॒र्हा म॒मत्तु॒ वातो॑ अ॒पां वृष॑ण्वान्। शि॒शी॒तमि॑न्द्रापर्वता यु॒वं न॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः॥3॥ म॒मत्तु॑। नः॒। परि॑ऽज्मा। व॒स॒र्हा। म॒मत्तु॑। वातः॑। अ॒पाम्। वृष॑ण्ऽवान्। शि॒शी॒तम्। इ॒न्द्रा॒प॒र्व॒ता॒। यु॒वम्। नः॒। तत्। नः॒। विश्वे॑। व॒रि॒व॒स्य॒न्तु। दे॒वाः॥3॥ पदार्थः—(ममत्तु) हर्षयतु (नः) अस्मान् (परिज्मा) परितो जमत्यत्ति यः सोऽग्निः (वसर्हा) वसानां वासहेतूनामर्हकः। अत्र शकन्ध्वादिना पररूपम्। (ममत्तु) (वातः) वायुः (अपाम्) जलानाम् (वृषण्वान्) वृष्टिहेतुः (शिशीतम्) तीक्ष्णबुद्धियुक्तान् कुरुतम् (इन्द्रापर्वता) सूर्य्यमेघाविव (युवम्) युवाम् (नः) अस्मान् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) सर्वे (वरिवस्यन्तु) परिचरन्तु (देवाः) विद्वांसः॥3॥ अन्वयः—यथा वसर्हा परिज्मा नो ममत्त्वपां वृषण्वान् वातो नो ममत्तु। हे इन्द्रापर्वतेव वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ! युवं नश्शिशीतं विश्वे देवा नो वरिवस्यन्तु तथा तत् तान् सर्वान् सत्कृतान् वयं सततं कुर्याम॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या यथाऽस्मान् प्रसादयेयुस्तथा वयमप्येतान् प्रीणयेम॥3॥ पदार्थः—जैसे (वसर्हा) निवास कराने की योग्यता को प्राप्त होता और (परिज्मा) पाये हुए पदार्थों को सब ओर से खाता जलाता हुआ अग्नि (नः) हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दित करावे वा (अपाम्) जलों की (वृषण्वान्) वर्षा करानेहारा (वातः) पवन हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दयुक्त करावे। हे (इन्द्रापर्वता) सूर्य्य और मेघ के समान वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवालो! (युवम्) तुम दोनों (नः) हम लोगों को (शिशीतम्) अतितीक्ष्ण बुद्धि से युक्त करो वा (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों के लिये (वरिवस्यन्तु) सेवन अर्थात् आश्रय करें, वैसे (तत्) उन सबको सत्कारयुक्त हम लोग निरन्तर करें॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे हम लोगों को प्रसन्न करें, वैसे हम लोग भी उन मनुष्यों को प्रसन्न करें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒त त्या मे॑ य॒शसा॑ श्वेत॒नायै॒ व्यन्ता॒ पान्तौ॑शि॒जो हु॒वध्यै॑। प्र वो॒ नपा॑तम॒पां कृ॑णुध्वं॒ प्र मा॒तरा॑ रास्पि॒नस्या॒योः॥4॥ उ॒त्। त्या। मे॒। य॒शसा॑। श्वे॒त॒नायै॒। व्यन्ता॑। पान्ता॑। औ॒शि॒जः। हु॒वध्यै॑। प्र। वः॒। नपा॑तम्। अ॒पाम्। कृ॒णु॒ध्व॒म्। प्र। मा॒तरा॑। रा॒स्पि॒नस्य॑। आ॒योः॥4॥ पदार्थः—(उत) अपि (त्या) तौ (मे) मम (यशसा) सत्कीर्त्त्या (श्वेतनायै) प्रकाशाय (व्यन्ता) विविधबलोपेतौ (पान्ता) रक्षकौ (औशिजः) कामयमानपुत्रः (हुवध्यै) आदातुम् (प्रः) (वः) युष्माकम् (नपातम्) पातरहितम् (अपाम्) जलानाम् (कृणुध्वम्) कुरुध्वम् (प्र) (मातरा) मानकारकौ (रास्पिनस्य) आदातुमर्हस्य (आयोः) जीवनस्य॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्ता त्या हुवध्यै मातरा रास्पिनस्यायोर्वर्द्धनाय प्रवर्त्तेते यथापां नपातं यूयं प्रकृणुध्वं तथोतौशिजोऽहं व आयुः सततं प्रवर्द्धयेयम्॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यथा सुशिक्षयाऽस्माकमायुर्यूयं वर्द्धयत तथा वयमपि युष्माकं जीवनमुन्नयेम॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (मे) मेरे (यशसा) उत्तम यश से (श्वेतनायै) प्रकाश के लिये (व्यन्ता) अनेक प्रकार के बल से युक्त (पान्ता) रक्षा करनेवाले (त्या) वे पूर्वोक्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे (हुवध्यै) हम लोगों के ग्रहण करने को (मातरा) मान करनेहारे (रास्पिनस्य) ग्रहण करने योग्य (आयोः) जीवन अर्थात् आयुर्दा के बढ़ाने को (प्र) प्रवृत्त होते हैं तथा जैसे तुम लोग (अपाम्) जलों के (नपातम्) विनाशरहित मार्ग को वा जलों के न गिरने को (प्र, कृणुध्वम्) सिद्ध करो वैसे (उत) निश्चय से (औशिजः) कामना करते हुए का सन्तान मैं (वः) तुम लोगों की आयुर्दा को निरन्तर बढ़ाऊं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे सुन्दर शिक्षा से हम लोगों की आयुर्दा को तुम बढ़ाओ, वैसे हम भी तुम्हारी आयुर्दा की उन्नति किया करें॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ वो॑ रुव॒ण्युमौ॑शि॒जो हु॒वध्यै॒ घोषे॑व॒ शंस॒मर्जु॑नस्य॒ नंशे॑। प्र व॑ पू॒ष्णे दा॒वन॒ आँ अच्छा॑ वोचेय व॒सुता॑तिम॒ग्नेः॥5॥1॥ आ। वः॒। रु॒व॒ण्युम्। औ॒शि॒जः। हु॒वध्यै॑। घोषा॑ऽइव। शंस॑म्। अर्जु॑नस्य। नंशे॑। प्र। वः॒। पू॒ष्णे। दा॒वने॑। आ। अच्छ॑। वो॒चे॒य॒। व॒सुऽता॑तिम्। अ॒ग्नेः॥5॥ पदार्थः—(आ) (वः) युष्माकम् (रुवण्युम्) सुशब्दायमानम् (औशिजः) विद्याकामस्य पुत्रः (हुवध्यै) होतुमादातुम् (घोषेव) आप्तानां वागिव (शंसम्) प्रशस्तम् (अर्जुनस्य) रूपस्य। अर्जुनमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7) (नंशे) नाशनाय (प्र) (वः) (पूष्णे) पोषणाय (दावने) दात्रे (आ) (अच्छ) (वोचेय) (वसुतातिम्) धनमेव (अग्नेः) पावकात्॥5॥ अन्वयः—हे विद्वांस! औशिजोऽहं वो रुवण्युमाहुवध्यै अर्जुनस्य शंसं घोषेव दुःखं नंशे वः पूष्णे दावनेऽग्नेर्वसुतातिं प्राच्छा वोचेय॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा वैद्याः सर्वेभ्यः आरोग्यं प्रदाय रोगान् सद्यो निवर्त्तयन्ति तथा सर्वे विद्यावन्तः सर्वान् सुखिनो विधाय सुप्रतिष्ठितान् कुर्वन्तु॥5॥ पदार्थः—हे विद्वानो! (औशिजः) विद्या की कामना करनेवाले का पुत्र मैं (वः) तुम लोगों के (रुवण्युम्) अच्छे कहे हुए उत्तम उपदेश के (आ, हुवध्यै) ग्रहण करने के लिये (अर्जुनस्य) रूप के (शंसम्) प्रशंसित व्यवहार को वा (घोषेव) विद्वानों की वाणी के समान दुःख के (नंशे) नाश और (वः) तुम लोगों की (पूष्णे) पुष्टि करने तथा (दावने) दूसरों को देने के लिये (अग्नेः) अग्नि के सकाश से जो (वसुतातिम्) धन उसको ही (प्र, आ, अच्छा, वोचेय) उत्तमता से भली भांति अच्छा कहूं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वैद्यजन सबके लिये आरोग्यपन देके रोगों को जल्दी दूर कराते, वैसे सब विद्यावान् सबको सुखी कर अच्छी प्रतिष्ठा वाले करें॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मोत श्रु॑तं॒ सद॑ने वि॒श्वतः॑ सीम्। श्रोतु॑ नः॒ श्रोतु॑रातिः सु॒श्रोतुः॑ सु॒क्षेत्रा॒ सिन्धु॑र॒द्भिः॥6॥ श्रु॒तम्। मे॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। हवा॑। इ॒मा। उ॒त। श्रु॒त॒म्। सद॑ने। वि॒श्वतः॑। सी॒म्। श्रोतु॑। नः॒। श्रोतु॑ऽरातिः। सु॒ऽश्रोतुः॑। सु॒ऽक्षेत्रा॑। सिन्धुः॑। अ॒त्ऽभिः॥6॥ पदार्थः—(श्रुतम्) (मे) मम (मित्रावरुणा) सुहृद्वरौ (हवा) होतुमर्हाणि वचनानि (इमा) इमानि (उत) अपि (श्रुतम्) अत्र विकरणलुक्। (सदने) सदसि सभायाम् (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) सीमायाम् (श्रोतु) शृणोतु (नः) अस्माकम् (श्रोतुरातिः) श्रोतुः श्रवणं रातिर्दानं यस्य (सुश्रोतुः) सुष्ठु शृणोति यस्तस्य (सुक्षेत्रा) शोभनानि क्षेत्राणि (सिन्धुः) नदी (अद्भिः) जलैः॥6॥ अन्वयः—हे मित्रावरुणा! सुश्रोतुर्मे इमा हवा श्रुतमुतापि सदने विश्वतः सीं श्रुतमद्भिः सिन्धुः सुक्षेत्रेव श्रोतुरातिर्नो वचनानि श्रोतु॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिः सर्वेषां प्रश्नाञ्छ्रुत्वा यथावत् समाधेयाः॥6॥ पदार्थः—हे (मित्रावरुणा) मित्र और उत्तम जन (सुश्रोतुः, मे) मुझ अच्छे सुननेवाले के (इमा) इन (हवा) देने-लेने योग्य वचनों को (श्रुतम्) सुनो (उत) और (सदने) सभा वा (विश्वतः) सब ओर से (सीम्) मर्य्यादा में (श्रुतम्) सुनो अर्थात् वहाँ की चर्चा को समझो तथा (अद्भिः) जलों से जैसे (सिन्धुः) नदी (सुक्षेत्रा) उत्तम खेतों को प्राप्त हो, वैसे (श्रोतुरातिः) जिसका सुनना दूसरे को देना है, वह (नः) हम लोगों के वचनों को (श्रोतु) सुने॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सबके प्रश्नों को सुनके यथावत् उनका समाधान करें॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्तु॒षे सा वां॑ वरुण मित्र रा॒तिर्गवां॑ श॒ता पृ॒क्षया॑मेषु प॒ज्रे। श्रु॒तर॑थे प्रि॒यर॑थे॒ दधा॑नाः स॒द्यः पुष्टिं नि॑रुन्धा॒नासो॑ अग्मन्॥7॥ स्तु॒षे। सा। वा॒म्। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। रा॒तिः। गवा॑म्। श॒ता। पृ॒क्षऽया॑मेषु। प॒ज्रे। श्रु॒तऽर॑थे। प्रि॒यऽर॑थे। दधा॑नाः। स॒द्यः। पु॒ष्टिम्। नि॒ऽरु॒न्धा॒नासः॑। अ॒ग्म॒न्॥7॥ पदार्थः—(स्तुषे) स्तौति। अत्र व्यत्ययेन मध्यमः। (सा) (वाम्) युवाम् (वरुण) गुणोत्कृष्ट (मित्र) सुहृत् (रातिः) या राति ददाति सा (गवाम्) वाणीनाम् (शता) शतानि (पृक्षयामेषु) पृच्छ्यन्ते ये ते पृक्षास्तेषामिमे यामास्तेषु। अत्र पृच्छधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्सः प्रत्ययः। (पज्रे) गमके (श्रुतरथे) श्रुते रमणीये रथे (प्रियरथे) कमनीये रथे (दधानाः) धरन्तः (सद्यः) (पुष्टिम्) (निरुन्धानासः) निरोधं कुर्वाणाः (अग्मन्) गच्छेयुः॥7॥ अन्वयः—यथा विद्वांसः पज्रे श्रुतरथे प्रियरथे सद्यः पुष्टिं दधाना दुःखं निरुन्धानासोऽग्मंस्तथा हे वरुण मित्र! युवां पृक्षयामेषु गवां शता गच्छतम् या युवयो रातिः स्त्री सा वां युवां यथा स्तुषे तथाऽहमपि स्तौमि॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेह विद्वांसः पुरुषार्थेनानेकान्यद्भुतानि यानानि रचयन्ति तथान्यैरपि रचनीयानि॥7॥ पदार्थः—जैसे विद्वान् जन (पज्रे) पदार्थों के पहुंचानेवाले (श्रुतरथे) सुने हुए रमण करने योग्य रथ वा (प्रियरथे) अति मनोहर रथ में (सद्यः) शीघ्र (पुष्टिम्) पुष्टि को (दधानाः) धारण करते और दुःख को (निरुन्धानासः) रोकते हुए (अग्मन्) जावें, वैसे हे (वरुण) गुणों से उत्तमता को प्राप्त और (मित्र) मित्र! तुम (पृक्षयामेषु) जो पूंछे जाते उनके यम-नियमों में (गवाम्, शता) सैकड़ों वचनों को प्राप्त होओ। और जो तुम्हारी (रातिः) दान देनेवाली स्त्री हैं (सा) वह (वाम्) तुम दोनों की (स्तुषे) स्तुति करती हैं, वैसे मैं भी स्तुति करूं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस संसार में विद्वान् जन पुरुषार्थ से अनेकों अद्भुत यानों को बनाते हैं, वैसे औरों को भी बनाने चाहिये॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य स्तु॑षे॒ महि॑मघस्य॒ राधः॒ सचा॑ सनेम॒ नहु॑षः सु॒वीराः॑। जनो॒ यः प॒ज्रेभ्यो॑ वा॒जिनी॑वा॒नश्वा॑वतो र॒थिनो॒ मह्यं॑ सू॒रिः॥8॥ अ॒स्य। स्तु॒षे॒। महि॑ऽमघस्य। राधः॑। सचा॑। स॒ने॒म॒। नहु॑षः। सु॒ऽवीराः॑। जनः॑। यः। प॒ज्रेभ्यः॑। वा॒जिनी॑ऽवान्। अश्व॑ऽवतः। र॒थिनः॑। मह्य॑म्। सू॒रिः॥8॥ पदार्थः—(अस्य) (स्तुषे) (महिमघस्य) महन्मघं पूज्यं धनं यस्य तस्य (राधः) धनम् (सचा) समवायेन (सनेम) संभजेम (नहुषः) शुभाशुभकर्मबद्धो मनुष्यः। नहुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (सुवीराः) उत्कृष्टशूरवीराः (जनः) (यः) (पज्रेभ्यः) गमकेभ्यो यानेभ्यः (वाजिनीवान्) प्रशस्तवेदक्रियायुक्तः (अश्वावतः) बह्वश्वयुक्तस्य। मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्वदेव्यस्य मतौ। (अष्टा॰6.3.131) इत्यश्वशब्दस्य मतौ दीर्घः। (रथिनः) प्रशस्तरथस्य (मह्यम्) (सूरिः) विद्वान्॥8॥ अन्वयः—हे विद्वंस्त्वमस्याश्वावतो रथिनो महिमघस्य जनस्य राधः स्तुषे तस्य तत्सुवीरा वयं सचा सनेम यो नहुषो जनः पज्रेभ्यो वाजिनीवान् जायते स सूरिर्मह्यमेतां विद्यां ददातु॥8॥ भावार्थः—यथा पुरुषार्थी समृद्धिमान् जायते तथा सर्वैर्भवितव्यम्॥8॥ पदार्थः—हे विद्वान्! आप (अस्य) इस (अश्वावतः) बहुत घोड़ों से युक्त (रथिनः) प्रशंसित रथ और (महिमघस्य) प्रशंसा करने योग्य उत्तम धनवाले जन के (राधः) धन की (स्तुषे) स्तुति अर्थात् प्रशंसा करते हो उन आपके उस काम को (सुवीराः) सुन्दर शूरवीर मनुष्यों वाले हम लोग (सचा) सम्बन्ध से (सनेम) अच्छे प्रकार सेवें (यः) जो (नहुषः) शुभ-अशुभ कामों से बंधा हुआ (जनः) मनुष्य (पज्रेभ्यः) एक स्थान को पहुंचानेहारे यानों से (वाजिनीवान्) प्रशंसित वेदोक्त क्रियायुक्त होता है, वह (सूरिः) विद्वान् (मह्यम्) मेरे लिये इस वेदोक्त शिल्पविद्या को देवे॥8॥ भावार्थः—जैसे पुरुषार्थी मनुष्य समृद्धिमान् होता है, वैसे सब लोगों को होना चाहिये॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ जनो॒ यो मि॑त्रावरुणावभि॒ध्रुग॒पो न वां॑ सु॒नोत्य॑क्ष्णया॒ध्रुक्। स्व॒यं स यक्ष्मं॒ हृद॑ये॒ नि ध॑त्त॒ आप॒ यदीं॒ होत्रा॑भिर्ऋ॒तावा॑॥9॥ जनः॑। यः। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। अ॒भि॒ऽध्रुक्। अ॒पः। न। वा॒म्। सु॒नोति॑। अ॒क्ष्ण॒या॒ऽध्रुक्। स्व॒यम्। सः। यक्ष्म॑म्। हृद॑ये। नि। ध॒त्ते॒। आप॑। यत्। ई॒म्। होत्रा॑भिः। ऋ॒तऽवा॑॥9॥ पदार्थः—(जनः) विद्वान् (यः) (मित्रावरुणौ) प्राणोदानाविव (अभिध्रुक्) अभितो द्रोहं कुर्वन् (अपः) प्राणान् (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (सुनोति) निष्पन्नान् करोति (अक्ष्णयाध्रुक्) कुटिलया रीत्या द्रुह्यति सः (स्वयम्) (सः) (यक्ष्मम्) राजरोगम् (हृदये) (नि) (धत्ते) (आप) आप्नोति (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (होत्राभिः) आदातुमर्हाभिः क्रियाभिः (ऋतावा) य ऋतेन सत्येन वनोति संभजति सः॥9॥ अन्वयः—हे सत्योपदेशकयाजकौ! यो जनो वामपो मित्रावरुणाविवाभिध्रुगक्ष्णयाध्रुक् सन्न सुनोति, स स्वयं हृदये यक्ष्मं निधत्ते यद्यऋतावा होत्राभिरीमाप स स्वयं हृदये सुखं निधत्ते॥9॥ भावार्थः—यो मनुष्यः परोपकारकान् विदुषो द्रह्यति स सदा दुःखी यश्च प्रीणाति स च सुखी जायते॥9॥ पदार्थः—हे सत्य उपदेश और यज्ञ करानेवालो! (यः) जो (जनः) विद्वान् (वाम्) तुम दोनों के (अपः) प्राण अर्थात् बलों को (मित्रावरुणा) प्राण तथा उदान जैसे वैसे (अभिध्रुक्) आगे से द्रोह करता वा (अक्ष्णयाध्रुक्) कुटिलरीति से द्रोह करता हुआ (न) नहीं (सुनोति) उत्पन्न करता (सः) वह (स्वयम्) आप (हृदये) अपने हृदय में (यक्ष्मम्) राजरोग को (नि, धत्ते) निरन्तर धारण करता वा (यत्) जो (ऋतावा) सत्य भाव से सेवन करनेवाला (होत्राभिः) ग्रहण करने योग्य क्रियाओं से (ईम्) सब ओर से आपके व्यवहारों को प्राप्त होता है, वह (आप) अपने हृदय में सुख को निरन्तर धारण करता है॥9॥ भावार्थः—जो मनुष्य परोपकार करनेवाले विद्वानों से द्रोह करता वह सदा दुःखी और जो प्रीति करता है, वह सुखी होता है॥9॥ अथ युद्धविषय उपदिश्यते॥ अब युद्ध के विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स व्राध॑तो॒ नहु॑षो॒ दंसु॑जूतः॒ शर्ध॑स्तरो न॒रां गू॒र्तश्र॑वाः। विसृ॑ष्टरातिर्याति बाळ्ह॒सृत्वा॒ विश्वा॑सु पृ॒त्सु सद॒मिच्छूरः॑॥10॥2॥ सः। व्राध॑तः। नहु॑षः। दम्ऽसु॑जूतः। शर्धः॑ऽतरः। न॒राम्। गू॒र्तऽश्र॑वाः। विसृ॑ष्टऽरातिः। या॒ति॒। बा॒ळ्ह॒ऽसृत्वा॑। विश्वा॑सु। पृ॒त्ऽसु। सद॑म्। इत्। शूरः॑॥10॥ पदार्थः—(सः) (व्राधतः) विरोधिनः (नहुषः) मनुष्यः (दंसुजूतः) यो दंसुभिरुपक्षयितृभिर्वीरैर्जूतः प्रेरितः सः (शर्धस्तरः) अतिशयेन बलवान् (नराम्) नायकानां वीराणाम् (गूर्त्तश्रवाः) गूर्त्तेनोद्यमेन श्रवः श्रवणमन्नं वा यस्य सः (विसृष्टरातिः) विविधाः सृष्टा रातयो दानादीनि येन सः (याति) प्राप्नोति (बाढसृत्वा) यो बाढेन प्रशस्तेन बलेन सरति सः (विश्वासु) (पृत्सु) सेनासु (सदम्) शत्रुहिंसकसैन्यम् (इत्) एव (शूरः) शत्रूणां हिंसकः॥10॥ अन्वयः—यो दंसुजूतः शर्धस्तरो गूर्त्तश्रवा विसृष्टरातिर्बाढसृत्वा नहुषो नरां विश्वासु पृत्सु सदमिद् गृहीत्वा व्राधतो युद्धाय याति स विजयमाप्नोति॥10॥ भावार्थः—मनुष्यैः शत्रोरधिकां युद्धसामग्रीं कृत्वा सुसहायेन स शत्रुर्विजेतव्यः॥10॥ पदार्थः—जो (दंसुजूतः) विनाश करनेहारे वीरों ने प्रेरणा किया (शर्धस्तरः) अत्यन्त बलवान् (गूर्त्तश्रवाः) जिसका उद्यम के साथ सुनना और अन्न आदि पदार्थ (विसृष्टरातिः) जिसने अनेक प्रकार के दान आदि उत्तम-उत्तम सिद्ध किये (बाढसृत्वा) जो प्रशंसित बल से चलने (शूरः) और शत्रुओं को मारनेवाला (नहुषः) मनुष्य (नराम्) नायक वीरों की (विश्वासु) समस्त (पृत्सु) सेनाओं में (सदम्) शत्रुओं के मारनेवाले वीर सेनाजन को (इत्) ही ग्रहण कर (व्राधतः) विरोध करनेवालों को युद्ध के लिये (याति) प्राप्त होता है (सः) वह विजय को पाता है॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि अपने शत्रु से अधिक युद्ध की सामग्री को इकट्ठी कर अच्छे पुरुषों के सहाय से उस शत्रु को जीतें॥10॥ पुनरुपदेशककृत्यमाह॥ फिर उपदेश करनेवाले का कर्त्तव्य अगले मन्त्र में कहा है॥ अध॒ ग्मन्ता॒ नहु॑षो॒ हवं॑ सू॒रेः श्रोता॑ राजानो अ॒मृत॑स्य मन्द्राः। न॒भो॒जुवो॒ यन्नि॑र॒वस्य॒ राधः॒ प्रश॑स्तये महि॒ना रथ॑वते॥11॥ अध॑। ग्मन्त॑। नहु॑षः। हव॑म्। सू॒रेः। श्रोत॑। रा॒जा॒नः॒। अ॒मृत॑स्य। म॒न्द्राः॒। नभः॒ऽजुवः॑। यत्। नि॒र॒वस्य॑। राधः॑। प्रऽश॑स्तये। म॒हि॒ना। रथ॑ऽवते॥11॥ पदार्थः—(अध) आनन्तर्ये (ग्मन्त) प्राप्नुत्। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नहुषः) विदुषो नरस्य (हवम्) उपदेशाख्यं शब्दम् (सूरेः) सर्वविद्याविदः (श्रोत) शृणुत। अत्र विकरणलुक् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (राजानः) राजमानाः (अमृतस्य) अविनाशिनः (मन्द्राः) आह्लादयितारः (नभोजुवः) विमानादिना नभसि गच्छन्तः (यत्) (निरवस्य) निर्गतोऽवो रक्षणं स्य (राधः) धनम् (प्रशस्तये) प्रशस्ताय (महिना) महत्त्वेन (रथवते) बहवो रथा विद्यन्ते यस्य तस्मै॥11॥ अन्वयः—हे मन्द्रा राजानो! यूयममृतस्य सूरेर्नहुषो हवं श्रोत नभोजुवो यूयं यन्निरवस्य राधस्तद् ग्मन्ताध महिना प्रशस्तये रथवते राधो दत्त॥11॥ भावार्थः—ये परमेश्वरस्य परमविदुषः स्वात्मनश्च सकाशादविरोधिनस्तदुपदेशांश्च गृह्णीयुस्ते प्राप्तविद्या महाशया जायन्ते॥11॥ पदार्थः—हे (मन्द्राः) आनन्द करानेवाले (राजानः) प्रकाशमान सज्जनो! तुम (अमृतस्य) आत्मरूप से मरणधर्म रहित (सूरेः) समस्त विद्याओं को जाननेवाले (नहुषः) विद्वान् जन के (हवम्) उपदेश को (श्रोत) सुनो (नभोजुवः) विमान आदि से आकाश में गमन करते हुए तुम (यत्) जो (निरवस्य) रक्षाहीन का (राधः) धन है, उसको (ग्मन्त) प्राप्त होओ (अध) इसके अनन्तर (महिना) बड़प्पन से (प्रशस्तये) प्रशंसित (रथवते) बहुत रथवाले को धन देओ॥11॥ भावार्थः—जो परमेश्वर, परम विद्वान् और अपने आत्मा के सकाश से विरोधी नहीं होते और उनके उपदेशों का ग्रहण करें, वे विद्याओं को प्राप्त हुए महाशय होते हैं॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒तं शर्धं॑ धाम॒ यस्य॑ सू॒रेरित्य॑वोच॒न् दश॑तयस्य॒ नंशे॑। द्यु॒म्नानि॒ येषु॑ व॒सुता॑ती रा॒रन् विश्वे॑ सन्वन्तु प्रभृ॒थेषु॒ वाज॑म्॥12॥ ए॒तम्। शर्ध॑म्। धा॒म॒। यस्य॑। सू॒रेः। इति॑। अ॒वो॒च॒न्। दश॑ऽतयस्य। नंशे॑। द्यु॒म्नानि॑। येषु॑। व॒सुऽता॑तिः। र॒रन्। विश्वे॑। स॒न्व॒न्तु॒। प्र॒ऽभृ॒थेषु॑। वाज॑म्॥12॥ पदार्थः—(एतम्) पूर्वोक्तं सर्वं वस्तुजातम् (शर्द्धम्) बलयुक्तम् (धाम) स्थानम् (यस्य) (सूरेः) विदुषः (इति) अनेन प्रकारेण (अवोचन्) वदेयुः (दशतयस्य) दशधा विद्यस्य (नंशे) अदर्शयेयम् (द्युम्नानि) यशांसि धनानि वा (येषु) (वसुतातिः) धनाद्यैश्वर्य्ययुक्तः (रारन्) दद्युः (विश्वे) सर्वे (सन्वन्तु) संभजन्तु (प्रभृथेषु) (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा॥12॥ अन्वयः—वसुतातिरहं यथा विद्वांसो यस्य दशतयस्य सूरेः सकाशाद् यच्छर्द्धं धामावोचन्। ये विश्वे वाजं रारन् येषु प्रभृथेषु द्युम्नानि सन्वन्त्विति तदेतं सर्वं सेवित्वा दुःखानि नंशे॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कार। ये विपश्चितो मनुष्याः पूर्णविद्याविदोऽखिलाविद्याः प्राप्यान्यानुपदिशन्ति ते यशस्विनो भवन्ति॥12॥ पदार्थः—(वसुतातिः) धन आदि ऐश्वर्य्ययुक्त मैं जैसे विद्वान् जन (यस्य) जिस (दशतयस्य) दश प्रकार की विद्याओं से युक्त (सूरेः) विद्वान् के सकाश से जिस (शर्द्धम्) बलयुक्त (धाम) स्थान को (अवोचन्) कहें वा जो (विश्वे) सब विद्वान् (वाजम्) ज्ञान वा अन्न को (रारन्) देवें (येषु) जिन (प्रभृथेषु) अच्छे धारण किये हुए पदार्थों में (द्युम्नानि) यश वा धनों का (सन्वन्तु) सेवन करें (इति) इस प्रकार उस ज्ञान और (एतम्) इन पूर्वोक्त सब पदार्थों का सेवन कर दुःखों को (नंशे) नाश करूं॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् मनुष्य पूर्ण विद्याओं को जाननेहारे समस्त विद्याओं को पाकर औरों को उपदेश देते हैं, वे यशस्वी होते हैं॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मन्दा॑महे॒ दश॑तयस्य धा॒सेर्द्विर्यत्पञ्च॒ बिभ्र॑तो॒ यन्त्यन्ना॑। किमि॒ष्टाश्व॑ इ॒ष्टर॑श्मिरे॒त ई॑शा॒नास॒स्तरु॑ष ऋञ्जते॒ नॄन्॥13॥ मन्दा॑महे। दश॑ऽतयस्य। धा॒सेः। द्विः। यत्। पञ्च॑। बिभ्र॑तः। यन्ति॑। अन्ना॑। किम्। इ॒ष्टऽअ॑श्वः। इ॒ष्टऽर॑श्मिः। ए॒ते। ई॒शा॒नासः॑। तरु॑षः। ऋ॒ञ्ज॒ते॒। नॄन्॥13॥ पदार्थः—(मन्दामहे) स्तुमः (दशतयस्य) दशविधस्य (धासेः) विद्यासुखधारकस्य विदुषः (द्विः) द्विवारम् (यत्) (पञ्च) अध्यापकोपदेशकाऽध्येत्र्युपदेश्यसामान्याः (बिभ्रतः) विद्यासुखेन सर्वान् पुष्यतः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (अन्ना) सुसंस्कृतान्यन्नानि (किम्) प्रश्ने (इष्टाश्वः) इष्टाः संगता अश्वा यस्य सः (इष्टरश्मिः) इष्टाः संयोजिता रश्मयो येन (एते) (ईशानासः) समर्थाः (तरुषः) अविद्यासंप्लवकान् (ऋञ्जते) (नॄन्) विद्यानायकान्॥13॥ अन्वयः—यद्ये पञ्च दशतयस्य धासेर्विद्यामन्ना च द्विर्यन्ति य एत ईशानासस्तरुष ऋञ्जते प्रसाध्नुवन्ति तान् बिभ्रतो नॄन् जनान् वयं मन्दामहे तच्छिक्षां प्राप्य जन इष्टाश्व इष्टरश्मिः किं न जायते?॥13॥ भावार्थः—ये सुशिक्षया सर्वान् विदुषः कुर्वन्तः साधनैरिष्टसाधकान् समर्थान् विदुषो न सेवन्ते त इष्टं सुखमपि न लभन्ते॥13॥ पदार्थः—(यत्) जो (पञ्च) पढ़ाने, उपदेश करने, पढ़ने और उपदेश सुननेवाले तथा सामान्य मनुष्य (दशतयस्य) दश प्रकार के (धासेः) विद्या सुख का धारण करनेवाले विद्वान् की विद्या को और (अन्ना) अच्छे संस्कार से सिद्ध किये हुए अन्नों को (द्विः) दो वार (यन्ति) प्राप्त होते हैं वा जो (एते) ये (ईशानासः) समर्थ अविद्या अज्ञान में डुबानेवालों को (ऋञ्जते) प्रसिद्ध करते हैं, उन (बिभ्रतः) विद्या सुख से सब की पुष्टि (नॄन्) और विद्याओं की प्राप्ति करनेहारे मनुष्यों की हम लोग (मन्दामहे) स्तुति करते हैं, उनकी शिक्षा को पाकर मनुष्य (इष्टाश्वः) जिसको घोड़े प्राप्त हुए वा (इष्टरश्मिः) जिसने कला यन्त्रादिकों की किरणें जोड़ी ऐसा (किम्) क्या नहीं होता है?॥13॥ भावार्थः—जो अच्छी शिक्षा से सबको विद्वान् करते हुए साधनों से चाहे हुए को सिद्ध करनेवाले समर्थ विद्वानों का सेवन नहीं करते, वे अभीष्ट सुख को भी नहीं प्राप्त होते हैं॥13॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ हिर॑ण्यकर्णं मणिग्रीव॒मर्ण॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः। अ॒र्यो गिरः॑ स॒द्य आ ज॒ग्मुषी॒रोस्राश्चा॑कन्तू॒भये॑ष्व॒स्मे॥14॥ हिर॑ण्यऽकर्णम्। म॒णि॒ऽग्री॒व॒म्। अर्णः॑। तत्। नः॒। विश्वे॑। व॒रि॒व॒स्य॒न्तु॒। दे॒वाः। अ॒र्यः। गिरः॑। स॒द्यः। आ। ज॒ग्मुषीः॑। आ। उ॒स्राः। चा॒क॒न्तु॒। उ॒भये॑षु। अ॒स्मे इति॑॥14॥ पदार्थः—(हिरण्यकर्णम्) हिरण्यं कर्णे यस्य तम् (मणिग्रीवम्) मणयो ग्रीवायां यस्य तम् (अर्णः) सुसंस्कृतमुदकम् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) अखिलाः (वरिवस्यन्तु) सेवन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (अर्य्यः) वैश्यः (गिरः) सर्वदेशभाषाः (सद्यः) तूर्णम् (आ) (जग्मुषीः) प्राप्तुं योग्याः (आ) (उस्राः) गावः (चाकन्तु) कामयन्तु (उभयेषु) स्वेष्वन्येषु च (अस्मे) अस्मासु॥14॥ अन्वयः—ये विश्वे देवा नो जग्मुषीर्गिरस्सद्य आचकन्तूभयेष्वस्मे च यदर्णः कामयेरन् योऽर्यो जग्मुषीर्गिर उस्राश्च कामयते तं हिरण्यकर्णं मणिग्रीवं तदस्मांश्चावरिवस्यन्तु तानेतान् कर्णं प्रतिष्ठापयेम॥14॥ भावार्थः—ये विद्वांसो याश्च विदुष्यस्तनयान् दुहितरश्च सद्यो विदुषो विदुषीश्च कुर्वन्ति, ये वणिग्जनाः सकलदेशभाषा विज्ञाय देशदेशान्तराद् द्वीपद्वीपान्तराच्च धनमाहृत्य श्रीमन्तो भवन्ति ते सर्वैः सर्वथा सत्कर्त्तव्याः॥14॥ पदार्थः—जो (विश्वे, देवाः) समस्त विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (जग्मुषीः) प्राप्त होने योग्य (गिरः) वाणियों की (सद्यः) शीघ्र (आ, चाकन्तु) अच्छे प्रकार कामना करें वा (उभयेषु) अपने और दूसरों के निमित्त तथा (अस्मे) हम लोगों में जो (अर्णः) अच्छा बना हुआ जल है, उसकी कामना करें और जो (अर्यः) वैश्य प्राप्त होने योग्य सब देश, भाषाओं और (उस्राः) गौओं की कामना करे उस (हिरण्यकर्णम्) कानों में कुण्डल और (मणिग्रीवम्) गले में मणियों को पहिने हुए वैश्य को (तत्) तथा उस उक्त व्यवहार और हम लोगों की (आ, वरिवस्यन्तु) अच्छे प्रकार सेवा करें, उन सबकी हम लोग प्रतिष्ठा करावें॥14॥ भावार्थः—जो विद्वान् मनुष्य वा विदुषी पण्डिता स्त्री लड़के-लड़कियों को शीघ्र विद्वान् और विदुषी करते वा जो वणियें सब देशों की भाषाओं को जानके देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर से धन को लाकर ऐश्वर्ययुक्त होते हैं, वे सबको सब प्रकारों से सत्कार करने योग्य हैं॥14॥ अथ राजधर्मविषयमाह॥ अब राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ च॒त्वारो॑ मा मश॒र्शार॑स्य॒ शिश्व॒स्त्रयो॒ राज्ञ॒ आय॑वसस्य जि॒ष्णोः। रथो॑ वां मित्रावरुणा दी॒र्घाप्साः॒ स्यूम॑गभस्तिः॒ सूरो॒ नाद्यौ॑त्॥15॥3॥ च॒त्वारः॑। मा॒। म॒श॒र्शार॑स्य। शिश्वः॑। त्रयः॑। राज्ञः॑। आय॑वसस्य। जि॒ष्णोः। रथः॑। वा॒म्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। दी॒र्घऽअ॑प्साः। स्यूम॑ऽगभस्तिः। सूरः॑। न। अ॒द्यौ॒त्॥15॥ पदार्थः—(चत्वारः) वर्णा आश्रमाश्च (मा) माम् (मशर्शारस्य) यो मशान् दुष्टान् शब्दान् शृणाति हिनस्ति तस्य। अत्र पृषोदरादिना पूर्वपदस्य रुगागमः। (शिश्वः) शासनीयाः (त्रयः) अध्यक्षप्रजाभृत्याः (राज्ञः) न्यायविनयाभ्यां राजमानस्य प्रकाशमानस्य (आयवसस्य) पूर्णसामग्रीकस्य (जिष्णोः) जयशीलस्य (रथः) यानम् (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) सुहृद्वरौ (दीर्घाप्साः) दीर्घा बृहन्तोऽप्साः शुभगुणव्याप्तयो येषां ते (स्यूमगभस्तिः) समूहकिरणः (सूरः) सविता (न) इव (अद्यौत्) प्रकाशयति॥15॥ अन्वयः—हे मित्रावरुणा! यो वां रथः स मा मां प्राप्नोतु यस्य मशर्शारस्यायवसस्य जिष्णो राज्ञः स्यूमगभस्तिः सूरो न रथोऽद्यौत् तथा यस्य दीर्घाप्साश्चत्वारस्त्रयश्च शिश्वः स्युः स राज्यं कर्तुमर्हेत्॥15॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यस्य राज्ञो राष्ट्रे विद्यासुशिक्षायुक्ता गुणकर्मस्वभावतो नियता धार्मिकाश्चत्वारो वर्णा आश्रमाश्च त्रयः सेनाप्रजान्यायाधीशाश्च सन्ति स सूर्य इव कीर्त्या सुशोभितो भवति॥15॥ अत्र राजप्रजामनुष्यधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति द्वाविंशत्युत्तरं शततमं 122 सूक्तं तृतीयो 3 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (मित्रावरुणा) मित्र और उत्तम जन! जो (वाम्) तुम लोगों का (रथः) रथ है वह (मा) मुझको प्राप्त होवे जिस (मशर्शारस्य) दुष्ट शब्दों का विनाश करते हुए (आयवसस्य) पूर्ण सामग्रीयुक्त (जिष्णोः) शत्रुओं को जीतनेहारे (राज्ञः) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा का (स्यूमगभस्तिः) बहुत किरणों से युक्त (सूरः) सूर्य के (न) समान रथ (अद्यौत्) प्रकाश करता तथा जिसके (दीर्घाप्साः) जिनको अच्छे गुणों में बहुत व्याप्ति वे (चत्वारः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ये चार आश्रम तथा (त्रयः) सेना आदि कामों के अधिपति, प्रजाजन तथा भृत्यजन ये तीन (शिश्वः) सिखाने योग्य हों, वह राज्य करने को योग्य हो॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस राजा के राज्य में विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त, गुण, कर्म, स्वभाव से नियमयुक्त धर्मात्माजन, चारों वर्ण और आश्रम तथा सेना, प्रजा और न्यायाधीश हैं, वह सूर्य्य के तुल्य कीर्ति से अच्छी शोभायुक्त होता है॥15॥ इस सूक्त में राजा, प्रजा और साधारण मनुष्यों के धर्म के वर्णन से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के साथ एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ बाईसवां 122 सूक्त और तीसरा 3 वर्ग पूरा हुआ॥

