ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 111-120 सूक्तानि

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ऋग्वेदभाष्यम् प्रथममण्डले 111-120 सूक्तानि[सम्पाद्यताम्]

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् (डॉ॰ ज्ञानप्रकाशशास्त्रिणा सम्पादितं डॉ॰ नरेशकुमारधीमान्-द्वारा च यूनिकोडरूपेण परिवर्तितम्)[सम्पाद्यताम्]

अथ पञ्चर्चस्यैकादशोत्तरशततमस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। ऋभवो देवताः। 1-4 जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 5 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ शिल्पकुशला मेधाविनः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते। अब एकसौ ग्यारहवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में शिल्पविद्या में चतुर बुद्धिमान् क्या करें, यह उपदेश किया है॥ तक्ष॒न् रथं॑ सु॒वृतं॑ विद्म॒नाप॑स॒स्तक्ष॒न्हरी॑ इन्द्र॒वाहा॒ वृष॑ण्वसू। तक्ष॑न् पि॒तृभ्या॑मृ॒भवो॒ युव॒द्वय॒स्तक्ष॑न्व॒त्साय॑ मा॒तरं॑ सचा॒भुव॑म्॥1॥ तक्ष॑न्। रथ॑म्। सु॒ऽवृत॑म्। वि॒द्म॒नाऽअ॑पसः। तक्ष॑न्। हरी॒ इति॑। इ॒न्द्र॒ऽवाहा॑। वृष॑ण्वसू॒ इति वृष॑ण्ऽवसू। तक्ष॑न्। पि॒तृऽभ्या॑म्। ऋ॒भवः॑। युव॑त्। वयः॑। तक्ष॑न्। व॒त्साय॑। मा॒तर॑म्। स॒चा॒ऽभुव॑म्॥1॥ पदार्थः—(तक्षन्) सूक्ष्मरचनायुक्तं कुर्वन्तु (रथम्) विमानादियानसमूहम् (सुवृतम्) शोभनविभागयुक्तम् (विद्मनापसः) विज्ञानेन युक्तानि कर्माणि येषां ते। अत्र तृतीयाया अलुक्। (तक्षन्) सूक्ष्मीकुर्वन्तु (हरी) हरणशीलौ जलाग्न्याख्यौ (इन्द्रवाहा) याविन्द्रं विद्युतं परमैश्वर्य्यं वहतस्तौ। अत्राकारादेशः। (वृषण्वसू) वृषाणो विद्याक्रियाबलयुक्ता वसवो वासकर्त्तारो मनुष्या ययोस्तौ (तक्षन्) विस्तीर्णीकुर्वन्तु (पितृभ्याम्) अधिष्ठातृशिक्षकाभ्याम् (ऋभवः) क्रियाकुशला मेधाविनः (युवत्) मिश्रणामिश्रणयुक्तम्। अत्र युधातोरौणादिको बाहुलकात् क्तिन् प्रत्ययः। (वयः) जीवनम् (तक्षन्) विस्तारयन्तु (वत्साय) सन्तानाय (मातरम्) जननीम् (सचाभुवम्) सचा विज्ञानादिना भावयन्तीम्॥1॥ अन्वयः—ये पितृभ्यां युक्ता विद्मनापस ऋभवो मेधाविनो जना वृषण्वसू हरी इन्द्रवाहा तक्षन् सुवृतं रथं तक्षन् वयस्तक्षन् वत्साय सचाभुवं मातरं युवत्तक्षंस्तेऽधिकमैश्वर्यं लभेरन्॥1॥ भावार्थः—विद्वांसो यावदिह जगति कार्यगुणदर्शनपरीक्षाभ्यां कारणं प्रति न गच्छन्ति तावच्छिल्पविद्यासिद्धिं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति॥1॥ पदार्थः—जो (पितृभ्याम्) स्वामी और शिक्षा करनेवालों से युक्त (विद्मनापसः) जिनके अति विचारयुक्त कर्म हों वे (ऋभवः) क्रिया में चतुर मेधावीजन (वृषण्वसू) जिनमें विद्या और शिल्पक्रिया के बल से युक्त मनुष्य निवास करते-कराते हैं (हरी) उन एक स्थान से दूसरे स्थान को शीघ्र पहुंचाने तथा (इन्द्रवाहा) परमैश्वर्य को प्राप्त करानेवाले जल और अग्नि को (तक्षन्) अति सूक्ष्मता के साथ सिद्ध करें वा (सुवृतम्) अच्छे-अच्छे कोठे-परकोठेयुक्त (रथम्) विमान आदि रथ को (तक्षन्) अति सूक्ष्म क्रिया से बनावें वा (वयः) अवस्था को (तक्षन्) विस्तृत करें तथा (वत्साय) सन्तान के लिये (सचाभुवम्) विशेष ज्ञान की भावना कराती हुई (मातरम्) माता का (युवत्) मेल जैसे हो वैसे (तक्षन्) उसे उन्नति देवें, वे अधिक ऐश्वर्य को प्राप्त होवें॥1॥ भावार्थः—विद्वान् जन जब तक इस संसार में कार्य्य के दर्शन और गुणों की परीक्षा से कारण को नहीं पहुंचते हैं, तब तक शिल्पविद्या को नहीं सिद्ध कर सकते हैं॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ नो॑ य॒ज्ञाय॑ तक्षत ऋभु॒मद्वयः॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य सुप्र॒जाव॑ती॒मिष॑म्। यथा॒ क्षया॑म॒ सर्व॑वीरया वि॒शा तन्नः॒ शर्धा॑य धासथा॒ स्वि॑न्द्रि॒यम्॥2॥ आ। नः॒। य॒ज्ञाय॑। त॒क्ष॒त॒। ऋ॒भु॒ऽमत्। वयः॑। क्रत्वे॑। दक्षा॑य। सु॒ऽप्र॒जाव॑तीम्। इष॑म्। यथा॑। क्षया॑म। सर्व॑वीरया। वि॒शा। तत्। नः॒। शर्धा॑य। धा॒स॒थ॒। सु। इ॒न्द्रि॒यम्॥2॥ पदार्थः—(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञाय) सङ्गतिकरणाख्यशिल्पक्रियासिद्धये (तक्षत) निष्पादयत (ऋभुमत्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (वयः) आयुः (क्रत्वे) प्रज्ञायै न्यायकर्मणे वा (दक्षाय) बलाय (सुप्रजावतीम्) सुष्ठु प्रजा विद्यन्ते यस्यां ताम् (इषम्) इष्टमन्नम् (यथा) (क्षयाम) निवासं करवाम (सर्ववीरया) सर्वैर्वीरैर्युक्तया (विशा) प्रजया (तत्) (नः) अस्माकम् (शर्द्धाय) बलाय (धासथ) धरत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सु) (इन्द्रियम्) विज्ञानं धनं वा॥2॥ अन्वयः—हे ऋभवो यूयं नोऽस्माकं यज्ञाय क्रत्वे दक्षाय ऋभुमद्वयः सुप्रजावतीमिषं चातक्षत यथा वयं सर्ववीरया विशा क्षयाम तथा यूयमपि प्रजया सह निवसत यथा वयं शर्द्धाय स्विन्द्रियं दध्याम तथा यूयमपि नोऽस्माकं शर्द्धाय तत् स्विन्द्रियं धासथ॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। इह जगति विद्वद्भिः सहाविद्वांसोऽविद्वद्भिः सह विद्वांसश्च प्रीत्या नित्यं वर्त्तेरन्। नैतेन कर्मणा विना शिल्पविद्यासिद्धिः प्रजाबलं शोभनाः प्रजाश्च जायन्ते॥2॥ पदार्थः—हे बुद्धिमानो! तुम (नः) हमारी (यज्ञाय) जिससे एक-दूसरे से पदार्थ मिलाया जाता है, उस शिल्पक्रिया की सिद्धि के लिये वा (क्रत्वे) उत्तम ज्ञान और न्याय के काम और (दक्षाय) बल के लिये (ऋभुमत्) जिसमें प्रशंसित मेधावी अर्थात् बुद्धिमान् जन विद्यमान हैं, उस (वयः) जीवन को तथा (सुप्रजावतीम्) जिसमें अच्छी प्रजा विद्यमान हो अर्थात् प्रजाजन प्रसन्न होते हों (इषम्) उस चाहे हुए अन्न को (आतक्षत) अच्छे प्रकार उत्पन्न करो, (यथा) जैसे हम लोग (सर्ववीरया) समस्त वीरों से युक्त (विशा) प्रजा के साथ (क्षयाम) निवास करें तुम भी प्रजा के साथ निवास करो वा जैसे हम लोग (शर्द्धाय) बल के लिये (तत्) उस (सु, इन्द्रियम्) उत्तम विज्ञान और धन को धारण करें वैसे तुम भी (नः) हमारे बल होने के लिये उत्तम ज्ञान और धन को (धासथ) धारण करो॥2॥ भावार्थः—इस संसार में विद्वानों के साथ अविद्वान् और अविद्वानों के साथ विद्वान् जन प्रीति से नित्य अपना वर्त्ताव रक्खें। इस काम के विना शिल्पविद्यासिद्धि, उत्तम बुद्धि, बल और श्रेष्ठ प्रजाजन कभी नहीं हो सकते॥2॥ पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ त॑क्षत सा॒तिम॒स्मभ्य॑मृभवः सा॒तिं रथा॑य सा॒तिमर्व॑ते नरः। सा॒तिं नो॒ जैत्रीं॒ सं म॑हेत वि॒श्वहा॑ जा॒मिमजा॑मिं॒ पृत॑नासु स॒क्षणि॑म्॥3॥ आ। त॒क्ष॒त॒। सा॒तिम्। अ॒स्मभ्य॑म्। ऋ॒भ॒वः॒। सा॒तिम्। रथा॑य। सा॒तिम्। अर्व॑ते। न॒रः॒। सा॒तिम्। नः॒। जैत्री॑म्। सम्। म॒हे॒त॒। वि॒श्वहा॑। जा॒मिम्। अजा॑मिम्। पृत॑नासु। स॒क्षणि॑म्॥3॥ पदार्थः—(आ) अभितः (तक्षत) निष्पादयत (सातिम्) विद्यादिदानम् (अस्मभ्यम्) (ऋभवः) मेधाविनः (सातिम्) संविभागम् (रथाय) विमानादियानसमूहसिद्धये (सातिम्) अश्वशिक्षाविभागम् (अर्वते) अश्वाय (नरः) विद्यानायकाः (सातिम्) संभक्तिम् (नः) अस्मभ्यम् (जैत्रीम्) जयशीलाम् (सम्) (महेत) पूज्येत (विश्वहा) सर्वाणि दिनानि। अत्र कृतो बहुलमित्यधिकरणे क्विप्। सुपां सुलुगित्यधिकरणस्य स्थान आकारादेशः। (जामिम्) प्रसिद्धं (अजामिम्) अप्रसिद्धं वैरिणम् (पृतनासु) सेनासु (सक्षणिम्) सोढारम्॥3॥ अन्वयः—हे ऋभवो नरो! यूयमस्मभ्यं विश्वहा रथाय सातिमर्वते च सातिमातक्षत पृतनासु सातिं जामिमजामिं सक्षणिं शत्रुं जित्वा नोऽस्मभ्यं जैत्रीं सातिं संमहेत॥3॥ भावार्थः—ये विद्वांसोऽस्माकं रक्षकाः शत्रूणां विजेतारः सन्ति तेषां सत्कारं वयं सततं कुर्य्याम॥3॥ पदार्थः—हे (ऋभवः) शिल्पक्रिया में अति चतुर (नरः) मनुष्यो! तुम (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (विश्वहा) सब दिन (रथाय) विमान आदि यानसमूह की सिद्धि के लिये (सातिम्) अलग विभाग करना और (अवते) उत्तम अश्व के लिये (सातिम्) अलग-अलग घोड़ों की सिखावट को (आ, तक्षत) सब प्रकार से सिद्ध करो और (पृतनासु) सेनाओं में (सातिम्) विद्यादि उत्तम-उत्तम पदार्थ वा (जामिम्) प्रसिद्ध और (अजामिम्) अप्रसिद्ध (सक्षणिम्) सहन करनेवाले शत्रू को जीत के (नः) हमारे लिये (जैत्रीम्) जीत देनेहारी (सातिम्) उत्तम भक्ति को (सम्, महेत) अच्छे प्रकार प्रशंसित करो॥3॥ भावार्थः—जो विद्वान् जन हमारी रक्षा करने और शत्रुओं को जीतनेहारे हैं, उनका सत्कार हम लोग निरन्तर करें॥3॥ एतान् किमर्थं सत्कुर्यामेत्युपदिश्यते॥ इनका किसलिये हम सत्कार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ऋ॒भु॒क्षण॒मिन्द्र॒मा हु॑व ऊ॒तय॑ ऋ॒भून्वाजा॑न्म॒रुतः॒ सोम॑पीतये। उ॒भा मि॒त्रावरु॑णा नू॒नम॒श्विना॒ ते नो॑ हिन्वन्तु सा॒तये॑ धि॒ये जि॒षे॥4॥ ऋ॒भु॒क्षण॑म्। इन्द्र॑म्। आ। हु॒वे॒। ऊ॒तये॑। ऋ॒भून्। वाजा॑न्। म॒रुतः॑। सोम॑ऽपीतये। उ॒भा। मि॒त्रावरु॑णा। नू॒नम्। अ॒श्विना॑। ते। नः॒। हि॒न्व॒न्तु॒। सा॒तये॑। धि॒ये। जि॒षे॥4॥ पदार्थः—(ऋभुक्षणम्) य ऋभून् मेधाविनः क्षाययति निवासयति ज्ञापयति वा तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तम् (आ) समन्तात् (हुवे) आददामि गृह्णामि (ऊतये) रक्षणाद्याय (ऋभून्) मेधाविनः (वाजान्) ज्ञानोत्कृष्टान् (मरुतः) ऋत्विजः (सोमपीतये) सोमपानार्थाय यज्ञाय (उभा) उभौ द्वौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (मित्रावरुणा) सर्वसुहृत्सर्वोत्कृष्टौ। अत्राप्याकारादेशः। (नूनम्) निश्चये (अश्विना) सर्वशुभगुणव्यापनशीलावध्यापकाध्येतारौ (ते) (नः) अस्मान् (हिन्वन्तु) विज्ञापयन्तु वर्द्धयन्तु वा (सातये) संविभागाय (धिये) प्रज्ञाप्राप्तये (जिषे) शत्रूञ्जेतुम्। तुमर्थे से॰ इति क्से प्रत्ययः॥4॥ अन्वयः—अहमूतय ऋभुक्षणमिन्द्रमाहुवे। अहं सोमपीतये वाजान् मरुत ऋभूनाहुवे। अहमुभा मित्रावरुणाश्विना हुवे। ये धिये सातये शत्रून् जिषे नोऽस्मान् विज्ञापयन्तु वर्द्धयितुं शक्नुवन्तु ते विद्वांसो नोऽस्मान् नूनं हिन्वन्तु॥4॥ भावार्थः—य आप्तान् क्रियाकुशलान् सेवन्ते ते सुशिक्षाविद्यायुक्तां प्रज्ञां प्राप्य शत्रून् विजित्य कुतो न वर्द्धेरन्॥4॥ पदार्थः—मैं (ऊतये) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (ऋभुक्षणम्) जो बुद्धिमानों को वसाता वा समझाता है, उस (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त उत्तम बुद्धिमान् को (आहुवे) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूं। मैं (सोमपीतये) पदार्थों के निकाले हुए रस पिआनेहारे यज्ञ के लिये (वाजान्) जो कि अतीव ज्ञानवान् (मरुतः) और ऋतु-ऋतु में अर्थात् समय-समय पर यज्ञ करने वा करानेहारे (ऋभून्) ऋत्विज् हैं, उन बुद्धिमानों को स्वीकार करता हूं। मैं (उभा) दोनों (मित्रावरुणा) सबके मित्र, सबसे श्रेष्ठ, (अश्विना) समस्त अच्छे-अच्छे गुणों में रहनेहारे, पढ़ाने और पढ़नेहारों को स्वीकार करता हूं। जो (धिये) उत्तम बुद्धि पाने के लिये (सातये) वा बांट-चूंट के लिये वा (जिषे) शत्रुओं के जीतने को (नः) हम लोगों के समझाने वा बढ़ाने को समर्थ हैं (ते) वे विद्वान् जन हम लोगों को (नूनम्) एक निश्चय से (हिन्वन्तु) बढ़ावें और समझावें॥4॥ भावार्थः—जो शास्त्र में दक्ष, सत्यवादी, क्रियाओं में अति चतुर और विद्वानों का सेवन करते हैं, वे अच्छी शिक्षायुक्त उत्तम बुद्धि को प्राप्त हो और शत्रुओं को जीत कर कैसे न उन्नति को प्राप्त हों॥4॥ पुनः स मेधावी नरः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह मेधावी श्रेष्ठ विद्वान् क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ऋ॒भुर्भरा॑य॒ सं शि॑शातु सा॒तिं स॑मर्य॒जिद्वाजो॑ अ॒स्माँ अ॑विष्टु। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥5॥32॥ ऋ॒भुः। भरा॑य। सम्। शि॒शा॒तु॒। सा॒तिम्। स॒म॒र्य॒ऽजित्। वाजः॑। अस्मान्। अ॒वि॒ष्टु॒। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥5॥ पदार्थः—(ऋभुः) प्रशस्तो विद्वान् (भराय) संग्रामाय। भर इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (सम्) (शिशातु) क्षयतु। अत्र शो तनूकरण इत्यस्मात् श्यनः स्थाने बहुलं छन्दसीति श्लुः। ततः श्लाविति द्वित्वम्। (सातिम्) संविभागम् (समर्यजित्) यः समर्यान् संग्रामान् जयति सः। समर्य इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (वाजः) वेगादिगुणयुक्तः (अस्मान्) (अविष्टु) रक्षणादिकं करोतु। अत्रावधातोर्लोटि सिबुत्सर्ग इति सिब्विकरणः। (तन्नः॰) इत्यादि पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—हे मेधाविन् समर्यजिदृभुर्वाजो भवान् भवान् शत्रून् संशिशातु। अस्मानविष्टु तथा नोऽस्मदर्थं यन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्तां तथैव भवांस्तत् तां सातिं नोऽस्मदर्थं निष्पादयतु॥5॥ भावार्थः—विदुषामिदमेव मुख्यं कर्मास्ति यद् जिज्ञासूनविदुषो विद्यार्थिनः सुशिक्षाविद्यादानाभ्यां वर्द्धयेयुः। यथा मित्रादयः प्राणादयो वा सर्वान् वर्द्धयित्वा सुखयन्ति, तथैव विद्वांसोऽपि वर्त्तेरन्॥5॥ अत्र मेधाविनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥5॥ इति द्वात्रिंशो वर्ग 32 एतत्सूक्तं (111) च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे मेधावी (समर्य्यजित्) संग्रामों के जीतनेवाले (ऋभुः) प्रशंसित विद्वान्! (वाजः) वेगादि गुणयुक्त आप (भराय) संग्राम के अर्थ आये शत्रुओं का (संशिशातु) अच्छी प्रकार नाश कीजिये (अस्मान्) हम लोगों की (अविष्टु) रक्षा आदि कीजिये जैसे (नः) हम लोगों के लिये जो (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणवाला (अदितिः) विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) सिद्ध करें उन्नति देवें, वैसे ही आप (तत्) उस (सातिम्) पदार्थों के अलग-अलग करने को हम लोगों के लिये सिद्ध कीजिये॥5॥ भावार्थः—विद्वानों का यही मुख्य कार्य्य है कि जो जिज्ञासु अर्थात् ज्ञान चाहनेवाले, विद्या के न पढ़े हुए विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा और विद्यादान से बढ़ावें, जैसे मित्र आदि सज्जन वा प्राण आदि पवन सबकी वृद्धि करके उनको सुखी करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन भी अपना वर्त्ताव रक्खें॥5॥ इस सूक्त में बुद्धिमानों के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह बत्तीसवां 32 वर्ग और एकसौ ग्यारहवां 111 सूक्त समाप्त हुआ॥ अथ पञ्चविंशत्यृचस्य द्वादशोत्तरशततमस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्याग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते। 1,2,6,7,13,15,17,18,20-22 निचृज्जगती। 4,8,9,11,12,14,16,23 जगती। 19 विराड् जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 3,5,24 विराट् त्रिष्टुप्। 13 भुरिक् त्रिष्टुप्। 25 त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादौ द्यावाभूमिगुणा उपदिश्यन्ते। अब एकसौ बारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य और भूमि के गुणों का कथन किया है॥ ईळे॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वचि॑त्तये॒ऽग्निं घ॒र्मं सु॒रुचं॒ याम॑न्नि॒ष्टये॑। याभि॒र्भरे॑ का॒रमंशा॑य॒ जिन्व॑थ॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥1॥ ईळे॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पू॒र्वऽचि॑त्तये। अ॒ग्निम्। घ॒र्मम्। सु॒ऽरुच॑म्। याम॑न्। इ॒ष्टये॑। याभिः॑। भरे॑। का॒रम्। अंशा॑य। जिन्व॑थः। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥1॥ पदार्थः—(ईळे) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (पूर्वचित्तये) पूर्वैः कृतचयनाय (अग्निम्) विद्युतम् (घर्मम्) प्रतापस्वरूपम् (सुरुचम्) सुष्ठु दीप्तं रुचिकारकम् (यामन्) यान्ति यस्मिंस्तस्मिन्मार्गे (इष्टये) इष्टसुखाय (याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (भरे) संग्रामे (कारम्) कुर्वन्ति यस्मिंस्तम् (अंशाय) भागाय (जिन्वथः) प्राप्नुतः। जिन्वतीति गतिकर्मासु पठितम्। (निघं॰2.14) (ताभिः) (उ) वितर्के (सु) शोभने (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अश्विना) विद्याव्यापनशीलौ (आ) (गतम्) आगच्छतम्॥1॥ अन्वयः—हे अश्विना सर्वविद्याव्यापिनावध्यापकोपदेशकौ भवन्तौ! यथा यामन् पूर्वचित्तये इष्टये द्यावापृथिवी याभिरूतिभिर्भरे घर्मं सुरुचमग्निं प्राप्नुतस्तथा ताभिरंशाय कारं सु जिन्वथः कार्य्यसिद्धय आगतमित्यहमीळे॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यथा प्रकाशाऽप्रकाशयुक्तौ सूर्य्यभूमिलोकौ सर्वेषां गृहादीनां चयनायाधाराय च भवतो विद्युता सहैतौ संबन्धं कृत्वा सर्वेषां धारकौ च वर्त्तेते तथा यूयमपि प्रजासु वर्त्तध्वम्॥1॥ पदार्थः—हे (अश्विना) विद्याओं में व्याप्त होनेवाले अध्यापक और उपदेशक! आप जैसे (यामन्) मार्ग में (पूर्वचित्तये) पूर्व विद्वानों में संचित किये हुए (इष्टये) अभीष्ट सुख के लिये (द्यावापृथिवी) सूर्य्य का प्रकाश और भूमि (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से युक्त (भरे) संग्राम में (घर्मम्) प्रतापयुक्त (सुरुचम्) अच्छे प्रकार प्रदीप्त और रुचिकारक (अग्निम्) विद्युतरूप अग्नि को प्राप्त होते हैं, वैसे (ताभिः) उन रक्षाओं से (अंशाय) भाग के लिये (कारम्) जिस में क्रिया करते हैं, उस विषय को (सु, जिन्वथः) उत्तमता से प्राप्त होते हैं (उ) तो कार्य्यसिद्धि करने के लिये (आ, गतम्) सदा आवें, इस हेतु मैं (ईळे) आपकी स्तुति करता हूं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे प्रकाशयुक्त सूर्य्यादि और अन्धकारयुक्त भूमि आदि लोक सब घर आदिकों के चिनने और आधार के लिये होते और बिजुली के साथ सम्बन्ध करके सबके धारण करनेवाले होते हैं, वैसे तुम भी प्रजा में वर्त्ता करो॥1॥ अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह॥ अब पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वोर्दा॒नाय॑ सु॒भरा॑ अस॒श्चतो॒ रथ॒मा त॑स्थुर्वच॒सं न मन्त॑वे। याभि॒र्धियोऽव॑थः॒ कर्म॑न्नि॒ष्टये॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥2॥ यु॒वोः। दा॒नाय॑। सु॒ऽभराः॑। अ॒स॒श्चतः॑। रथ॑म्। आ। त॒स्थुः॒। व॒च॒सम्। न। मन्त॑वे। याभिः॑। धियः॑। अव॑थः। कर्म॑न्। इ॒ष्टये॑। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥2॥ पदार्थः—(युवोः) युवयोः (दानाय) सुखवितरणाय (सुभराः) ये सुष्ठु भरन्ति पुष्णन्ति वा (असश्चतः) असमवेताः (रथम्) रमणसाधनं यानम् (आ) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वचसम्) सर्वैः स्तुत्या परिभाषितं मनुष्यम् (न) इव (मन्तवे) विज्ञातुम् (याभिः) (धियः) प्रज्ञाः (अवथः) रक्षथः (कर्मन्) कर्मणि (इष्टये) इष्टसुखाय (ताभिः) (उ) (सु) (ऊतिभिः) (अश्विना) विद्यादिदातारावध्यापकोपदेशकौ (आ) समन्तात् (गतम्) प्राप्नुतम्॥2॥ अन्वयः—हे अश्विना! सुभरा असश्चतो जना मन्तवे वचसं न युवोर्यं रथमातस्थुस्ते नो याभिर्धियः कर्मन्निष्टयेऽवथस्ताभिरूतिभिश्च युवां दानाय स्वागतमस्मान् प्रतिश्रेष्ठतयाऽऽगच्छतम्॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! ये युष्मान् प्रज्ञां प्रापयेयुस्तान् सर्वथा सुरक्षय। यथा भवन्तो तेषां सेवनं कुर्युस्तथैव तेऽपि युष्मान् शुभां विद्यां बोधयेयुः॥2॥ पदार्थः—हे (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करानेहारे विद्वानो! (सुभराः) जो अच्छे प्रकार धारण वा पोषण करते कि जो अति आनन्द के सिद्ध करनेहारे हैं, वा (असश्चतः) जो किसी बुरे कर्म और कुसंग में नहीं फँसते वे सज्जन (मन्तवे) विशेष जानने के लिये जैसे (वचसम्, न) सबने प्रशंसा के साथ विख्यात किये हुए अत्यन्त बुद्धिमान् विद्वान् जन को प्राप्त होवे, वैसे (युवोः) आप लोगों के (रथम्) जिस विमान आदि यान को (आ, तस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होकर स्थिर होते हैं, उसके साथ (उ) और (याभिः) जिन से (धियः) उत्तम बुद्धियों को (कर्मन्) काम के बीच (इष्टये) चाहे हुए सुख के लिये (अवथः) राखते हैं (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ तुम (दानाय) सुख देने के लिये हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आओ॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जो तुमको उत्तम बुद्धि की प्राप्ति करावें, उनकी सब प्रकार से रक्षा करो। जैसे आप लोग उनका सेवन करें, वैसे ही वे लोग भी तुम को शुभ विद्या का बोध कराया करें॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं तासां॑ दि॒व्यस्य॑ प्र॒शास॑ने वि॒शां क्ष॑यथो अ॒मृत॑स्य म॒ज्मना॑। याभि॑र्धे॒नुम॒स्वं पिन्व॑थो नरा॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥3॥ यु॒वम्। तासा॑म्। दि॒व्यस्य॑। प्र॒ऽशास॑ने। वि॒शाम्। क्ष॒य॒थः॒। अ॒मृत॑स्य। म॒ज्मना॑। याभिः॑। धे॒नुम्। अ॒स्व॑म्। पिन्व॑थः। न॒रा॒। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥3॥ पदार्थः—(युवम्) युवामुपदेशकाध्यापकौ (तासाम्) पूर्वोक्तानाम् (दिव्यस्य) अतिशुद्धस्य (प्रशासने) (विशाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (क्षयथः) निवसथः (अमृतस्य) नाशरहितस्य परमात्मनः (मज्मना) बलेन (याभिः) (धेनुम्) वाचम् (अस्वम्) या दुष्कर्म न सूते नोत्पादयति ताम् (पिन्वथः) सेवेथाम् (नरा) नायकौ (ताभि) (उ) वितर्के (सु) शोभने (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (अश्विना) (आ) (गतम्) समन्तात् प्राप्नुतम्॥3॥ अन्वयः—हे नराऽश्विना युवं दिव्यस्याऽमृतस्य मज्मना सह यास्तत्संबन्धे प्रजास्सन्ति तासां विशां प्रशासने क्षयथ उ याभिरूतिभिरस्वं धेनुं पिन्वथस्ताभिः स्वागतम्॥3॥ भावार्थः—त एव धन्या विद्वांसो ये प्रजाजनान् विद्यासुशिक्षासुखवृद्धये प्रसादयन्ति तेषां शरीरात्मनो बलं च नित्यं वर्द्धयन्ति॥3॥ पदार्थः—हे (नरा) विद्याव्यवहार में प्रधान (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक लोगो! (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य) अतीव शुद्ध (अमृतस्य) नाशरहित परमात्मा के (मज्मना) अनन्त बल के साथ जो परमात्मा के सम्बन्ध में प्रजाजन हैं (तासाम्) उन (विशाम्) प्रजाओं के (प्रशासने) शिक्षा करने में (क्षयथः) निवास करते हो (उ) और (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्वम्) जो दुष्ट काम को न उत्पन्न करती है, उस (धेनुम्) सब सुख वर्षानेवाली वाणी का (पिन्वथः) सेवन करते हो (ताभिः) उन रक्षाओं के साथ (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार हम लोगों को प्राप्त होओ॥3॥ भावार्थः—वे ही धन्य विद्वान् हैं जो प्रजाजनों को विद्या, अच्छी शिक्षा और सुख की वृद्धि होने के लिये प्रसन्न करते और उनके शरीर तथा आत्मा के बल को नित्य बढ़ाया करते हैं॥3॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ परि॑ज्मा॒ तन॑यस्य म॒ज्मना॑ द्विमा॒ता तू॒र्षु त॒रणि॑र्वि॒भूष॑ति। याभि॑स्त्रि॒मन्तु॒रभ॑वद्विचक्ष॒णस्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥4॥ याभिः॑। परि॑ऽज्मा। तन॑यस्य। म॒ज्मना॑। द्वि॒ऽमा॒ता। तू॒र्षु। त॒रणिः॑। वि॒ऽभूष॑ति। याभिः॑। त्रि॒ऽमन्तुः॑। अभ॑वत्। वि॒ऽच॒क्ष॒णः। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥4॥ पदार्थः—(याभिः) (परिज्मा) परितः सर्वतो गन्ता वायुः (तनयस्य) अपत्यस्याग्नेः (मज्मना) बलेन (द्विमाता) द्वयोरग्निजलयोर्माता प्रमापकः (तूर्षु) शीघ्रकारिषु (तरणिः) प्लविताऽतिवेगवान् (विभूषति) अलङ्करोति (याभिः) (त्रिमन्तुः) तिसृणां कर्मोपासनाज्ञानविद्यानां मन्तुर्मन्ता (अभवत्) भवेत् (विचक्षणः) विविधतया दर्शकः (ताभिः॰) इत्यादि पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरूतिभिर्द्विमाता तूर्षु तरणिः परिज्मा वायुस्तनयस्य मज्मना सुविभूषत्यु याभिरूतिभिस्त्रिमन्तुर्विचक्षणोऽभवद् भवेत् ताभिरूतिभिः सर्वानस्मान् विद्यादानायाऽगतम्॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्राणवत् प्रियत्वेन संन्यासिवदुपकारकत्वेन सर्वेभ्यो विद्योन्नतिः सम्पादनीया॥4॥ पदार्थः—हे (अश्विना) विद्या और उपदेश की प्राप्ति करानेहारे विद्वान् लोगो! (याभिः) जिन से (द्विमाता) दोनों अग्नि और जल का प्रमाण करनेवाला (तूर्षु) शीघ्र करनेवालों में (तरणिः) उछलता सा अतीव वेगवाला (परिज्मा) सर्वत्र गमन करता वायु (तनयस्य) अपने से उत्पन्न अग्नि के (मज्मना) बल से (सु, विभूषति) अच्छे प्रकार सुशोभित होता (उ) और (याभिः) जिनसे (त्रिमन्तुः) कर्म, उपासना और ज्ञान विद्या और माननेहारा (विचक्षणः) विविध प्रकार से सब विद्याओं को प्रत्यक्ष करानेहारा (अभवत्) होवे (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं से सहित सब हम लोगों को विद्या देने के लिये (आ, गतम्) प्राप्त हूजिये॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि प्राण के समान प्रीति और संन्यासियों के समान उपकार करने से सबके लिये विद्या की उन्नति किया करें॥4॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभी॑ रे॒भं निवृ॑तं सि॒तम॒द्भ्य उद्व॑न्दन॒मैर॑यतं॒ स्व॑दृर्॒शे। याभिः॒ कण्वं॒ प्र सिषा॑सन्त॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥5॥33॥ याभिः॑। रे॒भम्। निऽवृ॑तम्। सि॒तम्। अ॒त्ऽभ्यः। उत्। वन्द॑नम्। ऐर॑यतम्। स्वः॑। दृ॒शे। याभिः॑। कण्व॑म्। प्र। सिसा॑सन्तम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥5॥ पदार्थः—(याभिः) (रेभम्) स्तोतारम् (निवृतम्) नितरां स्वीकृतं शास्त्रबोधम् (सितम्) शुद्धधर्मम् (अद्भ्यः) जलेभ्यः (उत्) उत्कृष्टे (वन्दनम्) गुणकीर्त्तनम् (ऐरयतम्) गमयतम् (स्वः) सुखम् (दृशे) द्रष्टुम् (याभिः) (कण्वम्) मेधाविनम् (प्र) (सिषासन्तम्) विभाजितुमिच्छन्तम् (आवतम्) पालयतम् (ताभिः॰) इत्यादि पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरूतिभिः सितं निवृतं रेभं वन्दनं स्वर्दृशऽद्भ्य उदैरयतं याभिश्च सिषासन्तं कण्वं प्रावतं ताभिरु स्वागतम्॥5॥ भावार्थः—ये मनुष्या विदुषः सुरक्ष्य तेभ्यो विद्याः प्राप्य जलादिपदार्थेभ्यः शिल्पविद्याः संपाद्य वर्द्धन्ते ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति॥5॥ पदार्थः—(अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करनेवालो! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (सितम्) शुद्ध धर्मयुक्त (निवृतम्) निरन्तर स्वीकार किये हुए शास्त्रबोध की (रेभम्) स्तुति और (वन्दनम्) गुणों की प्रशंसा करनेहारे को (स्वः) सुख के (दृशे) देखने के अर्थ (अद्भ्यः) जलों से (उत्, ऐरयतम्) प्रेरणा करो और (याभिः) जिनसे (सिषासन्तम्) विभाग कराने की इच्छा करनेहारे (कण्वम्) बुद्धिमान् विद्वान् की (प्र, आवतम्) रक्षा करो (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) उत्तमता से आइये॥5॥ भावार्थः—जो मनुष्य विद्वानों की अच्छे प्रकार रक्षाकर, उनसे विद्याओं को प्राप्त हो, जलादि पदार्थों से शिल्पविद्या को सिद्ध करके बढ़ते हैं वे सब सुखों को प्राप्त होते हैं॥5॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॒रन्त॑कं॒ जस॑मान॒मार॑णे भु॒ज्युं याभि॑रव्य॒थिभि॑र्जिजि॒न्वथुः॑। याभिः॑ क॒र्कन्धुं॑ व॒य्यं॑ च जिन्व॑थ॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥6॥ याभिः॑। अन्त॑कम्। जस॑मानम्। आ॒ऽअर॑णे। भु॒ज्युम्। याभिः॑। अ॒व्य॒थिऽभिः॑। जि॒जि॒न्वथुः॑। याभिः॑। क॒र्कन्धु॑म्। व॒य्य॑म्। च॒। जिन्व॑थः। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥6॥ पदार्थः—(याभिः) (अन्तकम्) दुःखनाशकर्त्तारम् (जसमानम्) शत्रून् हिंसन्तम् (आरणे) सर्वतो युद्धभावे (भुज्युम्) पालकम् (याभिः) (अव्यथिभिः) व्यथारहिताभिः (जिजिन्वथुः) प्रीणीथः। अत्र सायणाचार्य्येण भ्रमाल्लिटि मध्यमपुरुषद्विवचनान्तप्रयोगे सिद्धेऽत्यन्ताशुद्धं प्रथमपुरुषबहुवचनान्तं साधितमिति वेद्यम् (याभिः) (कर्कन्धुम्) कर्कान् कारुकानन्तति व्यवहारे बध्नाति तम् (वय्यम्) ज्ञातारम्। अत्र बाहुलकाद् गत्यर्थाद् वयधातोर्यन् प्रत्ययः। (च) (जिन्वथः) तर्प्पयथः (ताभिः) इत्यादि पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरूतिभिरारणेऽन्तकं जसमानं याभिरव्यथिभिर्भुज्युं च जिजिन्वथुर्याभिः कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वथस्ताभिरूतिभिरु स्वागतम्॥6॥ भावार्थः—रक्षकैरधिष्ठातृभिश्च विना न खलु योद्धारः शत्रुभिस्सह संग्रामैर्योद्धुं प्रजां पालयितुं च शक्नुवन्ति, ये प्रबन्धेन विदुषां रक्षणं न कुर्वन्ति ते पराजयं प्राप्य राज्यं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति॥6॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभा सेना के स्वामी विद्वान् लोगो! आप (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (आरणे) सब ओर से युद्ध होने में (अन्तकम्) दुःखों के नाशक और (जसमानम्) शत्रुओं को मारते हुए पुरुष को (याभिः) जिन (अव्यथिभिः) पीड़ारहित आनन्दकारक रक्षाओं से (भुज्युम्) पालनेहारे पुरुष को (जिजिन्वथुः) प्रसन्न करते (च) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (कर्कन्धुम्) कारीगरी करनेहारे (वय्यम्) ज्ञाता पुरुष की (जिन्वथः) प्रसन्नता करते हो (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं के साथ हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आइये॥6॥ भावार्थः—रक्षा करनेवाले और अधिष्ठाताओं के विना योद्धा लोग शत्रुओं के साथ संग्राम में युद्ध करने और प्रजाओं के पालने को समर्थ नहीं हो सकते। जो प्रबन्ध से विद्वानों की रक्षा नहीं करते, वे पराजय को प्राप्त होकर राज्य करने को समर्थ नहीं होते॥6॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॑ शुच॒न्तिं ध॑न॒सां सु॑षं॒सदं॑ त॒प्तं घ॒र्ममो॒म्याव॑न्त॒मत्र॑ये। याभिः॑ पृश्नि॑गुं पुरु॒कुत्स॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥7॥ याभिः॑। शु॒च॒न्तिम्। ध॒न॒ऽसाम्। सु॒ऽसं॒सद॑म्। त॒प्तम्। घ॒र्मम्। ओ॒म्याऽव॑न्तम्। अत्र॑ये। याभिः॑। पृश्नि॑ऽगुम्। पु॒रु॒ऽकुत्स॑म्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥7॥ पदार्थः—(याभिः) (शुचन्तिम्) पवित्रकारकम् (धनसाम्) यो धनानि सनोति विभजति तम्। अत्र धनोपपदात् सन् धातोर्विट्। (सुषंसदम्) शोभना संसद् यस्य तम् (तप्तम्) ऐश्वर्ययुक्तम्। ऐश्वर्यार्थात् तप्धातोस्तः प्रत्ययः। (घर्मम्) प्रशस्ता घर्मा यज्ञा विद्यन्ते यस्य तम्। घर्म इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं॰3.17) घर्मशब्दादर्शआदित्वादच्। (ओम्यावन्तम्) ये अवन्ति ते ओमानस्तान् ये यान्ति प्राप्नुवन्ति त ओम्याः, एते प्रशस्ता विद्यन्ते यस्य तम् (अत्रये) अविद्यमानानि त्रीण्याध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि दुःखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (याभिः) (पृश्निगुम्) अन्तरिक्षे गन्तारम् (पुरुकुत्सम्) बहवः कुत्सा वज्राः शस्त्रविशेषा यस्मिँस्तम् (आवतम्) पालयतम् (ताभिरिति) पूर्ववत्॥7॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरूतिभिरत्रये शुचन्तिं धनसां सुषंसदं तप्तं घर्ममोम्यावन्तं जनं पृश्निगुं पुरुकुत्सं चावतं ताभिरु स्वागतम्॥7॥ भावार्थः—विद्वद्भिर्धर्मात्मरक्षणेन दुष्टानां दण्डनेन च सत्यविद्या प्रकाशनीयाः॥7॥ पदार्थः—हे (अश्विना) उपदेश करने और पढ़ानेवालो! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अत्रये) जिसमें आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख नहीं हैं, उस व्यवहार के लिये (शुचन्तिम्) पवित्रकारक (धनसाम्) धन के विभागकर्त्ता (सुषंसदम्) अच्छी सभावाले (तप्तम्) ऐश्वर्ययुक्त (घर्मम्) उत्तम यज्ञवान् (ओम्यावन्तम्) रक्षकों को प्राप्त होनेहारे पुरुष प्रशंसित जिसके हैं, उसकी और (याभिः) जिन रक्षाओं से (पृश्निगुम्) विमानादि से अन्तरिक्ष में जानेहारे (पुरुकुत्सम्) बहुत शस्त्राऽस्त्रयुक्त पुरुष की (आवतम्) रक्षा करें (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों को (सु, आ, गतम्) उत्तमता से प्राप्त हूजिये॥7॥ भावार्थः—विद्वानों को योग्य है कि धर्मात्माओं की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना से सत्यविद्याओं का प्रकाश करें॥7॥ अथ सभासेनाध्यक्षौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते॥ अब सभा और सेना के अध्यक्ष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ शची॑भिर्वृषणा परा॒वृजं॒ प्रान्धं श्रो॒णं चक्ष॑स॒ एत॑वे कृ॒थः। याभि॒र्वर्ति॑कां ग्रसि॒ताममु॑ञ्चतं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥8॥ याभिः॑। शची॑भिः। वृ॒ष॒णा॒। प॒रा॒ऽवृज॑म्। प्र। अ॒न्धम्। श्रो॒णम्। चक्ष॑से। एत॑वे। कृ॒थः॒। याभिः॑। वर्ति॑काम्। ग्र॒सि॒ताम्। अमु॑ञ्चतम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥8॥ पदार्थः—(याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (शचीभिः) रक्षाकर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा। शचीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) प्रजानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (वृषणा) वर्षयितारौ। अत्राकारादेशः। (परावृजम्) धर्मविरुद्धगामिनम् (प्र) (अन्धम्) अविद्यान्धकारयुक्तम् (श्रोणम्) वधिरवद्वर्त्तमानं पुरुषम् (चक्षसे) विद्यायुक्तवाण्याः प्रकाशाय (एतवे) एतुं गन्तुम् (कृथः) कुरुतम्। अत्र लोडर्थे लट् विकरणस्य लुक् च। (याभिः) (वर्त्तिकाम्) शकुनिस्त्रियम् (ग्रसिताम्) निगलिताम् (अमुञ्चतम्) मुञ्चतम्। अत्र लोडर्थे लङ्। (ताभिः) (उ) (सु) सुष्ठु गतौ (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (अश्विना) द्यावापृथिवीवच्छुभगुणकर्मस्वभाव- व्यापिनौ। अत्राऽऽकारादेशः। (आ) समन्तात् (गतम्) गच्छतम्। अत्र विकरणलोपश्च॥8॥ अन्वयः—हे वृषणाश्विना सभासेनाध्यक्षौ! युवां याभिः शचीभिः परावृजमन्धं श्रोणं च चक्षस एतवे विद्यां गन्तुं प्रकृथः। याभिर्ग्रसितां वर्त्तिकामिव प्रजाममुञ्चतं ताभिरू॰ इति पूर्ववत्॥8॥ भावार्थः—सभासेनापतिभ्यां स्वविद्याधर्माश्रयेण प्रजासु विद्याविनयौ प्रचार्याविद्याऽधर्मनिवारणेन सर्वेभ्योऽभयदानं सततं कार्यम्॥8॥ पदार्थः—हे (वृषणा) सुख के वर्षानेहारे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो! तुम (याभिः) जिन (शचीभिः) रक्षा सम्बन्धी कामों और प्रजाओं से (परावृजम्) विरोध करनेहारे (अन्धम्) अविद्यान्धकारयुक्त (श्रोणम्) वधिर के तुल्य वर्त्तमान पुरुष को (चक्षसे) विद्यायुक्त वाणी के प्रकाश के लिये (एतवे) शुभ विद्या प्राप्त होने को (प्र, कृथः) अच्छे प्रकार योग्य करो और (याभिः) जिन रक्षाओं से (ग्रसिताम्) निगली हुई (वर्त्तिकाम्) छोटी चिड़िया के समान प्रजा को दुःखों से (अमुञ्चतम्) छुड़ाओ (ताभिरू) उन्हीं (ऊतिभिः) रक्षाओं से हम लोगों को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये॥8॥ भावार्थः—सभा और सेना के पति को योग्य है कि अपनी विद्या और धर्म के आश्रय से प्रजाओं में विद्या और विनय का प्रचार करके अविद्या और अधर्म के निवारण से सब प्राणियों को अभयदान निरन्तर किया करें॥8॥ पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह॥ फिर वे दोनों क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ याभिः॒ सिन्धुं॒ मधु॑मन्त॒मस॑श्चतं॒ वसि॑ष्ठं॒ याभि॑रजरा॒वजि॑न्वतम्। याभिः॒ कुत्सं॑ श्रु॒तर्यं॒ नर्य॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥9॥ याभिः॑। सिन्धु॑म्। मधु॑ऽमन्तम्। अस॑श्चतम्। वसि॑ष्ठम्। याभिः॑। अ॒ज॒रौ॒। अजि॑न्वतम्। याभिः॑। कुत्स॑म्। श्रु॒तर्य॑म्। नर्य॑म्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥9॥ पदार्थः—(याभिः) (सिन्धुम्) समुद्रम् (मधुमन्तम्) माधुर्यगुणोपेतम् (असश्चतम्) जानीतम्। अत्र सर्वत्र लोडर्थे लङ्। सश्चतीति गतिकर्मा। (निघं॰2.14) (वसिष्ठम्) यो वसति धर्मादिकर्मसु सोऽतिशयितस्तम् (याभिः) (अजरौ) जरारहितौ। (अजिन्वतम्) प्रीणीतम् (याभिः) (कुत्सम्) वज्रायुधयुक्तम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.20) (श्रुतर्यम्) श्रुतानि अर्य्याणि विज्ञानशास्त्राणि येन तम्। अत्र शकन्ध्वादिना ह्यकारलोपः। (नर्यम्) नृषु नायकेषु साधुम् (आवतम्) रक्षतम्। अग्रे पूर्ववदर्थो वेद्यः॥9॥ अन्वयः—हे अश्विनाजरौ! युवां याभिरूतिभिर्मधुमन्तं सिन्धुमसश्चतं याभिर्वसिष्ठमजिन्वतं याभिः श्रुतर्य्यं नर्य्यं चावतं ताभिरू ऊतिभिरस्माकं रक्षायै स्वागतम् अस्मान् प्राप्नुतम्॥9॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यज्ञविधिना सर्वान् पदार्थान् संशोध्य सर्वान् सेवित्वा रोगान् निवार्य सदा सुखयितव्यम्॥9॥ पदार्थः—हे (अश्विना) विद्या पढ़ाने और उपदेश करनेवाले (अजरौ) जरावस्थारहित विद्वानो! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (मधुमन्तम्) मधुर गुणयुक्त (सिन्धुम्) समुद्र को (असश्चतम्) जानो वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (वसिष्ठम्) जो अत्यन्त धर्मादि कर्मों में वसनेवाला उसकी (अजिन्वतम्) प्रसन्नता करो, वा (याभिः) जिनसे (कुत्सम्) वज्र लिये हुए (श्रुतर्यम्) श्रवण से अति श्रेष्ठ (नर्यम्) मनुष्यों में अत्युत्तम पुरुष को (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं के साथ हमारी रक्षा के लिये (स्वागतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये॥9॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि यज्ञविधि से सब पदार्थों को अच्छे प्रकार शोधन कर सबका सेवन और रोगों का निवारण करके सदैव सुखी रहें॥9॥ पुनस्तौ कीदृशावित्याह॥ फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॑र्वि॒श्पलां॑ धन॒साम॑थ॒र्व्यं॑ स॒हस्र॑मीळ्ह आ॒जावजि॑न्वतम्। याभि॒र्वश॑म॒श्व्यं प्रे॒णिमाव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥10॥34॥ याभिः॑। वि॒श्पला॑म्। ध॒न॒ऽसाम्। अ॒थ॒र्व्य॑म्। स॒हस्र॑ऽमीळ्हे। आ॒जौ। अजि॑न्वतम्। याभिः॑। वश॑म्। अ॒श्व्यम्। प्रे॒णिम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥10॥ पदार्थः—(याभिः) (विश्पलाम्) विशः प्रजाः पात्यनेन सैन्येन तल्लाति यया ताम् (धनसाम्) धनानि सनन्ति संभजन्ति येन ताम् (अथर्व्यम्) अहिंसनीयां स्वसेनाम् (सहस्रमीळ्हे) सहस्राणि मीळ्हानि धनानि यस्मात् तस्मिन् (आजौ) संग्रामे। आजाविति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (अजिन्वतम्) प्रीणीतम् (याभिः) (वशम्) कमनीयम् (अश्व्यम्) तुरङ्गेषु वेदादिषु वा साधुम् (प्रेणिम्) शत्रुनाशाय प्रेरितुमर्हम् (आवतम्) रक्षतम्। अन्यत् पूर्ववत्॥10॥ अन्वयः—हे अश्विना! सेनायुद्धाधिकृतौ युवां याभिरूतिभिः सहस्रमीळ्ह आजौ विश्पलां धनसामथर्व्यमजिन्वतं याभिर्वशं प्रेणिमश्व्यमावतं ताभिरूतिभिर्युक्तौ भूत्वा प्रजापालनाय स्वागतम्॥10॥ भावार्थः—मनुष्यैरिदमवश्य ज्ञातव्यं शरीरात्मपुष्ट्या सुशिक्षितया सेनया च विना युद्धे विजयस्तमन्तरा प्रजापालनं श्रीसञ्चयो राजवृद्धिश्च भवितुमयोग्यास्ति॥10॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सेना और युद्ध के अधिकारी लोगो! (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (सहस्रमीळ्हे) असंख्य पराक्रमादि धन जिसमें हैं, उस (आजौ) संग्राम में (विश्पलाम्) प्रजा के पालन करनेहारों को ग्रहण करने (धनसाम्) और पुष्कल धन देनेहारी (अथर्व्यम्) न नष्ट करने योग्य अपनी सेना को (अजिन्वतम्) प्रसन्न करो, वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (वशम्) मनोहर (प्रेणिम्) और शत्रुओं के नाश के लिये प्रेरणा करने योग्य (अश्व्यम्) घोड़ों वा अग्न्यादि पदार्थों के वेगों में उत्तम की (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं के साथ प्रजा पालन के लिये (स्वागतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों को यह अवश्य जानना चाहिये कि शरीर, आत्मा की पुष्टि और अच्छे प्रकार शिक्षा की हुई सेना के विना युद्ध में विजय और विजय के विना प्रजापालन, धन का संचय और राज्य की वृद्धि होने को योग्य नहीं है॥10॥ पुनस्तौ कस्मै किं कुर्य्यातामित्याह॥ फिर वे दोनों किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॑ सुदानू औशि॒जाय॑ व॒णिजे॑ दी॒र्घश्र॑वसे॒ मधु॒ कोशो॒ अक्ष॑रत्। क॒क्षीव॑न्तं स्तो॒तारं॒ याभि॒रा॑वतं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥11॥ याभिः॑। सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू। औ॒शि॒जाय॑। व॒णिजे॑। दी॒र्घऽश्र॑वसे। मधु॑। कोशः॑। अक्ष॑रत्। क॒क्षीव॑न्तम्। स्तो॒तार॑म्। याभिः॑। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥11॥ पदार्थः—(याभिः) (सुदानू) सुष्ठु दानकर्त्तारौ (औशिजाय) मेधाविपुत्राय। उशिज इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (वणिजे) व्यवहर्त्तुं शीलाय (दीर्घश्रवसे) दीर्घाणि महान्ति श्रवांसि विद्यादीन्यन्नानि धनानि वा यस्य तस्मै। श्रव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) धननामसु च। (निघं॰2.10) (मधु) मधुरं जलम् (कोशः) मेघः। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (अक्षरत्) क्षरति (कक्षीवन्तम्) प्रशस्ताः कक्षा सहाया विद्यन्ते यस्य तम् (स्तोतारम्) विद्यागुणस्तावकम् (याभिः) अन्यत्पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—हे सुदानू अश्विना! याभिरूतिभिर्दीर्घश्रवसे वणिज औशिजाय कोशो मध्वक्षरद् याभिर्वा युवां कक्षीवन्तं स्तोतारमावतं ताभिरु ऊतिभिरस्मान् रक्षितुं स्वागतम्॥11॥ भावार्थः—राजपुरुषाणां योग्यमस्ति ये द्वीपद्वीपान्तरे वा देशदेशान्तरे व्यापारकरणाय गच्छेयुरागच्छेयुश्च तेषां रक्षा प्रयत्नेन विधेया॥11॥ पदार्थः—हे (सुदानू) अच्छे प्रकार दान करनेवाले (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक विद्वानो! (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (दीर्घश्रवसे) जिसके बड़े-बड़े विद्यादि पदार्थ, अन्न और धन विद्यमान उस (वणिजे) व्यवहार करनेवाले (औशिजाय) उत्तम बुद्धिमान् के पुत्र के लिये (कोशः) मेघ (मधु) मधुर गुणयुक्त जल को (अक्षरत्) वर्षता वा तुम (याभिः) जिन रक्षाओं से (कक्षीवन्तम्) उत्तम सहाय से युक्त (स्तोतारम्) विद्या के गुणों की प्रशंसा करनेवाले जन की (आवतम्) रक्षा करो (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से सहित हमारी रक्षा करने को (स्वागतम्) अच्छे प्रकार शीघ्र आया कीजिये॥11॥ भावार्थः—राजपुरुषों को योग्य है कि जो द्वीप-द्वीपान्तर और देश-देशान्तर में व्यापार करने के लिये जावें-आवें, उनकी रक्षा प्रयत्न से किया करें॥11॥ अथ शिल्पदृष्टान्तेन सभासेनापतिकृत्यमुपदिश्यते॥ अब शिल्प दृष्टान्त से सभापति और सेनापति के काम का उपदेश किया है॥ याभी॑ र॒सां क्षोद॑सो॒द्नः पि॑पि॒न्वथु॑रन॒श्वं याभी॒ रथ॒माव॑तं जि॒षे। याभि॑स्त्रि॒शोक॑ उ॒स्रिया॑ उ॒दाज॑त॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥12॥ याभिः॑। र॒साम्। क्षोद॑सा। उ॒द्नः। पि॒पि॒न्वथुः॑। अ॒न॒श्वम्। याभिः॑। रथ॑म्। आव॑तम्। जि॒षे। याभिः॑। त्रि॒ऽशोक॑ः। उ॒स्रियाः॑। उ॒त्ऽआज॑त। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥12॥ पदार्थः—(याभिः) शिल्पक्रियाभिः (रसाम्) प्रशस्तं रसं जलं विद्यते यस्यां ताम्। रस इति उदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) अत्रार्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्। (क्षोदसा) प्रवाहेण (उद्नः) जलस्य (पिपिन्वथुः) पिपूर्त्तम् (अनश्वम्) अविद्यमाना अश्वा तुरङ्गादयो यस्मिन् (याभिः) गमनागमनाख्याभिर्गतिभिः (रथम्) विमानादियानसमूहम् (आवतम्) रक्षतम् (जिषे) शत्रून् जेतुम् (याभिः) सेनाभिः (त्रिशोकः) त्रिषु दुष्टगुणकर्मस्वभावेषु शोको यस्य विदुषः सः (उस्रियाः) उस्रासु रश्मिषु भवा विद्युतः। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰1.5) (उदाजत) ऊर्ध्वं समन्तात् क्षिपतु। अत्र लोडर्थे लङ्। ताभिरित्यादि पूर्ववत्॥12॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरुद्नः क्षोदसा रसां पिपिन्वथुर्याभिर्जिषेऽनश्वं रथमावतं याभिर्वा त्रिशोको विद्वानुस्रिया उदाजत ताभिरु ऊतिभिः स्वागतम्॥12॥ भावार्थः—यथा सर्वशिल्पशास्त्रकुशलो विद्वान् विमानादियानेषु कलायन्त्राणि रचयित्वा तेषु जलविद्युदादीन् प्रयुज्य यन्त्रैः कलाः संचाल्य स्वाभीष्टे गमनागमने करोति तथैव सभासेनापती आचरेताम्॥12॥ पदार्थः—हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशको! आप दोनों (याभिः) जिन शिल्पक्रियाओं से (उद्नः) जल के (क्षोदसा) प्रवाह के साथ (रसाम्) जिसमें प्रशंसित जल विद्यमान हो, उस नदी को (पिपिन्वथुः) पूरी करो अर्थात् नहर आदि के प्रबन्ध से उसमें जल पहुंचाओ, वा (याभिः) जिन आने-जाने की चालों से (जिषे) शत्रुओं को जीतने के लिये (अनश्वम्) विना घोड़ों के (रथम्) विमान आदि रथसमूह को (आवतम्) राखो, वा (याभिः) जिन सेनाओं से (त्रिशोकः) जिनको दुष्ट गुण, कर्म, स्वभावों में शोक है, वह विद्वान् (उस्रियाः) किरणों में हुए विद्युत् अग्नि की चिलकों को (उदाजत) ऊपर को पहुंचावे, (ताभिरु) उन्हीं (ऊतिभिः) सब रक्षारूप उक्त वस्तुओं से (स्वागतम्) हम लोगों के प्रति अच्छे प्रकार आइये॥12॥ भावार्थः—जैसे सब शिल्पशास्त्रों में चतुर विद्वान् विमानादि यानों में कलायन्त्रों को रचा के, उनमें जल विद्युत् आदि का प्रयोग कर, यन्त्र से कलाओं को चला, अपने अभीष्ट स्थान में जाना-आना करता है, वैसे ही सभा सेना के पति किया करें॥12॥ पुनस्तौ काविव किं कुर्यातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे किसके समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ सूर्यं॑ परिया॒थः प॑रा॒वति॑ मन्धा॒तारं॒ क्षैत्र॑पत्ये॒ष्वाव॑तम्। याभि॒र्विप्रं॒ प्र भ॒रद्वा॑ज॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥13॥ याभिः॑। सूर्य॑म्। प॒रि॒ऽया॒थः। प॒रा॒ऽवति॑। म॒न्धा॒तार॑म्। क्षैत्र॑ऽपत्येषु। आव॑तम्। याभिः॑। विप्र॑म्। प्र। भ॒रत्ऽवा॑जम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥13॥ पदार्थः—(याभिः) (सूर्य्यम्) प्रकाशमयम् (परियाथः) सर्वतः प्राप्नुतम् (परावति) विप्रकृष्टे मार्गे (मन्धातारम्) यानेन सद्यो दूरदेशं गमयितारं मेधाविनम्। मन्धातेति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) (क्षैत्रपत्येषु) क्षेत्राणां भूमण्डलानां पतयः पालकास्तेषां कर्मसु (आवतम्) रक्षतम् (याभिः) रक्षाभिः (विप्रम्) मेधाविनम् (प्र) (भरद्वाजम्) विद्यासद्गुणान् भरतां वाजं विज्ञापयितारम् (आवतम्) विजानीतम्। अन्यत् पूर्ववत्॥13॥ अन्वयः—हे अश्विना! शिल्पविद्यास्वामिभृत्यौ! युवां याभिरूतिभिः परावति सूर्यमिव मन्धातारं परियाथः। याभिः क्षैत्रपत्येषु तमावतं भरद्वाजं विप्रं च प्रावतं ताभिरु स्वागतम्॥13॥ भावार्थः—व्यावहारिकजनैर्विमानादियानैर्विना दूरदेशेषु गमनागमने कर्त्तुमशक्यतेऽतो महान् लाभो भवितुं न शक्यते तस्मादेतत् सर्वदाऽनुष्ठेयम्॥13॥ पदार्थः—हे (अश्विना) शिल्पविद्या के स्वामी और भृत्यो! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षादि से (परावति) दूर देश में (सूर्य्यम्) प्रकाशमान सूर्य के समान (मन्धातारम्) विमानादि यान से शीघ्र दूर देश को पहुंचाने वाले बुद्धिमान् को (परियाथः) सब ओर से प्राप्त होओ, (याभिः) जिन रक्षाओं से (क्षैत्रपत्येषु) माण्डलिक राजाओं के काम में उसकी (आवतम्) रक्षा करो और (भरद्वाजम्) विद्या सद्गुणों के धारण करनेवालों को समझानेवाले (विप्रम्) मेधावी पुरुष की (प्रावतम्) अच्छे प्रकार रक्षा करो, (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) प्राप्त हूजिये॥13॥ भावार्थः—व्यवहार करनेवाले मनुष्यों से विमानादि यानों के विना दूसरे देशों में जाना-आना नहीं हो सकता, इससे बड़ा लाभ नहीं हो सकता। इस कारण नाव-विमानादि की रचना अवश्य सदा करनी चाहिये॥13॥ अथ प्रजासेनाजनसभाध्यक्षैः परस्परं किं किं कर्त्तव्यमित्याह॥ अब प्रजा सेनाजन और सभाध्यक्ष को परस्पर क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॑र्म॒हाम॑तिथि॒ग्वं क॑शो॒जुवं॒ दिवो॑दासं शम्बर॒हत्य॒ आव॑तम्। याभिः॑ पू॒र्भिद्ये॑ त्र॒सद॑स्यु॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥14॥ याभिः॑। म॒हाम्। अ॒ति॒थि॒ऽग्वम्। क॒शः॒ऽजुव॑म्। दिवः॑ऽदासम्। श॒म्ब॒र॒ऽहत्ये॑। आव॑तम्। याभिः॑। पूः॒ऽभिद्ये॑। त्र॒सद॑स्युम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥14॥ पदार्थः—(याभिः) (महाम्) महान्तम् पूज्यम् (अतिथिग्वम्) अतिथीन् प्राप्नुवन्तम् (कशोजुवम्) कशांस्युदकानि जवयति गमयति तम्। कश इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (दिवोदासम्) दिवो विद्याधर्मप्रकाशस्य दातारम्। दिवश्च दास उपसंख्यानम्। (अष्टा॰वा॰6.3.21) इति षष्ठ्या अलुक्। (शम्बरहत्ये) शम्बरस्य बलस्य हत्या हननं यस्मिन् युद्धादिव्यवहारे तस्मिन्। शम्बरमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (आवतम्) रक्षतम् (याभिः) क्रियाभिः (पूर्भिद्ये) शत्रूणां पुराणि भिद्यन्ते यस्मिन् संग्रामे तस्मिन् (त्रसदस्युम्) यो दस्युभ्यस्त्रस्यति तम् (आवतम्) रक्षतम्। ताभिरिति पूर्ववत्॥14॥ अन्वयः—हे अश्विना! राजप्रजयोः शूरवीरजनौ युवां शम्बरहत्ये याभिरूतिभिर्महामतिथिग्वं कशोजुवं दिवोदासं सेनापतिमावतम्। याभिः पूर्भिद्ये त्रसदस्युमावतं ताभिरु स्वागतम्॥14॥ भावार्थः—प्रजासेनाजनैः सकलविद्यं धार्मिकं पुरुषं सभापतिं कृत्वा संरक्ष्य सर्वस्मै भयप्रदं दुष्टं तस्करं हत्वा सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि च॥14॥ पदार्थः—हे (अश्विना) राजा और प्रजा में शूरवीर पुरुषो! तुम दोनों (शम्बरहत्ये) सेना वा दूसरे के बल पराक्रम का मारना जिसमें हो उस युद्धादि व्यवहार में (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (महाम्) बड़े प्रशंसनीय (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त होने, (कशोजुवम्) जलों को चलाने और (दिवोदासम्) दिव्य विद्यारूप क्रियाओं के देनेवाले सेनापति की (आवतम्) रक्षा करो, वा जिन रक्षाओं से (पूर्भिद्ये) शत्रुओं के नगर विदीर्ण हों, जिससे उस संग्राम में (त्रसदस्युम्) डाकुओं से डरे हुए श्रेष्ठ जन की (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिः) उन्हीं रक्षाओं से हमारी रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आइये॥14॥ भावार्थः—प्रजा और सेना के मनुष्यों को योग्य है कि सब विद्या में निपुण धार्मिक पुरुष को सभापति कर उसकी सब प्रकार रक्षा करके सब को भय देनेवाले दुष्ट डाकू को मार के आप सुखों को प्राप्त हों और सब को सुखी करें॥14॥ मनुष्यैर्वैद्यशिल्पपुरुषार्थिनः किमर्थं सेव्या इत्युपदिश्यते॥ मनुष्यों को वैद्य और शिल्पविद्या में पुरुषार्थ रखनेवाले जन किसलिये सेवन करने योग्य हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॑र्व॒म्रं वि॑पिपा॒नमु॑पस्तु॒तं क॒लिं याभि॑र्वि॒त्तजा॑निं दुव॒स्यथः॑। याभि॒र्व्य॑श्वमु॒त पृथि॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥15॥35॥ याभिः॑। व॒म्रम्। वि॒ऽपि॒पा॒नम्। उ॒प॒ऽस्तु॒तम्। क॒लिम्। याभिः॑। वि॒त्तऽजा॑निम्। दु॒व॒स्यथः॑। याभिः॑। विऽअ॑श्वम्। उ॒त। पृथि॑म्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥15॥ पदार्थः—(याभिः) (वम्रम्) रोगनिवृत्तये वमनकर्त्तारम् (विपिपानम्) औषधरसानां विविधं पानं कर्त्तुं शीलम् (उपस्तुतम्) उपगतैर्गुणैः प्रशंसितम् (कलिम्) यः किरति विक्षिपति दुःखानि दूरीकरोति तं गणकं वा (याभिः) (वित्तजानिम्) वित्ता प्रतीता जाया हृद्या स्त्री येन तम्। अत्र जायाया निङ्। (अष्टा॰5.4.134) इति जायाशब्दस्य समासान्तो निङादेशः। (दुवस्यथः) परिचरतम् (याभिः) रक्षणक्रियाभिः (व्यश्वम्) विविधा विगता वा अश्वास्तुरङ्गा अग्न्यादयो वा यस्मिन् सैन्ये याने वा तम् (उत) अपि (पृथिम्) विशालबुद्धिम् (आवतम्) कामयतम् (ताभिः) इत्यादि पूर्ववत्॥15॥ अन्वयः—हे अश्विना राजप्रजाजनौ! युवां याभिरूतिभिर्विपिपानमुपस्तुतं कलिं वित्तजानिं वम्रं दुवस्यथः। याभिर्व्यश्वं दुवस्यथ उत याभिः पृथिमावतं ताभिरु नैरोग्यं स्वागतम्॥15॥ भावार्थः—मनुष्यैः सद्वैद्यद्वारोत्तमान्यौषधानि सेवित्वा रोगान्निवार्य बलबुद्धौ वर्धित्वा सेनापतिं शिल्पिनं विस्तृतपुरुषार्थिनं च जनं संसेव्य शरीरात्मसुखानि सततं लब्धव्यानि॥15॥ पदार्थः—हे (अश्विना) राज प्रजाजनो! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (विपिपानम्) विशेष कर ओषधियों के रसों को जो पीने के स्वभाववाला (उपस्तुतम्) आगे प्रतीत हुए गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (कलिम्) जो सब दुःखों से दूर करने वा ज्योतिष शास्त्रोक्त गणितविद्या को जाननेवाला (वित्तजानिम्) और जिसने हृदय को प्रिय सुन्दर स्त्री पाई हो उस (वम्रम्) रोगनिवृत्ति करने के लिये वमन करते हुए पुरुष की (दुवस्यथः) सेवा करो, (याभिः) वा जिन रक्षाओं से (व्यश्वम्) विविध घोड़े व अग्न्यादि पदार्थों से युक्त सेना वा यान की सेवा करो (उत) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (पृथिम्) विशाल बुद्धिवाले पुरुष की (आवतम्) रक्षा करो (ताभिः, उ) उन्हीं से आरोग्य को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार सब ओर से प्राप्त हूजिये॥15॥ भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि सद्वैद्यों के द्वारा उत्तम ओषधियों के सेवन से रोगों का निवारण, बल और बुद्धि को बढ़ा सेना के अध्यक्ष और विस्तृत पुरुषार्थयुक्त शिल्पीजन की सम्यक् सेवा कर शरीर और आत्मा के सुखों को प्राप्त होवें॥15॥ अथाध्यापकोपदेशकाभ्यां किं कर्तव्यमित्याह॥ अब अध्यापक और उपदेशकों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॑र्नरा श॒यवे॒ याभि॒रत्र॑ये॒ याभिः॑ पु॒रा मन॑वे गा॒तुमी॒षथुः॑। याभिः॑ शारी॒राज॑तं॒ स्यूम॑रश्मये॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥16॥ याभिः॑ न॒रा॒। श॒यवे॑। याभिः॑। अत्र॑ये। याभिः॑। पु॒रा। मन॑वे। गा॒तुम्। ई॒षथुः॑। याभिः॑। शारीः॑। आज॑तम्। स्यूम॑ऽरश्मये। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥16॥ पदार्थः—(याभिः) (नरा) नयनकर्त्तारो (शयवे) सुखेन शयनशीलाय (याभिः) (अत्रये) अविद्यमाना आत्मिकवाचिकशारीरिकदोषा यस्मिंस्तस्मै (याभिः) (पुरा) पूर्वम् (मनवे) धार्मिकप्रजापतये राज्ञे। प्रजापतिर्वै मनुः। (शत॰6.4.3.19) (गातुम्) पृथिवीम्। गातुरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) गातुमिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (ईषथुः) प्रापयितुमिच्छतम् (याभिः) (शारीः) शराणामिमा गतीः (आजतम्) जानीतम् (स्यूमरश्मये) स्यूमाः संयुक्तरश्मयो न्यायदीप्तयो यस्य तस्मै (ताभिः॰) इत्यादि पूर्ववत्॥16॥ अन्वयः—हे नराऽश्विनाध्यापकोपदेशकौ विद्वांसौ! युवां पुरा याभिरूतिभिः शयवे शान्तिर्याभिरत्रये सर्वाणि सुखानि याभिर्मनवे गातुं चेषथुः। याभिः स्यूमरश्मये न्यायकारिणे चेषथुर्याभिः शत्रुभ्यः शारीराजतं ताभिरु स्वसेनारक्षायै स्वागतम्॥16॥ भावार्थः—अध्यापकोपदेशकयोरिदं योग्यमस्ति विद्याधर्मोपदेशेन सर्वान् जनान् विदुषो धार्मिकान् सम्पाद्य पुरुषार्थिनः सततं कुर्य्याताम्॥16॥ पदार्थः—हे (नरा) उत्तम कार्य्य में प्रवृत्ति करानेवाले (अश्विना) सब विद्याओं के पढ़ाने और उपदेश करनेवाले विद्वान् लोगो! तुम दोनों (पुरा) प्रथम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (शयवे) सुख से शयन करनेवाले को शान्ति वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अत्रये) शरीर, मन, वाणी के दोषों से रहित पुरुष के लिये सब सुख और (याभिः) जिन रक्षाओं से (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (गातुम्) पृथिवी वा उत्तम वाणी को (ईषथुः) प्राप्त कराने की इच्छा करो वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (स्यूमरश्मये) सूर्यवत् संयुक्त न्यायप्रकाश करनेवाले पुरुष के लिये सुख की इच्छा करो वा जिनसे शत्रुओं को (शारीः) बाणों की गतियों को (आजतम्) प्राप्त कराओ (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से अपनी सेनाओं की रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार उत्साह को प्राप्त हूजिये॥16॥ भावार्थः—अध्यापक और उपदेष्टाओं को यह योग्य है कि विद्या और धर्म के उपदेश से सब जनों को विद्वान् धार्मिक करके पुरुषार्थयुक्त निरन्तर किया करें॥16॥ अथ सभासेनापतिभ्यां कथमनुष्ठेयमित्याह॥ अब सभापति और सेनापति को कैसा अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ पठ॑र्वा॒ जठ॑रस्य म॒ज्मना॒ग्निार्नादी॑देच्चि॒त इ॒द्धो अज्म॒न्ना। याभिः॒ शर्या॑त॒मव॑थो महाध॒ने ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॒रश्वि॒ना ग॑तम्॥17॥ याभिः॑। पठ॑र्वा। जठ॑रस्य। म॒ज्मना॑। अ॒ग्निः। न। अदी॑देत्। चि॒तः। इ॒द्धः। अज्म॑न्। आ। याभिः॑। शर्या॑तम्। अव॑थः। म॒हा॒ऽध॒ने। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥17॥ पदार्थः—(याभिः) (पठर्वा) ये पठन्ति तान् विद्यार्थिन ऋच्छति प्राप्नोति स सेनाध्यक्षः (जठरस्य) उदरस्य मध्ये। जठरमुदरं भवति जग्धमस्मिन् ध्रियते धीयते वा। (निरु॰4.7) (मज्मना) बलेन (अग्निः) पावकः (न) इव (अदीदेत्) प्रदीप्येत्। दीदयतीति ज्वलतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰1.16) अत्र दीदिधातोर्लङि प्रथमैकवचने शपो लुक्। (चितः) इन्धनैः संयुक्तः (इद्धः) प्रदीप्तः (अज्मन्) अजन्ति प्रक्षिपन्ति शत्रून् यस्मिंस्तत्र (आ) (याभिः) (शर्य्यातम्) शरौ हिंसकान् प्राप्तम् (अवथः) रक्षथः (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात् तस्मिँस्ताभिरिति पूर्ववत्॥17॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां याभिरूतिभिः पठर्वा मज्मना जठरस्य मध्ये चित् इद्धोऽग्निर्नेवाज्मन् महाधन आदीदेत्। याभिः शर्य्यातमवथस्ताभिरु प्रजासेनारक्षार्थं स्वागतम्॥17॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा कश्चित् शौर्य्यादिगुणैः शुम्भमानौ राजा रक्ष्यान् रक्षेत्, घात्यान् हन्यादग्निर्वनमिव शत्रुसेना दहेत्, शत्रूणां महान्ति धनानि प्रापय्यानन्दयेत्, तथैव सभासेनापतिभ्यामनुष्ठेयम्॥17॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीश! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (पठर्वा) पढ़नेवाले विद्यार्थियों को जो प्राप्त होता वा (मज्मना) बल से (जठरस्य) उदर के मध्य (चितः) सञ्चित किये (इद्धः) प्रदीप्त (अग्निः) अग्नि के (न) समान (अज्मन्) जिसमें शत्रुओं को गिराते हैं, उस बड़े-बड़े धन की प्राप्ति करानेहारे युद्ध में (आ, अदीदेत्) अच्छे प्रदीप्त होवें, वा (याभिः) जिन रक्षाओं के (शर्य्यातम्) हिंसा करनेहारे को प्राप्त पुरुष की (अवथः) रक्षा करो, (ताभिरु) इन्हीं रक्षाओं से प्रजा सेना की रक्षा के लिये (सु, आगतम्) आया-जाया कीजिये॥17॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई शौर्य्यादि गुणों से शोभायमान राजा रक्षणीय की रक्षा करे और मारने योग्यों को मारे और जैसे अग्नि वन का दाह करे, वैसे शत्रु की सेना को भस्म करे और शत्रुओं के बड़े-बड़े धनों को प्राप्त कराकर आनन्दित करावे, वैसे ही सभा और सेना के पति काम किया करें॥17॥ अथ सर्वै राजजनैः किंवत्सुखानि भोग्यानीत्याह॥ अब सब राजजनों को किसके तुल्य सुख भोगने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ याभि॑रङ्गिरो॒ मन॑सा निर॒ण्यथोऽग्रं॒ गच्छ॑थो विव॒रे गोअ॑र्णसः। याभि॒र्मनुं॒ शूर॑मि॒षा स॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥18॥ याभिः॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। मन॑सा। नि॒ऽर॒ण्यथः॑। अग्र॑म्। गच्छ॑थः। वि॒ऽव॒रे। गोऽअ॑र्णसः। याभिः॑। मनु॑म्। शूर॑म्। इ॒षा। स॒म्ऽआव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥18॥ पदार्थः—(याभिः) (अङ्गिरः) अङ्गति जानाति यो विद्वांस्तत्सम्बुद्धौ (मनसा) विज्ञानेन (निरण्यथः) नित्यं रणथो युद्धमाचरथः। अत्र विकरणव्यत्ययेन श्यन्। (अग्रम्) उत्तमविजयम् (गच्छथः) (विवरे) अवकाशे (गोअर्णसः) गौः पृथिव्याः जलस्य च। अत्र सर्वत्र विभाषा गोरिति प्रकृतिभावः। (याभिः) (मनुम्) युद्धज्ञातारम् (शूरम्) शत्रुहिंसकम् (इषा) इच्छया (समावतम्) सम्यग् रक्षतम् (ताभिः॰) इति पूर्ववत्॥18॥ अन्वयः—हे अङ्गिरस्त्वं मनसा विद्याधर्मौ सर्वान् बोधय। हे अश्विना! सेनापालकयोधयितारौ युवां याभिरूतिभिर्गोअर्णसो विवरे निरण्यथोऽग्रं गच्छथो याभिः शूरं मनुं समावतं ताभिरु इषाऽस्मद्रक्षणाय स्वागतम्॥18॥ भावार्थः—यथा विद्वान् विज्ञानेन सर्वाणि सुखानि साध्नोति तथा सर्वै राजजनैरनेकैः साधनैः पृथिव्या नदीसमुद्रादाकशस्य मध्ये शत्रून् विजित्य सुखानि सुष्ठु गन्तव्यानि॥18॥ पदार्थः—हे (अङ्गिरः) जाननेहारे विद्वान्! तू (मनसा) विज्ञान से विद्या और धर्म्म का सबको बोध करा। हे (अश्विना) सेना के पालने और युद्ध करानेहारे जन! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (गोअर्णसः) पृथिवी जल के (विवरे) अवकाश में (निरण्यथः) संग्राम करते और (अग्रम्) उत्तम विजय को (गच्छथः) प्राप्त होते वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (शूरम्) शूरवीर (मनुम्) मननशील मनुष्य को (समावतम्) सम्यक् रक्षा करो (ताभिरु) उन्हीं रक्षा और (इषा) इच्छा से हमारी रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) उचित समय पर आया कीजिये॥18॥ भावार्थः—जैसे विद्वान् विज्ञान से सब सुखों को सिद्ध करता है, वैसे सब राजपुरुषों को अनेक साधनों से पृथिवी, नदी और समुद्र से आकाश के मध्य में शत्रुओं को जीत के सुखों को अच्छे प्रकार प्राप्त होना चाहिये॥18॥ अथ स्त्रीपुंसाभ्यां कथं कदा विवाहः कार्य इत्याह॥ अब स्त्री-पुरुष को कैसे और कब विवाह करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ पत्नी॑र्विम॒दाय॑ न्यू॒हथु॒रा घ॑ वा॒ याभि॑ररु॒णीरशि॑क्षतम्। याभिः॑ सु॒दास॑ ऊ॒हथुः॑ सुदे॒व्यं ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥19॥ याभिः॑। पत्नीः॑। वि॒ऽम॒दाय॑। नि॒ऽऊ॒हथुः॑। आ। घ॒। वा॒। याभिः॑। अ॒रु॒णीः। अशि॑क्षतम्। याभिः॑। सु॒ऽदासे॑। ऊ॒हथुः॑। सु॒ऽदे॒व्य॑म्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥19॥ पदार्थः—(याभिः) (पत्नीः) पत्युर्यज्ञसंबन्धिनीर्विदुषीः (विमदाय) विविधानन्दाय (न्यूहथुः) नितरां वहतम् (आ) (घ) एव (वा) पक्षान्तरे (याभिः) (अरुणीः) ब्रह्मचारिणीः कन्याः (अशिक्षतम्) पाठयतम् (याभिः) (सुदासे) सुष्ठुदाने (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (सुदेव्यम्) सुष्ठु देवेषु विद्वत्सु भवं विज्ञानम् (ताभिः॰) इति पूर्ववत्॥19॥ अन्वयः—हे अश्विनाध्यापकाध्येतारौ! युवां याभिरूतिभिर्विमदाय पत्नीर्न्यूहथुः। याभिरूतिभिररुणी- र्घैवाशिक्षतम्। याभिः सुदासे सुदेव्यमूहथुश्च ताभिर्विद्या उ विनयं स्वागतम्॥19॥ भावार्थः—सुखं जिगमिषुभिः पुरुषैः स्त्रीभिश्च धर्मसेवितेन ब्रह्मचर्य्येण च पूर्णां विद्यां युवावस्थां च प्राप्य स्वतुल्यतयैव विवाहः कर्त्तव्योऽथवा ब्रह्मचर्य एव स्थित्वा सर्वदा स्त्रीपुरुषाणां सुशिक्षा कार्या, नहि तुल्यगुणकर्मस्वभावैर्विना गृहाश्रमं धृत्वा केचित् किञ्चिदपि सुखं सुसंतानं प्राप्तुं शक्नुवन्त्यत एवमेव विवाहः कर्त्तव्यः॥19॥ पदार्थः—हे (अश्विना) पढ़ने-पढ़ानेहारे ब्रह्मचारी लोगो! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (विमदाय) विविध आनन्द के लिये (पत्नीः) पति के साथ यज्ञसम्बन्ध करनेवाली विदुषी स्त्रियों को (न्यूहथुः) निश्चय से ग्रहण करो, (वा) वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अरुणीः) ब्रह्मचारिणी कन्याओं को (घ) ही (आ, अशिक्षतम्) अच्छे प्रकार शिक्षा करो और (याभिः) जिन रक्षादि क्रियाओं से (सुदासे) अच्छे प्रकार दान करने में (सुदेव्यम्) उत्तम विद्वानों में उत्पन्न हुए विज्ञान को (ऊहथुः) प्राप्त कराओ, (ताभिः) उन रक्षाओं से विद्या (उ) और विनय को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये॥19॥ भावार्थः—सुख पाने की इच्छा करनेवाले पुरुष और स्त्रियों को धर्म से सेवित ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या और युवावस्था को प्राप्त होकर अपनी तुल्यता से ही विवाह करना योग्य है अथवा ब्रह्मचर्य ही में ठहर के सर्वदा स्त्री-पुरुषों को अच्छी शिक्षा करना योग्य है, क्योंकि तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले स्त्री-पुरुषों के विना गृहाश्रम को धारण करके कोई किञ्चित् भी सुख वा उत्तम सन्तान को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होते, इससे इसी प्रकार विवाह करना चाहिये॥19॥ अथ सभाध्यक्षादिराजपुरुषैः कथं भवितव्यमित्याह॥ अब सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ शंता॑ती॒ भव॑थो ददा॒शुषे॑ भु॒ज्युं याभि॒रव॑थो॒ याभि॒रध्रि॑गुम्। ओ॒म्याव॑तीं सु॒भरा॑मृत॒स्तुभं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥20॥36॥ याभिः॑। शंता॑ती॒ इति॑ शम्ऽता॑ती। भव॑थः। द॒दा॒शुषे॑। भु॒ज्युम्। याभिः॑। अव॑थः। याभिः॑। अध्रि॑ऽगुम्। ओ॒म्याऽव॑तीम्। सु॒ऽभरा॑म्। ऋ॒त॒ऽस्तुभ॑म्। ताभिः॑। ऊम् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥20॥ पदार्थः—(याभिः) (शन्ताती) शं सुखस्य कर्त्तारौ। अत्र शिवशमरिष्टस्य करे। (अष्टा॰4.4.143) इति तातिल् प्रत्ययः। (भवथः) भवतम् (ददाशुषे) विद्यासुखे दातुं शीलाय (भुज्युम्) सुखस्य भोक्तारं पालकं वा (याभिः) (अवथः) (याभिः) (अध्रिगुम्) इन्द्रं परमैश्वर्यवन्तम्। इन्द्रोऽप्यध्रिगुरुच्यते। (निरु॰5.11) (ओम्यावतीम्) अवन्ति त ओमास्तेषु भवा प्रशस्ता विद्या तद्वतीम् (सुभराम्) सुष्ठु बिभ्रति सुखानि यया ताम् (ऋतस्तुभम्) यया ऋतं स्तोभते स्तभ्नाति धरति (ताभिः॰) इति पूर्ववत्॥20॥ अन्वयः—हे अश्विना सभासेनेशौ! युवां ददाशुषे याभिरूतिभिः शन्ताती भवथो भवतं याभिर्भुज्युमवथोऽवतं याभिरध्रिगुमोम्यावतीमृतस्तुभं सुभरां नीतिमवथोऽवतं ताभिरु ऊतिभिः सत्यं स्वागतम्॥20॥ भावार्थः—राजादिभिः राजपुरुषैः सर्वस्य सुखकारिभिर्भवितव्यम्। आप्तविद्यानीती धृत्वा मङ्गलमाप्तव्यम्॥20॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो! तुम दोनों (ददाशुषे) विद्या और सुख देनेवाले के लिये (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं से (शन्ताती) सुख के कर्त्ता (भवथः) होते वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (भुज्युम्) सुख के भोक्ता वा पालन करनेहारे की (अवथः) रक्षा करते वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अध्रिगुम्) परमैश्वर्यवाले इन्द्र और (ओम्यावतीम्) रक्षा करनेहारे विद्वानों में उत्पन्न जो उत्तम विद्या उससे युक्त (सुभराम्) जिससे कि अच्छे प्रकार सुखों को (ऋतस्तुभम्) और सत्य का धारण होता है, उस नीति की रक्षा करते हो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं से सत्य को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ॥20॥ भावार्थः—राजादि राजपुरुषों को योग्य है कि सबको सुख देवें और आप्त पुरुषों की विद्या और नीति को धारण कर कल्याण को प्राप्त होवें॥20॥ पुनस्तैः किं किं कार्य्यमित्याह॥ फिर उन लोगों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ कृ॒शानु॒मस॑ने दुव॒स्यथो॑ ज॒वे याभि॒र्यूनो॒ अर्व॑न्त॒माव॑तम्। मधु॑ प्रि॒यं भ॑रथो॒ यत्स॒रड्भ्य॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥21॥ याभिः॑। कृ॒शानु॑म्। अस॑ने। दु॒व॒स्यथः॑। ज॒वे। याभिः॑। यूनः॑। अर्व॑न्तम्। आव॑तम्। मधु॑। प्रि॒यम्। भ॒र॒थः॒। यत्। स॒रट्ऽभ्यः॑। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥21॥ पदार्थः—(याभिः) (कृशानुम्) कृषम् (असने) क्षेपणे (दुवस्यथः) परिचरतम् (जवे) वेगे (याभिः) (यूनः) यौवनस्थान् वीरान् (अर्वन्तम्) वाजिनम् (आवतम्) पालयतम् (मधु) मिष्टमन्नादिकम् (प्रियम्) (भरथः) धरतम् (यत्) (सरड्भ्यः) युद्धे विजयकर्तृसेनाजनादिभ्यः (ताभिः) इति पूर्ववत्॥21॥ अन्वयः—हे अश्विना सभासेनेशौ! युवां याभिरूतिभिरसने कृशानुं दुवस्यथः। याभिर्जवे यूनोऽर्वन्तं चावतमु सरड्भ्यो यत् प्रियं तन्मधु च भरथस्ताभी राष्ट्रपालनाय स्वागतम्॥21॥ भावार्थः—राजपुरुषाणां योग्यमस्ति दुःखैः कृशितान् प्राणिनो यौवनावस्थान् व्यभिचारात्पालयेयुः, अश्वादिसेनाङ्गरक्षार्थं सर्वं प्रियं वस्तु संभरन्तु प्रतिक्षणं समीक्षया सर्वान् वर्धयेयुः॥21॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से (असने) फेंकने में (कृशानुम्) दुर्बल की (दुवस्यथः) सेवा करो, वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (जवे) वेग में (यूनः) युवावस्था युक्त वीरों (अर्वन्तम्) और घोड़े की (आवतम्) रक्षा करो (उ) और (सरड्भ्यः) युद्ध में विजय करनेवाले सेनादि जनों से (यत्) जो (प्रियम्) कामना के योग्य है उस (मधु) मीठे अन्न आदि पदार्थ को (भरथः) धारण करो, (ताभिः) उन रक्षाओं से युक्त होकर राज्यपालन के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये॥21॥ भावार्थः—राजपुरुषों को योग्य है कि दुःखों से पीड़ित प्राणियों और युवावस्थावाले स्त्री-पुरुषों की व्यभिचार से रक्षा करें और घोड़े आदि सेना के अङ्गों की रक्षा के लिये सब प्रिय वस्तु को धारण करें, प्रतिक्षण सम्हाल से सबको बढ़ाया करें॥21॥ पुनस्तैर्युद्धे कथमाचरणीयमित्याह॥ फिर उनको युद्ध में कैसा आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभि॒र्नरं॑ गोषु॒युधं॑ नृ॒षाह्ये॒ क्षेत्र॑स्य सा॒ता तन॑यस्य॒ जिन्व॑थः। याभी॒ रथाँ॒ अव॑थो॒ याभि॒रर्व॑त॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥22॥ याभिः॑। नर॑म्। गो॒षु॒ऽयुध॑म्। नृ॒ऽसह्ये॑। क्षेत्र॑स्य। सा॒ता। तन॑यस्य। जिन्व॑थः। याभिः॑। रथा॑न्। अव॑थः। याभिः॑। अर्व॑तः। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥22॥ पदार्थः—(याभिः) (नरम्) नेतारम् (गोषुयुधम्) पृथिव्यादिषु योद्धारम् (नृषाह्ये) नृभिः षोढव्ये (क्षेत्रस्य) स्त्रियाः (साता) संभजनीये संग्रामे। सप्तम्येकवचनस्य डादेशः। (तनयस्य) (जिन्वथः) प्रीणीत (याभिः) (रथान्) विमानादियानानि (अवथः) वर्धयेतम् (याभिः) (अर्वतः) अश्वान् (ताभिः॰) इति पूर्ववत्॥22॥ अन्वयः—हे अश्विना सभासेनाध्यक्षौ! युवां नृषाह्ये साता संग्रामे याभिरूतिभिर्गोषु युधं नरं जिन्वथो याभिः क्षेत्रस्य तनयस्य जिन्वथ उ याभी रथानर्वतोऽवथस्ताभिः सर्वाः प्रजाश्च संरक्षितुं स्वागतम्॥22॥ भावार्थः—मनुष्यैर्युद्धे शत्रून् हत्वा स्वभृत्यादीन् संरक्ष्य सेनाङ्गानि वर्धनीयानि न जातु स्त्री बालकौ हन्तव्यौ नायोद्धा संप्रेक्षका दूताश्चेति॥22॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभासेना के अध्यक्ष तुम दोनों! (नृषाह्ये) वीरों को सहने और (साता) सेवन करने योग्य संग्राम में (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (गोषुयुधम्) पृथिवी पर युद्ध करनेहारे (नरम्) नायक को (जिन्वथः) प्रसन्न करो (याभिः) वा जिन रक्षाओं से (क्षेत्रस्य) स्त्री और (तनयस्य) सन्तान को प्रसन्न रक्खो (उ) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (रथान्) रथों (अर्वतः) और घोड़ों की (अवथः) रक्षा करो (ताभिः) उन रक्षाओं से सब प्रजाओं की रक्षा करने को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्रवृत्त हूजिये॥22॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि युद्ध में शत्रुओं को मार अपने भृत्य आदि की रक्षा करके सेना के अङ्गों को बढ़ावें और स्त्री, बालकों, युद्ध के देखनेवाले और दूतों को कभी न मारें॥22॥ अथ ते दुष्टनिवृत्तिं श्रेष्ठरक्षां कथं कुर्य्युरित्याह॥ अब वे राजजन दुष्टों की निवृत्ति और श्रेष्ठों की रक्षा कैसे करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ याभिः॒ कुत्स॑मार्जुने॒यं श॑तक्रतू॒ प्र तु॒र्वीतिं॒ प्र च॑ द॒भीति॒माव॑तम्। याभि॑र्ध्व॒सन्तिं॑ पुरु॒षन्ति॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्॥23॥ याभिः॑। कुत्स॑म्। आ॒र्जु॒ने॒यम्। श॒त॒क्र॒तू॒ इति॑ शतऽक्रतू। प्र। तु॒र्वीति॑म्। प्र। च॒। द॒भीति॑म्। आव॑तम्। याभिः॑। ध्व॒सन्ति॑म्। पु॒रु॒ऽसन्ति॑म्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊ॒म् इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म्॥23॥ पदार्थः—(याभिः) (कुत्सम्) वज्रम् (आर्जुनेयम्) अर्जुनेन रूपेण निर्वृत्तम्। अत्र चातुरर्थिको ढक्। (शतक्रतू) शतं प्रज्ञा कर्माणि वा ययोस्तौ (प्र) (तुर्वीतिम्) हिंसकम्। अत्र बाहुलकात् कीतिः प्रत्ययः। (प्र) (च) समुच्चये (दभीतिम्) दम्भिनम् (आवतम्) हन्यातम् (याभिः) (ध्वसन्तिम्) अधोगन्तारं पापिनम् (पुरुषन्तिम्) पुरूणां बहूनां सन्ति विभाजितारम् (आवतम्) रक्षतम् (ताभिः) इति पूर्ववत्॥23॥ अन्वयः—हे शतक्रतू अश्विना सभासेनेशौ! युवां याभिरूतिभिः सूर्यचन्द्रवत् प्रकाशमानौ सन्तावार्जुनेयं कुत्सं सङ्गृह्य तुर्वीतिं दभीतिं ध्वसन्तिं प्रावतम्। याभिः पुरुषन्तिं च प्रावतं ताभिरु धर्मं रक्षितुं स्वागतम्॥23॥ भावार्थः— राजादिमनुष्यैः शस्त्रास्त्रप्रयोगान् विदित्वा दुष्टान् शत्रून् निवार्य यावन्तीहाधर्मयुक्तानि कर्माणि सन्ति तावन्ति धर्मोपदेशेन निवार्य विविधा रक्षा विधाय प्रजाः सम्पाल्य परमानन्दो भोक्तव्यः॥23॥ पदार्थः—हे (शतक्रतू) असंख्योत्तम बुद्धिकर्मयुक्त (अश्विना) सभा सेना के पति! आप दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षा आदि से सूर्य-चन्द्रमा के समान प्रकाशमान होकर (आर्जुनेयम्) सुन्दर रूप के साथ सिद्ध किये हुए (कुत्सम्) वज्र का ग्रहण करके (तुर्वीतिम्) हिंसक (दभीतिम्) दम्भी (ध्वसन्तिम्) नीच गति को जानेवाले पापी को (प्र, आवतम्) अच्छे प्रकार मारो (च) और (याभिः) जिन रक्षाओं से (पुरुषन्तिम्) बहुतों को अलग बांटनेवाले की (प्र, आवतम्) रक्षा करो, (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से धर्म की रक्षा करने को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार तत्पर हूजिये॥23॥ भावार्थः—राजादि मनुष्यों को योग्य है कि शस्त्रास्त्र प्रयोगों को जान, दुष्ट शत्रुओं का निवारण करके, जितने इस संसार में अधर्मयुक्त कर्म हैं उतनों का धर्म्मोपदेश से निवारण कर, नाना प्रकार की रक्षा का विधान कर, प्रजा का अच्छे प्रकार पालन करके परम आनन्द का भोग किया करें॥23॥ अध्यापकोपदेशकाभ्यां किं कर्त्तव्यमित्याह॥ अध्यापक और उपदेशकों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अप्न॑स्वतीमश्विना॒ वाच॑म॒स्मे कृ॒तं नो॑ दस्रा वृषणा मनी॒षाम्। अ॒द्यू॒त्येऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वां वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ॥24॥ अप्न॑स्वतीम्। अ॒श्वि॒ना॒। वाच॑म्। अ॒स्मे इति॑। कृ॒तम्। नः॒। द॒स्रा॒। वृ॒ष॒णा॒। म॒नी॒षाम्। अ॒द्यू॒त्ये॑। अव॑से। नि। ह्व॒ये॒। वा॒म्। वृ॒धे। च॒। नः॒। भ॒व॒त॒म्। वाज॑ऽसातौ॥24॥ पदार्थः—(अप्नस्वतीम्) प्रशस्तापत्ययुक्ताम् (अश्विना) आप्तावध्यापकोपदेशकौ (वाचम्) वेदादिशास्त्रसंस्कृतां वाणीम् (अस्मे) अस्मासु (कृतम्) कुरुतम्। अत्र विकरणस्य लुक्। (नः) अस्मभ्यम् (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (वृषणा) सुखाभिवर्षकौ (मनीषाम्) योगविज्ञानवतीं बुद्धिम् (अद्यूत्ये) द्यूते भवो व्यवहारो द्यूत्यश्छलादिदूषितस्तद्भिन्ने (अवसे) रक्षणाद्याय (नि) नितराम् (ह्वये) आह्वानं कुर्वे (वाम्) युवाम् (वृधे) सर्वतो वर्धनाय (च) अन्येषां समुच्चये (नः) अस्माकम् (भवतम्) (वाजसातौ) युद्धादिव्यवहारे॥24॥ अन्वयः—हे दस्रा वृषणाऽश्विनाध्यापकोपदेशकौ! युवामस्मेऽस्मभ्यमप्नस्वतीं वाचं कृतम्। अद्यूत्ये नोऽवसे मनीषां कृतम्। वाजसातौ नोऽस्माकमन्येषां च वृधे सततं भवतम्। एतदर्थं वां युवामहं निह्वये॥24॥ भावार्थः—न खलु कश्चिदप्याप्तयोर्विदुषोः समागमेन विना पूर्णविद्यायुक्तां वाचं प्रज्ञां च प्राप्तुमर्हति, नह्येते अन्तरा शत्रुजयमभितो वृद्धिं च॥24॥ पदार्थः—हे (दस्रा) सब के दुःखनिवारक (वृषणा) सुख को वर्षानेहारे (अश्विना) अध्यापक उपदेशक लोगो! तुम दोनों (अस्मे) हम में (अप्नस्वतीम्) बहुत पुत्र-पौत्र करनेहारी (वाचम्) वाणी को (कृतम्) कीजिये (अद्यूत्ये) छलादि दोषरहित व्यवहार में (नः) हमारी (अवसे) रक्षादि के लिये (मनीषाम्) योग विज्ञानवाली बुद्धि को कीजिये (वाजसातौ) युद्धादि व्यवहार में (नः) हमारी (च) और अन्य लोगों की (वृधे) वृद्धि के लिये निरन्तर (भवतम्) उद्यत हूजिये, इसीके लिये (वाम्) तुम दोनों को मैं (निह्वये) नित्य बुलाता हूं॥24॥ भावार्थः—कोई भी पुरुष आप्त विद्वानों के समागम के विना पूर्ण विद्यायुक्त वाणी और बुद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता, न इन दोनों के विना शत्रुओं का जय और सब ओर से बढ़ती को प्राप्त हो सकता है॥24॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ द्युभि॑र॒क्तुभिः॒ परि॑ पातम॒स्मानरि॑ष्टेभिरश्विना॒ सौभ॑गेभिः। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥25॥37॥7॥ द्युऽभिः॑। अ॒क्तुऽभिः॑। परि॑। पा॒त॒म्। अ॒स्मान्। अरि॑ष्टेभिः। अ॒श्वि॒ना॒। सौभ॑गेभिः। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥25॥ पदार्थः—(द्युभिः) दिवसैः (अक्तुभिः) रात्रिभिः सह वर्त्तमानान् (परि) सर्वतः (पातम्) रक्षतम् (अस्मान्) भवदाश्रितान् (अरिष्टेभिः) हिंसितुमनर्हैः (अश्विना) (सौभगेभिः) शोभनैश्वर्यैः (तत्) (नः) (मित्रः) (वरुणः) (मामहन्ताम्) (अदितिः) (सिन्धुः) (पृथिवी) (उत) (द्यौः) एषां पूर्ववदर्थः॥25॥ अन्वयः—हे अश्विना! पूर्वोक्तौ युवां द्युभिरक्तुभिररिष्टेभिः सौभगेभिः सह वर्त्तमानानस्मान् सदा परिपातं तत् युष्मत्कृत्यं मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मभ्यं मामहन्ताम्॥25॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मातापितरौ सन्तानान् मित्रः सखायं प्राणश्च शरीरं प्रीणाति समुद्रो गाम्भीर्यादिकं पृथिवी वृक्षादीन् सूर्यः प्रकाशं च धृत्वा सर्वान् प्राणिनः सुखिनः कृत्वोपकारं जनयन्ति तथाऽध्यापकोपदेष्टारस्सर्वाः सत्यविद्याः सुशिक्षाश्च प्रापय्येष्टं सुखं प्रापयेयुः॥25॥ अत्र द्यावापृथिवीगुणवर्णनं सभासेनाध्यक्षकृत्यं तत्कृतपरोपकारवर्णनं च कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ अस्मिन्नध्यायेऽहोरात्राग्निविद्वदादिगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थानां षष्ठाध्यायोक्तार्थैः सह सङ्गतिर्वेदितव्या॥ इति सप्तत्रिंशत्तमो 37 वर्गो द्वादशोत्तरशततमं 112 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (अश्विना) पूर्वोक्त अध्यापक और उपदेशक लोगो! तुम दोनों (द्युभिः) दिन और (अक्तुभिः) रात्रि (अरिष्टेभिः) हिंसा के न योग्य (सौभगेभिः) सुन्दर ऐश्वर्यों के साथ वर्त्तमान (अस्मान्) हम लोगों को सर्वदा (परि, पातम्) सब प्रकार रक्षा कीजिये (तत्) तुम्हारे उस काम को (मित्रः) सबका सुहृद् (वरुणः) धर्मादि कार्यों में उत्तम (अदितिः) माता (सिन्धुः) समुद्र वा नदी (पृथिवी) भूमि वा आकाशस्थ वायु (उत) और (द्यौः) विद्युत् वा सूर्य का प्रकाश (नः) हमारे लिये (मामहन्ताम्) वार-वार बढ़ावें॥25॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता और पिता अपने-अपने सन्तानों, सखा मित्रों और प्राण शरीर को प्रसन्न करते हैं और समुद्र गम्भीरतादि, पृथिवी वृक्षादि और सूर्य प्रकाश को धारण कर और सब प्राणियों को सुखी करके उपकार को उत्पन्न करते हैं, वैसे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे सब सत्य विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त कराके सबको इष्ट सुख से युक्त किया करें॥25॥ इस सूक्त में सूर्य पृथिवी आदि के गुणों और सभा सेना के अध्यक्षों के कर्त्तव्यों तथा उनके किये परोपकारादि कर्मों का वर्णन किया है, इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ इस अध्याय में दिन, रात्रि, अग्नि और विद्वान् आदि के गुणों के वर्णन से इस सप्तमाध्याय में कहे अर्थों की षष्ठाध्याय में कहे अर्थों के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह सैंतीसवां वर्ग और एकसौ बारहवां सूक्त पूरा हुआ॥ इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्याणां महाविदुषां श्रीयुतविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्विद्वद्वरेण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृताऽऽर्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमाष्टके सप्तमोऽध्यायः समाप्तः॥