पृथुरित्यस्य त्रयोदशर्चस्य त्रयोविंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्य दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः। उषा देवता। 1,3,6,7,9,10,13 विराट् त्रिष्टुप्। 2,4,8,12 निचृत् त्रिष्टुप्। 5 त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः। 11 भुरिक् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथ दम्पत्योर्विषयमाह॥ अब 123 एक सौ तेईसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री-पुरुष के विषय को कहते हैं॥ पृ॒थू रथो॒ दक्षि॑णाया अयो॒ज्यैनं॑ दे॒वासो॑ अ॒मृता॑सो अस्थुः। कृ॒ष्णादुद॑स्थाद॒र्या॒ विहा॑या॒श्चिकि॑त्सन्ती॒ मानु॑षाय॒ क्षया॑य॥1॥ पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। ए॒न॒म्। दे॒वासः॑। अमृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य॥1॥ पदार्थः—(पृथुः) विस्तीर्णः (रथः) वाहनम् (दक्षिणायाः) दिशः (अयोजि) युज्यते (आ) एनम् (देवासः) दिव्यगुणाः (अमृतासः) मरणधर्मरहिताः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (कृष्णात्) अन्धकारात् (उत्) (अस्थात्) ऊर्ध्वमुदेति (अर्या) वैश्यकन्या (विहायाः) महती (चिकित्सन्ती) चिकित्सां कुर्वती (मानुषाय) मनुष्याणामस्मै (क्षयाय) गृहाय॥1॥ अन्वयः—या मनुष्याय क्षयाय चिकित्सन्ती विहाया अर्या उषाः कृष्णादुदस्थादिव विदुषाऽयोजि सा चैनं पतिं च युनक्ति ययोर्दक्षिणायाः पृथू रथश्चरति तावमृतासो देवास आऽस्थुः॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या उषर्गुणा स्त्री चन्द्रगुणश्च पुमान् भवेत् तयोर्विवाहे जाते सततं सुखं भवति॥1॥ पदार्थः—जो (मानुषाय) मनुष्यों के इस (क्षयाय) घर के लिये (चिकित्सन्ती) रोगों को दूर करती हुई (विहायाः) बड़ी प्रशंसित (अर्या) वैश्य की कन्या जैसे प्रातःकाल की वेला (कृष्णात्) अंधेरे से (उदस्थात्) ऊपर को उठती उदय करती है, वैसे विद्वान् ने (अयोजि) संयुक्त की अर्थात् अपने सङ्ग ली और वह (एनम्) इस विद्वान् को पतिभाव से युक्त करती अपना पति मानती तथा जिन स्त्री-पुरुषों का (दक्षिणायाः) दक्षिण दिशा में (पृथुः) विस्तारयुक्त (रथः) रथ चलता है, उनको (अमृतासः) विनाशरहित (देवासः) अच्छे-अच्छे गुण (आ, अस्थुः) उपस्थित होते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रातःसमय की वेला के गुणयुक्त अर्थात् शीतल स्वभाववाली स्त्री और चन्द्रमा के समान शीतल गुणवाला पुरुष हो, उनका परस्पर विवाह हो तो निरन्तर सुख होता है॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पूर्वा॒ विश्व॑स्मा॒द्भुव॑नादबोधि॒ जय॑न्ती॒ वाजं॑ बृह॒ती सनु॑त्री। उ॒च्चा व्य॑ख्यद्युव॒तिः पु॑न॒र्भूरोषा अ॑गन्प्रथ॒मा पू॒र्वहू॑तौ॥2॥ पूर्वा॑। विश्व॑स्मात्। भुव॑नात्। अ॒बो॒धि॒। जय॑न्ती। वाज॑म्। बृ॒ह॒ती। सनु॑त्री। उ॒च्चा। वि। अ॒ख्य॒त्। यु॒व॒तिः। पु॒नः॒ऽभूः। आ। उ॒षाः। अ॒ग॒न्। प्र॒थ॒मा। पू॒र्वऽहू॑तौ॥2॥ पदार्थः—(पूर्वा) (विश्वस्मात्) अखिलात् (भुवनात्) जगत्स्थात्पदार्थसमूहात् (अबोधि) बुध्यते (जयन्ती) जयशीलां (वाजम्) विज्ञानम् (बृहती) महती (सनुत्री) विभाजिका (उच्चा) उच्चानि वस्तूनि (वि) (अख्यत्) ख्यापयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (युवतिः) (पुनर्भूः) या विवाहितपतिमरणानन्तरं नियोगेन पुनः सन्तानोत्पादिका भवति सा (आ) (उषाः) (अगन्) गच्छति। अत्र लङि प्रथमैकवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक् संयोगत्वेन तलोपे मो नो धातोः (अष्टा॰8.2.64) इति मस्य नकारादेशः। (प्रथमा) (पूर्वहूतौ) पूर्वेषां विद्यावृद्धानां हूतिराह्वानं यस्मिन् गृहाश्रमे तस्मिन्॥2॥ अन्वयः—या पूर्वहूतौ पुनर्भूर्वाजं जयन्ती बृहती सनुत्री प्रथमा युवतिर्यथोषा विश्वस्माद्भुवनात् पूर्वाऽबोधि। उच्चा व्यख्यत् तथा आगन्त्सा विवाहे योग्या भवति॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वाः कन्याः शतस्य चतुर्थाशं वयौ विद्याभ्यासे व्यतीत्य पूर्णविद्या भूत्वा स्वसदृशं पतिमुदुह्य प्रभातवत्सुरूपा भवन्तु॥2॥ पदार्थः—(पूर्वहूतौ) जिसमें वृद्धजनों का बुलाना होता उस गृहस्थाश्रम में जो (पुनर्भूः) विवाहे हुए पति के मर जाने के पीछे नियोग से फिर सन्तान उत्पन्न करनेवाली होती वह (वाजम्) उत्तम ज्ञान को (जयन्ती) जीतती हुई (बृहती) बड़ी (सनुत्री) सब व्यवहारों को अलग-अलग करने और (प्रथमा) प्रथम (युवतिः) युवा अवस्था को प्राप्त होनेवाली नवोढ़ा स्त्री जैसे (उषाः) प्रातःकाल की वेला (विश्वस्मात्) समस्त (भुवनात्) जगत् के पदार्थों से (पूर्वा) प्रथम (अबोधि) जानी जाती और (उच्च) ऊंची-ऊंची वस्तुओं को (वि, अख्यत्) अच्छे प्रकार प्रकट करती वैसे (आ, अगन्) आती है, वह विवाह में योग्य होती है॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब कन्या पच्चीस वर्ष अपनी आयु को विद्या के अभ्यास करने में व्यतीत कर पूरी विद्यावाली होकर अपने समान पति से विवाह कर प्रातःकाल की वेला के समान अच्छे रूपवाली हों॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यद॒द्य भा॒गं वि॒भजा॑सि॒ नृभ्य॒ उषो॑ देवि मर्त्य॒त्रा सु॑जाते। दे॒वो नो॒ अत्र॑ सवि॒ता दमू॑ना॒ अना॑गसो वोचति॒ सूर्या॑य॥3॥ यत्। अ॒द्य। भा॒गम्। वि॒ऽभजा॑सि। नृऽभ्यः॑। उषः॑। दे॒वि॒। म॒र्त्य॒ऽत्रा। सु॒ऽजा॒ते॒। दे॒वः। नः॒। अत्र॑। स॒वि॒ता। दमू॑नाः। अना॑गसः। वो॒च॒ति॒। सूर्या॑य॥3॥ पदार्थः—(यत्) यम् (अद्य) (भागम्) भजनीयम् (विभजासि) विभजेः (नृभ्यः) नायकेभ्यः (उषः) प्रभातवत् (देवि) सुलक्षणैः सुशोभिते (मर्त्यत्रा) मर्त्येषु मनुष्येषु (सुजाते) सत्कीर्त्या प्रकाशिते (देवः) देदीप्यमानः (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिने गृहाश्रमे (सविता) सूर्यः (दमूनाः) सहृद्वरः (अनागसः) अनपराधिनः (वोचति) उच्याः (सूर्याय) परमेश्वरविज्ञानाय॥3॥ अन्वयः—हे सुजाते देवि कन्ये! त्वमद्य नृभ्य उषरिव यद्यं भागं विभजासि यश्चात्र दमूना मर्त्यत्रा सवितेव देवस्तव पतिः सूर्याय नोऽनागसो वोचति तौ युवां वयं सततं सत्कुर्याम॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा द्वौ स्त्रीपुरुषौ विद्यावन्तौ धर्माचारिणौ विद्याप्रचारकौ सदा परस्परस्मिन् प्रसन्नौ भवेतां तदा गृहाश्रमेऽतीव सुखभाजिनौ स्याताम्॥3॥ पदार्थः—हे (सुजाते) उत्तम कीर्त्ति से प्रकाशित और (देवि) अच्छे लक्षणों से शोभा को प्राप्त सुलक्षणी कन्या! तू (अद्य) आज (नृभ्यः) व्यवहारों की प्राप्ति करनेहारे मनुष्यों के लिये (उषः) प्रातः समय की वेला के समान (यत्) जिस (भागम्) सेवने योग्य व्यवहार का (विभजासि) अच्छे प्रकार सेवन करती और जो (अत्र) इस गृहाश्रम में (दमूनाः) मित्रों में उत्तम (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में (सविता) सूर्य के समान (देवः) प्रकाशमान तेरा पति (सूर्याय) परमात्मा के विज्ञान के लिये (नः) हम लोगों को (अनागसः) विना अपराध के व्यवहारों को (वोचति) कहे उन तुम दोनों का सत्कार हम लोग निरन्तर करें॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब दो स्त्री-पुरुष विद्यावान्, धर्म का आचरण और विद्या का प्रचार करनेहारे सब कभी परस्पर में प्रसन्न हों, तब गृहाश्रम में अत्यन्त सुख का सेवन करनेहारे होवें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ गृ॒हंगृ॑हमह॒ना या॒त्यच्छा॑ दि॒वेदि॑वे॒ अधि॒ नामा॒ दधा॑ना। सिषा॑सन्ती द्योत॒ना शश्व॒दागा॒दग्र॑मग्र॒मिद्भ॑जते॒ वसू॑नाम्॥4॥ गृ॒हम्ऽगृ॑हम्। अ॒ह॒ना। या॒ति॒। अच्छ॑। दि॒वेऽदि॑वे। अधि॑। नाम॑। दधा॑ना। सिसा॑सन्ती। द्यो॒त॒ना। शश्व॑त्। आ। अ॒गा॒त्। अग्र॑म्ऽअग्रम्। इत्। भ॒ज॒ते॒। वसू॑नाम्॥4॥ पदार्थः—(गृहंगृहम्) निकेतनं निकेतनम् (अहना) दिवसेन व्याप्त्या वा। अत्र वाच्छन्दसीत्यल्लोपो न। (याति) (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (अधि) उपरिभावे (नाम) संज्ञाम् (दधाना) धरन्ती (सिषासन्ती) दातुमिच्छन्ती (द्योतना) प्रकाशमाना (शश्वत्) निरन्तरम् (आ) (अगात्) प्राप्नोति (अग्रमग्रम्) पुरः पुरः (इत्) एव (भजते) सेवते (वसूनाम्) पृथिव्यादीनाम्॥4॥ अन्वयः—या स्त्री यथोषा अहना गृहंगृहमच्छाधियाति दिवेदिवे नाम दधाना द्योतना सती वसूनामग्रमग्रं भजते शश्वदिदागात् तथा सिषासन्ती भवेत् सा गृहाकार्य्यालङ्कारिणी स्यात्॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यदीप्तिः पदार्थानां पुरोभागं सेवते नियमेन प्रतिसमयं प्राप्नोति तथा स्त्रियापि भवितव्यम्॥4॥ पदार्थः—जो स्त्री जैसे प्रातःकाल की वेला (अहना) दिन वा व्याप्ति से (गृहंगृहम्) घर-घर को (अच्छाधियाति) उत्तम रीति के साथ अच्छी ऊपर से आती (दिवेदिवे) और प्रतिदिन (नाम) नाम (दधाना) धरती अर्थात् दिन-दिन का नाम आदित्यवार, सोमवार आदि धरती (द्योतना) प्रकाशमान (वसूनाम्) पृथिवी आदि लोकों के (अग्रमग्रम्) प्रथम-प्रथम स्थान को (भजते) भजती और (शश्वत्) निरन्तर (इत्) ही (आ, अगात्) आती है, वैसे (सिषासन्ती) उत्तम पदार्थ पति आदि को दिया चाहती हो, वह घर के काम को सुशोभित करनेहारी हो॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य की कान्ति-धाम सब पदार्थों के अगले-अगले भाग को सेवन करती और नियम से प्रत्येक समय प्राप्त होती है, वैसे स्त्री को भी होना चाहिये॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ भग॑स्य॒ स्वसा॒ वरु॑णस्य जा॒मिरुषः॑ सूनृते प्रथ॒मा ज॑रस्व। प॒॒श्चा स द॑ध्या॒ यो अ॒घस्य॑ धा॒ता जये॑म॒ तं दक्षि॑णया॒ रथे॑न॥5॥4॥ भग॑स्य। स्वसा॑। वरु॑णस्य। जा॒मिः। उषः॑। सू॒नृ॒ते॒। प्र॒थ॒मा। ज॒र॒स्व॒। प॒॒श्चा। सः। द॒ध्याः॒। यः। अ॒घस्य॑। धा॒ता। जये॑म। तम्। दक्षि॑णया। रथे॑न॥5॥ पदार्थः—(भगस्य) ऐश्वर्यस्य (स्वसा) भगिनीव (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (जामिः) कन्येव (उषः) उषाः (सूनृते) सत्याचरणयुक्ते (प्रथमा) (जरस्व) स्तुहि (पश्चा) पश्चात् (सः) (दध्याः) तिरस्कुरु (यः) (अघस्य) पापस्य (धाता) (जयेम) (तम्) (दक्षिणया) सुशिक्षितया सेनया (रथेन) विमानादियानेन॥5॥ अन्वयः—हे सूनृते! त्वमुषरुषा इव भगस्य स्वसेव वरुणस्य जामिरिव प्रथमा सती विद्या जरस्व योऽघस्य धाता भवेत् तं दक्षिणया रथेन यथा वयं जयेम तथा त्वं दध्याः। यो जनः पापी स्यात् स पश्चा तिरस्करणीयः॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीभिः स्वस्वगृह ऐश्वर्योन्नतिः श्रेष्ठा रीतिर्दुष्टताडनं च सततं कार्य्यम्॥5॥ पदार्थः—हे (सूनृते) सत्य आचरणयुक्त स्त्री! तू (उषः) प्रातः समय की वेला के समान वा (भगस्य) ऐश्वर्य्य की (स्वसा) बहिन के समान वा (वरुणस्य) उत्तम पुरुष की (जामिः) कन्या के समान (प्रथमा) प्रख्यात प्रशंसा को प्राप्त हुई विद्याओं की (जरस्व) स्तुति कर, (यः) जो (अघस्य) अपराध का (धाता) धारण करनेवाला हो (तम्) उसको (दक्षिणया) अच्छी सिखाई हुई सेना और (रथेन) विमान आदि यान से जैसे हम लोग (जयेम) जीतें, वैसे तू (दध्याः) उसका तिरस्कार कर, जो मनुष्य पापी हो (सः) वह (पश्चा) पीछा करने अर्थात् तिरस्कार करने योग्य है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि अपने-अपने घर में ऐश्वर्य की उन्नति, श्रेष्ठ रीति और दुष्टों का ताड़न निरन्तर किया करें॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उदी॑रतां सू॒नृता॒ उत्पुरं॑धी॒रुद॒ग्नयः॑ शुशुचा॒नासो॑ अस्थुः। स्पा॒र्हा वसू॑नि॒ तम॒साप॑गूळ्हा॒विष्कृ॑ण्वन्त्यु॒षसो॑ विभा॒तीः॥6॥ उत्। ई॒र॒ता॒म्। सू॒नृताः॑। उत्। पुर॑म्ऽधीः। उत्। अ॒ग्नयः॑। शु॒शु॒चा॒नासः॑। अ॒स्थुः॒। स्पा॒र्हा। वसू॑नि। तम॑सा। अप॑ऽगूळ्हा। आ॒विः। कृ॒ण्व॒न्ति॒। उषसः॑। वि॒ऽभा॒तीः॥6॥ पदार्थः—(उत्) उत्कृष्टतया (ईरताम्) प्रेरयन्तु (सूनृताः) सत्यभाषणादिक्रियाः (उत्) (पुरन्धीः) याः पुरं श्रितां दधाति ताः (उत्) (अग्नयः) पावका इव (शुशुचानासः) भृशं पवित्रकारकाः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (स्पार्हा) स्पृहणीयानि (वसूनि) (तमसा) अन्धकारेण (अपगूढा) आच्छादितानि (आविः) प्राकट्ये (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (उषसः) प्रभाताः (विभातीः) विशिष्टप्रकाशान्॥6॥ अन्वयः—हे सत्पुरुषाः! सूनृताः सन्तो यूयं यथा पुरन्धीश्शुशुचानासोऽग्नय इव स्त्रिय उदीरताम् स्पार्हा वसूनि उदस्थुः। यथोषसस्तमसापगूढा द्रव्याणि विभातीश्चोदाविष्कृण्वन्ति तथा भवत॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा स्त्रिय उषर्वद्वर्त्तमाना अविद्यामलिनतादि निष्कृत्य विद्यापवित्रतादि संप्रकाश्यैश्वर्यमुन्नयन्ति तदा ताः सततं सुखिन्यो भवन्ति॥6॥ पदार्थः—हे सत्पुरुषो! (सूनृताः) सत्यभाषणादि क्रियावान् होते हुए तुम लोग जैसे (पुरन्धीः) शरीर के आश्रित क्रिया को धारण करती और (शुशुचानासः) निरन्तर पवित्र करानेवाले (अग्नयः) अग्नियों के समान चमकती-दमकती हुई स्त्री लोग (उदीरताम्) उत्तमता से प्रेरणा देवें वा (स्पार्हा) चाहने योग्य (वसूनि) धन आदि पदार्थों को (उदस्थुः) उन्नति से प्राप्त हों वा जैसे (उषसः) प्रभातसमय (तमसा) अन्धकार से (अपगूढा) ढंपे हुए पदार्थों और (विभातीः) अच्छे प्रकाशों को (उदाविष्कृण्वन्ति) ऊपर से प्रकट करते हैं, वैसे होओ॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब स्त्रीजन प्रभात समय की वेलाओं के समान वर्त्तमान अविद्या, मैलापन आदि दोषों को निकाल कर विद्या और पाकपन आदि गुणों को प्रकाश कर ऐश्वर्य की उन्नति करती हैं, तब वे निरन्तर सुखयुक्त होती हैं॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अपा॒न्यदेत्य॒भ्यन्यदे॑ति॒ विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ सं च॑रेते। प॒रि॒क्षितो॒स्तमो॑ अ॒न्या गुहा॑क॒रद्यौ॑दु॒षाः शोशु॑चता॒ रथे॑न॥7॥ अप॑। अ॒न्यत्। एति॑। अ॒भि। अ॒न्यत्। ए॒ति॒। विषु॑रूपे॒ऽइति॑ विषु॑ऽरूपे। अह॑नी॒ इति॑। सम्। च॒रे॒ते॒ इति॑। प॒रि॒ऽक्षितोः॑। तमः॑। अ॒न्या। गुहा॑। अ॒क॒ः। अद्यौ॑त्। उ॒षाः। शोशु॑चता। रथे॑न॥7॥ पदार्थः—(अप) (अन्यत्) (एति) प्राप्नोति (अभि) (अन्यत्) (एति) (विषुरूपे) व्याप्तस्वरूपे (अहनी) रात्रिदिने (सम्) (चरेते) (परिक्षितोः) सर्वतो निवसतोः। अत्र तुमर्थे तोसुन्। (तमः) रात्री (अन्या) भिन्नानि (गुहा) आच्छादिका (अकः) करोति (अद्यौत्) द्योतयति (उषाः) दिनम् (शोशुचता) अत्यन्तं प्रकाशमानेन (रथेन) रम्येण स्वरूपेण॥7॥ अन्वयः—ये विषुरूपे अहनी रात्रिदिने सह संचरेते तयोः परिक्षितोस्तमः प्रकाशयोर्मध्याद् गुहातमोऽन्याऽकः कृत्यानि करोति उषाः शोशुचता रथेनाद्यौत्। अन्यदपैति। अन्यदभ्येतीव दम्पती वर्तेताम्॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अस्मिञ्जगति तमः प्रकाशरूपौ द्वौ पदार्थौ स्तः, याभ्यां सदा लोकार्द्धो दिनं रात्रिश्च वर्त्तेते। यद्वस्तु तमस्त्यजति तत् त्विषं गृह्णाति यावद्दीप्तिस्तमस्त्यजति तावत्तमिस्रादत्ते द्वौ पर्य्यायैण सदैव स्वव्याप्त्या प्राप्तं प्राप्तं द्रव्यमाच्छादयतः सहैव वर्त्तेते तयोर्यत्र यत्र संयोगस्तत्र तत्र संध्या यत्र-यत्र वियोगस्तत्र तत्र रात्रिर्दिनं च यौ स्त्रीपुरुषावेवं संयुक्तौ वियुक्तौ च भूत्वा दुःखनिमित्तानि जहीतः सुखकारणानि चादत्तस्तौ सदानन्दितौ भवतः॥7॥ पदार्थः—जो (विषुरूपे) संसार में व्याप्त (अहनी) रात्रि और दिन एक साथ (सं, चरेते) सञ्चार करते अर्थात् आते-जाते हैं, उनमें (परिक्षितोः) सब ओर से वसनेहारे अन्धकार और उजेले के बीच में (गुहा) अन्धकार से संसार को ढांपनेवाली (तमः) रात्री (अन्या) और कामों को (अकः) करती तथा (उषाः) सूर्य के प्रकाश से पदार्थों को तपानेवाला दिन (शोशुचता) अत्यन्त प्रकाश और (रथेन) रमण करने योग्य रूप से (अद्यौत्) उजेला करता (अन्यत्) अपने से भिन्न प्रकाश को (अप, एति) दूर करता तथा (अन्यत्) अन्य प्रकाश को (अभ्येति) सब ओर से प्राप्त होता, इस सब व्यवहार के समान स्त्री-पुरुष अपना वर्त्ताव वर्त्तें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस जगत् में अन्धेरा-उजेला दो पदार्थ हैं, जिनसे सदैव पृथिवी आदि लोकों के आधे भाग में दिन और आधे में रात्रि रहती है। जो वस्तु अन्धकार को छोड़ता वह उजेले का ग्रहण करता और जितना प्रकाश अन्धकार को छोड़ता उतना रात्रि लेती; दोनों पारी से सदैव अपनी व्याप्ति के साथ पाये-पाये हुए पदार्थ को ढांपते और दोनों एक साथ वर्त्तमान हैं। उनका जहाँ-जहाँ संयोग है, वहाँ-वहाँ संध्या और जहाँ-जहाँ वियोग होता अर्थात् अलग होते वहाँ-वहाँ रात्रि और दिन होता। जो स्त्री-पुरुष ऐसे मिल और अलग होकर दुःख के कारणों को छोड़ते और सुख के कारणों को ग्रहण करते, वे सदैव आनन्दित होते हैं॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स॒दृशी॑र॒द्य स॒दृशी॒रिदु॒ श्वो दी॒र्घं स॑चन्ते॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑। अ॒न॒व॒द्यास्त्रिं॒शतं॒ योज॑ना॒न्येकै॑का॒ क्रतुं॒ परि॑ यन्ति स॒द्यः॥8॥ स॒ऽदृशीः॑। अ॒द्य। स॒ऽदृशीः॑। इत्। ऊ॒म् इति॑। श्वः। दी॒र्घम्। स॒च॒न्ते॒। वरु॑णस्य। धाम॑। अ॒न॒व॒द्याः। त्रिं॒शत॑म्। योज॑नानि। एका॑ऽएका। क्रतु॑म्। परि॑। य॒न्ति॒। स॒द्यः॥8॥ पदार्थः—(सदृशीः) सदृश्यो रात्र्य उषसश्च (अद्य) अस्मिन् दिने (सदृशीः) (इत्) एव (उ) वितर्के (श्वः) आगामिदिने (दीर्घम्) महान्तं समयम् (सचन्ते) समवेता वर्त्तन्ते (वरुणस्य) वायोः (धाम) स्थानम् (अनवद्याः) अनिन्दिताः (त्रिंशतम्) (योजनानि) विंशत्यधिकशतं क्रोशान् (एकैका) (क्रतुम्) कर्म (परि) (यन्ति) (सद्यः) शीघ्रम्॥8॥ अन्वयः—या अद्य अनवद्या सदृशीरु श्वः सदृशीर्वरुणस्य दीर्घं धाम सचन्ते। एकैका त्रिंशतं योजनानि क्रतुं सद्यः परियन्ति ता इद् व्यर्थाः केनचिन्नो नेयाः॥8॥ भावार्थः—यथेश्वरनियमनियतानां गतानां वर्त्तमानानामागामिनां च रात्रिदिनानामन्यथात्वं न जायते, तथैव सर्वस्याः सृष्टेः क्रमविपर्यासो न भवति तथा ये मनुष्या आलस्यं विहाय सृष्टिक्रमानुकूलतया प्रयतन्ते ते प्रशंसितविद्यैश्वर्या जायन्ते यथैतद्रात्रिदिनं यथासमयं यात्यायाति च तथैव मनुष्यैर्व्यवहारेषु सदा वर्त्तितव्यम्॥8॥ पदार्थः—जो (अद्य) आज के दिन (अनवद्याः) प्रशंसित (सदृशीः) एकसी (उ) अथवा तो (श्वः) अगले दिन (सदृशीः) एकसी रात्रि और प्रभात वेला (वरुणस्य) पवन के (दीर्घम्) बड़े समय वा (धाम) स्थान को (सचन्ते) संयोग को प्राप्त होती और (एकैका) उन में से प्रत्येक (त्रिंशतम्, योजनानि) एक सौ बीस क्रोश और (क्रतुम्) कर्म को (सद्यः) शीघ्र (परि, यन्ति) पर्य्याय से प्राप्त होती हैं, वे (इत्) व्यर्थ किसी को न खोना चाहिये॥8॥ भावार्थः—जैसे ईश्वर के नियम को जो प्राप्त हो गये, होते और होनेवाले रात्रि-दिन हैं, उनका अन्यथापन नहीं होता, वैसे ही इस सब संसार के क्रम का विपरीत भाव नहीं होता तथा जो मनुष्य आलस को छोड़ सृष्टिक्रम की अनुकूलता से अच्छा यत्न किया करते हैं, वे प्रशंसित विद्या और ऐश्वर्य्यवाले होते हैं और जैसे यह रात्रि-दिन नियत समय आता और जाता, वैसे ही मनुष्यों को व्यवहारों में सदा अपना वर्त्ताव रखना चाहिये॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ जा॒न॒त्यह्नः॑ प्रथ॒मस्य॒ नाम॑ शु॒क्रा कृ॒ष्णाद॑जनिष्ट श्विती॒ची। ऋ॒तस्य॒ योषा॒ न मि॑नाति॒ धामाह॑रहर्निष्कृ॒तमा॒चर॑न्ती॥9॥ जा॒न॒ती। अह्नः॑। प्र॒थ॒मस्य॑। नाम॑। शु॒क्रा। कृ॒ष्णात्। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। श्वि॒ती॒ची। ऋ॒तस्य॑। योषा॑। न। मि॒ना॒ति॒। धाम॑। अहः॑ऽअहः। निः॒ऽकृ॒तम्। आ॒ऽचर॑न्ती॥9॥ पदार्थः—(जानती) ज्ञापयन्ती (अह्नः) दिनस्य (प्रथमस्य) विस्तीर्णस्यादिमावयवस्य वा (नाम) संज्ञाम् (शुक्रा) शुद्धिकरी (कृष्णात्) निकृष्टवर्णात् तमसः (अजनिष्ट) जायते (श्वितीची) या श्वितिं श्वेतवर्णमञ्चति सा (ऋतस्य) सत्यव्यवहारयुक्तजनस्य (योषा) भार्या (न) निषेधे (मिनाति) हिनस्ति (धाम) स्थानम् (अहरहः) (निष्कृतम्) निष्पन्नं निश्चितं वा (आचरन्ती)॥9॥ अन्वयः—हे स्त्रि! यथा प्रथमस्याह्नो नाम जानती शुक्रा श्वितीच्युषाः कृष्णादजनिष्ट। ऋतस्य योषेवाऽहरहराचरन्ती सती निष्कृतं धाम न मिनाति तथा त्वं भव॥9॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषा अन्धकारादुत्पद्य दिनं प्रसाधयति दिनविरोधिनी न जायते तथा स्त्री सत्याचरणेन स्वमातापितृपतिकुलं सत्कीर्त्या प्रशस्तं श्वशुरं प्रति पतिं प्रत्यप्रियं किञ्चिन्नाचरेत्॥9॥ पदार्थः—हे स्त्रि! जैसे (प्रथमस्य) विस्तरित पहिले (अह्नः) दिन वा दिन के आदिम भाग का (नाम) नाम (जानती) जानती हुई (शुक्रा) शुद्धि करनेहारी (श्वितीची) सुपेदी को प्राप्त होती हुई प्रातःसमय की वेला (कृष्णात्) काले रङ्गवाले अन्धेरे से (अजनिष्ट) प्रसिद्ध हाती है वा (ऋतस्य) सत्य आचरणयुक्त मनुष्य की (योषा) स्त्री के समान (अहरहः) दिन-दिन (आचरन्ती) आचरण करती हुई (निष्कृतम्) उत्पन्न हुए वा निश्चय को प्राप्त (धाम) स्थान को (न) नहीं (मिनाति) नष्ट करती वैसे तू हो॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय की वेला अन्धकार से उत्पन्न होकर दिन को प्रसिद्ध करती है, दिन से विरोध करनेहारी नहीं होती, वैसे स्त्री सत्य आचरण से तथा अपने माता, पिता और पति के कुल को उत्तम कीर्त्ति से प्रशस्त कर अपने श्वसुर और पति के प्रति उनके अप्रसन्न होने का व्यवहार कुछ न करे॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ क॒न्ये॑व त॒न्वा॒ शाश॑दानाँ॒ एषि॑ देवि दे॒वमिय॑क्षमाणम्। सं॒स्मय॑माना युव॒तिः पु॒रस्ता॑दा॒विर्वक्षां॑सि कृणुषे विभा॒ती॥10॥5॥ क॒न्या॑ऽइव। त॒न्वा॑। शाश॑दाना। एषि॑। दे॒वि॒। दे॒वम्। इय॑क्षमाणम्। स॒म्ऽस्मय॑माना। यु॒व॒तिः। पु॒रस्ता॑त्। आ॒विः। वक्षां॑सि। कृ॒णु॒षे॒। वि॒ऽभा॒ती।10॥ पदार्थः—(कन्येव) कन्यावद्वर्त्तमाना (तन्वा) शरीरेण (शाशदाना) व्यवहारेष्वतितीक्ष्णतामाचरन्ती (एषि) प्राप्नोषि (देवि) कामयमाने (देवम्) विद्वांसम् (इयक्षमाणम्) अतिशयेन संगच्छमानम् (संस्मयमाना) सम्यङ् मन्दहासयुक्ता (युवतिः) चतुर्विंशतिवार्षिकी (पुरस्तात्) प्रथमतः (आविः) प्रसिद्धौ (वक्षांसि) उरांसि (कृणुषे) (विभाती) विविधतया सद्गुणैः प्रकाशमाना॥10॥ अन्वयः—हे देवि! या त्वं तन्वा कन्येव शाशदानेयक्षमाणं देवं पतिमेषि पुरस्तात् विभाती युवतिः संस्मयमानाविष्कृणुषे सोषरूपमा जायसे॥10॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी पूर्णां विद्यां शिक्षां स्वसदृशं हृद्यं पतिं च प्राप्य सुखिनी भवति तथान्याभिरप्याचरणीयम्॥10॥ पदार्थः—हे (देवि) कामना करनेहारी कुमारी! जो तू (तन्वा) शरीर से (कन्येव) कन्या के समान वर्त्तमान (शाशदाना) व्यवहारों में अति तेजी दिखाती हुई (इयक्षमाणम्) अत्यन्त सङ्ग करते हुए (देवम्) विद्वान् पति को (एषि) प्राप्त होती (पुरस्तात्) और सम्मुख (विभाती) अनेक प्रकार सद्गुणों से प्रकाशमान (युवतिः) जवानी को प्राप्त हुई (संस्मयमाना) मन्द-मन्द हंसती हुई (वक्षांसि) छाती आदि अङ्गों को (आविः, कृणुषे) प्रसिद्ध करती है सो तू प्रभात वेला की उपमा को प्राप्त होती है॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विदुषी ब्रह्मचारिणी स्त्री पूरी विद्या शिक्षा और अपने समान मनमाने पति को पाकर सुखी होती है, वैसे ही और स्त्रियों को भी आचरण करना चाहिये॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सु॒सं॒का॒शा मा॒तृमृ॑ष्टेव॒ योषा॒विस्त॒न्वं॑ कृणुषे दृ॒शे कम्। भ॒द्रा त्वमु॑षो वित॒रं व्यु॑च्छ॒ न तत्ते॑ अ॒न्या उ॒षसो॑ नशन्त॥11॥ सु॒ऽसं॒का॒शा। मा॒तृमृ॑ष्टाऽइव। योषा॑। आ॒विः। त॒न्व॑म्। कृ॒णु॒षे॒। दृ॒शे। कम्। भ॒द्रा। त्वम्। उ॒षः॒। वि॒ऽत॒रम्। वि। उ॒च्छ॒। न। तत्। ते॒। अ॒न्याः। उ॒षसः॑। न॒श॒न्त॒॥11॥ पदार्थः—(सुसंकाशा) सुष्ठु शिक्षया सम्यक् शासिता (मातृमृष्टेव) विदुष्या मात्रा सत्यशिक्षाप्रदानेन शोधितेव (योषा) प्राप्तयौवना (आविः) (तन्वम्) शरीरम् (कृणुषे) करोषि (दृशे) द्रष्टुम् (कम्) सुखस्वरूपम् (भद्रा) मङ्गलाचारिणी (त्वम्) (उषः) उषर्वद् वर्त्तमाने (वितरम्) सुखदातारम् (वि) विगतार्थे (उच्छ) विवासय (न) (तत्) (ते) तव (अन्याः) (उषसः) प्रभाताः (नशन्त) नश्यन्ति॥11॥ अन्वयः—हे कन्ये सुसंकाशा योषा मातृमृष्टेव या दृशे तन्वमाविष्कृणुषे भद्रा सती कं पतिं प्राप्नोषि सा त्वं वितरं सुखं व्युच्छ। हे उषो! यथा अन्या उषसो न नशन्त तथा ते तत्सुखं मा नश्यतु॥11॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथोषसो नियमेन स्वं स्वं समयं देशं च प्राप्नुवन्ति तथा स्त्रियः स्वकीयं स्वकीयं पतिं प्राप्यर्त्तुं प्राप्नुवन्तु॥11॥ पदार्थः—हे कन्या! (सुसंकाशा) अच्छी सिखावट से सिखाई हुई (योषा) युवति (मातृमृष्टेव) पढ़ी हुई पण्डिता माता ने सत्यशिक्षा देकर शुद्ध की सी जो (दृशे) देखने को (तन्वम्) अपने शरीर को (आविः) प्रकट (कृणुषे) करती (भद्रा) और मङ्गलरूप आचरण करती हुई (कम्) सुखस्वरूप पति को प्राप्त होती है सो (त्वम्) तू (वितरम्) सुख देनेवाले पदार्थ और सुख को (व्युच्छ) स्वीकार कर, हे (उषः) प्रभात वेला के समान वर्त्तमान स्त्री! जैसे (अन्याः) और (उषसः) प्रभात समय (न) नहीं (नशन्त) विनाश को प्राप्त होते, वैसे (ते) तेरा (तत्) उक्त सुख न विनाश को प्राप्त हो॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रातःकाल की वेला नियम से अपने-अपने समय और देश को प्राप्त होती हैं, वैसे स्त्री अपने-अपने पति को पाकर ऋतुधर्म को प्राप्त होवें॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्वि॒श्ववा॑रा॒ यत॑माना र॒श्मिभिः॒ सूर्य॑स्य। परा॑ च॒ यन्ति॒ पुन॒रा च॑ यन्ति भ॒द्रा नाम॒ वह॑माना उ॒षासः॑॥12॥ अश्व॑ऽवतीः। गोऽम॑तीः। वि॒श्वऽवा॑राः। यत॑मानाः। र॒श्मिऽभिः॑। सूर्य॑स्य। परा॑। च॒। यन्ति॑। पुनः॑। आ। च॒। य॒न्ति॒। भ॒द्रा। नाम॑। वह॑मानाः। उ॒षसः॑॥12॥ पदार्थः—(अश्वावतीः) प्रशस्ता अश्वा व्याप्तयो विद्यन्ते यासां ताः। अत्र मतौ पूर्वपदस्य दीर्घः। (गोमतीः) बहुपृथिवीकिरणयुक्ताः (विश्ववाराः) याः सर्वं जगद् वृण्वन्ति ताः (यतमानाः) प्रयत्नं कुर्वत्यः (रश्मिभिः) किरणैः सह (सूर्यस्य) सवितृलोकस्य (परा) (च) (यन्ति) गच्छन्ति (पुनः) (आ) (च) (यन्ति) (भद्रा) भद्राणि (नाम) नामानि (वहमानाः) प्राप्नुवत्यः (उषसः) प्रत्यूषसमयाः। अत्रान्येषामपीति दीर्घः॥12॥ अन्वयः—हे स्त्रियो! सूर्यस्य रश्मिभिस्सहोत्पन्ना यतमाना अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा भद्रा नाम वहमाना उषसः परा यन्ति च पुनरायन्ति च तथा यूयं वर्त्तध्वम्॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रभातवेलाः सूर्यस्य सन्नियोगेन नियताः सन्ति तथा विवाहिताः स्त्रीपुरुषा परस्परं प्रेमास्पदाः स्युः॥12॥ पदार्थः—हे स्त्रियो! जैसे (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के साथ उत्पन्न (यतमानाः) उत्तम यत्न करती हुई (अश्वावतीः) जिनकी प्रशंसित व्याप्तियाँ (गोमतीः) जो बहुत पृथिवी आदि लोक और किरणों से युक्त (विश्ववाराः) समस्त जगत् को अपने में लेती और (भद्रा) अच्छे (नाम) नामों को (वहमानाः) सबकी बुद्धियों में पहुंचाती हुई (उषसः) प्रभातवेला नियम के साथ (परा, यन्ति) पीछे को जाती (च) और (पुनः) फिर (च) भी (आ, यन्ति) आती हैं, वैसे नियम से तुम अपना वर्त्ताव वर्त्तो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रभातवेला सूर्य के संयोग से नियम को प्राप्त है, वैसे विवाहित स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेम के स्थिर करनेहारे हों॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ऋ॒तस्य॑ र॒श्मिम॑नु॒यच्छ॑माना भ॒द्रंभ॑द्रं॒ क्रतु॑म॒स्मासु॑ धेहि। उषो॑ नो अ॒द्य सु॒हवा॒ व्यु॑च्छा॒स्मासु॒ रायो॑ म॒घव॑त्सु च स्युः॥13॥6॥ ऋ॒तस्य॑। र॒श्मिम्। अ॒नु॒ऽयच्छ॑माना। भ॒द्रम्ऽभ॑द्रम्। क्रतु॑म्। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। उषः॑। नः॒। अ॒द्य। सु॒ऽहवा॑। वि। उ॒च्छ॒। अ॒स्मासु॑। रायः॑। म॒घव॑त्ऽसु। च॒। स्यु॒रिति॑ स्युः॥13॥ पदार्थः—(ऋतस्य) जलस्य (रश्मिम्) किरणम् (अनुयच्छमाना) अनुकूलतया प्राप्ता (भद्रंभद्रम्) कल्याणकल्याणकारकम् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा (अस्मासु) (धेहि) (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (नः) अस्मान् (अद्य) (सुहवा) सुष्ठु सुखप्रदा (वि) (उच्छ) (अस्मासु) (रायः) श्रियः (मघवत्सु) पूजितेषु धनेषु (च) (स्युः)॥13॥ अन्वयः—हे उषर्वत्पत्नि! त्वमद्य ऋतस्य रश्मिमुषा इव हृद्यं पतिमनुयच्छमानाऽस्मासु भद्रं भद्रं क्रतुं धेहि। सुहवा सती नोऽस्मान् व्युच्छ यतो मघवत्स्वस्मासु रायश्च स्युः॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सत्यः स्त्रियः स्वस्वपत्यादीन् यथावत् संसेव्य प्रज्ञाधर्मैश्वर्याणि नित्यं वर्द्धयन्ति तथोषसोऽपि वर्त्तन्ते॥13॥ अत्रोषर्दृष्टान्तेन स्त्रीधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति त्रयोविंशत्युत्तरं शततमं 123 सूक्तं षष्ठो 6 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (उषः) प्रातःसमय की वेला सी अलवेली स्त्री! तू (अद्य) आज जैसे (ऋतस्य) जल की (रश्मिम्) किरण को प्रभात समय की वेला स्वीकार करती, वैसे मन से प्यारे पति को (अनुयच्छमाना) अनुकूलता से प्राप्त हुई (अस्मासु) हम लोगों में (भद्रंभद्रम्, क्रतुम्) अच्छी-अच्छी बुद्धि वा अच्छे-अच्छे काम को (धेहि) धर (सुहवा) और उत्तम सुख देनेवाली होती हुई (नः) हम लोगों को (व्युच्छ) ठहरा जिससे (मघवत्सु) प्रशंसित धनवाले (अस्मासु) हम लोगों में (रायः) शोभा (च) भी (स्युः) हों॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे श्रेष्ठ स्त्री अपने-अपने पति आदि की यथावत् सेवा कर बुद्धि, धर्म और ऐश्वर्य्य को नित्य बढ़ाती हैं, वैसे प्रभात समय की वेला भी है॥13॥ इस सूक्त में प्रभात समय की वेला के दृष्टान्त से स्त्रियों के धर्म का वर्णन करने से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त में कहे अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ तेईसवां 123 सूक्त और छठा 6 वर्ग पूरा हू्आ॥

अथ चतुर्विंशत्युत्तरशततमस्य त्रयोदशर्चस्य सूक्तस्य दैर्घतमसः कक्षीवान् ऋषिः। उषा देवता। 1,3,6,9,10 निचृत् त्रिष्टुप्। 4,7,11 त्रिष्टुप्। 12 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 2,13 भुरिक् पङ्क्तिः। 5 पङ्क्तिः। 8 विराट् पङ्क्तिश्च छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथ सूर्यलोकविषयमाह॥ अब तेरह ऋचावाले एक सौ चौबीसवें 124 सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्यलोक के विषय का वर्णन किया है॥ उ॒षा उ॒च्छन्ती॑ समिधा॒ने अ॒ग्ना उ॒द्यन्त्सूर्य॑ उर्वि॒या ज्योति॑रश्रेत्। दे॒वो नो॒ अत्र॑ सवि॒ता न्वर्थं॒ प्रासा॑वीद् द्वि॒पत्प्र चतु॑ष्पदि॒त्यै॥1॥ उ॒षाः। उ॒च्छन्ती॑। स॒म्ऽइ॒धा॒ने। अ॒ग्नौ। उ॒त्ऽयन्। सूर्यः॑। उ॒र्वि॒या। ज्योतिः॑। अ॒श्रे॒त्। दे॒वः। नः॒। अत्र॑। स॒वि॒ता। नु। अर्थ॑म्। प्र। अ॒सा॒वी॒त्। द्वि॒ऽपत्। प्र। चतुः॑ऽपत्। इ॒त्यै॥1॥ पदार्थः—(उषाः) (उच्छन्ती) अन्धकारं निस्सारयन्ती (समिधाने) प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवन् (सूर्य्यः) सविता (उर्विया) पृथिव्या। उर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (ज्योतिः) प्रकाशः (अश्रेत्) श्रयति (देवः) दिव्यप्रकाशः (नः) अस्माकम् (अत्र) जगति (सविता) कर्म्मसु प्रेरकः (नु) शीघ्रम् (अर्थम्) प्रयोजनम् (प्र) (असावीत्) सुनोति (द्विपत्) द्वौ पादौ यस्य तत् (प्र) (चतुष्पत्) (इत्यै) प्रापयितुम्॥1॥ अन्वयः—यदा समिधानेऽग्नौ सूर्य्य उद्यन्सन्नुर्विया सह ज्योतिरश्रेत् तदोच्छन्त्युषा जायते। एवमत्र सविता देवो नोऽर्थमित्यै प्रासावीत्, द्विपच्चतुष्पच्च नु प्रासावीत्॥1॥ भावार्थः—पृथिव्या सूर्य्यकिरणैः सह संयोगो जायते स एव तिर्य्यग्गतः सन्नुषसः कारणं भवति यदि सूर्य्यो न स्यात्, तर्हि विविधरूपाणि द्रव्याणि पृथक् पृथक् द्रष्टुमशक्यानि स्युः॥1॥ पदार्थः—जब (समिधाने) जलते हुए (अग्नौ) अग्नि का निमित्त (सूर्यः) सूर्यमण्डल (उद्यन्) उदय होता हुआ (उर्विया) पृथिवी के साथ (ज्योतिः) प्रकाश को (अश्रेत्) मिलाता तब (उच्छन्ती) अन्धकार को निकालती हुई (उषाः) प्रातःकाल की वेला उत्पन्न होती है, ऐसे (अत्र) इस संसार में (सविता) कामों में प्रेरणा देनेवाला (देवः) उत्तम प्रकाशयुक्त उक्त सूर्यमण्डल (नः) हम लोगों के (अर्थम्) प्रयोजन को (इत्यै) प्राप्त कराने के लिये (प्रासावीत्) सारांश को उत्पन्न करता तथा (द्विपत्) दो पगवाले मनुष्यादि वा (चतुष्पत्) चार पगवाले चौपाये पशु आदि प्राणियों को (नु) शीघ्र (प्र) उत्तमता से उत्पन्न करता है॥1॥ भावार्थः—पृथिवी का सूर्य की किरणों के साथ संयोग होता है, वही संयोग तिरछा जाता हुआ प्रभात समय के होने का कारण होता है, जो सूर्य न हो तो अनेक प्रकार के पदार्थ अलग अलग देखे नहीं जा सकते हैं॥1॥ अथोषर्दृष्टान्तेन स्त्रीविषयमाह॥ अब उषा के दृष्टान्त से स्त्री के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अमि॑नती॒ दैव्या॑नि व्र॒तानि॑ प्रमिन॒ती म॑नुष्या॑ यु॒गानि॑। ई॒युषी॑णामुप॒मा शश्व॑ती॑नामायती॒नां प्र॑थ॒मोषा व्य॑द्यौत्॥2॥ अमि॑नती। दैव्या॑नि। व्र॒तानि॑। प्र॒ऽमि॒न॒ती। म॒नु॒ष्या॑। यु॒गानि॑। ई॒युषी॑णाम्। उ॒प॒ऽमा। शश्व॑तीनाम्। आ॒ऽय॒ती॒नाम्। प्र॒थ॒मा। उ॒षाः। वि। अ॒द्यौ॒त्॥2॥ पदार्थः—(अमिनती) अहिंसन्ती (दैव्यानि) दिव्यगुणानि (व्रतानि) वर्त्तमानानि सत्यानि वस्तूनि कर्माणि वा (प्रमिनती) प्रकृष्टतया हिंसन्ती (मनुष्या) मानुषसंबन्धीनि (युगानि) वर्षाणि (ईयुषीणाम्) अतीतानाम् (उपमा) दृष्टान्तः (शश्वतीनाम्) सनातनीनामुषसां प्रकृतीनां वा (आयतीनाम्) आगच्छन्तीनाम् (प्रथमा) (उषाः) (वि) (अद्यौत्) विविधतया प्रकाशयति॥2॥ अन्वयः—हे स्त्रि! यथोषा दैव्यानि व्रतान्यमिनती मनुष्या युगानि प्रमिनती शश्वतीनामीयुषीणामुपमाऽऽयतीनां च प्रथमा विश्वं व्यद्यौत्। जागृतैर्मनुष्यैर्युक्त्या सदा सेव्या तथा त्वं वर्त्तस्व॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेयमुषाः सन्ततेन पृथिवीसूर्यसंयोगेन सह चरिता यावन्तं पूर्वं देशं जहाति तावन्तमुत्तरं देशमादत्ते वर्त्तमानाऽतीतानामुषसामुपमाऽऽगामिनीनामादिमा सती कार्य्यकारणयोर्ज्ञानं प्रज्ञापयन्ती सत्यधर्माचरणनिमित्तकालावयवत्वादायुर्व्ययन्ती वर्त्तते सा सेविता सती बुद्ध्यारोग्यादीन् शुभगुणान् प्रयच्छति तथा विदुष्यः स्त्रियः स्युः॥2॥ पदार्थः—हे स्त्री! जैसे (उषाः) प्रातःसमय की वेला (दैव्यानि) दिव्य गुणवाले (व्रतानि) सत्य पदार्थ वा सत्य कर्मों को (अमिनती) न छोड़ती और (मनुष्या) मनुष्यों के सम्बन्धी (युगानि) वर्षों को (प्रमिनती) अच्छे प्रकार व्यतीत करती हुई (शश्वतीनाम्) सनातन प्रभातवेलाओं वा प्रकृतियों और (ईयुषीणाम्) हो गई प्रभातवेलाओं की (उपमा) उपमा दृष्टान्त और (आयतीनाम्) आनेवाली प्रभातवेलाओं में (प्रथमा) पहिली संसार को (व्यद्यौत्) अनेक प्रकार से प्रकाशित कराती और जागते अर्थात् व्यवहारों को करते हुए मनुष्य को युक्ति के साथ सदा सेवन करने योग्य है, वैसे तू अपना वर्त्ताव रख॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह प्रातःसमय की वेला विस्तारयुक्त पृथ्वी और सूर्य के साथ चलनेहारी जितने पूर्व देश को छोड़ती उतने उत्तर देश को ग्रहण करती है तथा वर्त्तमान और व्यतीत हुई प्रातःसमय की वेलाओं की उपमा और आनेवालियों की पहिली हुई कार्यरूप जगत् का और जगत् के कारण का अच्छे प्रकार ज्ञान कराती और सत्य धर्म के आचरण निमित्तक समय का अङ्ग होने से उमर को घटाती हुई वर्त्तमान है, वह सेवन की हुई बुद्धि और आरोग्य आदि अच्छे गुणों को देती है, वैसे पण्डिता स्त्री हों॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒षा दि॒वो दु॑हि॒ता प्रत्य॑दर्शि॒ ज्योति॒र्वसा॑ना सम॒ना पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑ति सा॒धु प्र॑जान॒तीव॒ न दिशो॑ मिनाति॥3॥ ए॒षा। दि॒वः। दु॒हि॒ता। प्रति॑। अ॒द॒र्शि॒। ज्योतिः॑। वसा॑ना। स॒म॒ना। पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॑। पन्था॑म्। अनु॑। ए॒ति॒। सा॒धु। प्र॒जा॒न॒तीऽइ॑व। न। दिशः॑। मि॒ना॒ति॒॥3॥ पदार्थः—(एषा) (दिवः) प्रकाशस्य (दुहिता) कन्येव (प्रति) (अदर्शि) दृश्यते (ज्योतिः) प्रकाशम् (वसाना) स्वीकुर्वती (समना) संग्रामे। अत्र सुपां स्वित्याकारादेशः। (पुरस्तात्) प्रथमतः (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (पन्थाम्) मार्गम् (अनु) (एति) (साधु) सम्यक् यथा स्यात् तथा (प्रजानतीव) यथा विज्ञानवती विदुषी (न) निषेधे (दिशः) (मिनाति) त्यजति॥3॥ अन्वयः—यथैवैषा ज्योतिर्वसाना समना दिवो दुहितेवास्माभिः पुरस्तात् प्रत्यदर्शि यथाऽऽप्तो वीर ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीवोषा दिशो न मिनाति तद्वद्वर्त्तमानाः स्त्रियो वराः स्युः॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुनियमेन वर्त्तमाना सत्युषाः सर्वानाह्लादयति सोत्तमं स्वभावं न हिनस्ति तथा स्त्रियो गार्हस्थ्यधर्मे वर्त्तेरन्॥3॥ पदार्थः—जैसे ही (एषा) यह प्रातःसमय की वेला (ज्योतिः) प्रकाश को (वसाना) ग्रहण करती हुई (समना) संग्राम में (दिवः) सूर्य के प्रकाश की (दुहिता) लड़कीसी हम लोगों ने (पुरस्तात्) दिन के पहिले (प्रत्यदर्शि) प्रतीति से देखी वा जैसे समस्त विद्या पढ़ा हुआ वीर जन (ऋतस्य) सत्य कारण के (पन्थाम्) मार्ग को (अन्वेति) अनुकूलता से प्राप्त होता वा (साधु) अच्छे प्रकार जैसे हो वैसे (प्रजानतीव) विशेष ज्ञानवाली विदुषी पढ़ी हुई पण्डिता स्त्री के समान प्रभात वेला (दिशः) दिशाओं को (न) नहीं (मिनाति) छोड़ती, वैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तती हुई स्त्री उत्तम हों॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे नियम से वर्त्तमान हुई प्रातःसमय की वेला सबको आनन्दित कराती और अपने उत्तम स्वभाव को नहीं नष्ट करती, वैसे स्त्री लोग गिरस्ती के धर्म में वर्त्तें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उपो॑ अदर्शि शु॒न्ध्युवो॒ न वक्षो॑ नो॒धाइ॑वा॒विर॑कृत प्रि॒याणि॑। अ॒द्म॒सन्न स॑स॒तो बो॒धय॑न्ती शश्वत्त॒मागा॒त्पुन॑रेयु॒षी॑णाम्॥4॥ उपो॒ इति॑। अ॒द॒र्शि॒। शु॒न्ध्युवः॑। न। वक्षः॑। नो॒धाःऽइ॑व। आ॒विः। अ॒कृ॒त॒। प्रि॒याणि॑। अ॒द्म॒ऽसत्। न। स॒स॒तः। बो॒धय॑न्ती। श॒श्व॒त्ऽत॒मा। आ। अ॒गा॒त्। पुनः॑। आ॒ऽई॒युषी॑णाम्॥4॥ पदार्थः—(उपो) सामीप्ये (अदर्शि) दृश्यते (शुन्ध्युवः) आदित्यकिरणाः। शुन्ध्युरादित्यो भवति। (निरु॰4.16) (न) उपमायाम्। (निरु॰1.4) (वक्षः) प्राप्तं वस्तु। वक्ष इति पदनामसु। (निघं॰4.2) (नोधाइव) यो नौति सर्वाणि शास्त्राणि तद्वत्। नुवो धुट् च। (उणा॰4.226) अनेन नुधातोरसिप्रत्ययो धुडागमश्च। (आविः) प्राकट्ये (अकृत) करोति (प्रियाणि) वचनानि (अद्मसत्) योऽद्मानि सादयति परिपचति सः (न) इव (ससतः) स्वपतः प्राणिनः (बोधयन्ती) जागारयन्ती (शश्वत्तमा) यातिशयेन सनातनी (आ) (अगात्) प्राप्नोति (पुनः) (एयुषीणाम्) समन्तादतीतानामुषसाम्॥4॥ अन्वयः—यथोषा वक्षः शुन्ध्युवो न प्रियाणि नोधाइवाद्मसन्न ससतो बोधयन्त्येयुषीणां शश्वत्तमा सती पुनरागादाविरकृत च साऽस्माभिरुपो अदर्शि तथाभूताः स्त्रियो वरा भवन्ति॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्काराः। याः स्त्र्युषर्वत्सूर्यवद्विद्वद्वच्च स्वापत्यानि सुशिक्षया विदुषः करोति सा सर्वैः सत्कर्त्तव्येति॥4॥ पदार्थः—जैसे प्रभात वेला (वक्षः) पाये पदार्थ को (शुन्ध्युवः) सूर्य की किरणों के (न) समान वा (प्रियाणि) प्रिय वचनों की (नोधाइव) सब शास्त्रों की स्तुति प्रशंसा करनेवाले विद्वान् के समान वा (अद्मसत्) भोजन के पदार्थों को पकानेवाले के (न) समान (ससतः) सोते हुए प्राणियों को (बोधयन्ती) निरन्तर जगाती हुई और (एयुषीणाम्) सब ओर से व्यतीत हो गई प्रभात वेलाओं की (शश्वत्तमा) अतीव सनातन होती हुई (पुनः) फिर (आ, अगात्) आती और (आविरकृत) संसार को प्रकाशित करती, वह हम लोगों ने (उपो) समीप में (अदर्शि) देखी, वैसी स्त्री उत्तम होती हैं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो स्त्री प्रभात वेला वा सूर्य वा विद्वान् के समान अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्वान् करती है, वह सबको सत्कार करने योग्य है॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पूर्वे॒ अर्धे॒ रज॑सो अ॒प्त्यस्य॒ गवां॒ जनि॑त्र्यकृत॒ प्र के॒तुम्। व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑य॒ ओभा पृ॒णन्ती॑ पि॒त्रोरु॒पस्था॑॥5॥7॥ पूर्वे॑। अर्धे॑। रज॑सः। अ॒प्त्यस्य॑। गवा॑म्। जनि॑त्री। अ॒कृ॒त॒। प्र। के॒तुम्। वि। ऊ॒म् इति॑। प्र॒थ॒ते॒। वि॒ऽत॒रम्। वरी॑यः। आ। उ॒भा। पृ॒णन्ती॑। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्था॑॥5॥ पदार्थः—(पूर्वे) सम्मुखे वर्त्तमाने (अर्द्धे) (रजसः) लोकसमूहस्य (अप्त्यस्य) अप्तौ विस्तीर्णे संसारे भवस्य (गवाम्) किरणानाम् (जनित्री) उत्पादिका (अकृत) करोति (प्र) (केतुम्) किरणम् (वि) (उ) वितर्के (प्रथते) विस्तृणोति (वितरम्) विविधानि दुःखानि तरन्ति येन कर्मणा तत् (वरीयः) अतिशयेन वरम् (आ) (उभा) (पृणन्ती) सुखयन्ती (पित्रोः) जनकयोरिव भूमिसूर्ययोः (उपस्था) क्रोडे तिष्ठति सा॥5॥ अन्वयः—यथोषा उभा लोकौ पृणन्ती पित्रोरुपस्था सती वितरं वरीयो व्युप्रथते गवां जनित्र्यप्त्यस्य रजसः पूर्वेऽर्द्धे केतुं प्राकृत तथा वर्त्तमाना भार्य्योत्तमा भवति॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। उषस उत्पन्नः सूर्यप्रकाशो भूगोलार्द्धे सर्वदा प्रकाशतेऽपरेऽर्द्धे रात्रिर्भवति तयोर्मध्ये सर्वदोषा विराजत एवं नैरन्तर्येण रात्र्युषर्दिनानि क्रमेण वर्त्तन्तेऽतः किमागतं यावान् भूगोलप्रदेशः सूर्यस्य संनिधौ तावति दिनं यावानसंनिधौ तावति रात्रिः। सन्ध्योरुषाश्चैवं लोकभ्रमणद्वारैतान्यपि भ्रमन्तीव दृश्यन्ते॥5॥ पदार्थः—जैसे प्रातः समय की वेला कन्या के तुल्य (उभा) दोनों लोकों को (पृणन्ती) सुख से पूरती और (पित्रोः) अपने माता-पिता के समान भूमि और सूर्यमण्डल की (उपस्था) गोद में ठहरी हुई (वितरम्) जिससे विविध प्रकार के दुःखों से पार होते हैं, उस (वरीयः) अत्यन्त उत्तम काम को (वि, उ, प्रथते) विशेष करके तो विस्तारती तथा (गवाम्) सूर्य की किरणों को (जनित्री) उत्पन्न करानेवाली (अप्त्यस्य) विस्तार युक्त संसार में हुए (रजसः) लोक समूह के (पूर्वे) प्रथम आगे वर्त्तमान (अर्द्धे) आधेभाग में (केतुम्) किरणों को (प्र, आ, अकृत) प्रसिद्ध करती है, वैसा वर्त्तमान करती हुई स्त्री उत्तम होती है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रभात वेला से प्रसिद्ध हुआ सूर्यमण्डल का प्रकाश भूगोल के आधे भाग में सब कहीं उजेला करता है और आधे भाग में रात्रि होती है, उन दिन रात्रि के बीच में प्रातःसमय की वेला विराजमान है, ऐसे निरन्तर रात्रि प्रभातवेला और दिन क्रम से वर्त्तमान हैं। इससे क्या आया कि जितना पृथिवी का प्रदेश सूर्यमण्डल के आगे होता उतने में दिन और जितना पीछे होता जाता उतने में रात्रि होती तथा सायं और प्रातःकाल की सन्धि में उषा होती है। इसी उक्त प्रकार से लोकों के घूमने के द्वारा ये सायं प्रातःकाल भी घूमते से दिखाई देते हैं॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒वेदे॒षा पु॑रु॒तमा॑ दृ॒शे कं नाजा॑मिं॒ न परि॑ वृणक्ति जा॒मिम्। अ॒रे॒पसा॑ त॒न्वा॒ शाश॑दाना॒ नार्भा॒दीष॑ते॒ न म॒हो वि॑भा॒ती॥6॥ ए॒व। इत्। ए॒षा। पु॒रु॒ऽतमा॑। दृ॒शे। कम्। न। अजा॑मिम्। न। परि॑। वृ॒ण॒क्ति॒। जा॒मिम्। अ॒रे॒पसा॑। त॒न्वा॑। शाश॑दाना। न। अर्भात्। ईष॑ते। न। म॒हः। वि॒ऽभा॒ती॥6॥ पदार्थः—(एव) (इत्) अपि (एषा) (पुरुतमा) या बहून् पदार्थान् ताम्यति काङ्क्षति सा (दृशे) द्रुष्टुम् (कम्) सुखम् (न) इव (अजामिम्) अभार्य्याम् (न) इव (परि) (वृणक्ति) त्यजति (जामिम्) भार्याम् (अरेपसा) अकम्पितेन (तन्वा) शरीरेण (शाशदाना) अतीव सुन्दरी (न) निषेधे (अर्भात्) अल्पात् (ईषते) गच्छति (न) निषेधे (महः) महत् (विभाती) प्रकाशयन्ती॥6॥ अन्वयः—यथारेपसा तन्वा शाशदाना पुरुतमा स्त्री देशे कं सुखं पतिं न न परिवृणक्ति पतिश्च जामिं न सुखं न परित्यजति। अजामिं च परित्यजति तथैवैषोषा अर्भादिन्महो विभाती सती स्थूलं न परिजहाति किन्तु सर्वमीषते॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पतिव्रता स्त्री स्वं पतिं विहायान्यं न संगच्छते यथा च स्त्रीव्रतः पुमान् स्वस्त्रीभिन्नां स्त्रियं न समवैति, विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ यथानियमं यथासमयं संगच्छेते तथैवोषा नियतं देशं समयं च विहायान्यत्र युक्ता न भवति॥6॥ पदार्थः—जैसे (अरेपसा) न कँपते हुए निर्भय (तन्वा) शरीर से (शाशदाना) अति सुन्दरी (पुरुतमा) बहुत पदार्थों को चाहनेवाली स्त्री (दृशे) देखने के लिये (कम्) सुख को पति के (न) समान (परि, वृणक्ति) सब ओर से (न) नहीं छोड़ती पति भी (जामिम्) अपनी स्त्री के (न) समान सुख को (न) नहीं छोड़ता और (अजामिम्) जो अपनी स्त्री नहीं उसको सब प्रकार से छोड़ता है, वैसे (एव) ही (एषा) यह प्रातःसमय की वेला (अर्भात्) थोड़े से (इत्) भी (महः) बहुत सूर्य के तेज का (विभाती) प्रकाश कराती हुई बड़े फैलते हुए सूर्य के प्रकाश को नहीं छोड़ती, किन्तु समस्त को (ईषते) प्राप्त होती है॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति को छोड़ और के पति का सङ्ग नहीं करती वा जैसे स्त्रीव्रत पुरुष अपने स्त्री से भिन्न दूसरी स्त्री का सम्बन्ध नहीं करता और विवाह किये हुए स्त्रीपुरुष नियम और समय के अनुकूल सङ्ग करते हैं, वैसे ही प्रातःसमय की वेला नियमयुक्त देश और समय को छोड़ अन्यत्र युक्त नहीं होती॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒भ्रा॒तेव॑ पुं॒स ए॑ति प्रती॒ची ग॑र्ता॒रुगि॑व स॒नये॒ धना॑नाम्। जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑ उ॒षा ह॒स्रेव॒ नि रि॑णीते॒ अप्सः॑॥7॥ अ॒भ्रा॒ताऽइ॑व। पुं॒सः। ए॒ति॒। प्र॒ती॒ची। ग॒र्त॒ऽआ॒रुगि॑व। स॒नये॑। धना॑नाम्। जा॒याऽइ॑व। पत्ये॑। उ॒श॒ती। सु॒ऽवासाः॑। उ॒षाः। ह॒स्राऽइ॑व। नि। रि॒णी॒ते॒। अप्सः॑॥7॥ पदार्थः—(अभ्रातेव) यथाऽबन्धुस्तथा (पुंसः) पुरुषस्य (एति) प्राप्नोति (प्रतीची) प्रत्यञ्चतीति (गर्त्तारुगिव) गर्त्ते आरुगारोहणं गर्त्तारुक् तद्वत् (सनये) विभागाय (धनानाम्) द्रव्याणाम् (जायेव) स्त्रीव (पत्ये) स्वस्वामिने (उशती) कामयमाना (सुवासाः) शोभनानि वासांसि यस्याः सा (उषाः) (हस्रेव) हसन्तीव (नि) (रिणीते) प्राप्नोति (अप्सः) रूपम्। अप्स इति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7)॥7॥ अन्वयः—इयमुषाः प्रतीची सत्यभ्रातेव पुंसो धनानां सनये गर्त्तारुगिव सर्वानेति पत्य उशती सुवासा जायेव पदार्थान् सेवते हस्रेव अप्सो निरिणीते॥7॥ भावार्थः—अत्र चत्वार उपमालङ्काराः। यथा भ्रातृरहिता कन्या स्वप्रीतं पतिं स्वयं प्राप्नोति, यथा न्यायाधीशो राजा राजपत्नीधनानां विभागाय न्यायाऽऽसनमाप्नोति, यथा प्रसन्नवदना स्त्री आनन्दितं पतिं प्राप्नोति, सुरूपेण हावभावं च प्रकाशयति, तथैवेयमुषा अस्तीति वेद्यम्॥7॥ पदार्थः—यह (उषाः) प्रातःसमय की वेला (प्रतीची) प्रत्येक स्थान को पहुंचती हुई (अभ्रातेव) विना भाई की कन्या जैसे (पुंसः) पुरुष को प्राप्त हो उसके समान वा जैसे (गर्त्तारुगिव) दुःखरूपी गढ़े में पड़ा हुआ जन (धनानाम्) धन आदि पदार्थों के (सनये) विभाग करने के लिये राजगृह को प्राप्त हो, वैसे सब ऊंचे-नीचे पदार्थों के (एति) पहुंचती तथा (पत्ये) अपने पति के लिये (उशती) कामना करती हुई (सुवासाः) और सुन्दर वस्त्रों वाली (जायेव) विवाहिता स्त्री के समान पदार्थों का सेवन करती और (हस्रेव) हँसती हुई स्त्री के तुल्य (अप्सः) रूप को (नि, रिणीते) निरन्तर प्राप्त होती है॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में चार उपमालङ्कार हैं। जैसे विना भाई की कन्या अपनी प्रीति से चाहे हुए पति को आप प्राप्त होती वा जैसे न्यायाधीश राजा, राजपत्नी और धन आदि पदार्थों के विभाग करने के लिये न्यायासन अर्थात् राजगद्दी [को], जैसे हँसमुखी स्त्री आनन्दयुक्त पति को प्राप्त होती और अच्छे रूप से अपने हावभाव को प्रकाशित करती, वैसे ही यह प्रातःसमय की वेला है, यह समझना चाहिये॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्वसा॒ स्वस्रे॒ ज्याय॑स्यै॒ योनि॑मारै॒गपै॑त्यस्याः प्रति॒चक्ष्ये॑व। व्युच्छन्ती॑ र॒श्मिभिः॒ सूर्य॑स्या॒ञ्ज्य॑ङ्क्ते समन॒गाइ॑व॒ व्राः॥8॥ स्वसा॑। स्वस्रे॑। ज्याय॑स्यै। योनि॑म्। अ॒रै॒क्। अप॑। ए॒ति॒। अ॒स्याः॒। प्र॒ति॒चक्ष्य॑ऽइव। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑। र॒श्मिऽभिः॑। सूर्य॑स्य। अ॒ञ्जि। अ॒ङ्क्ते॒। स॒म॒न॒गाःऽइ॑व। व्राः॥8॥ पदार्थः—(स्वसा) भगिनी (स्वस्रे) भगिन्यै (ज्यायस्यै) ज्येष्ठायै (योनिम्) गृहम् (अरैक्) अतिरिणक्ति (अप) (एति) दूरं गच्छति (अस्याः) भगिन्याः (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्षं दृष्ट्वेव (व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती (रश्मिभिः) किरणैः सह (सूर्यस्य) सवितुः (अञ्जि) व्यक्तं रूपम् (अङ्क्ते) प्रकाशयति (समनगाइव) समनमनवधारितं स्थानं गच्छन्तीव (व्राः) या वृणोति॥8॥ अन्वयः—हे कन्ये! यथा व्युच्छन्ती व्रा उषाः सूर्यस्य रश्मिभिः सहाञ्जि समनगाइवाङ्क्ते यथा वा स्वसा ज्यायस्यै स्वस्रे योनिमारैगस्या वर्त्तमानं प्रतिचक्ष्येवापैति विवाहाय दूरं गच्छति तथा त्वं भव॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। कनिष्ठा भगिनी ज्येष्ठाया वर्त्तमानं वृत्तं विज्ञाय स्वयंवराय दूरेऽपि स्थितं योग्यं पतिं गृह्णीयात्। यथा शान्ताः पतिव्रताः स्त्रियः स्वं स्वं पतिं सेवन्ते तथा स्वं पतिं सेवेत यथा च सूर्यः स्वकान्त्या कान्तिः सूर्येण च सह नित्यमानुकूल्येन वर्त्तेत तथैव स्त्रीपुरुषौ स्याताम्॥8॥ पदार्थः—हे कन्या! जैसे (व्युच्छन्ती) अन्धकार का निवारण करती हुई (व्राः) पदार्थों को स्वीकार करनेवाली प्रातःसमय की वेला (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के साथ (अञ्जि) प्रसिद्ध रूप को (समनगाइव) निश्चय किये स्थान को जानने वाली स्त्री के समान (अङ्क्ते) प्रकाश करती है वा जैसे (स्वसा) बहिन (ज्यायस्यै) जेठी (स्वस्रे) बहिन के लिये (योनिम्) अपने स्थान को (अरैक्) छोड़ती अर्थात् उत्थान देती तथा (अस्याः) इस अपनी बहिन के वर्त्तमान हाल को (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्ष देख के जैसे वैसे विवाह के लिये (अपैति) दूर जाती है, वैसी तू हो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। छोटी बहिन जेठी बहिन के वर्त्तमान हाल को जानकर आप स्वयंवर विवाह के लिये दूर भी ठहरे हुए अपने अनुकूल पति का ग्रहण करे, जैसे शान्त पतिव्रता स्त्री अपने पति को सेवन करती है, वैसे अपने पति का सेवन करे, जैसे सूर्य अपनी कान्ति के साथ और कान्ति सूर्य के साथ नित्य अनुकूलता से वर्त्ते, वैसे ही स्त्री-पुरुष हों॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ॒सां पू॑र्वासा॒मह॑सु॒ स्वसॄ॑णा॒मप॑रा॒ पूर्वा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात्। ताः प्र॑त्न॒वन्नव्य॑सीर्नू॒नम॒स्मे रे॒वदु॑च्छन्तु सु॒दिना॑ उ॒षासः॑॥9॥ आ॒साम्। पूर्वा॑साम्। अह॑ऽसु। स्वसॄ॑णाम्। अप॑रा। पूर्वा॑म्। अ॒भि। ए॒ति॒। प॒श्चात्। ताः। प्र॒त्न॒ऽवत्। नव्य॑सीः। नू॒नम्। अ॒स्मे इति॑। रे॒वत्। उ॒च्छ॒न्तु॒। सु॒ऽदिनाः॑। उ॒षसः॑॥9॥ पदार्थः—(आसाम्) (पूर्वासाम्) ज्येष्ठानाम् (अहसु) दिनेषु। अत्र वाच्छन्दसीति रोरभावे नलोपः। (स्वसॄणाम्) भगिनीनाम् (अपरा) (पूर्वाम्) (अभि) (एति) प्राप्नुयात् (पश्चात्) (ताः) (प्रत्नवत्) प्रत्नः प्राचीनो निधिर्विद्यते यस्मिन् (नव्यसीः) (नूनम्) निश्चितम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (रेवत्) प्रशस्तपदार्थयुक्तं द्रव्यम् (उच्छन्तु) तमो विवासयन्तु (सुदिनाः) शोभनानि दिनानि याभ्यस्ताः (उषसः) उषसः प्रभाताः। अत्रान्येषापपीति दीर्घः॥9॥ अन्वयः—यथाऽऽसां पूर्वासां स्वसॄणामपरा काचिद्भगिन्यहसु केषु चिदहःसु पूर्वां भगिनीमभ्येति पश्चात् स्वगृहं गच्छेत् तथा सुदिना उषासोऽस्मे नूनं प्रत्नवद्रेवन्नव्यसीः प्रकाशयन्तु ता उच्छन्तु च॥9॥ भावार्थः—यथा बहवो भगिन्यो दूरे दूरे देशे विवाहिताः कदाचित् कयाचित् सह काचिन्मिलती स्वव्यवहारमाख्याति तथा पूर्वा उषसो वर्त्तमानया सह संयुज्य स्वव्यवहारं प्रकटयन्ति॥9॥ पदार्थः—जैसे (आसाम्) इन (पूर्वासाम्) प्रथम उत्पन्न जेठी (स्वसॄणाम्) बहिनों में (अपरा) अन्य कोई पीछे उत्पन्न हुई छोटी बहिन (अहसु) किन्हीं दिनों में अपनी (पूर्वाम्) जेठी बहिन के (अभ्येति) आगे जावे और (पश्चात्) पीछे अपने घर को चली जावे, वैसे (सुदिनाः) जिनसे अच्छे-अच्छे दिन होते वे (उषसः) प्रातःसमय की वेला (अस्मे) हम लोगों के लिये (नूनम्) निश्चययुक्त (प्रत्नवत्) जिसमें पुरानी धन की धरोहर है, उस (रेवत्) प्रशंसित पदार्थयुक्त धन को (नव्यसीः) प्रतिदिन अत्यन्त नवीन होती हुई प्रकाश करे (ताः) वे (उच्छन्तु) अन्धकार को निकाला (दूर) करें॥9॥ भावार्थः—जैसे बहुत बहिनें दूर-दूर देश में विवाही हुई होती उनमें कभी किसी के साथ कोई मिलती और अपने व्यवहार को कहती है, वैसे पिछली प्रातःसमय की वेला वर्त्तमान वेला के साथ संयुक्त होकर अपने व्यवहार को प्रसिद्ध करती हैं॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र बो॑धयोषः पृण॒तो म॑घो॒न्यबु॑ध्यमानाः प॒णयः॑ ससन्तु। रे॒वदु॑च्छ म॒घव॑द्भ्यो मघोनि रे॒वत् स्तो॒त्रे सू॑नृते जा॒रय॑न्ती॥10॥8॥ प्र। बो॒ध॒य॒। उ॒षः॒। पृ॒ण॒तः। म॒घो॒नि॒। अबु॑ध्यमानाः। प॒णयः॑। स॒स॒न्तु॒। रे॒वत्। उ॒च्छ॒। म॒घव॑त्ऽभ्यः। म॒घो॒नि॒। रे॒वत्। स्तो॒त्रे। सू॒नृ॒ते॒। ज॒रय॑न्ती।10॥ पदार्थः—(प्र) (बोधय) (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (पृणतः) पालयतः पुष्टान् प्राणिनः (मघोनि) पूजितधनयुक्ते (अबुध्यमानाः) (पणयः) व्यवहारयुक्ताः (ससन्तु) स्वपन्तु (रेवत्) प्रशस्तधनवत् (उच्छ) (मघवद्भ्यः) प्रशंसितधनेभ्यः (मघोनि) बहुधनकारिके (रेवत्) नित्यं संबद्धं धनम् (स्तोत्रे) स्तावकाय (सूनृते) सुष्ठु सत्यस्वभावे (जारयन्ती) वयो गमयन्ती॥10॥ अन्वयः—हे मघोन्युषः स्त्रि! त्वं येऽबुध्यमानाः पणयः उषस्समये दिने वा ससन्तु तान् पृणत उषर्वत् प्रबोधय। हे मघोनि सूनृते! त्वमुषर्वज्जारयन्ती मघवद्भ्यो रेवत् स्तोत्रे रेवदुच्छ प्रापय॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न केनचिद् रात्रेः पश्चिमे यामे दिने वा शयितव्यम्। कुतो निद्रादिनयोरधिकोष्णतायोगेन रोगाणां प्रादुर्भावात् कार्यावस्थयोर्हानेश्च। यथा पुरुषार्थयुक्त्या पुष्कलं धनं प्राप्नोति तथा सूर्योदयात् प्रागुत्थाय यत्नवान् दारिद्र्यं जहाति॥10॥ पदार्थः—हे (मघोनि) उत्तम धनयुक्त (उषः) प्रभातवेला के तुल्य वर्त्तमान स्त्री! तू जो (अबुध्यमानाः) अचेत नींद में डूबे हुए वा (पणयः) व्यवहारयुक्त प्राणी प्रभात समय वा दिन में (ससन्तु) सोवें उनकी (पृणतः) पालना करनेवाले पुष्ट प्राणियों को प्रातःसमय की वेला के प्रकाश के समान (प्र, बोधय) बोध करा। हे (मघोनि) अतीव धन इकट्ठा करनेवाली (सूनृते) उत्तम सत्यस्वभावयुक्त युवति! तू प्रभात वेला के समान (जारयन्ती) अवस्था व्यतीत कराती हुई (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवानों के लिये (रेवत्) उत्तम धनयुक्त व्यवहार जैसे हो वैसे (स्तोत्रे) स्तुति प्रशंसा करनेवाले के लिये (रेवत्) स्थिर धन की (उच्छ) प्राप्ति करा॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी को रात्रि के पिछले पहर में वा दिन में न सोना चाहिये, क्योंकि नींद और दिन के (धूप) घाम आदि की अधिक गरमी के योग से रोगों की उत्पत्ति होने से तथा काम और अवस्था की हानि से, जैसे पुरुषार्थ की युक्ति से बहुत धन को प्राप्त होता, वैसे सूर्योदय से पहिले उठ कर यत्नवान् पुरुष दरिद्रता का त्याग करता है॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अवे॒यम॑श्वैद्युव॒तिः पु॒रस्ता॑द्यु॒ङक्ते गवा॑मरु॒णाना॒मनी॑कम्। वि नू॒नमु॑च्छा॒दस॑ति॒ प्र के॒तुर्गृ॒हंगृ॑ह॒मुप॑ तिष्ठाते अ॒ग्निः॥11॥ अव॑। इ॒यम्। अ॒श्वै॒त्। यु॒व॒तिः। पु॒रस्ता॑त्। यु॒ङ्क्ते। गवा॑म्। अ॒रु॒णाना॑म्। अनी॑कम्। वि। नू॒नम्। उ॒च्छा॒त्। अस॑ति। प्र। के॒तुः। गृ॒हम्ऽगृ॑हम्। उप॑। ति॒ष्ठा॒ते॒। अ॒ग्निः॥11॥ पदार्थः—(अव) (इयम्) (अश्वैत्) वर्द्धते (युवतिः) पूर्णचतुर्विंशतिवार्षिकी (पुरस्तात्) प्रथमतः (युङ्क्ते) समवैति (गवाम्) किरणानां गवादीनां पशूनां वा (अरुणानाम्) रक्तानाम् (अनीकम्) सैन्यमिव समूहम् (वि) (नूनम्) (उच्छात्) प्राप्नुयात् (असति) स्यात् (प्र) (केतुः) उद्गतशिखा प्रज्ञावती वा (गृहंगृहम्) (उप) (तिष्ठाते) तिष्ठेत (अग्निः) अरुणतरुणतापस्तीव्रप्रतापो वा॥11॥ अन्वयः—यथेयमुषा अरुणानां गवामनीकं युङ्क्ते पुरस्तादवाश्वैच्च तथा युवतिररुणानां गवामनीकं युङ्क्तेऽवाश्वैत्ततः प्रकेतुरुषा असति नूनं व्युच्छात्। अग्निरस्या प्रतापो गृहंगृहमुपतिष्ठाते युवतिश्च प्रकेतुरसति नूनं व्युच्छात्। अग्निरस्याः प्रतापो गृहंगृहमुपतिष्ठाते॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषर्दिने सदैव समवेते वर्त्तेते तथैव विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयातां यथानियतं सर्वान् पदार्थान् प्राप्नुयातां च तदानयोः प्रतापो वर्द्धते॥11॥ पदार्थः—जैसे (इयम्) यह प्रभातवेला (अरुणानाम्) लाली लिये हुए (गवाम्) सूर्य की किरणों के (अनीकम्) सेना के समान समूह को (युङ्क्ते) जोड़ती और (पुरस्तादवाश्वैत्) पहिले से बढ़ती है, वैसे (युवतिः) पूरी चौबीस वर्ष की जवान स्त्री लाल रङ्ग के गौ आदि पशुओं के समूह को जोड़ती पीछे उन्नति को प्राप्त होती इससे (प्र, केतुः) उठी है शिखा जिसकी वह बढ़ती हुई प्रभात वेला (असति) हो और (नूनम्) निश्चय से (व्युच्छात्) सबको प्राप्त हो (अग्निः) तथा सूर्यमण्डल का तरुण ताप उत्कट धाम (गृहंगृहम्) घर-घर (उप, तिष्ठाते) उपस्थित हो युवति भी उत्तम बुद्धिवाली होती, निश्चय से सब पदार्थों को प्राप्त होती और इसका उत्कट प्रताप घर-घर उपस्थित होता अर्थात् सब स्त्री पुरुष जानते और मानते हैं॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रभातवेला और दिन सदैव मिले हुए वर्त्तमान हैं, वैसे ही विवाहित स्त्री-पुरुष मेल से अपना वर्त्ताव रक्खें और जिस नियम के जो पदार्थ हों उस नियम से उनको पावें तब इनका प्रताप बढ़ता है॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उत्ते वय॑श्चिद्वस॒तेर॑पप्त॒न् नर॑श्च॒ ये पि॑तु॒भाजो॒ व्यु॑ष्टौ। अ॒मा स॒ते व॑हसि॒ भूरि॑ वा॒ममुषो॑ देवि दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य॥12॥ उत्। ते॒। वयः॑। चि॒त्। व॒स॒तेः। अ॒प॒प्त॒न्। नरः॑। च॒। ये। पि॒तु॒ऽभाजः॑। विऽउ॑ष्टौ। अ॒मा। स॒ते। व॒ह॒सि॒। भूरि॑। वा॒मम्। उषः॑। दे॒वि॒। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य॥12॥ पदार्थः—(उत्) (ते) तुभ्यम् (वयः) (चित्) अपि (वसतेः) निवासात् (अपप्तन्) पतन्ति (नरः) मनुष्याः (च) (ये) (पितुभाजः) अन्नस्य विभाजकाः (व्युष्टौ) विशिष्टे निवासे (अमा) समीपस्थगृहाय (सते) वर्त्तमानाय (वहसि) (भूरि) बहु (वामम्) प्रशस्यम् (उषः) उषर्वद्विद्याप्रकाशयुक्ते (देवि) दात्रि (दाशुषे) दात्रे (मर्त्याय) नराय पतये॥12॥ अन्वयः—हे नरो! ये पितुभाजो यूयं चिद् यथा वयो वसतेरुदपप्तन् तथा व्युष्टावमा सते भवत। हे उषर्वद्देवि स्त्रि! या त्वं च दाशुषे मर्त्यायामासते भूरि वामं वहसि तस्यै ते तुभ्यमेतत्पतिरपि वहतु॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण उपर्य्यधो गच्छन्ति तथोषा रात्रिदिनयोरुपर्य्यधो गच्छति, या स्त्री पत्युः प्रियाचरणं कुर्य्यात्तथैवं पतिरपि करोतु॥12॥ पदार्थः—हे (नरः) मनुष्यो! (ये) जो (पितुभाजः) अन्न का विभाग करनेवाले तुम लोग (चित्) भी जैसे (वयः) अवस्था को (वसतेः) वसीति से (उत्, अपप्तन्) उत्तमता के साथ प्राप्त होते, वैसे ही (व्युष्टौ) विशेष निवास में (अमा) समीप के घर वा (सते) वर्त्तमान व्यवहार के लिये होओ और हे (उषः) प्रातःसमय के प्रकाश के समान विद्याप्रकाशयुक्त (देवि) उत्तम व्यवहार की देनेवाली स्त्री! जो तू (च) भी (दाशुषे) देनेवाले (मर्त्याय) अपने पति के लिये तथा समीप के घर और वर्त्तमान व्यवहार के लिये (भूरि) बहुत (वामम्) प्रशंसनीय व्यवहार की (वहसि) प्राप्ति करती उस (ते) तेरे लिये उक्त व्यवहार की प्राप्ति तेरा पति भी करे॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पखेरू ऊपर नीचे जाते हैं, वैसे प्रातःसमय की वेला रात्रि और दिन के ऊपर और नीचे जाती है तथा जैसे स्त्री पति के प्रियाचरण को करे, वैसे ही पति भी स्त्री के प्यारे आचरण को करे॥12॥ पुनः कीदृश्यः स्त्रियो वरा भवेयुरित्याह॥ फिर कैसी स्त्री श्रेष्ठ हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अस्तो॑ढ्वं स्तोम्या॒ ब्रह्म॑णा॒ मेऽवी॑वृधध्वमुश॒तीरु॑षासः। यु॒ष्माकं॑ देवी॒रव॑सा सनेम सह॒स्रिणं॑ च श॒तिनं॑ च वाज॑म्॥13॥9॥ अस्तो॑ढ्वम्। स्तो॒म्याः॒। ब्रह्म॑णा। मे॒। अवी॑वृधध्वम्। उ॒श॒तीः। उ॒ष॒सः॒। यु॒ष्माक॑म्। दे॒वीः॒। अव॑सा। स॒ने॒म॒। स॒ह॒स्रिण॑म्। च॒। श॒तिन॑म्। च॒। वाज॑म्॥13॥ पदार्थः—(अस्तोढ्वम्) स्तुवत (स्तोम्याः) स्तोतुमर्हाः (ब्रह्मणा) वेदेन (मे) मह्यम् (अवीवृधध्वम्) वर्द्धयत (उशतीः) कामयमानाः (उषासः) प्रभाताः। अत्रान्येषामपीत्युपधादीर्घः। (युष्माकम्) (देवीः) दिव्यविद्यायुक्ताः (अवसा) रक्षणाद्येन (सनेम) अन्येभ्यो दद्याम। (सहस्रिणम्) सहस्रमसंख्याता गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (च) (शतिनम्) शतशो विद्यायुक्तम् (च) (वाजम्) विज्ञानमयं बोधम्॥13॥ अन्वयः—हे उषास! उषोभिस्तुल्या स्तोम्या देवीर्विदुष्यो ब्रह्मणा उशतीर्यूयं मे विद्या अस्तोढ्वमवीवृधध्वम्। युष्माकमवसा सहस्रिणं च शतिनं च वाजं साङ्गसरहस्यवेदादिशास्त्रबोधं सनेम॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषसः शुभगुणकर्मस्वभावाः सन्ति, तद्वत् स्त्रियो भवेयुस्तथाऽत्युत्तमा मनुष्या भवेयुः। यथान्यस्माद्विदुषः स्वप्रयोजनाय विद्या गृह्णीयुस्तथैव प्रीत्यान्येभ्योऽपि दद्युः॥13॥ अत्रोषसो दृष्टान्तेन स्त्रीणां गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति चतुर्विंशतत्युत्तरशततमं 124 सूक्तं नवमो 9 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (उषासः) प्रभात वेलाओं के तुल्य (स्तोम्याः) स्तुति करने योग्य (देवीः) दिव्य विद्यागुणवाली पण्डिताओ! (ब्रह्मणा) वेद से (उशतीः) कामना और कान्ति को प्राप्त होती हुई तुम (मे) मेरे लिये विद्याओं की (अस्तोढ्वम्) स्तुति प्रशंसा करो और (अवीवृधध्वम्) हम लोगों की उन्नति कराओ तथा (युष्माकम्) तुम्हारी (अवसा) रक्षा आदि से (सहस्रिणम्) जिसमें सहस्रों गुण विद्यमान (च) और जो (शतिनम्) सैकड़ो प्रकार की विद्याओं से युक्त (च) और (वाजम्) अङ्ग, उपाङ्ग, उपनिषदों सहित वेदादि शास्त्रों का बोध उसको दूसरों के लिये हम लोग (सनेम) देवें॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातर्वेला अच्छे गुण, कर्म और स्वभाववाली हैं, वैसी स्त्री हों और वैसे उत्तम गुण, कर्म वाले मनुष्य हों। जैसे अन्य विद्वान् से अपने प्रयोजन के लिये विद्या लेवें, वैसे ही प्रीति से औरों के लिये भी विद्या देवें॥13॥ इस सूक्त में प्रभात वेला के दृष्टान्त से स्त्रियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ चौबीसवां 124 सूक्त और नवां 9 वर्ग समाप्त हुआ॥