ओ३म्। अथाष्टमोऽध्यायः॥ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥ ऋ॰5.82.5॥ अथास्य विंशत्यृचस्य त्रयोदशोत्तरशततमस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। उषा देवता। द्वितीयस्यार्धर्चस्य रात्रिरपि। 1,3,9,12,17 निचृत्त्रिष्टुप्। 6 त्रिष्टुप्। 7,18-20 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 2,5 स्वराट् पङ्क्तिः। 4,8,10,11,15,16 भुरिक् पङ्क्तिः। 13,14 निचृत् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ तत्रादिममन्त्रे विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते। अब आठवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है॥ इ॒दं श्रेष्ठं॒ ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रागा॑च्चि॒त्रः प्र॑के॒तो अ॑जनिष्ट॒ विभ्वा॑। यथा॒ प्रसू॑ता सवि॒तुः स॒वाय्ाँ॑ ए॒वा रात्र्यु॒षसे॒ योनि॑मारैक्॥1॥ इ॒दम्। श्रेष्ठ॑म्। ज्योति॑षाम्। ज्योतिः॑। आ। अ॒गा॒त्। चि॒त्रः। प्र॒ऽके॒तः। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। विऽभ्वा॑। यथा॑। प्रऽसू॑ता। स॒वि॒तुः। स॒वाय॑। ए॒व। रात्री॑। उ॒षसे॑। योनि॑म्। अ॒रै॒क्॥1॥ पदार्थः—(इदम्) प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणम् (श्रेष्ठम्) प्रशस्तम् (ज्योतिषाम्) प्रकाशानाम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (आ) समन्तात् (अगात्) प्राप्नोति (चित्रः) अद्भुतः (प्रकेतः) प्रकृष्टप्रज्ञः (अजनिष्ट) जायते (विभ्वा) विभुना परमेश्वरेण सह। अत्र तृतीयैकवचनस्थाने आकारादेशः। (यथा) (प्रसूता) उत्पन्ना (सवितुः) सूर्य्यस्य सम्बन्धेन (सवाय) ऐश्वर्याय (एव) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (रात्री) (उषसे) प्रातःकालाय (योनिम्) (गृहम्) (आरैक्) व्यतिरिणक्ति॥1॥ अन्वयः—यथा प्रसूता रात्री सवितुः सवायोषसे योनिमारैक् तथैव चित्रः प्रकेतो विद्वान् यदिदं ज्योतिषां श्रेष्ठं ज्योतिर्ब्रह्मागात् तेनैव विभ्वा सह सुखैश्वर्य्यायाजनिष्ट दुःखस्थानादारैक्॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्योदयं प्राप्यान्धकारो विनश्यति, तथैव ब्रह्मज्ञानमवाप्य दुःखं विनश्यति। अतः सर्वैर्ब्रह्मज्ञानाय यतितव्यम्॥1॥ पदार्थः—(यथा) जैसे (प्रसूता) उत्पन्न हुई (रात्री) निशा (सवितुः) सूर्य्य के सम्बन्ध से (सवाय) ऐश्वर्य्य के हेतु (उषसे) प्रातःकाल के लिये (योनिम्) घर-घर को (आरैक्) अलग-अलग प्राप्त होती है, वैसे ही (चित्रः) अद्भुत गुण, कर्म स्वभाववाला (प्रकेतः) बुद्धिमान् विद्वान् जिस (इदम्) इस (ज्योतिषाम्) प्रकाशकों के बीच (श्रेष्ठम्) अतीवोत्तम (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप ब्रह्म को (आ, अगात्) प्राप्त होता है (एव) उसी (विभ्वा) व्यापक परमात्मा के साथ सुखैश्वर्य के लिये (अजनिष्ट) उत्पन्न होता है और दुःखस्थान से पृथक् होता है॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्योदय को प्राप्त होकर अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञान को प्राप्त होकर दुःख दूर हो जाता है। इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर को जानने के लिये प्रयत्न किया करें॥1॥ अथोषोरात्रिव्यवहारमाह॥ अब रात्रि और प्रभातवेला के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है॥ रुश॑द्वत्सा॒ रुश॑ती श्वे॒त्यागा॒दारै॑गु कृ॒ष्णा सद॑नान्यस्याः। स॒मा॒नब॑न्धू अ॒मृते॑ अनू॒ची द्यावा॒ वर्णं॑ चरत आमिना॒ने॥2॥ रुश॑त्ऽवत्सा। रुश॑ती। श्वे॒त्या। आ। अ॒गा॒त्। अरै॑क्। ऊ॒म् इति॑। कृ॒ष्णा। सद॑नानि। अ॒स्याः॒। स॒मा॒नब॑न्धू इति॑ स॒मा॒नऽब॑न्धू। अ॒मृते॒ इति॑। अ॒नू॒ची इति॑। द्यावा॑। वर्ण॑म्। च॒र॒तः॒। आ॒मि॒ना॒ने इत्या॑ऽमि॒ना॒ने॥2॥ पदार्थः—(रुशद्वत्सा) रुशज्ज्वलितः सूर्य्यो वत्सो यस्याः सा (रुशती) रक्तवर्णयुक्ता (श्वेत्या) शुभ्रस्वरूपा (आ) (अगात्) समन्तात् प्राप्नोति (अरैक्) अतिरिणक्ति (उ) अद्भुते (कृष्णा) कृष्णवर्णा रात्री (सदनानि) स्थानानि (अस्याः) उषसः (समानबन्धू) यथा सहवर्त्तमानौ मित्रौ भ्रातरौ वा (अमृते) प्रवाहरूपेण विनाशरहिते (अनूची) अन्योऽन्यवर्त्तमाने (द्यावा) द्यावौ स्वस्वप्रकाशेन प्रकाशमानौ (वर्णम्) स्वस्वरूपम् (चरतः) प्राप्नुतः (आमिनाने) परस्परं प्रक्षिपन्तौ पदार्थाविव॥2॥ इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेव व्याख्यातवान्-रुशद्वत्सा सूर्यवत्सा रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। सूर्यमस्या वत्समाह साहचर्य्याद्रसहरणाद्वा रुशती श्वेत्यागात्। श्वेत्या श्वेततेररिचत् कृष्णा सदनान्यस्याः कृष्णवर्णा रात्रिः। कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। अथैने संस्तौति। समानबन्धू समानबन्धने अमृते अमरणधर्माणावनूची अनुच्यावितीतरेतरमभिप्रेत्य द्यावा वर्णं चरतस्त एव द्यावौ द्योतनादपि वा द्यावा चरतस्तया सह चरत इति स्यादामिनाने आमिन्वाने अन्योन्यस्याध्यात्मं कुर्वाणे। (निरु॰2.20)॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! येयं रुशद्वत्सा वा रुशतीव श्वेत्योषा आगादस्या उ सदनानि प्राप्ता कृष्णा रात्र्यारैक् ते द्वे अमृते आमिमाने अनूची द्यावा समानबन्धू इव वर्णं चरतस्ते यूयं युक्त्या सेवध्वम्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यस्मिन् स्थाने रात्री वसति तस्मिन्नेव स्थाने कालान्तरे उषा च वसति। आभ्यामुत्पन्नः सूर्य्यो द्वैमातुर इव वर्त्तते, इमे सदा बन्धूवद् गतानुगामिन्यौ रात्र्युषसौ वर्त्तेते एवं यूयं वित्त॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो यह (रुषद्वत्सा) प्रकाशित सूर्यरूप बछड़े की कामना करनेहारी वा (रुशती) लाल-लाल सी (श्वेत्या) शुक्लवर्णयुक्त अर्थात् गुलाबी रङ्ग की प्रभात वेला (आ, अगात्) प्राप्त होती है (अस्याः, उ) इस अद्भुत उषा के (सदनानि) स्थानों को प्राप्त हुई (कृष्णा) काले वर्णवाली रात (आरैक्) अच्छे प्रकार अलग-अलग वर्त्तती है, वे दोनों (अमृते) प्रवाह रूप से नित्य (आमिनाने) परस्पर एक-दूसरे को फेंकती हुई सी (अनूची) वर्त्तमान (द्यावा) अपने-अपने प्रकाश से प्रकाशमान (समानबन्धू) दो सहोदर वा दो मित्रों के तुल्य (वर्णम्) अपने-अपने रूप को (चरतः) प्राप्त होती हैं, उन दोनों का युक्ति से सेवन किया करो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जिस स्थान में रात्री वसती है, उसी स्थान में कालान्तर में उषा भी वसती है। इन दोनों से उत्पन्न हुआ सूर्य्य जानो दोनों माताओं से उत्पन्न हुए लड़के के समान है और ये दोनों सदा बन्धु के समान जाने-आनेवाली उषा और रात्रि हैं, ऐसा तुम लोग जानो॥2॥ पुनस्तदेवाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स॒मा॒नो अध्वा॒ स्वस्रो॑रन॒न्तस्तम॒न्यान्या॑ चरतो दे॒वशि॑ष्टे। न मे॑थेते॒ न त॑स्थतुः सु॒मेके॒ नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे॥3॥ स॒मा॒नः। अध्वा॑। स्वस्रोः॑। अ॒न॒न्तः। तम्। अ॒न्याऽअ॑न्या। च॒र॒तः॒। दे॒वशि॑ष्टे॒ इति॑ दे॒वऽशि॑ष्टे। न। मेथे॒ते॒ इति॑। न। त॒स्थ॒तुः॒। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। नक्तो॒षसा॑। सऽम॑नसा। विरू॑पे इति॒ विऽरू॑पे॥3॥ पदार्थः—(समानः) तुल्यः (अध्वा) मार्गः (स्वस्रोः) भगिनीवद्वर्त्तमानयोः (अनन्तः) अविद्यमानान्त आकाशः (तम्) (अन्यान्या) परस्परं वर्त्तमाने (चरतः) गच्छतः (देवशिष्टे) देवस्य जगदीश्वरस्य शासनं नियमं प्राप्ते (न) निषेधे (मेथेते) हिंस्तः (न) (तस्थतुः) तिष्ठतः (सुमेके) नियमे निक्षिप्ते (नक्तोषासा) रात्र्युषसौ (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्ताविव (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! ययोः स्वस्रोरनन्तः समानोऽध्वास्ति ये देवशिष्टे विरूपे समनसेव वर्त्तमाने सुमेके नक्तोषसाः तमन्यान्या चरतस्ते कदाचिन्न मेथेते न च तस्थतुस्ते यूयं यथावज्जानीत॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विरुद्धस्वरूपौ सखायावस्मिन्नमर्यादेऽनन्ताकाशे न्यायाधीशनियमितौ सहैव नित्यं चरतस्तथा रात्र्युषसौ परमेश्वरनियमनियते भूत्वा वर्त्तेते॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जिन (स्वस्रोः) बहिनियों के समान वर्त्ताव रखनेवाली रात्री और प्रभातवेलाओं का (अनन्तः) अर्थात् सीमारहित आकाश (समानः) तुल्य (अध्वा) मार्ग है, जो (देवशिष्टे) परमेश्वर के शासन अर्थात् यथावत् नियम को प्राप्त (विरूपे) विरुद्धरूप (समनसा) तथा समान चित्तवाले मित्रों के तुल्य वर्तमान (सुमेके) और नियम से छोड़ी हुई (नक्तोषसा) रात्रि और प्रभात वेला (तम्) उस अपने नियम को (अन्यान्या) अलग-अलग (चरतः) प्राप्त होतीं और वे कदाचित् (न) नहीं (मेथेते) नष्ट होतीं और (न, तस्थतुः) न ठहरती हैं, उनको तुम लोग यथावत् जानो॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विरुद्ध स्वरूपवाले मित्र लोग इस निःसीम अनन्त आकाश में न्यायाधीश के नियम के साथ ही नित्य वर्त्तते हैं, वैसे रात्रि-दिन परमेश्वर के नियम से नियत होकर वर्त्तते हैं॥3॥ पुनरुषो विषयमाह॥ फिर उषा का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ भास्व॑ती ने॒त्री सू॒नृता॑ना॒मचे॑ति चि॒त्रा वि दुरो॑ न आवः। प्रार्प्या॒ जग॒द्व्यु॑ नो रा॒यो अ॑ख्यदु॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥4॥ भास्व॑ती। ने॒त्री। सू॒नृता॑नाम्। अचे॑ति। चि॒त्रा। वि। दुरः॑। नः॒। आ॒व॒रित्या॑वः। प्र॒ऽअर्प्य॑। जग॑त्। वि। ऊ॒म् इति॑। नः॒। रा॒यः। अ॒ख्य॒त्। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑॥4॥ पदार्थः—(भास्वती) प्रशस्ता भाः कान्तिर्विद्यते यस्याः सा (नेत्री) प्रापिका (सूनृतानाम्) वाग्जागरितादिव्यवहाराणाम् (अचेति) सम्यग् विज्ञायताम् (चित्रा) विविधव्यवहारसिद्धिप्रदा (वि) (दुरः) द्वाराणि। अत्र पृषोदरादित्वात् संप्रसारणेनेष्टरूपसिद्धिः। (नः) अस्माकं (आवः) विवृणोतीव (प्रार्प्य) अर्पयित्वा (जगत्) संसारम् (वि) (उ) (नः) अस्मभ्यम् (रायः) धनानि (अख्यत्) प्रख्याति (उषाः) सुप्रभातः (अजीगः) स्वव्याप्त्या निगलतीव (भुवनानि) लोकान् (विश्वा) सर्वान्। अत्र शेर्लोपः॥4॥ अन्वयः—हे विद्वांसो मनुष्या! युष्माभिर्या भास्वती सूनृतानां नेत्री चित्रोषा नो दुरो व्यावो या नोऽस्मभ्यं जगत् प्रार्प्य रायो व्यख्यदु इति वितर्के विश्वा भुवनान्यजीगः साचेति अवश्यं विज्ञायताम्॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। योषा सर्वं जगत् प्रकाश्य सर्वान् प्राणिनो जागरयित्वा सर्वं विश्वमभिव्याप्य सर्वान् पदार्थान् वृष्टिद्वारा समर्थयित्वा पुरुषार्थं प्रवर्त्य धनादीनि प्रापय्य मातेव सर्वान् प्राणिनः पात्यत आलस्ये व्यर्था सा वेला नैव नेया॥4॥ पदार्थः—हे विद्वन् मनुष्यो! तुम लोगों को जो (भास्वती) अतीवोत्तम प्रकाशवाले (सूनृतानाम्) वाणी और जागृत के व्यवहारों को (नेत्री) प्राप्त करने और (चित्रा) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाली (उषाः) प्रभात वेला (नः) हमारे लिये (दुरः) द्वारों (वि, आवः) को प्रकट करती हुई सी वा जो (नः) हमारे लिये (जगत्) संसार को (प्रार्प्य) अच्छे प्रकार अर्पण करके (रायः) धनों को (वि, अख्यत्) प्रसिद्ध करती है (उ) और (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) अपनी व्याप्ति से निगलती सी है, वह (अचेति) अवश्य जाननी है॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो उषा सब जगत् को प्रकाशित करके, सब प्राणियों को जगा, सब संसार में व्याप्त होकर, सब पदार्थों को वृष्टि द्वारा समर्थ करके, पुरुषार्थ में प्रवृत्त करा, धनादि की प्राप्ति करा, माता के समान सब प्राणियों को पालती है, इससे आलस्य में उत्तम प्रातः समय की वेला व्यर्थ न गमाना चाहिये॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ जि॒ह्म॒श्ये॒ चरि॑तवे म॒घोन्या॑भो॒गय॑ इ॒ष्टये॑ रा॒य उ॑ त्वम्। द॒भ्रं पश्य॑द्भ्य उर्वि॒या वि॒चक्ष॑ उ॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥5॥1॥ जि॒ह्म॒ऽश्ये॑। चरि॑तवे। म॒घोनी॑। आ॒ऽभो॒गये॑। इ॒ष्टये॑। रा॒ये। ऊ॒म् इति॑। त्व॒म्। द॒भ्रम्। पश्य॑त्ऽभ्यः। उ॒र्वि॒या। वि॒ऽचक्षे॑। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑॥5॥ पदार्थः—(जिह्मश्ये) जिह्मः शेते स जिह्मशीस्तस्मै शयने वक्रत्वं प्राप्ताय जनाय। जहातेः सन्वदाकारलोपश्च। (उणा॰1.141) अनेनायं सिद्धः। जिह्मं जिहीतेरूर्ध्व उच्छ्रितो भवति। (निरु॰8.15) (चरितवे) चरितुं व्यवहर्त्तुम् (मघोनी) प्रशस्तानि मघानि धनानि प्राप्तानि यस्यां सा (आभोगये) समन्ताद्भुञ्जते सुखानि यस्यां तस्यै पुरुषार्थयुक्तायै। अत्र बहुवचनादौणादिको घिः प्रत्ययः। (इष्टये) यजन्ति सङ्गच्छन्ते यस्मिन् यज्ञे तस्मै। अत्र बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः किच्च। (राये) राज्यश्रिये (उ) अपि (त्वम्) पुरुषार्थी (दभ्रम्) ह्रस्वं वस्तु। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं॰3.2) (पश्यद्भ्यः) संप्रेक्षमाणेभ्यः (उर्विया) बहुरूपा (विचक्षे) विविधप्रकटत्वाय (उषा) दाहारम्भनिमित्ता (अजीगः॰) इति पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—हे विद्वँस्त्वं योर्विया मघोन्युषा विश्वा भुवनान्यजीगः जिह्मश्ये चरितवे विचक्ष आभोगय इष्टये राये धनानि पश्यद्भ्यो दभ्रमु ह्रस्वमपि वस्तु प्रकाशयति तां विजानीहि॥5॥ भावार्थः—ये मनुष्या रजन्याश्चतुर्थे यामे जागरित्वा शयनपर्यन्तव्यर्थं समयं न गमयन्ति, त एव सुखिनो भवन्ति नेतरे॥5॥ पदार्थः—हे विद्वन्! (त्वम्) तू जो (उर्विया) अनेक रूपयुक्त (मघोनी) अधिक धन प्राप्त करानेहारी (उषाः) प्रातर्वेला (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) निगलती (जिह्मश्ये) वा जो टेढ़े सोने अर्थात् सोने में टेढ़ापन को प्राप्त हुए जन के लिये वा (चरितवे) विचरने को (विचक्षे) विविध प्रकटता के लिये (आभोगये) सब ओर से सुख के भोग जिसमें हों, उस पुरुषार्थ से युक्त क्रिया के लिये (इष्टये) वा जिसमें मिलते हैं, उस यज्ञ के लिये वा (राये) धनों के लिये वा (पश्यद्भ्यः) देखते हुए मनुष्यों के लिये (दभ्रम्) छोटे से (उ) भी वस्तु को प्रकाश करती है, उस उषा को जान॥5॥ भावार्थः—जो मनुष्य रात्री के चौथे प्रहर में जाग कर शयन पर्य्यन्त व्यर्थ समय को नहीं जाने देते, वे ही सुखी होते हैं, अन्य नहीं॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ क्ष॒त्राय॑ त्वं॒ श्रव॑से त्वं मही॒या इ॒ष्टये॑ त्व॒मर्थ॑मिव त्वमि॒त्यै। विस॑दृशा जीवि॒ताभि॑प्र॒चक्ष॑ उ॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥6॥ क्ष॒त्राय॑। त्व॒म्। श्रव॑से। त्व॒म्। म॒ही॒यै। इ॒ष्टये॑। त्व॒म्। अर्थ॑म्ऽइव। त्व॒म्। इ॒त्यै। विऽस॑दृशा। जी॒वि॒ता। अ॒भि॒ऽप्र॒चक्षे॑। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑॥6॥ पदार्थः—(क्षत्राय) राज्याय (त्वम्) (श्रवसे) सकलविद्याश्रवणायान्नाय वा (त्वम्) (महीयै) पूज्यायै नीतये (इष्टये) इष्टरूपायै (त्वम्) (अर्थमिव) द्रव्यवत् (त्वम्) (इत्यै) सङ्गत्यै प्राप्तये वा (विसदृशा) विविधधर्म्यव्यवहारैस्तुल्यानि (जीविता) जीवनानि (अभिप्रचक्षे) अभिगतप्रसिद्धवागादिव्यवहाराय (उषा अजीगर्भु॰) इति पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—हे विद्वन् सभाध्यक्ष राजन्! यथोषा स्वप्रकाशेन विश्वाभुवनान्यजीगस्तथा त्वमभिप्रचक्षे क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वमिष्टये महीयै त्वमित्यै विसदृशाऽर्थमिव जीविता सदा साध्नुहि॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्याविनयेन प्रकाशमानाः सत्पुरुषाः सर्वान् संनिहितान् पदार्थानभिव्याप्य तद्गुणप्रकाशेन सर्वार्थसाधका भवन्ति, तथा राजादयो जना विद्यान्यायधर्मादीनभिव्याप्य सार्वभौमराज्यसंरक्षणेन सर्वानन्दं साध्नुयुः॥6॥ पदार्थः—हे विद्वन् सभाध्यक्ष राजन्! जैसे (उषाः) प्रातर्वेला अपने प्रकाश से (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) ढांक लेती है (त्वम्) तू (अभिप्रचक्षे) अच्छे प्रकार शास्त्र-बोध से सिद्ध वाणी आदि व्यवहाररूप (क्षत्राय) राज्य के लिये और (त्वम्) तू (श्रवसे) श्रवण और अन्न के लिये (त्वम्) तू (इष्टये) इष्ट सुख और (महीयै) सत्कार के लिये और (त्वम्) तू (इत्यै) सङ्गति प्राप्ति के लिये (विसदृशा) विविध धर्मयुक्त व्यवहारों के अनुकूल (अर्थमिव) द्रव्यों के समान (जीविता) जीवनादि को सदा किया कर॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या विनय से प्रकाशमान सत्पुरुष सब समीपस्थ पदार्थों को व्याप्त होकर उनके गुणों के प्रकाश से समस्त अर्थों को सिद्ध करनेवाले होते हैं, वैसे राजादि पुरुष विद्या न्याय और धर्मादि को सब ओर से व्याप्त होकर चक्रवर्ती राज्य की यथावत् रक्षा से सब आनन्द को सिद्ध करें॥6॥ अथोषो दृष्टान्तेन विदुषीव्यवहारमाह॥ अब उषा के दृष्टान्त से विदुषी स्त्री के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒षा दि॒वो दु॑हि॒ता प्रत्य॑दर्शि व्यु॒च्छन्ती॑ युव॒तिः शु॒क्रवा॑साः। विश्व॒स्येशा॑ना॒ पार्थि॑वस्य॒ वस्व॒ उषो॑ अ॒द्येह सु॑भगे॒ व्यु॑च्छ॥7॥ ए॒षा। दि॒वः। दु॒हि॒ता। प्रति॑। अ॒द॒र्शि॒। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑। यु॒व॒तिः। शु॒क्रऽवा॑साः। विश्व॑स्य। ईशा॑ना। पार्थि॑वस्य। वस्वः॑। उषः॑। अ॒द्य। इ॒ह। सु॒ऽभ॒गे॒। वि। उ॒च्छ॒॥7॥ पदार्थः—(एषा) वक्ष्यमाणा (दिवः) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (दुहिता) पुत्री (प्रति) (अदर्शि) दृश्यते (व्युच्छन्ती) विविधानि तमांसि विवासयन्ती (युवतिः) प्राप्तयौवनावस्था (शुक्रवासाः) शुक्रानि शुद्धानि वासांसि यस्याः सा शुद्धवीर्य्या वा (विश्वस्य) सर्वस्य (ईशाना) प्रभवित्री (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य (वस्वः) द्रव्यस्य (उषः) सुखे निवासिनि विदुषि। अत्र वस निवास इत्यस्मादौणादिकोऽसुन् स च बाहुलकात् कित्। (अद्य) (इह) (सुभगे) सुष्ठ्वैश्वर्य्याणि यस्यास्तत्सम्बुद्धौ (वि) (उच्छ) विवासय॥7॥ अन्वयः—यथा शुक्रवासाः शुद्धवीर्या विश्वस्य पार्थिवस्य वस्व ईशाना व्युच्छन्त्येषा दिवो युवतिर्दुहिता उषा प्रत्यदर्शि वारंवारमदर्शि तथा हे सुभग उषोऽद्य दिने इह व्युच्छ दुःखानि विवासय॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा कृतब्रह्मचर्य्येण विदुषा साधुना यूना स्वतुल्या कृतब्रह्मचर्या सुरूपवीर्या साध्वी सुखप्रदा पूर्णयुवतीर्विंशतिवर्षादारभ्य चतुर्विंशतिवार्षिकी कन्याऽऽध्युद्वहेत तदैवोषर्वत् सुप्रकाशितौ भूत्वा विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयाताम्॥7॥ पदार्थः—जैसे (शुक्रवासाः) शुद्ध पराक्रमयुक्त (विश्वस्य) समस्त (पार्थिवस्य) पृथिवी में प्रसिद्ध हुए (वस्वः) धन की (ईशाना) अच्छे प्रकार सिद्ध करानेवाली (व्युच्छन्ती) और नाना प्रकार के अन्धकारों को दूर करती हुई (एषा) यह (दिवः) सूर्य्य की (युवतीः) युवावस्था को प्राप्त अर्थात् अति पराक्रमवाली (दुहिता) पुत्री प्रभात वेला (प्रत्यदर्शि) वार-वार देख पड़ती है वैसे हे (सुभगे) उत्तम भाग्यवती (उषः) सुख में निवास करनेहारी विदुषी! (अद्य) आज तू (इह) यहाँ (व्युच्छ) दुःखों को दूर कर॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब ब्रह्मचर्य किया हुआ सन्मार्गस्थ जवान विद्वान् पुरुष अपने तुल्य, अपने विद्यायुक्त, ब्रह्मचारिणी, सुन्दर रूप, बल, पराक्रमवाली, साध्वी=अच्छे स्वभावयुक्त सुख देनेहारी, युवति अर्थात् बीसवें वर्ष, से चौबीसवें वर्ष की आयु युक्त कन्या से विवाह करे, तभी विवाहित स्त्री-पुरुष उषा के समान सुप्रकाशित होकर सुखों को प्राप्त होवें॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प॒रा॒य॒ती॒नामन्वे॑ति॒ पाथ॑ आयती॒नां प्र॑थ॒मा शश्व॑तीनाम्। व्यु॒च्छन्ती॑ जी॒वमु॑दी॒रय॑न्त्यु॒षा मृ॒तं कं च॒न बो॒धय॑न्ती॥8॥ प॒रा॒ऽय॒ती॒नाम्। अनु॑। ए॒ति॒। पाथः॑। आ॒ऽय॒ती॒नाम्। प्र॒थ॒मा। शश्व॑तीनाम्। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑। जी॒वम्। उ॒त्ऽई॒रय॑न्ती। उ॒षाः। मृ॒तम्। कम्। च॒न। बो॒धय॑न्ती॥8॥ पदार्थः—(परायतीनाम्) पूर्वं गतानाम् (अनु) (एति) पुनः प्राप्नोति (पाथः) अन्तरिक्षमार्गम् (आयतीनाम्) आगामिनीनामुषसाम् (प्रथमा) विस्तृतादिमा (शश्वतीनाम्) प्रवाहरूपेणानादीनाम् (व्युच्छन्ती) तमो नाशयन्ती (जीवम्) प्राणधारिणम् (उदीरयन्ती) कर्मसु प्रवर्त्तयन्ती (उषाः) दिननिमित्तः प्रकाशः (मृतम्) मृतमिव सुप्तम् (कम्) (चन) प्राणिनम् (बोधयन्ती) जागरयन्ती॥8॥ अन्वयः—हे सुभगे! यथेयमुषाः शश्वतीनां परायतीनामुषसामन्त्याऽऽयतीनां प्रथमा व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्ती कञ्चन मृतमिवापि बोधयन्ति सती पाथोऽन्वेति, तथैव त्वं पतिव्रता भव॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सौभाग्यमिच्छन्त्यः स्त्रिय उषर्वदतीतानागतवर्त्तमानानां साध्वीनां पतिव्रतानां शाश्वतं धर्ममाश्रित्य स्वस्वपतीन् सुशोभमानाः सन्तानान्युत्पाद्य परिपाल्य विद्यासुशिक्षा बोधयन्त्यः सततमानन्दयेयुः॥8॥ पदार्थः—हे उत्तम सौभाग्य बढ़ानेहारी स्त्री! जैसे यह (उषाः) प्रभात वेला (शश्वतीनाम्) प्रवाहरूप से अनादिस्वरूप (परायतीनाम्) पूर्व व्यतीत हुई प्रभात वेलाओं के पीछे (आयतीनाम्) आनेवाली वेलाओं में (प्रथमा) पहिली (व्युच्छन्ती) अन्धकार का विनाश करती और (जीवम्) जीव को (उदीरयन्ती) कामों में प्रवृत्त कराती हुई (कम्) किसी (चन) (मृतम्) मृतक के समान सोए हुए जन को (बोधयन्ती) जगाती हुई (पाथः) आकाश मार्ग को (अन्वेति) अनुकूलता से जाती-आती है, वैसे ही तू पतिव्रता हो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सौभाग्य की इच्छा करनेवाली स्त्रीजन उषा के तुल्य भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान समयों में हुई उत्तम शील पतिव्रता स्त्रियों के सनातन वेदोक्त धर्म का आश्रय कर अपने-अपने पति को सुखी करती और उत्तम शोभावाली होती हुई सन्तानों को उत्पन्न कर और सब ओर से पालन करके उन्हें सत्य विद्या और उत्तम शिक्षाओं का बोध कराती हुई सदा आनन्द को प्राप्त करावें॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उषो॒ यद॒ग्निं स॒मिधे॑ च॒कर्थ॒ वि यदाव॒श्चक्ष॑सा॒ सूर्य॑स्य। यन्मानु॑षान् य॒क्ष्यमा॑णाँ॒ अजी॑ग॒स्तद्दे॒वेषु॑ चकृषे भ॒द्रमप्नः॑॥9॥ उषः॑। यत्। अ॒ग्निम्। स॒म्ऽइधे॑। च॒कर्थ॑। वि। यत्। आवः॑। चक्ष॑सा। सूर्य॑स्य। यत्। मानु॑षान्। य॒क्ष्यमा॑णान्। अजी॑ग॒रिति॑। तत्। दे॒वेषु॑। च॒कृ॒षे॒। भ॒द्रम्। अप्नः॑॥9॥ पदार्थः—(उषः) प्रातर्वत् (यत्) या (अग्निम्) विद्युदग्निम् (समिधे) सम्यक्प्रदीपनाय (चकर्थ) करोषि (वि) (यत्) या (आवः) वृणोषि (चक्षसा) प्रकाशेन (सूर्य्यस्य) मार्तण्डस्य (यत्) या (मानुषान्) मनुष्यान् (यक्ष्यमाणान्) यज्ञं निवर्त्स्यतः (अजीगः) प्रसन्नान् करोति (तत्) सा (देवेषु) विद्वत्सु पतिषु पालकेषु सत्सु (चकृषे) कुर्याः (भद्रम्) कल्याणम् (अप्नः) अपत्यम्॥9॥ अन्वयः—हे उषर्वद्वर्त्तमाने! यद्या त्वं सूर्य्यस्य चक्षसा समिधेऽग्निं चकर्थ, यद्या दुःखानि व्यावः, यद्या यक्ष्यमाणान् मानुषानजीगः प्रीणासि तत् सा त्वं देवेषु पतिषु भद्रमप्नश्चकृषे कुर्याः॥9॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्य सम्बन्धिन्युषाः सवः प्राणिभिः सङ्गत्य सर्वाञ्जीवान् सुखयति तथा साध्व्यो विदुष्यः स्त्रियः पतीन् प्रीणयन्त्यः सत्यः प्रशस्तान्यपत्यानि जनयितुं शक्नुवन्ति नेतराः कुभार्य्याः॥9॥ पदार्थः—हे (उषः) प्रभात वेला के समान वर्त्तमान विदुषि स्त्रि! (यत्) जो तू (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (चक्षसा) प्रकाश से (समिधे) अच्छे प्रकार प्रकाश के लिये (अग्निम्) विद्युत् अग्नि को प्रदीप्त (चकर्थ) करती है वा (यत्) जो तू दुःखों को (वि, आवः) दूर करती वा (यत्) जो तू (यक्ष्यमाणान्) यज्ञ के करनेवाले (मानुषान्) मनुष्यों को (अजीगः) प्राप्त होकर प्रसन्न करती है (तत्) सो तू (देवेषु) विद्वान् पतियों में वस कर (भद्रम्) कल्याण करनेहारे (अप्नः) सन्तानों को उत्पन्न (चकृषे) किया कर॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र मे वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की संबन्धिनी प्रातःकालः की वेला सब प्राणियों के साथ संयुक्त होकर सब जीवों को सुखी करती है, वैसे सज्जन विदुषी स्त्री अपने पतियों को प्रसन्न करती हुईं उत्तम सन्तानों के उत्पन्न करने को समर्थ होती हैं, इतर दुष्ट भार्य्या वैसा काम नहीं कर सकती॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ किया॒त्या यत्स॒मया॒ भवा॑ति॒ या व्यू॒षुर्याश्च॑ नू॒नं व्यु॒च्छान्। अनु॒ पूर्वाः॑ कृपते वावशा॒ना प्र॒दीध्या॑ना॒ जोष॑म॒न्याभि॑रेति॥10॥2॥ किय॑ति। आ। यत्। स॒मया॑। भवा॑ति। याः। वि॒ऽऊ॒षुः। याः। च॒। नू॒नम्। वि॒ऽउ॒च्छान्। अनु॑। पूर्वाः॑। कृ॒प॒ते॒। वा॒व॒शा॒ना। प्र॒ऽदीध्या॑ना। जोष॑म्। अ॒न्याभिः॑। ए॒ति॒॥10॥ पदार्थः—(कियति) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (आ) (यत्) तथा (समया) काले (भवाति) भवेत् (याः) उषसः (व्यूषुः) (याः) (च) (नूनम्) निश्चितम् (व्युच्छान्) व्युच्छन्ति तान् (अनु) आनुकूल्ये (पूर्वाः) अतीताः (कृपते) समर्थयतु। व्यत्येनात्र शः। (वावशाना) भृशं कामयमानेव (प्रदीध्याना) प्रदीप्यमाना (जोषम्) प्रीतिम् (अन्याभिः) स्त्रीभिः (एति) प्राप्नोति॥10॥ अन्वयः—हे स्त्रि! यद् यथा याः पूर्वा उषसस्ताः सर्वान् पदार्थान् कियति समया व्यूषुर्याश्च व्युच्छान् वावशाना प्रदीध्याना सती कृपते नूनमाभवाति तद्वदन्याभिः सह जोषमन्वेति तथा मया पत्या सह सदा वर्त्तस्व॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। कियत्समयोषा भवतीति प्रश्नः। सूर्य्योदयात् प्राग्यावान् पञ्चघटिकासमय इत्युत्तरम्। का स्त्रियः सुखमाप्नुवन्तीति, या अन्याभिर्विदुषीभिः पतिभिश्च सह सततं सङ्गच्छेयुस्ताः प्रशंसनीयाश्च स्युः। याः करुणां विदधति ताः पतीन् प्रीणयन्ति, याः पत्यनुकूला वर्त्तन्ते ताः सदाऽऽनन्दिता भवन्ति॥10॥ पदार्थः—हे स्त्रि! (यत्) जैसे (याः) जो (पूर्वाः) प्रथम गत हुई प्रभात वेला सब पदार्थों को (कियति) कितने (समया) समय (व्यूषुः) प्रकाश करती रही (याः, च) और जो (व्युच्छान्) स्थिर पदार्थों की (वावशाना) कामना सी करती (प्रदीध्याना) और प्रकाश करती हुई (कृपते) अनुग्रह करती (नूनम्) निश्चय से (आ, भवाति) अच्छे प्रकार होती अर्थात् प्रकाश करती उसके तुल्य यह दूसरी विद्यावती विदुषी (अन्याभिः) और स्त्रियों के साथ (जोषमन्वेति) प्रीति को अनुकूलता से प्राप्त होती है, वैसे तू मुझ पति के साथ सदा वर्त्ता कर॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। (प्रश्न-) कितने समय तक उषःकाल होता है? (उत्तर-) सूर्य्योदय से पूर्व पाँच घड़ी उषःकाल होता है। (प्रश्न-) कौन स्त्री सुख को प्राप्त होती है? (उत्तर-) जो अन्य विदुषी स्त्रियों और अपने पतियों के साथ सदा अनुकूल रहती हैं; और वे स्त्री प्रशंसा को भी प्राप्त होती हैं, जो कृपालु होती हैं वे स्त्री पतियों को प्रसन्न करती हैं, जो पतियों के अनुकूल वर्त्तती हैं, वे सदा सुखी रहती हैं॥10॥ पुनः प्रभातविषयं प्राह॥ फिर प्रभात विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ई॒युष्टे ये पूर्व॑तरा॒मप॑श्यन्व्यु॒च्छन्ती॑मु॒षसं॒ मर्त्या॑सः। अ॒स्माभि॑रू॒ नु प्र॑ति॒चक्ष्या॑भू॒दो ते य॑न्ति॒ ये अ॑प॒रीषु॒ पश्या॑न्॥11॥ ई॒युः। ते। ये। पूर्व॑ऽतराम्। अप॑श्यन्। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑म्। उ॒षस॑म्। मर्त्यासः। अ॒स्माभिः॑। ऊ॒म् इति॑। नु। प्र॒ति॒ऽचक्ष्या॑। अ॒भू॒त्। ओ इति॑। ते। य॒न्ति॒ ये। अ॒प॒रीषु॑। पश्या॑न्॥11॥ पदार्थः—(ईयुः) प्राप्नुयुः (ते) (ये) (पूर्वतराम्) अतिशयेन पूर्वाम् (अपश्यन्) पश्येयुः (व्युच्छन्तीम्) निद्रां विवासयन्तीम् (उषसम्) प्रभातसमयम् (मर्त्यासः) मनुष्याः (अस्माभिः) (उ) वितर्के (नु) शीघ्रम् (प्रतिचक्ष्या) प्रत्यक्षेण द्रष्टुं योग्या (अभूत्) भवति (ओ) अवधारणे (ते) (यन्ति) (ये) (अपरीषु) आगामिनीषूषस्सु (पश्यान्) पश्येयुः॥11॥ अन्वयः—ये मर्त्यासो व्युच्छन्ती पूर्वतरामुषसमीयुस्तेऽस्माभिः सह सुखमपश्यन् योषा अस्माभिः प्रतिचक्ष्याभूद् भवति सा नु सुखप्रदा भवति। उ ये अपरीषु पूर्वतरां पश्यान् त ओ एव सुखं यन्ति प्राप्नुवन्ति॥11॥ भावार्थः—हे मनुष्या! उषसः प्राक् शयनादुत्थायावश्यकं कृत्वा परमेश्वरं ध्यायन्ति ते धीमन्तो धार्मिका जायन्ते। ये स्त्री पुरुषा जगदीश्वरं ध्यात्वा प्रीत्या संवदते तेऽनेकविधानि सुखानि प्राप्नुवन्ति॥11॥ पदार्थः—(ये) जो (मर्त्यासः) मनुष्य लोग (व्युच्छन्तीम्) जगाती हुए (पूर्वतराम्) अति प्राचीन (उषसम्) प्रभात वेला को (ईयुः) प्राप्त होवें (ते) वे (अस्माभिः) हम लोगों के साथ सुख को (अपश्यन्) देखते हैं, जो प्रभात वेला हमारे साथ (प्रतिचक्ष्या) प्रत्यक्ष से देखने योग्य (अभूत्) होती है वह (नु) शीघ्र सुख देनेवाली होती है। (उ) और (ये) जो (अपरीषु) आनेवाली उषाओं में व्यतीत हुई उषा को (पश्यान्) देखें (ते) वे (ओ) ही सुख को (यन्ति) प्राप्त होते हैं॥11॥ भावार्थः—जो मनुष्य उषा के पहिले शयन से उठ आवश्यक कर्म कर के परमेश्वर का ध्यान करते हैं, वे बुद्धिमान् और धार्मिक होते हैं। जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर का ध्यान करके प्रीति से आपस में बोलते-चालते हैं, वे अनेक विध सुखों को प्राप्त होते हैं॥11॥ पुनरुषः प्रसंगेन स्त्रीविषयमाह॥ फिर उषा के प्रसङ्ग से स्त्रीविषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ या॒व॒यद्द्वे॑षा ऋत॒पा ऋ॑ते॒जाः सु॑म्ना॒वरी॑ सू॒नृता॑ ई॒रय॑न्ती। सु॒म॒ङ्ग॒लीर्बिभ्र॑ती दे॒ववी॑तिमि॒हाद्योषः॒ श्रेष्ठ॑तमा॒ व्यु॑च्छ॥12॥ या॒व॒यत्ऽद्वे॑षाः। ऋ॒त॒ऽपाः। ऋ॒ते॒ऽजाः। सु॒म्न॒ऽवरी॑। सू॒नृताः॑। ई॒रय॑न्ती। सु॒ऽम॒ङ्ग॒लीः। बिभ्र॑ती। दे॒वऽवी॑तिम्। इ॒ह। अ॒द्य। उ॒षः॒। श्रेष्ठ॑ऽतमा। वि। उ॒च्छ॒॥12॥ पदार्थः—(यावयद्द्वेषाः) यवयन्ति दूरीकृतानि द्वेषांस्यप्रियकर्माणि यया सा (ऋतपाः) सत्यपालिका (ऋतेजाः) सत्ये प्रादुर्भूता (सुम्नावरी) सुम्नानि प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यस्यां सा (सूनृताः) वेदादिसत्यशास्त्रसिद्धान्तवाचः (ईरयन्ती) सद्यः प्रेरयन्ती (सुमङ्गलीः) शोभनानि मङ्गलानि यासु ताः (देववीतिम्) विदुषां वीतिं विशिष्टां नीतिम् (इह) (अद्य) (उषः) उषर्वद् वर्त्तमाने विदुषि (श्रेष्ठतमा) अतिशयेन प्रशंसिता (न) (उच्छ) दुःखं विवासय॥12॥ अन्वयः—हे उषरुषर्वद्यावयद्द्वेषा ऋतपाः ऋतेजाः सुम्नावरी सुमङ्गलीः सूनृताः ईरयन्ती श्रेष्ठतमा देववीतिं बिभ्रती त्वमिहाद्य व्युच्छ॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषास्तमो विवार्य प्रकाशं प्रादुर्भाव्य धार्मिकान् सुखयित्वा चोरादीन् पीडयित्वा सर्वान् प्राणिन आह्लादयति, तथैव विद्याधर्मप्रकाशवत्यः शमादिगुणान्विता विदुष्यस्सत्स्त्रियः स्वपतिभ्योऽपत्यानि कृत्वा सुशिक्षया विद्यान्धकारं निवार्य्य विद्यार्कं प्रापय्य कुलं सुभूषयेयुः॥12॥ पदार्थः—हे (उषः) उषा के समान वर्त्तमान विदुषी स्त्री! (यावयद्द्वेषाः) जिसने द्वेषयुक्त कर्म दूर किये (ऋतपाः) सत्य की रक्षक (ऋतेजाः) सत्य व्यवहार में प्रसिद्ध (सुम्नावरी) जिसमें प्रशंसित सुख विद्यमान वा (सुमङ्गलीः) जिनमें सुन्दर मङ्गल होवे, उन (सूनृताः) वेदादि सत्यशास्त्रों की सिद्धान्तवाणियों को (ईरयन्ती) शीघ्र प्रेरणा करती हुई (श्रेष्ठतमा) अतिशय उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त (देववीतिम्) विद्वानों की विशेष नीति को (बिभ्रती) धारण करती हुई तू (इह) यहाँ (अद्य) आज (व्युच्छ) दुःख को दूर कर॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोमालङ्कार है। जैसे प्रभात वेला अन्धकार का निवारण, प्रकाश का प्रादुर्भाव करा, धार्मिकों को सुखी और चोरादि को पीड़ित करके सब प्राणियों को आनन्दित करती है, वैसे ही विद्या, धर्म, प्रकाशवती शमादि गुणों से युक्त विदुषी उत्तम स्त्री अपने पतियों से सन्तानोत्पत्ति करके, अच्छी शिक्षा से अविद्यान्धकार को छुड़ा, विद्यारूप सूर्य को प्राप्त करा कुल को सुभूषित करें॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ शश्व॑त्पु॒रोषा व्यु॑वास दे॒व्यथो॑ अ॒द्येदं व्या॑वो म॒घोनी॑। अथो॒ व्यु॑च्छा॒दुत्त॑राँ॒ अनु॒ द्यून॒जरा॒मृता॑ चरति स्व॒धाभिः॑॥13॥ शश्व॑त्। पु॒रा। उ॒षाः। वि। उ॒वा॒स॒। दे॒वी। अथो॒ इति॑। अ॒द्य। इ॒दम्। वि। आ॒वः॒। म॒घोनी॑। अथो॒ इति॑। वि। उ॒च्छा॒त्। उत्ऽत॑रान्। अनु॑। द्यून्। अ॒जरा॑। अ॒मृता॑। च॒र॒ति॒। स्व॒धाभिः॑॥13॥ पदार्थः—(शश्वत्) नैरन्तर्य्ये (पुरा) पुरस्तात् (उषाः) (वि) (उवास) वस (देवी) देदीप्यमाना (अथो) आनन्तर्य्ये (अद्य) इदानीम् (इदम्) विश्वम् (वि) (आवः) रक्षति (मघोनी) प्रशस्तधनप्राप्तिनिमित्ता (अथो) (वि) (उच्छात्) विवसेत् (उत्तरान्) आगामिनः (अनु) (द्यून्) दिवसान् (अजरा) वयोहानिरहिता (अमृता) विनाशविरहा (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) स्वयं धारितैः पदार्थैः सह॥13॥ अन्वयः—हे स्त्रि! त्वं पुरा देवी मघोनी अजरामृतोषा इव उवास अथो यथोषा उत्तराननुद्यूंश्च स्वधाभिः शश्वद्विचरति व्युच्छादद्येदं व्यावस्तथा त्वं भव॥13॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रि! यथोषा कारणप्रवाहरूपत्वेन नित्या सती त्रिषु कालेषु प्रकाश्यान् पदार्थान् प्रकाश्य वर्त्तते तथाऽऽत्मत्वेन नित्यस्वरूपा त्वं त्रिकालस्थान् सद्व्यवहारान् विद्यासुशिक्षाभ्यां दीपयित्वा सौभाग्यवती भूत्वा सदा सुखिनी भव॥13॥ पदार्थः—हे स्त्रीजन! (पुरा) प्रथम (देवी) अत्यन्त प्रकाशमान (मघोनी) प्रशंसित धन प्राप्ति करनेवाली (अजरा) पूर्ण युवावस्थायुक्त (अमृता) रोगरहित (उषाः) प्रभात वेला के समान (उवास) वास कर और (अथो) इसके अनन्तर जैसे प्रभात-वेला (उत्तरान्) आगे आनेवाले (अनु, द्यून्) दोनों के अनुकूल (स्वधाभिः) अपने आप धारण किये हुए पदार्थों के साथ (शश्वत्) निरन्तर (वि, चरति) विचरती और अन्धकार को (वि, उच्छात्) दूर करती तथा (अद्य) वर्त्तमान दिन में (इदम्) इस जगत् की (व्यावः) विविध प्रकार से रक्षा करती है, वैसे तू हो॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्रि! जैसे प्रभातवेला कारण और प्रवाहरूप से नित्य हुई तीनों कालों में प्रकाश करने योग्य पदार्थों का प्रकाश करके वर्त्तमान रहती है, वैसे आत्मपन से नित्यस्वरूप तू तीनों कालों में स्थित सत्य व्यवहारों को विद्या और सुशिक्षा से प्रकाश करके पुत्र, पौत्र, ऐश्वर्यादि सौभाग्ययुक्त हो के सदा सुखी हो॥13॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ व्यञ्जिभि॑र्दि॒व आता॑स्वद्यौ॒दप॑ कृ॒ष्णां नि॒र्णिजं॑ दे॒व्या॑वः। प्र॒बो॒धय॑न्त्यरु॒णेभि॒रश्वै॒रोषा या॑ति सु॒यु॒जा॒ रथे॑न॥14॥ वि। अ॒ञ्जिऽभिः॑। दि॒वः। आता॑सु। अ॒द्यौ॒त्। अप॑। कृ॒ष्णाम्। निः॒ऽनिज॑म्। दे॒वी। आ॒व॒रित्या॑वः। प्र॒ऽबो॒धय॑न्ती। अ॒रु॒णेभिः॑। अश्वैः॑। आ। उ॒षाः। या॒ति॒। सु॒ऽयुजा॑। रथे॑न॥14॥ पदार्थः—(वि) (अञ्जिभिः) प्रकटीकरणैर्गुणैः (दिवः) आकाशात् (आतासु) व्याप्तासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.6) (अद्यौत्) विद्योतयति प्रकाशते (अप) (कृष्णाम्) रात्रिम् (निर्णिजम्) रूपम्। निर्णिगिति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7) (देवी) दिव्यगुणा (आवः) निवारयति (प्रबोधयन्ती) जागरणं प्रापयन्ती (अरुणेभिः) ईषद्रक्तैः (अश्वैः) व्यापनशीलैः किरणैः (आ) (उषाः) (याति) (सुयुजा) सुष्ठु युक्तेन (रथेन) रमणीयस्वरूपेण॥14॥ अन्वयः—हे स्त्रियो! यूयं यथा प्रबोधयन्ती देव्युषा अञ्जिभिर्दिव आतासु सर्वान् पदार्थान् व्यद्यौत् निर्णिजं कृष्णामपावः अरुणेभिरश्वैः सह वर्त्तमानेन सुयुजा रथेनायाति तद्वद्वर्त्तध्वम्॥14॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषाः काष्ठासु व्याप्ताऽस्ति तथा कन्या विद्यासु व्याप्नुयुः। यथेयमुषाः स्वकान्तिभिः सुशोभना रमणीयेन स्वरूपेण प्रकाशते तथैताः स्वशीलादिभिः सुन्दरेण रूपेण शुम्भेयुः। यथेयमुषा अन्धकारनिवारणेन प्रकाशं जनयति तथैता मौर्ख्य निवार्यं सुसभ्यतादिगुणैः प्रकाशन्ताम्॥14॥ पदार्थः—हे स्त्रीजनो! तुम जैसे (प्रबोधयन्तीः) सोतों को जगाती हुई (देवी) दिव्यगुणयुक्त (उषाः) प्रातः समय की वेला (अञ्जिभिः) प्रकट करनेहारे गुणों के साथ (दिवः) आकाश से (आतासु) सर्वत्र व्याप्त दिशाओं में सब पदार्थों को (व्यद्यौत्) विशेष कर प्रकाशित करती (निर्णिजम्) वा निश्चितरूप (कृष्णाम्) कृष्णवर्ण रात्रि को (अपावः) दूर करती वा (अरुणेभिः) रक्तादि गुणयुक्त (अश्वैः) व्यापनशील किरणों के साथ वर्त्तमान (सुयुजा) अच्छे युक्त (रथेन) रमणीय स्वरूप से (आ, याति) आती है, उसके समान तुम लोग वर्त्ता करो॥14॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातः समय की वेला दिशाओं में व्याप्त है, वैसे कन्या लोग विद्याओं में व्याप्त होवें, वा जैसे यह उषा अपनी कान्तियों से शोभायमान होकर रमणीय स्वरूप से प्रकाशवान् रहती है, वैसे यह कन्याजन अपने शील आदि गुण और सुन्दर रूप से प्रकाशमान हों, जैसे यह उषा अन्धकार के निवारण रूप प्रकाश को उत्पन्न करती है, वैसे ये कन्याजन मूर्खता आदि का निवारण कर सुसभ्यतादि शुभ गुणों से सदा प्रकाशित रहें॥14॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ॒वह॑न्ती॒ पोष्या॒ वार्या॑णि चि॒त्रं के॒तुं कृ॑णुते॒ चेकि॑ताना। ई॒युषी॑णामुप॒मा शश्व॑तीनां विभाती॒नां प्र॑थ॒मोषा व्य॑श्वैत्॥15॥3॥ आ॒ऽवह॑न्ती। पोष्या॑। वार्या॑णि। चि॒त्रम्। के॒तुम्। कु॒णु॒ते॒। चेकि॑ताना। ई॒युषी॑णाम्। उ॒प॒ऽमा। शश्व॑तीनाम्। वि॒ऽभा॒ती॒नाम्। प्र॒थ॒मा। उ॒षाः। वि। अ॒श्वै॒त्॥15॥ पदार्थः—(आवहन्ती) प्रापयन्ती (पोष्या) पोषयितुमर्हाणि (वार्य्याणि) वरीतुमर्हाणि धनादीनि (चित्रम्) अद्भुतम् (केतुम्) किरणम् (कृणुते) करोति (चेकिताना) भृशं चेतयन्ती (ईयुषीणाम्) गच्छन्तीनाम् (उपमा) दृष्टान्तः (शश्वतीनाम्) अनादिभूतानां घटिकानाम् (विभातीनाम्) प्रकाशयन्तीनां सूर्य्यकान्तीनाम् (प्रथमा) आदिमा (उषाः) (वि) (अश्वैत्) व्याप्नोति॥15॥ अन्वयः—हे स्त्रियो! यूयं यथोषाः पौष्या वार्य्याण्यावहन्ती चेकिताना चित्रं केतुं कृणुते विभातीनामीयुषीणां शश्वतीनां प्रथमोपमा व्यश्वैत्तथा शुभगुणकर्मसु विचरत॥15॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यूयं निश्चितं जानीत यथोषसमारभ्य कर्माण्युत्पद्यन्ते, तथा स्त्रिय आरभ्य गृहकल्पानि जायन्ते॥15॥ पदार्थः—हे स्त्री लोगो! तुम जैसे (उषाः) प्रातर्वेला (पोष्या) पुष्टि कराने और (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य धनादि पदार्थों को (आवहन्ती) प्राप्त कराती और (चेकिताना) अत्यन्त चिताती हुई (चित्रम्) अद्भुत (केतुम्) किरण को (कृणुते) करती अर्थात् प्रकाशित करती है (विभातीनाम्) विशेष कर प्रकाशित करती हुई सूर्य्यकान्तियों और (ईयुषीणाम्) चलती हुई (शश्वतीनाम्) अनादि रूप घड़ियो की (प्रथमा) पहिली (उपमा) दृष्टान्त (व्यश्वैत्) व्याप्त होती है, वैसे ही शुभ गुण कर्मों में (चरत) विचरा करो॥15॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग यह निश्चित जानो कि जैसे प्रातःकाल से आरम्भ करके कर्म उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रियों के आरम्भ से घर के कर्म हुआ करते हैं॥15॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उदी॑र्ध्वं जी॒वो असु॑र्न॒ आगा॒दप॒ प्रागा॒त्तम॒ आ ज्योति॑रेति। आरै॒क्पन्थां॒ यात॑वे॒ सूर्या॒याग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयुः॑॥16॥ उत्। ई॒र्ध्व॒म्। जी॒वः। असुः॑। नः॒। आ। अ॒गा॒त्। अप॑। प्र। अ॒गा॒त्। तमः॑। आ। ज्योतिः॑। ए॒ति॒। अरै॑क्। पन्था॑म्। यात॑वे। सूर्या॑य। अग॑न्म। यत्र॑। प्र॒ऽति॒रन्ते॑। आयुः॑॥16॥ पदार्थः—(उत्) ऊर्ध्वम् (ईर्ध्वम्) कम्पध्वम् (जीवः) इच्छादिगुणविशिष्टः (असुः) प्राणः (नः) अस्मान् (आ) (अगात्) आगच्छति (अप) (प्र) (अगात्) गच्छति (तमः) तिमिरम् (एति) प्राप्नोति (अरैक्) न्यतिरिणक्ति (पन्थाम्) पन्थानम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (यातवे) यातुम् (सूर्याय) सूर्यम्। गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ॰। (अष्टा॰2.3.12) (अगन्म) गच्छामः (यत्र) (प्रतिरन्ते) प्रकृष्टतया तरन्ति उल्लङ्घयन्ति (आयुः) जीवनम्॥16॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यस्या उषसः सकाशान् नोऽस्माञ्जीवोऽसुरागाज्ज्योतिः प्रगात्तमोऽपैति यातवे पन्थामरैक् तथा यतो वयं सूर्यायागन्म प्राणिनो यत्रायुः प्रतिरन्ते तां विदित्वोदीर्ध्वम्॥16॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। प्रातःकालीनोषाः सर्वान् प्राणिनो जागरयति अन्धकारं च निवर्त्तयति। यथेयं साय्ाकालस्था सर्वान् कार्येभ्यो निवर्त्य स्वापयति मातृवत् सर्वान् सम्पाल्य व्यवहारयति, तथैव सती विदुषी स्त्री भवति॥16॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जिस उषा की उत्तेजना से (नः) हम लोगों का (जीवः) जीवन का धर्त्ता इच्छादि गुणयुक्त (असुः) प्राण (आ, अगात्) सब ओर से प्राप्त होता, (ज्योतिः) प्रकाश (प्र, अगात्) प्राप्त होता, (तमः) रात्रि (अप, एति) दूर हो जाती और (यातवे) जाने-आने का (पन्थाम्) मार्ग (अरैक्) अलग प्रकट होता, जिससे हम लोग (सूर्याय) सूर्य को (आ, अगन्) अच्छे प्रकार प्राप्त होते तथा (यत्र) जिसमें प्राणी (आयुः) जीवन को (प्रतिरन्ते) प्राप्त होकर आनन्द से बिताते हैं, उसको जान कर (उदीर्ध्वम्) पुरुषार्थ करने में चेष्टा किया करो॥16॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह प्रातःकाल की उषा सब प्राणियों को जगाती, अन्धकार को निवृत्त करती है। और जैसे सायंकाल की उषा सबको कार्य्यों से निवृत्त करके सुलाती है अर्थात् माता के समान सब जीवों को अच्छे प्रकार पालन कर व्यवहार में नियुक्त कर देती है, वैसे ही सज्जन विदुषी स्त्री होती है॥16॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ स्यूम॑ना वा॒च उदि॑यर्ति॒ वह्निः॒ स्तवा॑नो रे॒भ उ॒षसो॑ विभा॒तीः। अ॒द्या तदु॑च्छ गृण॒ते म॑घोन्य॒स्मे आयु॒र्नि दि॑दीहि प्र॒जाव॑त्॥17॥ स्यूम॑ना। वा॒चः। उत्। इ॒य॒र्ति॒। वह्निः॑। स्तवा॑नः। रे॒भः। उ॒षसः॑। वि॒ऽभा॒तीः। अ॒द्य। तत्। उ॒च्छ॒। गृ॒ण॒ते। म॒घो॒नि॒। अ॒स्मे इति॑। आयुः॑। नि। दि॒दी॒हि॒। प्र॒जाऽव॑त्॥17॥ पदार्थः—(स्यूमना) स्यूमानः सकलविद्यायुक्ताः। अत्राकारादेशः। (वाचः) देववाणीः (उत्) उत्कृष्टतया (इयर्ति) जानाति (वह्निः) पावकवद्वोढा विद्वान् (स्तवानः) स्तोतुं शीलः। अत्र स्वरव्यत्ययेनाद्युदात्तत्वम्। (रेभः) बहुश्रोता। अत्र रीङ् धातोरौणादिको भः प्रत्ययः। [(उषसः) (विभातीः)] (तत्) (उच्छ) विशिष्टतया वासय (गृणते) प्रशंसते (मघोनि) प्रशस्तधनयुक्ते (अस्मे) अस्मभ्यम् (आयुः) जीवनहेत्वन्नम्। आयुरित्यन्नामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (नि) (दिदीहि) प्रकाशय (प्रजावत्) प्रशस्ताः प्रजा भवन्ति यस्मात् तत्॥17॥ अन्वयः—हे मघोनि स्त्रि! त्वमस्मे गृणते पत्ये च यत्प्रजावदायुरस्ति तदद्य निदिदीहि, यस्तव रेभः स्तवानो वह्निर्वोढा पतिस्त्वदर्थं विभातीरुषसः सूर्य्य इव स्यूमना प्रिया वाच उदियर्त्ति तं त्वमुच्छ॥17॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा दम्पती सौहार्देन परस्परं विद्यासुशिक्षाः सङ्गृह्य प्रशस्तान्यन्नधनादीनि वस्तूनि संचित्य सूर्यवद्धर्मन्यायं प्रकाश्य सुखे निवसतस्तदैव गृहाश्रमस्य पूर्णं सुखं प्राप्नुतः॥17॥ पदार्थः—हे (मघोनि) प्रशंसित धनयुक्त स्त्री! तू (अस्मे) हमारे और (गृणते) प्रशंसा करते हुए (पत्ये) पति के अर्थ जो (प्रजावत्) बहुत प्रजायुक्त (आयु) जीव का हेतु अन्न है (तत्) वह (अद्य) आज (नि) निरन्तर (दिदीहि) प्रकाशित कर। जो तेरा (रेभः) बहुश्रुत (स्तवानः) गुण प्रशंसाकर्त्ता (वह्निः) अग्नि के समान निर्वाह करनेहारा पति तेरे लिये (विभातीः) प्रकाशवती (उषसः) प्रभात वेलाओं को जैसे सूर्य वैसे (स्यूमना) सकल विद्याओं से युक्त प्रिय (वाचः) वेदवाणियों को (उत्, इयर्ति) उत्तमता से जानता है, उसको तू (उच्छ) अच्छा निवास कराया कर॥17॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब स्त्री-पुरुष सुहृद्भाव से परस्पर विद्या और अच्छी शिक्षाओं को ग्रहण कर उत्तम अन्न, धनादि वस्तुओं का संचय करके सूर्य के समान धर्म न्याय का प्रकाश कर सुख में निवास करते हैं तभी गृहाश्रम के पूर्ण सुख को प्राप्त होते हैं॥17॥ पुनरुषःप्रसंगेन स्त्रीपुरुषविषयमाह॥ फिर उषःकाल के प्रसंग से स्त्री-पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ या गोम॑तीरु॒षसः॒ सर्व॑वीरा व्यु॒च्छन्ति॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। वा॒योरि॑व सू॒नृता॑नामुद॒र्के ता अ॑श्व॒दा अ॑श्नवत्सोम॒सुत्वा॑॥18॥ याः। गोऽम॑तीः। उ॒षसः॑। सर्व॑ऽवीराः। वि॒ऽउ॒च्छन्ति॑। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। वा॒योःऽइ॑व। सू॒नृता॑नाम्। उ॒त्ऽअ॒र्के। ताः। अ॒श्व॒ऽदाः। अ॒श्न॒व॒त्। सो॒म॒ऽसुत्वा॑॥18॥ पदार्थः—(याः) (गोमतीः) बह्व्यो गावो धेनवः किरणा वा विद्यन्ते यासां ताः (उषसः) सर्ववीराः सर्वे वीराः भवन्ति यासु सतीषु ताः (व्युच्छन्ति) दुःखं विवासयन्ति (दाशुषे) सुखं दात्रे (मर्त्याय) (वायोरिव) यथा पवनात् (सूनृतानाम्) वाचामन्नादिपदार्थानाम् (उदर्के) उत्कृष्टतयाप्तौ (ताः) विदुष्यः (अश्वदाः) या अश्वादीन् पशून् प्रददति (अश्नवत्) अश्नुते (सोमसुत्वा) यः सोममैश्वर्यं सवति सः॥18॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं या सूनृतानामुदर्के वायोरिव वर्त्तमाना गोमतीरुषसो विदुष्यः स्त्रियो दाशुषे मर्त्याय व्युच्छन्ति। अश्वदाः सर्ववीराः प्राप्नुत यथा सोमसुत्वाश्नवत् तथैता प्राप्नुत॥18॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ब्रह्मचारिणां योग्यमस्ति समावर्त्तनानन्तरं स्वसदृशीर्विद्या-सुशीलतारूपलावण्यसम्पन्ना हृद्याः प्रभातवेला इव प्रशंसायुक्ता ब्रह्मचारिणीरुद्वाह्य गृहाश्रमे सुखमलंकुर्य्युः॥18॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग (याः) जो (सूनृतानाम्) श्रेष्ठ वाणी और अन्नादि की (उदर्के) उकृष्टता से प्राप्ति में (वायोरिव) जैसे वायु से (गोमतीः) बहुत गौ वा किरणोंवाली (उषसः) प्रभात वेला वर्त्तमान हैं, वैसे विदुषी स्त्री (दाशुषे) सुख देनेवाले (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (व्युच्छन्ति) दुःख दूर करती और (अश्वदाः) अश्व आदि पशुओं को देनेवाली (सर्ववीराः) जिनके होते समस्त वीरजन होते हैं (ताः) उन विदुषी स्त्रियों को (सोमसुत्वा) ऐश्वर्य की सिद्धि करनेहारा जन (अश्नवत्) प्राप्त होता है, वैसे ही इनको प्राप्त होओ॥18॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। ब्रह्मचारी लोगों को योग्य है कि समावर्त्तन के पश्चात् अपने सदृश विद्या, उत्तम शीलता, रूप और सुन्दरता से सम्पन्न हृदय को प्रिय, प्रभात वेला के समान प्रशंसित, ब्रह्मचारिणी कन्याओं से विवाह करके गृहाश्रम में पूर्ण सुख करें॥18॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मा॒ता दे॒वाना॒मदि॑ते॒रनी॑कं य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर्बृ॑ह॒ती वि भा॑हि। प्र॒श॒स्ति॒कृद् ब्रह्म॑णे नो॒ व्युच्छा नो॒ जने॑ जनय विश्ववारे॥19॥ मा॒ता। दे॒वाना॑म्। अदितेः॑। अनी॑कम्। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुः। बृ॒ह॒ती। वि। भा॒हि॒। प्र॒श॒स्ति॒ऽकृत्। ब्रह्म॑णे। नः॒। वि। उ॒च्छ॒। आ। नः॒। जने॑। ज॒न॒य॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒॥19॥ पदार्थः—(माता) (देवानाम्) विदुषाम् (अदितेः) जातस्यापत्यस्य अदितिर्जातमिति मन्त्रप्रमाणात्। (अनीकम्) सैन्यवद्रक्षयित्री (यज्ञस्य) विद्वत्सत्कारादेः कर्मणः (केतुः) ज्ञापयित्री पताकेव प्रसिद्धा (बृहती) महासुखवर्द्धिका (वि) विविधतया (भाहि) (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसां विधात्री (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (नः) अस्मान् (वि) (उच्छ) सुखे स्थिरी कुरु (आ) (जने) संबन्धिनी पुरुषे (जनय) (विश्ववारे) या विश्वं सर्वं भद्रं वृणोति तत्सम्बुद्धौ॥19॥ अन्वयः—हे विश्ववारे कुमारि! यज्ञस्य केतुरदितेः पालनायानीकमिव प्रशस्तिकृद् बृहती देवानां माता सती ब्रह्मणे त्वमुषर्वद्विभाहि नोऽस्माकं जने प्रीतिमाजनय व्युच्छ च॥19॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सत्पुरुषेण सत्येव स्त्री विवोढव्या यतः सुसन्ताना ऐश्वर्यं च नित्यं वर्धेत, भार्य्यासंबन्धजन्यदुःखेन तुल्यमिह किञ्चिदपि महत् कष्टं न विद्यते, तस्मात् पुरुषेण सुलक्षणया स्त्रिया परीक्षां कृत्वा पाणिग्रहणं स्त्रिया च हृद्यस्य प्रशंसितरूपगुणयुक्तस्य पुरुषस्यैव ग्रहणं कार्य्यम्॥19॥ पदार्थः—हे (विश्ववारे) समस्त कल्याण को स्वीकार करनेहारी कुमारी! (यज्ञस्य) गृहाश्रम व्यवहार में विद्वानों के सत्कारादि कर्म की (केतुः) जतानेहारी पताका के समान प्रसिद्ध (अदितेः) उत्पन्न हुए सन्तान की रक्षा के लिये (अनीकम्) सेना के समान (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसा करने और (बृहती) अत्यन्त सुख की बढ़ानेहारी (देवानाम्) विद्वानों की (माता) जननी हुई (ब्रह्मणे) वेदविद्या वा परमेश्वर के ज्ञान के लिये प्रभात वेला के समान (विभाहि) विशेष प्रकाशित हो, (नः) हमारे (जने) कुटुम्बी जन में प्रीति को (आ, जनय) अच्छे प्रकार उत्पन्न किया कर और (नः) हमको सुख में (व्युच्छ) स्थिर कर॥19॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सत्पुरुष को योग्य है कि उत्तम विदुषी स्त्री के साथ विवाह करे, जिससे अच्छे सन्तान हों और ऐश्वर्य नित्य बढ़ा करें, क्योंकि स्त्रीसंबन्ध से उत्पन्न हुए दुःख के तुल्य इस संसार में कुछ भी बड़ा कष्ट नहीं है, उससे पुरुष सुलक्षणा स्त्री की परीक्षा करके पाणिग्रहण करे और स्त्री को भी योग्य है कि अतीव हृदय के प्रिय प्रशंसित रूप गुणवाले पुरुष ही का पाणिग्रहण करे॥19॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यच्चि॒त्रमप्न॑ उ॒षसो॒ वह॑न्तीजा॒नाय॑ शशमा॒नाय॑ भ॒द्रम्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥20॥4॥ यत्। चि॒त्रम्। अप्नः॑। उ॒षसः॑। वह॑न्ति। ई॒जा॒नाय॑। श॒श॒मा॒नाय॑। भ॒द्रम्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥20॥ पदार्थः—(यत्) (चित्रम्) अद्भुतम् (अप्नः) अपत्यम् (उषसः) प्रभातवेला इव स्त्रियः (वहन्ति) प्रापयन्ति (ईजानाय) सङ्गन्तुं शीलाय (शशमानाय) प्रशंसिताय (भद्रम्) कल्याणकरम् (तत्॰) इति पूर्ववत्॥20॥ अन्वयः—हे मनुष्या या उषस इव वर्त्तमानाः सत्स्त्रियः! शसमानायेजानाय पुरुषाय नोऽस्मभ्यं च यच्चित्रं भद्रमप्नो वहन्ति याभिर्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उतापि द्यौश्च पालनीयाः सन्ति तास्तच्च भवन्तः सततं मामहन्ताम्॥20॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। श्रेष्ठा विदुष्यः स्त्रिय एव सन्तानानुत्पाद्य संरक्ष्य सुशिक्षया वर्धयितुं शक्नुवन्ति। ये पुरुषाः स्त्रीः सत्कुर्वन्ति याः पुरुषांश्च तेषा कुले सर्वाणि सुखानि वसन्ति दुःखानि च पलायन्ते॥20॥ अत्र रात्र्युषर्गुणवर्णनं तद्दृष्टान्तेन स्त्रीपुरुषकर्त्तव्यकर्मोपदेशोऽत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति त्रयोदशोत्तरशततमं 113 सूक्तमष्टमे चतुर्थो 4 वर्गश्च सम्पूर्णः॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (उषसः) उषा के समान स्त्री (शशमानाय) प्रशंसित गुणयुक्त (ईजानाय) संग शील पुरुष के लिये और (नः) हमारे लिये (यत्) जो (चित्रम्) अद्भुत (भद्रम्) कल्याणकारी (अप्नः) सन्तान की (वहन्ति) प्राप्ति करातीं वा जिन स्त्रियों से (मित्रः) सखा (वरुणः) उत्तम पिता (अदितिः) श्रेष्ठ माता (सिन्धुः) समुद्र वा नदी (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) विद्युत् वा सूर्यादि प्रकाशमान पदार्थ पालन करने योग्य हैं, उन स्त्रियों वा (तत्) उस सन्तान को निरन्तर (मामहन्ताम्) उपकार में लगाया करो॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। श्रेष्ठ विद्वान् ही सन्तानों को उत्पन्न, अच्छे प्रकार रक्षित और उनको अच्छी शिक्षा करके उनके बढ़ाने को समर्थ होते हैं। जो पुरुष स्त्रियों और जो स्त्री पुरुषों का सत्कार करती हैं, उनके कुल में सब सुख निवास करते हैं और दुःख भाग जाते हैं॥20॥ इस सूक्त में रात्रि और प्रभात समय के गुणों का वर्णन और इनके दृष्टान्त से स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य कर्म का उपदेश किया है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त से कहे अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह एकसौ तेरहवां 113 सूक्त और 4 चौथा वर्ग समाप्त हुआ॥

अथैकादशर्चस्य चतुर्दशोत्तरशततमस्यास्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। रुद्रो देवता। 1 जगती। 2,7 निचृज्जगती। 3,6,8,9 विराड् जगती च च्छन्दः। निषादः स्वरः। 4,5,11 भुरिक् त्रिष्टुप्। 10 निचृत् त्रिष्टुप्छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ विद्वद्विषयमाह। अब ग्यारह ऋचावाले एकसौ चौदहवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वद्विषय को कहते हैं॥ इ॒मा रु॒द्रा॑य त॒वसे॑ कप॒र्दिने॑ क्ष॒द्वी॑राय॒ प्र भ॑रामहे म॒तीः। यथा॒ शमस॑द् द्विपदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ अ॒स्मिन्न॑नातु॒रम्॥1॥ इ॒माः। रु॒द्राय॑। त॒वसे॑। क॒प॒र्दिने॑। क्ष॒यत्ऽवी॑राय। प्र। भ॒रा॒म॒हे॒। म॒तीः। यथा॑। शम्। अस॑त्। द्वि॒ऽपदे॑। चतुः॑ऽपदे। विश्व॑म्। पु॒ष्टम्। ग्रामे॑। अ॒स्मिन्। अ॒ना॒तु॒रम्॥1॥ पदार्थः—(इमा) प्रत्यक्षतयाऽऽप्तोपदिष्टा वेदादिशास्त्रोत्थबोधसंयुक्ताः (रुद्राय) कृतचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्याय (तवसे) बलयुक्ताय (कपर्दिने) ब्रह्मचारिणे (क्षयद्वीराय) क्षयन्तो दोषनाशका वीरा यस्य तस्मै (प्र) (भरामहे) धरामहे (मतीः) प्रज्ञाः (यथा) (शम्) सुखम् (असत्) भवेत् (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय (विश्वम्) सर्वं जीवादिकम् (पुष्टम्) पुष्टिं प्राप्तम् (ग्रामे) शालासमुदाये नगरादौ (अस्मिन्) संसारे (अनातुरम्) दुःखवर्जितम्॥1॥ अन्वयः—वयमध्यापकाः उपदेशका वा यथा द्विपदे चतुष्पदे शमसदस्मिन् ग्रामे विश्वमनातुरं पुष्टमसत्तथा तवसे क्षयद्वीराय रुद्राय कपर्दिन इमा मतीः प्रभरामहे॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यदाऽऽप्ता वेदविदः पाठका उपदेष्टारश्च पाठिका उपदेष्ट्र्यश्च सुशिक्षया ब्रह्मचारिणः श्रोतॄँश्च ब्रह्मचारिणीः श्रोत्रीँश्च विद्यायुक्ताः कुर्वन्ति तदैवेमे शरीरात्मबलं प्राप्य सर्वं जगत् सुखयन्ति॥1॥ पदार्थः—हम अध्यापक वा उपदेशक लोग (यथा) जैसे (द्विपदे) मनुष्यादि (चतुष्पदे) और गौ आदि के लिये (शम्) सुख (असत्) होवे (अस्मिन्) इस (ग्रामे) बहुत घरोंवाले नगर आदि ग्राम में (विश्वम्) समस्त चराचर जीवादि (अनातुरम्) पीड़ारहित (पुष्टम्) पुष्टि को प्राप्त (असत्) हो तथा (तवसे) बलयुक्त (क्षयद्वीराय) जिसके दोषों का नाश करनेहारे वीर पुरुष विद्यमान (रुद्राय) उस चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य कनरेहारे (कपर्दिने) ब्रह्मचारी पुरुष के लिये (इमाः) प्रत्यक्ष आप्तों के उपदेश और वेदादि शास्त्रों के बोध से संयुक्त (मतीः) उत्तम प्रज्ञाओं को (प्र, भरामहे) धारण करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब आप्त, सत्यवादी, धर्मात्मा, वेदों के ज्ञाता, पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वान् तथा पढ़ाने और उपदेश करनेहारी स्त्री, उत्तम शिक्षा से ब्रह्मचारी और श्रोता पुरुषों तथा ब्रह्मचारिणी और सुननेहारी स्त्रियों को विद्यायुक्त करते हैं, तभी ये लोग शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होकर सब संसार को सुखी कर देते हैं॥1॥ अथ राजविषयः प्रोच्यते॥ अब राजविषय कहा जाता है॥ मृ॒ळा नो॑ रुद्रो॒त नो॒ मय॑स्कृधि क्ष॒यद्वी॑राय॒ नम॑सा॒ विधेम ते। यच्छं च॒ योश्च॒ मनु॑राये॒जे पि॒ता तद॑श्याम॒ तव॑ रुद्र॒ प्रणी॑तिषु॥2॥ मृ॒ळ। नः॒। रु॒द्र॒। उ॒त। नः॒। मयः॑। कृ॒धि॒। क्ष॒यत्ऽवी॑राय। नम॑सा। वि॒धे॒म॒। ते॒। यत्। शम्। च॒। योः। च॒। मनुः॑। आ॒ऽये॒जे। पि॒ता। तत्। अ॒श्या॒म॒। तव॑। रु॒द्र॒। प्रऽनी॑तिषु॥2॥ पदार्थः—(मृड) सुखय। अत्र दीर्घः। (नः) अस्मान् (रुद्र) दुष्टान् शत्रून् रोदयितः (उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (मयः) सुखम् (कृधि) कुरु (क्षयद्वीराय) क्षयन्तो विनाशिताः शत्रुसेनास्था वीरा येन तस्मै (नमसा) अन्नेन सत्कारेण वा (विधेम) सेवेमहि (ते) तुभ्यम् (यत्) (शम्) रोगनिवारणम् (च) ज्ञानम् (योः) दुःखवियोजनम्। अत्र युधातोर्डोसिः प्रत्ययः। (च) गुणप्रापणसमुच्चये (मनुः) मननशीलः (आयेजे) समन्ताद्याजयति (पिता) पालकः (तत्) (अश्याम) प्राप्नुयाम। अत्र व्यत्ययेन श्यन् परस्मैपदं च। (तव) (रुद्र) न्यायाधीश (प्रणीतिषु) प्रकृष्टासु नीतिषु॥2॥ अन्वयः—हे रुद्र! ये वयं क्षयद्वीराय ते तुभ्यन्नमसा विधेम तान्नो त्वं मृड नोऽस्मभ्यं मयस्कृधि च। हे रुद्र! मनुः पितेव भवान् यच्छ स योश्चायेजे तदश्याम त उत वयं तव प्रणीतिषु वर्त्तमाना सततं सुखिनः स्याम॥2॥ भावार्थः—राजपुरुषाः स्वयं सुखिनो भूत्वा सर्वाः प्रजाः सुखयेयुः नैवात्र कदाचिदालस्यं कुर्युः, प्रजाजनाश्च राजनीतिनियमेषु वर्त्तित्वा राजपुरुषान् सदा प्रीणयेयुः॥2॥ पदार्थः—हे (रुद्र) दुष्ट शत्रुओं को रुलानेहारे राजन्! जो हम (क्षयद्वीराय) विनाश किये शत्रु सेनास्थ वीर जिसने उस (ते) आपके लिये (नमसा) अन्न वा सत्कार से (विधेम) विधान करें अर्थात् सेवा करें, उन (नः) हम लोगों को तुम (मृड) सुखी करो और (नः) हम लोगों के लिये (मयः) सुख (कृधि) कीजिये। हे (रुद्र) न्यायाधीश! (मनुः) मननशील (पिता) पिता के समान आप (यत्) जो रोगों का (शम्) निवारण (च) ज्ञान (योः) दुःखों का अलग करना (च) और गुणों की प्राप्ति का (आयेजे) सब प्रकार सङ्ग कराते हो (तत्) उसको (अश्याम) प्राप्त होवें (उत) वे ही हम लोग (तव) तुम्हारी (प्रणीतिषु) उत्तम नीतियों में प्रवृत्त होकर निरन्तर सुखी होवें॥2॥ भावार्थः—राजपुरुषों को योग्य है कि स्वयं सुखी होकर सब प्रजाओं को सुखी करें। इस काम में आलस्य कभी न करें और प्रजाजन राजनीति के नियम में वर्त्त के राजपुरुषों को सदा प्रसन्न रक्खें॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒श्याम॑ ते सुम॒तिं दे॑वय॒ज्यया॑ क्ष॒यद्वी॑रस्य॒ तव॑ रुद्र मीढ्वः। सु॒म्ना॒यन्निद्विशो॑ अ॒स्माक॒मा च॒रारि॑ष्टवीरा जुहवाम ते ह॒विः॥3॥ अ॒श्याम॑। ते॒। सु॒ऽम॒तिम्। दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑। क्ष॒यत्ऽवी॑रस्य। तव॑। रु॒द्र॒। मी॒ढ्वः॒। सु॒म्न॒ऽयन्। इत्। विशः॑। अ॒स्माक॑म्। आ। च॒र॒। अरि॑ष्टऽवीराः। जु॒ह॒वा॒म॒। ते॒। ह॒विः॥3॥ पदार्थः—(अश्याम) प्राप्नुयाम (ते) तव (सुमतिम्) शोभनां बुद्धिम् (देवयज्यया) विदुषां सङ्गत्या सत्कारेण च (क्षयद्वीरस्य) क्षयन्तो निवासिता वीरा येन तस्य (तव) (रुद्र) रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति तत्सम्बुद्धौ (मीढ्वः) सुखैः सिञ्चन् (सुम्नयन्) सुखयन् (इत्) अपि (विशः) प्रजाः (अस्माकम्) (आ) (चर) (अरिष्टवीराः) अरिष्टा अहिंसिता वीरा यासु ताः (जुहवाम) दद्याम (ते) तुभ्यम् (हविः) ग्रहीतुं योग्यं करम्॥3॥ अन्वयः—हे मीढ्वो रुद्र सभाध्यक्ष राजन्! वयं देवयज्यया क्षयद्वीरस्य तव सुमतिमश्याम यः सुम्नयँ- स्त्वमस्माकमरिष्टवीरा विश आचर समन्तात् प्राप्नुयाः तस्य ते तव वयमिदश्याम ते तुभ्यं हविर्जुहवाम च॥3॥ भावार्थः—राज्ञा प्रज्ञाः सततं सुखयितव्याः प्रजाभी राजा च यदि राजा प्रजाभ्यः करं गृहीत्वा न पालयेत्तर्हि स राजा दस्युवद्विज्ञेयः या पालिताः प्रजा राजभक्ता न स्युस्ता अपि चोरतुल्या बोध्या अत एव प्रजा राज्ञे करं ददति यतोऽयमस्माकं पालनं कुर्य्यात् राजाप्येतत्प्रयोजनाय पालयति यतः प्रजा मह्यं करं प्रदद्युः॥3॥ पदार्थः—हे (मीढ्वः) प्रजा को सुख से सीचने और (रुद्र) सत्योपदेश करनेवाले सभाध्यक्ष राजन्! हम लोग (देवयज्यया) विद्वानों की संगति और सत्कार से (क्षयद्वीरस्य) वीरों का निवास करानेहारे (तव) तेरी (सुमतिम्) श्रेष्ठ प्रज्ञा को (अश्याम) प्राप्त होवें, जो (सुम्नयन्) सुख कराता हुआ तू (अस्माकम्) हमारी (अरिष्टवीराः) हिंसारहित वीरोंवाली (विशः) प्रजाओं को (आ, चर) सब ओर से प्राप्त हो उस (ते) तेरी प्रजाओं को हम लोग (इत्) भी प्राप्त हों और (ते) तेरे लिये (हविः) देने योग्य पदार्थ को (जुहवाम) दिया करें॥3॥ भावार्थः—राजा को योग्य है कि प्रजाओं को निरन्तर प्रसन्न रक्खे और प्रजाओं को उचित है कि राजा को आनन्दित करें। जो राजा प्रजा से कर लेकर पालन न करे तो वह राजा डाकुओं के समान जानना चाहिये। जो पालन की हुई प्रजा राजभक्त न हों, वे भी चोर के तुल्य जाननी चाहिये। इसलिये प्रजा राजा को कर देती है कि जिससे यह हमारा पालन करे और राजा इसलिये पालन करता है कि जिससे प्रजा मुझको कर देवें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वे॒षं व॒यं रु॒द्रं य॑ज्ञ॒साधं॑ व॒ङ्कुं क॒विमव॑से॒ नि ह्व॑यामहे। आ॒रे अ॒स्मद्दैव्यं॒ हेळो॑ अस्यतु सुम॒तिमिद्व॒यम॒स्या वृ॑णीमहे॥4॥ त्वे॒षम्। व॒यम्। रु॒द्रम्। य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म्। व॒ङ्कुम्। क॒विम्। अव॑से। नि। ह्व॒या॒म॒हे॒। आ॒रे। अ॒स्मत्। दैव्य॑म्। हेळः॑। अ॒स्य॒तु॒। सु॒ऽम॒तिम्। इत्। व॒यम्। अ॒स्य॒। आ। वृ॒णी॒म॒हे॒॥4॥ पदार्थः—(त्वेषम्) विद्यान्यायदीप्तिमन्तम् (वयम्) (रुद्रम्) शत्रुरोद्धारम् (यज्ञसाधम्) यो यज्ञं प्रजापालनं साध्नोति तम् (वङ्कुम्) दुष्टशत्रून् प्रति कुटिलम् (कविम्) सर्वेषां शास्त्राणां क्रान्तदर्शिनम् (अवसे) रक्षणाद्याय (नि) (ह्वयामहे) स्वसुखदुःखनिवेदनं कुर्महे (आरे) दूरे (अस्मत्) (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम् (हेडः) धार्मिकाणामनादरकर्तॄनधार्मिकाञ्जनान् (अस्यतु) प्रक्षिपतु (सुमतिम्) धर्म्यां प्रज्ञाम् (इत्) एव (वयम्) (अस्य) (आ) समन्तात् (वृणीमहे) स्वीकुर्महे॥4॥ अन्वयः—वयमवसे यं त्वेषं वङ्कुं कविं यज्ञसाधं दैव्यं रुद्रं निह्वयामहे तथा वयं यस्यास्य सुमतिमावृणीमहे स इदेव सभाध्यक्षो हेडोऽस्मदारे अस्यतु॥4॥ भावार्थः—यथा प्रजास्था जना राजाज्ञां स्वीकुर्वन्ति तथा राजपुरुषा अपि प्रज्ञाज्ञां मन्येरन्॥4॥ पदार्थः—(वयम्) हम लोग (अवसे) रक्षा आदि के लिये जिस (त्वेषम्) विद्या और न्याय से प्रकाशवान् (वङ्कुम्) दुष्ट शत्रुओं के प्रति कुटिल (कविम्) समस्त शास्त्रों को क्रम-क्रम से देखने और (यज्ञसाधम्) प्रजापालनरूप यज्ञ को सिद्ध करनेहारे (दैव्यम्) विद्वानों में कुशल (रुद्रम्) शत्रुओं के रोकनेहारे को (नि, ह्वयामहे) अपना सुख-दुःख का निवदेन करें तथा (वयम्) हम लोग जिस (अस्य) इस रुद्र की (सुमतिम्) धर्मानुकूल उत्तम प्रज्ञा को (आ, वृणीमहे) सब ओर से स्वीकार करें (इत्) वही सभाध्यक्ष (हेडः) धार्मिक जनों का अनादर करनेहारे अधार्मिक जनों को (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर (अस्यतु) निकाल देवे॥4॥ भावार्थः—जैसे प्रजाजन राजा को स्वीकार करते हैं, वैसे राजपुरुष भी प्रजा की आज्ञा को माना करें॥4॥ अथ वैद्यविषयमाह॥ अब वैद्यजन के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दि॒वो व॑रा॒हम॑रु॒षं क॑प॒र्दिनं॑ त्वे॒षं रूपं नम॑सा॒ नि ह्व॑यामहे। हस्ते॒ बिभ्र॑द् भेष॒जा वार्या॑णि॒ शर्म॒ वर्म॑ च्छ॒र्दिर॒स्मभ्यं॑ यंसत्॥5॥5॥ दि॒वः। व॒रा॒हम्। अ॒रु॒षम्। क॒प॒र्दिन॑म्। त्वे॒षम्। रू॒पम्। नम॑सा। नि। ह्व॒या॒म॒हे॒। हस्ते॑। बिभ्र॑त्। भे॒ष॒जा। वार्या॑णि। शर्म॑। वर्म॑। छ॒र्दिः। अ॒स्मभ्य॑म्। यं॒स॒त्॥5॥ पदार्थः—(दिवः) विद्यान्यायप्रकाशितव्यवहारान् (वराहम्) मेघमिव (अरुषम्) अश्वादिकम् (कपर्दिनम्) कृतब्रह्मचर्यं जटिलं विद्वांसम् (त्वेषम्) प्रकाशमानम् (रूपम्) सुरूपम् (नमसा) अन्नेन परिचर्यया च (नि) (ह्वयामहे) स्पर्द्धामहे (हस्ते) करे (बिभ्रत्) धारयन् (भेषजा) रोगनिवारकाणि (वार्याणि) ग्रहीतुं योग्यानि साधनानि (शर्म) गृहं सुखं वा (वर्म) कवचम् (छर्दिः) दीप्तियुक्तं शस्त्रास्त्रादिकम् (अस्मभ्यम्) (यंसत्) यच्छेत्॥5॥ अन्वयः—वयं नमसा यो हस्ते भेषजा वार्याणि बिभ्रत् सन् शर्म वर्म छर्दिरस्मभ्यं यंसत् तं कपर्दिनं वैद्यं दिवो वराहमरुषं त्वेषं रूपं च निह्वयामहे॥5॥ भावार्थः—ये मनुष्या वैद्यमित्राः पथ्यकारिणो जितेन्द्रियाः सुशीला भवन्ति, त एवास्मिञ्जगति नीरोगा भूत्वा राज्यादिकं प्राप्य सुखमेधन्ते॥5॥ पदार्थः—हम लोग (नमसा) अन्न और सेवा से जो (हस्ते) हाथ में (भेषजा) रोगनिवारक औषध (वार्य्याणि) और ग्रहण करने योग्य साधनों को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (शर्म्म) घर, सुख (वर्म्म) कवच (छर्दिः) प्रकाशयुक्त शस्त्र और अस्त्रादि को (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (यंसत्) नियम से रक्खे, उस (कपर्दिनम्) जटाजूट ब्रह्मचारी वैद्य विद्वान् वा (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशित व्यवहारों वा (वराहम्) मेघ के तुल्य (अरुषम्) घोड़े आदि के (त्वेषम्) प्रकाशमान (रूपम्) सुन्दर रूप की (निह्वयामहे) नित्य स्पर्द्धा करें॥5॥ भावार्थः—जो मनुष्य वैद्य के मित्र पथ्यकारी जितेन्द्रिय उत्तम शीलवाले होते हैं, वे ही इस जगत् में रोगरहित और राज्यादि को प्राप्त होकर सुख को बढ़ाते हैं॥5॥ पुनर्वैद्योपदेशकौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥ फिर वैद्य और उपदेश करनेवाले कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ इ॒दं पि॒त्रे म॒रुता॑मुच्यते॒ वचः॑ स्वा॒दोः स्वादी॑यो रु॒द्राय॒ वर्ध॑नम्॥ रास्वा॑ च नो अमृत मर्त॒भोज॑नं॒ त्मने॑ तो॒काय॒ तन॑याय मृळ॥6॥ इ॒दम्। पि॒त्रे। म॒रुता॑म्। उ॒च्य॒ते॒। वचः॑। स्वा॒दोः। स्वादी॑यः। रु॒द्राय॑। वर्ध॑नम्। रास्व॑। च॒। नः॒। अ॒मृ॒त॒। म॒र्त॒ऽभोज॑नम्। त्मने॑। तो॒काय॑। तन॑याय। मृ॒ळ॒॥6॥ पदार्थः—(इदम्) (पित्रे) पालकाय (मरुताम्) ऋतावृतौ यजतां विदुषाम् (उच्यते) उपदिश्यते (वचः) वचनम् (स्वादोः) स्वादिष्ठात् (स्वादीयः) अतिशयेन स्वादु प्रियकरम् (रुद्राय) सभाध्यक्षाय (वर्धनम्) वृद्धिकरम् (रास्व) देहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (च) अनुक्तसमुच्चये (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (अमृत) नास्ति मृतं मरणदुःखं येन तत्सम्बुद्धौ (मर्तभोजनम्) मर्त्तानां मनुष्याणां भोग्यं वस्तु (त्मने) आत्मने (तोकाय) ह्रस्वाय बालकाय (तनयाय) यूने पुत्राय (मृड) सुखय॥6॥ अन्वयः—हे अमृत विद्वन् वैद्यराजोपदेशक वा! त्वं नोऽस्मभ्यमस्माकं वा त्मने तोकाय तनयाय च स्वादोः स्वादीयो मर्त्तभोजनं रास्वा यदिदं मरुतां वर्धनं वचः पित्रे रुद्राय त्वयोच्यते तेनास्मान् मृड॥6॥ भावार्थः—वैद्यस्योपदेशकस्य चेयं योग्यतास्ति स्वयमरोगः सत्याचारी भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य औषधदानेनोपदेशेन चोपकृत्य सर्वान् सततं रक्षेत्॥6॥ पदार्थः—हे (अमृत) मरण दुःख दूर कराने तथा आयु बढ़ानेहारे वैद्यराज व उपदेशक विद्वान्! आप (नः) हमारे (त्मने) शरीर (तोकाय) छोटे-छोटे बाल-बच्चे (तनयाय) जवान बेटे (च) और सेवक वैतनिक वा आयुधिक भृत्य अर्थात् चाकरों के लिये (स्वादीः) स्वादिष्ट से (स्वादीयः) स्वादिष्ठ अर्थात् सब प्रकार स्वादवाला जो खाने में बहुत अच्छा लगे उस (मर्त्यभोजनम्) मनुष्यों के भोजन करने के पदार्थ को (रास्व) देओ, जो (इदम्) यह (मरुताम्) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेहारे विद्वानों को (वर्द्धनम्) बढ़ानेवाला (वचः) वचन (पित्रे) पालना करने (रुद्राय) और दुष्टों को रुलानेहारे सभाध्यक्ष के लिये (उच्यते) कहा जाता है, उससे हम लोगों को (मृड) सुखी कीजिये॥6॥ भावार्थः—वैद्य और उपदेश करनेवाले को यह योग्य है कि आप नीरोग और सत्याचारी होकर सब मनुष्यों के लिये औषध देने और उपदेश करने से उपकार कर सबकी निरन्तर रक्षा करें॥6॥ अथ न्यायाधीशः कथं वर्त्तेतेत्युपदिश्यते॥ अब न्यायाधीश कैसे वर्त्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ अर्भ॒कं मा न॒ उक्ष॑न्तमु॒त मा न॑ उक्षि॒तम्। मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒तरं॒ मा नः॑ प्रि॒यास्त॒न्वो॑ रुद्र रीरिषः॥7॥ मा। नः॒। म॒हान्त॑म्। उ॒त। मा। नः॒। अ॒र्भ॒कम्। मा। नः॒। उक्ष॑न्तम्। उ॒त। मा। नः॒। उ॒क्षि॒तम्। मा। नः॒। व॒धीः॒। पि॒तर॑म्। मा। उ॒त। मा॒तर॑म्। मा। नः॒। प्रि॒याः। त॒न्वः॑। रु॒द्र॒। रि॒रि॒षः॒॥7॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (महान्तम्) वयोविद्यावृद्धं जनम् (उत) अपि (मा) (नः) (अर्भकम्) बाल्यावस्थापन्नम् (मा) (नः) (उक्षन्तम्) वीर्यसेचनसमर्थं युवानम् (उत) (मा) (नः) (उक्षितम्) वीर्यसेचनस्थितं गर्भम् (मा) (नः) (वधीः) हिन्धि (पितरम्) पालकं जनकं विद्वांसं वा (मा) (उत) (मातरम्) मानसम्मानकर्त्री जननीं विदुषीं वा (मा) (नः) (प्रियाः) अभीप्सिताः (तन्वः) तनूः शरीराणि (रुद्र) न्यायाधीश दुष्टरोदयितः (रीरिषः) जहि। अत्र तुजादित्वाद्दीर्घः॥7॥ अन्वयः—हे रुद्र! त्वं नोऽस्माकं महान्तं मा वधीरुतापि नोऽर्भकं मा वधीः। न उक्षन्तं मा वधीरुतापि न उक्षितं मा वधीः। नः पितरं मा वधीः उत मातरं मा वधीः। नः प्रियास्तन्वस्तनू मां वधीरन्यायकारिणो दुष्टांश्च रीरिषः॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यथा जगदीश्वरः पक्षपातं विहाय धार्मिकानुत्तमकर्मफलदानेन सुखयति पापिनश्च पापफलदानेन पीडयति तथैव यूयं प्रयतध्वम्॥7॥ पदार्थः—(रुद्र) न्यायाधीश दुष्टों को रुलानेहारे सभापति (नः) हम लोगों में से (महान्तम्) बुड्ढे वा पढ़े-लिखे मनुष्य को (मा) मत (वधीः) मारो (उत) और (नः) हमारे (अर्भकम्) बालक को (मा) मत मारो (नः) हमारे (उक्षन्तम्) स्त्रीसङ्ग करने में समर्थ युवावस्था से परिपूर्ण मनुष्य को (मा) मत मारो (उत) और (नः) हमारे (उक्षितम्) वीर्यसेचन से स्थित हुए गर्भ को (मा) मत मारो (नः) हम लोगों के (पितरम्) पालने और उत्पन्न करनेहारे पिता वा उपदेश करनेवाले को (मा) मत मारो (उत) और (मातरम्) मान-सम्मान और उत्पन्न करनेहारी माता वा विदुषी स्त्री को (मा) मत मारो (नः) हम लोगों की (प्रियाः) स्त्री आदि के पियारे (तन्वः) शरीरों को (मा) मत मारो और अन्यायकारी दुष्टों को (रीरिषः) मारो॥7॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! जैसे ईश्वर पक्षपात को छोड़ के धार्मिक सज्जनों को उत्तम कर्मों के फल देने से सुख देता और पापियों को पाप का फल देने से पीड़ा देता है, वैसे ही तुम लोग भी अच्छा यत्न करो॥7॥ पुनः राजजनाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर राजजन कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ मा न॑स्तो॒के तन॑ये॒ मा न॑ आ॒यौ मा नो॒ गोषु॒ मा नो॒ अश्वे॑षु रीरिषः। वी॒रान्मा नो॑ रुद्र भामि॒तो व॑धीर्ह॒विष्म॑न्तः॒ सद॒मित्त्वा॑ हवामहे॥8॥ मा। नः॒। तो॒के। तन॑ये। मा। नः॒। आ॒यौ। मा। नः॒। गोषु॑। मा। नः॒। अश्वे॑षु। रि॒रि॒षः॒। वी॒रान्। मा। नः॒। रु॒द्र॒। भा॒मि॒तः। व॒धीः॒। ह॒विष्म॑न्तः। सद॑म्। इत्। त्वा॒। ह॒वा॒म॒हे॒॥8॥ पदार्थः—(मा) (नः) अस्माकम् (तोके) सद्योजातेऽपत्ये पुत्रे (तनये) अतीतशैशवावस्थे (मा) (नः) (आयौ) जीवनविषये (मा) (नः) (गोषु) धेनुषु (मा) (नः) (अश्वेषु) वाजिषु (रीरिषः) हिंस्याः (वीरान्) (मा) (नः) अस्माकम् (रुद्र) (भामितः) क्रुद्धः सन् (वधीः) हन्याः (हविष्मन्तः) हवींषि प्रशस्तानि जगदुपकरणानि कर्माणि विद्यन्ते येषां ते (सदम्) स्थिरं वर्त्तमानं ज्ञानमाप्तम् (इत्) एव (त्वा) त्वाम् (हवामहे) स्वीकुर्महे॥8॥ अन्वयः—हे रुद्र! हविष्मन्तो वयं यतस्सदं त्वामिदेव हवामहे तस्माद्भामितस्त्वं नस्तोके तनये मा रीरिषो न आयौ मा रीरिषः, नो गोषु मा रीरिषः, नोऽश्वेषु मा रीरिषः, नो वीरान् मा वधीः॥8॥ भावार्थः—न कदाचिद्राजपुरुषैः क्रुद्धैः सद्भिः कस्याप्यन्यायेन हननं कार्य्यं गवादयः पशवः सदा रक्षणीयाः, प्रजास्थैर्जनैश्च राजाश्रयेणैव निरन्तरमानन्दितव्यम्। सर्वैर्मिलित्वैवं जगदीश्वरः प्रार्थनीयश्च हे परमेश्वर! भवत्कृपया वयं बाल्याऽवस्थायां विवाहादिभिः कुकर्मभिः पुत्रादीनां हिंसनं कदाचिन्न कुर्य्याम, पुत्रादयोऽप्यस्माकमप्रियं न कुर्य्युः, जगदुपकारकान् गवादीन् पशून् कदाचिन्न हिंस्यामेति॥8॥ पदार्थः—हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेहारे सभापति! (हविष्मन्तः) जिनके प्रशंसायुक्त संसार के उपकार करने के काम हैं, वे हम लोग जिस कारण (सदम्) स्थिर वर्त्तमान ज्ञान को प्राप्त (त्वाम्, इत्) आप ही को (हवामहे) अपना करते हैं, इससे (भामितः) क्रोध को प्राप्त हुए आप (नः) हम लोगों के (तोके) उत्पन्न हुए बालक वा (तनये) बालिकाओं से जो ऊपर है, उस बालक में (मा) (रीरिषः) घात मत करो (नः) हम लोगों के (आयौ) जीवन विषय में (मा) मत हिंसा करो (नः) हम लोगों के (गोषु) गौ आदि पशुसंघात में (मा) मत घात करो (नः) हम लोगों के (अश्वेषु) घोड़ों में (मा) घात मत करो (नः) हमारे (वीरान्) वीरों को (मा) मत (वधीः) मारो॥8॥ भावार्थः—क्रोध को प्राप्त हुए सज्जन राजपुरुषों को किसी का अन्याय से हनन न करना चाहिये और गौ आदि पशुओं की सदा रक्षा करनी चाहिये। प्रजाजनों को भी राजा के आश्रय से ही निरन्तर आनन्द करना चाहिये और सबों को मिल कर ईश्वर की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमेश्वर! आप की कृपा से हम लोग बाल्यावस्था में विवाह आदि बुरे काम करके पुत्रादिकों का विनाश कभी न करें और वे पुत्र आदि भी हम लोगों के विरुद्ध काम को न करें तथा संसार का उपकार करने हारे गौ आदि पशुओं का कभी विनाश न करें॥8॥ पुना राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर राजा प्रजाजन परस्पर कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ उप॑ ते॒ स्तोमा॑न् पशु॒पाइ॒वाक॑रं॒ रास्वा॑ पितर्मरुतां सु॒म्नम॒स्मे। भ॒द्रा हि ते॑ सुम॒तिर्मृ॑ळ॒यत्त॒माथा॑ व॒यमव॒ इत्ते॑ वृणीमहे॥9॥ उप॑। ते॒। स्तोमा॑न्। प॒शु॒पाःऽइ॑व। आ। अ॒क॒र॒म्। रास्व॑। पि॒तः॒। म॒रु॒ता॒म्। सु॒म्न॒म्। अ॒स्मे इति॑। भ॒द्रा। हि। ते॒। सु॒ऽम॒तिः। मृ॒ळ॒यत्ऽत॑मा। अथ॑। व॒यम्। अवः॑। इत्। ते॒। वृ॒णी॒म॒हे॒॥9॥ पदार्थः—(उप) (ते) तुभ्यम् (स्तोमान्) स्तुत्यान् रत्नादिद्रव्यसमूहान् (पशुपाइव) यथा पशुपालको गवादिभ्यो दुग्धादिकं गृहीत्वा गोस्वामिने समर्पयति (आ) (अकरम्) करोमि (रास्व) देहि। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पितः) पालयिता रुद्र (मरुताम्) ऋत्विजाम् (सुम्नम्) सुखम् (अस्मे) मह्यम् (भद्रा) कल्याणरूपा (हि) यतः (ते) तव (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (मृडयत्तमा) अतिशयेन सुखकर्त्री (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वयम्) (अवः) रक्षणादिकम् (इत्) एव (ते) तव (वृणीमहे) स्वीकुर्महे॥9॥ अन्वयः—हे मरुतां पितर्यहं पशुपाइव स्तोमाँस्त उपाकरमतस्त्वमस्मे मह्यं सुम्नं रास्वाथ या ते तव मृडयत्तमा भद्रा सुमतिर्यत् ते तवावोऽस्ति तां तच्च वयं यथा वृणीमहे तथेत्त्वमप्यस्मान् स्वीकुरु॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। प्रजापुरुषाः राजपुरुषेभ्यो राजनीतिं राजपुरुषाः प्रजापुरुषेभ्यः प्रजाव्यवहारं बुद्ध्वा विदितवेदितव्याः सन्तः सनातनं धर्ममाश्रयेयुः॥9॥ पदार्थः—हे (मरुताम्) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करानेहारे की (पितः) पालना करते हुए दुष्टों को रुलानेहारे सभापति! (हि) जिस कारण मैं (पशुपाइव) जैसे पशुओं को पालनेहारा चरवाहा अहीर गौ आदि पशुओं से दूध, दही, घी, मट्ठा आदि ले के पशुओं के स्वामी को देता है, वैसे (स्तोमान्) प्रशंसनीय रत्न आदि पदार्थों को (ते) आपके लिये (उप, आ, अकरम्) आगे करता हूँ, इस कारण आप (अस्मे) मेरे लिये (सुम्नम्) सुख (रास्व) देओ, (अथ) इसके अनन्तर जो (ते) आपकी (मृडयत्तमा) सब प्रकार से सुख करनेवाली (भद्रा) सुखरूप (सुमतिः) श्रेष्ठ मति और जो (ते) आपका (अवः) रक्षा करना है, उस मति और रक्षा करने को (वयम्) हम लोग जैसे (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं (इत्) वैसे ही आप भी हम लोगों को स्वीकार करें॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। प्रजापुरुष राजपुरुषों से राजनीति और राजपुरुष प्रजापुरुषों से प्रजाव्यवहार को जान; जानने योग्य को जाने हुए सनातन धर्म का आश्रय करें॥9॥ पुना राजाप्रजाधर्म उपदिश्यते॥ फिर राजा-प्रजा के धर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ आ॒रे ते॑ गो॒घ्नमु॒त पू॑रुष॒घ्नं क्षय॑द्वीर सु॒म्नम॒स्मे॑ ते॑ अस्तु। मृ॒ळा च॑ नो॒ अधि॑ च ब्रूहि दे॒वाधा॑ च नः॒ शर्म॑ यच्छ द्वि॒बर्हाः॑॥10॥ आ॒रे। ते॒। गो॒ऽघ्नम्। उ॒त। पु॒रु॒ष॒ऽघ्नम्। क्षय॑त्ऽवीर। सु॒म्नम्। अ॒स्मे इति॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मृ॒ळ। च॒। नः॒। अधि॑। च॒। ब्रू॒हि॒। दे॒व॒। अध॑। च॒। नः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। द्वि॒ऽबर्हाः॑॥10॥ पदार्थः—(आरे) समीपे दूरे च (ते) तव सकाशात् (गोघ्नम्) गवां हन्तारम् (उत) (पुरुषघ्नम्) पुरुषाणां हन्तारम् (क्षयद्वीर) शूरवीरनिवासक (सुम्नम्) सुखम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (मृड) अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (च) (नः) अस्मान् (अधि) आधिक्ये (च) (बू्रहि) आज्ञापय (देव) दिव्यकर्मकारिन् (अध) आनन्तर्ये। अत्र वर्णव्यत्ययेन थस्य धो निपातस्य चेति दीर्घश्च। (च) (नः) (शर्म) गृहसुखम् (यच्छ) देहि (द्विबर्हाः) द्वयोर्व्यवहारपरमार्थयोर्वर्धकः॥10॥ अन्वयः—हे क्षयद्वीर देव! पुरुषघ्नं गोघ्नं च निवार्य तेऽस्मे च सुम्नमस्तु। अधाथ त्वं नोऽस्मान् मृडाहं च त्वां मृडानि त्वं नोऽस्मानधिब्रूहि। अहं त्वां चाधिब्रुवाणि। द्विबर्हास्त्वं नः शर्म यच्छ। अहं वः शर्म यच्छानि सर्वे वयमारे धर्मात्मनां निकटे दुष्टात्मभ्यो दूरे च वसेम॥10॥ भावार्थः—मनुष्यैः प्रयत्नेन पशुघातिकेभ्यो मनुष्यमारेभ्यश्च दूरे निवसनीयम्। स्वेभ्य एते दूरे निवासनीयाः। राज्ञा प्रजापुरुषैश्च परस्परमुपदिश्य सभां निर्माय रक्षणं विधाय व्यवहारपरमार्थौ साधनीयौ॥10॥ पदार्थः—हे (क्षयद्वीर) शूरवीर जनों का निवास कराने और (देव) दिव्य अच्छे-अच्छे कर्म करानेहारे विद्वान् सभापति! (पुरुषघ्नम्) पुरुषों को मारने (च) और (गोघ्नम्) गौ आदि उपकार करनेहारे पशुओं के विनाश करनेवाले प्राणी को निवार करके (ते) आपके (च) और (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुम्नम्) सुख (अस्तु) हो, (अधा) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों को (मृड) सुखी कीजिये (च) और मैं आपको सुख देऊं, आप हम लोगों को (अधिब्रूहि) अधिक उपदेश देओ (च) और मैं आपको अधिक उपदेश करूं (द्विबर्हाः) व्यवहार और परमार्थ के बढ़ानेवाले आप (नः) हम लोगों के लिये (शर्म्म) घर का सुख (यच्छ) दीजिये (च) और आपके लिये मैं सुख देऊं। सब हम लोग धर्मात्माओं के (आरे) निकट और दुराचारियों से दूर रहें॥10॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि यत्न के साथ पशु और मनुष्यों के विनाश करनेहारे दुराचारियों से दूर रहें और अपने से उनका दूर निवास करावें। राजा और प्रजाजनों को परस्पर एक-दूसरे से उपदेश कर सभा बना और सबकी रक्षा कर व्यवहार और परमार्थ का सुख सिद्ध करना चाहिये॥10॥ पुनरध्यापकोपदेशकव्यवहारमाह॥ फिर अध्यापक और उपदेशकों के व्यवहारों को अगले मन्त्र में कहा है॥ अवो॑चाम॒ नमो॑ अस्मा अव॒स्यवः॑ शृ॒णोतु॑ नो॒ हवं॑ रु॒द्रो म॒रुत्वा॑न्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥11॥6॥ अवो॑चाम। नमः॑। अ॒स्मै॒। अ॒व॒स्यवः॑। शृ॒णोतु॑। नः॒। हव॑म्। रु॒द्रः। म॒रुत्वा॑न्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥11॥ पदार्थः—(अवोचाम) वदेम (नमः) नमस्त इति वाक्यम् (अस्मै) माननीयाय सभाध्यक्षाय (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छवः (शृणोतु) (नः) अस्माकम् (हवम्) आह्वानरूपं प्रशंसावाक्यम् (रुद्रः) अधीतविद्यः (मरुत्वान्) बलवान् (तत्) (नः॰) इति पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—अवस्यवो वयमस्मै सभाध्यक्षाय नमोऽवोचाम स मरुत्वान् रुद्रो नस्तन्नोऽस्माकं हवं च शृणोतु। हे मनुष्या! यन्नो नमो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्वर्धयन्ति तद्भवन्तो मामहन्ताम्॥11॥ भावार्थः—प्रजास्थैः पुरुषै राज्ञां प्रियाचरणानि नित्यं कर्त्तव्यानि राजभिश्च प्रजाजनानां वचांसि श्रोतव्यानि। एवं मिलित्वा न्यायमुन्नीयान्यायं निराकुर्य्युः॥11॥ अत्र ब्रह्मचारिविद्वत्सभाध्यक्षसभासदादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति चतुर्दशोत्तरं शततमं 114 सूक्तं षष्ठो 6 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(अवस्यवः) अपनी रक्षा चाहते हुए हम लोग (अस्मै) इस मान करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (नमः) ‘नमस्ते’ ऐसे वाक्य को (अवोचाम) कहें और वह (मरुत्वान्) बलवान् (रुद्रः) विद्या पढ़ा हुआ सभापति (तत्) उस (नः) हमारे (हवम्) बुलानेरूप प्रशंसावाक्य को (शृणोतु) सुने। हे मनुष्यो! जो (नः) हमारे ‘नमस्ते’ शब्द को (मित्रः) प्राण (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथ्वी (उत) और (द्यौः) प्रकाश बढ़ाते हैं अर्थात् उक्त पदार्थों को जाननेहारे सभापति को वार-वार ‘नमस्ते’ शब्द कहा जाता, उसको आप (मामहन्ताम्) वार-वार प्रशंसायुक्त करें॥11॥ भावार्थः—प्रजापुरुषों को राजा लोगों के प्रिय आचरण नित्य करने चाहियें और राजा लोगों को प्रजाजनों के कहे वाक्य सुनने योग्य हैं। ऐसे सब राजा-प्रजा मिलकर न्याय की उन्नति और अन्याय को दूर करें॥11॥ इस सूक्त में ब्रह्मचारी, विद्वान्, सभाध्यक्ष और सभासद् आदि गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जानने योग्य है॥ यह एकसौ चौदहवां 114 सूक्त और छठा 6 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथ षडृचस्य पञ्चदशोत्तरशततमस्यास्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। सूर्यो देवता। 1,2,6 निचृत् त्रिष्टुप्। 3 विराट् त्रिष्टुप्। 4,5 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ तत्रादावीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥ अब छः ऋचावाले एक सौ पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥ चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॥1॥ चि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒॥1॥ पदार्थः—(चित्रम्) अद्भुतम् (देवानाम्) विदुषां दिव्यानां पदार्थानां वा (उत्) उत्कृष्टतया (अगात्) प्राप्तमस्ति (अनीकम्) चक्षुरादीन्द्रियैरप्राप्तम् (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (मित्रस्य) सुहृद इव वर्त्तमानस्य सूर्यस्य (वरुणस्य) आह्लादकस्य जलचन्द्रादेः (अग्नेः) विद्युदादेः (आ) समन्तात् (अप्राः) पूरितवान् (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सूर्यः) सवितेव ज्ञानप्रकाशः (आत्मा) अतति सर्वत्र व्याप्नोति सर्वान्तर्यामी (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (च) सकलजीवसमुच्चये॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यदनीकं देवानां मित्रस्य वरुणस्याग्नेश्चित्रं चक्षुरुदगाद्यो जगदीश्वरः सूर्य इव विज्ञानमयो जगतस्तस्थुषश्चात्मा योऽन्तरिक्षं द्यावापृथिवी चाप्राः परिपूरितवानस्ति तमेव यूयमुपाध्वम्॥1॥ भावार्थः—न खलु दृश्यं परिच्छिन्नं वस्तु परमात्मा भवितुमर्हति, नो कश्चिदप्यव्यक्तेन सर्वशक्तिमता जगदीश्वरेण विना सर्वस्य जगत उत्पादनं कर्त्तुं शक्नोति, नैव कश्चित् सर्वव्यापकसच्चिदानन्दस्वरूपमन्तर्यामिणं सर्वात्मानं परमेश्वरमन्तरा जगद्धर्त्तुं जीवानां पापपुण्यानां साक्षित्वं फलदानं च कर्त्तुमर्हति, नह्येतस्योपासनया विना धर्मार्थकाममोक्षान् लब्धुं कोऽपि जीवः शक्नोति, तस्मादयमेवोपास्य इष्टदेवः सर्वैर्मन्तव्यः॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (अनीकम्) नेत्र से नही देखने में आता तथा (देवानाम्) विद्वान् और अच्छे-अच्छे पदार्थों वा (मित्रस्य) मित्र के समान वर्त्तमान सूर्य वा (वरुणस्य) आनन्द देनेवाले जल, चन्द्रलोक और अपनी व्याप्ति आदि पदार्थों वा (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि वा और सब पदार्थों का (चित्रम्) अद्भुत (चक्षुः) दिखानेवाला है, वह ब्रह्म (उदगात्) उत्कर्षता से प्राप्त है, जो जगदीश्वर (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान ज्ञान का प्रकाश करनेवाला विज्ञान से परिपूर्ण (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर अर्थात् चराचर जगत् का (आत्मा) अन्तर्यामी अर्थात् जिसने (अन्तरिक्षम्) आकाश (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमिलोक को (आ, अप्राः) अच्छे प्रकार परिपूर्ण किया अर्थात् उनमें आप भर रहा है, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो॥1॥ भावार्थः—जो देखने योग्य परिमाणवाला पदार्थ है, वह परमात्मा होने को योग्य नहीं। न कोई भी उस अव्यक्त सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के विना समस्त जगत् को उत्पन्न कर सकता है और न कोई सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दस्वरूप, अनन्त, अन्तर्यामी, चराचर जगत् के आत्मा परमेश्वर के विना संसार के धारण करने, जीवों को पाप और पुण्यों को साक्षीपन और उनके अनुसार जीवों को सुख-दुःख रूप फल देने को योग्य है। न इस परमेश्वर की उपासना के विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पाने को कोई जीव समर्थ होता है, इससे वही परमेश्वर उपासना करने योग्य इष्टदेव सब को मानना चाहिये॥1॥ पुनरीश्वरकृत्यमाह॥ फिर ईश्वर का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है॥ सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात्। यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम्॥2॥ सूर्यः॑। दे॒वीम्। उ॒षस॑म्। रोच॑मानाम्। मर्यः॑। न। योषा॑म्। अभि॒। ए॒ति॒। प॒श्चात्। यत्र॑। नरः॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। यु॒गानि॑। वि॒ऽत॒न्व॒ते। प्रति॑। भ॒द्राय॑। भ॒द्रम्॥2॥ पदार्थः—(सूर्य्यः) सविता (देवीम्) द्योतिकाम् (उषसम्) सन्धिवेलाम् (रोचमानाम्) रुचिकारिकाम् (मर्यः) पतिर्मनुष्यः (न) इव (योषाम्) स्वभार्याम् (अभि) अभितः (एति) (पश्चात्) (यत्रा) यस्मिन्। अत्र दीर्घः। (नरः) नयनकर्त्तारो गणकाः (देवयन्तः) कामयमाना गणितविद्यां जानन्तो ज्ञापयन्तः (युगानि) वर्षाणि कृतत्रेताद्वापरकलिसंज्ञानि वा (वितन्वते) विस्तारयन्ति (प्रति) (भद्राय) कल्याणाय (भद्रम्) कल्याणम्॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! येनेश्वरेणोत्पाद्य स्थापितोऽयं सूर्यो रोचमानां देवीमुषसं पश्चान्मर्यो योषां नेवाभ्येति, यत्र यस्मिन् विद्यमाने मार्त्तण्डे देवयन्तो नरो युगानि भद्राय भद्रं प्रति वितन्वते, तमेव सकलस्रष्टारं यूयं विजानीत॥2॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो! युष्माभिर्येनेश्वरेण सूर्य्यं निर्माय प्रति ब्रह्माण्डस्य मध्ये स्थापित- स्तमाश्रित्य गणितादयः सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्ति, स कुतो न सेव्येत॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जिस ईश्वर ने उत्पन्न करके नियम (कक्षा) में स्थापन किया यह (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (रोचमानाम्) रुचि कराने (देवीम्) और सब पदार्थों को प्रकाशित करनेहारी (उषसम्) प्रातःकाल की वेला को उसके होने के (पश्चात्) पीछे जैसे (मर्य्यः) पति (योषाम्) अपनी स्त्री को प्राप्त हो (न) वैसे (अभ्येति) सब ओर से दौड़ा जाता है, (यत्र) जिस विद्यमान सूर्य में (देवयन्तः) मनोहर चाल-चलन से सुन्दर गणितविद्या को जानते-जनाते हुए (नरः) ज्योतिष विद्या के भावों को दूसरे की समझ में पहुँचानेहारे ज्योतिषी जन (युगानि) पांच-पांच संवत्सरों की गणना से ज्योतिष में युग वा सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग को जान (भद्राय) उत्तम सुख के लिये (भद्रम्) उस उत्तम सुख के (प्रति, वितन्वते) प्रति विस्तार करते हैं, उसी परमेश्वर को सबका उत्पन्न करनेहारा तुम लोग जानो॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो! तुम लोगों से जिस ईश्वर ने सूर्य्य को बनाकर प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थापन किया, उसके आश्रय से गणित आदि समस्त व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह ईश्वर क्यों न सेवन किया जाए॥2॥ पुनः सूर्य्यकृत्यमाह॥ फिर सूर्य्य के काम का अगले मन्त्र में वर्णन किया है॥ भ॒द्रा अश्वा॑ ह॒रितः॒ सूर्य॑स्य चि॒त्रा एत॑ग्वा अनु॒माद्या॑सः। न॒म॒स्यन्तो दि॒व आ पृ॒ष्ठम॑स्थुः॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति स॒द्यः॥3॥ भ॒द्राः। अश्वाः॑। ह॒रितः॑। सूर्य॑स्य। चि॒त्राः। एत॑ऽग्वाः। अ॒नु॒ऽमाद्या॑सः। न॒म॒स्यन्तः॑। दि॒वः। आ। पृ॒ष्ठम्। अ॒स्थुः॒। परि॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। य॒न्ति॒। स॒द्यः॥3॥ पदार्थः—(भद्रा) कल्याणहेतवः (अश्वाः) महान्तो व्यापनशीलाः किरणाः (हरितः) दिशः। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.6) (सूर्य्यस्य) सवितृलोकस्य (चित्राः) अद्भुता अनेकवर्णाः (एतग्वाः) एतान् प्रत्यक्षान् पदार्थान् गच्छन्तीति (अनुमाद्यासः) अनुमोदकारकगुणेन प्रशंसनीयाः (नमस्यन्तः) सत्कुर्वन्तः (दिवः) प्रकाश्यस्य पदार्थस्य (आ) (पृष्ठम्) पश्चाद् भागम् (अस्थुः) तिष्ठन्ति (परि) सर्वतः (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (यन्ती) प्राप्नुवन्ति (सद्यः) शीघ्रम्॥3॥ अन्वयः—भद्रा अनुमाद्यासो नमस्यन्तो विद्वांसो जना ये सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अश्वाः किरणा हरितो द्यावापृथिवी सद्यः परि यन्ति दिवः पृष्ठमास्थुः समन्तात् तिष्ठन्ति, तान् विद्ययोपकुर्वन्तु॥3॥ भावार्थः—मनुष्याणां योग्यमस्ति श्रेष्ठानध्यापकानाप्तान् प्राप्य नमस्कृत्य गणितादिक्रियाकौशलतां परिगृह्य सूर्यसम्बन्धिव्यवहारानुष्ठानेन कार्यसिद्धिं कुर्युः॥3॥ पदार्थः—(भद्राः) सुख के करानेहारे (अनुमाद्यासः) आनन्द करने के गुण से प्रशंसा के योग्य (नमस्यन्तः) सत्कार करते हुए विद्वान् जन जो (सूर्य्यस्य) सूर्य्यलोक की (चित्राः) चित्र-विचित्र (एतग्वाः) इन प्रत्यक्ष पदार्थों को प्राप्त होती हुई (अश्वाः) बहुत व्याप्त होनेवाली किरणें (हरितः) दिशा और (द्यावापृथिवी) आकाश-भूमि को (सद्यः) शीघ्र (परि, यन्ति) सब ओर से प्राप्त होतीं (दिवः) तथा प्रकाशित करने योग्य पदार्थ के (पृष्ठम्) पिछले भाग पर (आ, अस्थुः) अच्छे प्रकार ठहरती हैं, उनको विद्या से उपकार में लाओ॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि श्रेष्ठ पढ़ानेवाले शास्त्रवेत्ता विद्वानों को प्राप्त हो, उनका सत्कार कर, उनसे विद्या पढ़ गणित आदि क्रियाओं की चतुराई को ग्रहण कर, सूर्यसम्बन्धि व्यवहारों का अनुष्ठान कर कार्यसिद्धि करें॥3॥ पुनस्तत्कृत्यमाह॥ फिर उसी सूर्य का काम अगले मन्त्र में कहा है॥ तत् सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्त्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑॥4॥ तत्। सूर्य॑स्य। दे॒व॒ऽत्वम्। तत्। म॒हि॒ऽत्वम्। म॒ध्या। कर्त्तोः॑। विऽत॑तम्। स्म्। ज॒भा॒र॒। य॒दा। इत्। अयु॑क्त। ह॒रितः॑। स॒धऽस्थात्। आत्। रात्री॑। वासः॑। त॒नु॒ते॒। सि॒मस्मै॑॥4॥ पदार्थः—(तत्) यत् प्रथममन्त्रोक्तं ब्रह्म (सूर्यस्य) सूर्यमण्डलस्य (देवत्वम्) देवस्य प्रकाशमयस्य भावः (तत्) (महित्वम्) (मध्या) मध्ये। अत्र सप्तम्येकवचनस्याकारः। (कर्त्तोः) कर्म (विततम्) व्याप्तम् (सम्) (जभार) हरति (यदा) (इत्) (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) दिशः (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वसनम् (तनुते) (सिमस्मै) सर्वस्मै लोकाय॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यदा तत् सूर्यस्य मध्या विततं सत् ब्रह्मैतस्य देवत्वं महित्वं कर्त्तोः सञ्जभार प्रलयसमये संहरति आत् यदा सृष्टिं करोति तदा सूर्यमयुक्तोत्पाद्य कक्षायां स्थापयति, सूर्यः सधस्थाद्धरितः किरणैर्व्याप्य सिमस्मै वासस्तनुते, यस्य तत्त्वाद्रात्री जायते तदिदेव ब्रह्म यूयमुपाध्वं तदेव जगत्कर्त्तृ विजानीत॥4॥ भावार्थः—हे सज्जना! यद्यपि सूर्य आकर्षणेन पृथिव्यादि पदार्थान् धरति पृथिव्यादिभ्यो महानपि वर्त्तते विश्वं प्रकाश्य व्यवहारयति च तदप्ययं परमेश्वरस्योत्पादनधारणाकर्षणैर्विनोत्पत्तुं स्थातुमाकर्षितुं च न शक्नोति नैतमीश्वरमन्तरेणेदृशानां लोकानां रचनं धारणं प्रलयं च कर्त्तुं कश्चित् समर्थो भवति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यदा) जब (तत्) वह पहिले मन्त्र में कहा हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्यमण्डल के (मध्या) बीच में (विततम्) व्याप्त ब्रह्म इस सूर्य्य के (देवत्वम्) प्रकाश (महित्वम्) बड़प्पन (कर्त्तोः) और काम का (संजभार) संहार करता अर्थात् प्रलय समय सूर्य्य के समस्त व्यवहार को हर लेता (आत्) और फिर जब सृष्टि को उत्पन्न करता है, तब सूर्य्य को (अयुक्त) युक्त अर्थात् उत्पन्न करता और नियत कक्षा में स्थापन करता है। सूर्य्य (सधस्थात्) एक स्थान से (हरितः) दिशाओं को अपनी किरणों से व्याप्त हो कर (सिमस्मै) समस्त लोक के लिये (वासः) अपने निवास का (तनुते) विस्तार करता तथा जिस ब्रह्म के तत्त्व से (रात्री) रात्री होती है (तत्, इत्) उसी ब्रह्म की उपासना तुम लोग करो तथा उसी को जगत् का कर्त्ता जानो॥4॥ भावार्थः—हे सज्जनो! यद्यपि सूर्य्य आकर्षण से पृथिवी आदि पदार्थों का धारण करता है, पृथिवी आदि लोकों से बड़ा भी वर्त्तमान है। संसार का प्रकाश कर व्यवहार भी कराता है तो भी यह सूर्य्य परमेश्वर के उत्पादन, धारण और आकर्षण आदि गुणों के विना उत्पन्न होने, स्थिर रहने और पदार्थों का आकर्षण करने को समर्थ नहीं हो सकता। न इस ईश्वर के विना ऐसे-ऐसे लोक-लोकान्तरों की रचना, धारणा और इनके प्रलय करने को कोई समर्थ होता है॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति॥5॥ तत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒भि॒ऽचक्षे॑। सूर्यः॑। रूप॑म्। कृ॒णु॒ते॒। द्योः। उ॒पऽस्थे॑। अ॒न॒न्तम्। अ॒न्यत्। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। कृ॒ष्णम्। अ॒न्यत्। ह॒रितः॑। सम्। भ॒र॒न्ति॒॥5॥ पदार्थः—(तत्) चेतनं ब्रह्म (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) संमुखदर्शनाय (सूर्य्यः) सविता (रूपम्) चक्षुर्ग्राह्यं गुणम् (कृणुते) करोति (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) समीपे (अनन्तम्) देशकालवस्तुपरिच्छेदशून्यम् (अन्यत्) सर्वेभ्यो भिन्नं सत् (रुशत्) ज्वलितवर्णम् (अस्य) (पाजः) बलम्। पाज इति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (कृष्णम्) तिमिराख्यम् (अन्यत्) भिन्नम् (हरितः) दिशः (सम्) (भरन्ति) धरन्ति॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यस्य सामर्थ्यान्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे द्योरुपस्थे स्थितः सन् सूर्योऽनेकविधं रूपं कृणुते। अस्य सूर्य्यस्यान्यद्रुशत्पाजो रात्रेरन्यत्कृष्णं रूपं हरितो दिशः संभरन्ति तदनन्तं ब्रह्म सततं सेवध्वम्॥5॥ भावार्थः—यस्य सामर्थ्येन रूपदिनरात्रिप्राप्तिनिमित्तः सूर्यः श्वेतकृष्णरूपविभाजकत्वेनाहर्निशं जनयति, तदनन्तं ब्रह्म विहाय कस्याप्यन्यस्योपासनं मनुष्या नैव कुर्य्युरिति विद्वद्भिः सततमुपदेष्टव्यम्॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जिसके सामर्थ्य से (मित्रस्य) प्राण और (वरुणस्य) उदान का (अभिचक्षे) सम्मुख दर्शन होने के लिये (द्योः) प्रकाश के (उपस्थे) समीप में ठहराता हुआ (सूर्य्यः) सूर्य्यलोक अनेक प्रकार (रूपम्) प्रत्यक्ष देखने योग्य रूप को (कृणुते) प्रकट करता है। (अस्य) इस सूर्य के (अन्यत्) सबसे अलग (रुशत्) लाल आग के समान जलते हुए (पाजः) बल तथा रात्रि के (अन्यत्) अलग (कृष्णम्) काले-काले अन्धकार रूप को (हरितः) दिशा-विदिशा (सं, भरन्ति) धारण करती हैं (तत्) उस (अनन्तम्) देश, काल और वस्तु के विभाग से शून्य परब्रह्म का सेवन करो॥5॥ भावार्थः—जिसके सामर्थ्य से रूप, दिन और रात्रि की प्राप्ति का निमित्त सूर्य श्वेत-कृष्ण रूप के विभाग से दिन रात्रि को उत्पन्न करता है, उस अनन्त परमेश्वर को छोड़ कर किसी और की उपासना मनुष्य नहीं करें, यह विद्वानों को निरन्तर उपदेश करना चाहिये॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥6॥7॥16॥ अ॒द्य। दे॒वाः॒। उत्ऽइ॑ता। सूर्य॑स्य। निः। अंह॑सः। पि॒पृ॒त। निः। अ॒व॒द्यात्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥6॥ पदार्थः—(अद्य) इदानीम्। अत्र दीर्घः। (देवाः) विद्वांसः (उदिता) उत्कृष्टप्राप्तौ (सूर्य्यस्य) जगदीश्वरस्य (निः) नितराम् (अंहसः) पापात् (पिपृत) अत्र दीर्घः। (निः) (अवद्यात्) गर्ह्यात् (तत्, नः॰) पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—हे देवाः! सूर्यस्योपासनेनोदिता प्रकाशमानाः सन्तो यूयं निरवद्यादंहसो निष्पिपृत यन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः प्रसाध्नुवन्ति तन्नोऽस्मान् सुखयति तदद्य भवन्तो मामहन्ताम्॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैः पापाद्दूरे स्थित्वा धर्ममाचर्य जगदीश्वरमुपास्य शान्त्या धर्मार्थकाममोक्षाणां पूर्त्तिः सम्पाद्या॥6॥ अत्र सूर्यशब्देनेश्वरसवितृलोकार्थवर्णनादस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति प्रथमण्डले षोडशोऽनुवाकः 16 पञ्चदशोत्तरशततमं 115 सूक्तं सप्तमो 7 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (देवाः) विद्वानो! (सूर्य्यस्य) समस्त जगत् को उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर की उपासना से (उदिता) उदय अर्थात् सब प्रकार से उत्कर्ष की प्राप्ति में प्रकाशमान हुए तुम लोग (निः) निरन्तर (अवद्यात्) निन्दित (अंहसः) पाप आदि कर्म से (निष्पिपृत) निर्गत होओ अर्थात् अपने आत्मा, मन और शरीर आदि को दूर रक्खो तथा जिसको (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) प्रकाश आदि पदार्थ सिद्ध करते हैं (तत्) वह वस्तु वा कर्म (नः) हम लोगों को सुख देता है, उसको तुम लोग (अद्य) आज (मामहन्ताम्) वार-वार प्रशंसित करो॥6॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि पाप से दूर रह धर्म का आचरण और जगदीश्वर की उपासना कर शान्ति के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की परिपूर्ण सिद्धि करें॥6॥ इस सूक्त में सूर्य्य शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक के अर्थ का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह प्रथम मण्डल में सोलहवाँ 16 अनुवाक एक सौ पन्द्रहवाँ 115 सूक्त और सातवाँ 7 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य पञ्चविंशत्यृचस्य षोडशोत्तरशततमस्य सूक्तस्य कक्षीवानृषिः। अश्विनौ देवते। 1,10,22,23 विराट् त्रिष्टुप्। 2,8,9,12-15,18,20,24,25 निचृत् त्रिष्टुप्। 3,4,5, 7,21 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 6,16,19 भुरिक् पङ्क्तिः। 11 पङ्क्तिः। 17 स्वराट् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथ शिल्पविषयमाह॥ अब 25 पच्चीस ऋचावाले एकसौ सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से शिल्पविद्या के विषय का वर्णन किया है॥ नास॑त्याभ्यां ब॒र्हिरि॑व॒ प्र वृ॑ञ्जे॒ स्तोमाँ॑ इयर्म्य॒भ्रिये॑व॒ वातः॑। यावर्भ॑गाय विम॒दाय॑ जा॒यां से॑ना॒जुवा॑ न्यू॒हतू॒ रथे॑न॥1॥ नास॑त्याभ्याम्। ब॒र्हिःऽइ॑व। प्र। वृ॒ञ्जे॒। स्तोमा॑न्। इ॒य॒र्मि॒। अ॒भ्रिया॑ऽइव। वातः॑। यौ। अर्भ॑गाय। वि॒ऽम॒दाय॑। जा॒याम्। से॒ना॒ऽजुवा॑। नि॒ऽऊ॒हतुः॑। रथे॑न॥1॥ पदार्थः—(नासत्याभ्याम्) अविद्यमानासत्याभ्यां पुण्यात्मभ्यां शिल्पिभ्याम् (बर्हिरिव) परिबृंहकं छेदकमुदकमिव। बर्हिरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (प्र) (वृञ्जे) छिनद्मि (स्तोमान्) मार्गाय समूढान् पृथिवीपर्वतादीन् (इयर्मि) गच्छामि (अभ्रियेव) यथाऽभ्रेषु भवान्युदकानि (वातः) पवनः (यौ) (अर्भगाय) ह्रस्वाय बालकाय। अत्र वर्णव्यत्ययेन कस्य गः। (विमदाय) विशिष्टो मदो हर्षो यस्मात्तस्मै (जायाम्) पत्नीम् (सेनाजुवा) वेगेन सेनां गमयितारौ (न्यूहतुः) नितरां देशान्तरं प्रापयतः (रथेन) विमानादियानेन॥1॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यथा नासत्याभ्यां शिल्पिभ्यां योजितेन रथेन यौ सेनाजुवाऽर्भगाय विमदाय जायामिव संभारान् न्यूहतुस्तथा प्रयत्नवानहं स्तोमान् बर्हिरिव प्रवृञ्जे वातोऽभ्रियेव सद्य इयर्मि॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यानेषूपकृताः पृथिवीविकारजलाग्न्यादयः किं किमद्भुतं कार्य्यं न साध्नुवन्ति॥1॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जैसे (नासत्याभ्याम्) सच्चे पुण्यात्मा शिल्पी अर्थात् कारीगरों ने जोड़े हुए (रथेन) विमानादि रथ से (यौ) जो (सेनाजुवा) वेग के साथ सेना को चलानेहारे दो सेनापति (अर्भगाय) छोटे बालक वा (विमदाय) विशेष जिससे आनन्द होवे उस जवान के लिये (जायाम्) स्त्री के समान पदार्थों को (न्यूहतुः) निरन्तर एक देश से दूसरे देश को पहुंचाते हैं, वैसे अच्छा यत्न करता हुआ मैं (स्तोमान्) मार्ग के सूधे होने के लिये बड़े-बड़े पृथिवी, पर्वत आदि को (बर्हिरिव) बढ़े हुए जल को जैसे वैसे (प्र, वृञ्जे) छिन्न-भिन्न करता तथा (वातः) पवन जैसे (अभ्रियेव) बादलों को प्राप्त हो, वैसे एक देश को (इयर्मि) जाता हूं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। रथ आदि यानों में उपकारी किए पृथिवी विकार, जल और अग्नि आदि पदार्थ क्या-क्या अद्भुत कार्यों को सिद्ध नहीं करते हैं?॥1॥ अथ युद्धविषयमाह॥ अब युद्ध के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं। वी॒ळु॒पत्म॑भिराशु॒हेम॑भिर्वा दे॒वानां॑ वा जू॒तिभिः॒ शाश॑दाना। तद्रास॑भो नासत्या स॒हस्र॑मा॒जा य॒मस्य॑ प्र॒धने॑ जिगाय॥2॥ वी॒ळु॒पत्म॑ऽभिः। आ॒शु॒हेम॑ऽभिः। वा॒। दे॒वाना॑म्। वा॒। जू॒तिऽभिः॑। शाश॑दाना। तत्। रास॑भः। ना॒स॒त्या॒। स॒हस्र॑म्। आ॒जा। य॒मस्य॑। प्र॒ऽधने॑। जि॒गा॒य॒॥2॥ पदार्थः—(वीळुपत्मभिः) बलेन पतनशीलैः (आशुहेमभिः) शीघ्रं गमयद्भिः (वा) (देवानाम्) विदुषाम् (वा) (जूतिभिः) जूयते प्राप्यतेऽर्थो याभिस्ताभिर्युद्धक्रियाभिः (शाशदाना) छेदकौ (तत्) (रासभः) आदिष्टोपयोजनपृथिव्यादिगुणसमूहवत्पुरुषः। रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघं॰1.15) (नासत्या) सत्यस्वभावौ (सहस्रम्) असंख्यातम् (आजा) संग्रामे (यमस्य) उपरतस्य मृत्योरिव शत्रुसमूहस्य (प्रधने) प्रकृष्टानि धनानि यस्मात्तस्मिन् (जिगाय) जयेत्॥2॥ अन्वयः—हे शाशदाना नासत्या सभासेनापती! भवन्तौ यथा वीळुपत्मभिराशुहेमभिर्वा देवानां जूतिभिर्वा स्वकार्य्याणि न्यूहतुस्तथा तदाचरन् रासभः प्रधन आजा संग्रामे यमस्य सहस्रं जिगाय शत्रोरसंख्यान् वीरान् जयेत्॥2॥ भावार्थः—यथाग्निर्जलं वा वनं पृथिवीं वा प्रविष्टं सद्दहति छिनत्ति वा तथाऽतिवेगकारिभिर्विद्युदादिभिः साधितैः शस्त्रास्त्रैः शत्रवो जेतव्याः॥2॥ पदार्थः—हे (शाशदाना) पदार्थों को यथायोग्य छिन्न-छिन्न करनेहारे (नासत्या) सत्यस्वभावी सभापति और सेनापति! आप जैसे (वीळुपत्मभिः) बल से गिरते और (आशुहेमभिः) शीघ्र पहुंचाते हुए पदार्थों से (वा) अथवा (देवानाम्) विद्वानों की (जूतिभिः) जिनसे अपना चाहा हुआ काम मिले सिद्ध हो उन युद्ध की क्रियाओं से (वा) निश्चय कर अपने कामों को निरन्तर तर्क-वितर्क से सिद्ध करते हों, वैसे (तत्) उस आचारण को करता हुआ (रासभः) कहे हुए उपयोग को जो प्राप्त उस पृथिवी आदि पदार्थसमूह के समान पुरुष (प्रधने) उत्तम-उत्तम गुण जिसमें प्राप्त होते, उस (आजा) संग्राम में (यमस्य) समीप आये हुए मृत्यु के समान शत्रुओं के (सहस्रम्) असंख्यात वीरों को (जिगाय) जीते॥2॥ भावार्थः—जैसे अग्नि वा जल वन वा पृथिवी को प्रवेश कर उसको जलाता वा छिन्न-भिन्न करता है, वैसे अत्यन्त वेग करनेहारे बिजुली आदि पदार्थों से किये हुए शस्त्र और अस्त्रों से शत्रुजन जीतने चाहिये॥2॥ अथ नौकादिनिर्माणविद्योपदिश्यते॥ अब नाव आदि के बनाने की विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ तुग्रो॑ ह भु॒ज्युम॑श्विनोदमे॒घे र॒यिं न कश्चि॑न्ममृ॒वाँ अवा॑हाः। तमू॑हथुनौर्॒भिरा॑त्म॒न्वती॑भिरन्तरिक्ष॒प्रुद्भि॒रपो॑दकाभिः॥3॥ तुग्रः॑। ह॒। भु॒ज्युम्। अ॒श्वि॒ना॒। उ॒द॒ऽमे॒घे। र॒यिम्। न। कः। चि॒त्। म॒मृ॒ऽवान्। अव॑। अ॒हाः॒। तम्। ऊ॒ह॒थुः॒। नौ॒ऽभिः। आ॒त्म॒न्ऽवती॑भिः। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒प्रुत्ऽभिः॑। अप॑ऽउदकाभिः॥3॥ पदार्थः—(तुग्रः) शत्रुहिंसकः सेनापतिः (ह) किल (भुज्युम्) राज्यपालकं सुखभोक्तारं वा (अश्विना) वायुविद्युताविव बलिष्ठौ (उदमेघे) यस्योदकैर्मिह्यते सिच्यते जगत् तस्मिन् समुद्रे (रयिम्) धनम् (न) इव (कः) (चित्) (ममृवान्) मृतः सन् (अव) (अहाः) त्यजति। अत्र ओहाक् त्याग इत्यस्माल्लुङि प्रथमैकवचने आगमानुशासनस्यानित्यत्वात् सगिटौ न भवतः। (तम्) (ऊहथुः) वहेतम् (नौभिः) नौकाभिः (आत्मन्वतीभिः) प्रशस्ता आत्मन्वन्तो विचारवन्तः क्रियाकुशलाः पुरुषा विद्यन्ते यासु ताभिः (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाशे गच्छन्तीभिः (अपोदकाभिः) अपगत उदकप्रवेशो यासु ताभिः॥3॥ अन्वयः—हे अश्विना सेनापती! युवां तुग्रः शत्रुहिंसनाय यं भुज्युमुदमेघे कश्चिन्ममृवान् रयिं नेवावाहास्तं हापोदकाभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरात्मन्वतीभिर्नौभिरूहथुर्वहेतम्॥3॥ भावार्थः—यथा कश्चिन्मुमूर्षुर्जनो धनपुत्रादीनां मोहाद्विरज्य शरीरान्निर्गच्छति तथा युयुत्सुभिः शूरैरनुभावनीयम्। यदा मनुष्यो द्वीपान्तरे समुद्रं तीर्त्वा शत्रुविजयाय गन्तुमिच्छेत्तदा दृढाभिर्बृहतीभिरन्तरप्प्रवेशादि- दोषरहिताभिः परिवृतात्मीयजनाभिः शस्त्रास्त्रादिसम्भारालंकृताभिर्नौकाभिः सहैव यायात्॥3॥ पदार्थः—हे (अश्विना) पवन और बिजुली के समान बलवान् सेनाधीशो! तुम (तुग्रः) शत्रुओं के मारनेवाला सेनापति शत्रुजन के मारने के लिये जिस (भुज्युम्) राज्य की पालना करने वा सुख भोगनेहारे पुरुष को (उदमेघे) जिसके जलों से संसार सींचा जाता है, उस समुद्र में जैसे (कश्चित्) कोई (ममृवान्) मरता हुआ (रयिम्) धन को छोड़े (न) वैसे (अवाहाः) छोड़ता है (तम्, ह) उसी को (अपोदकाभिः) जल जिसमें आते-जाते (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाश में चलती हुई (आत्मन्वतीभिः) और प्रशंसायुक्त विचारवाले क्रिया करने में चतुर पुरुष जिनमें विद्यमान उन (नौभिः) नावों से (ऊहथुः) एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुंचाओ॥3॥ भावार्थः—जैसे कोई मरण चाहता हुआ मनुष्य धन, पुत्र आदि के मोह से छूट के शरीर से निकल जाता है, वैसे युद्ध चाहते हुए शूरों को अनुभव करना चाहिए। जब मनुष्य पृथिवी के किसी भाग से किसी भाग को समुद्र उतर कर शत्रुओं के जीतने को जाया चाहें, तब पुष्ट बड़ी-बड़ी कि जिनमें भीतर जल न जाता हो और जिनमें आत्मज्ञानी विचारवाले पुरुष बैठे हों और जो शस्त्र-अस्त्र आदि युद्ध की सामग्री से शोभित हों, उन नावों के साथ जावें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ति॒स्रः क्षप॒स्त्रिरहा॑ति॒व्रज॑द्भि॒र्नास॑त्या भु॒ज्युमू॑हथुः पत॒ङ्गैः। स॒मु॒द्रस्य॒ धन्व॑न्ना॒र्द्रस्य॑ पा॒रे त्रि॒भी रथैः॑ श॒तप॑द्भिः॒ षळ॑श्वैः॥4॥ ति॒स्रः। क्षपः॑। त्रिः। अहा॑। अ॒ति॒व्रज॑त्ऽभिः। नास॑त्या। भु॒ज्युम्। ऊ॒ह॒थुः॒। प॒त॒ङ्गैः। स॒मु॒द्रस्य॑। धन्व॑न्। आ॒र्द्रस्य॑। पा॒रे। त्रि॒ऽभिः। रथैः॑। श॒तप॑त्ऽभिः। षट्ऽअ॑श्वैः॥4॥ पदार्थः—(तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (क्षपः) रात्रीः (त्रिः) त्रिवारम् (अहा) त्रीणि दिनानि (अतिव्रजद्भिः) अतिशयेन गमयतृभिर्द्रव्यैः (नासत्या) सत्येन परिपूर्णौ (भुज्युम्) राज्यपालकम् (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (पतङ्गैः) अश्ववद्वेगिभिः (समुद्रस्य) सम्यग्द्रवन्त्यापो यस्मिन् तस्यान्तरिक्षस्य (धन्वन्) धन्वनो बहुसिकतस्य स्थलस्य (आर्द्रस्य) सपङ्कस्य सागरस्य (पारे) परभागे (त्रिभिः) भूम्यन्तरिक्षजलेषु गमयितृभिः (रथैः) रमणीयैर्विमानादिभिर्यानैः (शतपद्भिः) शतैर्गमनशीलैः पादवेगैः (षडश्वैः) षट् अश्वा आशुगमकाः कलायन्त्रस्थितिप्रदेशा येषु तैः॥4॥ अन्वयः—हे नासत्या सभासेनापती! युवां तिस्रः क्षपस्त्र्यहा दिनान्यतिव्रजद्भिः पतङ्गैः सहयुक्तैः षडश्वैः शतपद्भिस्त्रिभी रथैर्भुज्युं समुद्रस्य धन्वन्नार्द्रस्य पारे त्रिरूहथुर्गमयेतम्॥4॥ भावार्थः—अहो मनुष्या यदा त्रिष्वहोरात्रेषु समुद्रादिपारावारं गमिष्यन्त्यागमिष्यन्ति तदा किमपि सुखं दुर्लभं स्थास्यति न किमपि॥4॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्य से परिपूर्ण सभापति और सेनापति! तुम दोनों (तिस्रः) तीन (क्षपः) रात्रि (अहा) तीन दिन (अतिव्रजद्भिः) अतीव चलते हुए पदार्थ (पतङ्गैः) जो कि घोड़े के समान वेगवाले हैं, उनके साथ वर्त्तमान (षडश्वैः) जिनमे जल्दी ले जानेहारे छः कलों के घर विद्यमान उन (शतपद्भिः) सैकड़ों पग के समान वेगयुक्त (त्रिभिः) भूमि, अन्तरिक्ष और जल में चलनेहारे (रथैः) रमणीय सुन्दर मनोहर विमान आदि रथों से (भुज्युम्) राज्य की पालना करनेवाले को (समुद्रस्य) जिसमें अच्छे प्रकार परमाणुरूप जल जाते हैं, उस अन्तरिक्ष वा (धन्वन्) जिसमें बहुत बालू है, उस भूमि वा (आर्द्रस्य) कींच के सहित जो समुद्र उसके (पारे) पार में (त्रिः) तीन बार (ऊहथुः) पहुंचाओ॥4॥ भावार्थः—आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य जो तीन दिन-रात में समुद्र स्थानों के अवार-पार जावें-आवेंगे तो कुछ भी सुख दुर्लभ रहेगा! किन्तु कुछ भी नहीं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒ना॒र॒म्भ॒णे तद॑वीरयेथामनास्था॒ने अ॑ग्रभ॒णे स॑मु॒द्रे। यद॑श्विना ऊ॒हथु॑र्भु॒ज्युमस्तं॑ श॒तारि॑त्रां॒ नाव॑मातस्थि॒वांस॑म्॥5॥8॥ अ॒ना॒र॒म्भ॒णे। तत्। अ॒वी॒र॒ये॒था॒म्। अ॒ना॒स्था॒ने। अ॒ग्र॒भ॒णे। स॒मु॒द्रे। यत्। अ॒श्वि॒नौ॒। ऊ॒हथुः॑। भु॒ज्युम्। अस्त॑म्। श॒तऽअ॑रित्राम्। नाव॑म्। आ॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म्॥5॥ पदार्थः—(अनारम्भणे) अविद्यमानमारम्भणं यस्मिँस्तस्मिन् (तत्) तौ (अवीरयेथाम्) विक्रमेथाम् (अनास्थाने) अविद्यमानं स्थित्यधिकरणं यस्मिन् (अग्रभणे) न विद्यते ग्रहणं यस्मिन्। अत्र हस्यः भः। (समुद्रे) अन्तरिक्षे सागरे वा (यत्) यौ (अश्विनौ) विद्याप्राप्तिशीलौ (ऊहथुः) विद्युद्वायू इव सद्यो गमयेतम् (भुज्युम्) भोगसमूहम् (अस्तम्) अस्यन्ति दूरीकुर्वन्ति दुःखानि यस्मिँस्तद्गृहम्। अस्तमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰3.4) (शतारित्राम्) शतसंख्याकान्यरित्राणि जलपरिमाणग्रहणार्थानि स्तम्भनानि वा यस्याम् (नावम्) नुदन्ति चालयन्ति प्रेरते वा यां ताम्। ग्लानुदिभ्यां डौः। (उणा॰2.64) अनेनायं सिद्धः। (आतस्थिवांसम्) आस्थितम्॥5॥ अन्वयः—हे अश्विनौ! यद्यौ युवामनारम्भणेऽनास्थानेऽग्रभणे समुद्रे शतारित्रां नावमूहथुरस्तमातस्थिवांसं भुज्युमवीरयेथां विक्रमेथां तत् वयं सदा सत्कुर्याम॥5॥ भावार्थः—राजपुरुषैरालम्बविरहे मार्गे विमानादिभिरेव गन्तव्यं यावद् योद्धारो यथावन्न रक्ष्यन्ते तावच्छत्रवो जेतुं न शक्यन्ते। यत् शतमरित्राणि विद्यन्ते सा महाविस्तीर्णा नौर्विधातुं शक्यते। अत्र शतशब्दोऽसंख्यातवाच्यपि ग्रहीतुं शक्यते। अतोऽतिदीर्घाया नौकाया विधानमत्र गम्यते। मनुष्यैर्यावती नौर्विधातुं शक्यते तावतो निर्मातव्यैवं सद्योगामी जनो भूम्यन्तरिक्षगमनागमनार्थान्यपि यानानि विदध्यात्॥5॥ पदार्थः—हे (अश्विनौ) विद्या में व्याप्त होनेवाले सभा सेनापति! (यत्) जो तुम दोनों (अनारम्भणे) जिसमें आने-जाने का आरम्भ (अनास्थाने) ठहरने की जगह और (अग्रभणे) पकड़ नहीं है, उस (समुद्रे) अन्तरिक्ष वा सागर में (शतारित्राम्) जिसमें जल की थाह लेने को सौ बल्ली वा सौ खम्भे लगे रहते और (नावम्) जिसको जलाते वा पठाते उस नाव को बिजुली और पवन के वेग के समान (ऊहथुः) बहाओ और (अस्तम्) जिसमें दुःखों को दूर करें उस घर में (आतस्थिवांसम्) धरे हुए (भुज्युम्) खाने-पीने के पदार्थ समूह को (अवीरयेथाम्) एक देश से दूसरे देश को ले जाओ, (तत्) उन तुम लोगों का हम सदा सत्कार करें॥5॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि निरालम्ब मार्ग में अर्थात् जिसमें कुछ ठहरने का स्थान नहीं है, वहाँ विमान आदि यानों से ही जावें। जब तक युद्ध में लड़नेवाले वीरों की जैसी चाहिये वैसी रक्षा न की जाये, तब तक शत्रु जीते नहीं जा सकते। जिसमें सौ वल्ली विद्यमान हैं, वह ब़ड़े फैलाव की नाव बनाई जा सकती है। इस मन्त्र में शत शब्द असंख्यातवाची भी लिया जा सकता है, इससे अतिदीर्घ नौका का बनाना इस मन्त्र में जाना जाता है। मनुष्य जितनी बड़ी नौका बना सकते हैं, उतनी बड़ी बनानी चाहिये। इस प्रकार शीघ्र जानेवाला पुरुष भूमि और अन्तरिक्ष में जाने-आने के लिये यानों को बनावे॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यम॑श्विना द॒दथुः॑ श्वे॒तमश्व॑म॒घाश्वा॑य॒ शश्व॒दित्स्व॒स्ति। तद्वां॑ दा॒त्रं महि॑ की॒र्तेन्यं॑ भूत् पै॒द्वो वा॒जी सद॒मिद्धव्यो॑ अ॒र्यः॥6॥ यम्। अ॒श्वि॒ना॒। द॒दथुः॑। श्वे॒तम्। अश्व॑म्। अ॒घऽअ॑श्वाय। शश्व॑त्। इत्। स्व॒स्ति। तत्। वा॒म्। दा॒त्रम्। महि॑। की॒र्तेन्य॑म्। भू॒त्। पै॒द्वः। वा॒जी। सद॑म्। इत्। हव्यः॑। अ॒र्यः॥6॥ पदार्थः—(यम्) (अश्विना) जलपृथिव्याविवाशुसुखदातारौ (ददथुः) (श्वेतम्) प्रवृद्धम् (अश्वम्) अध्वव्यापिनमग्निम् (अघाश्वाय) हन्तुमयोग्याय शीघ्रं गमयित्रे (शश्वत्) निरन्तरम् (इत्) एव (स्वस्ति) सुखम् (तत्) कर्म (वाम्) युवयोः (दात्रम्) दातुं योग्यम् (महि) महद्राज्यम् (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्तितुम् (भूत्) भवति (पैद्वः) सुखेन प्रापकः (वाजी) ज्ञानवान् (सदम्) सीदन्ति यस्मिन् याने तत् (इत्) एव (हव्यः) आदातुमर्हः (अर्यः) वणिग्जनः॥6॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवामघाश्वाय वैश्याय यं श्वेतमश्वं भास्वरं विद्युदाख्यं ददथुर्दत्तः। येन शश्वत् स्वस्ति प्राप्य वां कीर्त्तेन्यं महि दात्रमिदेव गृहीत्वा पैद्वो वाजी तत् सदं रचयित्वाऽर्यश्च हव्यो भूद् भवति तदिदेव विधत्ताम्॥6॥ भावार्थः—यौ सभासेनाध्यक्षौ वणिजः संरक्ष्य यानेषु स्थापयित्वा द्वीपद्वीपान्तरे प्रेषयेतां तौ श्रियायुक्तौ भूत्वा सततं सुखिनौ जायेते॥6॥ पदार्थः—हे (अश्विना) जल और पृथिवी के समान शीघ्र सुख देनेहारो सभासेनापति! तुम दोनों (अघाश्वाय) जो मारने के न योग्य और शीघ्र पंहुचानेवाला है, उस वैश्य के लिये (यम्) जिस (श्वेतम्) अच्छे बड़े हुए (अश्वम्) मार्ग में व्याप्त प्रकाशमान बिजुलीरूप अग्नि को (ददथुः) देते हो तथा जिससे (शश्वत्) निरन्तर (स्वस्ति) सुख को पाकर (वाम्) तुम दोनों की (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्ति होने के लिये (महि) बड़े राज्यपद (दात्रम्)और देने योग्य (इत्) ही पदार्थ को ग्रहण कर (पैद्वः) सुख से ले जानेहारा (वाजी) अच्छा ज्ञानवान् पुरुष उस (सदम्) रथ को कि जिसमें बैठते हैं, रच के (अर्यः) वणियां (हव्यः) पदार्थों के लेने योग्य (भूत्) होता है (तत्, इत्) उसी पूर्वोक्त विमानादि को बनाओ॥6॥ भावार्थः—जो सभा और सेना के अधिपति वणियों (=वणिकों) की भली-भांति रक्षा कर रथ आदि यानों मे बैठा कर द्वीप-द्वीपान्तर में पंहुचावे, वे बहुत धनयुक्त होकर निरन्तर सुखी होते हैं॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते प॑ज्रि॒याय॑ क॒क्षीव॑ते अरदतं॒ पुरं॑धिम्। का॒रो॒त॒राच्छ॒फादश्व॑स्य॒ वृष्णः॑ श॒तं कु॒म्भाँ अ॑सिञ्चतं॒ सुरा॑याः॥7॥ यु॒वम्। न॒रा॒। स्तु॒व॒ते। प॒ज्रि॒याय॑। क॒क्षीव॑ते। अ॒र॒द॒त॒म्। पुर॑मऽधिम्। का॒रो॒त॒रात्। श॒फात्। अश्व॑स्य। वृष्णः॑। श॒तम्। कु॒म्भान्। अ॒सि॒ञ्च॒त॒म्। सुरा॑याः॥7॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (नरा) नेतारौ विनयं प्राप्तौ (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (पज्रियाय) पज्रेषु पद्रेषु पदेषु भवाय। अत्र पदधातोरौणादिको रक् वर्णव्यत्ययेन दस्य जः। ततो भवार्थे घः। (कक्षीवते) प्रशस्तशासनयुक्ताय (अरदतम्) सन् मार्गादिकं विज्ञापयताम् (पुरन्धिम्) पुरुं बहुविधां धियम्। पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः। (कारोतरात्) कारान् व्यवहारान् कुर्वतः शिल्पिन उ इति वितर्के तरति येन (शफात्) खुरादिव जलसेकस्थानात् (अश्वस्य) तुरङ्गस्येवाग्निगृहस्य (वृष्णः) बलवतः (शतम्) शतसंख्याकान् (कुम्भान्) (असिञ्चतम्) सिञ्चतम् (सुरायाः) अभिषुतस्य रसस्य॥7॥ अन्वयः—हे नरा! युवं युवां पज्रियाय कक्षीवते स्तुवते विद्यार्थिने पुरन्धिमरदतम्। वृष्णोऽश्वस्य कारोतराच्छफात्सुरायाः पूर्णान् शतं कुम्भानसिञ्चतम्॥7॥ भावार्थः—आप्तावध्यापको पुरुषौ यस्मै शमादियुक्ताय सज्जनाय विद्यार्थिने शिल्पकार्याय हस्तक्रियायुक्तां बुद्धिं जनयतः स प्रशस्तः शिल्पी भूत्वा यानानि रचयितुं शक्नोति। शिल्पिनो यस्मिन् याने जलं संसिच्याधोऽग्निं प्रज्वाल्य वाष्पैर्यानानि चालयन्ति तेन तेऽश्वैरिव विद्युदादिभिः पदार्थैः सद्यो देशान्तरं गन्तुं शक्नुयुः॥7॥ पदार्थः—हे (नरा) विनय को पाये हुए सभा सेनापति! (युवम्) तुम दोनों (पज्रियाय) पदों मे प्रसिद्ध होनेवाले (कक्षीवते) अच्छी सिखावट को सीखे और (स्तुवते) स्तुति करते हुए विद्यार्थी के लिये (पुरन्धिम्) बहुत प्रकार की बुद्धि और अच्छे मार्ग को (अरदतम्) चिन्ताओं तथा (वृष्णः) बलवान् (अश्वस्य) घोड़े के समान अग्नि संबन्धी कलाघर के (कारोतरात्) जिससे व्यवहारों को करते हुए शिल्पी लोग तर्क के साथ पार होते हैं, उस (शफात्) खुर के समान जल सींचने के स्थान से (सुरायाः) खींचे हुए रस से भरे (शतम्) सौ (कुम्भान्) घड़ों को ले (असिञ्चतम्) सींचा करो॥7॥ भावार्थः—जो शास्त्रवेत्ता अध्यापक विद्वान् जिस शान्तिपूर्वक इन्द्रियों को विषयों से रोकने आदि गुणों से युक्त सज्जन विद्यार्थी के लिये शिल्पकार्य्य अर्थात् कारीगरी सिखाने को हाथ की चतुराईयुक्त बुद्धि उत्पन्न कराते अर्थात् सिखाते हैं, वह प्रशंसायुक्त शिल्पी अर्थात् कारीगर होकर रथ आदि को बना सकता है। शिल्पीजन जिस यान अर्थात् उत्तम विमान आदि रथ में जलघर से जल सींच और नीचे आग जलाकर भाफों से उसे चलाते हैं, उससे वे घोड़े से जैसे वैसे बिजुली आदि पदार्थों से शीघ्र एक देश से दूसरे देश को जा सकते हैं॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ हि॒मेना॒ग्निं घ्रं॒सम॑वारयेथां पितु॒मती॒मूर्ज॑मस्मा अधत्तम्। ऋ॒बीसे॒ अत्रि॑मश्वि॒नाव॑नीत॒मुन्नि॑न्यथुः॒ सर्व॑गणं स्व॒स्ति॥8॥ हि॒मेन॑। अ॒ग्निम्। घ्रं॒सम्। अ॒वा॒र॒ये॒था॒म्। पि॒तु॒ऽमती॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒स्मै॒। अ॒ध॒त्त॒म्। ऋ॒बीसे॑। अत्रि॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। अव॑ऽनीतम्। उत्। नि॒न्य॒थुः॒। सर्व॑ऽगणम्। स्व॒स्ति॥8॥ पदार्थः—(हिमेनाग्निम्) शीतेनाग्निम् (घ्रंसम्) रात्र्या दिनम्। घ्रंस इत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं॰1.9) (अवारयेथाम्) निवारयेतम् (पितुमतीम्) प्रशस्तान्नयुक्ताम् (ऊर्जम्) पराक्रमाख्यां नीतिम् (अस्मै) (अधत्तम्) पोषयतम् (ऋबीसे) दुर्गतभासे व्यवहारे (अत्रिम्) अत्तारम्। अदेस्त्रिनिश्च। (उणा॰4.68) अत्र चकारात् त्रिबनुवर्त्तते। तेनादधातोस्त्रिप्। (अश्विना) यज्ञानुष्ठानशीलौ (अवनीतम्) अर्वाक् प्रापितम् (उत्) (निन्यथुः) नयतम् (सर्वगणम्) सर्वे गणा यस्मिंस्तत् (स्वस्ति) सुखम्॥8॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-ऋबीसमपगतभासमपहृतभासमन्तर्हितभासं गतभासं वा। हिमेनोदकेन ग्रीष्मान्तेऽग्निं घ्रंसमहरवारयेथाम्। अन्नवतीं चास्मा ऊर्जमधत्तमग्नये। योऽयमृबीसे पृथिव्यामग्निरन्तरौषधिवनस्पतिष्वप्सु तमुन्निन्यथुः। सर्वगणं सर्वनामानम्। गणो गणनात् गुणश्च। यद् वृष्ट ओषधय उद्यन्ति प्राणिनश्च पृथिव्यां तदश्विनो रूपम्। तेनैनौ स्तौति स्तौति। (निरु॰ 6.35.36)॥8॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां हिमेनोदकेनाग्निं घ्रंसं चावारयेथामस्मै पितुमतीमूर्जमधत्तमृबीसेऽत्रिमवनीतं सर्वगणं स्वस्ति चोन्निन्यथुरूर्ध्वं नयतम्॥8॥ भावार्थः—विद्वद्भिरेतत्संसारसुखाय यज्ञेन शोधितेन जलेन वनरक्षणेन च परितापो निवारणीयः, संस्कृतेनान्नेन बलं प्रजननीयम्। यज्ञानुष्ठानेन त्रिविधदुःखं निवार्य सुखमुन्नेयम्॥8॥ पदार्थः—हे (अश्विना) यज्ञानुष्ठान करनेवाले पुरुषो! तुम दोनों (हिमेन) शीतल जल से (अग्निम्) आग और (घ्रंसम्) रात्रि के साथ दिन को (अवारयेथाम्) निर्वारो अर्थात् बिताओ। (अस्मै) इसके लिये (पितुमतीम्) प्रशंसित अन्नयुक्त (ऊर्जम्) बलरूपी नीति को (अधत्तम्) पुष्ट करो और (ऋबीसे) दुःख से जिसकी आभा जाती रही उस व्यवहार में (अत्रिम्) भोगनेहारे (अवनीतम्) पीछे प्राप्त कराये हुए (सर्वगणम्) जिसमे समस्त उत्तम पदार्थों का समूह है, उस (स्वस्ति) सुख को (उन्निन्यथुः) उन्नति देओ॥8॥ भावार्थः—विद्वानों को चाहिये कि इस संसार के सुख के लिये यज्ञ से शोधे हुए जल से और वनों के रखने से अति उष्णता (खुश्की) दूर करें। अच्छे बनाए हुए अन्न से बल उत्पन्न करें और यज्ञ के आचरण से तीन प्रकार के दुःख को निवार के सुख को उन्नति देवें॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ परा॑व॒तं ना॑सत्यानुदेथामु॒च्चाबु॑ध्नं चक्रथुर्जि॒ह्मवा॑रम्। क्षर॒न्नापो॒ न पा॒यना॑य रा॒ये स॒हस्रा॑य॒ तृष्य॑ते॒ गोत॑मस्य॥9॥ परा॑। अ॒व॒तम्। ना॒स॒त्या॒। अ॒नु॒दे॒था॒म्। उ॒च्चाऽबु॑ध्नम्। च॒क्र॒थुः॒। जि॒ह्मऽवा॑रम्। क्षर॑न्। आपः॑। न। पा॒यना॑य। रा॒ये। स॒हस्रा॑य। तृष्य॑ते। गोत॑मस्य॥9॥ पदार्थः—(परा) (अवतम्) रक्षतम् (नासत्या) अग्निवायू इव वर्तमानौ (अनुदेथाम्) प्रेरयेथाम् (उच्चाबुध्नम्) उच्चा ऊर्ध्वं बुध्नमन्तरिक्षं यस्मिँस्तम् (चक्रथुः) कुरुतम् (जिह्मवारम्) जिह्मं कुटिलं वारो वरणं यस्य तम् (क्षरन्) क्षरन्ति (आपः) वाष्परूपाणि जलानि (न) इव (पायनाय) पानाय (राये) धनाय (सहस्राय) असंख्याताय (तृष्यते) तृषिताय (गोतमस्य) अतिशयेन गौः स्तोता गोतमस्तस्य॥9॥ अन्वयः—हे अग्निवायुवद्वर्तमानौ नासत्याऽश्विनौ! युवां जिह्मवारमुच्चाबुध्नमवतमनेन कार्य्यसिद्धिं चक्रथुः कुरुतम्। तं पराऽनुदेथां यो गोतमस्य याने तृष्यते पायनायापः क्षरन्नेव सहस्राय राये जायेत तादृशं निर्मिमाथाम्॥9॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। शिल्पिभिर्विमानादियानेषु पुष्कलमधुरोदकाधारं कुण्डं निर्मायाग्निना संचाल्य तत्र संभारान् धृत्वा देशान्तरं गत्वाऽसंख्यातं धनं प्राप्य परोपकारः सेवनीयः॥9॥ पदार्थः—हे (नासत्या) आग और पवन के समान वर्त्तमान सभापति और सेनाधिपति! तुम दोनों (जिह्मवारम्) जिसकी टेड़ी लगन और (उच्चाबुध्नम्) उससे जिसमें ऊँचा अन्तरिक्ष अर्थात् अवकाश उस रथ आदि को (अवतम्) रक्खो और अनेक कामों की सिद्धि (चक्रथुः) करो और उसको यथायोग्य व्यवहार में (परा, अनुदेथाम्) लगाओ। जो (गोतमस्य) अतीव स्तुति करने वाले के रथ पर (तृष्यते) प्यासे के लिये (पायनाय) पीने को (आपः) भाफरूप जल जैसे (क्षरन्) गिरते हैं (न) वैसे (सहस्राय) असंख्यात (राये) धन देने के लिये प्रसिद्ध होता है, वैसे रथ आदि को बनाओ॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। शिल्पी लोगों को विमानादि यानों में जिसमें बहुत मीठे जल की धार मावे, ऐसे कुण्ड को बना, आग से उस विमान आदि यान को चला, उसमें सामग्री को धर, एक देश से दूसरे देश को जाय और असंख्यात धन पाय के परोपकार का सेवन करना चाहिये॥9॥ अथ विधिः सामान्यत उपदिश्यते॥ अब सामान्य से विधि का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ जु॒जु॒रुषो॑ नासत्यो॒त व॒व्रिं प्रामु॑ञ्चतं द्रा॒पिमि॑व॒ च्यवा॑नात्। प्राति॑रतं जहि॒तस्यायु॑र्द॒स्रादित्पति॑मकृणुतं क॒नीना॑म्॥10॥9॥ जु॒जु॒रुषः॑। ना॒स॒त्या॒। उ॒त। व॒व्रिम्। प्र। अ॒मु॒ञ्च॒त॒म्। द्रा॒पिम्ऽइ॑व। च्यवा॑नात्। प्र। अ॒ति॒रत॒म्। ज॒हि॒तस्य॑। आयुः॑। द॒स्रा॒। आत्। इत्। पति॑म्। अ॒कृ॒णु॒त॒म्। क॒नीना॑म्॥10॥ पदार्थः—(जुजुरुषः) जीर्णाद् वृद्धात् (नासत्या) (उत) अपि (वव्रिम्) संविभक्तारम् (प्र, अमुञ्चतम्) प्रमुञ्चेतम् (द्रापिमिव) यथा कवचम् (च्यवानात्) पालयमानात् (प्र, अतिरतम्) प्रतरेतम् (जहितस्य) हातुः। अत्र हा धातोरौणादिक इतच् प्रत्ययो बाहुलकात् सन्वच्च। (आयुः) जीवनम् (दस्रा) दातारौ (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (पतिम्) पालकं स्वामिनम् (अकृणुतम्) कुरुतम् (कनीनाम्) यौवनत्वेन दीप्तिमतीनां ब्रह्मचारिणीनां कन्यानाम्॥10॥ अन्वयः—हे नासत्या राजधर्मसभापती! युवां च्यवानाद् द्रापिमिव वव्रिं प्राऽमुञ्चतं दुःखात् पृथक् कुरुतम्। उतापि जुजुरुषो विद्यावयोवृद्धादाप्तादध्यापकात् कनीनां शिक्षामकृणुतमात् समये प्राप्त एकैकस्या इदेवैकैकं पतिं च। हे दस्रा वैद्याविव प्राणदातारौ! जहितस्यायुः प्राऽतिरतम्॥10॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैरुपदेशकैश्च दातॄणां दुःखं विनाशनीयम्। विद्यासुप्रवृत्तानां कुमारकुमारीणां रक्षणं विधाय विद्यासुशिक्षे प्रदापनीये, बाल्यावस्थायामर्थात् पञ्चविंशाद् वर्षात्प्राक् पुरुषस्य षोडशात् प्राक् स्त्रियाश्च विवाहं निवार्य्यात ऊर्ध्वं यावदष्टाचत्वारिंशद्वर्षं पुरुषस्याचतुर्विंशतिवर्षं स्त्रियाः स्वयंवरं विवाहं कारयित्वा सर्वेषामात्मशरीरबलमलं कर्त्तव्यम्॥10॥ पदार्थः—हे (नासत्या) राजधर्म की सभा के पति! तुम दोनों (च्यवानात्) भागे हुये से (द्रापिमिव) कवच के समान (वव्रिम्) अच्छे विभाग करानेवाले को (प्रामुञ्चतम्) भलीभांति दुःख से पृथक् करो (उत) और (जुजुरुषः) बुड्ढे विद्यावान् शास्त्रज्ञ पढ़ानेवाले से (कनीनाम्) यौवनपन से तेजधारिणी ब्रह्मचारिणी कन्याओं को शिक्षा (अकृणुतम्) करो (आत्) इसके अनन्तर नियत समय की प्राप्ति में उनमें से एक-एक (इत्) ही का एक-एक (पतिम्) रक्षक पति करो। हे (दस्रा) वैद्यों के समान प्राण के देनेहारो! (जहितस्य) त्यागी की (आयुः) आयुर्दा को (प्रातिरतम्) अच्छे प्रकार पार लों पहुंचाओ॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुष और उपदेश करनेवालों को देनेवालों का दुःख दूर करना चाहिये, विद्याओं में प्रवृत्ति करते हुए कुमार और कुमारियों की रक्षा कर विद्या और अच्छी शिक्षा उनको दिलवाना चाहिये। बालकपन में अर्थात् पच्चीस वर्ष के भीतर पुरुष और सोलह वर्ष के भीतर स्त्री के विवाह को रोक, इसके उपरान्त अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त पुरुष और चौबीस वर्ष पर्यन्त स्त्री का स्वयंवर विवाह कराकर सबके आत्मा और शरीर के बल को पूर्ण करना चाहिये॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॒ राध्यं॑ चाभिष्टि॒मन्ना॑सत्या॒ वरू॑थम्। यद्वि॒द्वांसा॑ नि॒धिमि॒वाप॑गूळ्ह॒मुद्द॑र्श॒तादू॒पथु॒र्वन्द॑नाय॥