प्राता रत्नमिति पञ्चविंशत्युत्तरशततमस्य सप्तर्चस्य सूक्तस्य दैर्घतमसः कक्षीवान् ऋषिः। दम्पती देवते। 1,3,7 त्रिष्टुप् छन्दः। 2,6 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 4,5 जगती छन्दः। निषादः स्वरः॥ अथ कोऽत्र धन्यवादार्हो भूत्वाऽखिलसुखानि प्राप्नुयादित्याह॥ अब सात ऋचावाले एक सौ पच्चीसवें 125 सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार में कौन धन्यवाद के योग्य होकर सब सुखों को प्राप्त हो, इस विषय को कहते हैं॥ प्रा॒ता रत्नं॑ प्रात॒रित्वा॑ दधाति॒ तं चिकि॒त्वान् प्र॑ति॒गृह्या॒ नि ध॑त्ते। तेन॑ प्र॒जां व॒र्धय॑मान॒ आयू॑ रा॒यस्पोषे॑ण सचते सु॒वीरः॑॥1॥ प्रा॒तरिति॑। रत्न॑म्। प्रा॒तः॒ऽइत्वा॑। द॒धा॒ति॒। तम्। चि॒कि॒त्वान्। प्र॒ति॒ऽगृह्य॑। नि। ध॒त्ते॒। तेन॑। प्र॒ऽजाम्। वर्ध॒य॑मानः। आयुः॑। रा॒यः। पोषे॑ण। स॒च॒ते॒। सु॒ऽवीरः॑॥1॥ पदार्थः—(प्रातः) प्रभाते (रत्नम्) रम्यानन्दं वस्तु (प्रातरित्वा) यः प्रातरेव जागरणमेति सः। अत्र प्रातरूपपदादिण् धातोः क्वनिप्। (दधाति) (तम्) (चिकित्वान्) विज्ञानवान् (प्रतिगृह्य) दत्वा गृहीत्वा च। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नि) (धत्ते) नित्यं धरति (तेन) (प्रजाम्) पुत्रपौत्रादिकाम् (वर्द्धयमानः) विद्यासुशिक्षयोन्नयमानः (आयुः) जीवनम् (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सचते) समवैति (सुवीरः) शोभनश्चासौ वीरश्च सः॥1॥ अन्वयः—यश्चिकित्वान् प्रातरित्वा सुवीरो मनुष्यः प्राता रत्नं दधाति प्रतिगृह्य तं निधत्ते तेन रायस्पोषेण प्रजामायुश्च वर्द्धयमानः सचते स सततं सुखी भवति॥1॥ भावार्थः—य आलस्यं विहाय धर्म्येण व्यवहारेण धनं प्राप्य संरक्ष्य भुक्त्वा भोजयित्वा दत्वा गृहीत्वा च सततं प्रयतेत, स सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात्॥1॥ पदार्थः—जो (चिकित्वान्) विशेष ज्ञानवान् (प्रातरित्वा) प्रातःकाल में जागनेवाला (सुवीरः) सुन्दर वीर मनुष्य (प्रातः, रत्नम्) प्रभात समय में रमण करने योग्य आनन्दमय पदार्थ को (दधाति) धारण करता और (प्रतिगृह्य) दे लेकर फिर (तम्) उसको (नि, धत्ते) नित्य धारण वा (तेन) उस (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से (प्रजाम्) पुत्र-पौत्र आदि सन्तान और (आयुः) आयुर्दा को (वर्द्धयमानः) विद्या और उत्तम शिक्षा से बढ़ाता हुआ (सचते) उसका सम्बन्ध करता है, वह निरन्तर सुखी होता है॥1॥ भावार्थः—जो आलस्य को छोड़ धर्म सम्बन्धी व्यवहार से धन को पा उसकी रक्षा, उसका स्वयं भोग कर, दूसरों को भोग करा और दे-लेकर निरन्तर उत्तम यत्न करे, वह सब सुखों को प्राप्त होवे॥1॥ कोऽत्र धर्मात्मा यशस्वी जायत इत्याह॥ इस संसार में कौन धर्मात्मा और यशस्वी कीर्त्तिमान् होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सु॒गुर॑सत्सुहिर॒ण्यः स्वश्वो॑ बृ॒हद॑स्मै॒ वय॒ इन्द्रो॑ दधाति। यस्त्वा॒यन्तं॒ वसु॑ना प्रातरित्वो मु॒क्षीज॑येव॒ पदि॑मुत्सि॒नाति॑॥2॥ सु॒ऽगुः। अ॒स॒त्। सु॒ऽहि॒र॒ण्यः। सु॒ऽअश्वः॑। बृ॒हत्। अ॒स्मै॒। वयः॑। इन्द्रः॑। द॒धा॒ति॒। यः। त्वा॒। आ॒ऽयन्त॑म्। वसु॑ना। प्रा॒तः॒ऽइ॒त्वः॒। मु॒क्षीज॑याऽइव। पदि॑म्। उ॒त्ऽसि॒नाति॑॥2॥ पदार्थः—(सुगुः) शोभना गावो यस्य सः (असत्) भवेत् (सुहिरण्यः) शोभनानि हिरण्यानि यस्य सः (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (बृहत्) महत् (अस्मै) (वयः) चिरंजीवनम् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (दधाति) (यः) (त्वा) त्वाम् (आयन्तम्) आगच्छन्तम् (वसुना) उत्तमेन द्रव्येण सह (प्रातरित्वः) प्रातःकालमारभ्य प्रयत्नकर्त्तः (मुक्षीजयेव) मुक्ष्या मुञ्जाया जायते सा मुक्षीजा तयेव (पदिम्) पद्यते गम्यते या श्रीस्ताम् (उत्सिनाति) उत्कृष्टतया बध्नाति॥2॥ अन्वयः—हे प्रातरित्वो य इन्द्रो वसुना आयन्तं त्वा दधात्यस्मै बृहद्वयश्च मुक्षीजयेव पदिमुत्सिनाति स सुगुस्सुहिरण्यस्स्वश्वोऽसद्भवेत्॥2॥ भावार्थः—यो विद्वान् प्राप्तान् शिष्यान् सुशिक्षयाऽधर्मविषयलोलुपतात्यागोपदेशेन दीर्घायुषो विद्यावतः श्रीमतश्च करोति सोऽत्र पुण्यकीर्त्तिर्जायते॥2॥ पदार्थः—हे (प्रातरित्वः) प्रातःसमय से लेकर अच्छा यत्न करनेहारे (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यवान् पुरुष (वसुना) उत्तम धन के साथ (आयन्तम्) आते हुए (त्वा) तुझको (दधाति) धारण करता (अस्मै) इस कार्य के लिये (बृहत्) बहुत (वयः) चिरकाल तक जीवन और (मुक्षीजयेव) जो मूंज से उत्पन्न होती उससे जैसे बांधना बने जैसे साधन से (पदिम्) प्राप्त होते हुए धन को (उत्सिनाति) अत्यन्त बांधता अर्थात् सम्बन्ध करता, वह (सुगुः) सुन्दर गौंओं (सुहिरण्यः) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि धनों और (स्वश्वः) उत्तम-उत्तम घोड़ोंवाला (असत्) होवे॥2॥ भावार्थः—जो विद्वान् पाये हुए शिष्यों को उत्तम शिक्षा अर्थात् अधर्म और विषय भोग की चञ्चलता के त्याग आदि के उपदेश से बहुत आर्युदायुक्त विद्या और धनवाले करता है, वह इस संसार में उत्तम कीर्त्तिमान् होता है॥2॥ पुनरत्र स्त्रीपुरुषौ कीदृशौ भवेतामित्याह॥ फिर इस संसार में स्त्री और पुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आय॑म॒द्य सु॒कृतं॑ प्रा॒तरि॒च्छन्नि॒ष्टेः पु॒त्रं वसु॑मता॒ रथे॑न। अं॒शोः सु॒तं पा॑यय मत्स॒रस्य॑ क्ष॒यद्वी॑रं वर्धय सू॒नृता॑भिः॥3॥ आय॑म्। अ॒द्य। सु॒ऽकृत॑म्। प्रा॒तः। इ॒च्छन्। इ॒ष्टेः। पु॒त्रम्। वसु॑ऽमता। रथे॑न। अं॒शोः। सु॒तम्। पा॒य॒य॒। म॒त्स॒रस्य॑। क्ष॒यत्ऽवीर॑म्। व॒र्ध॒य॒। सू॒नृता॑भिः॥3॥ पदार्थः—(आयम्) आगच्छेयं प्राप्नुयाम् (अद्य) अस्मिन् दिने (सुकृतम्) धर्म्यं कर्म (प्रातः) प्रभाते (इच्छन्) (इष्टेः) इष्टस्य गृहाश्रमस्य स्थानात् (पुत्रम्) पवित्रं तनयम् (वसुमता) प्रशंसितधनयुक्तेन (रथेन) रमणीयेन यानेन (अंशोः) स्त्रीशरीरस्य भागात् (सुतम्) उत्पन्नम् (पायय) (मत्सरस्य) हर्षनिमित्तस्य (क्षयद्वीरम्) क्षयतां शत्रूहन्तॄणां मध्ये प्रशंसायुक्तम् (वर्द्धय) उन्नय (सूनृताभिः) विद्यासत्यभाषणादिशुभ-गुणयुक्ताभिर्वाणीभिः॥3॥ अन्वयः—हे धात्रि! अहमद्य वसुमता रथेन प्रातरिष्टेः सुकृतमिच्छन् यं पुत्रमायँस्तं सुतं मत्सरस्यांशो रसं पायय सूनृताभिः क्षयद्वीरं वर्द्धय॥3॥ भावार्थः—स्त्रीपुरुषौ पूर्णब्रह्मचर्य्येण विद्यां संगृह्य परस्परस्य प्रसन्नतया विवाहं कृत्वा धर्म्येण व्यवहारेण पुत्रादीनुत्पादयेताम्। तद्रक्षायै धार्मिकी धात्रीं समर्प्पयेतां सा चेमं सुशिक्षया सम्पन्नं कुर्यात्॥3॥ पदार्थः—हे धायि! मैं (अद्य) (वसुमता) प्रशंसित धनयुक्त (रथेन) मनोहर रमण करने योग्य रथ आदि यान से (प्रातः) प्रभात समय (इष्टेः) चाहे हुए गृहाश्रम के स्थान से (सुकृतम्) धर्मयुक्त काम की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ जिस (पुत्रम्) पवित्र बालक को (आयम्) पाऊं उस (सुतम्) उत्पन्न हुए पुत्र को (मत्सरस्य) आनन्द करानेवाला जो (अंशोः) स्त्री का शरीर उसके भाग से जो रस अर्थात् दूध उत्पन्न होता, उस दूध को (पायय) पिला। हे वीर! (सूनृताभिः) विद्या, सत्यभाषण आदि शुभगुणयुक्त वाणियों से (क्षयद्वीरम्) शत्रुओं का क्षय करनेवालों में प्रशंसित वीर पुरुष की (वर्द्धय) उन्नति कर॥3॥ भावार्थः—स्त्री-पुरुष पूरे ब्रह्मचर्य से विद्या का संग्रह और एक-दूसरे की प्रसन्नता से विवाह कर धर्मयुक्त व्यवहार से पुत्र आदि सन्तानों को उत्पन्न करें और उनकी रक्षा कराने के लिये धर्मवती धायि को देवें और वह इस सन्तान को उत्तम शिक्षा से युक्त करे॥3॥ पुनः स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह॥ फिर स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उप॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वो मयो॒भुव॑ ईजा॒नं च॑ य॒क्ष्यमा॑णं च धे॒नवः॑। पृ॒णन्तं॑ च॒ पपु॑रिं च श्रव॒स्यवो॑ घृ॒तस्य॒ धारा॒ उप॑ यन्ति वि॒श्वतः॑॥4॥ उप॑। क्ष॒र॒न्ति॒। सिन्ध॑वः। म॒यः॒ऽभुवः॑। ई॒जा॒नम्। च॒। य॒क्ष्यमा॑णम्। च॒। धे॒नवः॑। पृ॒णन्त॑म्। च॒। पपु॑रिम्। च॒। श्र॒व॒स्यवः॑। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। उप॑। य॒न्ति॒। वि॒श्वतः॑॥4॥ पदार्थः—(उप) (क्षरन्ति) वर्षन्तु (सिन्धवः) नदा इव (मयोभुवः) सुखं भावुकाः (ईजानम्) यज्ञं कुर्वन्तम् (च) (यक्ष्यमाणम्) यज्ञं करिष्यमाणम् (च) (धेनवः) पयःप्रदा गाव इव (पृणन्तम्) पुष्यन्तम् (च) (पपुरिम्) पुष्टम् (च) (श्रवस्यवः) स्वयं श्रोतुमिच्छवः (घृतस्य) जलस्य (धाराः) (उप) (यन्ति) (विश्वतः) सर्वतः॥4॥ अन्वयः—ये सिन्धव इव मयोभुवा जना धेनव इव पत्न्यो धात्र्यो वा ईजानं यक्ष्यमाणं चोपक्षरन्ति। ये श्रवस्यवो विद्वांसो विदुष्यश्च पृणन्तं पपुरिं च शिक्षन्ते ते विश्वतो घृतस्य धारा इव सुखान्युपयन्ति प्राप्नुवन्ति॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषाः स्त्रियश्च गृहाश्रमे परस्परस्य प्रियाचरणं कृत्वा विद्या अभ्यस्य सन्तानानभ्यासयन्ति ते सततं सुखान्यश्नुवते॥4॥ पदार्थः—जो (सिन्धवः) बड़े नदों के समान (मयोभुवः) सुख की भावना करानेवाले मनुष्य और (धेनवः) दूध देनेहारी गौओं के समान विवाही हुई स्त्री वा धायी (ईजानम्) यज्ञ करते (च) और (यक्ष्यमाणम्) यज्ञ करनेवाले पुरुष के (उप, क्षरन्ति) समीप आनन्द वर्षावें वा जो (श्रवस्यवः) आप सुनने की इच्छा करते हुए विद्वान् (च) और विदुषी स्त्री (पृणन्तम्) पुष्ट होते (च) और (पपुरिम्) पुष्ट हुए (च) भी पुरुष को शिक्षा देते हैं, वे (विश्वतः) सब ओर से (घृतस्य) जल की (धाराः) धाराओं के समान सुखों को (उप, यन्ति) प्राप्त होते हैं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष और स्त्री गृहाश्रम में एक-दूसरे के प्रिय आचरण और विद्याओं का अभ्यास करके सन्तानों को अभ्यास कराते हैं, वे निरन्तर सुखों को प्राप्त होते हैं॥4॥ मनुष्यैः कैः कर्मभिरत्र मोक्ष आप्तव्य इत्याह॥ इस संसार में मनुष्यों को किन कामों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ नाक॑स्य पृ॒ष्ठे अधि॑ तिष्ठति श्रि॒तो यः पृ॒णाति॒ स ह॑ दे॒वेषु॑ गच्छति। तस्मा॒ आपो॑ घृ॒तम॑र्षन्ति॒ सिन्ध॑व॒स्तस्मा॑ इ॒यं दक्षि॑णा पिन्वते॒ सदा॑॥5॥ नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। अधि॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। श्रि॒तः। यः। पृ॒णाति॑। सः। ह॒। दे॒वेषु॑। ग॒च्छ॒ति॒। तस्मै॑। आपः॑। घृ॒तम्। अ॒र्ष॒न्ति॒। सिन्ध॑वः। तस्मै॑। इ॒यम्। दक्षि॑णा। पि॒न्व॒ते॒। सदा॑॥5॥ पदार्थः—(नाकस्य) अविद्यमानदुःखस्यानन्दस्य (पृष्ठे) आधारे (अधि) उपरिभावे (तिष्ठति) (श्रितः) विद्यामाश्रितः (यः) (पृणाति) विद्यासुशिक्षासंस्कृताऽन्नाद्यैः स्वयं पुष्यति सन्तानान् पोषयति च (सः) (ह) किल (देवेषु) दिव्येषु गुणेषु विद्वत्सु वा (गच्छति) (तस्मै) (आपः) प्राणा जलानि वा (घृतम्) आज्यम् (अर्षन्ति) वर्षन्ति (सिन्धवः) नद्यः (तस्मै) (इयम्) अध्यापनजन्या (दक्षिणा) (पिन्वते) प्रीणाति (सदा)॥5॥ अन्वयः—यो मनुष्यो देवेषु गच्छति स ह विद्यामाश्रितः सन् नाकस्य पृष्ठेऽधि तिष्ठति सर्वान् पृणाति तस्मा आपः सदा घृतमर्षन्ति तस्मा इयं दक्षिणा सिन्धवः सदा पिन्वते॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या नरदेहमाश्रित्य सत्पुरुषसंगं धर्म्याऽचारं च सदा कुर्वन्ति, ते सदैव सुखिनो भवन्ति। ये विद्वांसो या विदुष्यो बालकान् यूनो वृद्धांश्च कन्या युवतिर्वृद्धाश्च निष्कपटतया विद्यासुशिक्षे सततं प्रापयन्ति, तेऽत्राखिलं सुखं प्राप्य मोक्षमधिगच्छन्ति॥5॥ पदार्थः—(यः) जो मनुष्य (देवेषु) दिव्यगुण वा उत्तम विद्वानों में (गच्छति) जाता है (सः, ह) वही विद्या के (श्रितः) आश्रय को प्राप्त हुआ (नाकस्य) जिसमें किञ्चित् दुःख नहीं उस उत्तम सुख के (पृष्ठे) आधार पर (अधि, तिष्ठति) स्थिर होता वा (पृणाति) विद्या उत्तम शिक्षा और अच्छे बनाए हुए अन्न आदि पदार्थों से आप पुष्ट होता और सन्तान को पुष्ट करता है (तस्मै) उसके लिये (आपः) प्राण वा जल (सदा) सब कभी (घृतम्) घी (अर्षन्ति) वर्षाते तथा (तस्मै) उसके लिये (इयम्) यह पढ़ाने से मिली हुई (दक्षिणा) दक्षिणा और (सिन्धवः) नदी, नद (सदा) सब कभी (पिन्वते) प्रसन्नता करते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस मनुष्य देह का आश्रय कर सत्पुरुषों का सङ्ग और धर्म के अनुकूल आचरण को सदा करते वे सदैव सुखी होते हैं। जो विद्वान् व जो विदुषी पण्डिता स्त्री, बालक, जवान और बुड्ढे मनुष्यों तथा कन्या, युवति और बुड्ढी स्त्रियों को निष्कपटता से विद्या और उत्तम शिक्षा को निरन्तर प्राप्त कराते, वे इस संसार में समग्र सुख को प्राप्त होकर अन्तकाल में मोक्ष को अधिगत होते अर्थात् अधिकता से प्राप्त होते हैं॥5॥ पुनश्चतुर्वर्णस्थाः किं कुर्युरित्याह॥ फिर चारों वर्णों में स्थिर होनेवाले मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दक्षि॑णावता॒मिदि॒मानि॑ चि॒त्रा दक्षि॑णावतां दि॒वि सूर्या॑सः। दक्षि॑णावन्तो अ॒मृतं॑ भजन्ते॒ दक्षि॑णावन्तः॒ प्र ति॑रन्त॒ आयुः॑॥6॥ दक्षि॑णाऽवताम्। इत्। इ॒मानि॑। चि॒त्रा। दक्षि॑णाऽवताम्। दि॒वि। सूर्या॑सः। दक्षि॑णाऽवन्तः। अ॒मृत॑म्। भ॒ज॒न्ते॒। दक्षि॑णाऽवन्तः। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥6॥ पदार्थः—(दक्षिणावताम्) धर्मोपार्जिता धनविद्यादयो बहवः पदार्था विद्यन्ते येषां तेषाम् (इत्) एव (इमानि) प्रत्यक्षाणि (चित्रा) चित्राण्यद्भुतानि (दक्षिणावताम्) प्रशंसितयोर्धर्म्यधनविद्ययोर्दक्षिणा दानं येषां तेषाम्। प्रशंसायां मतुप्। (दिवि) दिव्ये प्रकाशे (सूर्यासः) सवितार इव तेजस्विनो जनाः (दक्षिणावन्तः) बहुविद्यादानयुक्ताः (अमृतम्) मोक्षम् (भजन्ते) (दक्षिणावन्तः) बह्वभयदानदातारः (प्र) (तिरन्ते) संतरन्ति (आयुः) प्राणधारणम्॥6॥ अन्वयः—दक्षिणावतां जनानामिमानि चित्राऽद्भुतानि सुखानि दक्षिणावतां दिवि सूर्य्यासः प्राप्नुवन्ति दक्षिणावन्त इदेवामृतं भजन्ते दक्षिणावन्त आयुः प्रतिरन्ते प्राप्नुवन्ते॥6॥ भावार्थः—ये ब्राह्मणाः सार्वजनिकसुखाय विद्यासुशिक्षादानं, ये च क्षत्रिया न्यायेन व्यवहारेणाभयदानम्, ये वैश्या धर्मोपार्जितधनस्य दानम्, ये च शूद्राः सेवादानं च कुर्वन्ति ते पूर्णायुषो भूत्वेहामुत्रानन्दं सततं भुञ्जते॥6॥ पदार्थः—(दक्षिणावताम्) जिनके धर्म से इकट्ठे किये धन, विद्या आदि बहुत पदार्थ विद्यमान हैं, उन मनुष्यों को (इमानि) ये प्रत्यक्ष (चित्रा) चित्र-विचित्र अद्भुत सुख (दक्षिणावताम्) जिनके प्रशंसित धर्म के अनुकूल धन और विद्या की दक्षिणा का दान होता उन सज्जनों को (दिवि) उत्तम प्रकाश में (सूर्य्यासः) सूर्य्य के समान तेजस्वी जन प्राप्त होते हैं (दक्षिणावन्तः) बहुत विद्या-दानयुक्त सत्पुरुष (इत्) ही (अमृतम्) मोक्ष का (भजन्ते) सेवन करते और (दक्षिणावन्तः) बहुत प्रकार का अभय देनेहारे जन (आयुः) आयु के (प्रतिरन्ते) अच्छे प्रकार पार पहुंचे अर्थात् पूरी आयु भोगते हैं॥6॥ भावार्थः—जो ब्राह्मण सब मनुष्यों के सुख के लिये विद्या और उत्तम शिक्षा का दान, वा जो क्षत्रिय न्याय के अनुकूल व्यवहार से प्रजा जनों को अभयदान, वा जो वैश्य धर्म से इकट्ठे किये हुए धन का दान और जो शूद्र सेवा दान करते हैं, वे पूर्ण आयुवाले होकर इस जन्म और दूसरे जन्म में निरन्तर आनन्द को भोगते हैं॥6॥ इह संसारे कतिविधाः पुरुषा भवन्तीत्याह॥ इस संसार में कितने प्रकार के पुरुष होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ मा पृ॒णन्तो॒ दुरि॑त॒मेन॒ आर॒न्मा जा॑रिषुः सू॒रयः॑ सुव्र॒तासः॑। अ॒न्यस्तेषां॑ परि॒धिर॑स्तु॒ कश्चि॒दपृ॑णन्तम॒भि सं य॑न्तु॒ शोकाः॑॥7॥10॥ मा। पृ॒णन्तः॑। दुःऽइ॑तम्। एनः॑। आ। अ॒र॒न्। मा। जा॒रि॒षुः॒। सू॒रयः॑। सु॒ऽव्र॒तासः॑। अ॒न्यः। तेषा॑म्। प॒रि॒ऽधिः। अ॒स्तु॒। कः। चि॒त्। अपृ॑णन्तम्। अ॒भि। सम्। य॒न्तु॒। शोकाः॑॥7॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (पृणन्तः) स्वं स्वकीयांश्च पुष्यन्तः (दुरितम्) दुःखायेतं प्राप्तम् (एनः) पापाचरणम् (आ) समन्तात् (अरन्) आचरन्तु (मा) (जारिषुः) जारकर्माणि कुर्वन्तु (सूरयः) विद्वांसः (सुव्रतासः) शोभनानि व्रतानि सत्याचरणानि येषान्ते (अन्यः) भिन्नः (तेषाम्) धार्मिकाणां विदुषामधार्मिकाणां मूर्खाणां च (परिधिः) आवरणं मर्य्यादा (अस्तु) (कः) (चित्) अपि (अपृणन्तम्) धर्मेणापुष्यन्तमन्यानपोषयन्तम् (अभि) सर्वतः (सम्) सम्यक् (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (शोकाः) विलापाः॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! भवन्तः पृणन्तः सन्तो दुरितमेनो माऽरन् दुरितमेनो मा जारिषुः, किन्तु सुव्रतासः सूरयः सन्तो धर्ममेवाचरन्तु ये च युष्मदध्यापकास्तेषां युष्माकं च कश्चिदन्यः परिधिरस्तु। अपृणन्तं जनं शोका अभिसंयन्तु॥7॥ भावार्थः—अस्मिन् जगति द्विविधा जनाः सन्ति। एके धार्मिका अपरे पापाश्च, ते प्रभिन्नप्रस्थानास्सन्ति। ये धार्मिकास्ते धार्मिकस्याऽनुकरणेनैव धर्ममार्गे चलन्ति। ये च दुष्टास्ते त्वधार्मिकानुकरणेनैवाधर्मे चलन्ति। नैव कदाचिद् धार्मिकैरधार्मिकमार्गे गन्तव्यमधार्मिकैस्तु धार्मिकमार्गे गन्तुं योग्यमेवं प्रत्येकजातौ धार्मिकाधार्मिकयोर्द्वौ मार्गौ स्तः, तत्र धार्मिकान् सुखान्यधार्मिकान् दुःखानि च सदाप्नुवन्ति॥7॥ अस्मिन् सूक्ते धर्म्याचरणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति पञ्चविंशोत्तरशततमं 125 सूक्तं दशमो 10 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! आप लोग (पृणन्तः) स्वयं वा अपने सन्तान आदि को पुष्ट करते हुए (दुरितम्) दुःख के लिये जो प्राप्त होता अर्थात् (एनः) पाप का आचरण (मा, आ, अरन्) मत करो और दुःख के लिये प्राप्त होनेवाला पापाचरण जैसे हो वैसे (मा, जारिषुः) खोटे कामों को मत करो, किन्तु (सुव्रतासः) उत्तम सत्य आचरणवाले (सूरयः) विद्वान् होते हुए धर्म ही का आचरण करो और जो तुम्हारे अध्यापक हों (तेषाम्) उन धार्मिक विद्वानों तथा तुम लोगों के बीच (कश्चित्) कोई (अन्यः) भिन्न (परिधिः) मर्य्यादा अर्थात् तुम सभी को ढांपने, गुप्त राखने, मूर्खपन से बचानेवाला प्रकार (अस्तु) हो और (अपृणन्तम्) धर्म से न पुष्ट होने न दूसरों को पुष्ट करनेवाले किन्तु अधर्म से पुष्ट होने तथा अधर्म ही से औरों को पुष्ट करनेवाले मनुष्य को (शोकाः) शोक विलाप (अभि, सम्, यन्तु) सब ओर से प्राप्त हों॥7॥ भावार्थः—इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं- एक धार्मिक और दूसरे पापी। ये दोनों अच्छे प्रकार अलग-अलग स्थान और आचरणवाले हैं अर्थात् जो धार्मिक हैं वे धर्मात्माओं के अनुकरण ही से धर्म मार्ग में चलते और जो दुष्ट आचरण करनेवाले पापी हैं, वे अधर्मी दुष्ट जनों के आचरण ही से अधर्म में चलते हैं। कभी किन्हीं धर्मात्माओं को अधर्मी दुष्टजनों के मार्ग में नहीं चलना चाहिये और अधर्मी दुष्टों को अपनी दुष्टता छोड़ धार्मिकों के मार्ग में चलना योग्य है। इस प्रकार प्रत्येक जाति के पीछे धार्मिक और अधार्मिकों के दो मार्ग हैं, उनमें धर्म करनेवालों को सुख और अधर्मी दुष्टों को दुःख सदा प्राप्त होते हैं॥7॥ इस सूक्त में धर्म के अनुकूल आचरण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ पच्चीसवां 125 सूक्त और दशवाँ 10 वर्ग समाप्त हुआ॥

अमन्दानित्यस्य सप्तर्चस्य षड्विंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्य 1-5 कक्षीवान्। 6 भावयव्यः। 7 रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः। विद्वांसो देवताः। 1-2, 4-5 निचृत् त्रिष्टुप्। 3 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 6,7 अनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥ कोऽत्र राज्याधिकारे न स्थापनीय इत्याह॥ अब सात ऋचावाले एक सौ छब्बीसवें 126 सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार के राज्य के अधिकार में कौन न स्थापन करने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अम॑न्दा॒न् स्तोमा॒न् प्र भ॑रे मनी॒षा सिन्धा॒वधि॑ क्षिय॒तो भा॒व्यस्य॑। यो मे॑ स॒हस्र॒ममि॑मीत स॒वान॒तूर्तो॒ राजा॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः॥1॥ अम॑न्दान्। स्तोमा॑न्। प्र। भ॒रे॒। म॒नी॒षा। सिन्धौ॑। अधि॑। क्षि॒य॒तः। भा॒व्यस्य॑। यः। मे॒। स॒हस्र॑म्। अमि॑मीत। स॒वान्। अ॒तूर्तः॑। राजा॑। श्रवः॑। इ॒च्छमा॑नः॥1॥ पदार्थः—(अमन्दान्) मन्दभावरहितान् तीव्रान् (स्तोमान्) स्तोतुमर्हान् विद्याविशेषान् (प्र) (भरे) धरे (मनीषा) बुद्ध्या (सिन्धौ) नद्याः समीपे (अधि) स्वीयचित्ते (क्षियतः) निवसतः (भाव्यस्य) भवितुं योग्यस्य (यः) (मे) मम (सहस्रम्) (अमिमीत) निमिमीते (सवान्) ऐश्वर्ययोग्यान् (अतूर्त्तः) अहिंसितः (राजा) (श्रवः) श्रवणम् (इच्छमानः) व्यत्ययेनात्नात्मनेपदम्॥1॥ अन्वयः—योऽतूर्त्तः श्रव इच्छमानो राजा सिन्धौ क्षियतो भाव्यस्य मे सकाशात् सहस्रं सवानमन्दान् स्तोमांश्च मनीषाऽमिमीत तमहमधिप्रभरे॥1॥ भावार्थः—यावदाप्तस्य विदुष आज्ञया पुरुषार्थी विद्वान् नरो न भवेत्, तावत्तस्य राज्याधिकारे स्थापनं न कुर्यात्॥1॥ पदार्थः—(यः) जो (अतूर्त्तः) हिंसा आदि के दुःख को न प्राप्त और (श्रवः) उत्तम उपदेश सुनने की (इच्छमानः) इच्छा करता हुआ (राजा) प्रकाशमान सभाध्यक्ष (सिन्धौ) नदी के समीप (क्षियतः) निरन्तर वसते हुए (भाव्यस्य) प्रसिद्ध होने योग्य (मे) मेरे निकट (सहस्रम्) हजारों (सवान्) ऐश्वर्य योग्य (अमन्दान्) मन्दपनरहित तीव्र और (स्तोमान्) प्रशंसा करने योग्य विद्यासम्बन्धी विशेष ज्ञानों का (मनीषा) बुद्धि से (अमिमीत) निरन्तर मान करता उसको मैं (अधि) अपने मन के बीच (प्र, भरे) अच्छे प्रकार धारण करूं॥1॥ भावार्थः—जब तक सकल शास्त्र जाननेहारे विद्वान् की आज्ञा से पुरुषार्थी विद्वान् न हो, तब तक उसका राज्य के अधिकार में स्थापन न करे॥1॥ केऽत्र यशो विस्तारयन्तीत्याह॥ कौन इस संसार में यश का विस्तार करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ श॒तं राज्ञो॒ नाध॑मानस्य नि॒ष्काञ्छ॒तमश्वा॒न् प्रय॑तान्त्स॒द्य आद॑म्। श॒तं क॒क्षीवाँ॒ असु॑रस्य॒ गोनां॑ दि॒वि श्र॒वोऽजर॒मा त॑तान॥2॥ श॒तम्। राज्ञः॑। नाध॑मानस्य। नि॒ष्कान्। श॒तम्। अश्वा॑न्। प्रऽय॑तान्। स॒द्यः। आद॑म्। श॒तम्। क॒क्षीवा॑न्। असु॑रस्य। गोना॑म्। दि॒वि। श्रवः॑। अ॒जर॑म्। आ। त॒ता॒न॒॥2॥ पदार्थः—(शतम्) (राज्ञः) (नाधमानस्य) प्राप्तैश्वर्यस्य (निष्कान्) सौवर्णान् (शतम्) (अश्वान्) तुरङ्गान् (प्रयतान्) सुशिक्षितान् (सद्यः) (आदम्) आददामि (शतम्) (कक्षीवान्) बह्व्यः कक्षयः विद्याप्रदेशा विदिताः सन्ति यस्य सः (असुरस्य) मेघस्य (गोनाम्) किरणानाम् (दिवि) आकाशे (श्रवः) श्रूयमाणं यशः (अजरम्) वयोनाशहीनम् (आ) (ततान) विस्तृणाति॥2॥ अन्वयः—यः कक्षीवान् विद्वानसुरस्येव नाधमानस्य राज्ञः शतं निष्कान् प्रयतान् शतमश्वान् दिव्यजरं गोनां शतमिव श्रव आततान तमहं सद्य आदम्॥2॥ भावार्थः—ये न्यायकारिणो विदुषो राज्ञः सकाशात् सत्कारं प्राप्नुवन्ति, ते यशो वितन्वते॥2॥ पदार्थः—जो (कक्षीवान्) विद्या के बहुत व्यवहारों को जानता हुआ विद्वान् (असुरस्य) मेघ के समान उत्तम गुणी (नाधमानस्य) ऐश्वर्यवान् (राज्ञः) राजा के (शतम्) सौ (निष्कान्) निष्क सुवर्णों (प्रयतान्) अच्छे सिखाये हुए (शतम्) सौ (अश्वान्) घोड़ों और (दिवि) आकाश में (अजरम्) अविनाशी (गोनाम्, शतम्) सूर्यमण्डल की सैकड़ो किरणों के समान (श्रवः) श्रूयमाण यश को (आ, ततान) विस्तारता है, उसको मैं (सद्यः) शीघ्र (आदम्) स्वीकार करता हूँ॥2॥ भावार्थः—जो न्यायकारी विद्वान् राजा के समीप से सत्कार को प्राप्त होते, वे यश का विस्तार करते हैं॥2॥ पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह॥ फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ उप॑ मा श्या॒वाः स्व॒नये॑न द॒त्ता व॒धूम॑न्तो॒ दश॒ रथा॑सो अस्थुः। ष॒ष्टिः स॒हस्र॒मनु॒ गव्य॒मागा॒त् सन॑त्क॒क्षीवाँ॑ अभिपि॒त्वे अह्ना॑म्॥3॥ उप॑। मा॒। श्या॒वाः। स्व॒नये॑न। द॒त्ताः। व॒धूऽम॑न्तः। दश॑। रथा॑सः। अ॒स्थुः॒। ष॒ष्टिः। स॒हस्र॑म्। अनु॑। गव्य॑म्। आ। अ॒गा॒त्। सन॑त्। क॒क्षीवा॑न्। अ॒भि॒ऽपि॒त्वे। अह्ना॑म्॥3॥ पदार्थः—(उप) (मा) माम् (श्यावाः) सवितुः किरणाः (स्वनयेन) स्वस्य नयनं यस्य दातुस्तेन (दत्ताः) (वधूमन्तः) प्रशस्ता वध्वः स्त्रियो विद्यन्ते येषु ते (दश) एतत्संख्याकाः (रथासः) यानानि (अस्थुः) तिष्ठन्ति (षष्टिः) (सहस्रम्) (अनु) (गव्यम्) गवां भावम् (आ) (अगात्) गच्छेत् (सनत्) सदा (कक्षीवान्) युद्धे प्रशस्तकक्षः (अभिपित्वे) सर्वतः प्राप्तौ (अह्नाम्) दिनानाम्॥3॥ अन्वयः—येन स्वनयेन दात्रा सवितुः श्यावा इव दत्ता दशरथासो वधूमन्तो मा मां सेनापतिमुपास्थुः। यः कक्षीवानभिपित्वेऽह्नां सहस्रं गव्यमन्वागाद् यस्य षष्टिः पुरुषा अनुगच्छन्ति स सनत् सुखवर्द्धकोऽस्ति॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यतः सर्वे योद्धारो राज्ञः सकाशाद्धनादिकं प्राप्तुमिच्छन्ति तस्माद्राज्ञा तेभ्यो यथायोग्यं देयमेवं विनोत्साहो न जायते॥3॥ पदार्थः—जिस (स्वनयेन) अपने धन आदि पदार्थ के पहुंचाने अर्थात् देनेवाले ने (श्यावाः) सूर्य की किरणों के समान (दत्ताः) दिये हुए (दश) दश (रथासः) रथ (वधूमन्तः) जिनमें प्रशंसित बहुएं विद्यमान वे (मा) मुझ सेनापति के (उपास्थुः) समीप स्थित होते तथा जो (कक्षीवान्) युद्ध में प्रशंसित कक्षावाला अर्थात् जिसके और अच्छे वीर योद्धा हैं, वह (अभिपित्वे) सब ओर से प्राप्ति के निमित्त (अह्नाम्, सहस्रम्) हजार दिन (गव्यम्) गौओं के दुग्ध आदि पदार्थ को (अन्वागात्) प्राप्त होता और जिसके (षष्टिः) साठ पुरुष पीछे चलते वह (सनत्) सदा सुख का बढ़ानेवाला है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस कारण सब योद्धा राजा के समीप से धन आदि पदार्थ की प्राप्ति चाहते हैं, इससे राजा को उनके लिये यथायोग्य धन आदि पदार्थ देना योग्य है, ऐसे विना किये उत्साह नहीं होता॥3॥ केऽत्र चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुमर्हन्तीत्याह॥ इस संसार में कौन चक्रवर्त्ति राज्य करने को योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ च॒त्वा॒रिं॒शद्दश॑रथस्य॒ शोणाः॑ स॒हस्र॒स्याग्रे॒ श्रेणिं॑ नयन्ति। म॒द॒च्युतः॑ कृश॒नाव॑तो॒ अत्या॑न् क॒क्षीव॑न्त॒ उद॑मृक्षन्त प॒ज्राः॥4॥ च॒त्वा॒रिं॒शत्। दश॑ऽरथस्य। शोणाः॑। स॒हस्र॑स्य। अग्रे॑। श्रेणि॑म्। न॒य॒न्ति॒। म॒द॒ऽच्युतः॑। कृ॒श॒नऽव॑तः। अत्या॑न्। क॒क्षीव॑न्तः। उत्। अ॒मृ॒क्ष॒न्त॒। प॒ज्राः॥4॥ पदार्थः—(चत्वारिंशत्) (दशरथस्य) दश रथा यस्य सेनेशस्य (शोणाः) रक्तगुणविशिष्टा अश्वाः (सहस्रस्य) (अग्रे) पुरतः (श्रेणिम्) पङ्क्तिम् (नयन्ति) (मदच्युतः) ये मदान् च्यवन्ते ते (कृशनावतः) कृशनं बहु सुवर्णादेर्भूषणं विद्यते येषान्ते (अत्यान्) येऽतन्ति मार्गान् व्याप्नुवन्ति तान् (कक्षीवन्तः) प्रशस्ता कक्षयो विद्यन्ते येषान्ते (उत्) (अमृक्षन्त) मृषन्ति सहन्ते (पज्राः) पद्यते गच्छति मार्गान् यैस्ते। अत्र वर्णव्यत्ययेन दस्य जः॥4॥ अन्वयः—यस्य दशरथस्य चत्वारिंशच्छोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति। यस्य वा पज्राः कक्षीवन्तो भृत्या मदच्युतः कृशनावतोऽत्यानुदमृक्षन्त स शत्रून् जेतुमर्हति॥4॥ भावार्थः—येषां चतुरश्वयुक्ता दशसु दिक्षु रथाः सहस्राण्याश्विका लक्षाणि पदातयोऽक्षयः कोशाः पूर्णा विद्याविनयाः सन्ति, त एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हन्ति॥4॥ पदार्थः—जिस (दशरथस्य) दशरथों से युक्त सेनापति के (चत्वारिंशत्) चालीस (शोणाः) लाल घोड़े (सहस्रस्य) सहस्र योद्धा वा सहस्र रथों के (अग्रे) आगे (श्रेणिम्) अपनी पाँति (पङ्क्ति) को (नयन्ति) पहुंचाते अर्थात् एक साथ होकर आगे चलते वा जिस सेनापति के भृत्य ऐसे हैं (पज्राः) कि जिनके साथ मार्गों को जाते और (कक्षीवन्तः) जिनकी प्रशंसित कक्षा विद्यमान अर्थात् जिनके साथी छटे हुए वीर लड़नेवाले हैं वे (मदच्युतः) जो मद को चुआते उन (कृशनावतः) सुवर्ण आदि के गहने पहिने हुए तथा (अत्यान्) जिनसे मार्गों को रमते पहुंचते उन घोड़ा हाथी, रथ आदि को (उदमृक्षन्त) उत्कर्षता से सहते हैं, वह शत्रुओं के जीतने को योग्य होता है॥4॥ भावार्थः—जिनके चार घोड़ा युक्त दशों दिशाओं में रथ, सहस्रों अश्ववार (असवार,) लाखों पैदल जानेवाले, अत्यन्त पूर्ण कोश धन और पूर्ण विद्या, विनय, नम्रता आदि गुण हैं, वे ही चक्रवर्त्ति राज्य करने को योग्य हैं॥4॥ केऽत्रोत्तमा भवन्तीत्याह॥ कौन मनुष्य इस जगत् में उत्तम होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑ति॒मा द॑दे व॒स्त्रीन् यु॒क्ताँ अ॒ष्टाव॒रिधा॑यसो॒ गाः। सु॒बन्ध॑वो॒ ये वि॒श्या॑इव॒ व्रा अन॑स्वन्तः॒ श्रव॒ ऐष॑न्त प॒ज्राः॥5॥ पूर्वा॑म्। अनु॑। प्रऽय॑तिम्। आ। द॒दे॒। वः॒। त्रीन्। यु॒क्तान्। अ॒ष्टौ। अ॒रिऽधा॑यसः। गाः। सु॒ऽबन्ध॑वः। ये। वि॒श्याः॑ऽइव। व्राः। अन॑स्वन्तः। श्रवः॑। ऐष॑न्त। प॒ज्राः॥5॥ पदार्थः—(पूर्वाम्) आदिमाम् (अनु) आनूकूल्ये (प्रयतिम्) प्रयतन्ते यया ताम् (आ) (ददे) गृह्णामि (वः) युष्माकम् (त्रीन्) (युक्तान्) नियुक्तान् (अष्टौ) (अरिधायसः) अरीन् शत्रून् दधाति यैस्ते (गाः) वृषभान् (सुबन्धवः) शोभना बन्धवो येषान्ते (ये) (विश्याइव) यथा विक्षु प्रजासु साधवो वणिग्जनाः (व्राः) ये व्रजन्ति ते। अत्र व्रजधातोर्बाहुलकादौणादिको डः प्रत्ययः। व्रा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) (अनस्वन्तः) बहून्यनांसि शकटानि विद्यन्ते येषान्ते (श्रवः) अन्नम् (ऐषन्त) इच्छेयुः (पज्राः) प्रपन्नाः॥5॥ अन्वयः—ये सुबन्धवोऽनस्वन्तो व्राः पज्रा विश्याइव श्रव ऐषन्त तान् वस्त्रीन् युक्तानध्यक्षान् अष्टौ सभ्यानरिधायसो वीरान् गाश्चैषां पूर्वां प्रयतिमहमन्वाददे॥5॥ भावार्थः—ये जनाः सभासेनाशालाऽध्यक्षान् कुशलानष्टौ सभासदः शत्रुविनाशकान् वीरान् गवादीन् पशून् मित्राणि धनाढ्यान् वणिग्जनान् कृषीवलाँश्च संरक्ष्यान्नाद्यैश्वर्य्यमुन्नयन्ति ते मनुष्यशिरोमणयः सन्ति॥5॥ पदार्थः—(ये) जो ऐसे हैं कि (सुबन्धवः) जिनके उत्तम बन्धुजन (अनस्वन्तः) और बहुत लढ़ा छकड़ा विद्यमान (व्राः) तथा जो गमन करनेवाले और (पज्राः) दूसरों को प्राप्त वे (विश्याइव) प्रजाजनों में उत्तम वणिक् जनों के समान (श्रवः) अन्न को (ऐषन्त) चाहें उन (वः) तुम्हारे (त्रीन्) तीन (युक्तान्) आज्ञा दिये और अधिकार पाये भृत्यों (अष्टौ) आठ सभासदों (अरिधायसः) जिनसे शत्रुओं को धारण करते समझते, उन वीरों और (गाः) बैल आदि पशुओं को तथा इन सभी की (पूर्वाम्) पहली (प्रयतिम्) उत्तम यत्न की रीति को मैं (अनु, आ, ददे) अनुकूलता से ग्रहण करता हूँ॥5॥ भावार्थः—जो जन सभा, सेना और शाला के अधिकारी, कुशल चतुर आठ सभासदों, शत्रुओं का विनाश करनेवाले वीरों, गौ, बैल आदि पशुओं, मित्र, धनी, वणिक्जनों और खेती करनेवालों की अच्छे प्रकार रक्षा करके अन्न आदि ऐश्वर्य्य की उन्नति करते हैं, वे मनुष्यों में शिरोमणि अर्थात् अत्यन्त उत्तम होते हैं॥5॥ कैः काऽत्र राज्येऽवश्यं प्राप्तव्येत्याह॥ किनसे इस राज्य में क्या अवश्य पानी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आग॑धिता॒ परि॑गधिता॒ या क॑शी॒केव॒ जङ्ग॑हे। ददा॑ति॒ मह्यं॒ यादु॑री॒ याशू॑नां भो॒ज्या॑ श॒ता॥6॥ आऽग॑धिता। परि॑ऽगधिता। या। क॒शी॒काऽइ॑व। जङ्ग॑हे। ददा॑ति। मह्य॑म्। यादु॑री। याशू॑नाम्। भो॒ज्या॑। श॒ता॥6॥ पदार्थः—(आगधिता) समन्ताद् गृहीता। गध्यं गृह्णातेः। (निरु॰5.15) (परिगधिता) परितः सर्वतो गधिता शुभैर्गुणैर्युक्ता नीतिः। गध्यतिर्मिश्रीभावकर्मा। (निरु॰5.15) (या) (कशीकेव) यथा ताडनार्था कशीका (जङ्गहे) अत्यन्तं ग्रहीतव्ये (ददाति) (मह्यम्) (यादुरी) प्रयत्नशीला। अत्र यतधातोर्बाहुलकादौणादिक उरी प्रत्ययः तस्य दः। (याशूनाम्) प्रयतमानानाम्। अत्र यसु प्रयत्ने धातोर्बाहुलकादुण्प्रत्ययः सत्य शश्च। (भोज्या) भोक्तुं योग्यानि (शता) शतानि असंख्यातानि वस्तूनि॥6॥ अन्वयः—या आगधिता परिगधिता जङ्गहे कशीकेव याशूनां यादुरी शता भोज्या मह्यं ददाति सा सर्वैः स्वीकार्य्या॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः यया नीत्याऽसंख्यातानि [सुखानि] स्युः सा सर्वैः संपादनीया॥6॥ पदार्थः—(या) जो (आगधिता) अच्छे प्रकार ग्रहण की हुई (परिगधिता) सब ओर से उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त (जङ्गहे) अत्यन्त ग्रहण करने योग्य व्यवहार में (कशीकेव) पशुओं के ताड़ना देने के लिये जो औगी होती उसके समान (याशूनाम्) अच्छा यत्न करनेवालों की (यादुरी) उत्तम यत्नवाली नीति (भोज्या) भोगने योग्य (शता) सैकड़ों वस्तु (मह्यम्) मुझे (ददाति) देती है, वह सबको स्वीकार करने योग्य है॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस नीति अर्थात् धर्म की चाल से अगणित सुख हों, वह सबको सिद्ध करनी चाहिये॥6॥ पुना राज्ञी किं कुर्यादित्याह॥ फिर रानी क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उपोप॑ मे॒ परा॑ मृश॒ मा मे॑ द॒भ्राणि॑ मन्यथाः। सर्वा॒हम॑स्मि रोम॒शा ग॒न्धारी॑णामिवावि॒का॥7॥11॥18॥ उप॑ऽउप। मे॒। परा॑। मृ॒श॒। मा। मे॒। द॒भ्राणि॑। म॒न्य॒थाः॒। सर्वा॑। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। रो॒म॒शा। ग॒न्धारी॑णाम्ऽइव। अ॒वि॒का॥7॥ पदार्थः—(उपोप) अतिसमीपत्वे (मे) मम (परा) (मृश) विचारय (मा) निषेधे (मे) मम (दभ्राणि) अल्पानि कर्माणि (मन्यथाः) जानीयाः (सर्वा) (अहम्) (अस्मि) (रोमशा) प्रशस्तलोमा (गन्धारीणामिव) यथा पृथिवीराज्यधर्त्रीणां मध्ये (अविका) रक्षिका॥7॥ अन्वयः—हे पते राजन्! याऽहं गन्धारीणामिवाविका रोमशा सर्वास्मि तस्या मे गुणान् परा मृश मे दभ्राणि कर्माणि मोपोप मन्यथाः॥7॥ भावार्थः—राज्ञी राजानं प्रति ब्रूयादहं भवतो न्यूना नास्मि, यथा भवान् पुरुषाणां न्यायाधीशोऽस्ति तथाऽहं स्त्रीणां न्यायकारिणी भवामि, यथा पूर्वा राजपत्न्यः प्रजास्थानां स्त्रीणां न्यायकारिण्योऽभूवन् तथाहमपि स्याम्॥7॥ अत्र राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति षड्विंशत्युत्तरं शततमं 126 सूक्तमेकादशो 11 वर्गोऽष्टादशोऽनुवाकश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे पति राजन्! जो (अहम्) मैं (गन्धारीणाम्, इव) पृथिवी के राज्यधारण करनेवालियों में जैसे (अविका) रक्षा करनेवाली होती वैसे (रोमशा) प्रशंसित रोमोंवाली (सर्वा) सब प्रकार की (अस्मि) हूँ, उस (मे) मेरे गुणों को (परा, मृश) विचारो (मे) मेरे (दभ्राणि) कामों को छोटे (मा, उपोप) अपने पास में मत (मन्यथाः) मानो॥7॥ भावार्थः—रानी राजा के प्रति कहे कि मैं आप से न्यून नहीं हूँ, जैसे आप पुरुषों के न्यायाधीश हो, वैसे मैं स्त्रियों का न्याय करनेवाली होती हूँ, और जैसे पहिले राजा-महाराजाओं की स्त्री प्रजास्थ स्त्रियों की न्याय करनेवाली हुईं वैसी मैं भी होऊं॥7॥ इस सूक्त में राजाओं के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ छब्बीसवां 126 सूक्त, ग्यारहवां 11 वर्ग और अठारहवां 18 अनुवाक समाप्त हुआ॥

अथाग्निमित्यस्यैकादशर्चस्य सप्तविंशत्युत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य परुच्छेप ऋषिः। अग्निर्देवता। 1-3 8-9 अष्टिश्छन्दः। 4,7,11 भुरिगष्टिश्छन्दः। मध्यमः स्वरः। 5-6 अत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः। 10 भुरिगतिशक्वरी छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथ कीदृशयोः स्त्रीपुरुषयोर्विवाहो भवितुं योग्य इत्याह॥ अब ग्यारह ऋचावाले एक सौ सत्ताईसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में कैसे स्त्री-पुरुषों का विवाह होना चाहिये, इस विषय का वर्णन किया है॥ अ॒ग्निं होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसुं॑ सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। य ऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॑ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒ऽऽजुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑॥1॥ अ॒ग्निम्। होता॑रम्। म॒न्ये॒। दास्व॑न्तम्। वसु॑म्। सू॒नुम्। सह॑सः। जा॒तऽवे॑दसम्। विप्र॑म्। न। जा॒तऽवे॑दसम्। यः। ऊ॒र्ध्वया॑। सु॒ऽअ॒ध्व॒रः। दे॒वः। दे॒वाच्या॑। कृ॒पा। घृ॒तस्य॑। विऽभ्रा॑ष्टिम्। अनु॑। व॒ष्टि॒। शो॒चिषा॑। आ॒ऽजुह्वा॑नस्य। स॒र्पिषः॑॥1॥ पदार्थः— (अग्निम्) अग्निवद्वर्त्तमानम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (मन्ये) जानीयाम् (दास्वन्तम्) दातारम् (वसुम्) ब्रह्मचर्येण कृतविद्यानिवासम् (सूनुम्) पुत्रम् (सहसः) बलवतः (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (जातवेदसम्) प्रकटविद्यम् (यः) (ऊर्ध्वया) उत्कृष्टया विद्यया (स्वध्वरः) सुष्ठु यज्ञस्याऽनुष्ठाता (देवः) कमनीयः (देवाच्या) या देवानञ्चति तया (कृपा) कल्पते समर्थयति यया तया (घृतस्य) आज्यस्य (विभ्राष्टिम्) विविधतया भृज्जन्ति परिपचन्ति येन तम् (अनु) (वष्टि) कामयते (शोचिषा) प्रकाशेन (आजुह्वानस्य) समन्ताद् हूयमानस्य (सर्पिषः) गन्तुं प्राप्तुमर्हस्य॥1॥ अन्वयः—हे कन्ये! यथाऽहं य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवाच्या कृपादेवोऽस्ति तमाजुह्वानस्य सर्पिषो घृतस्य शोचिषा सह विभ्राष्टिं जनमनुवष्टि। यमग्निमिव होतारं दास्वन्तं वसुं सहसस्सूनुं जातवेदसं विप्रन्न जातवेदसं पतिं मन्ये तथेदृशं पतिं त्वमपि स्वीकुरु॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्य शुभगुणशीलेषु महती प्रशंसा यस्योत्कृष्टं शरीरात्मबलं भवेत् तं पुरुषं स्त्री पतित्वाय वृणुयात् एवं पुरुषोऽपीदृशीं स्त्रियं भार्यत्वाय स्वीकुर्यात्॥1॥ पदार्थः—हे कन्या! जैसे मैं (यः) जो (ऊर्ध्वया) उत्तम विद्या से (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञ का अनुष्ठान अर्थात् आरम्भ करनेवाली वह (देवाच्या) जो कि विद्वानों को प्राप्त होती और जिससे व्यवहार को समर्थ करते उस (कृपा) कृपा से (देवः) जो मनोहर अतिसुन्दर है, उस जन को (आजुह्वानस्य) अच्छे प्रकार होमने और (सर्पिषः) प्राप्त होने योग्य (घृतस्य) घी के (शोचिषा) प्रकाश के साथ (विभ्राष्टिम्) जिससे अनेक प्रकार पदार्थ को पकाते उस अग्नि के समान (अनुवष्टि) अनुकूलता से चाहता है वा जिस (अग्निम्) अग्नि के समान (होतारम्) ग्रहण करने (दास्वन्तम्) देनेवाले (वसुम्) तथा ब्रह्मचर्य से विद्या के बीच में निवास किये हुए (सहसः) बलवान् पुरुष के (सूनुम्) पुत्र को (जातवेदसम्) जिसकी प्रसिद्ध वेदविद्या उस (विप्रम्) मेधावी के (न) समान (जातवेदसम्) प्रकट विद्यावाले विद्वान् को पति (मन्ये) मानती हूँ, वैसे ऐसे पति को तू भी स्वीकार कर॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसकी उत्तम गुणवालों में बहुत प्रशंसा, जिसका अति उत्तम शरीर और आत्मा का बल हो, उस पुरुष को स्त्री पतिपने के लिये स्वीकार करे, ऐसा पुरुष भी इसी प्रकार की स्त्री को भार्यापन के लिये स्वीकार करे॥1॥ पुनः प्रजा राजत्वाय कीदृशं जनमाश्रयेयुरित्याह॥ फिर प्रजाजन राज्य के लिये कैसे जन का आश्रय करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यजि॑ष्ठं त्वा॒ यजमाना हुवेम॒ ज्येष्ठ॒मङ्गि॑रसां विप्र॒ मन्म॑भि॒र्विप्रे॑भिः शुक्र॒ मन्म॑भिः। परि॑ज्मानमिव॒ द्यां होता॑रं चर्षणी॒नाम्। शो॒चिष्के॑शं॒ वृष॑णं॒ यमि॒मा विशः॒ प्राव॑न्तु जू॒तये॒ विशः॑॥2॥ यजि॑ष्ठम्। त्वा॒। यज॑मानाः। हु॒वे॒म॒। ज्येष्ठ॑म्। अङ्गि॑रसाम्। वि॒प्र॒। मन्म॑ऽभिः। विप्रे॑भिः। शु॒क्र॒। मन्म॑ऽभिः। परि॑ज्मानम्ऽइव। द्याम्। होता॑रम्। च॒र्ष॒णी॒नाम्। शो॒चिःऽके॑शम्। वृष॑णम्। यम्। इ॒माः। विशः॑। प्र। अ॒व॒न्तु॒। जू॒तये॑। विशः॑॥2॥ पदार्थः—(यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (त्वा) त्वाम् (यजमानाः) संगन्तारः (हुवेम) प्रशंसेम (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्तम् (अङ्गिरसाम्) प्राणिनाम् (विप्र) मेधाविन् (मन्मभिः) मान्यमानैः (विप्रेभिः) विपश्चिद्भिः सह (शुक्र) शुद्धात्मन् (मन्मभिः) विज्ञानैः (परिज्मानमिव) परितः सर्वतो भोक्तारमिव (द्याम्) प्रकाशम् (होतारम्) दातारम् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (शोचिष्केशम्) शोचींषीव केशा यस्य तम् (वृषणम्) बलिष्ठम् (यम्) (इमाः) (विशः) प्रजाः (प्र) (अवन्तु) प्राप्नुवन्तु (जूतये) रक्षणाद्याय (विशः) प्रजाः॥2॥ अन्वयः—हे विप्र यजमाना! वयं मन्मभिर्विप्रेभिः सहाङ्गिरसां मध्ये ज्येष्ठं त्वा हुवेम। शुक्र यं मन्मभिश्चर्षणीनां होतारं परिज्मानमिव द्यां शोचिष्केशं वृषणं त्वामिमा विशः प्रावन्तु स त्वं जूतये इमा विशः प्राव॥2॥ भावार्थः—मनुष्या यं विद्वांसं प्रशंसेयुः प्रजाश्च तमेवाप्तमाश्रयन्तु॥2॥ पदार्थः—हे (विप्र) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान्! (यजमानाः) व्यवहारों का सङ्ग करनेहारे लोग (मन्मभिः) मान करनेवाले (विप्रेभिः) विचक्षण विद्वानों के साथ (अङ्गिरसाम्) प्राणियों के बीच (ज्येष्ठम्) अतिप्रशंसित (यजिष्ठम्) अत्यन्त यज्ञ करनेवाले (त्वा, हुवेम) तुझको प्रशंसित करते हैं (शुक्र) शुद्ध आत्मा वाले धर्मात्मा जन (यम्) जिस (मन्मभिः) विज्ञानों के साथ (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के बीच (होतारम्) दान करनेवाले (परिज्मानमिव) सब ओर से भोगनेहारे के समान (द्याम्) प्रकाशरूप (शोचिष्केशम्) जिसके लपट जैसे चिलकते हुए केश हैं उस (वृषणम्) बलवान् तुझको (इमाः) ये (विशः) प्रजाजन (प्रावन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें, वह तू (जूतये) रक्षा आदि के लिये (विशः) प्रजा जनों को अच्छे प्रकार प्राप्त हो और पाल॥2॥ भावार्थः—विद्वान् और प्रजाजन जिसकी प्रशंसा करें, उसी आप्त सर्वशास्त्रवेत्ता विद्वान् का आश्रय सब मनुष्य करें॥2॥ कोऽत्र प्रजापालनायोत्तमो भवतीत्याह॥ इस संसार में कौन प्रजा की पालना करने के लिये उत्तम होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स हि पु॒रू चि॒दोज॑सा वि॒रुक्म॑ता॒ दीद्या॑नो॒ भव॑ति द्रु॒हंत॒रः प॑र॒शुर्न द्रु॑हंत॒रः। वी॒ळु चि॒द्यस्य॒ समृ॑तौ श्रुव॒द्वने॑व॒ यत्स्थि॒रम्। नि॒ष्षह॑माणो यमते॒ नाय॑ते धन्वा॒सहा॒ नाय॑ते॥3॥ सः। हि। पु॒रू। चि॒त्। ओज॑सा। वि॒रुक्म॑ता। दीद्या॑नः। भव॑ति। द्रु॒ह॒म्ऽत॒रः। प॒र॒शुः। न। द्रु॒ह॒म्ऽत॒रः। वी॒ळु। चि॒त्। यस्य॑। सम्ऽऋ॑तौ। श्रुव॑त्। वना॑ऽइव। यत्। स्थि॒रम्। निः॒ऽसह॑मानः। य॒म॒ते॒। न। अ॒य॒ते॒। ध॒न्व॒ऽसहा॑। न। अ॒य॒ते॒॥3॥ पदार्थः—(सः) सभेशः (हि) किल (पुरु) बहु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (चित्) अपि (ओजसा) बलेन (विरुक्मता) विविधा रुचो भवन्ति यस्मात्तेन (दीद्यानः) प्रकाशमानः (भवति) (द्रुहन्तरः) यो द्रोग्धॄन् तरति (परशुः) कुठारः (न) इव (द्रुहन्तरः) द्रुहं तरति येन सः (वीळु) दृढम् (चित्) (यस्य) (समृतौ) सम्यक् ऋतिः प्राप्तिर्यया तस्याम् (श्रुवत्) यः शृणोति सः (वनेव) यथा वनानि तथा (यत्) स्थिरं निश्चलम् (निःसहमानः) नितरां सहमाना वीरा यस्य सः (यमते) यच्छति। अत्र वाच्छन्दसीति छादेशो न। (न) निषेधे (अयते) प्राप्नोति (धन्वासहा) यो धनुषा शत्रून् सहते। अत्र छन्दसोऽन्त्यलोपः। (न) निषेधे (अयते) प्राप्नोति॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यस्य समृतौ चिद्वनेव वीळु स्थिरं बलं यो निःसहमानः श्रुवत् शत्रून् यमते यं शत्रुर्नायते धन्वासहारीन् विजयते यत् यस्य विजयं शत्रुर्नायते यो द्रुहन्तरः परशुर्न पुरु विरुक्मतौजसा सह दीद्यानो द्रुहन्तरो भवति स हि चिद्विजयी जायते॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः शत्रुभिर्नाभिभूयते प्रशस्तबलेन तान् विजेतुं शक्नोति, स एव प्रजापालकेषु शिरोमणिर्भवतीति वेदितव्यम्॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यस्य) जिसकी (समृतौ) अच्छे प्रकार प्राप्ति करानेवाली क्रिया के निमित्त (चित्) ही (वनेव) वनों के समान (वीळु) दृढ़ (स्थिरम्) निश्चल बल को (निःसहमानः) निरन्तर सहनशील वीरों वाला (श्रुवत्) सुनता हुआ शत्रुओं को (यमते) नियम में लाता अर्थात् उनके सुने हुए उस बल को छिन्न-भिन्न कर उनको शत्रुता करने से रोकता वा जिसको शत्रुजन (नायते) नहीं प्राप्त होता वा (धन्वासहा) जो अपने धनुष् से शत्रुओं को सहनेवाला शत्रु जनों को अच्छे प्रकार जीतता वा (यत्) जिसके विजय को शत्रु जन (नायते) नहीं प्राप्त होता वा जो (द्रुहन्तरः) द्रोह करनेवालों को तरता वह (परशुः) फरसा वा कुलाड़ा के (न) समान (पुरु) तीव्र बहुत प्रकार से ज्यों हो त्यों (विरुक्मता) जिससे, अनेक प्रकार की प्रीतियां हों, उस (ओजसा) बल के साथ (दीद्यानः) प्रकाशमान (द्रुहन्तरः) द्रुहन्तर (भवति) होता अर्थात् जिसके सहाय से अति द्रोह करनेवाले शत्रु को जीतता (सः, हि, चित्) वही कभी विजयी होते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो शत्रुओं से नहीं पराजित होता और अपने प्रशंसित बल से उनको जीत सकता है, वही प्रजा पालनेवालों में शिरोमणि होता है॥3॥ पुनर्न्यायाधीशैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥ फिर न्यायाधीशों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दृ॒ळ्हा चि॑दस्मा॒ अनु॑ दु॒र्यथा॑ वि॒दे तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भिर्दा॒ष्ट्यव॑से॒ऽग्नये दा॒ष्ट्यव॑से। प्र यः पु॒रूणि॒ गाह॑ते॒ तक्ष॒द्वने॑व शो॒चिषा॑। स्थि॒रा चि॒दन्ना॒ नि रि॑णा॒त्योज॑सा॒ नि स्थि॒राणि॑ चि॒दोज॑सा॥4॥ दृ॒ळ्हा चि॒त्। अ॒स्मै॒। अनु॑। दुः॒। यथा॑। वि॒दे। तेजि॑ष्ठाभिः। अ॒रणि॑ऽभिः। दा॒ष्टि॒। अव॑से। अ॒ग्नये॑। दा॒ष्टि॒। अव॑से। प्र। यः। पु॒रूणि॑। गाह॑ते। तक्ष॑त्। वना॑ऽइव। शो॒चिषा॑। स्थि॒रा। चि॒त्। अन्ना॑। नि। रि॒णा॒ति॒। ओज॑सा। नि। स्थि॒राणि॑। चि॒त्। ओज॑सा॥4॥ पदार्थः—(दृढा) दृढानि (चित्) (अस्मै) सभाध्यक्षाय (अनु) (दुः) दद्युः। अत्र लुङ्यडभावः। (यथा) येन प्रकारेण (विदे) विदुषे (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षकाय (अग्नये) अग्नय इव वर्त्तमानाय (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षणाद्याय (प्र) (यः) (पुरूणि) बहूनि (गाहते) विलोडते (तक्षत्) जलादीनि तनूकुर्वन् (वनेव) रश्मय इव। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (शोचिषा) न्यायसेनाप्रकाशेन (स्थिरा) स्थिराणि (चित्) अपि (अन्ना) अत्तुमर्हाण्यन्नानि (नि) (रिणाति) प्राप्नोति (ओजसा) पराक्रमेण (नि) (स्थिराणि) (चित्) अपि (ओजसा) कोमलेन कर्मणा॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा विद्वाँस्तेजिष्ठाभिररणिभिरस्मै विदेऽवसेऽग्नये दाष्टि विद्वांसो वा दृढा स्थिरा निश्चलानि चिद्विज्ञानान्यनुदुस्तथा योऽवसे दाष्टि तक्षत्सन् सूर्यो वनेव शोचिषा पुरूणि शत्रुदलानि प्रगाहते। ओजसा स्थिराणि कर्माणि निरिणाति चिदोजसाऽन्ना चिन्निरिणाति स सुखमवाप्नोति॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चितो विद्याप्रचारेण मनुष्याणामात्मनः प्रकाश्य सर्वान् पुरुषार्थे नयन्ति तथा विद्वांसो न्यायाधीशाः प्रजा उद्यमयन्ति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यथा) जैसे विद्वान् (तेजिष्ठाभिः) अत्यन्त तेजवाली (अरणिभिः) अरणियों से (अस्मै) इस (विदे) शास्त्रवेत्ता (अवसे) रक्षा करनेवाले (अग्नये) अग्नि के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष के लिये (दाष्टि) ओविली को घिसने से काटता वा विद्वान् जन (दृढा) स्थिर निश्चल (चित्) भी विज्ञानों के (अनु, दुः) अनुक्रम से देवें वैसे (यः) जो (अवसे) रक्षा आदि करने के लिये (दाष्टि) काटता अर्थात् उक्त क्रिया को करता वा (तक्षत्) अपने तेज से जल आदि को छिन्न-भिन्न करता हुआ सूर्यमण्डल (वनेव) किरणों को जैसे वैसे (शोचिषा) न्याय और सेना के प्रकाश से (पुरूणि) बहुत शत्रुदलों को (प्र, गाहते) अच्छे प्रकार विलोडता वा (ओजसा) पराक्रम से (स्थिराणि) स्थिर कर्मों को (नि) निरन्तर प्राप्त होता (चित्) और (ओजसा) कोमल काम से (अन्ना) खाने योग्य अन्नों को (चित्) भी (नि, रिणाति) निरन्तर प्राप्त होता है, वह सुख को प्राप्त होता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन विद्या के प्रचार से मनुष्यों के आत्माओं को प्रकाशित कर सबको पुरुषार्थी बनाते हैं, वैसे न्यायाधीश विद्वान् प्रजाजनों को उद्यमी करते हैं॥4॥ पुनर्न्यायाधीशैः किमनुष्ठेयमित्याह॥ फिर न्यायाधीशों को क्या अनुष्ठान वा आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तम॑स्य पृ॒क्षमुप॑रासु धीमहि॒ नक्तं॒ यः सु॒दर्श॑तरो॒ दिवा॑तरा॒दप्रा॑युषे॒ दिवा॑तरात्। आद॒स्यायु॒र्ग्रभ॑णवद् वी॒ळु शर्म॒ न सू॒नवे॑। भ॒क्तमभ॑क्त॒मवो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑ अ॒ग्नयो॒ व्यन्तो॑ अ॒जराः॑॥5॥12॥ तम्। अ॒स्य॒। पृ॒क्षम्। उप॑रासु। धी॒॒म॒हि॒। नक्त॑म्। यः। सु॒दर्श॑ऽतरः। दिवा॑ऽतरात्। अप्र॑ऽआयुषे। दिवा॑ऽतरात्। आत्। अ॒स्य॒। आयुः॑। ग्रभ॑णऽवत्। वी॒ळु। शर्म॑। न। सू॒नवे॑। भ॒क्तम्। अभ॑क्तम्। अवः॑। व्यन्तः॑। अ॒जराः॑। अ॒ग्नयः॑। व्यन्तः॑। अ॒जराः॑॥5॥ पदार्थः—(तम्) (अस्य) संसारस्य (पृक्षम्) सम्पृक्तारम् (उपरासु) दिक्षु। उपरा इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.6) (धीमहि) दधीमहि (नक्तम्) रात्रौ (यः) (सुदर्शतरः) सुष्ठु द्रुष्टुं योग्यः सुदर्शोऽतिशयेन सुदर्शः पूर्णकालश्चन्द्र इव (दिवातरात्) अतिशयेन दिवा दिवातरस्तस्मात् सूर्यात् (अप्रायुषे) यः प्रैति स प्रायुट् न प्रायुडप्रायुट् तस्मै (दिवातरात्) अतिशयेन दिवातरः सूर्यइव तस्मात् (आत्) (अस्य) जनस्य (आयुः) जीवनम् (ग्रभणवत्) प्रशस्तं ग्रभणं ग्रहणं विद्यते यस्मिंस्तत् (वीळु) दृढम् (शर्म) गृहम् (न) इव (सूनवे) पुत्राय (भक्तम्) सेवितम् (अभक्तम्) असेवितम् (अवः) रक्षणादियुक्तम् (व्यन्तः) व्याप्नुवन्तः (अजराः) वयोहानिरहिताः (अग्नयः) विद्युत इव (व्यन्तः) कामयमानाः (अजराः) वयोहानिविरहाः॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यः सुदर्शतरोऽस्य दिवातरादप्रायुषे नक्तं सर्वान् दर्शयतीव तं पृक्षं दिवातरादुपरासु वयं धीमहि। आदस्य ग्रभणवद्वीळु भक्तमभक्तमव आयुः सूनवे न शर्म व्यन्तोऽजरा अग्नय इव व्यन्तोऽजरा वयं धीमहि॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रो नक्षत्राण्योषधीश्च पोषयति तथा सज्जनैः प्रजाः पोषणीयाः। यथा सन्तानान् पितरौ प्रीणीतस्तथा सर्वान् प्राणिनो वयं प्रीणीयाम॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यः) जो (सुदर्शतरः) अतीव सुन्दर देखने योग्य पूरी कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान राजा (अस्य) इस संसार का (दिवातरात्) अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्य से (अप्रायुषे) जो व्यवहार नहीं प्राप्त होता उसके लिये (नक्तम्) रात्रि में सब पदार्थों को दिखलाता सा है (तम्) उस (पृक्षम्) उत्तम कामों का सम्बन्ध करनेवाले को (दिवातरात्) अतीव प्रकाशवान् सूर्य के तुल्य उससे (उपरासु) दिशाओं में हम लोग (धीमहि) धारण करें अर्थात् सुनें (आत्) इसके अनन्तर (अस्य) इस मनुष्य का (ग्रभणवत्) जिसमें प्रशंसित सब व्यवहारों का ग्रहण उस (वीळु) दृढ़ (भक्तम्) सेवन किये वा (अभक्तम्) न सेवन किये हुए (अवः) रक्षा आदि युक्त कर्म और (आयुः) जीवन को (सूनवे) पुत्र के लिये (न) जैसे वैसे (शर्म) घर को (व्यन्तः) विविध प्रकार से प्राप्त होते हुए (अजराः) पूरी अवस्थावाले वा (अग्नयः) बिजुली रूप अग्नि के समान (व्यन्तः) सब पदार्थों की कामना करते हुए (अजराः) अवस्था होने से रहित हम लोग धारण करें॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे चन्द्रमा तारागण और ओषधियों को पुष्ट करता है, वैसे सज्जनों को प्रजाजनों का पालन-पोषण करना चाहिये। जैसे सन्तानों को पिता-माता तृप्त करते हैं, वैसे सब प्राणियों को हम लोग तृप्त करें॥5॥ अथ राजादयः किं कुर्य्युरित्याह॥ अब राजा आदि क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स हि शर्धो॒ न मारु॑तं तुवि॒ष्वणि॒रप्न॑स्वतीषू॒र्वरा॑स्वि॒ष्टनि॒रार्त॑नास्वि॒ष्टनिः॑। आद॑द्ध॒व्यान्या॑द॒दिर्य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर॒र्हणा॑। अध॑ स्मास्य॒ हर्ष॑तो॒ हृषी॑वतो॒ विश्वे॑ जुषन्त॒ पन्थां॒ नरः॑। शु॒भे न पन्था॑म्॥6॥ सः। हि। शर्धः॑। न। मारु॑तम्। तु॒वि॒ऽस्वनिः॑। अप्न॑स्वतीषु। उ॒र्वरा॑सु। इ॒ष्टनिः॑। आर्त॑नासु। इ॒ष्टनिः॑। आद॑त्। ह॒व्यानि॑। आ॒ऽद॒दिः। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुः। अ॒र्हणा॑। अध॑। स्म॒। अ॒स्य॒। हर्ष॑तः। हृषी॑वतः। विश्वे॑। जु॒ष॒न्त॒। पन्था॑म्। नरः॑। शु॒भे। न। पन्था॑म्॥6॥ पदार्थः—(सः) विद्वान् (हि) खलु (शर्धः) बलम् (न) इव (मारुतम्) मरुतामिमम् (तुविस्वनिः) तुविर्वृद्धास्वनिरुपदेशो यस्य सः (अप्नस्वतीषु) प्रशस्तमप्नोऽपत्यं विद्यते यासां तासु (उर्वरासु) सुन्दरवर्णयुक्तासु (इष्टनिः) इच्छाविशिष्टः। अत्रेषधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽनिः प्रत्ययस्तुगागमश्च। (आर्त्तनासु) या आर्त्तयन्ति सत्ययन्ति (इष्टनिः) यष्टुं योग्यः (आदत्) अद्यात् (हव्यानि) अत्तुमर्हाणि (आददिः) आदाता (यज्ञस्य) संगन्तव्यस्य व्यवहारस्य (केतुः) ज्ञानवान् (अर्हणा) सत्कृतानि (अध) अथ (स्म) एव (अस्य) (हर्षतः) प्राप्तहर्षस्य (हृषीवतः) बह्वाऽऽनन्दयुक्तस्य। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (विश्वे) सर्वे (जुषन्त) सेवन्ताम् (पन्थाम्) पन्थानम् (नरः) नायकाः (शुभे) शोभनाय (न) इव (पन्थाम्) धर्म्यं मार्गम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन नस्य स्थाने अकारादेशः॥6॥ अन्वयः—हे विश्वे नरो! यूयं हृषीवतो हर्षतोऽस्य यज्ञस्य शुभे न पन्थां जुषन्ताम् यं केतुराददिरर्हणा हव्यान्यादन्मारुतं शर्धो नाप्नस्वतीषूर्वरास्वार्त्तनासु तुविष्वणिरिष्टनिरस्ति स स्मेष्टनिर्हि न्यायपन्थां प्राप्तुमर्हति॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या धर्मेणोपार्जितानां पदार्थानां भोगं कुर्वन्तः प्रजासु धर्मविद्याः प्रचारयन्ति ते धर्ममार्गं प्रचारयितुं शक्नुवन्ति॥6॥ पदार्थः—हे (विश्वे) सब (नरः) व्यवहारों की प्राप्ति करानेवाले मनुष्यो! तुम (हृषीवतः) जो बहुत आनन्द से भरा (हर्षतः) और जिससे सब प्रकार का आनन्द प्राप्त हुआ (अस्य) इस (यज्ञस्य) सङ्ग करने अर्थात् पाने योग्य व्यवहार की (शुभे) उत्तमता के लिये (न) जैसे हो वैसे (पन्थाम्) धर्मयुक्त मार्ग का (जुषन्त) सेवन करो (अध) इसके अनन्तर जो (केतुः) ज्ञानवान् (आददिः) ग्रहण करनेहारा (अर्हणा) सत्कार किये अर्थात् नम्रता के साथ हुए (हव्यानि) भोजन के योग्य पदार्थों को (आदत्) खावे वा (मारुतम्) पवनों के (शर्धः) बल के (न) समान (अप्नस्वतीषु) जिनके प्रशंसित सन्तान विद्यमान उन (उर्वरासु) सुन्दरी (आर्त्तनासु) सत्य आचरण करनेवाली स्त्रियों के समीप (तुविष्वणिः) जिसकी बहुत उत्तम निरन्तर बोल-चाल (इष्टनिः) और जो सत्कार करने योग्य है (सः, स्म) वही विद्वान् (इष्टनिः) इच्छा करनेवाला (हि) निश्चय के साथ (पन्थाम्) न्यायमार्ग को प्राप्त होने योग्य होता है॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य धर्म से इकट्ठे किये हुए पदार्थों का भोग करते हुए प्रजाजनों में धर्म और विद्या आदि गुणों का प्रचार करते हैं, वे दूसरों से धर्ममार्ग का प्रचार करा सकते हैं॥6॥ अथाऽध्यापकाऽध्येतारः कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥ अब पढ़ाने-पढ़ने वाले कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ द्वि॒ता यदीं॑ क॒ीस्तासो॑ अ॒भिद्य॑वो नम॒स्यन्त॑ उप॒वोच॑न्त॒ भृग॑वो म॒थ्नन्तो॑ दा॒शा भृग॑वः। अ॒ग्निरी॑शे॒ वसू॑नां॒ शुचि॒र्यो ध॒र्णिरे॑षाम्। प्रि॒याँ अ॑पि॒धीँर्व॑निषीष्ट॒ मेधि॑र॒ आ व॑निषीष्ट॒ मेधि॑रः॥7॥ द्वि॒ता। यत्। ई॒म्। क॒ीस्तासः॑। अ॒भिऽद्य॑वः। न॒म॒स्यन्तः॑। उ॒प॒ऽवोच॑न्त। भृग॑वः। म॒थ्नन्तः॑। दा॒शा। भृग॑वः। अ॒ग्निः। ई॒शे॒। वसू॑नाम्। शुचिः॑। यः। ध॒र्णिः। ए॒षा॒म्। प्रि॒यान्। अ॒पि॒ऽधीन्। व॒नि॒षी॒ष्ट॒। मेधि॑रः। आ। व॒नि॒षी॒ष्ट॒। मेधि॑रः॥7॥ पदार्थः—(द्विता) द्वयोर्भावः (यत्) ये (ईम्) अभिगताम् (कीस्तासः) मेधाविनः। कीस्तास इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (अभिद्यवः) अभिगता द्यवो दीप्तयो येषां ते (नमस्यन्तः) धर्मं परिचरन्तः (उपवोचन्त) उपगतमुपदिशन्तु (भृगवः) अविद्याऽधर्मनाशनशीलाः (मथ्नन्तः) मन्थनं कुर्वन्तः (दाशा) दानाय। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (भृगवः) दुःखभर्जकाः (अग्निः) विद्युत् (ईशे) ईष्टे। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु (अष्टा॰7.1.41) इति त लोपः। (वसूनाम्) पृथिव्यादीनां मध्ये (शुचिः) पवित्रः शुद्धिकरः (यः) (धर्णिः) यो धरति सः (एषाम्) प्रत्यक्षाणाम् (प्रियान्) प्रसन्नान् (अपिधीन्) सद्गुणधारकान् दुःखाच्छादकान् (वनिषीष्ट) याचेत (मेधिरः) मेधावी (आ) समन्तात् (वनिषीष्ट) (मेधिरः) सङ्गमकः॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यत् कीस्तासोऽभिद्यवो नमस्यन्तो भृगवो ज्ञानं मथ्नन्तो भृगवश्च दाशा विद्यादानाय विद्यार्थिने द्वितेमुपवोचन्त। यथैषां वसूनां मध्ये यो धर्णिः शुचिरग्निरस्ति यथा मेधिरः प्रियानपिधीन् वनिषीष्ट यथा मेधिरो दातॄनावनिषीष्ट विद्यामीशे तथैव तं तान् सेवध्वम्॥7॥ भावार्थः—ये विद्यार्थिनो विद्वद्भ्यो नित्यं विद्या याचेरन् विद्वांसश्च तेभ्यो नित्यमेव विद्यां दद्युर्नैतेन दानेन ग्रहणेन वा तुल्यं किंचिदप्युत्तमं कर्म विद्यते॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यत्) जो (कीस्तासः) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् (अभिद्यवः) जिनके आगे विद्या आदि गुणों के प्रकाश (नमस्यन्तः) जो धर्म का सेवन (भृगवः) तथा अविद्या और अधर्म के नाश करते ज्ञान को (मथ्नन्तः) मथते हुए (भृगवः) और दुःख मिटाते हैं, वे (दाशा) विद्या दान के लिये विद्यार्थियों को (द्विता) जैसे दो का होना हो वैसे अर्थात एक पर एक (ईम्) सम्मुख प्राप्त हुई विद्या (उपवोचन्त) और गुण का उपदेश करे वा जैसे (एषाम्) इन (वसूनाम्) पृथिवी, आदि लोकों के बीच (यः) जो (धर्णिः) शिल्पविद्या विषयक कामों का धारण करनेहारा (शुचिः) पवित्र और दूसरों को युद्ध करनेहारा (अग्निः) अग्नि है वा जैसे (मेधिरः) उत्तम बुद्धिवाला (प्रियान्) प्रसन्नचित्त और (अपिधीन्) श्रेष्ठ गुणों को धारण करने और दुःखों को ढांपने वाले विद्वानों को (वनिषीष्ट) याचे अर्थात् उनसे किसी पदार्थ को मांगे वा (मेधिरः) सङ्ग करनेवाला पुरुष देनेवालों को (आ, वनिषीष्ट) अच्छे प्रकार याचे वा विद्या की (ईशे) ईश्वरता प्रकट करे अर्थात् विद्या के अधिकार को प्रकाशित करे, वैसे ही तुम उक्त विद्वान् और अग्नि आदि पदार्थों का सेवन करो॥7॥ भावार्थः—जो विद्यार्थी विद्वानों से नित्य विद्या मांगे उनके लिये विद्वान् भी नित्य ही विद्या को अच्छे प्रकार देवें, क्योंकि इस देने-लेने के तुल्य कुछ भी उत्तम काम नहीं हैं॥7॥ अथ कथं राजप्रजाजनोन्नतिः स्यादित्याह॥ अब कैसे राजा और प्रजाजनों की उन्नति हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ विश्वा॑सां त्वा वि॒शां पतिं॑ हवामहे॒ सर्वा॑सां समा॒नं दम्प॑तिं भु॒जे स॒त्यगि॑र्वाहसं भु॒जे। अति॑थिं॒ मानु॑षाणां पि॒तुर्न यस्या॑स॒या। अ॒मी च॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑स॒ आ वयो॑ ह॒व्या दे॒वेष्वा वयः॑॥8॥ विश्वा॑साम्। त्वा। वि॒शाम्। पति॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। सर्वा॑साम्। स॒मा॒नम्। दम्ऽप॑तिम्। भु॒जे। स॒त्यऽगि॑र्वाहसम्। भु॒जे। अति॑थिम्। मानु॑षाणाम्। पि॒तुः। न। यस्य॑। आ॒स॒या। अ॒मी इति॑। च॒। विश्वे॑। अ॒मृता॑सः। आ॑। वयः॑। ह॒व्या। दे॒वेषु॑। आ। वयः॑॥8॥ पदार्थः—(विश्वासाम्) सर्वासाम् (त्वा) त्वाम् (विशाम्) प्रजानाम् (पतिम्) स्वामिनम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (सर्वासाम्) समग्राणां क्रियाणाम् (समानम्) पक्षपातरहितम् (दम्पतिम्) स्त्रीपुरुषाख्यं द्वन्द्वम् (भुजे) शरीरे विद्यानन्दभोगाय (सत्यगिर्वाहसम्) सत्याया गिरः प्रापकम् (भुजे) विद्यानन्दभोगाय (अतिथिम्) अतिथिमिव पूजनीयम् (मानुषाणाम्) नराणाम् (पितुः) अन्नम् (न) (यस्य) (आसया) उपवेशनेन (अमी) (च) (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) मृत्युरहिताः (आ) अभितः (वयः) विद्याः कामयमानाः (हव्या) होतुमादातुमर्हाणि ज्ञानानि (देवेषु) विद्वत्सु (आ) समन्तात् (वयः) प्राप्तविद्याः॥8॥ अन्वयः—हे मनुष्य! यथा वयं भुजे विश्वासां विशां सर्वासां प्रजानां पतिं त्वा हवामहे। यथा चामी देवेष्वा वयो हव्या गृहीतवन्त आवयो विश्वेऽमृतासस्सन्तो वयं यस्यासया पितुर्न भुजे मानुषाणां समानमतिथिं सत्यगिर्वाहसं त्वां पतिं हवामहे तथा दम्पतिं भजामः॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यावत्पक्षपातरहिता आप्ता विद्वांसो राज्याऽधिकारिणो न भवन्ति, तावद्राजप्रजयोरुन्नतिरपि न भवति॥8॥ पदार्थः—हे मनुष्य! जैसे हम लोग (भुजे) शरीर में विद्या का आनन्द भोगने के लिये (विश्वासाम्) सब (विशाम्) प्रजाजनों के वा (सर्वासाम्) समस्त क्रियाओं के (पतिम्) पालनेहारे अधिपति (त्वा) तुझको (हवामहे) स्वीकार करते हैं (च) और जैसे (अमी) वे (देवेषु) (आ) अच्छे प्रकार (वयः) विद्यादि गुणों को चाहनेवाले (हव्या) ग्रहण करने योग्य ज्ञानों का ग्रहण किये और (आ, वयः) अच्छे प्रकार विद्या आदि गुणों को पाये हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अमर अर्थात् विद्या प्रकाश से मृत्य दुःख से रहित हुए हम लोग (यस्य) जिसकी (आसया) बैठक के (पितुः) अन्न के (न) समान (भुजे) विद्यानन्द भोगने के लिये (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (समानम्) पक्षपातरहित (अतिथिम्) अतिथि के तुल्य सत्कार करने योग्य (सत्यगिर्वाहसम्) सत्यवाणी की प्राप्ति करानेवाले तुझ पालनेहारे को स्वीकार करते, वैसे (दम्पतिम्) स्त्री-पुरुष का सेवन करते हैं॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब तक पक्षपातरहित समग्र विद्या को जाने हुए धर्मात्मा विद्वान् राज्य के अधिकारी नहीं होते हैं, तब तक राजा और प्रजाजनों की उन्नति भी नहीं होती है॥8॥ पुनः राजादयो जनाः कीदृशा जायन्त इत्याह॥ फिर राजा आदि कैसे होते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वम॑ग्ने॒ सह॑सा॒ सह॑न्तमः शु॒ष्मिन्त॑मो जायसे दे॒वता॑तये र॒यिर्न दे॒वता॑तये। शु॒ष्मिन्त॑मो॒ हि ते॒ मदो॑ द्यु॒म्निन्त॑म उ॒त क्रतुः॑। अध॑ स्मा ते॒ परि॑ चरन्त्यजर श्रुष्टी॒वानो॒ नाज॑र॥9॥ त्वम्। अ॒ग्ने॒। सह॑सा। सह॑न्ऽतमः। शु॒ष्मिन्ऽत॑मः। जा॒य॒से॒। दे॒वऽता॑तये। रयिः॒। न। दे॒वऽता॑तये। शु॒ष्मिन्ऽत॑मः। हि। ते॒। मदः॑। द्यु॒म्निन्ऽतमः॑। उ॒त। क्रतुः॑। अध॑। स्म॒। ते॒। परि॑। च॒र॒न्ति॒। अ॒ज॒र॒। श्रु॒ष्टी॒ऽवानः॑। न। अ॒ज॒र॒॥9॥ पदार्थः—(त्वम्) (अग्ने) शूरवीर विद्वन् (सहसा) बलेन (सहन्तमः) अतिशयेन सहा इति सहन्तमः (शुष्मिन्तमः) प्रशंसितं बलं विद्यते यस्य स शुष्मी सोऽतिशयितः (जायसे) (देवतातये) देवाय विदुषे (रयिः) श्रीः (न) इव (देवतातये) देवानां विदुषामेव सत्काराय (शुष्मिन्तमः) अतिशयेन बलवान् (हि) खलु (ते) तव (मदः) हर्षः (द्युम्निन्तमः) बहूनि द्युम्नानि धनानि विद्यन्ते यस्य स द्युम्नी इति द्युम्निन्तमः। अत्र सर्वत्र नाद् घस्य (अष्टा॰8.2.17) इति नुट्। (उत) अपि (क्रतुः) (अध) आनन्तर्ये (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (परि) सर्वतः (चरन्ति) (अजर) जरादोषरहित (श्रुष्टीवानः) शीघ्रक्रियायुक्ताः (न) इव (अजर) योऽजे जन्मरहित ईश्वरे रमते तत्सम्बुद्धौ। अत्र वाच्छन्दसीत्यविहितोः डः॥9॥ अन्वयः—हे अजर नेवाजराग्ने विद्वन्! देवतातये रयिर्नेव देवतातये सहन्तमः शुष्मिन्तमस्त्वं सहसा जायसे यस्य ते तव शुष्मिन्तमो द्युम्निन्तमो मद उतापि क्रतुर्हि विद्यते। अध ते तव श्रुष्टीवानः स्म परिचरन्ति तं त्वां सर्वे वयमाश्रयेम॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सशरीरात्मबलाः प्राज्ञाः श्रीमत्प्रजा जायन्ते ते सुखकारका भवन्ति॥9॥ पदार्थः—हे (अजर) तरुण अवस्थावाले के (न) समान (अजर) अजन्मा परमेश्वर में रमते हुए (अग्ने) शूरवीर विद्वान्! (देवतातये) विद्वान् के लिये (रयिः) धन जैसे (न) वैसे (देवतातये) विद्वानों के सत्कार के लिये (सहन्तमः) अतीव सहनशील (शुष्मिन्तमः) अत्यन्त प्रशंसित बलवान् (त्वम्) आप (सहसा) बल से (जायसे) प्रकट होते हो जिन (ते) आपका (शुष्मिन्तमः) अत्यन्त बलयुक्त (द्युम्निन्तमः) जिनके सम्बन्ध में बहुत धन विद्यमान वह अत्यन्त धनी (मदः) हर्ष (उतः) और (क्रतुः) यज्ञ (हि) ही है (अध) अनन्तर (ते) आपके (श्रुष्टीवानः) शीघ्र क्रियावाले (स्म) ही (परि, चरन्ति) सब ओर से चलते वा आपकी परिचर्या करते, उन आपका हम लोग आश्रय करें॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य शरीर और आत्मा के बल से युक्त अच्छे प्रकार ज्ञाता, विद्या आदि धन प्रकाश युक्त सन्तानोंवाले होते हैं, वे सुख करनेवाले होते हैं॥9॥ पुनरखिलैर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥ फिर समस्त मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र वो॑ म॒हे सह॑सा॒ सह॑स्वत उष॒र्बुधे॑ पशु॒षे नाग्नये॒ स्तोमो॑ बभूत्व॒ग्नये॑। प्रति॒ यदीं॑ ह॒विष्मा॒न् विश्वा॑सु॒ क्षासु॒ जोगु॑वे। अग्रे॑ रे॒भो न ज॑रत ऋषू॒णां जूर्णि॒र्होत॑ ऋषू॒णाम्॥10॥ प्र। वः॒। म॒हे। सह॑सा। सह॑स्वते। उ॒षः॒ऽबुधे॑। प॒शु॒ऽसे। न। अ॒ग्नये॑। स्तोमः॑। ब॒भू॒तु॒। अ॒ग्नये॑। प्रति॑। यत्। ई॒म्। ह॒विष्मा॑न्। विश्वा॑सु। क्षासु॑। जोगु॑वे। अग्रे॑। रे॒भः। न। ज॒र॒ते॒। ऋ॒षू॒णाम्। जूर्णिः॑। होता॑। ऋ॒षू॒णाम्॥10॥ पदार्थः—(प्र) (वः) युष्माकम् (महे) महते (सहसा) बलेन (सहस्वते) बहुबलयुक्ताय (उषर्बुधे) प्रत्युषःकालजागरकाय (पशुषे) बन्धकाय (न) इव (अग्नये) प्रकाशमानाय (स्तोमः) (बभूतु) भवतु। अत्र बहुलं छन्दसीति शप श्लुः। (अग्नये) विद्युत इव (प्रति) प्रत्यक्षे (यत्) (ईम्) सर्वतः (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवीषिं गृहीतानि विद्यन्ते यस्य सः (विश्वासु) सर्वासु (क्षासु) भूमिषु। क्षेति पृथिविनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (जोगुवे) भृशमुपदेशकाय (अग्रे) प्रथमतः (रेभः) उपदेशकः (न) इव (जरते) स्तौति (ऋषूणाम्) प्राप्तविद्यानां जिज्ञासूनां वा (जूर्णिः) रोगवान् (होता) अत्ता (ऋषूणाम्) प्राप्तवैद्यकविद्यानाम्॥10॥ अन्वयः—हे मनुष्या! वः सहस्वत उषर्बुधे पशुषे महे जोगुवेऽग्नये नाग्नये विश्वासु क्षासु हविष्मान् स्तोमः सहसा प्रबभूतु रेभो नाग्रे ऋषूणां विद्या ईम् प्रति जरते यद्यो होता जूर्णिर्भवेत् स ऋषूणां सामीप्यं गत्वाऽरोगी भवेत्॥10॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो विद्याप्राप्तये प्रयतन्ते, तथेह सर्वैर्मनुष्यैः प्रयतितव्यम्॥10॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (वः) तुम लोगों के (सहस्वते) बहुत बलयुक्त (उषर्बुधे) प्रत्येक प्रभात समय में जागने और (पशुषे) प्रबन्ध बाँधनेहारे (महे) बड़े (जोगुवे) निरन्तर उपदेशक (अग्नये) बिजुली के (न) समान (अग्नये) प्रकाशमान के लिये (विश्वासु) सब (क्षासु) भूमियों में (हविष्मान्) प्रशंसित ग्रहण किये हुए व्यवहार जिसमें विद्यमान वह (स्तोमः) प्रशंसा (सहसा) बल के साथ (प्र, बभूतु) समर्थ हो (रेभः) उपदेश करनेवाले के (न) समान (अग्रे) आगे (ऋषूणाम्) जिन्होंने विद्या पाई वा जो विद्या को जानना चाहते उनकी विद्याओं की (ईम्) सब ओर से (प्रति, जरते) प्रत्यक्ष में स्तुति करता (यत्) जो (होता) भोजन करनेवाला (जूर्णिः) जूड़ी आदि रोग से रोगी हो वह (ऋषूणाम्) जिन्होंने वैद्य विद्या पाई अर्थात् उत्तम वैद्य हैं, उनके समीप जाकर रोगरहित हो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन विद्या प्राप्ति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वैसे इस संसार में सब मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये॥10॥ पुनर्विद्यार्थिभिः किं कर्त्तव्यमित्याह॥ फिर विद्यार्थियों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स नो॒ नेदि॑ष्ठं॒ ददृ॑शान॒ आ भ॒राग्ने॑ दे॒वेभिः॒ सच॑नाः सुचे॒तुना॑ म॒हो रा॒यः सु॑चे॒तुना॑। महि॑ शविष्ठ नस्कृधि सं॒चक्षे॑ भु॒जे अ॒स्यै। महि॑ स्तो॒स्तृभ्यो॑ मघवन्त्सु॒वीर्यं॒ मथी॑रु॒ग्रो न शव॑सा॥11॥13॥ सः। नः॒। नेदि॑ष्ठम्। ददृ॑शानः। आ। भ॒र॒। अग्ने॑। दे॒वेभिः॑। सऽच॑नाः। सु॒ऽचे॒तुना॑। म॒हः। रा॒यः। सु॒ऽचे॒तुना॑। महि॑। श॒वि॒ष्ठ॒। नः॒। कृ॒धि॒। स॒म्ऽचक्षे॑। भु॒जे। अ॒स्यै। महि॑। स्तो॒तृऽभ्यः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। सु॒ऽवीर्य॑म्। मथीः॑। उ॒ग्रः। न। शव॑सा॥11॥ पदार्थः—(सः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकम् (ददृशानः) दृष्टवान् सन् (आ) समन्तात् (भर) धर (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (सचनाः) समवैतुं योग्याः (सुचेतुना) सुष्ठु विज्ञात्रा (महः) महतः (रायः) धनानि (सुचेतुना) सुष्ठु चेतयित्रा (महि) महत् (शविष्ठ) अतिशयेन बलवान् प्राप्तविद्य (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (संचक्षे) सम्यगाख्यानाय (भुजे) पालनाय (अस्यै) प्रजायै (महि) महद्भ्यः (स्तोतृभ्यः) (मघवन्) पूजितधनयुक्त (सुवीर्यम्) शोभनं पराक्रमं (मथीः) यो दुष्टान् मथ्नाति सः (उग्रः) तेजस्वी (न) इव (शवसा) बलेन॥11॥ अन्वयः—हे मघवन् शविष्ठाग्ने! स ददृशानस्त्वं सुचेतुना देवेभिश्च सह नो महः सचना राय आभरास्यै प्रजायै संचक्षे भुजे शवसोग्रो न मथीस्त्वं नेदिष्ठं महि सुवीर्यमाभराऽनेन सुचेतुना महि स्तोतृभ्यो नोऽस्मान् विद्यावतः कृधि॥11॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। विद्यार्थिभिराप्तानध्यापकान् संप्रार्थ्य संसेव्य पूर्णा विद्याः प्रापणीयाः, येन राजप्रजाजना विद्यावन्तो भूत्वा सततं धर्ममाचरेयुः॥11॥ इति सप्तविंशत्युत्तरं शततमं 127 सूक्तं त्रयोदशो 13 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त (शविष्ठ) अतीव बलवान् विद्यादि गुणों को पाये हुए (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान (सः) वह (ददृशानः) देखे हुए विद्वान्! आप (सुचेतुना) सुन्दर समझनेवाले और (देवेभिः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों के लिये (महः) बहुत (सचनाः) सम्बन्ध करने योग्य (रायः) धनों को (आ, भर) अच्छे प्रकार धारण करें (अस्यै) इस प्रजा के लिये (संचक्षे) उत्तमता में कहने उपदेश देने और (भुजे) इसको पालना करने के लिये (शवसा) अपने पराक्रम से (उग्रः) प्रचण्ड प्रतापवान् (न) के समान (मथीः) दुष्टों को मथनेवाले आप (नेदिष्ठम्) अत्यन्त समीप (महि) बहुत (सुवीर्यम्) उत्तम पराक्रम को अच्छे प्रकार धारण करो और इस (सुचेतुना) सुन्दर ज्ञान देनेवाले गुण से (महि) अधिकता से जैसे हो, वैसे (स्तोतृभ्यः) स्तुति प्रशंसा करनेवालों से (नः) हम लोगों को विद्यावान् (कृधि) करो॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्यार्थियों को चाहिये कि सकल शास्त्र पढ़े हुए धार्मिक विद्वानों की प्रार्थना और सेवा कर पूरी विद्याओं को पावें, जिससे राजा और प्रजाजन विद्यावान् होकर निरन्तर धर्म का आचरण करें॥11॥ इस सूक्त में विद्वान् और राजधर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये॥ यह एक सौ सत्ताईसवां 127 सूक्त और तेरहवाँ 13 वर्ग समाप्त हुआ॥