11॥ तत्। वा॒म्। न॒रा॒। शंस्य॑म्। राध्य॑म्। च॒। अ॒भि॒ष्टि॒ऽमत्। ना॒स॒त्या॒। वरू॑थम्। यत्। वि॒द्वांसा॑। नि॒धिम्ऽइ॑व। अप॑ऽगूळ्हम्। उत्। द॒र्श॒तात्। ऊ॒पथुः॑। वन्द॑नाय॥11॥ पदार्थः—(तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) धर्मनेतारौ (शंस्यम्) स्तुत्यं संसिद्धिकरम् (राध्यम्) राद्धुं संसाद्धुं योग्यम् (च) धर्मादिफलम् (अभिष्टिमत्) अभीष्टानि प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (नासत्या) सर्वदा सत्यपालकौ (वरूथम्) वरणीयमुत्तमम् (यत्) (विद्वांसा) सकलविद्यावेत्तारौ (निधिमिव) (अपगूढम्) अपगतं संवरणमाच्छादनं यस्मात्तत् (उत्) (दर्शतात्) सुन्दराद् रूपात् (ऊपथुः) वपेथाम् (वन्दनाय) अभितः सत्कारार्हायापत्याय प्रशंसायै च॥11॥ अन्वयः—हे नरा नासत्या विद्वांसा धर्मराज सभास्वामिनौ! वां युवयोर्यच्छंस्यं राध्यं चाभिष्टिमद्वरूथमपगूढं पूर्वोक्तं गृहाश्रमसंबन्धि कर्मास्ति तन्निधिमिव दर्शताद्वन्दनायोदूपथुरूर्ध्वं सततं वपेथाम्॥11॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! विद्याकोशात्परं सुखप्रदं धनं किमपि यूयं मा जानीत, न खल्वेतेन कर्मणा विनाऽभीष्टान्यपत्यानि सुखानि च प्राप्तुं शक्यानि नैव समीक्षया विना विद्या वृद्धिर्जायत इत्यवगच्छत॥11॥ पदार्थः—हे (नरा) धर्म की प्राप्ति (नासत्या) और सदा सत्य की पालना करने और (विद्वांसा) समस्त विद्या जाननेवाले धर्मराज, सभापति विद्वानो! (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (शंस्यम्) प्रशंसनीय (च) और (राध्यम्) सिद्ध करने योग्य (अभिष्टिमत्) जिसमें चाहे हुए प्रशंसित सुख हैं (वरूथम्) जो स्वीकार करने योग्य (अपगूढम्) जिसमें गुप्तपन अलग हो गया ऐसा जो प्रथम कहा हुआ गृहाश्रमसंबन्धि कर्म है, (तत्) उसको (निधिमिव) धन के कोष के समान (दर्शतात्) दिखनौट [दर्शनीय सुन्दर] रूप से (वन्दनाय) सब ओर से सत्कार करने योग्य संतान और प्रशंसा के लिये (उत्, ऊपथुः) उच्च श्रेणी को पहुँचाओ अर्थात् उन्नति देओ॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! विद्यानिधि के परे सुख देनेवाला धन कोई भी तुम मत जानो। न इस कर्म के विना चाहे हुए संतान और सुख मिल सकते हैं और न सत्यासत्य के विचार से निर्णीत ज्ञान के विना विद्या की वृद्धि होती है, यह जानो॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तद्वां॑ नरा स॒नये॒ दंस॑ उ॒ग्रमा॒विष्कृ॑णोमि तन्य॒तुर्न वृ॒ष्टिम्। द॒ध्यङ् ह यन्मध्वा॑थर्व॒णो वा॒मश्व॑स्य शी॒र्ष्णा प्र यदी॑मु॒वाच॑॥12॥ तत्। वा॒म्। न॒रा॒। स॒नये॑। दंसः॑। उ॒ग्रम्। आ॒विः। कृ॒णो॒मि॒। त॒न्य॒तुः। न। वृ॒ष्टिम्। द॒ध्यङ्। ह॒। यत्। मधु॑। आ॒थ॒र्व॒णः। वा॒म्। अश्व॑स्य। शी॒र्ष्णा। प्र। यत्। ई॒म्। उ॒वाच॑॥12॥ पदार्थः—(तत्) (वाम्) (नरा) सुनीतिमन्तौ (सनये) सुखसेवनाय (दंसः) कर्म (उग्रम्) उत्कृष्टम् (आविः) प्रादुर्भावे (कृणोमि) (तन्यतुः) विद्युत् (न) इव (वृष्टिम्) (दध्यङ्) दधीन् विद्याधर्मधारकानञ्चन्ति प्राप्नोति सः (ह) किल (यत्) (मधु) मधुरं विज्ञानम् (आथर्वणः) अथर्वणोऽहिंसकस्यापत्यम् (वाम्) युवाभ्याम् (अश्वस्य) आशुगमकस्य द्रव्यस्य (शीर्ष्णा) शिरोवत्कर्मणा (प्र) (यत्) (ईम्) शास्त्रबोधम्। ईमिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) (उवाच) उच्यात्॥12॥ अन्वयः—हे नरा वां युवयोः सकाशाद् दध्यङ्ङाथर्वणोऽहं सनये तन्यतुर्वृष्टिं नेव यदुग्रं दंस आविष्कृणोमि यद्यो विद्वान् वाम् मह्यं चाश्वस्य शीर्ष्णा मध्वीं ह प्रोवाच तद्युवां लोके सततमाविष्कुर्य्याथाम्॥12॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा वृष्ट्या विना कस्यचिदपि सुखं न जायते, तथा विदुषोऽन्तरा विद्यामन्तरेण च सुखं बुद्धिवर्धनमेतेन विना धर्मादयः पदार्था न सिध्यन्ति, तस्मादेतत्कर्म मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम्॥12॥ पदार्थः—हे (नरा) अच्छी नीतियुक्त सभासेना के पति जनो! (वाम्) तुम दोनों से (दध्यङ्) विद्या धर्म को धारण करनेवालों का आदर करनेवाला (आथर्वणः) रक्षा करते हुए का सन्तान मैं (सनये) सुख के भलीभांति सेवन करने के लिये जैसे (तन्यतुः) बिजुली (वृष्टिम्) वर्षा को (न) वैसे जिस (उग्रम्) उत्कृष्ट (दंसः) कर्म को (आविष्कृणोमि) प्रकट करता हूं, जो (यत्) विद्वान् (वाम्) तुम दोनों के लिये और मेरे लिये (अश्वस्य) शीघ्र गमन करानेहारे पदार्थ के (शीर्ष्णा) शिर के समान उत्तम काम से (मधु) मधुर (ईम्) शास्त्र के बोध को (ह) (प्रोवाच) कहे (तत्) उसे तुम दोनों लोक में निरन्तर प्रकट करो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वृष्टि के विना किसी को भी सुख नहीं होता है, वैसे विद्वानों और विद्या के विना सुख और बुद्धि बढ़ना और इसके विना धर्म आदि पदार्थ नहीं सिद्ध होते हैं, इससे इस कर्म का अनुष्ठान मनुष्यों को सदा करना चाहिये॥12॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अजो॑हवीन्नासत्या क॒रा वां॑ म॒हे याम॑न्पुरुभुजा॒ पुरं॑धिः। श्रु॒तं तच्छासु॑रिव वध्रिम॒त्या हिर॑ण्यहस्तमश्विनावदत्तम्॥13॥ अजो॑हवीत्। ना॒स॒त्या॒। क॒रा। वा॒म्। म॒हे। याम॑न्। पु॒रु॒ऽभु॒जा॒। पुर॑म्ऽधिः। श्रु॒तम्। तत्। शासुः॑ऽइव। व॒ध्रि॒ऽम॒त्याः। हिर॑ण्यऽहस्तम्। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒द॒त्त॒म्॥13॥ पदार्थः—(अजोहवीत्) भृशं गृह्णीयात् (नासत्या) असत्याज्ञानविनाशनेन सत्यप्रकाशिनौ (करा) कुर्वाणौ (वाम्) युवयोः (महे) महते (यामन्) याम्ने सुखप्राप्तये। अत्र या धातोरौणादिको मनिन्। (पुरुभुजा) पुरून् बहूनानन्दान् भुङ्क्तस्तौ (पुरन्धिः) बहुविद्यायुक्तः (श्रुतम्) पठितम् (तत्) (शासुरिव) यथा पूर्णविद्यस्याध्यापकस्य सकाशाच्छिष्याः (वध्रिमत्याः) वध्रयः प्रशस्ता वृद्धयो विद्यन्ते यस्यास्तस्याः सत्स्त्रियः। अत्र वृधु धातोरौणादिको रिक् प्रत्ययो बाहुलकात् रेफलोपः। (हिरण्यहस्तम्) हिरण्यं हस्ते यस्मात् तम् (अश्विनौ) शुभगुणविद्याव्यापिनौ (अदत्तम्) दद्यातम्॥13॥ अन्वयः—हे नासत्या पुरुऽभुजाऽश्विनावध्यापकौ! यः पुरन्धिर्विद्वान् वध्रिमत्याः करा महे यामन्नजोहवीद्वां युवयोर्यच्छ्रुतं तच्छासुरिवाजोहवीत् तौ युवां सर्वेभ्यो विद्यां जिज्ञासुभ्यो यद्धिरण्यहस्तं श्रुतं तददत्तं सततं दद्यातम्॥13॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो! यथा विद्वान् विदुष्याः पाणिं गृहीत्वा गृहाश्रमव्यवहारं साधयति तथा बुद्धिमतो विद्यार्थिनः सङ्गृह्य पूर्णं विद्याप्रचारं कुरुत यथा चाध्यापकादध्येतारो विद्याः सङ्गृह्यानन्दिता भवन्ति तथा विद्वांसौ स्त्रीपुरुषौ स्वीयपरकीयापत्येभ्यः सुशिक्षया विद्यां दत्वा सदा प्रमोदेताम्॥13॥ पदार्थः—हे (नासत्या) असत्य अज्ञान के विनाश से सत्य का प्रकाश करने (पुरुभुजा) बहुत आनन्दों के भोगने तथा (अश्विनौ) शुभ गुण और विद्या में व्याप्त होनेवाले अध्यापको! जो (पुरन्धिः) बहुत विद्यायुक्त विद्वान् (वध्रिमत्याः) प्रशंसित जिसकी वृद्धि है, उस उत्तम स्त्री के (करा) कर्म करते हुए दो पुत्रों का (महे) अत्यन्त (यामन्) सुख भोगने के लिये (अजोहवीत्) निरन्तर ग्रहण करे और (वाम्) तुम दोनों का जो (श्रुतम्) सुना-पढ़ा है (तत्) उसको (शासुरिव) जैसे पूर्ण विद्यायुक्त पढ़ानेवाले से शिष्य ग्रहण करे, वैसे निरन्तर ग्रहण करे। वे तुम दोनों विद्या चाहनेवाले सब जनों के लिये जो ऐसा है कि (हिरण्यहस्तम्) जिससे हाथ में सुवर्ण आता है, उस पढ़े सीखे बोध को (अदत्तम्) निरन्तर देवो॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो! जैसे विद्वान् जन विदुषी स्त्री का पाणिग्रहण कर गृहाश्रम के व्यवहार को सिद्ध करे, वैसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों का संग्रह कर पूर्ण विद्याप्रचार को करो और जैसे पढ़ानेवाले से पढ़नेवाले विद्या का संग्रह कर आनन्दित होते हैं, वैसे विद्वान् स्त्री-पुरुष अपने तथा औरों के सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्या देकर सदा प्रमुदित होवें॥13॥ पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥ फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ आ॒स्नो वृक॑स्य॒ वर्ति॑काम॒भीके॑ यु॒वं न॑रा नासत्यामुमुक्तम्। उ॒तो क॒विं पु॑रुभुजा यु॒वं ह॒ कृप॑माणमकृणुतं वि॒चक्षे॑॥14॥ आ॒स्नः। वृक॑स्य। वर्ति॑काम्। अ॒भीके॑। यु॒वम्। न॒रा॒। ना॒स॒त्या॒। अ॒मु॒मु॒क्त॒म्। उ॒तो इति॑। क॒विम्। पु॒रु॒ऽभु॒जा॒। यु॒वम्। ह॒। कृप॑माणम्। अ॒कृ॒णु॒त॒म्। वि॒ऽचक्षे॑॥14॥ पदार्थः—(आस्नः) आस्यान्मुखात् (वृकस्य) (वर्तिकाम्) चटका पक्षिणीमिव (अभीके) कामिते व्यवहारे (युवम्) युवाम् (नरा) सुखप्रापकौ (नासत्या) असत्यविरहौ (अमुमुक्तम्) मोचयतम् (उतो) अपि (कविम्) विद्यापारदर्शिनं मेधाविनम् (पुरुभुजा) पुरून् बहून् जनान् सुखानि भोजयितारौ (युवम्) युवाम् (ह) खलु (कृपमाणम्) कृपां कर्त्तारम्। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (अकृणुतम्) कुरुतम् (विचक्षे) विख्यापयितुम्। अत्र तुमर्थे सेसेन्॰। (अष्टा॰3.4.9)॥14॥ अन्वयः—हे पुरुभुजा नासत्या नरा अश्विनौ! युवं युवामभीके वृकस्यास्न आस्याद् वर्तिकामिव सर्वान् मनुष्यानविद्याजन्यदुःखादमुमुक्तं मोचयतम्। उतो ह खल्वपि युवं सर्वा विद्या विचक्षे कृपमाणं कविमकृणुतम्॥14॥ भावार्थः—मनुष्यैः सुखरूपे सर्वस्याभीष्टे विद्याग्रहणव्यवहाराख्ये सर्वान् मनुष्यान् प्रवर्त्य दुःखफलादन्याय्यात् कर्मणो निवर्त्य सर्वेषां प्राणिनामुपरि कृपां विधाय सुखयितव्यम्॥14॥ पदार्थः—हे (पुरुभुजा) बहुत जनों को सुख को भोग कराने (नासत्या) झूठ से अलग रहने (नरा) और सुखों को पहुंचानेहारे सभा सेनापतियो! (युवम्) तुम दोनों (अभीके) चाहे हुए व्यवहार में (वृकस्य) भेड़िया के (आस्नः) मुख से (वर्तिकाम्) चिरौटी के समान सब मनुष्यों को अविद्याजन्य दुःख से (अमुमुक्तम्) छुड़ाओ (उतो) और (ह) भी (युवम्) तुम दोनों सब विद्याओं को (विचक्षे) विख्यात करने को (कृपमाणम्) कृपा करनेवाले (कविम्) विद्या के पारगंता पुरुष को (अकृणुतम्) सिद्ध करो॥14॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि सुखरूप सबके चाहे हुए विद्या ग्रहण के व्यवहार करने में सब मनुष्यों को प्रवृत्त करके जिसका दुःख फल है, उस अन्यायरूप काम से निवृत्त करके उन सब प्राणियों पर कृपा कर सुख देवें॥14॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ च॒रित्रं॒ हि वेरि॒वाच्छे॑दि प॒र्णमा॒जा खे॒लस्य॒ परि॑तक्म्यायाम्। स॒द्यो जङ्घा॒माय॑सीं वि॒श्पला॑यै॒ धने॑ हि॒ते सर्त॑वे॒ प्रत्य॑धत्तम्॥15॥10॥ च॒रित्र॑म्। हि। वेःऽइ॑व। अच्छे॑दि। प॒र्णम्। आ॒जा। खे॒लस्य॑। परि॑ऽतक्म्यायाम्। स॒द्यः। जङ्घा॑म्। आय॑सीम्। वि॒श्पला॑यै। धने॑। हि॒ते। सर्त॑वे। प्रति॑। अ॒ध॒त्त॒म्॥15॥ पदार्थः—(चरित्रम्) शत्रुशीलम् (हि) प्रसिद्धौ (वेरिव) उड्टीयमानस्य पक्षिण इव (अच्छेदि) छिद्येत (पर्णम्) पक्षम् (आजा) संग्रामे (खेलस्य) खण्डस्य (परितक्म्यायाम्) रात्रौ। परितक्म्या रात्रिः परित एनां तक्म। तक्मेत्युष्णनाम तकत इति सतः। (निरु॰11.25) (सद्यः) शीघ्रम् (जङ्घाम्) हन्ति यया ताम् (आयसीम्) अयोविकाराम् (विश्पलायै) विशां प्रजानां पलायै सुखप्रापिकायै नीत्यै (धने) सुवर्णरत्नादौ (हिते) सुखवर्धके (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम् (प्रति) प्रत्यक्षे (अधत्तम्) भरतम्॥15॥ अन्वयः—हे अश्विनौ! युवाभ्यामाजा परितक्म्यायां खेलस्य चरित्रं वेरिव पर्णं सद्योऽच्छेदि। हिते धने विश्पलायै आयसीं जङ्घां सर्तवे हि प्रत्यधत्तम्॥15॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। भद्रैः प्रजापालनतत्परै राजादिजनैः पक्षिणः पक्षाविव दुष्टचरित्रं युद्धे छेत्तव्यम्। शस्त्रास्त्राणि धृत्वा प्रजाः पालनीयाः। कुतो यः प्रजायाः करो गृह्यते तस्य प्रत्युपकारो रक्षणमेव वेद्यम्॥15॥ पदार्थः—हे सभा सेनाधिपति! तुम दोनों से (आजा) संग्राम में (परितक्म्यायाम्) रात्रि में (खेलस्य) शत्रु के खण्ड का (चरित्रम्) स्वाभाविक चरित्र अर्थात् शत्रुजनों की अलग-अलग बनी हुई टोली-टोली की चालाकियाँ (वेरिव) उड़ते हुए पक्षी का जैसे (पर्णम्) पंख काटा जाये, वैसे (सद्यः) शीघ्र (अच्छेदि) छिन्न-भिन्न की जाये तथा तुम (हिते) सुख बढ़ानेवाले (धने) सुवर्ण आदि धन के (निमित्त) (विश्पलायै) प्रजाजनों को सुख पहुंचानेवाली नीति के लिये (आयसीम्) लोहे के विकार से बनी हुई (जङ्घाम्) जिससे कि मारते हैं उसकी खाल को (सर्त्तवे) शत्रुओं पर जाने अर्थात् चढ़ाई करने के लिये (हि) ही (प्रत्यधत्तम्) प्रत्यक्ष धारण करो॥15॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। प्रजाजनों की पालना करने में अत्यन्त चित्त दिये हुए भद्र राजा आदि जनों को चाहिये कि पखेरू के पंखों के समान दुष्टों के चरित्र को युद्ध में छिन्न-भिन्न करें। शस्त्र और अस्त्रों को धारण कर प्रजाजनों की पालना करें, क्योंकि जो प्रजाजनों से कर लिया जाता है, उसका बदला देना उन प्रजाजनों की रक्षा करना ही समझना चाहिये॥15॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ श॒तं मे॒षान् वृ॒क्ये॑ चक्षदा॒नमृ॒ज्राश्वं॒ तं पि॒तान्धं च॑कार। तस्मा॑ अ॒क्षी ना॑सत्या वि॒चक्ष॒ आध॑त्तं दस्रा भिषजावन॒र्वन्॥16॥ श॒तम्। मे॒षान्। वृ॒क्ये॑। च॒क्ष॒दा॒नम्। ऋ॒ज्रऽअ॑श्वम्। तम्। पि॒ता। अ॒न्धम्। च॒का॒र॒। तस्मै॑। अ॒क्षी इति॑। ना॒स॒त्या॒। वि॒ऽचक्षे॑। आ। अ॒ध॒त्त॒म्। द॒स्रा॒। भि॒ष॒जौ॒। अ॒न॒र्वन्॥16॥ पदार्थः—(शतम्) शतसंख्याकान् (मेषान्) स्पर्द्धकान् (वृक्ये) वृकस्य स्तेनस्य स्त्रियै स्तेन्यै (चक्षदानम्) व्यक्तोपदेशकम्। अत्र चक्षिङ् धातौरौणादिक आनक् प्रत्ययोऽदुगागमश्च बाहुलकात्। (ऋज्राश्वम्) सरलतुरङ्गम् (तम्) (पिता) प्रजापालकौ राजा (अन्धम्) चक्षुर्हीनम् (चकार) कुर्यात् (तस्मै) (अक्षी) चक्षुषी (नासत्या) सत्येन सह वर्त्तमानौ (विचक्षे) विविधदर्शनाय (आ) (अधत्तम्) पुष्येतम् (दस्रा) रोगोपक्षयितारौ (भिषजौ) सद्वैद्यौ (अनर्वन्) अनर्वणोऽविद्यमानज्ञानाय। सुपां सु॰ इति विभक्तिलुक्॥16॥ अन्वयः—यो वृक्ये शतं मेषान् दद्याद् य ईदृगुपदिशेद् यस्स्तेनेषु ऋज्राश्वः स्यात्तं चक्षदानमृज्राश्वं पिताऽन्धमिव दुःखारूढं चकार। हे नासत्या दस्रा भिषजाविव वर्त्तमानावश्विनौ धर्मराजसभाधीशौ! युवां योऽविद्यावान् कुपथगामी जारो रोगी वर्त्तते तस्मा अनर्वन्नविदुषे विचक्षे अक्षी व्यवहारपरमार्थविद्यारूपे अक्षिणी आऽधत्तं समन्तात्पोषयतम्॥16॥ भावार्थः—ससभो राजा हिंसकान् चोरान् लम्पटान् जनान् कारागृहेऽन्धानिव कृत्वोपदेशेन व्यवहारशिक्षया च धार्मिकान् सम्पाद्य धर्मविद्याप्रियान् पथ्यौषधिदानेनारोग्यांश्च कुर्य्यात्॥16॥ पदार्थः—जो (वृक्ये) वृकी अर्थात् चोर की स्त्री के लिये (शतम्) सैकड़ों (मेषान्) ईर्ष्या करनेवालों को देवे वा जो ऐसा उपदेश करे और जो चारों में सूधे घोड़ोंवाला हो (तम्) उस (चक्षदानम्) स्पष्ट उपदेश करने वा (ऋज्राश्वम्) सूधे घोड़ेवाले को (पिता) प्रजाजनों की पालना करनेहारा राजा जैसे (अन्धम्) अन्धा दुःखी होवे वैसा दुःखी (चकार) करे। हे (नासत्या) सत्य के साथ वर्त्ताव रखने और (दस्रा) रोगों का विनाश करनेवाले धर्मराज सभापति (भिषजौ) वैद्यजनों के तुल्य वर्त्ताव रखनेवालो! तुम दोनों जो अज्ञानी कुमार्ग से चलनेवाले व्यभिचारी और रोगी है, (तस्मै) उस (अनर्वन्) अज्ञानी के लिये (विचक्षे) अनेकविध देखने को (अक्षी) व्यवहार और परमार्थ विद्यारूपी आँखों को (आ, अधत्तम्) अच्छे प्रकार पोढ़ी [पुष्ट] करो॥16॥ भावार्थः—सभा के सहित राजा हिंसा करनेवाले, चोर, कपटी, छली मनुष्यों को काराघर में अन्धों के समान रख कर और अपने उपदेश अर्थात् आज्ञारूप शिक्षा और व्यवहार की शिक्षा से धर्मात्मा कर, और विद्या में प्रीति रखनेवालों को उनकी प्रकृति के अनुकूल ओषधि देकर उनको आरोग्य करे॥16॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ वां॒ रथं॑ दुहि॒ता सूर्य॑स्य॒ कार्ष्मे॑वातिष्ठ॒दर्व॑ता॒ जय॑न्ती। विश्वे॑ दे॒वा अन्व॑मन्यन्त हृ॒द्भिः समु॑ श्रि॒या ना॑सत्या सचेथे॥17॥ आ। वा॒म्। रथ॑म्। दु॒हि॒ता। सूर्य॑स्य। कार्ष्म॑ऽइव। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। अर्व॑ता। जय॑न्ती। विश्वे॑। दे॒वाः। अनु॑। अ॒म॒न्य॒न्त॒। हृ॒त्ऽभिः। सम्। ऊ॒म्ऽइति॑। श्रि॒या। ना॒स॒त्या॒। स॒चे॒थे॒ इति॑॥17॥ पदार्थः—(आ) (वाम्) युवयोः सभासेनेशयोः (रथम्) विमानादियानम् (दुहिता) दूरे हिता कन्येव कान्तिरूषाः (सूर्य्यस्य) (कार्ष्मेव) यथा काष्ठादिकं द्रव्यम् (अतिष्ठत्) तिष्ठतु (अर्वता) अश्वेन युक्तम् (जयन्ती) उत्कर्षतां प्राप्नुवती सेना (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (अनु) पश्चात् (अमन्यन्त) मन्यन्ताम् (हृद्भिः) चित्तैः (सम्) (उ) (श्रिया) शुभलक्षणा लक्ष्म्या (नासत्या) सद्विज्ञानप्रकाशकौ (सचेथे) सङ्गच्छेथाम्॥17॥ अन्वयः—हे नासत्या सभासेनेशौ! सूर्य्यस्य दुहितेव कार्ष्मेव वां युवयोर्जयन्ती सेनार्वता युक्तं रथमातिष्ठत् समन्तात्तिष्ठतु। यं विश्वे देवा हृद्भिरन्वमन्यन्त तामु श्रिया युक्तां सेना युवां सं सचेथे॥17॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! अखिलविद्वत्प्रशंसितां शस्त्रास्त्रवाहनसंभारादिसहितां श्रीमतीं सेनां संसाध्य सूर्य्य इव धर्मन्यायं यूयं प्रकाशयत॥17॥ पदार्थः—हे (नासत्या) अच्छे विज्ञान का प्रकाश करनेवाले सभा सेनापति जनो! (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (दुहिता) जो दूरदेश में हित करनेवाली कन्या जैसी कान्ति प्रातःसमय की वेला और (कार्ष्मेव) काठ आदि पदार्थों के समान (वाम्) तुम लोगों की (जयन्ती) शत्रुओं को जीतनेवाली सेना (अर्वता) घोड़े से जुड़े हुए (रथम्) रथ को (आ, अतिष्ठत्) स्थित हो अर्थात् रथ पर स्थित होवे वा जिसको (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् जन (हृद्भिः) अपने चित्तों से (अनु, अमन्यन्त) अनुमान करें, उसको (उ) तो (श्रिया) शुभ लक्षणों वाली लक्ष्मी अर्थात् अच्छे धन से युक्त सेना को तुम लोग (सं, सचेथे) अच्छे प्रकार इकट्ठा करो॥17॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! समस्त विद्वानों ने प्रशंसा की हुई शस्त्र, अस्त्र, वाहन तथा सामग्री आदि सहित धनवती सेना को सिद्ध कर जैसे सूर्य्य अपना प्रकाश करे, वैसे तुम लोग धर्म और न्याय का प्रकाश कराओ॥17॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यदया॑तं॒ दिवो॑दासाय व॒र्तिर्भ॒रद्वा॑जायाश्विना॒ हय॑न्ता। रे॒वदु॑वाह सच॒नो रथो॑ वां वृष॒भश्च॑ शिंशु॒मार॑श्च यु॒क्ता॥18॥ यत्। अया॑तम्। दिवः॑ऽदासाय। व॒र्तिः। भ॒रत्ऽवा॑जाय। अ॒श्वि॒ना॒। हय॑न्ता। रे॒वत्। उ॒वा॒ह॒। स॒च॒नः। रथः॑। वा॒म्। वृ॒ष॒भः। च॒। शिं॒शु॒मारः॑। च॒। यु॒क्ता॥18॥ पदार्थः—(यत्) (अयातम्) प्राप्नुतम् (दिवोदासाय) न्यायविद्याप्रकाशस्य दात्रे (वर्त्तिः) वर्त्तमानम् (भरद्वाजाय) भरन्तः पुष्यन्तः पुष्टिमन्तो वाजा वेगवन्तो योद्धारो तस्य तस्मै (अश्विना) शत्रुसेनाव्यापिनौ (हयन्ता) गच्छन्तौ (रेवत्) बहुधनयुक्तम् (उवाह) वहति (सचनः) सर्वैः सेनाङ्गैः स्वाङ्गैश्च समवेतः (रथः) रमणीयः (वाम्) युवयोः (वृषभः) विजयवर्षकः (च) दृढः (शिंशुमारः) शिंशून् धर्मोल्लङ्घिनः शत्रून् मारयति येन सः (च) तत्सहायकान् (युक्ता) कृतयोगाभ्यासौ॥18॥ अन्वयः—हे हयन्ता युक्ताश्विना सभासेनाधीशौ! युवां दिवोदासाय भरद्वाजाय यद्वर्त्ती रेवदयातं प्राप्नुतम्। यञ्च वां युवयोर्वृषभः शिंशमारः सचनो रथ उवाह तं तच्च सततं संरक्षतम्॥18॥ भावार्थः—राजादिभिः राजपुरुषैः सर्वा स्वसामग्री न्यायेन राज्यपालनायैव विधेया॥18॥ पदार्थः—हे (हयन्ता) चलने (युक्ता) योगाभ्यास करने और (अश्विना) शत्रुसेना मंअ व्याप्त होनेवाले सभा सेना के पतियो! तुम दोनों (दिवोदासाय) न्याय और विद्या के प्रकाश के देनेवाले (भरद्वाजाय) जिसके कि पुष्ट होते हुए पुष्टिमान् वेगवाले योद्धा हैं, उसके लिये (यत्) जिस (वर्त्तिः) वर्त्तमान (रेवत्) अत्यन्त धनयुक्त गृह आदि वस्तु को (अयातम्) प्राप्त होओ (च) और जो (वाम्) तुम दोनों का (वृषभः) विजय की वर्षा करानेहारा (शिंशुमारः) जिससे धर्म को उल्लङ्घ के चलानेहारों का विनाश करता है, जो कि (सचनः) समस्त अपने सेनाङ्गों से युक्त (रथः) मनोहर विमानादि रथ तुम लोगों को चाहे हुए स्थान में (उवाह) पहुंचाता है, उसकी (च) तथा उक्त गृह आदि की रक्षा करो॥18॥ भावार्थः—राजा आदि राजपुरुषों को समस्त अपनी सामग्री न्याय से राज्य की पालना करने ही के लिये बनानी चाहिये॥18॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ र॒यिं सु॑क्ष॒त्रं स्व॑प॒त्यमायुः॑ सु॒वीर्यं॑ नासत्या॒ वह॑न्ता। आ ज॒ह्नावीं॒ सम॑न॒सोप॒ वाजै॒स्त्रिरह्नो॑ भा॒गं दध॑तीमयातम्॥19॥ र॒यिम्। सु॒ऽक्ष॒त्रम्। सु॒ऽअ॒प॒त्यम्। आयुः॑। सु॒ऽवीर्य॑म्। ना॒स॒त्या॒। वह॑न्ता। आ। ज॒ह्नावी॑म्। सऽम॑नसा। उप॑। वाजैः॑। त्रिः। अह्नः॑। भा॒गम्। दध॑तीम्। अ॒या॒त॒म्॥19॥ पदार्थः—(रयिम्) श्रीसमूहम् (सुक्षत्रम्) शोभनं राज्यम् (स्वपत्यम्) शोभनं सन्तानम् (आयुः) चिरञ्जीवनम् (सुवीर्यम्) उत्तमं पराक्रमम् (नासत्या) सत्यपालकौ सन्तौ (वहन्ता) प्राप्नुवन्तौ (आ) (जह्नावीम्) जहत्यास्त्याज्यायाः शत्रुसेनाया इमां विरोधिनीं सेनाम्। अत्र जहातेर्द्वेऽन्त्यलोपश्च। (उणा॰3.36) इति हाधातो नुस्ततस्तस्येदमित्यण्। पृषोदरादित्वाद्वर्णविपर्ययः। (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्तौ (उप) (वाजैः) ज्ञानवेगयुक्तैर्भृत्यादिभिः सह वर्त्तमानम् (त्रिः) त्रिवारम् (अह्नः) दिवसस्य (भागम्) भजनीयं समयम् (दधतीम्) धरन्तीम् (अयातम्) प्राप्नुतम्॥19॥ अन्वयः—हे समनसा वहन्ता नासत्याश्विनौ सभासेनेशौ! युवां सनातनन्यायसेवनाद्रयिं सुक्षत्रं स्वपत्यमायुः सुवीर्यं वाजैः सह वर्तमानां जह्नावीमह्नो भागं त्रिर्दधतीं सेनामुपायातं सम्यक् प्राप्नुतम्॥19॥ भावार्थः—नहि कश्चिद्विद्यासत्यन्यायसेवनमन्तरैतानि धनादीनि प्राप्य रक्षित्वा सुखं कर्त्तुं शक्नोति तस्माद्धर्मसेवनेनैव राज्यादिकं प्राप्तुं शक्यम्॥19॥ पदार्थः—हे (समनसा) समान विज्ञानवाले (वहन्ता) उत्तम सुख को प्राप्त हुए (नासत्या) सत्यधर्मपालक सभा सेना के अधिपतियो! तुम दोनों सनातन न्याय के सेवन से (रयिम्) धनसमूह (सुक्षत्रम्) अच्छे राज्य (स्वपत्यम्) अच्छे सन्तान (आयुः) चिरकाल जीवन (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम को और (वाजैः) ज्ञान वा वेगयुक्त भृत्यादिकों के साथ वर्त्तमान (जह्नावीम्) छोड़ने योग्य शत्रुओं की सेना की विरोधिनी इस सेना को तथा (अह्नः) दिन के (भागम्) सेवने योग्य विभाग अर्थात् समय को और (त्रिः) तीन वार (दधतीम्) धारण करती हुई सेना के (उप, आ, अयातम्) समीप अच्छे प्रकार प्राप्त होओ॥19॥ भावार्थः—कोई विद्या और सत्यन्याय के सेवन के विना इन धन आदि पदार्थों को प्राप्त हो और इनकी रक्षा कर सुख नहीं कर सकता है, इससे धर्म के सेवन से ही राज्य आदि प्राप्त हो सकता है॥19॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ परि॑विष्टं जाहु॒षं वि॒श्वतः॑ सीं सु॒गेभि॒र्नक्त॑मूहथू॒ रजो॑भिः। वि॒भि॒न्दुना॑ नासत्या॒ रथे॑न॒ वि पर्व॑ताँ अजर॒यू अ॑यातम्॥20॥11॥ परि॑ऽविष्टम्। जा॒हु॒षम्। वि॒श्वतः॑। सी॒म्। सु॒ऽगेभिः॑। नक्त॑म्। ऊ॒ह॒थुः॒। रजः॑ऽभिः। वि॒ऽभि॒न्दुना॑। ना॒स॒त्या॒। रथे॑न। वि। पर्व॑तान्। अ॒ज॒र॒यू इति॑। अ॒या॒त॒म्॥20॥ पदार्थः—(परिविष्टम्) सर्वतो व्याप्नुतम् (जाहुषम्) जहुषां गन्तव्यानामिदं गमनम्। अत्र ओहाङ्गतावित्यस्मादौणादिक उसिस्ततस्तस्येदमित्यण्। (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) मर्य्यादाम् (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैर्मार्गैः (नक्तम्) रात्रिम् (ऊहथुः) वहतम् (रजोभिः) लौकैः (विभिन्दुना) विविधभेदकेन (नासत्या) (रथेन) (वि) (पर्वतान्) मेघान् शैलान् वा (अजरयू) जरादिदोषरहितौ (अयातम्) प्राप्नुयातम्॥20॥ अन्वयः—हे नासत्या! युवां यथाऽजरयू सूर्याचन्द्रमसौ सुगेभी रजोभिर्लोकैः सह नक्तं पर्वतान् मेघान् वहतस्तथा विभिन्दुना रथेन सैन्यमूहथुः। विश्वतः सीं परिविष्टं जाहुषं राज्यं प्राप्य पर्वततुल्यान् शत्रून् व्ययातम्॥20॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्काराः। यथा राजसभासदो धर्म्यमार्गै राज्यं प्राप्य दुर्गस्थान् पर्वतादिस्थांश्चापि शत्रून् वशीकृत्य स्वप्रभावं प्रकाशयन्ति तथा सूर्याचन्द्रमसौ पृथिवीस्थान् पदार्थान् प्रकाशयतः। यथैतयोरसन्निहितेऽन्धकारो जायते तथैतेषामभावेऽन्यायतमः प्रवर्त्तते॥20॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्य धर्म के पालनेहारे सभासेनाधीशो! तुम दोनों जैसे (अजरयू) जीर्णता आदि दोषों से रहित सूर्य और चन्द्रमा (सुगेभिः) जिनमें कि सुख से गमन हो उन मार्ग और (रजोभिः) लोकों के साथ (नक्तम्) रात्रि और (पर्वतान्) मेघ वा पहाड़ों को यथायोग्य व्यवहारों में लाते हैं, वैसे (विभिन्दुना) विविध प्रकार से छिन्न-भिन्न करनेवाले (रथेन) रथ से सेना को यथायोग्य कार्य में (ऊहथुः) पहुंचाओ, (विश्वतः) सब ओर से (सीम्) मर्यादा को (परिविष्टम्) व्याप्त होओ, (जाहुषम्) प्राप्त होने योग्य नगरादि के राज्य को पाकर पर्वत के तुल्य शत्रुओं को (वि, अयातम्) विभेद कर प्राप्त होओ॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे राजा के सभासद् जन धर्म के अनुकूल मार्गों से राज्य पाकर किला में वा पर्वत आदि स्थानों में ठहरे हुए शत्रुओं को वश में करके अपने प्रभाव को प्रकाशित करते हैं, वैसे सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। जैसे इन सूर्य्य और चन्द्रमा के निकट न होने से अन्धकार उत्पन्न होता है, वैसे राजपुरुषों के अभाव में अन्यायरूपी अन्धकार प्रवृत हो जाता है॥20॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ एक॑स्या वस्तो॑रावतं॒ रणा॑य॒ वश॑मश्विना स॒नये॑ स॒हस्रा॑। निर॑हतं दु॒च्छुना॒ इन्द्र॑वन्ता पृथु॒श्रव॑सो वृषणा॒वरा॑तीः॥21॥ एक॑स्याः। वस्तोः। आ॒व॒त॒म्। रणा॑य। वश॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। स॒नये॑। स॒हस्रा॑। निः। अ॒ह॒त॒म्। दु॒च्छुनाः॑। इन्द्र॑ऽवन्ता। पृ॒थु॒ऽश्रव॑सः। वृ॒ष॒णौ॒। अरा॑तीः॥21॥ पदार्थः—(एकस्याः) सेनायाः (वस्तोः) दिनस्य मध्ये (आवतम्) विजयं कामयतम् (रणाय) संग्रामाय (वशम्) स्वाधीनताम् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ (सनये) राज्यसेवनाय (सहस्रा) असंख्यातानि धनादिवस्तूनि (निः) नितराम् (अहतम्) हन्याताम् (दुच्छुनाः) दुर्गतं शुनं सुखं याभ्यस्ताः। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य तः। शुनमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं॰3.6) (इन्द्रवन्ता) बह्वैश्वर्ययुक्तौ (पृथुश्रवसः) पृथूनि विस्तृतानि श्रवांस्यन्नानि यासां ताः (वृषणौ) शस्त्रास्त्रवर्षयितारौ बलवन्तौ (अरातीः) सुखदानरहिताः शत्रुसेनाः॥21॥ अन्वयः—हे वृषणाविन्द्रवन्ताश्विना सभासेनेशौ! दुच्छुना यथा तमो मेघांश्च सूर्य्यो जयति तथैकस्याः सेनाया रणाय प्रेषणेन वस्तोर्दिनस्य मध्ये स्वसेनामावतं वशं सहस्रा सनये पृथुश्रवसोऽरातीः शत्रुसेना निरहतम्॥21॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्याचन्द्रमसोरुदयेन तमो निवृत्य सर्वे प्राणिन आनन्दन्ति तथा धर्मव्यवहारेण शत्रूणामधर्मस्य च निवृत्या धार्मिकाः सुराज्ये सुखयन्ति॥21॥ पदार्थः—हे (वृषणौ) शस्त्र-अस्त्र की वर्षा करनेवाले (इन्द्रवन्ता) बहुत ऐश्वर्ययुक्त (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा के तुल्य सभा और सेना के अधीशो! (दुच्छुनाः) जिससे सुख निकल गया, उन शत्रु सेनाओं को जैसे अन्धकार और मेघों को सूर्य्य जीतता है, वैसे (एकस्याः) एक सेना के (रणाय) संग्राम के लिये जो पठाना है, उससे (वस्तोः) एक दिन के बीच (आवतम्) अपनी सेना के विजय को चाहो और उन सेनाओं को अपने (वशम्) वश में लाकर (सहस्रा) (सनये) हजारों धनादि पदार्थों को भोगने के लिये (पृथुश्रवसः) जिनके बहुत अन्न आदि पदार्थ हैं और (अरातीः) जो किसी को सुख नहीं देती उन शत्रुसेनाओं को (निरहतम्) निरन्तर मारो॥21॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा के उदय से अन्धकार की निवृत्ति होकर सब प्राणी सुखी होते हैं, वैसे धर्मरूपी व्यवहार से शत्रुओं और अधर्म की निवृत्ति होने से धर्मात्मा जन अच्छे राज्य में सुखी होते हैं॥21॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ श॒रस्य॑ चिदार्च॒त्कस्या॑व॒तादा नी॒चादु॒च्चा च॑क्रथुः॒ पात॑वे॒ वाः॥ श॒यवे॑ चिन्नासत्या॒ शची॑भि॒र्जसु॑रये स्त॒र्यं॑ पिप्यथु॒र्गाम्॥22॥ श॒रस्य॑। चित्। आ॒र्च॒त्ऽकस्य॑। अ॒व॒तात्। आ। नी॒चात्। उ॒च्चा। च॒क्र॒थुः॒। पात॑वे। वारिति॒ वाः। श॒यवे॑। चि॒त्। ना॒स॒त्या॒। शची॑भिः। जसु॑रये। स्त॒र्य॑म्। पि॒प्य॒थुः॒। गाम्॥22॥ पदार्थः—(शरस्य) हिंसकस्य सकाशात् (चित्) अपि (आर्चत्कस्य) अर्चतः सत्कुर्वतः शिष्टस्यानुकम्पकस्य। अत्रार्चधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽतिः प्रत्ययस्ततोऽनुकम्पायां कः। (अवतात्) हिंसकाद् रक्षकाद्वा (आ) (नीचात्) निकृष्टानि कर्माणि सेवमानात् (उच्चा) उच्चादुत्कृष्टकर्मसेवमानात्। अत्र सुपां सुलुगिति पञ्चम्यैकवचनस्याकारादेशः। (चक्रथुः) कुर्य्याताम् (पातवे) पातुम् (वाः) वारि। वारित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (शयवे) शयानाय (चित्) अपि (नासत्या) सत्यविज्ञानौ (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (जसुरये) हिंसकाय (स्तर्यम्) स्तरीषु नौकादियानेषु साधुम् (पिप्यथुः) वर्द्धेथाम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (गाम्) पृथिवीम्॥22॥ अन्वयः—हे नासत्या! युवां शचीभिः शरस्य सकाशादागतान्नीचादवताच्चिदप्यार्चत्कस्य सकाशादागतादुच्चावतात् प्रजाः पातवे बलमाचक्रथुः चिदपि शयवे जसुरये स्तर्यं वार्गां च पिप्यथुः॥22॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं शत्रुनाशकस्य मित्रपूजकस्य जनस्य सत्कारं कुरुत तस्मै पृथिवीं दद्यात् च। यथा वायुसूर्यौ भूमिवृक्षेभ्यो जलमुत्कृष्य वर्षयित्वा सर्वं वर्धयतस्तथैवोत्कृष्टैः कर्मभिर्जगद्वर्धयत॥22॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्यविज्ञानयुक्त सभासेनाधीशो! तुम दोनों (शचीभिः) अपनी बुद्धियों से (शरस्य) मारनेवाले की ओर से आये (नीचात्) नीच कामों का सेवन करते हुए (अवतात्) हिंसा करने वाले से (चित्) और (आर्चत्कस्य) दूसरों की प्रशंसा करने वा सत्कार करते हुए शिष्टजन की ओर से आये (उच्चा) उत्तम कर्म को सेवते हुए रक्षा करनेवाले से प्रजाजनों को (पातवे) पालने के लिये बल को (आ, चक्रथुः) अच्छे प्रकार करो (चित्) और (शयवे) सोते हुए और (जसुरये) हिंसक जनों के लिये (स्तर्य्यम्) जो नौका आदि यानों में अच्छा है, उस (वाः) जल और (गाम्) पृथिवी को (पिप्यथुः) बढ़ाओ॥22॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम शत्रुओं के नाशक और मित्रजनों की प्रशंसा करनेवाले जन का सत्कार करो और उसके लिये पृथिवी देओ, जैसे पवन और सूर्य भूमि और वृक्षों से जल को खैंच और वर्षा कर सबको बढ़ाते हैं, वैसे ही उत्तम कामों से संसार को बढ़ाओ॥22॥ अथाध्यापकोपदेशकौ किं कुर्यातामित्याह॥ अब पढ़ाने और उपदेश करनेवाले क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒व॒स्य॒ते स्तु॑व॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ ऋजूय॒ते ना॑सत्या॒ शची॑भिः। प॒शुं न न॒ष्टमि॑व॒ दर्श॑नाय विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय॥23॥ अ॒व॒स्य॒ते। स्तु॒व॒ते। कृ॒ष्णि॒याय॑। ऋ॒जु॒ऽय॒ते। ना॒स॒त्या॒। शची॑भिः। प॒शुम्। न। न॒ष्टम्ऽइ॑व। दर्श॑नाय। वि॒ष्णा॒प्व॑म्। द॒द॒थुः॒। विश्व॑काय॥23॥ पदार्थः—(अवस्यते) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छते (स्तुवते) धर्मं श्लाघमानाय (कृष्णियाय) कृष्णमाकर्षणमर्हाय। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति घः। (ऋजूयते) ऋजुरिवाचरति तस्मै (नासत्या) असत्यत्यागेन सत्यग्रहिणौ (शचीभिः) सुशिक्षिकाभिर्वाग्भिः (पशुम्) (न) इव (नष्टमिव) यथाऽदर्शनं प्राप्तं वस्तु (दर्शनाय) प्रेक्षमाणाय (विष्णाप्वम्) विष्णान् विद्याव्यापिनो विदुष आप्नोति बोधस्तम्। अत्र विष्लृ धातोर्नक् तत आप्लृधातोरू। वा छन्दसीति पूर्वसवर्णप्रतिषेधाद्यण्। (ददथुः) दद्यातम् (विश्वकाय) विश्वस्याऽनुकम्पकाय॥23॥ अन्वयः—हे नासत्योपदेशकाध्यापकौ! युवां शचीभिरवस्यते स्तुवत ऋजूयते कृष्णियाय विश्वकाय दर्शनाय पशुं न नष्टमिव विष्णाप्वं ददथुः॥23॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारौ। आप्ता उपदेशकाध्यापका जना यथा प्रत्यक्षं गवादिकमदृष्टं वस्तु वा दर्शयित्वा साक्षात्कारयन्ति तथा शमादिगुणान्वितेभ्यो धीमद्भ्यः श्रोतृभ्योऽध्येतृभ्यश्च पृथिवीमारभ्येश्वरपर्यन्तानां पदार्थानां साङ्गोपाङ्गा विद्याः साक्षात्कारयन्तु नात्र कपटालस्यादिकुत्सितं कर्म कदाचित्कुर्य्युः॥23॥ पदार्थः—हे (नासत्या) असत्य के छोड़ने से सत्य के ग्रहण करने, पढ़ाने और उपदेश करनेवालो! तुम दोनों (शचीभिः) अच्छी शिक्षा देनेवाली वाणियों से (अवस्यते) अपनी रक्षा और (स्तुवते) धर्म को चाहते हुए (ऋजूयते) सीधे स्वभाववाले के समान वर्त्तनेवाले (कृष्णियाय) आकर्षण के योग्य अर्थात् बुद्धि जिसको चाहती उस (विश्वकाय) संसार पर दया करनेवाले (दर्शनाय) धर्म-अधर्म को देखते हुये मनुष्य के लिये (पशुम्, न) जैसे पशु को प्रत्यक्ष दिखावे वैसे और जैसे (नष्टमिव) खोए हुए वस्तु को ढूंढ़ के बतावें, वैसे (विष्णाप्वम्) विद्या में रमे हुए विद्वानों को जो बोध प्राप्त होता है, उसको (ददथुः) देओ॥23॥ भावार्थः—इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। शास्त्र के वक्ता, उपदेश करने और विद्या पढ़ानेवाले विद्वान् जन जैसे प्रत्यक्ष गौ आदि पशु को वा छिपे हुए वस्तु को दिखाकर प्रत्यक्ष कराते हैं, वैसे शम्, दम आदि गुणों से युक्त बुद्धिमान् श्रोता वा अध्येताओं को पृथिवी से लेके ईश्वर पर्य्यन्त पदार्थों का विज्ञान देनेवाली साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्रत्यक्ष करावे और इस विषय में कपट और आलस्य आदि निन्दित कर्म कभी न करें॥23॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दश॒ रात्री॒रशि॑वेना॒ नव॒ द्यूनव॑नद्धं श्नथि॒तम॒प्स्वन्तः। विप्रु॑तं रे॒भमु॒दनि॒ प्रवृ॑क्त॒मुन्नि॑न्यथुः॒ सोम॑मिव स्रु॒वेण॑॥24॥ दश॑। रात्रीः॑। नव॑। द्यून्। अव॑ऽनद्धम्। श्न॒थि॒तम्। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तरिति॑। विऽप्रु॑तम्। रे॒भम्। उ॒दनि॑। प्रऽवृ॑क्तम्। उत्। नि॒न्य॒थुः॒। सोम॑म्ऽइव। स्रु॒वेण॑॥24॥ पदार्थः—(दश) (रात्रीः) (अशिवेन) असुखेन। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नव) (द्यून्) दिनानि (अवनद्धम्) अधोबद्धम् (श्नथितम्) शिथिलीकृतं नौकादिकम् (अप्सु) जलेषु (अन्तः) आभ्यन्तरे (विप्रुतम्) विप्रवमाणम् (रेभम्) स्तोतारम्। रेभ इति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं॰3.16) (उदनि) उदके। पदन्न॰ इत्युदकस्योदन्नादेशः। (प्रवृक्तम्) प्रवर्जितम् (उत्) ऊर्ध्वम् (निन्यथुः) नयतम् (सोममिव) यथा सोमवल्ल्यादि हविः (स्रुवेण) उत्थापकेन यज्ञपात्रेण॥24॥ अन्वयः—हे नासत्या युवां यथा शचीभिरशिवेनामङ्गलकारिणा युद्धेन सह वर्त्तमानौ शिल्पिनाववनद्धं श्नथितमुदनि विप्रुतं प्रवृक्तं नौकादिकं दश रात्रीर्नव द्यूनप्स्वन्तः संस्थाप्य पुनरूर्ध्वं नयत एवं स्रुवेण सोममिव रेभमुन्निन्यथुः॥24॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। पूर्वस्मान् मन्त्रान् नासत्या शचीभिरति पदद्वयमनुवर्त्तते। हे जना! यथा जलाभ्यन्तरे नौकादिषु स्थिताः सेनाः शत्रुभिर्हन्तुं न शक्यन्ते तथा विद्यासत्यधर्मोपदेशेषु स्थापिता जना अविद्याजन्यदुःखेन न पीड्यन्ते। यथा समये शिल्पिनो नौकादिकं जल इतस्ततो नीत्वा शत्रून् विजयन्ते तथा विद्यादानेनाविद्यां यूयं विजयध्वम्, यथा यज्ञे हुतं द्रव्यं वायुजलादिशुद्धिकरं जायते तथा सदुपदेश आत्मशुद्धिकरो भवति॥24॥ पदार्थः—हे (नासत्या) असत्य को छोड़कर कर सत्य का ग्रहण करने, पढ़ाने और उपदेश करनेवालो! तुम दोनों जैसे (शचीभिः) अच्छी शिक्षा देनेवाली वाणियों से (अशिवेन) अमङ्गल करनेवाले युद्ध के साथ वर्त्तमान शिल्पी जन (अवनद्धम्) नीचे से बँधी (श्नथितम्) ढीली की हुई (उदनि) जल में (विप्रुतम्) चलाई (प्रवृक्तम्) और इधर-उधर जाने से रोकी हुई नौका आदि को (दश) दश (रात्रीः) रात्रि (नव) नौ (द्यून्) दिनों तक (अप्सु) जलों में (अन्तः) भीतर स्थिर कर फिर ऊपर को पहुंचावें उस ढंग से और जैसे (स्रुवेण) घी आदि के उठाने के साधन स्रुवा से (सोममिव) सोमलतादि ओषधियों को उठाते हैं, वैसे (रेभम्) सबकी प्रशंसा करनेहारे अच्छे सज्जन को (उन्निन्यथुः) उन्नति को पहुंचाओ॥24॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। पिछले मन्त्र से (नासत्या, शचीभिः) इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। हे मनुष्यो! जैसे जल के भीतर नौका आदि में स्थित हुई सेना शत्रुओं से मारी नहीं जा सकती, वैसे विद्या और सत्यधर्म के उपदेशों में स्थापित किये हुए जन अविद्याजन्य दुःख से पीड़ा नहीं पाते। जैसे नियत समय पर कारीगर लोग नौकादि यानों को जल में इधर-उधर ले जाके शत्रुओं को जीतते हैं, वैसे विद्यादान से अविद्याओं को आप जीतो। जैसे यज्ञकर्म में होमा हुआ द्रव्य वायु और जल आदि की शुद्धि करनेवाला होता है, वैसे सज्जनों का उपदेश आत्मा की शुद्धि करनेवाला होता है॥24॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र वां॒ दंसां॑स्यश्विनाववोचम॒स्य पतिः॑ स्यां सु॒गवः॑ सु॒वीरः॑। उ॒त पश्य॑न्नश्नु॒वन् दी॒र्घमायु॒रस्त॑मि॒वेज्ज॑रि॒माणं॑ जगम्याम्॥25॥12॥ प्र। वा॒म्। दंसां॑सि। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒वो॒च॒म्। अ॒स्य। पतिः॑। स्या॒म्। सु॒ऽगवः॑। सु॒ऽवीरः॑। उ॒त। पश्य॑न्। अ॒श्नु॒वन्। दी॒र्घम्। आयुः॑। अस्त॑म्ऽइव। इत्। ज॒रि॒माण॑म्। ज॒ग॒म्या॒म्॥25॥ पदार्थः—(प्र) (वाम्) युवयोरुपदेशकाध्यापकयोः (दंसांसि) उपदेशाध्यापनादीनि कर्माणि (अश्विनौ) सर्वशुभकर्मविद्याव्यापिनौ (अवोचम्) वदेयम् (अस्य) व्यवहारस्य राज्यस्य वा (पतिः) पालकः (स्याम्) भवेयम् (सुगवः) शोभना गावो यस्य (सुवीरः) शोभनपुत्रादिभृत्यः (उत) अपि (पश्यन्) सत्यासत्यं प्रेक्षमाणः (अश्नुवन्) विद्यासुखेन व्याप्नुवन् (दीर्घम्) वर्षशतादप्यधिकम् (आयुः) जीवनम् (अस्तमिव) गृहं प्राप्येव (जरिमाणम्) प्राप्तजरसं देहम् (इत्) एव (जगम्याम्) भृशं गच्छेयम्॥25॥ अन्वयः—हे अश्विनावहं वां युवयोर्दंसांसि प्रावोचं तेन सुगवः सुवीरः पश्यन्नुतापि दीर्घमायुरश्नुवन् सन्नस्य पतिः स्याम्। परिव्राजकोऽस्तमिव जरिमाणं देहं त्यक्त्वा सुखेनेज्जगम्याम्॥25॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्याः सदा धार्मिकाणामाप्तानां कर्माणि संसेव्य धर्मजितेन्द्रियत्वाभ्यां विद्याः प्राप्यायुर्वर्धयित्वा सुसहायाः सन्तो जगत्पालयेयुः। योगाभ्यासेन जीर्णानि शरीराणि त्यक्त्वा विज्ञानान्मुक्तिं च गच्छेयुरिति॥25॥ अत्र पृथिव्यादिपदार्थगुणदृष्टान्तेनानुकूलतया सभासेनापत्यादिगुणकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति द्वादशो 12 वर्गः षोडशोत्तरशततमस्य 116 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (अश्विनौ) समस्त शुभ कर्म और विद्या में रमे हुए सज्जनो! मैं (वाम्) तुम दोनों उपदेश करने और पढ़ानेवालों के (दंसांसि) उपदेश और विद्या पढ़ाने आदि कामों को (प्र, अवोचम्) कहूं उससे (सुगवः) अच्छी-अच्छी गौ और उत्तम-उत्तम वाणी आदि पदार्थोंवाला (सुवीरः) पुत्र-पौत्र आदि भृत्ययुक्त (पश्यन्) सत्य-असत्य को देखता (उत) और (दीर्घम्) बड़ी (आयुः) आयुर्दा को (अश्नुवन्) सुख से व्याप्त हुआ (अस्य) इस राज्य वा व्यवहार का (पतिः) पालनेवाला (स्याम्) होऊं तथा संन्यासी महात्मा जैसे (अस्तमिव) घर को पाकर निर्लोभ से छोड़ दे, वैसे (जरिमाणम्) बुड्ढे हुए शरीर को छो़ड़ सुख से (इत्) ही (जगम्यात्) शीघ्र चला जाऊं॥25॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य सदा धार्मिक शास्त्रवक्ताओं के कर्मों को सेवन कर धर्म और जितेन्द्रियपन से विद्याओं को पाकर आयुर्दा बढ़ा के अच्छे सहाययुक्त हुए संसार की पालना करें और योगाभ्यास से जीर्ण अर्थात् बुड्ढे शरीरों को छोड़ विज्ञान से मुक्ति को प्राप्त होवें॥25॥ इस सूक्त में पृथिवी आदि पदार्थों के गुणों के दृष्टान्त तथा अनुकूलता से सभासेनापति आदि के गुण कर्मों के वर्णन से इस सूक्त में कहे अर्थ की पिछले सूक्त में कहे अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥ यह बारहवाँ 12 वर्ग और एक सौ सोलहवाँ 116 सूक्त समाप्त हुआ॥