अयमित्यस्याऽष्टर्चस्याऽष्टविंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्य परुच्छेप ऋषिः। अग्निर्देवता। 1 निचृदत्यष्टिः। 4,3,6,8 विराडत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः। 2 भुरिगष्टिः। 5,7 निचृदष्टिश्छन्दः। मध्यमः स्वरः॥ पुनर्विद्यार्थिनः कीदृशा भवेयुरित्याह॥ फिर विद्यार्थी लोग कैसे होवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒यं जा॑यत॒ मनु॑षो॒ धरी॑मणि॒ होता॒ यजि॑ष्ठ उ॒शिजा॒मनु॑ व्र॒तम॒ग्निः स्वमनु॑ व्र॒तम्। वि॒श्वश्रु॑ष्टिः सखीय॒ते र॒यिरि॑व श्रवस्य॒ते। अद॑ब्धो॒ होता॒ नि ष॑ददि॒ळस्प॒दे परि॑वीत इ॒ळस्पदे॥1॥ अ॒यम्। जा॒य॒त॒। मनु॑षः। धरी॑मणि। होता॑। यजि॑ष्ठः। उ॒शिजा॑म्। अनु॑। व्र॒तम्। अ॒ग्निः। स्वम्। अनु॑। व्र॒तम्। वि॒श्वऽश्रु॑ष्टिः। स॒खि॒ऽय॒ते। र॒यिःऽइ॑व। श्र॒व॒स्य॒ते। अद॑ब्धः। होता॑। नि। स॒द॒त्। इ॒ळः। प॒दे। परि॑ऽवीतः। इ॒ळः। प॒दे॥1॥ पदार्थः—(अयम्) (जायत) जायते (मनुषः) विद्वान् (धरीमणि) धरन्ति सुखानि यस्मिँस्तस्मिन् व्यवहारे (होता) आदाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा संगन्ता (उशिजाम्) कामयमानानां जनानाम् (अनु) आनुकूल्ये (व्रतम्) शीलम् (अग्निः) पावक इव (स्वम्) स्वकीयम् (अनु) (व्रतम्) (विश्वश्रुष्टिः) विश्वाः श्रुष्टस्त्वरिता गतयो यस्य सः। अत्र श्रुधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्तिन् प्रत्ययः। (सखीयते) सखेवाचरति (रयिरिव) श्रीरिव (श्रवस्यते) श्रोष्यमाणाय (अदब्धः) अहिंसितः (होता) दाता (नि) नितराम् (सदत्) सीदति (इळः) स्तोतुमर्हस्य जगदीश्वरस्य (पदे) प्राप्तव्ये विज्ञाने (परिवीतः) परितः सर्वतो वीतं प्राप्तं विज्ञानं येन सः (इळः) प्रशंसितस्य धर्मस्य (पदे) पदनीये॥1॥ अन्वयः—योऽयमिडस्पद इवेडस्पदेऽदब्धो होता परिवीतस्सन् निषदद्रयिरिव विश्वश्रुष्टिः सन् श्रवस्यतेऽग्निरिवोशिजामनुव्रतमिवाऽनुव्रतं स्वं प्राप्तो धरीमणि होता यजिष्ठः सन् जायत स मनुषो सर्वैः सह सखीयते पूज्यश्च स्यात्॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो विद्यां कामयमानानामनुगामि सुशीलो धर्म्ये व्यवहारे सुनिष्ठः सर्वस्य सुहृत् शुभगुणदाता स्यात् स एव मनुष्यमुकुटमणिर्भवेत्॥1॥ पदार्थः—जो (अयम्) यह मनुष्य (इळः) स्तुति के योग्य जगदीश्वर के (पदे) प्राप्त होने योग्य विशेष ज्ञान में जैसे वैसे (इळः) प्रशंसित धर्म के (पदे) पाने योग्य व्यवहार में (अदब्धः) हिंसा आदि दोषरहित (होता) उत्तम गुणों का ग्रहण करनेहारा (परिवीतः) जिसने सब ओर से ज्ञान पाया ऐसा हुआ (नि, षदत्) स्थिर होता (रयिरिव) वा धन के समान (विश्वश्रुष्टिः) जिसकी समस्त शीघ्र चालें ऐसा हुआ (श्रवस्यते) सुननेवाले के लिये (अग्निः) आग के समान वा (उशिजाम्) कामना करनेवाले मनुष्यों के (अनु) अनुकूल (व्रतम्) स्वभाव के तुल्य (अनु, व्रतम्, स्वम्) अनुकूल ही अपने आचरण को प्राप्त वा (धरीमणि) जिसमें सुखों को धारण करते उस व्यवहार में (होता) देनेहारा (यजिष्ठः) और अत्यन्त सङ्ग करता हुआ (जायत) प्रकट होता वह (मनुषः) मननशील विद्वान् सबके साथ (सखीयते) मित्र के समान आचरण करनेवाला और सबको सत्कार करने योग्य होवे॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्या की इच्छा करनेवालों के अनुकूल चालचलन चलनेवाला, सुशील, धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छी निष्ठा रखनेवाला, सबका मित्र, शुभ गुणों का ग्रहण करनेवाला हो, वही मनुष्यों का मुकुटमणि अर्थात् अति श्रेष्ठ शिरधरा होवे॥1॥ पुनर्विद्वान् किं करोतीत्याह॥ फिर विद्वान् क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तं य॑ज्ञ॒साध॒मपि॑ वातयामस्यृ॒तस्य॑ प॒था नम॑सा ह॒विष्म॑ता दे॒वता॑ता ह॒विष्म॑ता। स न॑ ऊ॒र्जामु॒पाभृ॑त्य॒या कृ॒पा न जू॑र्यति। यं मा॑त॒रिश्वा॒ मन॑वे परा॒वतो॑ दे॒वं भाः प॑रा॒वतः॑॥2॥ तम्। य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म्। अपि॑। वा॒त॒या॒म॒सि॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। नम॑सा। ह॒विष्म॑ता। दे॒वऽता॑ता। ह॒विष्म॑ता। सः। नः॒। ऊ॒र्जाम्। उ॒प॒ऽआभृ॑ति। अ॒या। कृ॒पा। न। जू॒र्य॒ति॒। यम्। मा॒त॒रिश्वा॑। मन॑वे। प॒रा॒ऽवतः॑। दे॒वम्। भारिति॒ भाः। प॒रा॒ऽवतः॑॥2॥ पदार्थः—(तम्) अग्निमिव विद्वांसम् (यज्ञसाधम्) यज्ञं साध्नुवन्तम् (अपि) (वातयामसि) वात इव प्रेरयेम (ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (नमसा) सत्कारेण (हविष्मता) बहुदानयुक्तेन (देवताता) देवेनेव (हविष्मता) बहुग्रहणं कुर्वता (सः) (नः) अस्मान् (ऊर्जाम्) पराक्रमवताम् (उपाभृति) उपगतमाभृत्याभूषणं च तत् (अया) अनया। अत्र पृषोदरादिना नलोपः। (कृपा) कल्पनया (न) निषेधे (जूर्यति) रुजति (यम्) (मातरिश्वा) वायुः (मनवे) मनुष्याय (परावतः) दूरदेशात् (देवम्) दातारम् (भाः) सूर्यदीप्तिरिव (परावतः) दूरदेशात्॥2॥ अन्वयः—यथा यं देवं परावतो भारिव मनवे मातरिश्वा परावतो देशाद् दधाति सोऽया कृपा न ऊर्जामुपाभृति न जूर्यति यथा च स देवताता हविष्मता ऋतस्य पथा गच्छति तथा हविष्मता नमसा तं यज्ञसाधमपि वयं वातयामसि॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वान् मनुष्यो यथा वायुः सर्वान् मूर्त्तिमतः पदार्थान् धृत्वा प्राणिनः सुखयति, तथैव विद्याधर्मौ धृत्वा सर्वान् मनुष्यान् सुखयतु॥2॥ पदार्थः—जैसे (यम्) जिस (देवम्) गुण देनेवाले को (परावतः) दूर से जो (भाः) सूर्य की कान्ति उसके समान (मनवे) मनुष्य के लिये (मातरिश्वा) पवन (परावतः) दूर से धारण करता (सः) वह देनेवाला विद्वान् (अया) इस (कृपा) कल्पना से (नः) हम लोगों को (ऊर्जाम्) पराक्रमवाले पदार्थों का (उपाभृति) समीप आया हुआ आभूषण अर्थात् सुन्दरपन जैसे हो वैसे (न) नहीं (जूर्यति) रोगी करा और जैसे वह (देवताता) विद्वान् के समान (हविष्मता) बहुत देनेवाले (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से चलता है, वैसे (हविष्मता) बहुत ग्रहण करनेवाले (नमसा) सत्कार के साथ (तम्) उस अग्नि के समान प्रतापी (यज्ञसाधम्) यज्ञ साधनेवाले विद्वान् को (अपि) निश्चय के साथ हम लोग (वातयामसि) पवन के समान सब कार्यों में प्रेरणा देवें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्य जैसे पवन सब मूर्त्तिमान् पदार्थों को धारण करके प्राणियों को सुखी करता, वैसे ही विद्वान् मनुष्य विद्या और धर्म को धारण कर सब मनुष्यों को सुख देवे॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ एवे॑न स॒द्यः पर्ये॑ति॒ पार्थि॑वं मुहु॒र्गी रेतो॑ वृष॒भः कनि॑क्रद॒द् दध॒द्रेतः॒ कनि॑क्रदत्। श॒तं चक्षा॑णो अ॒क्षभि॑र्दे॒वो वने॑षु तु॒र्वणिः॑। सदो॑ दधा॑न॒ उप॑रेषु॒ सानु॑ष्व॒ग्निः परे॑षु॒ सानु॑षु॥3॥ एवे॑न। स॒द्यः। परि॑। ए॒ति॒। पार्थि॑वम्। मु॒हुः॒ऽगी। रेतः॑। वृ॒ष॒भः। कनि॑क्रदत्। दध॑त्। रेतः॑। कनि॑क्रदत्। श॒तम्। चक्षा॑णः। अ॒क्षऽभिः॑। दे॒वः। वने॑षु। तु॒र्वणिः॑। सदः॑। दधा॑नः। उप॑रेषु। सानु॑षु। अ॒ग्निः। परे॑षु। सानु॑षु॥3॥ पदार्थः—(एवेन) गमनेन (सद्यः) शीघ्रम् (परि) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (पार्थिवम्) पृथिव्यां विदितम् (मुहुर्गीः) मुहुर्मुहुर्गिरं प्राप्तः (रेतः) जलम् (वृषभः) वर्षकः (कनिक्रदत्) भृशं शब्दयन् (दधत्) धरन् (रेतः) वीर्यम् (कनिक्रदत्) अत्यन्तं शब्दयन् (शतम्) असंख्यातानुपदेशान् (चक्षाणः) उपदिशन् (अक्षभिः) इन्द्रियैः (देवः) देदीप्यमानः (वनेषु) रश्मिषु (तुर्वणिः) तमः शीतं हिंसन् (सदः) सीदन्ति येषु तान् (दधानः) धरन् (उपरेषु) मेघेषु (सानुषु) विभक्तेषु शिखरेषु (अग्निः) विद्युत्सूर्यरूपः (परेषु) उत्कृष्टेषु (सानुषु) शैलशिखरेषु॥3॥ अन्वयः—हे विद्वंस्त्वं यथा मुहुर्गी रेतः कनिक्रददिव रेतः कनिक्रदद्दधद् वृषभो वनेषु तुर्वणिर्देव उपरेषु सानुषु परेषु सानुषु च सदो दधानोऽग्निरेवेन पार्थिवं सद्यः पर्येति तथाऽक्षभिः शतं चक्षाणो भव॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो वायुश्च सर्वं धृत्वा मेघं वर्षयित्वा सर्वं जगदानन्दयति तथा विद्वांसो वेदविद्यां धृत्वाऽन्येषामात्मसूपदेशान् वर्षयित्वा सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्ति॥3॥ पदार्थः—हे विद्वान्! आप जैसे (मुहुर्गीः) वार-वार वाणी को प्राप्त (रेतः) जल को (कनिक्रदत्) निरन्तर गर्जाता सा (रेतः) पराक्रम को (कनिक्रदत्) अतीव शब्दायमान करता और (दधत्) धारण करता हुआ (वृषभः) वर्षा करने और (वनेषु) किरणों में (तुर्वणिः) अन्धकार और शीत का विनाश करता हुआ (देवः) निरन्तर प्रकाशमान (उपरेषु) मेघों और (सानुषु) अलग-अलग पर्वत के शिखरों वा (परेषु) उत्तम (सानुषु) पर्वतों के शिखरों में (सदः) जिनमें जन बैठते हैं, उन स्थानों को (दधानः) धारण करता हुआ (अग्निः) बिजुली तथा सूर्यरूप अग्नि (एवेन) अपनी लपट-झपट चाल से (पार्थिवम्) पृथिवी में जाने हुए पदार्थ को (सद्यः) शीघ्र (पर्येति) सब ओर से प्राप्त होता, वैसे (अक्षभिः) इन्द्रियों से (शतम्) सैकड़ों उपदेशों को (चक्षाणः) करनेवाले होते हुए प्रसिद्ध हूजिये॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य और वायु सबको धारण और मेघ को वर्षाकर सब जगत् का आनन्द करते, वैसे विद्वान् जन वेदविद्या को धारण कर औरों के आत्माओ में अपने उपदेशों को वर्षा कर सब मनुष्यों को सुख देते हैं॥3॥ पुनः के विद्वांसोऽर्चनीया भवन्तीत्याह॥ फिर कौन विद्वान् सत्कार के योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स सु॒क्रतुः॑ पु॒रोहि॑तो॒ दमे॑दमे॒ऽग्निर्य॒ज्ञस्या॑ध्व॒रस्य॑ चेतति॒ क्रत्वा॑ य॒ज्ञस्य॑ चेतति। क्रत्वा॑ वे॒धा इ॑षूय॒ते विश्वा॑ जा॒तानि॑ पस्पशे। यतो॑ घृत॒श्रीरति॑थि॒रजा॑यत॒ वह्नि॑र्वे॒धा अजा॑यत॥4॥ सः। सु॒ऽक्रतुः॑। पु॒रःऽहि॑तः। दमे॑ऽदमे। अ॒ग्निः। य॒ज्ञस्य॑। अ॒ध्व॒रस्य॑। चे॒त॒ति॒। क्रत्वा॑। य॒ज्ञस्य॑। चे॒त॒ति॒। क्रत्वा॑। वे॒धाः। इ॒षु॒ऽय॒ते। विश्वा॑। जा॒तानि॑। प॒स्प॒शे॒। यतः॑। घृ॒त॒ऽश्रीः। अति॑थिः। अजा॑यत। वह्निः॑। वे॒धाः। अजा॑यत॥4॥ पदार्थः—(सः) विद्वान् (सुक्रतुः) सुष्ठु कर्मप्रज्ञः (पुरोहितः) संपादितहितपुरस्सरः (दमेदमे) गृहे गृहे (अग्निः) पावक इव वर्त्तमानः (यज्ञस्य) विद्वत्सत्काराऽभिधस्य (अध्वरस्य) हिंसितुमनर्हस्य (चेतति) ज्ञापयति (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (यज्ञस्य) संगन्तुमर्हस्य (चेतति) ज्ञापयति (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (वेधाः) मेधावी (इषूयते) इषूरिवाचरति (विश्वा) सर्वाणि (जातानि) उत्पन्नानि (पस्पशे) प्रबध्नाति (यतः) (घृतश्रीः) घृतमाज्यं सेवमानः (अतिथिः) पूजनीयोऽविद्यमानतिथिः (अजायत) जायेत (वह्निः) वोढेव (वेधाः) मेधावी (अजायत) जायेत॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्याः! यः सुक्रतुः पुरोहितोऽग्निरिव दमेदमे क्रत्वा यज्ञस्य चेततीवाऽध्वरस्य चेतति क्रत्वा वेधा इषूयते विश्वा जातानि पस्पशे यतो घृतश्रीरतिथिरजायत वह्निरिव वेधा अजायत स एव सर्वैर्विद्योपदेशाय समाश्रयितव्यः॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो देशे देशे, नगरे नगरे, द्वीपे द्वीपे, ग्रामे ग्रामे, गृहे गृहे च सत्यमुपदिशन्ति ते सर्वैः सत्कर्त्तव्या भवन्ति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि और कर्मवाला (पुरोहितः) प्रथम जिसने हित सिद्ध किया और (अग्निः) आग के समान प्रतापी वर्त्तमान (दमे, दमे) घर-घर में (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि वा कर्म से (यज्ञस्य) विद्वानों के सत्काररूप कर्म की (चेतति) अच्छी चितौनी देते हुए के समान (अध्वरस्य) न छोड़ने (यज्ञस्य) किन्तु सङ्ग करने योग्य उत्तम यज्ञ आदि काम का (चेतति) विज्ञान कराता वा जो (क्रत्वा) श्रेष्ठ बुद्धि वा कर्म से (वेधाः) धीर बुद्धिवाला (इषूयते) बाण के समान विषयों में प्रवेश करता और (विश्वा) समस्त (जातानि) उत्पन्न हुए पदार्थों का (पस्पशे) प्रबन्ध करता वा (यतः) जिससे (घृतश्रीः) घी का सेवन करता हुआ (अतिथिः) जिसकी कोई कहीं ठहरने की तिथि निश्चित नहीं वह सत्कार के योग्य विद्वान् (अजायत) प्रसिद्ध होवे और (वह्निः) वस्तु के गुणादिकों की प्राप्ति करानेवाले अग्नि के समान (वेधाः) धीर बुद्धि पुरुष (अजायत) प्रसिद्ध होवे (सः) वही विद्वान् विद्या के उपदेश के लिये सबको अच्छे प्रकार आश्रय करने योग्य है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् देश-देश, नगर-नगर, द्वीप-द्वीप, गांव-गांव, घर-घर में सत्य का उपदेश करते वे सबको सत्कार करने योग्य होते हैं॥4॥ केऽत्र कल्याणविधायका भवन्तीत्याह॥ इस संसार में उत्तम सुख का विधान करनेवाले कौन होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ क्रत्वा॒ यद॑स्य॒ तवि॑षीषु पृ॒ञ्चते॒ऽग्नेरवे॑ण म॒रुतां॒ न भो॒ज्ये॑षि॒राय॒ न भो॒ज्या॑। स हि ष्मा॒ दान॒मिन्व॑ति॒ वसू॑नां च म॒ज्मना॑। स न॑स्त्रासते दुरि॒ताद॑भि॒ह्रुतः शंसा॑द॒घाद॑भि॒ह्रुतः॑॥5॥14॥ क्रत्वा॑। यत्। अ॒स्य॒। तवि॑षीषु। पृ॒ञ्चते॑। अ॒ग्नेः। अवे॑न। म॒रुता॑म्। न। भो॒ज्या॑। इ॒षि॒राय॑। न भो॒ज्या॑। सः। हि। स्म॒। दान॑म्। इन्व॑ति। वसू॑नाम्। च॒। म॒ज्मना॑। सः। नः॒। त्रा॒स॒ते॒। दुः॒ऽइ॒तात्। अ॒भि॒ऽह्रुतः॑। शंसा॑त्। अ॒घात्। अ॒भि॒ऽह्रुतः॑॥5॥ पदार्थः—(क्रत्वा) प्रज्ञया (यत्) यः (अस्य) सेनेशस्य (तविषीषु) प्रशस्तबलयुक्तासु सेनासु (पृञ्चते) सम्बध्नाति (अग्नेः) विद्युतः (अवेन) रक्षणाद्येन (मरुताम्) वायूनाम् (न) इव (भोज्या) भोक्तुं योग्यानि (इषिराय) प्राप्तविद्याय (न) इव (भोज्या) पालयितुं योग्यानि (सः) (हि) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दानम्) दीयते यत्तत् (इन्वति) प्राप्नोति (वसूनाम्) प्रथमकोटिप्रविष्टानां विदुषाम् (च) पृथिव्यादीनां वा (मज्मना) बलेन (सः) (नः) अस्मान् (त्रासते) उद्वेजयति (दुरितात्) दुःखप्रदायिनः (अभिह्रुतः) आभिमुख्यं प्राप्तात् कुटिलात् (शंसात्) प्रशंसनात् (अघात्) पापात् (अभिह्रुतः) अभितः सर्वतो वक्रात्॥5॥ अन्वयः—यदस्य क्रत्वाऽवेन मरुतामग्नेरिषिराय भोज्या नेव भोज्या न तविषीषु पृञ्चते, यो हि मज्मना वसूनां च दानमिन्वति, यो नोऽभिह्रुतो दुरितादभिह्रुतोऽघात् त्रासते शंसात् संयोजयति स स्म सुखं प्राप्नोति, स च सुखकारी जायते, स स्म विद्वान् पूज्यः स सर्वाऽभिरक्षको भवति॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये सुशिक्षाविद्यादानेन दुष्टस्वभावगुणेभ्योऽधर्माचरणेभ्यश्च निवर्त्य शुभगुणेषु प्रवर्त्तयन्ति, तेऽत्र कल्याणकारका आप्ता भवन्ति॥5॥ पदार्थः—(यत्) जो (अस्य) इस सेनापति की (क्रत्वा) बुद्धि और (अवेन) रक्षा आदि काम से (मरुताम्) पवनों और (अग्नेः) बिजुली आग की (इषिराय) विद्या को प्राप्त हुए पुरुष के लिये (भोज्या) भोजन करने योग्य पदार्थों के (न) समान वा (भोज्या) पालने योग्य पदार्थों के (न) समान पदार्थों का (तविषीषु) प्रशंसित बलयुक्त सेनाओं में (पृञ्चते) सम्बन्ध करता वा जो (हि) ठीक-ठीक (मज्मना) बल से (वसूनाम्) प्रथम कक्षावाले विद्वानों तथा (च) पृथिव्यादि लोकों का (दानम्) जो दिया जाता पदार्थ उसको (इन्वति) प्राप्ति होता वा जो (नः) हम लागों को (अभिह्रुतः) आगे आये हुए कुटिल (दुरितात्) दुःखदायी (अभिह्रुतः) सब ओर से टेढ़े-मेढ़े छोटे-बड़े (अघात्) पाप से (त्रासते) उद्वेग करता अर्थात् उठाता वा (शंसात्) प्रशंसा से संयोग कराता (सः, स्म) वही सुख को प्राप्त होता और (सः) वह सुख करनेवाला होता तथा वही विद्वान् सबके सत्कार करने योग्य और वह सभी की ओर से रक्षा करनेहारा होता है॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो उत्तम शिक्षा और विद्या के दान से दुष्टस्वभावी प्राणियों और अधर्म के आचरणों से निवृत्त कराके अच्छे गुणों में प्रवृत्त कराते, वे इस संसार में कल्याण करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् होते हैं॥5॥ पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह॥ फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ विश्वो॒ विहा॑या अर॒तिर्वसु॑र्दधे॒ हस्ते॒ दक्षि॑णे त॒रणि॒र्न शि॑श्रथच्छ्रव॒स्यया॒ न शि॑श्रथत्। विश्व॑स्मा॒ इदि॑षुध्य॒ते दे॑व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑षे। विश्व॑स्मा॒ इत्सु॒कृते॒ वार॑मृण्वत्य॒ग्निर्द्वारा॒ व्यृ॑ण्वति॥6॥ विश्वः॑। विऽहा॑याः। अ॒र॒तिः। वसुः॑। द॒धे॒। हस्ते॑। दक्षि॑णे। त॒रणिः॑। न। शि॒श्र॒थ॒त्। श्र॒व॒स्यया॑। न। शि॒श्र॒थ॒त्। विश्व॑स्मै। इत्। इ॒षु॒ध्य॒ते। दे॒व॒ऽत्रा। ह॒व्यम्। आ। ऊ॒हि॒षे॒। विश्व॑स्मै। इत्। सु॒ऽकृते॑। वार॑म्। ऋ॒ण्व॒ति॒। अ॒ग्निः। द्वारा॑। वि। ऋ॒ण्व॒ति॒॥6॥ पदार्थः—(विश्वः) सर्वः (विहायाः) शुभगुणव्याप्तः (अरतिः) प्रापकः (वसुः) प्रथमकल्पब्रह्मचर्यः (दधे) धरामि (हस्ते) (दक्षिणे) (तरणिः) तारकः (न) निषेधे (शिश्रथत्) श्रथयेत् (श्रवस्यया) आत्मनः श्रव इच्छया (न) निषेधे (शिश्रथत्) श्रथयेत्। अत्रोभयत्राऽडभावः। (विश्वस्मै) सर्वस्मै (इत्) एव (इषुध्यते) इषुध इवाचरति तस्मै (देवत्रा) देवेष्विति (हव्यम्) दातुमर्हम् (आ) (ऊहिषे) वितर्कयसि (विश्वस्मै) (इत्) इव (सुकृते) सुष्ठु कर्त्तुं (वारम्) पुनः पुनर्वर्त्तुम् (ऋण्वति) प्राप्नोति (अग्निः) विद्युदिव (द्वारा) द्वाराणि (वि) विशेषाऽर्थे (ऋण्वति) प्राप्नोति॥6॥ अन्वयः—विश्वो विहाया अरतिस्तरणिर्वसुः श्रवस्ययाऽग्निर्न शिश्रथदिव न शिश्रथद्दक्षिणे हस्ते आमलक इव देवत्राहं विद्या दधे विश्वस्मा इषुध्यते त्वं हव्यमोहिषे तथेद्यो विश्वस्मै सुकृते द्वारा ऋण्वति स सुखमिद्वारं व्यृण्वति॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः सर्वान् व्यक्तान् पदार्थान् प्रकाश्य सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि जनयति तथाऽहिंसका विद्वांसो विद्याः प्रकाश्य सर्वानानन्दयन्ति॥6॥ पदार्थः—(विश्वः) समग्र (विहायाः) विद्या आदि शुभगुणों में व्याप्त (अरतिः) उत्तम व्यवहारों की प्राप्ति कराता और (तरणिः) तारनेहारा (वसुः) प्रथम श्रेणी का ब्रह्मचारी विद्वान् (श्रवस्यया) अपनी उत्तम उपदेश सुनने की इच्छा से जैसे (अग्निः) बिजुली न (शिश्रथत्) शिथिल हो वैसे (न) नहीं (शिश्रथत्) शिथिल हो वा (दक्षिणे) दाहिने (हस्ते) हाथ में जैसे आमलक धरें वैसे (देवत्रा) विद्वानों में मैं विद्या को (दधे) धारण करूं वा (विश्वस्मै) सब (इषुध्यते) धनुष् के समान आचरण करते हुए जनसमूह के लिये तू (हव्यम्) देने योग्य पदार्थ का (आ, ऊहिषे) तर्क-वितर्क करता (इत्) वैसे ही जो (विश्वस्मै) सब (सुकृते) सुकर्म करनेवाले जनसमूह के लिये (द्वारा) उत्तम व्यवहारों के द्वारों को (ऋण्वति) प्राप्त होता वह सुख (इत्) ही के (वारम्) स्वीकार करने को (वि, ऋण्वति) विशेषता से प्राप्त होता है॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य सब व्यक्त पदार्थों को प्रकाशित कर सबके लिये सब सुखों को उत्पन्न करता, वैसे हिंसा आदि दोषों से रहित विद्वान् जन विद्या का प्रकाश कर सबको आनन्दित करते हैं॥6॥ पुनस्ते किं कुर्युरित्याह॥ फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स मानु॑षे वृ॒जने॒ शंत॑मो हि॒तो॒ग्निर्य॒ज्ञेषु॒ जेन्यो॒ न वि॒श्पतिः॑ प्रि॒यो य॒ज्ञेषु॑ वि॒श्पतिः॑। स ह॒व्या मानु॑षाणामि॒ळा कृ॒तानि॑ पत्यते। स न॑स्त्रासते॒ वरु॑णस्य धू॒र्तेर्म॒हो दे॒वस्य॑ धू॒र्तेः॥7॥ सः। मानु॑षे। वृ॒जने॑। शम्ऽत॑मः। हि॒तः। अ॒ग्निः। य॒ज्ञेषु॑। जेन्यः॑। न॑। वि॒श्पतिः॑। प्रि॒यः। य॒ज्ञेषु॑। वि॒श्पतिः॑। सः। ह॒व्या। मानु॑षाणाम्। इ॒ळा। कृ॒तानि॑। प॒त्य॒ते॒। सः। नः॒। त्रा॒स॒ते॒। वरु॑णस्य। धू॒र्तेः। म॒हः। दे॒वस्य॑। धू॒र्तेः॥7॥ पदार्थः—(सः) विद्वान् (मानुषे) मानुषाणामस्मिन् (वृजने) व्रजन्ति यस्मिन् मार्गे तस्मिन् पृषोदरादिनास्य सिद्धिः। (शंतमः) अतिशयेन सुखकारी (हितः) हितसंपादकः (अग्निः) पावक इव (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादिषु (जेन्यः) जेतुं शीलः (न) इव (विश्पतिः) विशां पालको राजा (प्रियः) प्रीणाति सः (यज्ञेषु) संगन्तव्येषु व्यवहारेषु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालयिता (सः) (हव्या) हव्यान्यादातुमर्हाणि (मानुषाणाम्) (इळा) सुसंस्कृतानि वचनानि (कृतानि) निष्पन्नानि (पत्यते) प्राप्यते (सः) (नः) अस्मान् (त्रासते) उद्वेजयति (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (धूर्त्तेः) हिंसकस्य सकाशात् (महः) महतः (देवस्य) विद्याप्रदस्य (धूर्त्तेः) अविद्या हिंसकस्य॥7॥ अन्वयः—यः प्रियो विश्पतिर्नोऽस्मान् धूर्त्तेस्त्रासते स धूर्त्तेर्महो देवस्य वरुणस्य सकाशात् यज्ञेषु मानुषाणामिळा कृतानि हव्या स्थिरीकरोति स सर्वैः पत्यते यो यज्ञेष्वग्निरिव जेन्यो न विश्पतिर्मानुषे वृजने हितश्शन्तमो भवति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यो भवति॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये धर्ममार्गे जनानुपदेशेन प्रवर्त्तयन्ति न्यायेशो राजेव प्रजापालका दस्य्वादिभयनिवारकाः विदुषां मित्राणि जनाः सन्ति त एवान्धपरम्परानिरोधका भवितुमर्हन्ति॥7॥ पदार्थः—जो (प्रियः) तृप्ति करनेवाला है, वह (विश्पतिः) प्रजाओं का पालक राजा (नः) हम लोगों को (धूर्त्तेः) हिंसक से (त्रासते) वेमन कराता और (सः) वह (धूर्तेः) अविद्या को नाशने और (महः) बड़े (देवस्य) विद्या देनेवाले (वरुणस्य) उत्तम विद्वान् के पास से जो (यज्ञेषु) सङ्ग करने योग्य व्यवहारों में (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (इळा) अच्छे संस्कारों से युक्त (कृतानि) सिद्ध किये शुद्ध वचन (हव्या) जो कि ग्रहण करने योग्य हों उनको स्थिर करता तथा (सः) वह सबको (पत्यते) प्राप्त होता वा (यज्ञेषु) अग्निहोत्र आदि यज्ञों में (अग्निः) अग्नि के समान वा (जेन्यः) विजयशील के (नः) समान (विश्पतिः) प्रजाजनों का पालनेवाला (मानुषे) मनुष्यों के (वृजने) उस मार्ग में कि जिसमें गमन करते (हितः) हित सिद्ध करनेवाला (शंतमः) अतीव सुखकारी होता (सः) वह विद्वान् सबको सत्कार करने योग्य होता है॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धर्म मार्ग में मनुष्यों को उपदेश से प्रवृत्त कराते, न्यायाधीश राजा के समान प्रजाजनों को पालने, डाकू आदि दुष्ट प्राणियों से जो डर उसको निवृत्त करानेवाले विद्वानों के मित्रजन हैं, वे ही अन्धपरम्परा अर्थात् कुमार्ग के रोकनेवाले होने को योग्य होते हैं॥7॥ कस्य समागमेन किं प्राप्तव्यमित्याह॥ किसके मिलाप से क्या पाने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒ग्निं होता॑रमीळते॒ वसु॑धितिं प्रि॒यं चेति॑ष्ठमर॒तिं न्ये॑रिरे हव्य॒वाहं॒ न्ये॑रिरे। वि॒श्वायुं॑ वि॒श्ववे॑दसं॒ होता॑रं यज॒तं क॒विम्। दे॒वासो॑ र॒ण्वमव॑से वसू॒यवो॑ गी॒र्भी र॒ण्वं व॑सू॒यवः॑॥8॥15॥ अ॒ग्निम्। होता॑रम्। ई॒ळ॒ते॒। वसु॑ऽधितिम्। प्रि॒यम्। चेति॑ष्ठम्। अ॒र॒तिम्। नि। ए॒रि॒रे॒। ह॒व्य॒ऽवाह॑म्। नि। ए॒रि॒रे॒। वि॒श्वऽआ॑युम्। वि॒श्वऽवे॑दसम्। होता॑रम्। य॒ज॒तम्। क॒विम्। दे॒वासः॑। र॒ण्वम्। अव॑से। व॒सुऽयवः॑। गीः॒ऽभिः। र॒ण्वम्। व॒सु॒ऽयवः॑॥8॥ पदार्थः—(अग्निम्) पावकमिव वर्त्तमानम् (होतारम्) दातारम् (ईळते) स्तुवन्ति (वसुधितिम्) वसूनां धितयो यस्य तम् (प्रियम्) प्रीतिकारकम् (चेतिष्ठम्) अतिशयेन चेतितारम् (अरतिम्) प्राप्तविद्यम् (नि) (एरिरे) प्रेरयन्ति (हव्यवाहम्) हव्यानां वोढारम् (नि) (एरिरे) प्राप्नुवन्ति (विश्वायुम्) यो विश्वं सर्वं बोधमेति तम् (विश्ववेदसम्) विश्वं समग्रं वेदो धनं यस्य तम् (होतारम्) आदातारम् (यजतम्) पूजितुमर्हम् (कविम्) पूर्णविद्यम् (देवासः) विद्वांसः (रण्वम्) सत्योपदेशकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (वसूयवः) य आत्मनो वसूनि द्रव्याणीच्छन्ति ते (गीर्भिः) सुसंस्कृताभिर्वाग्भिः (रण्वम्) सत्यवादिनम् (वसूयवः) अत्रोभयत्र वसुशब्दात् सुप आत्मनः क्यजिति क्यच् प्रत्ययः। क्याच्छन्दसीत्युः प्रत्ययः, अन्येषामपीति दीर्घः॥8॥ अन्वयः—हे मनुष्या! ये देवासो यमग्निमिव होतारं वसुधितिमरतिं हव्यवाहं चेतिष्ठं प्रियं विद्वांसं जिज्ञासवो न्येरिरे विश्वायुं विश्ववेदसं होतारं यजतं कविं रण्वं वसूयव इव न्येरिरे वसूयवोऽवसे गीर्भी रण्वमीळते तान् यूयमपीळिध्वम्॥8॥ भावार्थः—अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! विद्वांसो यस्य सेवासंगेन विद्याः प्राप्नुवन्ति, तस्यैव सेवासङ्गेन युष्माभिरप्येता आप्तव्याः॥8॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्यष्टाविंशत्युत्तरं शततमं 128 सूक्तं पञ्चदशो 15 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (देवासः) विद्वान् जन जिस (अग्निम्) अग्नि के समान वर्त्तमान (होतारम्) देनेवाले (वसुधितिम्) जिसके कि धनों की धारणा हैं (अरतिम्) और जो विद्या पाये हुए हैं, उस (हव्यवाहम्) देने-लेने योग्य व्यवहार की प्राप्ति कराने (चेतिष्ठम्) चिताने और (प्रियम्) प्रीति उत्पन्न करानेहारे विद्वान् के जानने की इच्छा किये हुए (न्येरिरे) निरन्तर प्रेरणा देते वा (विश्वायुम्) जो सब विद्यादि गुणों के बोध को प्राप्त होता (विश्ववेदसम्) जिसका समग्र वेद धन उस (होतारम्) ग्रहण करनेवाले (यजतम्) सत्कार करने योग्य (कविम्) पूर्णविद्यायुक्त और (रण्वम्) सत्योपदेशक सत्यवादी पुरुष को (वसूयवः) जो धन आदि पदार्थों की इच्छा करते हैं, उनके समान (न्येरिरे) निरन्तर प्राप्त होते हैं वा जो (वसूयवः) धन आदि पदार्थों को चाहनेवाले (अवसे) रक्षा आदि के लिये (गीर्भिः) अच्छी स्ास्कार की हुई वाणियों से (रण्वम्) सत्य बोलनेवाले की (ईळते) स्तुति करते हैं, उन-सबों की तुम भी स्तुति करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! विद्वान् लोग जिसकी सेवा और सङ्ग से विद्यादि गुणों को पाते हैं, उसी की सेवा और सङ्ग से तुम लोगों को चाहिये कि इनको पाओ॥8॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ अट्ठाईसवां 128 सूक्त और पन्द्रहवाँ 15 वर्ग पूरा हुआ॥

अथ यं त्वमित्यस्यैकादशर्चस्यैकोनत्रिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य परुच्छेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1, 2 निचृदत्यष्टिः। 3 विराडत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः। 4 अष्टिः। 6,11 भुरिगष्टिः। 10 निचृदष्टिः छन्दः। मध्यमः स्वरः। 5 भुरिगतिशक्वरी। 7 स्वराडतिशक्वरी। पञ्चमः स्वरः। 8,9 स्वराट् शक्वरी छन्दः। धैवतः स्वरः॥ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह॥ अब ग्यारह ऋचावाले एक सौ उनतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं॥ यं त्वं रथ॑मिन्द्र मे॒धसा॑तयेऽपा॒का सन्त॑मिषिर प्र॒णय॑सि॒ प्रान॑वद्य॒ नय॑सि। स॒द्यश्चि॒त्तम॒भिष्ट॑ये॒ करो॒ वश॑श्च वा॒जिन॑म्। सास्माक॑मनवद्य तूतुजान वे॒धसा॑मि॒मां वाचं॒ न वे॒धसा॑म्॥1॥ यम्। त्वम्। रथ॑म्। इ॒न्द्र॒। मे॒धऽसा॑तये। अ॒पा॒का। सन्त॑म्। इ॒षि॒र॒। प्र॒ऽनय॑सि। प्र। अ॒न॒व॒द्य॒। नय॑सि। स॒द्यः। चि॒त्। तम्। अ॒भिष्ट॑ये। करः॑। वशः॑। च॒। वा॒जिन॑म्। सः। अ॒स्माक॑म्। अ॒न॒व॒द्य॒। तू॒तु॒जा॒न॒। वे॒धसा॑म्। इ॒माम्। वाच॑म्। न। वे॒धसा॑म्॥1॥ पदार्थः—(यम्) (त्वम्) (रथम्) रमणीयम् (इन्द्र) विद्वन् सभेश (मेधसातये) मेधानां पवित्राणां संविभागाय (अपाका) अपगतमविद्याजन्यं दुःखं यस्य तम् (सन्तम्) विद्यमानम् (इषिर) इच्छो (प्रणयसि) (प्र) (अनवद्य) प्रशंसित (नयसि) प्रापयसि (सद्यः) (चित्) इव (तम्) (अभिष्टये) इष्टप्राप्तये (करः) कुर्य्याः। अत्र लेट्। (वशः) कामयमानः (च) (वाजिनम्) प्रशस्तज्ञानवन्तम् (सः) (अस्माकम्) (अनवद्य) प्रशंसितगुणयुक्त (तूतुजान) क्षिप्रकारिन् (वेधसाम्) मेधाविनाम् (इमाम्) (वाचम्) सुशिक्षितां वाणीम् (न) इव (वेधसाम्) मेधाविनाम्॥1॥ अन्वयः—हे इषिरेन्द्र! त्वं मेधसातये यमपाका सन्तं रथं प्रणयसीव विद्यां प्रणयसि च, हे अनवद्य! वशस्त्वमभिष्टये च वाजिनं चित्तं सद्यः करः। हे तूतुजानानवद्य! स त्वमस्माकं वेधसान्न वेधसामिमां वाचं करः॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सर्वान् मनुष्यान् विद्याविनयेषु प्रवर्त्तयन्ति तेऽभीष्टानि साद्धुं शक्नुवन्ति॥1॥ पदार्थः—हे (इषिर) इच्छा करनेवाले (इन्द्र) विद्वान् सभापति! (त्वम्) आप (मेधसातये) पवित्र पदार्थों के अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (यम्) जिस (अपाका) पूर्ण ज्ञानवाले (सन्तम्) विद्यमान (रथम्) विद्वान् को रमण करने योग्य रथ को (प्रणयसि) प्राप्त कराने के समान विद्या को (प्रणयसि) प्राप्त करते हो (च) और हे (अनवद्य) प्रशंसायुक्त! (वशः) कामना करते हुए आप (अभिष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (वाजिनम्) प्रशंसित ज्ञानवान् के (चित्) समान (तम्) उसको (सद्यः) शीघ्र (करः) सिद्ध करें वा हे (तूतुजान) शीघ्र कार्यों के कर्त्ता (अनवद्य) प्रशंसित गुणों से युक्त! (सः) सो आप (अस्माकम्) हम (वेधसाम्) धीर बुद्धिवालों के (न) समान (वेधसाम्) बुद्धिमानों की (इमाम्) इस (वाचम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को सिद्ध करें अर्थात् उसको उपदेश करें॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन सब मनुष्यों को विद्या और विनय आदि गुणों में प्रवृत्त कराते हैं, वे सब ओर से चाहे हुए पदार्थों की सिद्धि कर सकते हैं॥1॥ पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्याह॥ फिर विद्वान् कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स श्रु॑धि॒ यः स्मा॒ पृत॑नासु॒ कासु॑ चिद् द॒क्षाय्य॑ इन्द्र॒ भर॑हूतये॒ नृभि॒रसि॒ प्रतू॑र्तये॒ नृभिः॑। यः शूरैः॒ स्व1॒ः॑सनि॑ता॒ यो विप्रै॒र्वाजं॒ तरु॑ता। तमी॑शा॒नास॑ इरधन्त वा॒जिनं॑ पृ॒क्षमत्यं॒ न वा॒जिन॑म्॥2॥ सः। श्रु॒धि॒। यः। स्म॒। पृत॑नासु। कासु॑। चि॒त्। द॒क्षाय्यः॑। इ॒न्द्र॒। भर॑ऽहूतये। नृऽभिः॑। असि॑। प्रऽतू॑र्तये। नृऽभिः॑। यः। शूरैः॑। स्वरिति॑ स्वः॑। सनि॑ता। यः। विप्रैः॑। वाज॑म्। तरु॑ता। तम्। ई॒शा॒नासः॑। इ॒र॒ध॒न्त॒। वा॒जिन॑म्। पृ॒क्षम्। अत्य॑म्। न। वा॒जिन॑म्॥2॥ पदार्थः—(सः) सेनेशः (श्रुधि) शृणु (यः) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पृतनासु) सेनासु (कासु) (चित्) अपि (दक्षाय्यः) यो राजकर्मसु प्रवीणः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (भरहूतये) भराणां पालकानां हूतये स्पर्द्धायै (नृभिः) नायकैः (असि) (प्रतूर्त्तये) सद्योऽनुष्ठानाय (नृभिः) नायकैः (यः) (शूरैः) निर्भयैः (स्वः) सुखम् (सनिता) संविभाजकः (यः) (विप्रैः) मेधाविभिः (वाजम्) विज्ञानम् (तरुता) प्लविता (तम्) (ईशानासः) समर्थाः (इरधन्त) ये इरान् इळान् प्रेरकान् दधति ते इरधास्त इवाचरन्तु (वाजिनम्) विज्ञानवन्तम् (पृक्षम्) सुखैः सेचकम् (अत्यम्) व्याप्तिशीलम् (न) इव (वाजिनम्) अश्वम्॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्र सेनेश! यस्त्वं प्रतूर्त्तये नृभिरिव नृभिर्भरहूतये कासु चित्पृतनासु दक्षाय्योऽसि यस्त्वं शूरैः सनिता यो विप्रैर्वाजं तरुता वाजिनमत्यं नेव पृक्षं वाजिनं धरसि तं त्वामीशानास इरधन्त स स्मैव सर्वस्य न्यायं श्रुधि॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वद्भिर्न्यायाधीशैः सह राजधर्मं नयन्ति ते प्रजास्वानन्दप्रदा भवन्ति॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त सेनापति! (यः) जो आप (प्रतूर्त्तये) शीघ्र आरम्भ करने के लिये (नृभिः) मुख्य अग्रगन्ता मनुष्यों के समान (नृभिः) अपने अधिकारी कामचारी मनुष्यों से (भरहूतये) दूसरों की पालना करनेवाले राजजनों की स्पर्द्धा अर्थात् उनकी हार करने के लिये (कासु, चित्) किन्हीं (पृतनासु) सेनाओं में और (दक्षाय्यः) राजकामों में अति चतुर (असि) हो वा (यः) जो आप (शूरैः) निडर शूरवीरों के साथ (स्वः) सुख को (सनिता) अच्छे बांटनेवाले वा (यः) जो (विप्रैः) धीर बुद्धिवालों के साथ (वाजम्) विशेष ज्ञान को (तरुता) पार होनेवाले (वाजिनम्) विशेष ज्ञानवान् (अत्यम्) व्याप्त होनेवाले के (न) समान (पृक्षम्) सुखों को सीचनेंवाले (वाजिनम्) घोड़े को धारण करते हो (तम्) उन आपको (ईशानासः) समर्थ जन (इरधन्तः) जो प्रेरणा करनेवालों को धारण करते उनके जैसा आचरण करें अर्थात् प्रेरणा दें और (सः) (स्म) वही आप सबके न्याय को (श्रुधि) सुनें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् और न्यायाधीशों के साथ राजधर्म को प्राप्त करते, वे प्रजाजनों में आनन्द को अच्छे प्रकार देनेवाले होते हैं॥2॥ पुनः के जगदुपकारका भवन्तीत्याह॥ फिर कौन संसार का उपकार करनेवाले होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ द॒स्मो हि ष्मा॒ वृष॑णं॒ पिन्व॑सि॒ त्वचं॒ कं चि॑द्यावीर॒ररुं॑ शूर॒ मर्त्यं॑ परिवृ॒णक्षि॒ मर्त्य॑म्। इन्द्रो॒त तुभ्यं॒ तद्दि॒वे तद्रु॒द्राय॒ स्वय॑शसे। मि॒त्राय॑ वोचं॒ व॑रुणाय स॒प्रथः॑ सुमृळी॒काय॑ स॒प्रथः॑॥3॥ द॒स्मः। हि। स्म॒। वृष॑णम्। पिन्व॑सि। त्वच॑म्। कम्। चि॒त्। या॒वीः॒। अ॒ररु॑म्। शू॒र॒। मर्त्य॑म्। प॒रि॒ऽवृ॒णक्षि॑। मर्त्य॑म्। इन्द्र॑। उ॒त। तुभ्य॑म्। तत्। दि॒वे। तत्। रु॒द्राय॑। स्वऽय॑शसे। मि॒त्राय॑। वो॒च॒म्। वरु॑णाय। स॒ऽप्रथः॑। सु॒ऽमृ॒ळी॒काय॑। स॒ऽप्रथः॑॥3॥ पदार्थः—(दस्मः) शत्रूणामुपक्षयिता (हि) यतः (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृषणम्) विद्यावर्षकम् (पिन्वसि) सेवसे (त्वचम्) आच्छादकम् (कम्) (चित्) अपि (यावीः) अयावीः पृथक् करोषि (अररुम्) प्रापकम् (शूर) शत्रुहिंसक (मर्त्यम्) मनुष्यम् (परिवृणक्षि) सर्वतस्त्यजसि (मर्त्यम्) मनुष्यमिव (इन्द्र) सभेश (उत) अपि (तुभ्यम्) (तत्) (दिवे) कामयमानाय (तत्) (रुद्राय) दुष्टानां रोदयित्रे (स्वयशसे) स्वकीयं यशः कीर्त्तिर्यस्य तस्मै (मित्राय) सुहृदे (वोचम्) उच्याम् (वरुणाय) वराय (सप्रथः) प्रथसा विस्तारेण युक्तम् (सुमृळीकाय) सुष्ठु सुखकराय (सप्रथः) सप्रसिद्धिः॥3॥ अन्वयः—हे शूरेन्द्र हि यतो दस्मस्त्वं यं कञ्चित् त्वचं यावीर्वृषणमररुं मर्त्यमिव मर्त्यम् परिवृणक्षि पिन्वस्यतस्तस्मै स्वयशसे मित्राय तुभ्यं च तद्वोचं दिवे रुद्राय वरुणाय सुमृळीकाय सप्रथ इव सप्रथोऽहं तदुत स्म वोचम्॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो मित्रभावेन सत्यमुपदिशन्ति धर्मं सेवन्ते ते परमसुखप्रदा भवन्ति॥3॥ पदार्थः—हे (शूर) शत्रुओं को मारनेवाले (इन्द्र) सभापति! (हि) जिस कारण (दस्मः) शत्रुओं को विनाशनेहारे आप जिस (कञ्चित्) किसी (त्वचम्) धर्म के ढांपनेवाले को (यावीः) पृथक् करते और (वृषणम्) विद्यादि गुणों के वर्षाने (अररुम्) वा दूसरे को उनकी प्राप्ति करानेवाले (मर्त्यम्) मनुष्य के समान (मर्त्यम्) मनुष्य को (परिवृणक्षि) सब ओर से छोड़ते स्वतन्त्रता देते वा (पिन्वसि) उसका सेवन करते हैं, इस कारण उस (स्वयशसे) स्वकीर्त्ति से युक्त (मित्राय) सबके मित्र के लिये वा (तुभ्यम्) आपके लिये (तत्) उस व्यवहार को (वोचम्) मैं कहूं वा (दिवे) कामना करने (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने (वरुणाय) श्रेष्ठ धर्म आचरण करने (सुमृळीकाय) और उत्तम सुख करनेवाले के लिये (सप्रथः) सब प्रकार के विस्तार से युक्त मनुष्य के समान (सप्रथः) प्रसिद्धि अर्थात् उत्तम कीर्त्तियुक्त (तत्) उस उक्त आप के उत्तम व्यवहार को (उत) तर्क-वितर्क से (स्म) ही कहूं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सब मनुष्यों के लिये मित्रभाव से सत्य का उपदेश करते वा धर्म का सेवन करते, वे परम सुख के देनेवाले होते हैं॥3॥ पुनर्मनुष्यैः कैः सह किं कर्त्तव्यमित्याह॥ फिर मनुष्यों को किनके साथ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्माकं॑ व॒ इन्द्र॑मुश्मसी॒ष्टये॒ सखा॑यं वि॒श्वायुं॑ प्रा॒सहं॒ युजं॒ वाजे॑षु प्रा॒सहं॒ युज॑म्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्मो॒तयेऽवा॑ पृ॒त्सुषु॒ कासु॑ चित्। न॒हि त्वा॒ शत्रुः॒ स्तर॑ते स्तृ॒णोषि॒ यं विश्वं॒ शत्रुं॑ स्तृ॒णोषि॒ यम्॥4॥ अ॒स्माक॑म्। वः॒। इन्द्र॑म्। उ॒श्म॒सि॒। इ॒ष्टये॑। सखा॑यम्। वि॒श्वऽआ॑युम्। प्र॒ऽसह॑म्। युज॑म्। वाजे॑षु। प्र॒ऽसह॑म्। युज॑म्। अ॒स्माक॑म्। ब्रह्म॑। ऊ॒तये॑। अव॑। पृ॒त्सुषु॑। कासु॑। चि॒त्। न॒हि। त्वा॒। शत्रुः॑। स्तर॑ते। स्तृ॒णोषि॑। यम्। विश्व॑म्। शत्रु॑म्। स्तृ॒णोषि॑। यम्॥4॥ पदार्थः—(अस्माकम्) (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (उश्मसि) कामयेमहि (इष्टये) इष्टप्राप्तये (सखायम्) मित्रम् (विश्वायुम्) प्राप्तसमग्रशुभगुणम् (प्रासहम्) प्रकृष्टतया सहनशीलम् (युजम्) योगयुक्तम् (वाजेषु) राजजनैः प्राप्तव्येषु (प्रासहम्) अतीवसोढारम् (युजम्) योक्तारम् (अस्माकम्) (ब्रह्म) वेदम् (ऊतये) रक्षाद्याय (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पृत्सुषु) संग्रामेषु। पृत्सुरिति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (कासु) (चित्) (नहि) (त्वा) त्वाम् (शत्रुः) (स्तरते) स्तृणोत्याच्छादयति। अत्र व्यत्ययेन शप्। (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्) (विश्वम्) समग्रम्। (शत्रुम्) विरोधिनम् (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्)॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा वयमस्माकं वो युष्माकं चेन्द्रं परमैश्वर्य्ययुक्तं वाजेषु पृत्सुषु कासु चित् प्रासहं युजमिव प्रासहं युजं विश्वायुं सखायमिष्टय उश्मसि तथा यूयमपि कामयध्वम्। हे विद्वन्नस्माकमूतये त्वं ब्रह्माऽव। एवं सति यं विश्वं स्तृणोषि यं च विरोधिनं स्तृणोषि स शत्रुस्त्वा नहि स्तरते॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावच्छक्यं तावद्बहुमित्राणि कर्तुं प्रयतितव्यम्। परन्तु नाऽधार्मिकाः सखायः कार्य्याः न च दुष्टेषु मित्रता समाचरणीया। एवं सति शत्रूणां बलं नैव वर्द्धते॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (अस्माकम्) हमारे और (वः) तुम्हारे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्ययुक्त वा (वाजेषु) राजजनों को प्राप्त होने योग्य (पृत्सुषु, कासु, चित्) किन्हीं सेनाओं में (प्रासहम्) उत्तमता से सहनशील (युजम्) और योगाभ्यासयुक्त धर्मात्मा पुरुष के समान (प्रासहम्) अतीव सहने (युजम्) और योग करनेवाले (विश्वायुम्) समग्र शुभ गुणों को पाये हुए (सखायम्) मित्र जन की (इष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (उश्मसि) कामना करते हैं वैसे तुम भी कामना करो। हे विद्वान्! (अस्माकम्) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि होने के लिये आप (ब्रह्म) वेद की (अव) रक्षा करो, ऐसे हुए पर (यम्) जिस (विश्वम्) समग्र (शत्रुम्) शत्रुगण को (स्तृणोषि) आच्छादन करते अर्थात् अपने प्रताप से ढांपते और (यम्) जिस विरोध करनेवाले को (स्तृणोषि) ढांपते अर्थात् अपने प्रचण्ड प्रताप से रोकते हुए (शत्रुः) शत्रु (त्वा) आपको (नहि) नहीं (स्तरते) ढांपता है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो सके उतने से बहुत मित्र करने को उत्तम यत्न करें, परन्तु अधर्मी दुष्ट जन मित्र न करने चाहिये और न दुष्टों में मित्रपन का आचरण करना चाहिये, ऐसे हुए पर शत्रुओं का बल नहीं बढ़ता है॥4॥ कोऽत्र सुखदायी भवतीत्याह॥ इस संसार में कौन सुख का देनेवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ नि षू न॒माति॑मतिं॒ कय॑स्य चि॒त् तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भि॒र्नोतिभि॑रु॒ग्राभि॑रुग्रो॒तिभिः॑। नेषि॑ णो॒ यथा॑ पु॒राने॒नाः शू॑र॒ मन्य॑से। विश्वा॑नि पू॒रोरप॑ पर्षि॒ वह्नि॑रा॒सा वह्नि॑र्नो॒ अच्छ॑॥5॥16॥ नि। सु। न॒म॒। अति॑ऽमतिम्। कय॑स्य। चि॒त्। तेजि॑ष्ठाभिः। अ॒रणि॑भिः। न। ऊ॒तिऽभिः॑। उ॒ग्राभिः॑। उ॒ग्र॒। ऊ॒तिऽभिः॑। नेषि॑। नः॒। यथा॑। पु॒रा। अ॒ने॒नाः। शू॒र॒। मन्य॑से। विश्वा॑नि। पू॒रोः। अपः॑। प॒र्षि॒। वह्निः॑। आ॒सा। वह्निः॑। नः॒। अच्छ॑॥5॥ पदार्थः—(नि) (सु) शोभने (नम) नम्रो भव (अतिमतिम्) अतिशयिता चासौ मतिश्च ताम् (कयस्य) विज्ञातुः (चित्) अपि (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) सुखप्रापिकाभिः (न) इव (ऊतिभिः) रक्षणाद्याभिः (उग्राभिः) तीव्राभिः (उग्र) तेजस्विन् (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (नेषि) (नः) अस्मान् (यथा) येन प्रकारेण (पुरा) पूर्वम् (अनेनाः) अविद्यमानमेनः पापं यस्य सः (शूर) दुष्टहिंसक (मन्यसे) जानासि (विश्वानि) सर्वाणि (पूरोः) विदुषो मनुष्यस्य। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (अप) (पर्षि) सिञ्चसि (वह्निः) वोढा (आसा) अन्तिके (वह्निः) वोढा (नः) अस्मान् (अच्छ) शोभने॥5॥ अन्वयः—हे उग्र शूर विद्वंस्त्वं तेजिष्ठाभिररणिभिरुग्राभिरूतिभिर्नोतिभिरतिमतिं विनम। यथऽनेनाः पुरा नयति तथा नो मन्यसे सुनेष्यासा वह्निरिव नोऽच्छ पर्षि कयस्य पुरोश्चित् वह्निस्त्वं विश्वानि दुःखान्यपनेषि स त्वमस्माभिः सेवनीयोऽसि॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यो मनुष्याणां बुद्धिं सुरक्षया वर्द्धयित्वा पापेष्वश्रद्धां जनयति स एव सर्वान् सुखानि नेतुं शक्नोति॥5॥ पदार्थः—हे (उग्र) तेजस्वी (शूर) दुष्टों को मारनेवाले विद्वान्! (तेजिष्ठाभिः) अतीव प्रतापयुक्त (अरणिभिः) सुख देनेवाली (उग्राभिः) तीव्र (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं (न) के समान (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अतिमतिम्) अत्यन्त विचारवाली बुद्धि को (नि, नम) नमो अर्थात् नम्रता के साथ वर्तो वा (यथा) जैसे (अनेनाः) पापरहित मनुष्य (पुरा) पहिले उत्तम कामों की प्राप्ति करता वैसे (नः) हम लोगों को आप (मन्यसे) जानते और (सु, नेषि) सुन्दरता से अच्छे कामों को प्राप्त कराते वा (आसा) अपने पास (वह्निः) पहुंचानेवाले के समान (नः) हम को (अच्छ, पर्षि) अच्छे सींचते वा (कयस्य) विशेष ज्ञान देने और (पूरोः) पूरे विद्वान् मनुष्य के (चित्) भी (वह्निः) पहुँचानेवाले आप (विश्वानि) समग्र दुःखों को (अप) दूर करते हो सो आप हम लोगों के सेवन करने योग्य हो॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्यों की बुद्धि को उत्तम रक्षा से बढ़ा कर पाप कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न करता है, वही सभी को सुख पहुंचा सकता है॥5॥ केभ्यो विद्या देयेत्याह॥ किनके लिये विद्या देनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र तद्वो॑चेयं॒ भव्या॒येन्द॑वे॒ हव्यो॒ न य इ॒षवा॒न्मन्म॒ रेज॑ति रक्षो॒हा मन्म॒ रेज॑ति। स्व॒यं सो अ॒स्मदा नि॒दो व॒धैर॑जेत दुर्म॒तिम्। अव॑ स्रवेद॒घशं॑सोऽवत॒रमव॑ क्षु॒द्रमि॑व स्रवेत्॥6॥ प्र। तत्। वो॒चे॒य॒म्। भव्या॑य। इन्द॑वे। हव्यः॑। न। यः। इ॒षऽवा॑न्। मन्म॑। रेज॑ति। र॒क्षः॒ऽहा। मन्म॑। रेज॑ति। स्व॒यम्। सः। अ॒स्मत्। आ। नि॒दः। व॒धैः। अ॒जे॒त॒। दुः॒ऽम॒तिम्। अव॑। स्र॒वे॒त्। अ॒घऽशं॑सः। अ॒व॒ऽत॒रम्। अव॑। क्षु॒द्रम्ऽइ॑व। स्र॒वे॒त्॥6॥ पदार्थः—(प्र) (तत्) उपदेश्यं ज्ञानम् (वोचेयम्) उपदिशेयम् (भव्याय) यो विद्याग्रहणेच्छुर्भवति तस्मै (इन्दवे) आर्द्राय (हव्यः) होतुमादातुमर्हः (न) इव (यः) (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) मन्तुं योग्यं ज्ञानम् (रेजति) उपार्जति (रक्षोहा) दुष्टगुणकर्मस्वभावहन्ता (मन्म) ज्ञातुं योग्यम् (रेजति) उपार्जति (स्वयम्) (सः) (अस्मत्) (आ) (निदः) निन्दकान् (वधैः) हननैः (अजेत) प्रक्षिपेत्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (दुर्मतिम्) दुष्टा चासौ मतिश्च ताम् (अव) वैपरीत्ये (स्रवेत्) गमयेत् (अघशंसः) योऽघं पापं शंसति सः (अवतरम्) अवाङ्मुखम् (अव) (क्षुद्रमिव) यथा क्षुद्राऽऽशयम् (स्रवेत्) दण्डेयत्॥6॥ अन्वयः—अहं स्वयं यथा हव्यो रक्षोहा मन्म रेजति न य इषवान् मन्म रेजति तद्भव्यायेन्दवे प्रवोचेयम्। योऽस्मत् शिक्षां प्राप्य वधैर्निदो दुर्मतिं चाजेत सोऽवतरं क्षुद्रमिवावस्रवेत। योऽघशंसोऽवास्रवेत् तं वाढं दण्डयेत्॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। विद्वान् ये शुभगुणकर्मस्वभावा विद्यार्थिनः सन्ति तेभ्यः प्रीत्या विद्या प्रदद्यात्। निन्दकान् चोरान् निस्सारयेत् स्वयमपि सदा धार्मिकः स्यात्॥6॥ पदार्थः—मैं (स्वयम्) आप जैसे (हव्यः) स्वीकार करने योग्य (रक्षोहा) दुष्ट गुण, कर्म, स्वभाववालों को मारनेवाला (मन्म) विचार करने योग्य ज्ञान का (रेजति) संग्रह करते हुए के (न) समान (यः) जो (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) जानने योग्य व्यवहार को (रेजति) संग्रह करता है (तत्) उस उपदेश करने योग्य ज्ञान को (भव्याय) जो विद्याग्रहण की इच्छा करनेवाला होता है उस (इन्दवे) आर्द्र अर्थात् कोमल हृदयवाले के लिये (प्र, वोचेयम्) उत्तमता से कहूं जो (अस्मत्) हमसे शिक्षा पाकर (वधैः) मारने के उपायों से (निदः) निन्दा करनेहारों और (दुर्मतिम्) दुष्ट मतिवाले जन को (अजेत) दूर करे (सः) वह (अवतरम्) अधोमुखी लज्जित मुखवाले पुरुष को (क्षुद्रमिव) तुच्छ आशयवाले के समान (अव, स्रवेत्) उसके स्वभाव से विपरीत दण्ड देवे और (अघशंसः) जो पाप की प्रशंसा करता वह चोर, डाकू, लम्पट, लवाड़ आदि जन (अव, आ, स्रवेत्) अपने स्वभाव से अच्छे प्रकार उलटी चाल चले॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। अध्यापक विद्वान् जो शुभ, गुण, कर्म स्वभाववाले विद्यार्थी हैं, उनके लिये प्रीति से विद्याओं को देवे और निन्दा करनेहारे चोरों को निकाल देवे और आप भी सदैव धर्मात्मा हो॥6॥ पुनर्मात्रादिभिः सन्तानाः कथमुपदेष्टव्या इत्याह॥ फिर माता आदि को सन्तान कैसे उपदेशों से समझाने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ व॒नेम॒ तद्धोत्र॑या चि॒तन्त्या॑ व॒नेम॑ र॒यिं र॑यिवः सु॒वीर्यं॑ र॒ण्वं सन्तं॑ सु॒वीर्य॑म्। दु॒र्मन्मा॑नं सु॒मन्तु॑भि॒रेमि॒षा पृ॑चीमहि। आ स॒त्याभि॒रिन्द्रं॑ द्यु॒म्नहू॑तिभि॒र्यज॑त्रं द्यु॒म्नहू॑तिभिः॥7॥ व॒नेम॑। तत्। होत्र॑या। चि॒तन्त्या॑। व॒नेम॑। र॒यिम्। र॒यि॒ऽवः॒। सु॒ऽवीर्य॑म्। र॒ण्वम्। सन्त॑म्। सु॒ऽवीर्य॑म्। दुःऽमन्मा॑नम्। सु॒मन्तु॑ऽभिः। आ। ई॒म्। इ॒षा। पृ॒ची॒म॒हि॒। आ। स॒त्याभिः॑। इन्द्र॑म्। द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः। यज॑त्रम्। द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः॥7॥ पदार्थः—(वनेम) संभजेम (तत्) विज्ञानम् (होत्रया) आदातुमर्हया (चितन्त्या) बुद्धिमत्या (वनेम) विभज्य दद्याम (रयिम्) श्रियम् (रयिवः) श्रीमन् (सुवीर्यम्) श्रेष्ठपराक्रमम् (रण्वम्) उपदेशकम् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (सुवीर्यम्) विद्याधर्माभ्यां सुष्ठ्वात्मबलम् (दुर्मन्मानम्) यो दुष्टं मन्यते स दुर्मन् यस्तं मिनाति तम् (सुमन्तुभिः) शोभनविद्यायुक्तैः (आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यया (इषा) इच्छया (पृचीमहि) सम्बध्नीयाम (आ) (सत्याभिः) सत्याचरणान्विताभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (द्युम्नहूतिभिः) द्युम्नस्य धनस्य यशसो वाऽऽह्वानैः (यजत्रम्) संगन्तव्यम् (द्युम्नहूतिभिः)॥7॥ अन्वयः—हे रयिवो! यथा वयं होत्रया चितन्त्या यद् ज्ञानं वनेम सुवीर्यं रयिं सन्तं रण्वं सुवीर्यं च वनेम सुमन्तुभिरीमिषा च दुर्मन्मानमापृचीमहि द्युम्नहूतिभिर्यजत्रमिव सत्याभिद्युम्नहूतिभिरिन्द्रमापृचीमहि तथा तदेतत्सर्वे त्वं वन पृङ्क्ष्व॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मातापित्रादिभिर्विद्वद्भिर्वा स्वसन्ताना इत्थमुपदेष्टव्या यान्यस्माकं धर्म्याणि कर्माणि तान्याचरणीयानि नो इतराणि एवं सत्याचरणैः परोपकारेणैश्वर्यं सततमुन्नेयम्॥7॥ पदार्थः—हे (रयिवः) धनवान्! जैसे हम लोग (होत्रया) ग्रहण करने योग्य (चितन्त्या) चेतानेवाली बुद्धिमती (=बुद्धिमानी) से जिस ज्ञान का (वनेम) अच्छे प्रकार सेवन करें वा (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त (रयिम्) धन तथा (सन्तम्) वर्त्तमान (रण्वम्) उपदेश करनेवाले (सुवीर्य्यम्) विद्या और धर्म से उत्तम आत्मा के बल का (वनेम) सेवन करें वा (सुमन्तुभिः) उत्तम विद्यायुक्त पुरुषों और (ईम्) पाने योग्य (इषा) इच्छा से (दुर्मन्मानम्) दुष्ट जन मान करनेहारे को जो मारनेवाला उसका (आ, पृचीमहि) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें तथा (द्युम्नहूतिभिः) धन वा यश की बातचीतों से (यजत्रम्) अच्छे प्रकार सङ्ग करने योग्य व्यवहार के समान (सत्याभिः) सत्य आचरणयुक्त (द्युम्नहूतिभिः) धनविषयक बातों से (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य का (आ) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें वैसे (तत्) उक्त समस्त व्यवहार को आप भजो और उससे सम्बन्ध करो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। माता और पिता आदि को वा विद्वानों को चाहिये कि अपने सन्तानों को इस प्रकार उपदेश करें कि जो हमारे धर्म के अनुकूल काम हैं, वे आचरण करने योग्य किन्तु और काम आचरण करने योग्य नहीं, ऐसे सत्याचरणों और परोपकार से निरन्तर ऐश्वर्य्य की उन्नति करनी चाहिये॥7॥ पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह॥ फिर मनुष्य क्या कर के कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्रप्रा॑ वो अ॒स्मे स्वय॑शोभिरू॒ती प॑रिव॒र्ग इन्द्रो॑ दुर्मती॒नां दरी॑मन् दुर्मती॒नाम्। स्व॒यं सा रि॑ष॒यध्यै॒ या न॑ उपे॒षे अ॒त्रैः। ह॒तेम॑स॒न्न व॑क्षति क्षि॒प्ता जू॒र्णिर्न व॑क्षति॥8॥ प्रऽप्र॑। वः॒। अ॒स्मे इति॑। स्वय॑शःऽभिः। ऊ॒ती। प॒रि॒ऽव॒र्गे। इन्द्रः॑। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। दरी॑मन्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। स्व॒यम्। सा। रि॒ष॒यध्यै॑। या। नः॒। उ॒प॒ऽई॒षे। अ॒त्रैः। ह॒ता। ई॒म्। अ॒स॒त्। न। व॒क्ष॒ति॒। क्षि॒प्ता। जू॒र्णिः। न। व॒क्ष॒ति॒॥8॥ पदार्थः—(प्रप्रा) अत्र पादपूरणाय द्वित्त्वम्। निपातस्य चेति दीर्घः। (वः) युष्मभ्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (स्वयशोभिः) स्वकीयाभिः प्रशंसाभिः (ऊती) ऊत्या रक्षया (परिवर्गे) परितः सर्वतः सम्बन्धे (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (दुर्मतीनाम्) दुष्टानां मनुष्याणाम् (दरीमन्) अतिशयेन विदारणे। अत्रान्येषामपि दृश्यत इत्युपधादीर्घः। सुपामिति सप्तम्या लुक्। (दुर्मतीनाम्) दुष्टाचारिणां मनुष्याणाम् (स्वयम्) (सा) (रिषयध्यै) रिषयितुम् (या) सेना (नः) अस्मान् (उपेषे) (अत्रैः) अतन्तीत्याततायिनस्तान् गच्छन्तीत्यत्राः शत्रवस्तैः (हता) (ईम्) सर्वतः (असत्) भवेत् (न) निषेधे (वक्षति) उच्यात् (क्षिप्ता) प्रेरिता (जूर्णिः) शीघ्रकारिणी (न) इव (वक्षति) प्राप्ता भवतु॥8॥ अन्वयः—हे मित्राणि! वोऽस्मे इन्द्रो दुर्मतीनां परिवर्गे दुर्मतीनां दरीमंश्च स्वयशोभिरूती प्रप्र वक्षति या सेना न उपेषेऽत्रैः क्षिप्ता सा रिषयध्यै प्रवृत्ता स्वयमीं हतासत् किन्तु सा जूर्णिर्न न वक्षति॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये दुष्टसंगं विहाय सत्सङ्गेन कीर्तिमन्तो भूत्वाऽतिप्रशंसितसेनया प्रजा रक्षन्ति ते स्वैश्वर्य्या जायन्ते॥8॥ पदार्थः—हे मित्रो! (वः) तुम लोगों के लिये (अस्मे) और हमारे लिये (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् विद्वान् (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले दुष्ट मनुष्यों के (परिवर्गे) सब ओर से सम्बन्ध में और (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले दुराचारी मनुष्यों के (दरीमन्) अतिशय कर विदारने में (स्वयशोभिः) अपनी प्रशंसाओं और (ऊती) रक्षा से (प्रप्र, वक्ष्यति) उत्तमता से उपदेश करे (या) जो सेना (नः) हम लोगों के (उपेषे) समीप आने के लिये (अत्रैः) आततायी शत्रुजनों ने (क्षिप्ता) प्रेरित की अर्थात् पठाई (भेजना) हो (सा) वह (रिषयध्यै) दूसरों को हनन कराने के लिये प्रवृत्त हुई (स्वयम्) आप (ईम्) सब ओर से (हता) नष्ट (असत्) हो, किन्तु वह (जूर्णिः) शीघ्रता करनेवाली के (न) समान (न) न (वक्षति) प्राप्त हो अर्थात् शीघ्रता करने ही न पावे, किन्तु तावत् नष्ट हो जावे॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो दुष्टों के सङ्ग को छोड़ सत्सङ्ग से कीर्त्तिमान् होकर अतीव प्रशंसित सेना से प्रजा की रक्षा करते हैं, वे उत्तम ऐश्वर्यवाले होते हैं॥8॥ पुनरुपदेशकैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥ फिर उपदेश करनेवालों को कैसे वर्त्ताव रखना चाहिये इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं न॑ इन्द्र रा॒या परी॑णसा या॒हि प॒थाँ अ॑ने॒हसा॑ पु॒रो या॑ह्यर॒क्षसा॑। सच॑स्व नः परा॒क आ सच॑स्वास्तमी॒क आ। पा॒हि नो॑ दू॒रादा॒राद॒भिष्टि॑भिः॒ सदा॑ पाह्य॒भिष्टि॑भिः॥9॥ त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। रा॒या। परी॑णसा। या॒हि। प॒था। अ॒ने॒हसा॑। पु॒रः। या॒हि॒। अ॒र॒क्षसा॑। सच॑स्व। नः॒। प॒रा॒के। आ। सच॑स्व। अ॒स्त॒म्ऽई॒के। आ। पा॒हि। नः॒। दू॒रात्। आ॒रात्। अ॒भिष्टि॑ऽभिः। सदा॑। पा॒हि॒। अ॒भिष्टि॑ऽभिः॥9॥ पदार्थः—(त्वम्) (नः) अस्मान् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यवन् (राया) श्रिया (परीणसा) बहुना। परीणस इति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (याहि) प्राप्नुहि (पथा) मार्गेण (अनेहसा) अहिंसामयेन धर्मेण (पुरः) पुरो वर्त्तमानान् (याहि) प्राप्नुहि (अरक्षसा) अविद्यमानानि दुष्टानि रक्षांसि यस्मिँस्तेन (सचस्व) समवेहि (नः) अस्मान् (पराके) पराकइति दूरनामसु पठितम्। (निघं॰3.26) (आ) समन्तात् (सचस्व) समवेहि प्राप्नुहि (अस्तमीके) समीपे (आ) समन्तात् (पाहि) (नः) अस्मान् (दूरात्) (आरात्) समीपात् (अभिष्टिभिः) अभितः सर्वतो यजन्ति संगच्छन्ति याभिस्ताभिः (सदा) सर्वस्मिन् काले (पाहि) रक्ष (अभिष्टिभिः) अभीष्टाभिः क्रियाभिः॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र विद्वँस्त्वं परीणसा राया नोऽस्मान् याह्यनेहसाऽरक्षसा पथा पुरो याहि नः पराके आसचस्व। अस्तमीके समीपेऽस्मानासचस्व। अभिष्टिभिर्दूरादाराच्च नः पाहि। सदाऽभिष्टिभिरस्मान् पाहि॥9॥ भावार्थः—उपदेशकैर्धर्म्ये मार्गे प्रवृत्य सर्वान् प्रवर्त्त्योपदेशद्वारा समीपस्थान् दूरस्थाँश्च संगत्य भ्रमोच्छेदनेन सत्यविज्ञानप्रापणेन च सर्वे सततं संरक्षणीयाः॥9॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) विद्या वा ऐश्वर्ययुक्त विद्वान्! (त्वम्) आप (परीणसा) बहुत (राया) धन से (नः) हम लोगों को (याहि) प्राप्त हो और (अनेहसः) रक्षामय जो धर्म उस से (अरक्षसा) और जिसमें दुष्ट प्राणी विद्यमान नहीं उस (पथा) मार्ग से (पुरः) प्रथम जो वर्त्तमान उनको (याहि) प्राप्त हो और (नः) हमको (पराके) दूर देश में (आ, सचस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ मिलो और (अस्तमीके) समीप में हम लोगों को (आ, सचस्व) अच्छे प्रकार मिलो और जो (अभिष्टिभिः) सब ओर से क्रियाओं से सङ्ग करते उन (दूरात्) दूर और (आरात्) समीप से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो और (सदा) सब कभी (अभिष्टिभिः) सब ओर से चाही हुई क्रियाओं से हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो॥9॥ भावार्थः—उपदेशकों को चाहिये कि धर्म के अनुकूल मार्ग से आप प्रवृत्त हों और सबको प्रवृत्त करा कर अपने उपदेश के द्वारा समीपस्थ और दूरस्थ पदार्थों का सङ्ग कर भ्रम मिटाने और सत्यविज्ञान की प्राप्ति कराने से सबकी निरन्तर अच्छी रक्षा करें॥9॥ पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह॥ फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं न॑ इन्द्र॒ रा॒या तरू॑षसो॒ग्रं चि॑त् त्वा महि॒मा स॑क्ष॒दव॑से म॒हे मि॒त्रं नाव॑से। ओजि॑ष्ठ॒ त्रात॒रवि॑ता॒ रथं॒ कं चि॑दमर्त्य। अ॒न्यम॒स्मद्रि॑रिषेः॒ कं चि॑दद्रिवो॒ रिरि॑क्षन्तं चिदद्रिवः॥10॥ त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। रा॒या। तरू॑षसा। उ॒ग्रम्। चि॒त्। त्वा॒। म॒हि॒मा। स॒क्ष॒त्। अव॑से। म॒हे। मि॒त्रम्। न। अव॑से। ओजि॑ष्ठ। त्रातः॑। अवि॑त॒रिति॑। रथ॑म्। कम्। चि॒त्। अ॒म॒र्त्य॒। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। रि॒रि॒षेः॒। कम्। चि॒त्। अ॒द्रि॒ऽवः॒। रिरि॑क्षन्तम्। चि॒त्। अ॒द्रि॒ऽवः॒॥10॥ पदार्थः—(त्वम्) (नः) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (राया) परमलक्ष्म्या (तरूषसा) तरन्ति शत्रुबलानि येन तत्तरुषस्तेन (उग्रम्) तीव्रम् (चित्) अपि (त्वा) त्वाम् (महिमा) महतो भावः प्रतापः (सक्षत्) संबध्नीयात् (अवसे) रक्षणाद्याय (महे) महते (मित्रम्) सखायम् (न) इव (अवसे) रक्षणाद्याय (ओजिष्ठ) अतिशयेनौजस्विन् (त्रातः) रक्षितः (अवितः) रक्षक (रथम्) रमणीयम् (कम्) सुखकरम् (चित्) अपि (अमर्त्य) कीर्त्या मरणधर्मरहित (अन्यम्) भिन्नम् (अस्मत्) (रिरिषेः) हिन्धि। अत्र बहुलं छन्दसीति शस्य श्लुः। (कम्) (चित्) अपि (अद्रिवः) अद्रयो बहवो मेघा विद्यन्ते यस्मिन् सूर्ये तदिव तेजस्विन् (रिरिक्षन्तम्) रेष्टुं हिंसितुमिच्छन्तम् (चित्) इव (अद्रिवः) बहुशैलराज्ययुक्त॥10॥ अन्वयः—हे इन्द्र! तरूषसा राया महेऽवसे मित्रं नेवावसे यं त्वा महिमा सक्षत् स त्वं चिन्नोऽस्मान् पाहि। हे ओजिष्ठावितरमर्त्य त्रातस्त्वं कं चिद्रथं प्राप्नुहि। हे अद्रिवस्त्वमस्मत्कञ्चिदन्यं रिरिषेः। हे अद्रिवस्त्वं रिरिक्षन्तमुग्रं चिद्रिरिषे॥10॥ भावार्थः—अयमेव मनुष्याणां महिमा यच्छ्रेष्ठपालनं दुष्टहिंसनं चेति॥10॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (त्वम्) आप (तरूषसा) जिससे शत्रुओं के बलों को पार होते उस काल और (राया) उत्तम लक्ष्मी से (महे) अत्यन्त (अवसे) रक्षा आदि सुख के लिये वा (मित्रम्) मित्र के (न) समान (अवसे) रक्षा आदि व्यवहार के लिये जिन (त्वा) आप को (महिमा) बड़प्पन प्रताप (सक्षत्) सम्बन्धे अर्थात् मिले सो आप (चित्) भी (नः) हम लोगों की रक्षा करो। हे (ओजिष्ठ) अतीव प्रतापी (अवितः) रक्षा करनेवाले (अमर्त्य) अपनी कीर्त्ति कलाप से मरण धर्म रहित (त्रातः) राज्य पालनेहारे! आप (कं, चित्) किसी (रथम्) रमण करने योग्य रथ को प्राप्त होओ। हे (अद्रिवः) बहुत मेघोंवाले सूर्य के समान तेजस्वी आप (अस्मत्) हम लोगों से (कं, चित्) किसी (अन्यम्) और ही को (रिरिषेः) मारो। हे (अद्रिवः) पर्वत भूमियों के राज्य से युक्त आप (रिरिक्षन्तम्) हिंसा करने की इच्छा करते हुए (उग्रम्) तीव्र प्राणी को (चित्) भी मारो ताड़ना देओ॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों की यही महिमा है जो श्रेष्ठों की पालना और दुष्टों की हिंसा करना॥10॥ पुनर्विदुषा किं कर्त्तव्यमस्तीत्याह॥ फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पा॒हि न॑ इन्द्र सुष्टुत स्रि॒धो॑ऽवया॒ता सद॒मिद्दु॑र्मती॒नां दे॒वः सन्दु॑र्मती॒नाम्। ह॒न्ता पा॒पस्य॑ र॒क्षस॑स्त्रा॒ता विप्र॑स्य॒ माव॑तः। अधा॒॑ हि त्वा॑ जनि॒ता जीज॑नद्वसो रक्षो॒ह॑णं त्वा॒ जीज॑नद्वसो॥11॥17॥ पा॒हि। नः॒। इ॒न्द्र॒। सु॒ऽस्तु॒त॒। स्रि॒धः। अ॒व॒ऽया॒ता। सद॑म्। इत्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्। दे॒वः। सन्। दुः॒ऽम॒ती॒नाम्।। ह॒न्ता। पा॒पस्य॑। र॒क्षसः॑। त्रा॒ता। विप्र॑स्य। माऽव॑तः। अध॑। हि। त्वा॒। ज॒नि॒ता। जीज॑नत्। व॒सो॒ इति॑। र॒क्षः॒ऽहन॑म्। त्वा॒। जीज॑नत्। व॒सो॒ इति॑॥11॥ पदार्थः—(पाहि) (नः) अस्मान् (इन्द्र) सभेश (सुष्टुत) सुष्ठु प्रशंसित (स्रिधः) दुःखनिमित्तात् पापात् (अवयाता) विरुद्धं गन्ता (सदम्) स्थानम् (इत्) इव (दुर्मतीनाम्) दुष्टानां मनुष्याणाम् (देवः) सत्यं न्यायं कामयमानः (सन्) (दुर्मतीनाम्) दुष्टधियां मनुष्याणाम् (हन्ता) (पापस्य) पापाचारस्य (रक्षसः) परपीडकस्य (त्राता) रक्षकः (विप्रस्य) मेधाविनो धार्मिकस्य (मावतः) मच्छदृशस्य (अध) आनन्तर्ये (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (जनिता) (जीजनत्) जनयेत्। अत्र लुङ्यडभावः। (वसो) यः सज्जनेषु वसति तत्संबुद्धौ (रक्षोहणम्) (त्वा) त्वाम् (जीजनत्) जनयेत् (वसो) विद्यासु वासयितः॥11॥ अन्वयः—हे सुष्टुतेन्द्रावयाता देवः सन् दुर्मतीनां सदमिव दुर्मतीनां प्रचारं हत्वा स्रिधो नोऽस्मान् पाहि। हे वसो जनिता! यं रक्षोहणं त्वा जीजनत्। हे वसो! यं त्वा रक्षकं जीजनत् स हि त्वमध पापस्य रक्षसो हन्ता मावतो विप्रस्य त्राता भव॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इदमेव विदुषां प्रशंसनीयं कर्माऽस्ति यत् पापस्य खण्डनं धर्मस्य मण्डनमिति न केनाऽपि दुष्टस्य सङ्गः श्रेष्ठसङ्गत्यागश्च कर्त्तव्य इति॥11॥ अत्र विद्वद्राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्येकोनत्रिंदुत्तरं शततमं 129 सूक्तं सप्तदशो 17 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (सुष्टुत) उत्तम प्रशंसा को प्राप्त (इन्द्र) सभापति! (अवयाता) विरुद्ध मार्ग को जाते और (देवः) सत्य न्याय की कामना अर्थात् खोज करते (सन्) हुए (दुर्मतीनाम्) दुष्ट मनुष्यों के (सदम्) स्थान के (इत्) समान (दुर्मतीनाम्) दुष्ट बुद्धिवाले मनुष्यों के प्रचार का विनाश कर (स्रिधः) दुःख के हेतु पाप से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो। हे (वसो) सज्जनों में वसनेहारे (जनिता) उत्पन्न करनेहारा पिता, गुरु जिस (रक्षोहणम्) दुष्टों के नाश करनेहारे (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे। वा हे (वसो) विद्याो में वास अर्थात् प्रवेश करानेहारे! जिन रक्षा करनेवाले (त्वा) आपको (जीजनत्) उत्पन्न करे सो (हि) ही आप (अथ) इसके अनन्तर (पापस्य) पाप आचरण करनेवाले (रक्षसः) राक्षस अर्थात् औरों को पीड़ा देनेहारे के (हन्ता) मारनेवाले तथा (मावतः) मेरे समान (विप्रस्य) बुद्धिमान् धर्मात्मा पुरुष की (त्राता) रक्षा करनेवाले हूजिये॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यही विद्वानों का प्रशंसा करने योग्य काम है जो पाप का खण्डन और धर्म का मण्डन करना, किसी को दुष्ट का सङ्ग और श्रेष्ठजन का त्याग न करना चाहिये॥11॥ इस सूक्त में विद्वानों और राजजनों के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह एक सौ उनतीसवाँ 129 सूक्त और सत्रहवाँ 17 वर्ग समाप्त हुआ॥

एन्द्रेत्यस्य दशर्चस्य त्रिंशदुत्तरस्य शततमस्य सूक्तस्य परुच्छेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,5 भुरिगष्टिः। 2,3,6,9 स्वराडष्टिः। 4,8 अष्टिश्छन्दः। मध्यमः स्वरः। 7 निचृदत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः। 10 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ राजप्रजाजनाः परस्परं प्रीत्या वर्त्तेरन्नत्यिाह॥ अब दश ऋचावाले एक सौ तीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा और प्रजाजन आपस में प्रीति के साथ वर्त्तें, इस विषय को कहा है॥ एन्द्र॑ या॒ह्युप॑ नः परा॒वतो॒ नायमच्छा॑ वि॒दथा॑नीव॒ सत्प॑ति॒रस्तं॒ राजे॑व॒ सत्प॑तिः। हवा॑महे त्वा व॒यं प्रय॑स्वन्तः सु॒ते सचा॑। पुत्रासो॒ न पि॒तरं॒ वाज॑सातये॒ मंहि॑ष्ठं॒ वाज॑सातये॥1॥ आ। इ॒न्द्र॒। या॒हि॒। उप॑। नः॒। प॒रा॒ऽवतः॑। न। अ॒यम्। अच्छ॑। वि॒दथा॑निऽइव। सत्ऽप॑तिः। अस्त॑म्। राजा॑ऽइव। सत्ऽप॑तिः। हवा॑महे। त्वा॒। व॒यम्। प्रय॑स्वन्तः। सु॒ते। सचा॑। पु॒त्रासः॑। न। पि॒तर॑म्। वाज॑ऽसातये। मंहि॑ष्ठम्। वाज॑ऽसातये॥1॥ पदार्थः—(आ) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (याहि) प्राप्नुहि (उप) (नः) अस्मानस्माकं वा (परावतः) दूरदेशात् (न) निषेधे (अयम्) (अच्छा) निश्शेषार्थे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विदथानीव) संग्रामानिव (सत्पतिः) सतां धार्मिकाणां पतिः। (अस्तम्) गृहम् (राजेव) (सत्पतिः) सत्याचाररक्षकः (हवामहे) स्तुमः (त्वा) त्वाम् (वयम्) (प्रयस्वन्तः) बहुप्रयत्नशीलाः (सुते) निष्पन्ने (सचा) समवायेन (पुत्रासः) (न) इव (पितरम्) जनकम् (वाजसातये) युद्धविभागाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन पूजितम् (वाजसातये) पदार्थविभागाय॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र! अयं विदथानीवायात्यतस्त्वं नोऽस्मान् परावते नोपायाहि सत्पती राजेव सत्पतिस्त्वं नोऽस्माकमस्तमुपायाहि। प्रयस्वन्तो वयं सचा सुते वाजसातये वाजसातये च पुत्रासः पितरं नेव मंहिष्ठं त्वाच्छ हवामहे॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। सर्वे राजप्रजाजनाः पितापुत्रवदिह वर्त्तित्वा पुरुषार्थिनः स्युः॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् राजन्! (अयम्) यह शत्रुजन (विदथानीव) संग्रामों को जैसे वैसे आकर प्राप्त होता इससे आप (नः) हम लोगों के समीप (परावतः) दूर देश से (न) मत (उपायाहि) आइये, किन्तु निकट से आइये (सत्पतिः) धार्मिक सज्जनों का पति (राजेव) जो प्रकाशमान उसके समान (सत्पतिः) सत्याचरण की रक्षा करनेवाले आप हमारे (अस्तम्) घर को प्राप्त हो (प्रयस्वन्तः) अत्यन्त प्रयत्नशील (वयम्) हम लोग (सचा) सम्बन्ध से (सुते) उत्पन्न हुए संसार में (वाजसातये) युद्ध के विभाग के लिये और (वाजसातये) पदार्थों के विभाग के लिये (पुत्रासः) पुत्रजन जैसे (पितरम्) पिता को (न) वैसे (मंहिष्ठम्) अति सत्कारयुक्त (त्वा) आपकी (अच्छ) अच्छे प्रकार (हवामहे) स्तुति करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। समस्त राजप्रजाजन पिता और पुत्र के समान इस संसार में वर्त्तकर पुरुषार्थी हों॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ पिबा॒ सोम॑मिन्द्र सुवा॒नमद्रि॑भिः॒ कोशे॑न सि॒क्तम॑व॒तं न वंस॑गस्तातृषा॒णो न वंस॑गः। मदा॑य हर्य॒ताय॑ ते तुविष्ट॑माय॒ धाय॑से। आ त्वा॑ यच्छन्तु ह॒रितो॒ न सूर्य॒महा॒ विश्वे॑व॒ सूर्य॑म्॥2॥ पिब॑। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। सु॒वा॒नम्। अद्रि॑ऽभिः। कोशे॑न। सि॒क्तम्। अ॒व॒तम्। न। वंस॑गः। त॒तृ॒षा॒णः। न। वंस॑गः। मदा॑य। ह॒र्य॒ताय॑। ते॒। तुविःऽत॑माय। धाय॑से। आ। त्वा॒। य॒च्छ॒न्तु। ह॒रितः॑। न। सूर्य॑म्। अहा॑। विश्वा॑ऽइव। सूर्य॑म्॥2॥ पदार्थः—(पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) दिव्यौषधिरसम् (इन्द्र) सभेश (सुवानम्) सोतुमर्हम् (अद्रिभिः) शिलाखण्डादिभिः (कोशेन) मेघेन (सिक्तम्) संयुक्तम् (अवतम्) वृद्धम् (न) इव (वंसगः) संभक्ता (तातृषाणः) अतिशयेन पिपासितः (न) इव (वंसगः) वृषभः (मदाय) आनन्दाय (हर्यताय) कामिताय (ते) तुभ्यम् (तुविष्टमाय) अतिशयेन तुविर्बहुस्तस्मै। तुविरिति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰3.1) (धायसे) धर्त्रे (आ) (त्वा) (यच्छन्तु) निगृह्णन्तु (हरितः) (न) इव (सूर्यम्) (अहा) अहानि (विश्वेव) विश्वानीव (सूर्यम्)॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्र! वंसगो न वंसगस्त्वमद्रिभिः सुवानं कोशेनाऽवतं सिक्तं नेव सोमं पिब। तुविष्टमाय धायसे मदाय हर्य्यताय ते तुभ्यमयं सोम आप्नोतु सूर्यमहा विश्वेव सूर्यं हरिता न त्वा य आयच्छन्तु ते सुखमाप्नुवन्तु॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये साधनोपसाधनैरायुर्वेदरीत्या महौषधिरसान् निर्माय सेवन्ते तेऽरोगा भूत्वा प्रयतितुं शक्नुवन्ति॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभापति! (तातृषाणः) अतीव प्यासे (वंसगः) बैल के (न) समान बलिष्ठ (वंसगः) अच्छे विभाग करनेवाले आप (अद्रिभिः) शिलाखण्डों से (सुवानम्) निकालने के योग्य (कोशेन) मेघ से (अवतम्) बढ़े (सिक्तम्) और संयुक्त किये हुए के (न) समान (सोमम्) सुन्दर ओषधियों के रस को (पिब) अच्छे प्रकार पिओ (तुविष्टमाय) अतीव बहुत प्रकार (धायसे) धारणा करनेवाले (मदाय) आनन्द के लिये (हर्य्यताय) और कामना किये हुए (ते) आपके लिये यह दिव्य ओषधियों का रस प्राप्त होवे अर्थात् चाहे हुए (सूर्यम्) सूर्य को (अहा) (विश्वेव) सब दिन जैसे वा (सूर्यम्) सूर्यमण्डल को (हरितः) दिशा-विदिशा (न) जैसे वैसे (त्वा) आपको जो लोग (आ, यच्छन्तु) अच्छे प्रकार निरन्तर ग्रहण करें, वे सुख को प्राप्त होवें॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बड़े साधन और छोटे साधनों और आयुर्वेद अर्थात् वैद्यकविद्या की रीति से बड़ी-बड़ी ओषधियों के रसों को बनाकर उसका सेवन करते, वे आरोग्यवान् होकर प्रयत्न कर सकते हैं॥2॥ पुनः के परमात्मानं ज्ञातुं शक्नुवन्तीत्याह॥ फिर कौन परमात्मा को जान सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अवि॑न्दद्दि॒वो निहि॑तं॒ गुहा॑ नि॒धिं वेर्न गर्भं॒ परि॑वीत॒मश्म॑न्यन॒न्ते अ॒न्तरश्म॑नि। व्र॒जं व॒ज्री गवा॑मिव॒ सिषा॑स॒न्नङ्गि॑रस्तमः। अपा॑वृणो॒दिष॒ इन्द्रः॒ परी॑वृता॒ द्वार॒ इषः॒ परी॑वृताः॥3॥ अवि॑न्दत्। दि॒वः। निऽहि॑तम्। गुहा॑। नि॒ऽधिम्। वेः। न। गर्भ॑म्। परि॑ऽवीतम्। अश्म॑नि। अ॒न॒न्ते। अ॒न्तः। अश्म॑नि। व्र॒जम्। व॒ज्री। गवा॑म्ऽइव। सिसा॑सन्। अङ्गि॑रःऽतमः। अप॑। अ॒वृणो॒त्। इषः॑। इन्द्रः॑। परि॑ऽवृताः। द्वारः॑। इषः॑। परि॑ऽवृताः॥3॥ पदार्थः—(अविन्दत्) प्राप्नोति (दिवः) विज्ञानप्रकाशात् (निहितम्) स्थितम् (गुहा) गुहायां बुद्धौ (निधिम्) निधीयन्ते पदार्था यस्मिँस्तम् (वेः) पक्षिणः (न) इव (गर्भम्) (परिवीतम्) परितः सर्वतो वीतं व्याप्तं कमनीयं च जलम् (अश्मनि) मेघमण्डले (अनन्ते) देशकालवस्त्वपरिछिन्ने (अन्तः) मध्ये (अश्मनि) मेघे (व्रजम्) व्रजन्ति गावो यस्मिन् तम् (वज्री) वज्रो दण्डः शासनार्थो यस्य सः (गवामिव) (सिषासन्) ताडयितुं दण्डयितुमिच्छन् (अङ्गिरस्तमः) अतिप्रशस्तः (अप) (अवृणोत्) वृणोति (इषः) एष्टव्या रथ्याः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्यः (परीवृताः) परितोऽन्धकारेणावृताः (द्वारः) द्वाराणि (इषा) (परीवृताः)॥3॥ अन्वयः—यो वज्री व्रज्रं गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तम इन्द्र इषः परीवृता इव परीवृता इषो द्वारश्चापावृणोदनन्तेऽश्मन्यश्मन्यन्तः परिवीतं वेर्गर्भं न गुहा निहितं निधिं परमात्मानं दिवोऽविन्दत् सोऽतुलं सुखमाप्नोति॥3॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये योगाङ्गधर्मविद्यासत्सङ्गानुष्ठानेन स्वात्मनि स्थितं परमात्मानं विजानीयुस्ते सूर्यस्तम इव स्वसङ्गिनामविद्यां निवार्य विद्याप्रकाशं जनयित्वा सर्वान् मोक्षमार्गे प्रवर्त्याऽनन्दितान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥3॥ पदार्थः—जो (वज्री) शासना के लिये दण्ड धारण किये हुए (वज्रं, गवामिव) जैसे गौओं के समूह गोशाला में गमन करते जाते-आते वैसे (सिषासन्) जनों को ताड़ना देने अर्थात् दण्ड देने की इच्छा करता हुआ अथवा जैसे (अङ्गिरस्तमः) अति श्रेष्ठ (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्य (इषः) इच्छा करने योग्य (परीवृताः) अन्धकार से ढंपी हुई वीथियों को खोले, वैसे (परीवृताः) ढपी हुई (इषः) इच्छाओं और (द्वारः) द्वारों को (अपावृणोत्) खोले तथा (अनन्ते) देश, काल, वस्तु भेद से न प्रतीत होते हुए (अश्मनि) आकाश में (अश्मनि) वर्त्तमान मेघ के (अन्तः) बीच (परिवीतम्) सब ओर से व्याप्त और अति मनोहर जल वा (वेः) पक्षी के (गर्भम्) गर्भ के (न) समान (गुहा) बुद्धि में (निहितम्) स्थित (निधिम्) जिसमें निरन्तर पदार्थ धरे जायें, उस निधिरूप परमात्मा को (दिवः) विज्ञान के प्रकाश से (अविदन्त्) प्राप्त होता है, वह अतुल सुख को प्राप्त होता है॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो योग के अङ्ग, धर्म, विद्या और सत्सङ्ग के अनुष्ठान से अपनी आत्मा में स्थित परमात्मा को जानें, वे सूर्य जैसे अन्धकार को वैसे अपने सङ्गियों की अविद्या छुड़ा विद्या के प्रकाश को उत्पन्न कर सबको मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करा के उन्हें आनन्दित कर सकते हैं॥3॥ केऽत्र सुशोभन्त इत्याह॥ इस संसार में कौन अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र मंक कहा है॥ दा॒दृ॒हा॒णो वज्र॒मिन्द्रो॒ गभ॑स्त्योः॒ क्षद्मे॑व ति॒ग्ममस॑नाय॒ सं श्य॑दहि॒हत्या॑य॒ सं श्य॑त्। सं॒वि॒व्या॒न ओज॑सा॒ शवो॑भिरिन्द्र म॒ज्मना॑। तष्टे॑व वृ॒क्षं व॒निनो॒ नि वृ॑श्चसि पर॒श्वेव॒ नि वृ॑श्चसि॥4॥ द॒दृ॒हा॒णः। वज्र॑म्। इन्द्रः॑। गभ॑स्त्योः। क्षद्म॑ऽइव। ति॒ग्मम्। अस॑नाय। सम्। श्य॒त्। अ॒हि॒ऽहत्या॑य। सम्। श्य॒त्। स॒म्ऽवि॒व्या॒नः। ओज॑सा। शवः॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। म॒ज्मना॑। तष्टा॑ऽइव। वृ॒क्षम्। व॒निनः॑। नि। वृ॒श्च॒सि॒। प॒र॒श्वाऽइ॑व। नि। वृ॒श्च॒सि॒॥4॥ पदार्थः—(दादृहाणः) दोषान् हिंसन्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्, तुजादित्वाद् दैर्घ्यम्, बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (वज्रम्) तीव्रं शस्त्रं गृहीत्वा (इन्द्रः) विद्वान् (गभस्त्योः) बाह्वोः। गभस्तीति बाहुनामसु पठितम्। (निघं॰2.4) (क्षद्मेव) उदकमिव (तिग्मम्) तीव्रम् (असनाय) प्रक्षेपणाय (सम्) सम्यक् (श्यत्) तनूकरोति (अहिहत्याय) मेघहननाय (सम्) (श्यत्) (संविव्यानः) सम्यक् प्राप्नुवन् (ओजसा) पराक्रमेण (शवोभिः) सेनाद्यैर्बलैः (इन्द्र) दुष्टदोषविदारक (मज्मना) बलेन (तष्टेव) यथा छेत्ता (वृक्षम्) (वनिनः) वनानि बहवो रश्मयो विद्यन्ते येषां त इव (नि) (वृश्चसि) छिनत्सि (परश्वेव) यथा परशुना (नि) नितराम् (वृश्चसि) छिनत्सि॥4॥ अन्वयः—हे विद्वन्! भवान् यथा सूर्योऽहिहत्याय तिग्मं वज्रं संश्यत् तथा गभस्त्योः क्षद्मेवासनाय तिग्मं वज्रं निधाय दादृहाणः इन्द्रस्सन् शत्रून् संश्यत्। हे इन्द्र! त्वं वृक्षं मज्मना तष्टेवौजसा शवोभिः सह संविव्यानस्सन् वनिन इव दोषान् निवृश्चसि परश्वेवाविद्यां निवृश्चसि तथा वयमपि कुर्याम॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रमादालस्यादीन् दोषान् पृथक्कृत्य जगति गुणान्निदधति ते सूर्यरश्मय इवेह संशोभन्ते॥4॥ पदार्थः—हे विद्वान्! आप जैसे सूर्य (अहिहत्याय) मेघ के मारने को (तिग्मम्) तीव्र अपने किरणरूपी वज्र को (सं, श्यत्) तीक्ष्ण करता वैसे (गभस्त्योः) अपनी भुजाओं के (क्षद्मेव) जल के समान (असनाय) फेंकने के लिये तीव्र (वज्रम्) शस्त्र को निरन्तर धारण करके (दादृहाणः) दोषों का विनाश करते (इन्द्रः) और विद्वान् होते हुए शत्रुओं को (सं, श्यत्) अति सूक्ष्म करते अर्थात् उनका विनाश करते वा हे (इन्द्र) दुष्टों का दोष नाशनेवाले! आप (वृक्षम्) वृक्ष को (मज्मना) बल से (तष्टेव) जैसे बढ़ई आदि काटनेहारा वैसे (ओजसा) पराक्रम और (शवोभिः) सेना आदि बलों के साथ (संविव्यानः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (वनिनः) वन वा बहुत किरणें जिनके विद्यमान उनके समान दोषों को (नि, वृश्चसि) निरन्तर काटते वा (परश्वेव) जैसे फरसा से कोई पदार्थ काटता, वैसे अविद्या अर्थात् मूर्खपन को अपने ज्ञान से (नि, वृश्चसि) काटते हो, वैसे हम लोग भी करें॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रमाद और आलस्य आदि दोषों को अलग कर संसार में गुणों को निरन्तर धारण करते हैं, वे सूर्य की किरणों के समान यहाँ अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं॥4॥ पुनः केऽत्र प्रकाशिता जायन्त इत्याह॥ फिर इस संसार में कौन प्रकाशित होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं वृथा॑ न॒द्य॑ इन्द्र॒ सर्त॒वेऽच्छा॑ समु॒द्रम॑सृजो॒ रथाँ॑इव वाजय॒तो रथाँ॑इव। इ॒त ऊ॒तीर॑युञ्जत समा॒नमर्थ॒मक्षि॑तम्। धे॒नूरि॑व॒ मन॑वे॒ वि॒श्वदो॑हसो॒ जना॑य वि॒श्वदो॑हसः॥5॥18॥ त्वम्। वृथा॑। न॒द्यः॑। इ॒न्द्र॒। सर्त॑वे। अच्छ॑। स॒मुद्रम्। अ॒सृजः॒। रथा॑न्ऽइव। वा॒ज॒ऽय॒तः। रथा॑न्ऽइव। इ॒तः। ऊ॒तीः। अ॒युञ्ज॒त॒। स॒मा॒नम्। अर्थ॑म्। अक्षि॑तम्। धे॒नूःऽइ॑व। मन॑वे। वि॒श्वऽदो॑हसः। जना॑य। वि॒श्व॒ऽदो॑हसः॥5॥ पदार्थः—(त्वम्) (वृथा) निष्प्रयोजनाय (नद्यः) (इन्द्र) विद्येश (सर्त्तवे) सर्त्तंु गन्तुम् (अच्छ) उत्तमरीत्या (समुद्रम्) सागरम् (असृजः) सृजेः (रथाँइव) यथा रथानधिष्ठाय (वाजयतः) सङ्ग्रामयतः (रथाँइव) (इतः) प्राप्ताः (ऊतीः) रक्षाद्याः क्रियाः (अयुञ्जत) युञ्जते (समानम्) तुल्यम् (अर्थम्) द्रव्यम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (धेनूरिव) यथा दुग्धदात्रीर्गाः (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (विश्वदोहसः) विश्वं सर्वं जगद्गुणैर्दुहन्ति पिपुरति ते (जनाय) धर्म्ये प्रसिद्धाय (विश्वदोहसः) विश्वस्मिन् सुखप्रपूरकाः॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं यथा नद्यः समुद्रं वृथा सृजन्ति तथा रथानिव वाजयतो रथानिव सर्त्तवे अच्छासृजः। जनाय विश्वदोहस इव ये मनवे विश्वदोहसस्सन्तो भवन्तो धेनूरिवेत ऊती रक्षितं समानमर्थं चायुञ्जत तेऽत्यन्तमानन्दं प्राप्नुवन्ति॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्काराः। ये धेनुवत्सुखं रथवद्धर्म्यमार्गमवलम्ब्य धार्मिकन्यायधीशवद्भूत्वा सर्वान् स्वसदृशान् कुर्वन्ति तेऽत्र प्रशंसिता जायन्ते॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) विद्या के अधिपति! (त्वम्) आप जैसे (नद्यः) नदी (समुद्रम्) समुद्र को (वृथा) निष्प्रयोजन भर देती वैसे (रथानिव) रथों पर बैठनेहारों के समान (वाजयतः) संग्राम करते हुओं को (रथानिव) रथों के समान ही (सर्त्तवे) जाने को (अच्छ, असृजः) उत्तम रीति से कलायन्त्रों से युक्त मार्गों को बनावें वा (जनाय) धर्मयुक्त व्यवहार में प्रसिद्ध मनुष्य के लिये जो (विश्वदोहसः) समस्त जगत् को अपने गुणों से परिपूर्ण करते उनके समान (मनवे) विचारशील पुरुष के लिये (विश्वदोहसः) संसार सुख को परिपूर्ण करनेवाले होते हुए आप (धेनूरिव) दूध देनेवाली गौओं के समान (इतः) प्राप्त हुई (ऊतीः) रक्षादि क्रियाओं और (अक्षितम्) अक्षय (समानम्) समान अर्थात् काम के तुल्य (अर्थम्) पदार्थ का (अयुञ्जत) योग करते हैं, वे अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो पुरुष गौओं के समान सुख, रथ के समान धर्म के अनुकूल मार्ग का अवलम्ब कर धार्मिक न्यायाधीश के समान होकर सबको अपने समान करते हैं, वे इस संसार में प्रशंसित होते हैं॥5॥ पुनर्मनुष्याः कस्मात्किं प्राप्य कीदृशा भवन्तीत्याह॥ फिर मनुष्य किससे क्या पाकर कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ इ॒मां ते॒ वाचं॑ वसू॒यन्त॑ आ॒यवो॒ रथं॒ न धीरः॒ स्वपा॑ अतक्षिषुः सु॒म्नाय॒ त्वाम॑तक्षिषुः। शु॒म्भन्तो॒ जेन्यं॑ यथा॒ वाजे॑षु विप्र वा॒जिन॑म्। अत्य॑मिव॒ शव॑से सा॒तये॒ धना॒ विश्वा॒ धना॑नि सा॒तये॑॥6॥ इ॒माम्। ते॒। वाच॑म्। व॒सु॒ऽयन्तः॑। आ॒यवः॑। रथ॑म्। न। धीरः॑। सु॒ऽअपाः॑। अ॒त॒क्षि॒षुः॒। सु॒म्नाय॑। त्वाम्। अ॒त॒क्षि॒षुः॒। शु॒म्भन्तः॑। जेन्य॑म्। य॒था॒। वाजे॑षु। वि॒प्र॒। वा॒जिन॑म्। अत्य॑म्ऽइव। शव॑से। सा॒तये॑। धना॑। विश्वा॑। धना॑नि। सा॒तये॑॥6॥ पदार्थः—(इमाम्) (ते) तव सकाशात् (वाचम्) विद्याधर्मसत्याऽन्वितां वाणीम् (वसूयन्तः) आत्मनो वसूनि विज्ञानादीनि धनानीच्छन्तः (आयवः) विद्वांसः (रथम्) प्रशस्तं रमणीयं यानम् (न) इव (धीरः) ध्यानयुक्तः (स्वपाः) शोभनानि धर्म्याण्यपांसि कर्माणि यस्य सः (अतक्षिषुः) संवृणुयुः। तक्ष त्वचने त्वचनं संवरणमिति। (सुम्नाय) सुखाय (त्वा) त्वाम् (अतक्षिषुः) सूक्ष्मधियं संपादयन्तु (शुम्भन्तः) प्राप्तशोभाः (जेन्यम्) जयति येन तम् (यथा) येन प्रकारेण (वाजेषु) संग्रामेषु (विप्र) मेधाविन् (वाजिनम्) (अत्यमिव) यथाऽश्वम् (शवसे) बलाय (सातये) संविभक्तये (धना) द्रव्याणि (विश्वा) सर्वाणि (धनानि) (सातये) संभोगाय॥6॥ अन्वयः—हे विप्र! यस्य ते तव सकाशादिमां वाचं प्राप्ता आयवो वसूयन्तः स्वपा धीरो रथं नातक्षिषुः शुम्भन्तो यथा वाजेषु जेन्यं वाजिनमत्यमिव शवसे सातये धनानीव विश्वा धना प्राप्य सुम्नाय सातये त्वामतक्षिषुस्ते सुखिनो जायन्ते॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। येऽनूचानादाप्ताद्विदुषोऽखिला विद्याः प्राप्य विस्तृतधियो जायन्ते, ते समग्रमैश्वर्य्यं प्राप्य रथवदश्ववद्धीरवद्धर्म्यमार्गं गत्वा कृतकृत्या जायन्ते॥6॥ पदार्थः—हे (विप्र) मेधावी धीर बुद्धिवाले जन! जिन (ते) आपके निकट से (इमाम्) इस (वाचम्) विद्या, धर्म और सत्ययुक्त वाणी को प्राप्त (आयवः) विद्वान् जन (वसूयन्तः) अपने को विज्ञान आदि धन चाहते हुए (स्वपाः) जिसके उत्तम धर्म के अनुकूल काम वह (धीरः) धीरपुरुष (रथम्) प्रशंसित रमण करने योग्य रथ को (न) जैसे वैसे (अतक्षिषुः) सूक्ष्मबुद्धि को स्वीकार करें वा (शुम्भन्तः) शोभा को प्राप्त हुए (यथा) जैसे (वाजेषु) संग्रामों में (जेन्यम्) जिससे शत्रुओं को जीतते उस (वाजिनम्) अतिचतुर वा संग्रामयुक्त पुरुष को (अत्यमिव) घोड़ा के समान (शवसे) बल के लिये और (सातये) अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (धनानि) द्रव्य आदि पदार्थों के समान (विश्वा) समस्त (धना) विद्या आदि पदार्थों को प्राप्त होकर (सुम्नाय) सुख और (सातये) संभोग के लिये। (त्वाम्) आपको (अतक्षिषुः) उत्तमता से स्वीकार करे वा अपने गुणों से ढांपे वे सुख होते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो उपदेश करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् जन से समस्त विद्याओं को पाकर विस्तारयुक्त बुद्धि अर्थात् सब विषयों में बुद्धि फैलानेहारे होते हैं, वे समग्र ऐश्वर्य को पाकर, रथ, घोड़ा और धीर पुरुष के समान धर्म के अनुकूल मार्ग को प्राप्त होकर कृतकृत्य होते हैं॥6॥ केऽत्रैश्वर्यमुन्नयन्तीत्याह॥ इस संसार में कौन ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ भि॒नत्पुरो॑ नव॒तिमि॑न्द्र पू॒रवे॒ दिवो॑दा॑साय॒ महि॑ दा॒शुषे॑ नृतो॒ वज्रे॑ण दा॒शुषे॑ नृतो। अ॒ति॒थि॒ग्वाय॒ शम्ब॑रं गि॒रेरु॒ग्रो अवा॑भरत्। म॒हो धना॑नि॒ दय॑मान॒ ओज॑सा॒ विश्वा॒ धना॒न्योज॑सा॥7॥ भि॒नत्। पु॑रः। न॒व॒तिम्। इ॒न्द्र॒। पू॒रवे॑। दिवः॑ऽदासाय। महि॑। दा॒शुषे॑। नृ॒तो॒ इति॑। वज्रे॑ण। दा॒शुषे॑। नृतो॒ इति॑। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शम्ब॑रम्। गि॒रेः। उ॒ग्रः। अव॑। अ॒भ॒र॒त्। म॒हः। धना॑नि। दय॑मानः। ओज॑सा। विश्वा॑। धना॑नि। ओज॑सा॥7॥ पदार्थः—(भिनत्) विदृणाति (पुरः) पुराणि (नवतिम्) एतत् संख्याकानि (इन्द्र) दुष्टविदारक (पूरवे) अलं साधनाय मनुष्याय। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (दिवोदासाय) कमितस्य प्रदात्रे (महि) महते पूजिताय (दाशुषे) विद्यादत्तवते (नृतो) विद्याप्राप्तयेऽङ्गानां प्रक्षेप्तः (वज्रेण) शस्त्रेणेवोपदेशेन (दाशुषे) दानं कुर्वते (नृतो) स्वगात्राणां विक्षेप्तः (अतिथिग्वाय) अतिथीन् गच्छते (शम्बरम्) मेघम् (गिरेः) शैलस्याग्रे (उग्रः) तीक्ष्णस्वभावः सूर्यः (अव) (अभरत्) बिभर्त्ति (महः) महान्ति (धनानि) (दयमानः) दाता (ओजसा) पराक्रमेण (विश्वा) सर्वाणि (धनानि) (ओजसा) पराक्रमेण॥7॥ अन्वयः—हे नृतो नृतविन्द्र! यो भवान् वज्रेण शत्रूणां नवतिं पुरोऽभिनत् महि दिवोदासाय दाशुषे पूरवे सुखमवाभरत्। हे नृतो! भवान् अतिथिग्वाय दाशुष उग्रो गिरेः शम्बरमिवोजसा महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्यवाभरत् स किञ्चिदपि दुःखं कथं प्राप्नुयात्॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नवतिमिति पदं बहूपलक्षणार्थम्। ये शत्रून् विजयमाना अतिथीन् सत्कुर्वन्तः धार्मिकान् विद्या ददमाना वर्त्तन्ते ते सूर्यो मेघमिवाऽखिलमैश्वर्यं बिभ्रति॥7॥ पदार्थः—हे (नृतो) अपने अङ्गों को युद्ध आदि में चलाने वा (नृतो) विद्या की प्राप्ति के लिये अपने शरीर की चेष्टा करने (इन्द्र) और दुष्टों का विनाश करनेवाले! जो आप (वज्रेण) शस्त्र वा उपदेश से शत्रुओं की (नवतिम्) नब्बे (पुरः) नगरियों को (भिनत्) विदारते नष्ट-भ्रष्ट करते वा (महि) बड़प्पन पाये हुए सत्कारयुक्त (दिवोदासाय) चहीते पदार्थ को अच्छे प्रकार देनेवाले और (दाशुषे) विद्यादान किये हुए (पूरवे) पूरे साधनों से युक्त मनुष्य के लिये सुख को धारण करते तथा (अतिथिग्वाय) अतिथियों को प्राप्त होने और (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (उग्रः) तीक्ष्ण स्वभाव अर्थात् प्रचण्ड प्रतापवान् सूर्य (गिरेः) पर्वत के आगे (शम्बरम्) मेघ को जैसे वैसे (ओजसा) अपने पराक्रम से (महः) बड़े-बड़े (धनानि) धन आदि पदार्थों के (दयमानः) देनेवाले (ओजसा) पराक्रम से (विश्वा) समस्त (धनानि) धनों को (अवाभरत्) धारण करते सो आप किञ्चित् भी दुःख को कैसे प्राप्त होवें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस मन्त्र में ‘नवतिम्’ यह पद बहुतों का बोध कराने के लिये है। जो शत्रुओं को जीतते, अथितियों का सत्कार करते और धार्मिकों को विद्या आदि गुण देते हुए वर्त्तमान हैं, वे सूर्य्य जैसे मेघ को वैसे समस्त ऐश्वर्य धारण करते हैं॥7॥ पुनर्मनुष्यैः कीदृशैर्भवितव्यमित्याह॥ फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ इन्द्रः॑ स॒मत्सु॒ यज॑मान॒मार्यं॒ प्राव॒द्विश्वे॑षु श॒तमू॑तिरा॒जिषु स्व॑र्मीळ्हेष्वा॒जिषु॑। मन॑वे॒ शास॑दव्र॒तान्त्वचं॑ कृ॒ष्णाम॑रन्धयत्। दक्ष॒न्न विश्वं॑ ततृषा॒णमोषति॒ न्य॑र्शसा॒नमो॑षति॥8॥ इन्द्रः॑। स॒मत्ऽसु॑। यज॑मानम्। आर्य॑म्। प्र। आ॒व॒त्। विश्वे॑षु। श॒तम्ऽऊ॑तिः। आ॒जिषु॑। स्वः॑ऽमीळ्हेषु। आ॒जिषु॑। मन॑वे। शास॑त्। अ॒व्र॒तान्। त्वच॑म्। कृ॒ष्णाम्। अ॒र॒न्ध॒य॒त्। धक्ष॑त्। न। विश्व॑म्। त॒तृ॒षा॒णम्। ओ॒ष॒ति॒। नि। अ॒र्श॒सा॒नम्। ओ॒ष॒ति॒॥8॥ पदार्थः—(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (समत्सु) संग्रामेषु (यजमानम्) अभयस्य दातारम् (आर्यम्) उत्तमगुणकर्मस्वभावम् (प्र) प्रकृष्टे (आवत्) रक्षेत् (विश्वेषु) समग्रेषु (शतमूतिः) शतमसंख्याता ऊतयो रक्षा यस्मात् सः (आजिषु) प्राप्तेषु (स्वर्मीढेषु) स्वः सुखं मिह्यते सिच्यते येषु तेषु (आजिषु) संग्रामेषु (मनवे) मननशीलधार्मिकमनुष्यरक्षणाय (शासत्) शिष्यात् (अव्रतान्) दुष्टाचारान् दस्यून् (त्वचम्) सम्पर्कमिन्द्रियम् (कृष्णाम्) कर्षिताम् (अरन्धयत्) हिंस्यात् (धक्षत्) दहेत्। अत्र वाच्छन्दसतीति भस्त्वं न। (न) इव (विश्वम्) सर्वम् (ततृषाणम्) प्राप्ततृषम् (ओषति) (नि) (अर्शसानम्) प्राप्तं सत् (ओषति) दहेत्॥8॥ अन्वयः—यश्शतमूतिरिन्द्रः स्वर्मीढेष्वाजिष्वाजिषु धार्मिकाः शूरा इव विश्वेषु समत्सु यजमानमार्य्यं प्रावत् मनवे व्रतान् शासदेषां त्वचं कृष्णां कुर्वन्नरन्धयदग्निर्विश्वं धक्षंस्ततृषाणमोषति नार्शसानं न्योषति स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैरार्यगुणकर्मस्वभावान् स्वीकृत्य दस्युगुणकर्मस्वभावान् विहाय श्रेष्ठान् संरक्ष्य दुष्टान् संदण्ड्य धर्मेण राज्यं शासनीयम्॥8॥ पदार्थः—जो (शतमूतिः) अर्थात् जिससे असंख्यात रक्षा होती वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् राजा (स्वर्मीढेषु) जिनमें सुख सिञ्चन किया जाता उन (आजिषु) प्राप्त हुए (आजिषु) संग्रामों में धार्मिक शूरवीरों के समान (विश्वेषु) समग्र (समत्सु) संग्राम में (यजमानम्) अभय के देनेवाले (आर्यम्) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले पुरुष को (प्रावत्) अच्छे प्रकार पाले वा (मनवे) विचारशील धार्मिक मनुष्य की रक्षा के लिये (अव्रतान्) दुष्ट आचरण करनेवाले डाकुओं को (शासत्) शिक्षा देवे और इनकी (त्वचम्) सम्बन्ध करने वाली खाल को (कृष्णाम्) खैंचता हुआ (अरन्धयत्) नष्ट करे वा अग्नि जैसे (विश्वम्) सब पदार्थ मात्र को (धक्षत्) जलावे और (ततृषाणम्) प्यासे प्राणी को (ओषति) दाहे अति जलन देवे (न) वैसे (अर्शसानम्) प्राप्त हुए शत्रुगण को (न्योषति) निरन्तर जलावे, वही चक्रवर्त्ति राज्य करने योग्य होता है॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावों को स्वीकार और दुष्टों के गुण, कर्म, स्वभावों का त्याग कर श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों को ताड़ना देकर धर्म में राज्य की शासना करें॥8॥ पुनर्विद्वद्भिरत्र कथं भवितव्यमित्याह॥ फिर इस संसार में विद्वानों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सूर॑श्च॒क्रं प्र वृहज्जा॒त् ओज॑सा प्रपि॒त्वे वाच॑मरु॒णो मु॑षायतीशा॒न आ मु॑षायति। उ॒शना॒ यत्प॑रा॒वतोऽजग॑न्नू॒तये॑ कवे। सुम्नानि॒ विश्वा॒ मनु॑षेव तुर्वणि॒रहा॒विश्वे॑व तुर्वणिः॑॥9॥ सूरः॑। च॒क्रम्। प्र। वृ॒ह॒त्। जा॒तः। ओज॑सा। प्रऽपि॒त्वे। वाच॑म्। अ॒रु॒णः। मु॒षा॒य॒ति॒। ई॒शा॒नः। आ। मु॑षा॒य॒ति॒। उ॒शना॑। यत्। प॒रा॒ऽवतः॑। अज॑गन्। ऊ॒तये॑। क॒वे॒। सुम्नानि॑। विश्वा॑। मनु॑षाऽइव। तु॒र्वणिः॑। अहा॑। विश्वा॑ऽइव। तु॒र्वणिः॑॥9॥ पदार्थः—(सूरः) सूर्यः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानं जगत् पृथिव्यादिकम् (प्र) बृहत् (जातः) प्रकटः सन् (ओजसा) स्वबलेन (प्रपित्वे) उत्तरस्मिन् (वाचम्) (अरुणः) रक्तवर्णः (मुषायति) मुषः खण्डक इवाचरति (ईशानः) शक्तिमान् सन् (आ) (मुषायति) (उशना) (यत्) यः (परावतः) दूरतः (अजगन्) गच्छेत्। अत्र लङि तिपि बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः, मो नो धातोरिति मस्य नः। (ऊतये) रक्षणाद्याय (कवे) विद्वन् (सुम्नानि) सुखानि (विश्वा) सर्वाणि (मनुषेव) मनुष्यवत् (तुर्वणिः) हिंसकः (अहा) दिनानि (विश्वेव) यथा सर्वाणि (तुर्वणिः) हिंसन्॥9॥ अन्वयः—हे कवे! यद्य ओजसाऽरुणस्तुर्वणिर्जातः सूरो विश्वाहा प्रपित्वे बृहच्चक्रं प्रजनयतीव तुर्वणिर्मनुषेव विश्वा सुम्नानि वाचमाजनयतु मुषायतीव वेशान उशना भवानूतये परावतोऽजगन् दुष्टान् मुषायति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्करौ। ये सूर्यवद्विद्याविनयधर्मप्रकाशकाः सर्वेषामुन्नतये प्रयतन्ते ते स्वयमप्युन्नता भवन्ति ॥9॥ पदार्थः—हे (कवे) विद्वान्! (यत्) जो (ओजसा) अपने बल से (अरुणः) लालरङ्ग युक्त (तुर्वणिः) मेघ को छिन्न-भिन्न करता और (जातः) प्रकट होता हुआ (सूरः) सूर्य्यमण्डल जैसे (विश्वाहा) सब दिनों को वा (प्रपित्वे) उत्तरायण से (बृहत्) महान् (चक्रम्) चाक के समान वर्त्तमान जगत् को (प्र) प्रकट करता, वैसे और (तुर्वणिः) दुष्टों की हिंसा करनेवाले उत्तमोत्तम (मनुषेव) मनुष्य के समान (विश्वा) समस्त (सुम्नानि) सुखों और (वाचम्) वाणी को (आ) अच्छे प्रकार प्रकट करें वा सूर्य जैसे (मुषायति) खण्डन करनेवाले के समान आचरण करता वैसे (ईशानः) समर्थ होते हुए (उशना) विद्यादि गुणों से कान्तियुक्त आप (ऊतये) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (परावतः) परे अर्थात् दूर से (अजगन्) प्राप्त हों और दुष्टों को (मुषायति) खण्ड-खण्ड करें, सो सबको सत्कार करने योग्य हैं॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलु्पतोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य के तुल्य विद्या, विनय और धर्म का प्रकाश करनेवाले सबकी उन्नति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वे आप भी उन्नतियुक्त होते हैं॥9॥ पुना राजप्रजाजनैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥ फिर राजा और प्रजाजनों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र मेंकहा है॥ स नो॒ नव्ये॑भिर्वृषकर्मन्नु॒क्थैः पुरां॑ दर्तः पा॒युभिः॑ पाहि श॒ग्मैः। दि॒वो॒दा॒सेभि॑रिन्द्र॒ स्तवा॑नो वावृधी॒था अहो॑भिरिव॒ द्यौः॥10॥19॥ सः। नः॒। नव्ये॑भिः। वृ॒ष॒ऽक॒र्म॒न्। उ॒क्थैः। पुरा॑म्। द॒र्त॒रिति॑ दर्तः। पा॒युऽभिः॑। पा॒हि॒। श॒ग्मैः। दि॒वः॒ऽदा॒सेभिः॑। इ॒न्द्र॒। स्तवा॑नः। व॒वृ॒धी॒थाः। अहो॑भिःऽइव। द्यौः॥10॥ पदार्थः—(सः) (नः) अस्मान् (नव्येभिः) नवीनैः (वृषकर्मन्) वृषस्य मेघस्य कर्माणीव कर्माणि यस्य तत्सम्बुद्धौ (उक्थैः) प्रशंसनीयैः (पुराम्) शत्रुनगराणाम् (दर्त्तः) विदारक (पायुभिः) रक्षणैः (पाहि) रक्ष (शग्मैः) सुखैः। शग्ममिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (दिवोदासेभिः) प्रकाशस्य दातृभिः (इन्द्र) सर्वरक्षक सभेश (स्तवानः) स्तूयमानः। अत्र कर्मणि शानच्। (वावृधीथाः) वर्धेथाः। अत्र वाच्छन्दसीति शपः श्लुः, तुजादीनामित्यभ्यासस्य दैर्घ्यम्, वाच्छन्दसीत्युपधागुणो न। (अहोभिरिव) यथा दिवसैः (द्यौः) सूर्य्यः॥10॥ अन्वयः—हे वृषकर्मन्! पुरां दत्तरिन्द्र यो दिवोदासेभिः स्तवानः स त्वं नव्येभिरुक्थैश्शग्मैः पायुभिर्द्यौरहोभिरिव नः पाहि वावृधीथाः॥10॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः सूर्यवत् विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशं प्रजा उत्साहनीयाः प्रशंसनीयाश्चैवं प्रजाजनैः राजजनाश्चेति॥10॥ अत्र राजप्रजाकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति त्रिंशदुत्तरं शततमं 130 सूक्तमेकोनविंशो 19 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(वृषकर्मन्) जिनके वर्षनेवाले मेघ के कामों के समान काम वह (पुराम्) शत्रुनगरों को (दर्त्तः) दरने-विदारने-विनाशने (इन्द्र) और सबकी रक्षा करनेवाले हे सेनापति! (दिवोदासेभिः) जो प्रकाश देनेवाली (स्तवानः) स्तुति प्रशंसा को प्राप्त हुए हैं (सः) वह आप (नव्येभिः) नवीन (उक्थैः) प्रशंसा करने योग्य (शग्मैः) सुखों और (पायुभिः) रक्षाओं से (द्यौः) जैसे सूर्य (अहोभिरिव) दिनों से वैसे (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करें और (वावृधीथाः) वृद्धि को प्राप्त होवें॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों को सूर्य के समान विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्म के उपदेश से प्रजाजनों को उत्साह देना और उनकी प्रशंसा करनी चाहिये और वैसे ही प्रजाजनों को राजजन वर्त्तने चाहिये॥10॥ इस सूक्त में राजा और प्रजाजन के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जाननी चाहिये॥ यह एक सौ तीसवां 130 सूक्त और उन्नीसवां 19 वर्ग पूरा हुआ॥