अथास्य पञ्चविंशत्यृचस्य सप्तदशोत्तरशततमस्य सूक्तस्य कक्षीवानृषिः। अश्विनौ देवते। 1 निचृत् पङ्क्तिः। 6,22 विराट् पङ्क्तिः। 11,21,25 भुरिक् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 2,4,7,12,16-19 निचृत् त्रिष्टुप्। 8-10, 13-15,20,23 विराट् त्रिष्टुप्। 3,5,24 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ राजधर्मविषयमाह। अब एक सौ सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है॥ मध्वः॒ सोम॑स्याश्विना॒ मदा॑य प्र॒त्नो होता वि॑वासते वाम्। ब॒र्हिष्म॑ती रा॒तिर्विश्रि॑ता॒ गीरि॒षा या॑तं नास॒त्योप॒॒ वाजैः॑॥1॥ मध्वः॑। सोम॑स्य। अ॒श्वि॒ना॒। मदा॑य। प्र॒त्नः। होता॑। आ। वि॒वा॒स॒ते॒। वा॒म्। ब॒र्हिष्म॑ती। रा॒तिः। विऽश्रि॑ता। गीः। इ॒षा। या॒त॒म्। ना॒स॒त्या॒। उप॑। वाजैः॑॥1॥ पदार्थः—(मध्वः) मधुरस्य (सोमस्य) सोमवल्ल्याद्यौषधस्य। अत्र कर्मणि षष्ठी। (अश्विना) (मदाय) रोगनिवृत्तेरानन्दाय (प्रत्नः) प्राचीनविद्याध्येता (होता) सुखदाता (आ) (विवासते) परिचरति (वाम्) युवयोः (बर्हिष्मती) प्रशस्तवृद्धियुक्ता (रातिः) दत्तिः (विश्रिता) विविधैराप्तैः श्रिता सेविता (गीः) वाग् (इषा) स्वेच्छया (यातम्) प्राप्नुतम् (नासत्या) असत्यात्पृथग्भूतौ (उप) (वाजैः) विज्ञानादिभिर्गुणैः॥1॥ अन्वयः—हे अश्विना! नासत्या युवामिषा प्रत्नो होता वाजैर्मदाय वां युवयोर्मध्वः सोमस्य या बर्हिष्मती रातिर्विश्रिता गौश्चास्ति तां विवासत इवोपयातम्॥1॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे सभासेनेशावाप्तगुणकर्मसेवया विज्ञानादिकमुपगम्य शरीररोगनिवारणाय सोमाद्योषधिविद्याऽविद्यानिवारणाय विद्याश्च संसेव्याभीष्टं सुखं सम्पादयेतम्॥1॥ पदार्थः—हे (अश्विना) विद्या में रमे हुए (नासत्या) झूठ से अलग रहनेवाले सभा सेनाधीशो! तुम दोनों (इषा) अपनी इच्छा से (प्रत्नः) पुरानी विद्या पढ़नेहारा (होता) सुखदाता जैसे (वाजैः) विज्ञान आदि गुणों के साथ (मदाय) रोग दूर होने के आनन्द के लिये (वाम्) तुम दोनों को (मध्वः) मीठी (सोमस्य) सोमवल्ली आदि औषध की जो (बर्हिष्मती) प्रशंसित बढ़ी हुई (रातिः) दानक्रिया और (विश्रिता) विविध प्रकार के शास्त्रवक्ता विद्वानों से सेवन की हुई (गीः) वाणी है, उसका जो (आ, विवासते) अच्छे प्रकार सेवन करता है, उसके समान (उप, यातम्) समीप आ रही अर्थात् उक्त अपनी क्रिया और वाणी का ज्यों का त्यों प्रचार करते रहो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सभा और सेना के अधीशो! तुम उत्तम शास्त्रवेत्ता विद्वानों के गुण और कर्मों की सेवा से विशेष ज्ञान आदि को पाकर शरीर के रोग दूर करने के लिये सोमवल्ली आदि ओषधियों की विद्या और अविद्या अज्ञान के दूर करने को विद्या का सेवन कर चाहे हुए सुख की सिद्धि करो॥1॥ पुना राजधर्ममाह॥ फिर राजधर्म को अगले मन्त्र में कहते हैं॥ यो वा॑मश्विना॒ मन॑सो॒ जवी॑या॒न् रथः॒ स्वश्वो॒ विश॑ आ॒जिगा॑ति। येन॒ गच्छ॑थः सु॒कृतो॑ दुरो॒णं तेन॑ नरा व॒र्तिर॒स्मभ्यं॑ यातम्॥2॥ यः। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। मन॑सः। जवी॑यान्। रथः॑। सु॒ऽअश्वः॑। विशः॑। आ॒ऽजिगा॑ति। येन॑। गच्छ॑थः। सु॒ऽकृतः॑। दु॒रो॒णम। तेन॑। न॒रा॒। व॒र्तिः। अ॒स्मभ्य॑म्। या॒त॒म्॥2॥ पदार्थः—(यः) (वाम्) युवयोः (अश्विना) मनस्विनौ (मनसः) मननशीलाद्वेगवत्तरात् (जवीयान्) अतिशयेन वेगयुक्तः (रथः) युद्धक्रीडासाधकतमः (स्वश्वः) शोभना अश्वा वेगवन्तो विद्युदादयस्तुरङ्गा वा यस्मिन् सः (विशः) प्रजाः (आजिगाति) समन्तात्प्रशंसयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (येन) (गच्छथः) (सुकृतः) सुष्ठु साधनैः कृतो निष्पादितः (दुरोणम्) गृहम् (तेन) (नरा) न्यायनेतारौ (वर्त्तिः) वर्त्तमानम् (अस्मभ्यम्) (यातम्) प्राप्नुतम्॥2॥ अन्वयः—हे नराश्विना सभासेनेशौ! यः सुकृतः स्वश्वो मनसो जवीयान् रथोऽस्ति, स विश आजिगाति वा युवां येन रथेन वर्त्तिर्दुरोणं गच्छथस्तेनास्मभ्यं यातम्॥2॥ भावार्थः—राजपुरुषैर्मनोवद्वेगानि विद्युदादियुक्तानि विविधानि यानान्यास्थाय प्रजाः संतोषितव्या। येन येन कर्मणा प्रशंसा जायेत तत्तदेव सततं सेवितव्यं नेतरत्॥2॥ पदार्थः—हे (नरा) न्याय की प्राप्ति करानेवाले (अश्विना) विचारशील सभा सेनाधीशो! (यः) जो (सुकृतः) अच्छे साधनों से बनाया हुआ (स्वश्वः) जिसमें अच्छे वेगवान् बिजुली आदि पदार्थ वा घोड़े लगे हैं, वह (मनसः) विचारशील अत्यन्त वेगवान् मन से भी (जवीयान्) अधिक वेगवाला और (रथः) युद्ध की अत्यन्त क्रीड़ा करानेवाला रथ है, वह (विशः) प्रजाजनों की (आजिगाति) अच्छे प्रकार प्रशंसा कराता और (वाम्) तुम दोनों (येन) जिस रथ से (वर्त्तिः) वर्त्तमान (दुरोणम्) घर को (गच्छथः) जाते हो (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों को (यातम्) प्राप्त हूजिये॥2॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि मन के समान वेगवाले, बिजुली आदि पदार्थों से युक्त, अनेक प्रकार के रथ आदि यानों को निश्चित कर प्रजाजनों को सन्तोष देवें। और जिस-जिस कर्म से प्रशंसा हो, उसी-उसी का निरन्तर सेवन करें, उससे और कर्म का सेवन न करें॥2॥ अथाध्ययनाऽध्यापनाख्यमाह॥ अब पढ़ने और पढ़ाने रूप राजधर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ऋषिं॑ नरा॒वंह॑सः॒ पाञ्च॑जन्यमृ॒बीसा॒दत्रिं॑ मुञ्चथो ग॒णेन॑। मि॒नन्ता॒ दस्यो॒रशि॑वस्य मा॒या अ॑नुपू॒र्वं वृ॑षणा चो॒दय॑न्ता॥3॥ ऋषि॑म्। न॒रौ॒। अंह॑सः। पाञ्च॑ऽजन्यम्। ऋ॒बीसा॑त्। अत्रि॑म्। मु॒ञ्च॒थः॒। ग॒णेन॑। मि॒नन्ता॑। दस्योः॑। अशि॑वस्य। मा॒याः। अ॒नु॒ऽपू॒र्वम्। वृ॒ष॒णा॒। चो॒दय॑न्ता॥3॥ पदार्थः—(ऋषिम्) वेदपारगाध्यापकम् (नरौ) विद्यानेतारौ (अंहसः) विद्याध्ययननिरोधकाद्विघ्नाख्यात् पापात् (पाञ्चजन्यम्) पञ्चसु जनेसु प्राणादिषु भवां प्राप्तयोगसिद्धिम् (ऋबीसात्) नष्टविद्याप्रकाशविद्यारूपात्। ऋबीसमपगतभासमपहृतभासमन्तर्हितभासं गतभासं वा। (निरु॰6.35) (अत्रिम्) अविद्यमानान्यात्ममनः— शरीरदुःखानि येन तम् (मुञ्चथः) (गणेन) अन्याध्यापकविद्यार्थिसमूहेन (मिनन्ता) हिसन्तौ (दस्योः) उत्कोचकस्य (अशिवस्य) सर्वस्मै दुःखप्रदस्य (मायाः) कपटादियुक्ताः क्रियाः (अनुपूर्वम्) अनुकूलाः पूर्वे वेदोक्ता आप्तसिद्धान्ता यस्य तम् (वृषणा) सुखस्य वर्षकौ (चोदयन्ता) विद्यादिशुभगुणेषु प्रेरयन्तौ॥3॥ अन्वयः—हे नरौ! वृषणा चोदयन्ताऽशिवस्य दस्योर्माया मिनन्ताऽनुपूर्वं पाञ्चजन्यमत्रिं गणेनर्षिमृबीसादंहसो मुञ्चथः॥3॥ भावार्थः—राजपुरुषाणामिदमुत्तमतमं कर्मास्ति यद्विद्याप्रचारर्त्तॄणां दुःखात् संरक्षणं सुखे संस्थापनं दस्य्वादीनां निवर्त्तनं स्वयं विद्याधर्मयुक्ता भूत्वा विदुषो विद्याधर्मप्रचारे संप्रेर्य्य धर्मार्थकाममोक्षान् संसाधयेयुः॥3॥ पदार्थः—हे (नरौ) विद्या प्राप्ति कराने (वृषणा) सुख के वर्षाने (चोदयन्ता) और विद्या आदि शुभ गुणों में प्रेरणा करनेवाले तथा (अशिवस्य) सबको दुःख देनेहारे (दस्योः) उचक्के की (मायाः) कपटक्रियाओं को (मिनन्ता) काटनेवाले सभासेनाधीशो! तुम दोनों (अनुपूर्वम्) अनुकूल वेद में कहे और उत्तम विद्वानों में माने हुए सिद्धान्त जिसके, उस (पाञ्चजन्यम्) प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान में सिद्ध हुई योगसिद्ध को और जिसके सम्बन्ध में (अत्रिम्) आत्मा, मन और शरीर के दुःख नष्ट हो जाते हैं, उस (गणेन) पढ़ने-पढ़ानेवालों के साथ वर्त्तमान (ऋषिम्) वेदपारगन्ता अध्यापक को (ऋबीसात्) नष्ट हुआ है विद्या का प्रकाश जिससे उस अविद्यारूप अन्धकार (अंहसः) और विद्या पढ़ाने को रोक देने रूप अत्यन्त पाप से (मुञ्चथः) अलग रखते हो॥3॥ भावार्थः—राजपुरुषों का यह अत्यन्त उत्तम काम है कि जो विद्याप्रचार करनेहारों को दुःख से बचाना, उनको सुख में राखना और डाकू उचक्के आदि दुष्ट जनों को दूर करना और वे राजपुरुष आप विद्या और धर्मयुक्त हो विद्वानों को विद्या और धर्म्म के प्रचार में लगा कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अश्वं॑ न गू॒ळ्हम॑श्विना दु॒रेवै॒र्ऋषिं॑ नरा वृषणा रे॒भम॒प्सु। सं तं रि॑णीथो॒ विप्रु॑तं॒ दंसो॑भि॒र्न वां॑ जूर्यन्ति पू॒र्व्या कृ॒तानि॑॥4॥ अश्व॑म्। न। गू॒ळ्हम्। अ॒श्वि॒ना॒। दुः॒ऽएवैः॑। ऋषि॑म्। न॒रा॒। वृ॒ष॒णा॒। रे॒भम्। अ॒प्ऽसु। सम्। तम्। रि॒णी॒थः॒। विऽप्रु॑तम्। दंसः॑ऽभिः। न। वा॒म्। जू॒र्य॒न्ति॒। पू॒र्व्या। कृ॒तानि॑॥4॥ पदार्थः—(अश्वम्) विद्युतम् (न) इव (गूढम्) गूढाशयम् (अश्विना) सभासेनेशौ (दुरेवैः) दुःखं प्रापकैदुष्टैर्मनुष्यादिप्राणिभिः (ऋषिम्) पूर्वोक्तम् (नरा) सुखनेतारौ (वृषणा) विद्यावर्षयितारौ (रेभम्) सकलविद्यागुणस्तोतारम् (अप्सु) विद्याव्यापकेषु वेदादिषु सुनिष्ठितम् (सम्) (तम्) (रिणीथः) (विप्रुतम्) विविधानां व्यवहाराणां वेत्तारम् (दंसोभिः) शिष्टानुष्ठितैः कर्मभिः (न) निषेधे (वाम्) युवयोः (जूर्य्यन्ति) जीर्य्यन्ति जीर्णानि भवेयुः (पूर्व्याः) पूर्वैः कृतानि कार्य्याणि विद्याप्रचाररूपाणि॥4॥ अन्वयः—हे नरा वृषणाश्विना! दुरेवैर्दंसोभिः पीडितमश्वमिव विप्रुतं रेभमप्सु सुनिष्ठितं तमृषिं न सुखेन गूढं संरिणीथः। यतो वां युवयोः पूर्व्या कृतान्येतानि कर्माणि न जूर्य्यन्ति॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा दस्युभिरपहृतं गुप्ते स्थाने स्थापितं पीडितमश्वं सङ्गृह्य सुखेन संरक्ष्यते तथा मूढैर्दुष्कर्मकारिभिस्तिरस्कृतान् विद्याप्रचारकान् मनुष्यानखिलपीडातः पृथक्कृत्य सम्पूज्य सङ्गत्यैते सेव्यन्ते यानि च तेषां विद्युद्विद्याप्रचाराणि कर्माणि तान्यजरामराणि सन्तीति वेद्यम्॥4॥ पदार्थः—हे (नरा) सुख की प्राप्ति (वृषणा) और विद्या की वर्षा करानेवाले (अश्विना) सभा सेनापतियो! तुम दोनों (दुरेवैः) दुःख को पहुँचानेवाले दुष्ट मनुष्य आदि प्राणियों (दंसोभिः) और श्रेष्ठ विद्वानों ने आचरण किये हुए कर्मों से ताड़ना को प्राप्त (अश्वम्) अति चलनेवाली बिजुली के समान (विप्रुतम्) विविध प्रकार अच्छे व्यवहारों को जानने (रेभम्) समस्त विद्या गुणों की प्रशंसा करने (अप्सु) विद्या में व्याप्त होने और वेदादि शास्त्रों में निश्चय रखनेवाले (तम्) उस पूर्व मन्त्र में कहे हुए (ऋषिम्) वेदपारगन्ता विद्वान् के (न) समान (गूढम्) अपने आशय को गुप्त रखनेवाले सज्जन पुरुष को सुख से (सं, रिणीथः) अच्छे प्रकार युक्त करो, जिससे (वाम्, पूर्व्या, कृतानि) तुम लोगो के जो पूर्वजों ने किए हुए विद्याप्रचाररूप काम वे (न) नहीं (जूर्यन्ति) जीर्ण होते अर्थात् नाश को नहीं प्राप्त होते॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों से जैसे डाकुओं द्वारा हरे, छिपे हुए स्थान में ठहराये और पीड़ा दिये हुए घोड़े को लेकर वह सुख के साथ अच्छी प्रकार रक्षा किया जाता है, वैसे मूढ़ दुराचारी मनुष्यों द्वारा तिरस्कार किये हुए विद्याप्रचार करनेवाले मनुष्यों को समस्त पीड़ाओं से अलग कर, सत्कार के साथ संग कर, ये सेवा को प्राप्त किये जाते हैं और जो उनके बिजुली की विद्या के प्रचार के काम हैं वे अजर-अमर हैं, यह जानना चाहिये॥4॥ अथ राजधर्मविषयमाह॥

अब अगले मन्त्र में राजधर्म विषय को कहते हैं॥

सु॒षु॒प्वांसं॒ न निर्ऋ॑तेरु॒पस्थे॒ सूर्यं॒ न द॑स्रा॒ तम॑सि क्षि॒यन्त॑म्। शु॒भे रु॒क्मं द॑र्श॒तं निखा॑त॒मुदू॑पथुरश्विना॒ वन्द॑नाय॥5॥13॥ सु॒सु॒प्वांस॑म्। न। निःऽऋ॑तेः। उ॒पऽस्थे॑। सूर्य॑म्। न। द॒स्रा॒। तम॑सि। क्षि॒यन्त॑म्। शु॒भे। रु॒क्मम्। न। द॒र्श॒तम्। निऽखा॑तम्। उत्। ऊ॒प॒थुः॒। अ॒श्वि॒ना॒। वन्द॑नाय॥5॥ पदार्थः—(सुषुप्वांसम्) सुखेन शयानम् (न) इव (निर्ऋतेः) भूमेः। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰1.1) (उपस्थे) उत्सर्गे (सूर्य्यम्) सवितारम् (न) इव (दस्रा) दुःखहिंसको (तमसि) रात्रौ। तम इति रात्रिनामसु पठितम्। (निघं॰1.7) (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (शुभे) शोभनाय (रुक्मम्) सुवर्णम्। रुक्ममिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰1.2) (न) इव (दर्शतम्) द्रष्टव्यं रूपम् (निखातम्) फालकृष्टं क्षेत्रम् (उत्) ऊर्ध्वम् (ऊपथुः) वपेतम् (अश्विना) कृषिकर्मविद्याव्यापिनौ (वन्दनाय) स्तवनाय॥5॥ अन्वयः—हे दस्राश्विना! युवां वन्दनाय निर्ऋतेरुपस्थे तमसि क्षियन्तं सुषुप्वांसं न सूर्यं नाशुभे रुक्मं न दर्शतं निखातमुदूपथुः॥5॥ भावार्थः—अत्र तिस्र उपमाः। यथा प्रजास्थाः प्राणिनः सुराज्यं प्राप्य रात्रौ सुखेन सुप्त्वा दिने स्वाभीष्टानि कर्माणि सेवन्ते, सुशोभायै सुवर्णादिकं प्राप्नुवन्ति, कृष्यादिकर्माणि कुर्वन्ति तथा सुप्रजाः प्राप्य राजपुरुषा महीयन्ते॥5॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दुःख का विनाश करनेवाले (अश्विना) कृषिकर्म की विद्या में परिपूर्ण सभा सेनाधीशो! तुम दोनों (वन्दनाय) प्रशंसा करने के लिये (निर्ऋतेः) भूमि के (उपस्थे) ऊपर (तमसि) रात्रि में (क्षियन्तम्) निवास करते और (सुषुप्वांसम्) सुख से सोते हुए के (न) समान वा (सूर्य्यम्) सूर्य के (न) समान और (शुभे) शोभा के लिये (रुक्मम्) सुवर्ण के (न) समान (दर्शतम्) देखने योग्य रूप (निखातम्) फारे से जोते हुए खेत को (उदूपथुः) ऊपर से बोओ॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में तीन उपमालङ्कार हैं। जैसे प्रजास्थ जन अच्छे राज्य को पाकर रात्रि में सुख से सोके दिन में चाहे हुए कामों मे मन लगाते हैं वा अच्छी शोभा होने के लिये सुवर्ण आदि वस्तुओं को पाते वा खेती आदि कामों को करते हैं, वैसे अच्छी प्रजा को प्राप्त होकर राजपुरुष प्रशंसा पाते हैं॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॑ पज्रि॒येण॑ क॒क्षीव॑ता नासत्या॒ परि॑ज्मन्। श॒फादश्व॑स्य वा॒जिनो॒ जना॑य श॒तं कु॒म्भाँ अ॑सिञ्चतं॒ मधू॑नाम्॥6॥ तत्। वा॒म्। न॒रा॒। शंस्य॑म्। प॒ज्रि॒येण॑। क॒क्षीव॑ता। ना॒स॒त्या॒। परि॑ऽज्मन्। श॒फात्। अश्व॑स्य। वा॒जिनः॑। जना॑य। श॒तम्। कु॒म्भान्। अ॒सि॒ञ्च॒त॒म्। मधू॑नाम्॥6॥ पदार्थः—(तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) नृषूत्तमौ नायकौ (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (पज्रियेण) प्राप्तव्येषु भवेन (कक्षीवता) शिक्षकेण विदुषा सहितेन (नासत्या) (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे (शफात्) खुरात् शं फणति प्रापयतीति शफो वेगस्तस्माद्वा। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यत इति डः पृषोदरादित्वान्मलोपश्च। (अश्वस्य) तुरगस्य (वाजिनः) वेगवतः (जनाय) शुभगुणविद्यासु प्रादुर्भूताय विदुषे (शतम्) (कुम्भान्) कलशान् (असिञ्चतम्) सुखेन सिञ्चतम् (मधूनाम्) उदकानाम्। मध्वित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12)॥6॥ अन्वयः—हे पज्रियेण कक्षीवता सह वर्त्तमानौ नासत्या नरा! वां यत् परिज्मन् वाजिनोऽश्वस्य शफादिव विद्युद्वेगात् जनाय मधूनां शतं कुम्भानसिञ्चतं तद्वां युवयोः शंस्यं कर्म विजानीमः॥6॥ भावार्थः—राजपुरुषैर्मनुष्यादिसुखाय मार्गेऽनेककुम्भजलेन सेचनं प्रत्यहं कारयितव्यम्, यतस्तुरङ्गादीनां पादापस्करणाद् धूलिर्नोत्तिष्ठेत येन मार्गे स्वसेनास्था जनाः सुखेन गमनागमने कुर्य्युः। एवमीदृशानि स्तुत्यानि कर्माणि कृत्वा प्रजाः सततमाह्लादितव्याः॥6॥ पदार्थः—हे (पज्रियेण) प्राप्त होने योग्यों में प्रसिद्ध हुए (कक्षीवता) शिक्षा करनेहारे विद्वान् के साथ वर्त्तमान (नासत्या) सत्य व्यवहार वर्त्तनेवाले (नरा) मनुष्यों में उत्तम सबको अपने-अपने ढंग में लगानेहारे सभासेनाधीशो! तुम दोनों जो (परिज्मन्) सब प्रकार से जिसमें जाते हैं, उस मार्ग को (वाजिनः) वेगवान् (अश्वस्य) घोड़ा की (शफात्) टाप के समान बिजुली के वेग से (जनाय) अच्छे गुणों और उत्तम विद्याओं में प्रसिद्ध हुए विद्वान् के लिये (मधूनाम्) जलों के (शतम्) सैकड़ों (कुम्भान्) घड़ों को (असिञ्चतम्) सुख से सींचो अर्थात् भरो (तत्) उस (वाम्) तुम लोगों के (शंस्यम्) प्रशंसा करने योग्य काम को हम जानते हैं॥6॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि मनुष्य आदि प्राणियों के सुख के लिये मार्ग में अनेक घड़ों के जल से नित्य सींचाव कराया करें, जिससे घोड़े बैल आदि के पैरों की खूंदन से धूर न उड़े। और जिससे मार्ग में अपनी सेना के जन सुख से आवें-जावें। इस प्रकार ऐसे प्रशंसित कामों को करके प्रजाजनों को निरन्तर आनन्द देवें॥6॥ पुनरध्यापकोपदेशकगुणा उपदिश्यन्ते॥ फिर अध्यापक और उपदेश करनेवालों के गुण अगले मन्त्र में कहते हैं॥ यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय। घोषा॑यै चित्पितृ॒षदे॑ दुरो॒णे पतिं॒ जूर्य॑न्त्या अश्विनावदत्तम्॥7॥ यु॒वम्। न॒रा॒। स्तु॒व॒ते। कृ॒ष्णि॒याय॑। वि॒ष्णा॒प्व॑म्। द॒द॒थुः॒। विश्व॑काय। घोषा॑यै। चि॒त्। पि॒तृ॒ऽसदे॑। दु॒रो॒णे। पति॑म्। जूर्य॑न्त्यै। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒द॒त्त॒म्॥7॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (नरा) प्रधानौ (स्तुवते) सत्यवक्त्रे (कृष्णियाय) कृष्णं विलेखनं कृषिकर्मार्हति यस्तस्मै (विष्णाप्वम्) विष्णानि कृषिव्याप्तानि कर्माण्याप्नोति येन पुरुषेण तम् (ददथुः) (विश्वकाय) अनुकम्पिताय समग्राय राज्ञे (घोषायै) घोषाः प्रशंसिताः शब्दाः गवादिस्थित्यर्थाः स्थानविशेषा वा विद्यन्ते यस्यां तस्यै (चित्) अपि (पितृषदे) पितरो विद्याविज्ञापका विद्वांसः सीदन्ति यस्मिँस्तस्मै (दुरोणे) गृहे (पतिम्) पालकं स्वामिनम् (जूर्य्यन्त्यै) जीर्णावस्थाप्राप्तनिमित्तायै (अश्विनौ) (अदत्तम्) दद्यातम्॥7॥ अन्वयः—हे नराश्विनौ! युवं युवां कृष्णियाय स्तुवते पितृषदे विश्वकाय दुरोणे विष्णाप्वं पतिं ददथुः। चिदपि जूर्यन्त्यै घोषायै पतिमदत्तम्॥7॥ भावार्थः—राजादयो न्यायाधीशाः कृष्यादिकर्मकारिभ्यो जनेभ्यः सर्वाण्युपकरणानि पालकान् पुरुषान् सत्यन्यायं च प्रजाभ्यो दत्वा पुरुषार्थे प्रवर्त्तयेयुः। एताभ्यः कार्य्यसिद्धिसम्पन्नाभ्यो धर्म्यं स्वांशं यथावत् संगृह्णीयुः॥7॥ पदार्थः—हे (नरा) सब कामों में प्रधान और (अश्विनौ) सब विद्याओं में व्याप्त सभासेनाधीशो! (युवम्) तुम दोनों (कृष्णियाय) खेती के काम की योग्यता रखने और (स्तुवते) सत्य बोलनेवाले (पितृषदे) जिसके समीप विद्या विज्ञान देनेवाले स्थित होते (विश्वकाय) और जो सभों पर दया करता है, उस राजा के लिये (दुरोणे) घर में (विष्णाप्वम्) जिस पुरुष से खेती के भरे हुए कामों को प्राप्त होता, उस खेती रखनेवाले पुरुष को (ददथुः) देओ (चित्) और (जूर्य्यन्त्यै) बुड्ढेपन को प्राप्त करनेवाली (घोषायै) जिसमें प्रशंसित शब्द वा गौ आदि के रहने के विशेष स्थान हैं, उस खेती के लिये (पतिम्) स्वामी अर्थात् उस की रक्षा करनेवाले को (अदत्तम्) देओ॥7॥ भावार्थः—राजा आदि न्यायाधीश खेती आदि कामों के करनेवाले पुरुषों से सब उपकार पालना करनेवाले पुरुष और सत्य न्याय को प्रजाजनों को देकर उन्हें पुरुषार्थ में प्रवृत्त करें। इन कार्य्यों की सिद्धि को प्राप्त हुए प्रजाजनों से धर्म के अनुकूल अपने भाग को यथायोग्य ग्रहण करें॥7॥ पुनरत्र राजधर्ममाह॥ फिर यहाँ राजधर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यु॒वं श्यावा॑य॒ रुश॑तीमदत्तं म॒हः क्षो॒णस्या॑श्विना॒ कण्वा॑य। प्र॒वाच्यं॒ तद्वृ॑षणा कृ॒तं वां॒ यन्ना॑र्ष॒दाय॒ श्रवो॑ अ॒ध्यध॑त्तम्॥8॥ यु॒वम्। श्यावा॑य। रुश॑तीम्। अ॒द॒त्त॒म्। म॒हः। क्षो॒णस्य॑। अ॒श्वि॒ना॒। कण्वा॑य। प्र॒ऽवाच्य॑म्। तत्। वृ॒ष॒णा॒। कृ॒तम्। वा॒म्। यत्। ना॒र्ष॒दाय॑। श्रवः॑। अ॒धि॒ऽअध॑त्तम्॥8॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (श्यावाय) ज्ञानिने। श्यैङ्धातोरौणादिको वन्। (रुशतीम्) प्रकाशिकां विद्याम् (अदत्तम्) दद्यातम् (महः) महतः (क्षोणस्य) अध्यापकस्य (अश्विना) बहुश्रुतौ (कण्वाय) मेधाविने (प्रवाच्यम्) प्रकर्षेण वक्तु योग्यं शास्त्रम् (तत्) (वृषणा) बलिष्ठौ (कृतम्) कर्त्तव्यम् कर्म (वाम्) युवयोः (यत्) (नार्षदाय) नृषु नायकेषु सीदति तदपत्याय। (श्रवः) श्रवणम् (अध्यधत्तम्) उपरि धरतम्॥8॥ अन्वयः—हे वृषणाऽश्विना! युवं युवां महः क्षोणस्य सकाशाच्छ्यावाय कण्वाय रुशतीमदत्तम्। यद्वां युवयोः प्रवाच्यं कृतं श्रवोऽस्ति तन्नार्सदायाध्यधत्तम्॥8॥ भावार्थः—सभाध्यक्षेण यादृश उपदेशो धीमतः प्रति क्रियते तादृश एव सर्वलोकाधीशायोपदिशेत्। एवमेव सर्वान् मनुष्यान् प्रति वर्त्तितव्यम्॥8॥ पदार्थः—हे (वृषणा) बलवान् (अश्विना) बहुत ज्ञान-विज्ञान की बातें सुने जाने हुए सभा सेनाधीशो! (युवम्) तुम दोनों (महः) बड़े (क्षोणस्य) पढ़ानेवाले के तीर से (श्यावाय) ज्ञानी (कण्वाय) बुद्धिमान् के लिये (रुशतीम्) प्रकाश करनेवाली विद्या को (अदत्तम्) देओ तथा (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों का (प्रवाच्यम्) भली-भांति कहने योग्य शास्त्र (कृतम्) करने योग्य काम और (श्रवः) सुनना है (तत्) उसको तथा (नार्षदाय) उत्तम-उत्तम व्यवहारों में मनुष्य आदि को पहुंचानेहारे जनों में स्थित होते हुए लड़के को (अध्यधत्तम्) अपने पर धारण करो॥8॥ भावार्थः—सभाध्यक्ष पुरुष से जिस प्रकार का उपदेश अच्छे बुद्धिमानों के प्रति किया जाता हो, वैसा ही सब लोकों के स्वामी के लिये उपदेश करें। ऐसे ही सब मनुष्यों के प्रति वर्त्ताव करना चाहिये॥8॥ अथात्र तारविद्यामूलमाह॥ अब यहाँ तारविद्या के मूल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ पु॒रू वर्पां॑स्यश्विना॒ दधा॑ना॒ नि पे॒दव॑ ऊहथुरा॒शुमश्व॑म्। स॒ह॒स्र॒सां वा॒जिन॒मप्र॑तीतमहि॒हनं॑ श्रव॒स्यं तरु॑त्रम्॥9॥ पु॒रु। वर्पां॑सि। अ॒श्वि॒ना॒। दधा॑ना। नि। पे॒दवे॑। ऊ॒ह॒थुः॒। आ॒शुम्। अश्व॑म्। स॒ह॒स्र॒ऽसाम्। वा॒जिन॑म्। अप्र॑तिऽइतम्। अ॒हि॒ऽहन॑म्। श्र॒व॒स्य॑म्। तरु॑त्रम्॥9॥ पदार्थः—(पुरु) बहूनि। शेश्छन्दसीति शेर्लोपः। (वर्पांसि) रूपाणि (अश्विना) शिल्पिनौ (दधाना) धरन्तौ (नि) (पेदवे) गमनाय। पदधातोरौणादिरुः प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेनास्यैकारश्च। (ऊहथुः) वाहयतम् (आशुम्) शीघ्रगमकम् (अश्वम्) विद्युदाख्यमग्निम् (सहस्रसाम्) सहस्राण्यसंख्यातानि कर्माणि सतति संभजति तम् (वाजिनम्) वेगवन्तम् (अप्रतीतम्) अदृश्यम् (अहिहनम्) मेघस्य हन्तारम् (श्रवस्यम्) श्रवस्यन्ने पृथिव्यादौ भवम् (तरुत्रम्) समुद्रादितारकम्॥9॥ अन्वयः—हे अश्विना! पुरु वर्पांसि दधाना सन्तौ युवां पेदवे श्रवस्यमप्रतीतं वाजिनमहिहनं सहस्रसामाशुं तरुत्रंमश्वं न्यूहथुः॥9॥ भावार्थः—नहीदृशेन सद्योगमकेन विद्युदग्न्यादिना विना देशान्तरं सुखेन शीघ्रं गन्तुमागन्तुं सद्यः समाचारं ग्रहीतुं च कश्चिदपि शक्नोति॥9॥ पदार्थः—हे (अश्विना) शिल्पीजनो! (पुरु) बहुत (वर्पांसि) रूपों को (दधाना) धारण किए हुए तुम दोनों (पेदवे) शीघ्र जाने के लिये (श्रवस्यम्) पृथिवी आदि पदार्थों में हुए (अप्रतीतम्) गुप्त (वाजिनम्) वेगवान् (अहिहनम्) मेघ के मारनेवाले (सहस्रसाम्) हजारों कर्मों को सेवन करने (आशुम्) शीघ्र पहुंचानेवाले (तरुत्रम्) और समुद्र आदि से पार उतारनेवाले (अश्वम्) बिजुली रूप अग्नि को (न्यूहथुः) चलाओ॥9॥ भावार्थः—ऐसे शीघ्र पहुंचानेवाले बिजुली आदि अग्नि के विना एक देश से दूसरे देश को सुख से जाने-आने तथा शीघ्र समाचार लेने को कोई समर्थ नहीं हो सकता है॥9॥ अथ विद्युदादिजगन्निर्मातृ ब्रह्मैवोपास्यमित्युपदिश्यते॥ अब बिजुली आदि पदार्थरूप संसार का बनानेवाला परमेश्वर ही उपासनीय है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒तानि॑ वां श्रव॒स्या॑ सुदानू॒ ब्रह्मा॑ङ्गू॒षं सद॑नं॒ रोद॑स्योः। यद्वां॑ प॒ज्रासो॑ अश्विना॒ हव॑न्ते या॒तमि॒षा च॑ वि॒दुषे॑ च॑ वाज॑म्॥10॥14॥ ए॒तानि॑। वा॒म्। श्र॒व॒स्या॑। सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू॒। ब्रह्म॑। आ॒ङ्गू॒षम्। सद॑नम्। रोद॑स्योः। यत्। वा॒म्। प॒ज्रासः॑। अ॒श्वि॒ना॒। हव॑न्ते। या॒तम्। इ॒षा। च॒। वि॒दुषे॑। च॒। वाज॑म्॥10॥ पदार्थः—(एतानि) कर्माणि (वाम्) युवयोः (श्रवस्या) श्रवस्स्वन्नादिषु साधूनि (सुदानू) शोभनदानशीलौ (ब्रह्म) सर्वज्ञं परमेश्वरम् (आङ्गूषम्) अङ्गूषाणां विद्यानां विज्ञापकमिदम्। अत्रागिधातोरूषन्ततस्तस्येदमित्यण्। (सदनम्) अधिकरणम् (रोदस्योः) पृथिवीसूर्ययोः (यत्) (वाम्) युवयोः (पज्रासः) विज्ञापयितॄणि मित्राणि (अश्विना) (हवन्ते) आददति। हुधातोर्बहुलं छन्दसीति श्लोरभावः। (यातम्) प्राप्नुतम् (इषा) इच्छया (च) प्रयत्नेन योगाभ्यासेन च (विदुषे) प्राप्तविद्याय (च) विद्यार्थिभ्यः (वाजम्) विज्ञानम्॥10॥ अन्वयः—हे सुदानू अश्विना! वां युवयोरेतानि श्रवस्या कर्माणि प्रशंसनीयानि सन्त्यतो वां पज्रासो यद्रोदस्योः सदनमाङ्गूषं ब्रह्म हवन्ते यच्च युवां यातं तस्य वाजमिषा च विदुषे सम्यक् प्रापयतम्॥10॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः सर्वाधिष्ठानं सर्वोपास्यं सर्वनिर्मातृ ब्रह्म यैरुपायैर्विज्ञायते तैर्विज्ञायान्येभ्योऽप्येवमेव विज्ञाप्याखिलानन्द आप्तव्यः॥10॥ पदार्थः—हे (सुदानू) अच्छे दान देनेवाले (अश्विनौ) सभा सेनाधीशो! (वाम्) तुम दोनों के (एतानि) ये (श्रवस्या) अन्न आदि पदार्थों में उत्तम प्रशंसा योग्य कर्म हैं, इस कारण (वाम्) तुम दोनों (पज्रासः) विशेष ज्ञान देनेवाले मित्र जन (यत्) जिस (रोदस्योः) पृथिवी और सूर्य के (सदनम्) आधाररूप (आङ्गूषम्) विद्याओं के ज्ञान देनेवाले (ब्रह्म) सर्वज्ञ परमेश्वर को (हवन्ते) ध्यान मार्ग से ग्रहण करते (च) और जिसको तुम लोग (यातम्) प्राप्त होते हो उसके (वाजम्) विज्ञान को (इष) इच्छा और (च) अच्छे यत्न तथा योगाभ्यास से (विदुषे) विद्वान् के लिये भलीभांति पहुंचाओ॥10॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को चाहिये कि सबका आधार, सबके उपासना के योग्य, सबका रचनेहारा ब्रह्म जिन उपायों से जाना जाता है, उनसे जान औरों के लिये भी ऐसे ही जनाकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होवें॥10॥ पुनर्विद्युद्विद्योपदिश्यते॥ फिर बिजुली की विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ सू॒नोर्माने॑नाश्विना गृणा॒ना वाजं॒ विप्रा॑य भुरणा॒ रद॑न्ता। अ॒गस्त्ये॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒ना सं वि॒श्पलां॑ नासत्यारिणीतम्॥11॥ सू॒नोः। माने॑न। अ॒श्वि॒ना॒। गृ॒णा॒ना। वाज॑म्। विप्रा॑य। भु॒र॒णा॒। रद॑न्ता। अ॒गस्त्ये॑। ब्रह्म॑णा। वा॒वृ॒धा॒ना। सम्। वि॒श्पला॑म्। ना॒स॒त्या॒। अ॒रि॒णी॒त॒म्॥11॥ पदार्थः—(सूनोः) स्वापत्यस्येव (मानेन) सत्कारेण (अश्विना) व्याप्नुवन्तौ (गृणाना) उपदिशन्तौ (वाजम्) सत्यं बोधम् (विप्राय) मेधाविने (भुरणा) सुखं धरन्तौ (रदन्ता) सुष्ठु लिखन्तौ (अगस्त्ये) अगस्तिषु ज्ञातव्येषु व्यवहारेषु साधूनि कर्माणि। अत्रागधातोरौणदिकस्तिः प्रत्ययोऽसुडागमश्च। (ब्रह्मणा) वेदेन (वावृधाना) वर्द्धमानौ। तुजादित्वादभ्यासदीर्घः। (सम्) (विश्पलाम्) विशां पालिका विद्याम् (नासत्या) (अरिणीतम्) गच्छतम्॥11॥ अन्वयः—हे रदन्ता! सूनोरिव मानेन विप्राय वाजं गृणाना भुरणा नासत्या वावृधाना ब्रह्मणाऽगस्त्ये विश्पलां नाश्विना मित्रत्वेन प्रजया सह समरिणीतं सङ्गच्छेथाम्॥11॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा मातापितरावपत्यान्यपत्यानि च मातापितरावध्यापकाः शिष्यान् शिष्या अध्यापकांश्च पतयः स्त्रीः स्त्रियः पतींश्च सुहृदो मित्राणि परस्परं प्रीणन्ति तथैव राजानः प्रजाः प्रजाश्च राज्ञः सततं प्रीणन्तु॥11॥ पदार्थः—हे (रदन्ता) अच्छे लिखनेवालो! (सूनोः) अपने लड़के के समान (मानेन) सत्कार से (विप्राय) अच्छी सुध रखनेवाले बुद्धिमान् जन के लिये (वाजम्) सच्चे बोध को (गृणाना) उपदेश और (भुरणा) सुख धारण करते हुए (नासत्या) सत्य से भरे-पूरे (वावृधाना) बुद्धि को प्राप्त और (ब्रह्मणा) वेद से (अगस्त्ये) जानने योग्य व्यवहारों में उत्तम काम के निमित्त (विश्पलाम्) प्रजाजनों के पालनेवाली विद्या को (अश्विना) प्राप्त होते हुए सभासेनाधीशो! तुम दोनों मित्रपने से प्रजा के साथ (समरिणीतम्) मिलो॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता-पिता संतानों और संतान माता-पिताओं, पढ़ानेवाले और पढ़नेवाले और पढ़नेवाले पढ़ानेवालों, पति स्त्रियों और स्त्री पतियों तथा मित्र मित्रों को परस्पर प्रसन्न करते हैं, वैसे ही राजा प्रजाजनों और प्रजा राजजनों को निरन्तर प्रसन्न करें॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ कुह॒ यान्ता॑ सुष्टु॒तिं का॒व्यस्य॒ दिवो॑ नपाता वृषणा शयु॒त्रा। हिर॑ण्यस्येव क॒लशं॒ निखा॑त॒मुदू॑पथुर्दश॒मे अ॑श्वि॒नाह॑न्॥12॥ कुह॑। यान्ता॑। सु॒ऽस्तु॒तिम्। का॒व्यस्य॑। दिवः॑। न॒पा॒ता॒। वृ॒ष॒णा॒। श॒यु॒ऽत्रा। हिर॑ण्यस्यऽइव। क॒लश॑म्। निऽखा॑तम्। उत्। ऊ॒प॒थुः॒। द॒श॒मे। अ॒श्वि॒ना॒। अह॑न्॥12॥ पदार्थः—(कुह) कुत्र (यान्ता) गच्छन्ती (सुष्टुतिम्) प्रशस्तां स्तुतिम् (काव्यस्य) कवेः कर्मणः (दिवः) विज्ञानयुक्तस्य (नपाता) अविद्यमानपतनौ (वृषणा) श्रेष्ठौ कामवर्षयितारौ (शयुत्रा) यौ शयून् शयानान् त्रायतस्तौ (हिरण्यस्येव) यथा सुवर्णस्य (कलशम्) घटम् (निखातम्) मध्यावकाशम् (उत्) (ऊपथुः) वपतः (दशमे) (अश्विना) (अहन्) दिने॥12॥ अन्वयः—हे यान्ता नपाता वृषणा शयुत्राऽश्विना! युवां दशमेऽहन् हिरण्यस्येव निखातं कलशं दिवः काव्यस्य सुष्टुतिं कुहोदूपथुः॥12॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा धनाढ्याः सुवर्णादीनां पात्रेषु दुग्धादिकं संस्थाप्य प्रपच्य भुञ्जानाः स्तूयन्ते तथा शिल्पिनावेतद्विद्यान्यायमार्गेषु प्रजाः संवेश्य धर्मन्यायोपदेशैः परिपक्वाः संसाध्य राज्यश्रीसुखं भुञ्जानौ प्रशंसितौ कुह स्याताम्? धार्मिकेषु विद्वत्स्वित्युत्तरम्॥12॥ पदार्थः—हे (यान्ता) गमन करने (नपाता) न गिरने (वृषणा) श्रेष्ठ कामनाओं की वर्षा कराने और (शयुत्रा) सोते हुए प्राणियों की रक्षा करनेवाले (अश्विना) सभा सेनाधीशो! तुम दोनों (दशमे) दशवें (अहन्) दिन (हिरण्यस्येव) सुवर्ण के (निखातम्) बीच में पोले (कशलम्) घड़ा के समान (दिवः) विज्ञानयुक्त (काव्यस्य) कविताई की (सुष्टुतिम्) अच्छी बड़ाई की (कुह) कहाँ (उदूपथुः) उत्कर्ष से बोते हो॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे धनाढ्यजन सुवर्ण आदि धातुओं के वासनों में दूध, घी, दही आदि पदार्थों को धर और उनको पका कर खाते हुए प्रशंसा पाते हैं, वैसे दो शिल्पीजन इस विद्या और न्यायमार्गों में प्रजाजनों का प्रवेश कराकर धर्म और न्याय के उपदेशों से उनको पक्के कर राज्य और धन के सुख को भोगते हुए प्रशंसित कहाँ होवें? इसका यह उत्तर है कि धार्मिक विद्वान् जनों में होवें॥12॥ पुनर्युवाऽवस्थायामेव विवाहकरणाऽवश्यकत्वमाह॥ फिर जवान अवस्था में ही विवाह करना अवश्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं च्यवा॑नमश्विना॒ जर॑न्तं॒ पुन॒र्युवा॑नं चक्रथुः॒ शची॑भिः। यु॒वो रथं॑ दुहि॒ता सूर्य॑स्य स॒ह श्रि॒या ना॑सत्यावृणीत॥13॥ यु॒वम्। च्यवा॑नम्। अ॒श्वि॒ना॒। जर॑न्तम्। पुनः॑। युवा॑नम्। च॒क्र॒थुः॒। शची॑भिः। यु॒वोः। रथ॑म्। दु॒हि॒ता। सूर्य॑स्य। स॒ह। श्रि॒या। ना॒स॒त्या॒। अ॒वृ॒णी॒त॒॥13॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (च्यवानम्) गच्छन्तम् (अश्विना) शरीरात्मबलयुक्तौ (जरन्तम्) स्तवानम् (पुनः) (युवानम्) सम्पादितयौवनम् (चक्रथुः) कुरुतम् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (युवोः) (रथम्) रमणीयं पतिम् (दुहिता) पूर्णयुवतिः कन्या (सूर्यस्य) सवितुरुषा इव (सह) (श्रिया) लक्ष्म्या शोभया विद्यया सेवया वा (नासत्या) (अवृणीत) वृणुयात्॥13॥ अन्वयः—हे नासत्याऽश्विना! युवं शचीभिः सह वर्त्तमानान् स्वसन्तानान् सम्यग् यूनश्चक्रथुः। पुनर्युवोर्युवयोर्युवतिः सूर्यस्योषा इव दुहिता श्रिया सह वर्त्तमानं च्यवानं जरन्तं युवानं रथं पतिं चावृणीत। पुत्रोऽपि युवा सन् युवतिं च॥13॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मातापित्रादीनामतीव योग्यमस्ति यदा स्वापत्यानि पूर्णसुशिक्षाविद्या- शरीरात्मबलरूपलावण्यशीलारोग्यधर्मेश्वरविज्ञानादिभिः शुभैर्गुणैः सह वर्त्तमानानि स्युस्तदा स्वेच्छापरीक्षाभ्यां स्वयंवरविधानेनाभिरूपौ तुल्यगुणकर्मस्वभावौ पूर्णयुवावस्थौ बलिष्ठौ कुमारौ विवाहं कृत्वर्त्तुगामिनौ भूत्वा धर्मेण वर्त्तित्वा प्रजाः सूत्पादयेतामित्युपदेष्टव्यानि नह्येतेन विना कदाचित् कुलोत्कर्षो भवितुं योग्योऽस्तीति तस्मात् सज्जनैरेवमेव सदा विधेयम्॥13॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्य वर्त्ताव वर्त्तनेवाले (अश्विना) शरीर और आत्मा के बल से युक्त सभासेनाधीशो! (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) अच्छी बुद्धियों वा कर्मों के साथ वर्त्तमान अपने सन्तानों को भली-भांति सेवा कर जवान (चक्रथुः) करो (पुनः) फिर (युवोः) तुम दोनों की युवती अर्थात् यौवन अवस्था को प्राप्त (सूर्यस्य) सूर्य की किई हुई प्रातःकाल की वेला के समान (दुहिता) कन्या (श्रिया) धन, शोभा, विद्या वा सेवा के (सह) साथ वर्त्तमान (च्यवानम्) गमन और (जरन्तम्) प्रशंसा करनेवाले (युवानम्) जवानी से परिपूर्ण (रथम्) रमण करने योग्य मनोहर पति को (अवृणीत) वरे और पुत्र भी ऐसा जवान होता हुआ युवति स्त्री को वरे॥13॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। माता-पिता आदि को अतीव योग्य है कि जब अपने सन्तान पूर्ण अच्छी सिखावट, विद्या, शरीर और आत्मा के बल, रूप, लावण्य, स्वभाव, आरोग्यपन, धर्म और ईश्वर को जानने आदि उत्तम गुणों के साथ वर्त्ताव रखने को समर्थ हों, तब अपनी इच्छा और परीक्षा के साथ आप ही स्वयंवर विधि से दोनों सुन्दर समान गुण, कर्म, स्वभावयुक्त पूरे जवान, बली, लड़की-लड़के विवाह कर ऋतु समय में साथ का संयोग करनेवाले होकर, धर्म के साथ अपना वर्त्ताव वर्त्त कर प्रजा अर्थात् सन्तानों को अच्छे उत्पन्न कर, ये उपदेश देने चाहियें। विना इसके कभी कुल की उन्नति होने के योग्य नहीं है, इससे सज्जन पुरुषों को ऐसा ही सदा करना चाहिये॥13॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं तुग्रा॑य पू॒र्व्येभि॒रेवैः॑ पुनर्म॒न्याव॑भवतं युवाना। यु॒वं भु॒ज्युमर्ण॑सो॒ निः स॑मु॒द्राद् विभि॑रूहथुर्ऋ॒ज्रेभि॒रश्वैः॑॥14॥ यु॒वम्। तुग्रा॑य। पू॒र्व्येभिः॑। एवैः॑। पु॒नः॒ऽम॒न्यौ। अ॒भ॒व॒त॒म्। यु॒वा॒ना॒। यु॒वम्। भु॒ज्युम्। अर्ण॑सः। निः। स॒मु॒द्रात्। विऽभिः॑। ऊ॒ह॒थुः॒। ऋ॒ज्रेभिः॑। अश्वैः॑॥14॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (तुग्राय) बलाय (पूर्व्येभिः) पूर्वैः कृतैः (एवैः) विज्ञानादिभिः (पुनर्मन्यौ) पुनः पुनर्मन्येते विजानीतस्तौ (अभवतम्) भवेतम् (युवाना) प्राप्तयौवनौ (युवम्) युवाम् (भुज्युम्) शरीरात्मपालकं पदार्थसमूहम् (अर्णसः) प्रचुरजलात् (निः) नितराम् (समुद्रात्) जलद्रावाधारात् (विभिः) वियति गन्तृभिः पक्षिभिरिव (ऊहथुः) वहतम् (ऋज्रेभिः) ऋजुगमकैः (अश्वैः) आशुगामिभिर्विद्युदादिना निर्मितैर्विमानादियानैः॥14॥ अन्वयः—हे पुनर्मन्यौ! युवानां कृतविद्यौ स्त्रीपुंसौ युवं युवां तुग्राय पूर्व्येभिरेवैः सुखिनावभवतम्। युवं युवां विभिरिव युक्तैर्ऋज्रेभिरश्वैरर्णसः समुद्राद्भुज्युं निरूहथुः॥14॥ भावार्थः—स्त्रीपुरुषौ पूर्वैराप्तैः कृतानि कर्माण्यनुष्ठाय धर्मयुक्तेन ब्रह्मचर्य्येण पूर्णा विद्या अवाप्य क्रियाकौशलेन विमानादियानानि सम्पाद्य भूगोलस्याभितो विहृत्य नित्यमानन्देताम्॥14॥ पदार्थः—हे (पुनर्मन्यौ) वार-वार जाननेवाले (युवाना) युवावस्था को प्राप्त विद्या पढ़े हुए स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (तुग्राय) बल के लिये (पूर्व्येभिः) अगले सज्जनों से किये हुए (एवैः) विज्ञान आदि उत्तम व्यवहारों से सुखी (अभवतम्) होओ, (युवम्) तुम दोनों (विभिः) आकाश में उड़नेवाले पक्षियों के समान (ऋज्रेभिः) जिनसे हाल न लगे न उन जो़ड़े हुए सरल चाल से चलाने वाले और (अश्वैः) शीघ्र जानेवाले बिजुली आदि पदार्थों से बने हुए विमानादि यानों से (अर्णसः) अगाध जल से भरे हुए (समुद्रात्) समुद्र से पार (भुज्युम्) शरीर और आत्मा की पालना करनेवाले पदार्थों को (निरूहथुः) निर्वाहो अर्थात् निरन्तर पहुंचाओ॥14॥ भावार्थः—स्त्री-पुरुष अगले (पूर्व) महात्मा, ऋषि, महर्षियों ने किये जो काम हैं, उनका आचरण कर धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य्य से शीघ्र पूर्ण विद्याओं को पाकर क्रिया की कुशलता से विमान आदि यानों को बनाकर भूगोल के सब ओर विहार कर नित्य आनन्दयुक्त हों॥14॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अजो॑हवीदश्विना तौ॒ग्र्यो वां॒ प्रोळ्हः॑ समु॒द्रम॑व्य॒थिर्ज॑ग॒न्वान्। निष्टमू॑हथुः सु॒युजा॒ रथे॑न॒ मनो॑जवसा वृषणा स्व॒स्ति॥15॥15॥ अजो॑हवीत्। अ॒श्वि॒ना॒। तौ॒ग्र्यः। वा॒म्। प्रऽऊ॑ळ्हः। स॒मु॒द्रम्। अ॒व्य॒थिः। ज॒ग॒न्वान्। निः। तम्। ऊ॒ह॒थुः॒। सु॒ऽयुजा॑। रथे॑न। मनः॑ऽजवसा। वृ॒ष॒णा॒। स्व॒स्ति॥15॥ पदार्थः—(अजोहवीत्) पुनः पुनः स्पर्द्धेत (अश्विना) विद्यासुशीलव्यापिनौ (तौग्र्यः) तुग्रेण बलेन निर्वृत्तः सेनावृन्दः (वाम्) युवयोः (प्रोढः) प्रकर्षेणोढः प्राप्तः (समुद्रम्) (अव्यथिः) अविद्यमाना व्यथिर्व्यथा यस्य सः (जगन्वान्) भृशं गन्ता (नः) नितराम् (तम्) (ऊहथुः) प्रापयेतम् (सुयुजा) सुष्ठु युक्तेन (रथेन) (मनोजवसा) मनोवद्वेगेन गच्छता (वृषणा) सुबलौ (स्वस्ति) सुखेन॥15॥ अन्वयः—हे वृषणाऽश्विना दम्पती! युवां यो वां तौग्र्यः प्रोढोऽव्यथिर्न जगन्वान् सेनासमुदायः समुद्रमजोहवीत्तं सुयुजा मनोजवसा रथेन स्वस्ति निरुहथुः॥15॥ भावार्थः—यदा कृतब्रह्मचर्य्यः पुरुषः शत्रुविजयाय समुद्रपारं गन्तुमिच्छेत्तदा सभार्यः सबल एव वेगवद्भिर्यानैर्गच्छेदागच्छेच्च॥15॥ पदार्थः—हे (वृषणा) उत्तम बलवाले (अश्विना) विद्या और उत्तम शीलों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! तुम दोनों जो (वाम्) तुम्हारा (तौग्र्यः) बल से सिद्ध हुआ (प्रोढः) उत्तमता से प्राप्त (अव्यथिः) जिसको व्यथा वा कष्ट नहीं है (जगन्वान्) जो निरन्तर गमन करनेवाला सेना का समुदाय है, वह (समुद्रम्) समुद्र का (अजोहवीत्) वार-वार तिरस्कार करे अर्थात् उससे उत्तीर्ण हो उसकी गम्भीरता न गिने, (तम्) उस उक्त सेना समुदाय को (सुयुजा) सुन्दरता से जुड़े (मनोजवसा) मन के समान वेग से जाते हुए (रथेन) रमणीय विमान आदि यानसमुदाय से (स्वस्ति) सुखपूर्वक (निरूहथुः) निर्वाहो अर्थात् एक देश से दूसरे देश को पहुंचाओ॥15॥ भावार्थः—जब ब्रह्मचर्य किये पुरुष शत्रुओं के विजय के लिये समुद्र के पार जाना चाहें, तब स्त्री और सेना के साथ ही वेगवान् यानों से जावें-आवें॥15॥ पुना राजधर्ममाह॥ फिर राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अजो॑हवीदश्विना॒ वर्ति॑का वामा॒स्नो यत्सी॒ममु॑ञ्चतं॒ वृक॑स्य। वि ज॒युषा॑ ययथुः॒ सान्वद्रे॑र्जा॒तं वि॒ष्वाचो॑ अहतं वि॒षेण॑॥16॥ अजो॑हवीत्। अ॒श्वि॒ना॒। वर्ति॑का। वा॒म्। आ॒स्नः। यत्। सी॒म्। अमु॑ञ्चतम्। वृक॑स्य। वि। ज॒युषा॑। य॒य॒थुः॒। सानु॑। अद्रेः॑। जा॒तम्। वि॒ष्वाचः॑। अ॒ह॒त॒म्। वि॒षेण॑॥16॥ पदार्थः—(अजोहवीत्) भृशमाह्वयेत् (अश्विना) सद्यो यातारौ (वर्त्तिका) संग्रामे प्रवर्त्तमाना (वाम्) युवाम् (आस्नः) आस्यात् (यत्) यदा (सीम्) खलु (अमुञ्चतम्) मोचयतम् (वृकस्य) वन्यस्य शुनः (वि) (जयुषा) जयप्रदेन (ययथुः) यातम् (सानु) शिखरम् (अद्रेः) शैलस्य (जातम्) प्रसिद्धमुत्पन्नबलम् (विष्वाचः) विविधगतिमतः शत्रुमण्डलस्य (अहतम्) हन्यातम् (विषेण) विपर्ययकरेण निजबलेन॥16॥ अन्वयः—हे अश्विना! वर्त्तिका सेना यत् सीं वामजोहवीत् तदा तां वृकस्यास्न इव शत्रुमण्डलादमुञ्चतम्। युवां जयुषा निजरथेनाद्रेः सानु वि ययथुः। विष्वाचो जातं बलं विषेणाहतं च॥16॥ भावार्थः—राजपुरुषा यथा बलवान् दयालुः शूरवीरो व्याघ्रमुखादजां निर्मोचयति, तथा दस्युभयात् प्रजाः पृथग्रक्षेयुः। यदा शत्रवः पर्वतेषु वर्त्तमाना हन्तुमशक्याः स्युस्तदा तदन्नपानादिकं विदूष्य वशं नयेयुः॥16॥ पदार्थः—हे (अश्विना) शीघ्र जानेहारे सभासेनाधीशो! (वर्त्तिका) संग्राम में वर्त्तमान सेना (यत्सीम्) जिस समय (वाम्) तुम दोनों को (अजोहवीत्) निरन्तर बुलावे तब उसको (वृकस्य) भेड़िया के (आस्नः) मुख से जैसे वैसे शत्रुमण्डल से (अमुञ्चतम्) छुड़ावो अर्थात् उस को जीतो और अपनी सेना को बचाओ, तुम दोनों (जयुषा) जय देनेवाले अपने रथ से (अद्रेः) पर्वत के (सानु) शिखर को (वि, ययथुः) विविध प्रकार जाओ और (विष्वाचः) विविध गति वाले शत्रुमण्डल के (जातम्) उत्पन्न हुए बल को (विषेण) उसका विपर्य्यय करने वाले विषरूप अपने बल से (अहतम्) विनाशो नष्ट करो॥16॥ भावार्थः—राजपुरुष जैसे बलवान् दयालु शूरवीर बघेले के मुख से छेरी को छुड़ाता है, वैसे डाकुओं के भय से प्रजाजनों को अलग रक्खें। जब शत्रुजन पर्वतों में वर्त्तमान मारे नहीं जा सकते हों, तब उनके अन्न-पान आदि को विदूषित कर उनको वश में लावें॥16॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ श॒तं मे॒षान् वृ॒क्ये॑ मामहा॒नं तमः॒ प्रणी॑त॒मशि॑वेन पि॒त्रा। आक्षी ऋ॒ज्राश्वे॑ अश्विनावधत्तं॒ ज्योति॑र॒न्धाय॑ चक्रथुर्वि॒चक्षे॑॥17॥ श॒तम्। मे॒षान्। वृ॒क्ये॑। म॒म॒हा॒नम्। तमः॑। प्रऽनी॑तम्। अशि॑वेन। पि॒त्रा। आ। अ॒क्षी इति॑। ऋ॒ज्रऽअ॑श्वे। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒ध॒त्त॒म्। ज्यो॑तिः। अ॒न्धाय॑। च॒क्र॒थुः॒। वि॒ऽचक्षे॑॥17॥ पदार्थः— (शतम्) (मेषान्) (वृक्ये) वृकस्त्रियै (मामहानम्) दत्तवन्तम् (तमः) अन्धकाररूपं दुःखम् (प्रणीतम्) प्रकृष्टतया प्रापितम् (अशिवेन) अमङ्गलकारिणा न्यायाधीशेन (पित्रा) पालकेन (आ) (अक्षी) चक्षुषी (ऋज्राश्वे) सुशिक्षिततुरङ्गादियुक्ते सैन्ये (अश्विनौ) सभासेनेशौ (अधत्तम्) दध्यातम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (अन्धाय) दृष्टिनिरुद्धायेवाज्ञानिने (चक्रथुः) कुरुतम् (विचक्षे)॥17॥ अन्वयः—हे अश्विनौ! युवां येनाशिवेन पित्रा तमः प्रणीतं तं वृक्ये शतं मेघान् मामहानमिव प्रजाजनान् पीडयन्तं मुञ्चतं पृथकक्कुर्य्यातम्। ऋज्राश्वे अक्षी चक्षुषी आधत्तम्। अन्धाय विचक्षे ज्योतिश्चक्रथुः॥17॥ भावार्थः—हे सभासेनेशादयो राजपुरुषा यूयं प्रजायामन्यायेन वृक्यः स्वार्थसाधनाय मेषेषु यथा प्रवर्त्तन्ते तथा प्रवर्त्तमानान् स्वभृत्यान् सम्यग्दण्डयित्वान्यैर्धार्मिकैर्भृत्यैः प्रजासु सूर्य्यवद्रक्षणादिकं सततं प्रकाशयत। यथा चक्षुष्मान् कूपादन्धं निवार्य्य सुखयति तथाऽन्यायकारिभ्यो भृत्येभ्यः पीडिताः प्रजाः पृथक् रक्षेत॥17॥ पदार्थः—हे (अश्विनौ) सभा सेनाधीशो! तुम दोनों जिस (अशिवेन) अमंगलकारी (पित्रा) प्रजा पालनेहारे न्यायाधीश ने (तमः) दुःखरूप अन्धकार (प्रणीतम्) भली-भांति पहुंचाया उस (वृक्ये) भेड़िनी के लिये (शतम्) सैकड़ों (मेषान्) मेंढ़ों को (मामहानम्) देते हुए के समान प्रजाजनों को पीड़ा देते हुए राज्याधिकारी को छुड़ाओ, अलग करो (ऋज्राश्वे) अच्छे सीखे हुए घोड़े आदि पदार्थों से युक्त सेना में (अक्षी) आँखों का (आ, अधत्तम्) आधान करो अर्थात् दृष्टि देओ, वहाँ के बने-बिगड़े व्यवहार को विचारो और (अन्धाय) अन्धे के समान अज्ञानी के लिये (विचक्षे) विज्ञानपूर्वक देखने के लिये (ज्योतिः) विद्याप्रकाश को (चक्रथुः) प्रकाशित करो॥17॥ भावार्थः—हे सभासेना आदि के पुरुषो! तुम लोग प्रजाजनों में अन्याय से भेड़िनी अपने प्रयोजन के लिये भेड़ बकरों में जैसे प्रवृत्त होती है, वैसे वर्त्ताव रखनेवाले अपने भृत्यों को अच्छे दण्ड देकर अन्य धर्मात्मा भृत्यों से प्रजाजनों में सूर्य्य के समान रक्षा आदि व्यवहारों को निरन्तर प्रकाशित करो। जैसे आँखवाला कुएँ से अन्धे को बचा कर सुख देता है, वैसे अन्याय करनेवाले भृत्यों से पीड़ा को प्राप्त हुए प्रजाजनों को अलग रक्खो॥17॥ पुना राजविषयमाह॥ फिर राज-विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ शु॒नम॒न्धाय॒ भर॑मह्वय॒त्सा वृ॒कीर॑श्विना वृषणा॒ नरेति॑। जा॒रः क॒नीन॑इव चक्षदा॒न ऋ॒ज्राश्वः॑ श॒तमेकं॑ च मे॒षान्॥18॥ शु॒नम्। अ॒न्धाय॑। भर॑म्। अ॒ह्व॒य॒त्। सा। वृ॒कीः। अ॒श्वि॒ना॒। वृ॒ष॒णा॒। नरा॑। इति॑। जा॒रः। क॒नीनः॑ऽइव। च॒क्ष॒दा॒नः। ऋ॒ज्रऽअ॑श्वः। श॒तम्। एक॑म्। च॒। मे॒षान्॥18॥ पदार्थः—(शुनम्) सुखम् (अन्धाय) चक्षुर्हीनाय (भरम्) पोषणम् (अह्वयत्) उपदिशेत् (सा) (वृकीः) स्तेनस्त्री। अत्र सुपा॰ इति सोः स्थाने सुः। (अश्विना) सभासेनेशौ (वृषणा) सुखवर्षकौ (नरा) (इति) प्रकारार्थे (जारः) व्यभिचारी वृद्धो वा (कनीनइव) यथा प्रकाशमानो जनः (चक्षदानः) चक्षो विद्यावचो दीयते येन सः (ऋज्राश्वः) ऋजुगतिमदश्वः पुरुषः (शतम्) (एकम्) (च) समुच्चये (मेषान्) अवीन्॥18॥ अन्वयः—हे वृषणा नराऽश्विना! सा वृकीः शतमेकं च मेषानह्वयदितीव ऋज्राश्वश्चक्षदानो जारः कनीनइव युवामन्धाय भरं शुनमधत्तम्॥18॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषा अविद्यान्धान् जनानन्यायकारिणां सकाशात् सतीः स्त्रीर्जाराणां संबन्धाद् वृकाणां सकाशादजा इव विमोच्य सततं पालयेयुः॥18॥ पदार्थः—हे (वृषणा) सुख वर्षाने और (नरा) धर्म-अधर्म का विवेक करनेहारे (अश्विना) सभा सेनाधीशो! (सा) वह (वृकीः) चोर की स्त्री (शतम्) सौ (च) और (एकम्) एक (मेषान्) भेंड़ मेढ़ों को (अह्वयत्) हांक देकर जैसे बुलावे (इति) इस प्रकार वा (ऋज्राश्वः) सीधी चाल चलनेहारे घोड़ोंवाला (चक्षदानः) जिससे कि विद्यावचन दिया जाता है, उस (जारः) बुड्ढे वा जार कर्म करनेहारे चालाक (कनीनइव) प्रकाशमान मनुष्य के समान तुम (अन्धाय) अन्धे के लिये (भरम्) पोषण अर्थात् उसकी पालना और (शुनम्) सुख धारण करो॥18॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुष अविद्या से अन्धे हो रहे जनों को अन्यायकारियों से, उत्तम सती स्त्रियों को लंपट, वेश्याबाजों से, जैसे भेड़ियों से भेड़-बकरों को बचावें, वैसे निरन्तर बचा कर पालें॥18॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ म॒ही वा॑मू॒तिर॑श्विना मयो॒भूरु॒त स्रा॒मं धि॑ष्ण्या॒ सं रि॑णीथः। अथा॑ यु॒वामिद॑ह्वय॒त् पुरं॑धि॒राग॑च्छतं सीं वृषणा॒ववो॑भिः॥19॥ म॒ही। वा॒म्। ऊ॒तिः। अ॒श्वि॒ना॒। म॒यः॒ऽभू। उ॒त। स्रा॒मम्। धि॒ष्ण्या॒। सम्। रि॒णी॒थः॒। अथ॑। यु॒वाम्। इत्। अ॒ह्व॒य॒त्। पुर॑म्ऽधिः। आ। अ॒ग॒च्छ॒त॒म्। सी॒म्। वृ॒ष॒णौ॒। अवः॑ऽभिः॥19॥ पदार्थः—(मही) महती (वाम्) युवयोः (ऊतिः) रक्षणादियुक्ता नीतिः (अश्विना) प्रजापालनाधिकृतौ सभासेनेशौ (मयोभूः) मयः सुखं भावयति या सा (उत) (स्रामम्) दुःखप्रदमन्यायम् (धिष्ण्या) धीमन्तौ (सम्) (रिणीथः) हिंस्तम् (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (युवाम्) द्वौ (इत्) (अह्वयत्) आह्वयेत् (पुरन्धिः) पुष्कलप्रज्ञः (आ) (अगच्छतम्) (सीम्) निश्चये (वृषणौ) (अवोभिः) रक्षणादिभिः॥19॥ अन्वयः—हे वृषणौ धिष्ण्याश्विना! वां या मह्युत मयोभूरूतिर्नीतिरस्ति तया स्रामं युवां संरिणीथः। अथ यः पुरन्धिर्युवा युवतिमह्वयत्तमिदेवावोभिः सह सीमागच्छतम्॥19॥ भावार्थः—राजपुरुषैर्न्यायादन्यायं पृथक्कृत्य धर्मप्रवृत्तान् शरणागतान् संरक्ष्य सर्वतः कृतकृत्यै- र्भवितव्यम्॥19॥ पदार्थः—हे (वृषणौ) सुख वर्षानेवाले (धिष्ण्या) बुद्धिमान् (अश्विना) सभा और सेना में अधिकार पाये हुए जनो! (वाम्) तुम दोनों की जो (मही) बड़ी (उत) और (मयोभूः) सुख को उत्पन्न करानेवाली (ऊतिः) रक्षा आदि युक्त नीति है, उससे (स्रामम्) दुःख देनेवाले अन्याय को (युवाम्) तुम (सं, रिणीथः) भली-भांति दूर करो (अथ) इसके पीछे जो (पुरन्धिः) अति बुद्धिमान् जवान यौवन से पूर्ण स्त्री को (अह्वयत्) बुलावे (इत्) उसी के समान (अवोभिः) रक्षा आदि के साथ (सीम्) ही (आ, अगच्छतम्) आओ॥19॥ भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिये कि न्याय से अन्याय को अलग कर धर्म में प्रवृत्त, शरण आये हुए जनों को अच्छे प्रकार पाल के सब ओर से कृतकृत्य हों॥19॥ अथ स्त्रीपुरुषविषयमाह॥ अब स्त्री-पुरुष विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अधे॑नुं दस्रा स्त॒र्यं विष॑क्ता॒मपि॑न्वतं श॒यवे॑ अश्विना॒ गाम्। यु॒वं श॒ची॑भिर्विम॒दाय॑ जा॒यां न्यू॑हथुः पुरुमि॒त्रस्य॒ योषा॑म्॥20॥16॥ अधे॑नुम्। द॒स्रा॒। स्त॒र्य॑म्। विऽस॑क्ताम्। अपि॑न्वतम्। श॒यवे॑। अ॒श्वि॒ना॒। गाम्। यु॒वम्। शची॑भिः। वि॒ऽम॒दाय॑। जा॒याम्। नि। ऊ॒ह॒थुः॒। पु॒रु॒ऽमि॒त्रस्य॑। योषा॑म्॥20॥ पदार्थः—(अधेनुम्) अदोहयित्रीम् (दस्रा) (स्तर्य्यम्) सुखैराच्छादिकाम् (विषक्ताम्) विविधैः पदार्थैर्युक्ताम् (अपिन्वतम्) जलादिभिः सिञ्चतम् (शयवे) शयानाय (अश्विना) भूगर्भविद्याविदौ स्त्रीपुरुषौ (गाम्) पृथिवीम् (युवम्) युवाम् (शचीभिः) कर्मभिः (विमदाय) विशेषमदयुक्ताय (जायाम्) (नि) (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (पुरुमित्रस्य) बहुसुहृदः (योषाम्) युवतिं कन्याम्॥20॥ अन्वयः—हे दस्राऽश्विना! युवं युवां शचीभिर्विषक्तां स्तर्य्यं स्तरीमधेनुं गामपिन्वतं विमदाय शयवे पुरुमित्रस्य योषा जायां न्यूहथुर्नितरां प्राप्नुतम्॥20॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे राजपुरुषा! यूयं यथा सर्वमित्रस्य सुलक्षणां हृद्यां ब्रह्मचारिणीं विदुषीं सुशीलां सततं सुखप्रदां धार्मिकीं कुमारीं भार्यत्वायोदूढ्वा संरक्षथ, तथैव सामादिभी राजकर्मभिर्भूमिराज्यं प्राप्य धर्मेण सदा पालयत॥20॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (अश्विना) भूगर्भ विद्या को जानते हुए स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) कर्मों के साथ (विषक्ताम्) विविध प्रकार के पदार्थों से युक्त (स्तर्य्यम्) सुखों से ढांपनेवाली नाव वा (अधेनुम्) नहीं दुहानेहारी (गाम्) गौ को (अपिन्वतम्) जलों से सींचो (विमदाय) विशेष मदयुक्त अर्थात् पूर्ण युवावस्थावाले (शयवे) सोते हुए पुरुष के लिये (पुरुमित्रस्य) बहुत मित्रवाले की (योषाम्) युवति कन्या को (जायाम्) पत्नीपन को (न्यूहथुः) निरन्तर प्राप्त कराओ॥20॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो! तुम जैसे सबके मित्र की सुलक्षणा मन लगती, ब्रह्मचारिणी, पण्डिता, अच्छे शीलस्वभाव की, निरन्तर सुख देनेवाली, धर्मशील, कुमारी को भार्य्या करने के लिये स्वीकार कर उसकी रक्षा करते हो, वैसे ही साम, दाम, दण्ड, भेद अर्थात् शान्ति, किसी प्रकार का दबाब, दंड देना और एक से दूसरे को तोड़-फोड़ उसको बेमन करना आदि राज कामों से भूमि के राज्य को पाकर धर्म से सदैव उसकी रक्षा करो॥20॥ पुना राजधर्ममाह॥ फिर राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यवं॒ वृके॑णाश्विना॒ वप॒न्तेषं॑ दु॒हन्ता॒ मनु॑षाय दस्रा। अ॒भि दस्युं॒ बकु॑रेणा॒ धम॑न्तो॒रु ज्योति॑श्चक्रथु॒रार्या॑य॥21॥ यव॑म्। वृके॑ण। अ॒श्वि॒ना॒। वप॑न्ता। इष॑म्। दु॒हन्ता॑। मनु॑षाय। द॒स्रा॒। अ॒भि। दस्यु॑म्। बकु॑रेण। धम॑न्ता। उ॒रु। ज्योतिः॑। च॒क्र॒थुः॒। आर्या॑य॥21॥ पदार्थः—(यवम्) यवादिकमिव (वृकेण) छेदकेन शस्त्रादिना (अश्विना) सुखव्यापिनौ (वपन्ता) (इषम्) अन्नम् (दुहन्ता) प्रपूरयन्तौ (मनुषाय) मननशीलाय जनाय (दस्रा) दुःखविनाशकौ (अभि) (दस्युम्) (बकुरेण) भासमानेन सूर्य्येण तम इव। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (धमन्ता) अग्निं संयुञ्जानौ (उरु) (ज्योतिः) विद्याविनयप्रकाशम् (चक्रथुः) (आर्य्याय) अर्य्यस्येश्वरस्य पुत्रवद्वर्त्तमानाय॥21॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-बकुरो भास्करो भयंकरो भासमानो द्रवतीति वा॥25॥ यवमिव वृकेणाश्विनौ निवपन्तौ। वृको लाङ्गलं भवति विकर्तनात्। लाङ्गलं लङ्गतेः। लाङ्गूलवद्वा। लाङ्गूलं लगतेर्लङ्गतेर्लम्बतेर्वा। अन्नं दुहन्तौ मनुष्याय दर्शनीयावभिधमन्तौ दस्युं बकुरेण ज्योतिषा वोदकेन वार्य्य ईश्वरपुत्रः। (निरु॰6.26)॥21॥ अन्वयः—हे दस्राश्विना! युवां मनुषाय वृकेण यवमिव वपन्तेषं दुहन्ताऽऽर्य्याय बकुरेण ज्योतिस्तम इव दस्युमभिधमन्तोरु राज्यं चक्रथुः कुरुतम्॥21॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः प्रजाकण्टकान् लम्पटचोरानृतपरुषवादिनो दुष्टान् निरुध्य कृष्यादिकर्मयुक्तान् प्रजास्थान् वैश्यान् संरक्ष्य कृष्यादिकर्माण्युन्नीय विस्तीर्णं राज्यं सेवनीयम्॥21॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (अश्विना) सुख में रमे हुए सभासेनाधीशो! तुम दोनों (मनुषाय) विचारवान् मनुष्य के लिये (वृकेण) छिन्न-भिन्न करनेवाले हल आदि शस्त्र-अस्त्र से (यवम्) यव आदि अन्न के समान (वपन्ता) बोते और (इषम्) अन्न को (दुहन्ता) पूर्ण करते हुए तथा (आर्य्याय) ईश्वर के पुत्र के तुल्य वर्त्तमान धार्मिक मनुष्य के लिये (बकुरेण) प्रकाशमान सूर्य्य ने किया (ज्योतिः) प्रकाश जैसे अन्धकार को वैसे (दस्युम्) डाकू, दुष्ट प्राणी को (अभि, धमन्ता) अग्नि से जलाते हुए (उरु) अत्यन्त बड़े राज्य को (चक्रथुः) करो॥21॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि प्रजाजनों में जो कण्टक, लम्पट, चोर, झूठा और खारे बोलनेवाले दुष्ट मनुष्य हैं, उनको रोक, खेती आदि कामों से युक्त वैश्य प्रजाजनों की रक्षा और खेती आदि कामों की उन्नति कर अत्यन्त विस्तीर्ण राज्य का सेवन करें॥21॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ॒थ॒र्व॒णाया॑श्विना दधी॒चेऽश्व्यं॒ शिरः॒ प्रत्यै॑रयतम्। सं वां॒ मधु॒ प्रवो॑चदृता॒यन् त्वा॒ष्ट्रं य॑द्दस्रावपिक॒क्ष्यं॑ वाम्॥22॥ आ॒थ॒र्व॒णाय॑। अ॒श्वि॒ना॒। द॒धी॒चे। अश्व्य॑म्। शिरः॑। प्रति॑। ऐ॒॒र॒य॒त॒म्। सः। वा॒म्। मधु॑। प्र। वो॒च॒त्। ऋ॒त॒ऽयन्। त्वा॒ष्ट्रम्। यत्। द॒स्रौ॒। अ॒पि॒ऽक॒क्ष्य॑म्। वा॒म्॥22॥ पदार्थः—(आथर्वणाय) छिन्नसंशयस्य पुत्राय (अश्विना) सत्कर्मसु प्रेरकौ (दधीचे) दधीन् विद्याधर्मधरानञ्चति पूजयति तस्मै (अश्व्यम्) अश्वेषु भवम् (शिरः) उत्तमं स्वाङ्गम् (प्रति) (ऐरयतम्) प्रापयतम् (सः) (वाम्) युवाभ्याम् (मधु) मधुरम्। मन् धातोरयं प्रयोगः। (प्र) (वोचत्) उपदिशेत् (ऋतायन्) ऋतं सत्यमात्मन इच्छन् (त्वाष्ट्रम्) तूर्णं यः सकला विद्या अश्नुते तस्येदं विज्ञानम्। त्वष्टा तूर्णमश्नुत इति नैरुक्ताः। (निरु॰8.13) (यत्) यस्मै (दस्रौ) दुःखनिवर्त्तकौ (अपिकक्ष्यम्) कक्षासु विद्याप्रदेशेषु भवा बोधाः कक्ष्यास्तान् प्रति वर्त्तते तत् (वाम्) युवम्॥22॥ अन्वयः—हे दस्रावश्विना! वां युवां यदाथर्वणाय दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम्। स ऋतायन् सन् वामपिकक्ष्यं त्वाष्ट्रं मधु प्र वोचत्॥2॥ भावार्थः—सभासेनेशादयो राजपुरुषाः विद्वत्सु श्रद्दधीरन् सत्कर्मसु प्रेरयन्तु ते च युष्मभ्यं सत्यमुपदिश्य प्रमादादधर्माच्च निवर्त्तयेयुः॥22॥ पदार्थः—हे (दस्रौ) दुःख की निवृत्ति करने और (अश्विना) अच्छे कामों में प्रवृत्त करानेहारे सभासेनाधीशो! (वाम्) तुम दोनों (यत्) जिस (आथर्वणाय) जिसके संशय कट गए उसके पुत्र के लिये तथा (दधीचे) विद्या और धर्मों को धारण किये हुए मनुष्यों की प्रशंसा करनेवाले के लिये (अश्व्यम्) घोड़ों में हुए (शिरः) उत्तम अङ्ग को (प्रत्यैरयतम्) प्राप्त करो (सः) वह (ऋतायन्) अपने को सत्य व्यवहार चाहता हुआ (वाम्) तुम दोनों के लिये (अपिकक्ष्यम्) विद्या की कक्षाओं में हुए बोधों के प्रति जो वर्त्तमान उस (त्वाष्ट्रम्) शीघ्र समस्त विद्याओं में व्याप्त होनेवाले विद्वान् के (मधु) मधुर विज्ञान का (प्र, वोचत्) उपदेश करे॥22॥ भावार्थः—सभासेनाधीश आदि राजजन विद्वानों में श्रद्धा करें और अच्छे कामों में प्रेरणा दें और वे तुम लोगों के लिये सत्य का उपदेश देकर प्रमाद और अधर्म से निवृत्त करें॥22॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सदा॑ कवी सुम॒तिमा च॑के वां॒ विश्वा॒ धियो॑ अश्विना॒ प्राव॑तं मे। अ॒स्मे र॒यिं ना॑सत्या बृ॒हन्त॑मपत्य॒साचं॒ श्रु॒त्यं॑ रराथाम्॥23॥ सदा॑। क॒वी॒ इति॑। सु॒ऽम॒तिम्। आ। च॒के॒। वा॒म्। विश्वाः॑। धियः॑। अ॒श्वि॒ना॒। प्र। अ॒व॒त॒म्। मे॒। अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। ना॒स॒त्या॒। बृ॒हन्त॑म्। अ॒प॒त्य॒ऽसाच॑म्। श्रु॒त्य॑म्। र॒रा॒था॒म्॥23॥ पदार्थः—(सदा) (कवी) सर्वेषां क्रान्तप्रज्ञौ (सुमतिम्) धर्म्यां धियम् (आ) (चके) शृणुयाम्। कै शब्देऽस्माल्लिट् व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वाम्) युवयोः (विश्वाः) अखिलाः (धियः) धारणावतीर्बुद्धीः (अश्विना) विद्याप्रापकौ (प्र) (अवतम्) प्रवेशयतम् (मे) मह्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (नासत्या) (बृहन्तम्) अतिप्रवृद्धम् (अपत्यसाचम्) पुत्रपौत्रादिसमेतम् (श्रुत्यम्) श्रोतुं योग्यम् (रराथाम्) दद्यातम्। अत्र राधातोर्लोटि बहुलं छन्दसीति शपः श्लुर्व्यत्ययेनात्मनेपदं च॥23॥ अन्वयः—हे नासत्या कवी अश्विना! वां सुमतिमहमाचके युवां मे मह्यं विश्वा धियः सदा प्रावतमस्मे बृहन्तमपत्यसाचं श्रुत्यं रयिं रराथाम्॥23॥ भावार्थः—विद्यार्थिभी राजादिगृहस्थैश्चाप्तानां विदुषां सकाशादुत्तमाः प्रज्ञाः प्रापणीयास्ते च विद्वांसस्तेभ्यो विद्यादिधनं प्रदाय सततं सुशिक्षितान् धार्मिकान् विदुषः सम्पादयन्तु॥23॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्यव्यवहारयुक्त (कवी) सब पदार्थों में बुद्धि को चलाने और (अश्विना) विद्या की प्राप्ति करानेवाले सभासेनाधीशो! (वाम्) तुम लोगों की (सुमतिम्) धर्मयुक्त उत्तम बुद्धि को मैं (आ, चके) अच्छे प्रकार सुनूं। तुम दोनों (मे) मेरे लिये (विश्वाः) समस्त (धियः) धारणावती बुद्धियों को (सदा) सब दिन (प्र, अवतम्) प्रवेश कराओ तथा (अस्मे) हम लोगों के लिये (बृहन्तम्) अति बढ़े हुए (अपत्यसाचम्) पुत्र-पौत्र आदि युक्त (श्रुत्यम्) सुनने योग्य (रयिम्) धन को (रराथाम्) दिया करो॥23॥ भावार्थः—विद्यार्थी और राजा आदि गृहस्थों को चाहिये कि शास्त्रवेत्ता विद्वानों के निकट से उत्तम बुद्धियों को लेवें और वे विद्वान् भी उनके लिये विद्या आदि धन को दे निरन्तर उन्हें अच्छी सिखावट सिखाकर के धर्मात्मा विद्वान् करें॥23॥ अथाध्यापककृत्यमाह॥ अब अध्यापक का कृत्य अगले मन्त्र में कहते हैं॥ हिर॑ण्यहस्तमश्विना॒ ररा॑णा पु॒त्रं न॑रा वध्रि॒म॒त्या अ॑दत्तम्। त्रि॒धा॑ ह॒ श्याव॑मश्विना॒ विक॑स्त॒मुज्जी॒वस॑ ऐरयतं सुदानू॥24॥ हिर॑ण्यऽहस्तम्। अ॒श्वि॒ना॒। ररा॑णा। पु॒त्रम्। न॒रा॒। व॒ध्रि॒ऽम॒त्याः। अ॒द॒त्त॒म्। त्रिधा॑। ह॒। श्याव॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। विऽक॑स्तम्। उत्। जी॒वसे॑। ऐ॒र॒य॒त॒म्। सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू॥24॥ पदार्थः—(हिरण्यहस्तम्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि हस्ते यस्य यद्वा विद्यातेजांसि हस्ताविव यस्य तम् (अश्विना) ऐश्वर्यवन्तौ (रराणा) दातारौ (पुत्रम्) त्रातारम् (नरा) नेतारौ (वध्रिमत्याः) वर्धिकाया विद्यायाः (अदत्तम्) दद्यातम् (त्रिधा) त्रिभिः प्रकारैर्मनोवाक्छरीरशिक्षादिभिः सह (ह) किल (श्यावम्) प्राप्तविद्यं (अश्विना) रक्षादिकर्मव्यापिनौ (विकस्तम्) विविधतया शासितारम् (उत्) (जीवसे) जीवितुम् (ऐरयतम्) प्रेरयतम् (सुदानू) सुष्ठु दानशीलाविव वर्त्तमानौ॥24॥ अन्वयः—हे रराणा नरा अश्विना! युवां हिरण्यहस्तं वध्रिमत्याः पुत्रं मह्यमदत्तम्। हे सुदानू अश्विना! युवां तं श्यावं विकस्तं जीवसे ह किल त्रिधोदैरयतम्॥24॥ भावार्थः—अध्यापकाः पुत्रानध्यापिकाः पुत्रींश्च ब्रह्मचर्येण संयोज्य तेषां द्वितीयं विद्याजन्म सम्पाद्य जीवनोपायान् सुशिक्ष्य समये पितृभ्यः समर्पयेयुः। ते च गृहं प्राप्यापि तच्छिक्षां न विस्मरेयुः॥24॥ पदार्थः—हे (रराणा) उत्तम गुणों के देने (नरा) श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति कराने और (अश्विना) रक्षा आदि कर्मों में व्याप्त होनेवाले अध्यापको! तुम दोनों (हिरण्यहस्तम्) जिसके हाथ में सुवर्ण आदि धन वा हाथ के समान विद्या और तेज आदि पदार्थ हैं, उस (वध्रिमत्याः) वृद्धि देनेवाली विद्या की (पुत्रम्) रक्षा करनेवाले जन को मेरे लिये (अदत्तम्) देओ। हे (सुदानू) अच्छे दानशील सज्जनों के समान वर्त्तमान (अश्विना) ऐश्वर्य्ययुक्त पढ़ानेवालो! तुम दोनों उस (श्यावम्) विद्या पाये हुए (विकस्तम्) अनेकों प्रकार शिक्षा देनेहारे मनुष्य को (जीवसे) जीने के लिये (ह) ही (त्रिधा) तीन प्रकार अर्थात् मन, वाणी और शरीर की शिक्षा आदि के साथ (उद्, ऐरयतम्) प्रेरणा देओ अर्थात् समझाओ॥24॥ भावार्थः—पढ़ानेवाले सज्जन पुत्रों और पढ़ानेवाली स्त्रियां पुत्रियों को ब्रह्मचर्य्य नियम में लगा कर, इनके दूसरे विद्याजन्म को सिद्ध कर, जीवन के उपाय अच्छे प्रकार सिखाकर के, समय पर उनके माता-पिता को देवें और वे घर पर आकर भी उन गुरुजनों की शिक्षाओं को न भूलें॥24॥ पुनः स्त्रीपुरुषौ कदा विवाहं कुर्यातामित्युपदिश्यते॥ फिर स्त्री-पुरुष कब विवाह करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ एतानि॑ वामश्विना वी॒र्या॑णि॒ प्र पू॒र्व्याण्या॒यवो॑ऽवोचन्। ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्तो॑ वृषणा यु॒वभ्यां॑ सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम॥25॥17॥ ए॒तानि॑। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। वी॒र्या॑णि। प्र। पू॒र्व्याणि॑। आ॒यवः॑। अ॒वो॒च॒न्। ब्रह्म॑। कृ॒ण्वन्तः॑। वृ॒ष॒णा॒। यु॒वऽभ्या॑म्। सु॒ऽवीरा॑सः। वि॒दथ॑म्। आ। व॒दे॒म॒॥25॥ पदार्थः—(एतानि) प्रशंसितानि (वाम्) युवयोः (अश्विना) प्रशंसितकर्मव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (प्र) (पूर्व्याणि) पूर्वैविद्वद्भिः कृतानि (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (अवोचन्) वदन्तु (ब्रह्म) अन्न धनं वा। ब्रह्मेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) तथा ब्रह्मेति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10) (कृण्वन्तः) निष्पादयन्तः (वृषणा) विद्यावर्षकौ (युवभ्याम्) प्राप्तयुवावस्थाभ्यां युवाभ्याम् (सुवीरासः) सुशिक्षाविद्यायुक्ता वीराः पुत्राः भृत्याश्च येषां ते (विदथम्) विज्ञानकारकमध्ययनाध्यापनं यज्ञम् (आ) (वदेम) उपदिशेम॥25॥ अन्वयः—हे वृषणाऽश्विना! वां यान्येतानि पूर्व्याणि वीर्याणि कर्माणि तान्यायवः प्रवोचन् युवभ्यां ब्रह्म कृण्वन्तो सुवीरासो वयं विदथमावदेम॥25॥ भावार्थः—मनुष्या यैर्विद्वद्भिर्लोकोपकारकाणि विद्याधर्मोपदेशप्रचाराणि कर्माणि कृतानि क्रियन्ते वा तेषां प्रशंसामन्नादिना धनेन वा तत् सेवां च सततं कुर्वन्तु। नहि केचिद्विद्वत्सङ्गेन विना विद्यादिरत्नानि प्राप्तुं शक्नुवन्ति। न किल केचित् कपटादि दोषरहितानामाप्तानां विदुषां सङ्गाध्ययने अन्तरा सुशीलतां विद्यावृद्धिं च कर्त्तुं समर्थयन्ति॥25॥ अत्र राजप्रजाऽध्ययनाध्यापनादिकर्मवर्णनात् पूर्वसूक्तार्थेन सहैतत्सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति प्रथमस्याष्टमे सप्तदशो 17 वर्गः सप्तदशोत्तरशततमं 117 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (वृषणा) विद्या के वर्षाने और (अश्विना) प्रशंसित कर्मों में व्याप्त स्त्रीपुरुषो! (वाम्) तुम दोनों के जो (एतानि) ये प्रशंसित (पूर्व्याणि) अगले विद्वानों के नियत किये हुए (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त काम हैं, उनको (आयवः) मनुष्य (प्रावोचन्) भली-भांति कहें, (युवभ्याम्) तरुण अवस्थावाले तुम दोनों के लिये (ब्रह्म) अन्न और धन को (कृण्वन्तः) सिद्ध करते हुए (सुवीरासः) जिनके अच्छी सिखावट और उत्तम विद्यायुक्त वीर पुत्र, पौत्र और सेवक हैं, वे हम लोग (विदथम्) विज्ञान करानेवाले पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ का (आ, वदेम) उपदेश करें॥25॥ भावार्थः— जिन विद्वान् मनुष्यों ने लोक के उपकारक विद्या और धर्मोपदेश के प्रचार करनेवाले काम किये वा जिनसे किये जाते हैं, उनकी प्रशंसा और अन्न वा धन आदि से सेवा करें, क्योंकि कोई विद्वानों के संग के विना विद्या आदि उत्तम-उत्तम रत्नों को नहीं पा सकते। न कोई कपट आदि दोषों से रहित शास्त्र जाननेवाले विद्वानों के संग और उनसे विद्या पढ़ने के विना अच्छी शिक्षा शीलता और विद्या की वृद्धि करने को समर्थ नहीं होते हैं॥25॥ इस सूक्त में राजा, प्रजा और पढ़ने-पढ़ाने आदि कामों के वर्णन से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति है, यह समझना चाहिये॥ यह प्रथम अष्टक के आठवें अध्याय में सत्रहवां 17 वर्ग और एकसौ सत्रहवां 117 सूक्त पूरा हुआ॥

अथास्यैकादशर्चस्याष्टादशोत्तरशततमस्य सूक्तस्य कक्षीवानृषिः। अश्विनौ देवते। 1,11 भुरिक् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 2,5,7 त्रिष्टुप्। 3,6,9,10 निचृत् त्रिष्टुप्। 4,8 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अस्यादौ विद्वत्स्त्रीपुरुषौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते। अब ग्यारह 11 ऋचावाले एक सौ अठारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् स्त्री-पुरुष क्या करें, यह विषय कहा है॥ आ वां॒ रथो॑ अश्विना श्ये॒नप॑त्वा सुमृळी॒कः स्वर्वां॑ यात्व॒र्वाङ्। यो मर्त्य॑स्य॒ मन॑सो॒ जवी॑यान् त्रिबन्धु॒रो वृ॑षणा॒ वात॑रंहाः॥1॥ आ। वा॒म्। रथः॑। अ॒श्वि॒ना॒। श्ये॒नऽप॑त्वा। सु॒ऽमृ॒ळी॒कः। स्वऽवा॑न्। या॒तु॒। अ॒र्वाङ्। यः। मर्त्य॑स्य। मन॑सः। जवी॑यान्। त्रि॒ऽब॒न्धु॒रः। वृ॒ष॒णा॒। वात॑ऽरंहाः॥1॥ पदार्थः—(आ) (वाम्) युवयोः (रथः) (अश्विना) शिल्पविदौ दम्पती (श्येनपत्वा) श्येन इव पतति। अत्र पतधातोरन्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप्। (सुमृडीकः) सुष्ठु सुखयिता (स्ववान्) प्रशस्ताः स्वे भृत्याः पदार्था वा विद्यन्ते यस्मिन् (यातु) गच्छतु (अर्वाङ्) अधः (यः) (मर्त्यस्य) (मनसः) (जवीयान्) (त्रिबन्धुरः) त्रयो बन्धुरा अधोमध्योर्ध्वं बन्धा यस्मिन् (वृषणा) बलिष्ठौ (वातरंहाः) वात इव रंहो गमनं यस्य॥1॥ अन्वयः—हे वृषणाऽश्विना! वां यस्त्रिबन्धुरः श्येनपत्वा वातरंहा मर्त्यस्य मनसो जवीयान् सुमृडीकः स्ववान् रथोऽस्ति सोऽर्वाङ्ङायातु॥1॥ भावार्थः—स्त्रीपुरुषौ यदेदृशं यानं निर्मायोपयुञ्जीयातां तदा किं तत्सुखं यत्साद्धुं न शक्नुयाताम्॥1॥ पदार्थः—हे (वृषणा) बलवान् (अश्विना) शिल्प कामों के जाननेवाले स्त्री-पुरुषो! (वाम्) तुम दोनों को (यः) जो (त्रिबन्धुरः) त्रिबन्धुर अर्थात् जिसमें नीचे, बीच में और ऊपर बंधन हों (श्येनपत्वा) वाज पखेरू के समान जानेवाला (वातरंहाः) जिसका पवन समान वेग (मर्त्यस्य) मनुष्य के (मनसः) मन से भी (जवीयान्) अत्यन्त धावने और (सुमृडीकः) उत्तम सुख देनेवाला (स्ववान्) जिसमें प्रशंसित भृत्य वा अपने पदार्थ विद्यमान हैं, ऐसा (रथः) रथ है, वह (अर्वाङ्) नीचे (आ, यातु) आवे॥1॥ भावार्थः—स्त्री-पुरुष जब ऐसे यान को उत्पन्न कर उपयोग में लावें तब ऐसा कौन सुख है, जिसको वे सिद्ध नहीं कर सकें॥1॥ पुना राज्यसहायेन स्त्रीपुरुषविषयमाह॥ फिर राज्य के सहाय से स्त्री-पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्रि॒ब॒न्धु॒रेण॑ त्रि॒वृता॒ रथे॑न त्रिच॒क्रेण॑ सु॒वृता या॑तम॒र्वाक्। पिन्व॑तं॒ गा जिन्व॑त॒मर्व॑तो नो व॒र्धय॑तमश्विना वी॒रम॒स्मे॥2॥ त्रि॒ऽब॒न्धु॒रेण॑। त्रि॒ऽवृता॑। रथे॑न। त्रि॒ऽच॒क्रेण॑। सु॒ऽवृता॑। आ। या॒त॒म्। अ॒र्वाक्। पिन्व॑तम्। गाः। जिन्व॑तम्। अर्व॑तः। नः॒। व॒र्धय॑तम्। अ॒श्वि॒ना॒। वी॒रम्। अ॒स्मे इति॑॥2॥ पदार्थः—(त्रिबन्धुरेण) त्रिविधबन्धनयुक्तेन (त्रिवृता) त्र्यावरणेन (रथेन) (त्रिचक्रेण) त्रीणि कलानां चक्राणि यस्मिन् (सुवृता) शोभनैर्मनुष्यैः शृङ्गारैर्वा सह वर्त्तमानेन (आ) (यातम्) प्राप्नुतम् (अर्वाक्) भूमेरधोभागम् (पिन्वतम्) सेवेथाम् (गाः) भूगोलस्था भूमीः (जिन्वतम्) सुखयतम् (अर्वतः) प्राप्तराज्यान् जनानश्वान् वा (नः) अस्माकम् (वर्धयतम्) (अश्विना) (वीरम्) शूरपुरुषम् (अस्मे) अस्मान्॥2॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवां त्रिबन्धुरेण त्रिचक्रेण त्रिवृता सुवृता रथेनार्वागायातम्। नो गाः पिन्वतमर्वतो जिन्वतमस्मेऽस्मान्नस्माकं वीरं च वर्धयतम्॥2॥ भावार्थः—राजपुरुषाः सुसंभारा आप्तसहाया भूत्वा सर्वान् स्त्रीपुरुषान् समृद्धियुक्तान् कृत्वा प्रशंसिताः स्युः॥2॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभासेनाधीशो! तुम दोनों (त्रिबन्धुरेण) जो तीन प्रकार के बन्धनों से युक्त (त्रिचक्रेण) जिसमें कलों के तीन चक्कर लगे (त्रिवृता) और तीन ओढ़ने के वस्त्रों से युक्त जो (सुवृता) अच्छे-अच्छे मनुष्य शृङ्गारों के साथ वर्त्तमान (रथेन) रथ है उससे (अर्वाक्) भूमि के नीचे (आ, यातम्) आओ, (नः) हम लोगों की (गाः) पृथिवी में जो भूमि हैं, उनका (पिन्वतम्) सेवन करो, (अर्वतः) राज्य पाये हुए मनुष्य वा घोड़ों को (जिन्वतम्) जीआओ सुख देओ, (अस्मे) हम लोगों को और हम लोगों के (वीरम्) शूरवीर पुरुष को (वर्द्धयतम्) बढ़ाओ वृद्धि देओ॥2॥ भावार्थः—राजपुरुष अच्छी सामग्री और उत्तम शास्त्रवेत्ता विद्वानों का सहाय ले और तब स्त्री-पुरुषों को समृद्धि और सिद्धियुक्त करके प्रशंसित हों॥2॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र॒वद्या॑मना सु॒वृता॒ रथे॑न॒ दस्रा॑वि॒मं शृ॑णुतं॒ श्लोक॒मद्रेः॑। किम॒ङ्ग वां॒ प्रत्यव॑र्तिं॒ गमि॑ष्ठा॒हुर्विप्रा॑सो अश्विना पुरा॒जाः॥3॥ प्र॒वत्ऽया॑मना। सु॒ऽवृता॑। रथे॑न। दस्रौ॑। इ॒मम्। शृ॒णु॒त॒म्। श्लोक॑म्। अद्रेः॑। किम्। अ॒ङ्ग। वा॒म्। प्रति॑। अव॑र्तिम्। गमि॑ष्ठा। आ॒हुः। विप्रा॑सः। अ॒श्वि॒ना॒। पु॒रा॒ऽजाः॥3॥ पदार्थः—(प्रवद्यामना) प्रकृष्टं याति गच्छति यस्तेन (सुवृता) शोभनैः साधनैः सह वर्त्तमानेन (रथेन) विमानादियानेन (दस्रौ) दातारौ (इमम्) (शृणुतम्) (श्लोकम्) वाचम्। श्लोक इति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰1.11) (अद्रेः) पर्वतस्य (किम्) (अङ्ग) (वाम्) युवाम् (प्रति) (अवर्त्तिम्) अवाच्यम् (गमिष्ठा) अतिशयेन गन्तारौ (आहुः) उपदिशन्ति (विप्रासः) मेधाविनो विद्वांसः (अश्विना) (पुराजाः) पूर्वं जाता वृद्धाः॥3॥ अन्वयः—हे प्रवद्यामना सुवृता रथेनाद्रेरुपरि गच्छन्तौ दस्रावश्विना! वां युवामिमं श्लोकं शृणुतम्। अङ्ग हे सभासेनेशौ! पुराजा विप्रासो गमिष्ठा वां प्रति किमवर्त्तिमाहुः किमपि नेत्यर्थः॥3॥ भावार्थः—हे राजादयः स्त्रीपुरुषा! यूयं यद्यदाप्तैरुपदिश्यते तत्तदेव स्वीकुरुत। नहि सत्पुरुषोपदेशमन्तरा जगति जनानामुन्नतिर्जायते, यत्राप्तोपदेशा न प्रवर्त्तन्ते तत्रान्धकारावृताः सन्तः पशुवद्वर्तित्वा दुःखं सञ्चिन्वन्ति॥3॥ पदार्थः—हे (प्रवद्यामना) भली-भांति चलने वाले (सुवृता) अच्छे-अच्छे साधनों से युक्त (रथेन) विमान आदि रथ से (अद्रेः) पर्वत के ऊपर जाने और (दस्रौ) दान आदि उत्तम कामों के करनेवाले (अश्विना) सभासेनाधीशो वा हे स्त्री-पुरुषो! (वाम्) तुम दोनों (इमम्) इस (श्लोकम्) वाणी को (शृणुतम्) सुनो कि (अङ्ग) हे उक्त सज्जनो! (पुराजाः) अगले वृद्ध (विप्रासः) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् जन (गमिष्ठा) अति चलते हुए तुम दोनों के (प्रति) प्रति (किम्) किस (अवर्त्तिम्) न वर्त्तने न कहने योग्य निन्दित व्यवहार का (आहुः) उपदेश करते हैं अर्थात् कुछ भी नहीं॥3॥ भावार्थः—हे राजा आदि स्त्री-पुरुषो! तुम जो-जो विद्वानों ने उपदेश किया उसी-उसी को स्वीकार करो, क्योंकि सत्पुरुषों के उपदेश के विना संसार में मनुष्यों की उन्नति नहीं होती। जहाँ उत्तम विद्वानों के उपदेश नहीं प्रवृत्त होते हैं, वहाँ सब अज्ञानरूपी अंधेरे से ढपे ही होकर पशुओं के समान वर्त्ताव कर दुःख को इकट्ठा करते हैं॥3॥ पुनस्तौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे स्त्री-पुरुष क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ आ वां॑ श्ये॒नासो॑ अश्विना वहन्तु॒ रथे॑ यु॒क्तास॑ आ॒शवः॑ पत॒ङ्गाः। ये अ॒प्तुरो॑ दि॒व्यासो॒ न गृध्रा॑ अ॒भि प्रयो॑ नासत्या॒ वह॑न्ति॥4॥ आ। वा॒म्। श्ये॒नासः॑। अ॒श्वि॒ना॒। व॒ह॒न्तु॒। रथे॑। यु॒क्तासः॑। आ॒शवः॑। प॒त॒ङ्गाः। ये। अ॒प्ऽतुरः॑। दि॒व्यासः॑। न। गृध्राः॑। अ॒भि। प्रयः॑। ना॒स॒त्या॒। वह॑न्ति॥4॥ पदार्थः—(आ) (वाम्) युवयोः (श्येनासः) श्येन इव गन्तारः (अश्विना) (वहन्तु) प्रापयन्तु (रथे) (युक्तासः) संयोजिताः (आशवः) शीघ्रगामिनोऽश्वा इवाग्न्यादयः। आशुरित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰1.14) (पतङ्गाः) सूर्य्य इव देदीप्यमानाः (ये) (अप्तुरः) अप्स्वन्तरिक्षे त्वरन्ति ते (दिव्यासः) दिवि क्रीडायां साधवः (न) इव (गृध्राः) पक्षिणः (अभि) (प्रयः) प्रियमाणं स्थानम् (नासत्या) (वहन्ति) प्रापयन्ति॥4॥ अन्वयः—हे नासत्याश्विना! येऽप्तुरो दिव्यासो गृध्रा नेव प्रयोऽभि वहन्ति ते श्येनासः पतङ्गा आशवो रथे युक्तासः सन्तो वामावहन्ति॥4॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे स्त्रीपुरुषा! यथाकाशे स्वपक्षाभ्यामुड्टीयमाना गृध्रादयः पक्षिणः सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति, तथैव यूयं सुसाधितैर्विमानादिभिर्यानैरन्तरिक्षे गच्छतागच्छत॥4॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्य के साथ वर्त्तमान (अश्विना) सब विद्याओं में व्याप्त स्त्री पुरुषो! (ये) जो (अप्तुरः) अन्तरिक्ष में शीघ्रता करने (दिव्यासः) और अच्छे खेलनेवाले (गृध्राः) गृध्र पखेरुओं के (न) समान (प्रयः) प्रीति किये अर्थात् चाहे हुए स्थान को (अभि, वहन्ति) सब ओर से पहुंचाते हैं, वे (श्येनासः) वाज पखेरू के समान चलने (पतङ्गाः) सूर्य के समान निरन्तर प्रकाशमान (आशवः) और शीघ्रतायुक्त घोड़ों के समान अग्नि आदि पदार्थ (रथे) विमानादि रथ में (युक्तासः) युक्त किये हुए (वाम्) तुम दोनों को (आ, वहन्ति) पहुंचाते हैं॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे स्त्री-पुरुषो! जैसे आकाश में अपने पङ्खों से उड़ते हुए गृध्र आदि पखेरू सुख से आते-जाते हैं, वैसे ही तुम अच्छे सिद्ध किये विमान आदि यानों से अन्तरिक्ष में आओ-जाओ॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ वां॒ रथं॑ युव॒तिस्ति॑ष्ठ॒दत्र॑ जु॒ष्ट्वी न॑रा दुहि॒ता सूर्य॑स्य। परि॑ वा॒मश्वा॒ वपु॑षः पत॒ङ्गा वयो॑ वहन्त्वरु॒षा अ॒भीके॑॥5॥18॥ आ। वा॒म्। रथ॑म्। यु॒व॒तिः। ति॒ष्ठ॒त्। अत्र॑। जु॒ष्ट्वी। न॒रा॒। दु॒हि॒ता। सूर्य॑स्य। परि॑। वा॒म्। अश्वाः॑। वपु॑षः। प॒त॒ङ्गाः। वयः॑। व॒ह॒न्तु॒। अ॒रु॒षाः। अ॒भीके॑॥5॥ पदार्थः—(आ) (वाम्) युवयोः (रथम्) (युवतिः) नवयौवना (तिष्ठत्) (अत्र) (जुष्ट्वी) प्रीता सेवमाना वा (नरा) (दुहिता) (सूर्यस्य) कान्तिः (परि) (वाम्) युवाम् (अश्वाः) (वपुषः) सुरूपस्य। वपुरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं॰3.7) (पतङ्गाः) (वयः) पक्षिण इव (वहन्तु) (अरुषाः) रक्तादिगुणविशिष्टा अग्न्यादयः (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17)॥5॥ अन्वयः—हे नरा नेतारौ सभासेनाधीशौ! वपुषो जुष्ट्वी युवतिर्दुहिता सूर्य्यस्योषाः पृथिवीमिव वां रथमातिष्ठत्। अत्राभीके पतङ्गा अरुषा वयोऽश्वा वां परिवहन्तु॥5॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यस्य किरणाः सर्वतो विहरन्ति यथा पतिव्रता साध्वी पतिं सुखं नयति यथा पक्षिण उपर्यधो गच्छन्ति तथा युद्धे श्रेष्ठानि यानान्युत्तमा वीराश्चाभीष्टं साध्नुवन्ति॥5॥ पदार्थः—हे (नरा) सबके नायक सभासेनाधीशो! (वपुषः) सुन्दर रूप की (जुष्ट्वी) प्रीति को पाए हुए वा सुन्दर रूप की सेवा करती सुन्दरी (युवतिः) नवयौवना (दुहिता) कन्या (सूर्यस्य) सूर्य्य की किरण जो प्रातःसमय की वेला जैसे पृथिवी पर ठहरे वैसे (वाम्) तुम दोनों के (रथम्) रथ पर (आ, तिष्ठत्) आ बैठे (अत्र) इस (अभीके) संग्राम में (पतङ्गाः) गमन करते हुए (अरुषाः) लाल रङ्गवाले (वयः) पखेरुओं के समान (अश्वाः) शीघ्रगामी अग्नि आदि पदार्थ (वाम्) तुम दोनों को (परि, वहन्तु) सब ओर से पहुंचावें॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य कि किरणें सब ओर से आती-जाती हैं वा जैसे पतिव्रता उत्तम स्त्री पति को सुख पहुंचाती है वा जैसे पखेरू ऊपर-नीचे जाते हैं, वैसे युद्ध में उत्तम यान और उत्तम वीर जन चाहे हुए सुख को सिद्ध करते हैं॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उद्वन्द॑नमैरतं दं॒सना॑भि॒रुद्रे॒भं द॑स्रा वृषणा॒ शची॑भिः। निष्टौ॒ग्र्यं पा॑रयथः समु॒द्रात् पुन॒श्च्यवा॑नं चक्रथु॒र्युवा॑नम्॥6॥ उत्। वन्द॑नम्। ऐ॒र॒त॒म्। दं॒सना॑भिः। उत्। रे॒भम्। द॒स्रा॒। वृ॒ष॒णा॒। शची॑भिः। निः। तौ॒ग्र्यम्। पा॒र॒य॒थः॒। स॒मु॒द्रात्। पुन॒रिति॑। च्यवा॑नम्। च॒क्र॒थुः॒। युवा॑नम्॥6॥ पदार्थः—(उत्) (वन्दनम्) स्तुत्यं यानम् (ऐरतम्) गच्छतम् (दंसनाभिः) भाषणैः (उत्) (रेभम्) स्तोतारम् (दस्रा) (वृषणा) (शचीभिः) कर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा (निः) (तौग्र्यम्) बलवतो हिंसकस्य राज्ञः पुत्रं राजन्यम् (पारयथः) (समुद्रात्) सागरात् (पुनः) (च्यवानम्) गन्तारम् (चक्रथुः) कुरुतः (युवानम्) बलवन्तम्॥6॥ अन्वयः—हे दस्रा वृषणा! युवां शचीभिर्दंसनाभिर्यथा तौग्र्यं च्यवानं युवानं समुद्रान्निःपारयथः। पुनरवारं प्राप्तमुच्चक्रथुस्तथैव वन्दनं रेभं चोदैरतम्॥6॥ भावार्थः—यथा पोतगमयितारो जनान् समुद्रपारं नीत्वा सुखयन्ति तथा राजसभा शिल्पिनं उपदेशकांश्च दुःखात् पारं प्रापय्य सततमानन्दयेत्॥6॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने और (वृषणा) सुख वर्षानेवाले सभासेनाधीशो! तुम दोनों (शचीभिः) कर्म और बुद्धियों वा (दंसनाभिः) वचनों के साथ जैसे (तौग्र्यम्) बलवान् मारनेवाला राजा का पुत्र (च्यवानम्) जो गमनकर्त्ता बली (युवानम्) जवान है उसको (समुद्रात्) सागर से (निः, पारयथः) निरन्तर पार पहुंचाते (पुनः) फिर इस ओर आए हुए को (उत्, चक्रथुः) उधर पहुंचाते हो, वैसे ही (वन्दनम्) प्रशंसा करने योग्य यान और (रेभम्) प्रशंसा करनेवाले मनुष्य को (उदैरतम्) इधर-उधर पहुंचाओ॥6॥ भावार्थः—जैसे नाव के चलानेवाले मल्लाह आदि मनुष्यों को समुद्र के पार पहुंचा कर सुखी करते हैं, वैसे राजसभा शिल्पीजनों और उपदेश करनेवालों को दुःख से पार पहुंचा कर निरन्तर आनन्द देवें॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वमत्र॒येऽव॑नीताय त॒प्तमूर्ज॑मो॒मान॑मश्विनावधत्तम्। यु॒वं कण्वा॒यापि॑रिप्ताय॒ चक्षुः॒ प्रत्य॑धत्तं सुष्टु॒तिं जु॑जुषा॒णा॥7॥ यु॒वम्। अत्र॑ये। अव॑ऽनीताय। त॒प्तम्। ऊर्ज॑म्। ओ॒मान॑म्। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒ध॒त्त॒म्। यु॒वम्। कण्वा॑य। अपि॑ऽरिप्ताय। चक्षुः॑। प्रति॑। अ॒ध॒त्त॒म्। सु॒ऽस्तु॒तिम्। जु॒जु॒षा॒णा॥7॥ पदार्थः—(युवम्) युवां स्त्रीपुरुषौ (अत्रये) अविद्यमानत्रिविधदुःखाय (अवनीताय) अविद्यानामपगमनाय [अविद्याऽज्ञानापगमनाय] (तप्तम्) तपोजनितम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (ओमानम्) रक्षणादिसत्कर्मपालकम् (अश्विनौ) (अधत्तम्) दध्यातम् (युवम्) (कण्वाय) मेधाविने (अपिरिप्ताय) सकलविद्योपचयनाय। लिपधातोर्निष्ठा कपिलकादित्वाल्लत्वविकल्पः। (चक्षुः) दर्शकं विज्ञानम् (प्रति) (अधत्तम्) (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (जुजुषाणा) सेवितौ प्रीतौ वा॥7॥ अन्वयः—हे जुजुषाणाऽश्विनौ! युवं युवामवनीतायापिरिप्तायात्रये कण्वाय तप्तमोमानमूर्जमधत्तम्। युवं युवां तस्माच्चक्षुः सुष्टुतिं च प्रत्यधत्तम्॥7॥ भावार्थः—सभासेनाध्यक्षादिभी राजपुरुषैर्धार्मिकाणां वेदादिविद्याप्रचाराय प्रयत्नमानानां विदुषां रक्षां विधाय तेभ्यो विनयं प्राप्य प्रजाः पालनीयाः॥7॥ पदार्थः—हे (जुजुषाणा) सेवा प्रीति को प्राप्त (अश्विनौ) समस्त गुणों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (अवनीताय) अविद्या अज्ञान के दूर होने (अपिरिप्ताय) और समस्त विद्याओं के बढ़ने के लिये (अत्रये) जिसको तीन प्रकार का दुःख नहीं है, उस (कण्वाय) बुद्धिमान् के लिये (तप्तम्) तपस्या से उत्पन्न हुए (ओमानम्) रक्षा आदि अच्छे कामों की पालना करनेवाले (ऊर्जम्) पराक्रम को (अधत्तम्) धारण करो और (युवम्) तुम दोनों उस से (चक्षुः) सकल व्यवहारों के दिखलानेहारे उत्तम ज्ञान और (सुष्टुतिम्) सुन्दर प्रशंसा को (प्रति, अधत्तम्) प्रतीति के साथ धारण करो॥7॥ भावार्थः—सभासेनाधीश आदि राजपुरुषों को चाहिये कि धर्मात्मा जो कि वेद आदि विद्या के प्रचार के लिये अच्छा प्रयत्न करते हैं, उन विद्वानों की रक्षा का विधान कर उनसे विनय को पाकर प्रजाजनों की पालना करें॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं धे॒नुं श॒यवे॑ नाधि॒तायापि॑न्वतमश्विना पू॒र्व्याय॑। अमु॑ञ्चतं॒ वर्ति॑का॒मंह॑सो॒ निः प्रति॒ जङ्घां॑ वि॒श्पला॑या अधत्तम्॥8॥ यु॒वम्। धे॒नुम्। श॒यवे॑। ना॒धि॒ताय॑। अपि॑न्वतम्। अ॒श्वि॒ना॒। पू॒र्व्याय॑। अमु॑ञ्चतम्। वर्ति॑काम्। अंह॑सः। निः। प्रति॑। जङ्घा॑म्। वि॒श्पला॑याः। अ॒ध॒त्त॒म्॥8॥ पदार्थः—(युवम्) (धेनुम्) सुशिक्षितां वाचम् (शयवे) सुखेन शयानाय (नाधिताय) ऐश्वर्ययुक्ताय (अपिन्वतम्) (अश्विना) सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ (पूर्व्याय) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृताय निष्पादिताय विदुषे (अमुञ्चतम्) मुञ्चेताम् (वर्त्तिकाम्) विनयादिसहितां नीतिम् (अंहसः) अधर्मानुष्ठानात् (निः) निर्गते (प्रति) (जङ्घाम्) सर्वसुखजनिकाम्। अच् तस्य जङ्घ च। (उणा॰5.31) इति जन धातोरच् प्रत्ययो जङ्घ आदेशश्च। (विश्पलायाः) प्रजायाः (अधत्तम्) दध्यातम्॥8॥ अन्वयः—हे अश्विना सकलविद्याव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ! युवं युवां नाधिताय पूर्व्याय शयवे धेनुमपिन्वतं यमंहसो निरमुञ्चतं तस्माद्विश्पलाया पालनाय जङ्घां वर्त्तिकां प्रत्यधत्तम्॥8॥ भावार्थः—राजपुरुषाः सर्वानैश्वर्ययुक्तान् परस्परं धनाढ्यकुलोद्गतान् प्रजास्थान् सत्यन्यायेन सन्तोष्य ब्रह्मचर्येण विद्याग्रहणाय प्रवर्त्तयध्वम्। यतः कस्यापि पुत्रः पुत्री च विद्यासुशिक्षे अन्तरा नावशिष्येत्॥8॥ पदार्थः—हे (अश्विना) अच्छी सीख पाये हुए समस्त विद्याओं में रमते हुए स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (नाधिताय) ऐश्वर्ययुक्त (पूर्व्याय) अगले विद्वानों ने किये हुए (शयवे) जो कि सुख से सोता है, उस विद्वान् के लिये (धेनुम्) अच्छी सीख दी हुई वाणी को (अपिन्वतम्) सेवन करो, जिसको (अंहसः) अधर्म के आचरण से (निरमुञ्चतम्) निरन्तर छुड़ाओ उससे (विश्पलायाः) प्रजाजनों की पालना के लिये (जङ्घाम्) सब सुखों की उत्पन्न करनेवाली (वर्त्तिकाम्) विनय, नम्रता आदि गुणों के सहित उत्तम नीति को (प्रत्यधत्तम्) प्रतीति से धारण करो॥8॥ भावार्थः—राजपुरुष सब ऐश्वर्ययुक्त परस्पर धनीजनों के कुल में हुए प्रजाजनों को सत्य-न्याय से सन्तोष दे उनको ब्रह्मचर्य के नियम से विद्या ग्रहण करने के लिये प्रवृत करावें, जिससे किसी का लड़का और लड़की विद्या और उत्तम शिक्षा के विना न रह जाये॥8॥ अथ विद्युद्विद्यां दम्पती गृह्णीयातामित्याह॥ अब बिजुली की विद्या को स्त्रीपुरुष ग्रहण करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं श्वे॒तं पे॒दव॒ इन्द्र॑जूतमहि॒हन॑मश्विनादत्त॒मश्व॑म्। जो॒हूत्र॑म॒र्यो अ॒भिभू॑तिमु॒ग्रं स॑हस्र॒सां वृष॑णं वी॒ड्व॑ङ्गम्॥9॥ यु॒वम्। श्वे॒तम्। पे॒दवे॑। इन्द्र॑ऽजूतम्। अ॒हि॒ऽहन॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। अ॒द॒त्त॒म्। अश्व॑म्। जो॒हूत्र॑म्। अ॒र्यः। अ॒भिऽभू॑तिम्। उ॒ग्रम्। स॒ह॒स्र॒ऽसाम्। वृष॑णम्। वी॒ळुऽअ॑ङ्गम्॥9॥ पदार्थः—(युवम्) (श्वेतम्) (पेदवे) गमनागमनाय (इन्द्रजूतम्) सभाध्यक्षेण प्रेरितम् (अहिहनम्) मेघहन्तारं सूर्य्यमिव (अश्विना) पत्नीसर्वलोकाधिपती (अदत्तम्) दद्यातम् (अश्वम्) व्यापनशीलम् (जोहूत्रम्) अतिशयेन स्पर्धितम् (अर्य्यः) सर्वस्वामी सर्वसभाध्यक्षो राजा (अभिभूतिम्) शत्रूणां तिरस्कर्तारम् (उग्रम्) दुष्टैः शत्रुभिरसहम् (सहस्रसाम्) सहस्राणि कार्य्याणि सनति संभजति यस्तम् (वृषणम्) शत्रुसेनाया उपरि शस्त्रास्त्रवर्षानिमित्तम् (वीड्वङ्गम्) वीडूनि बलयुक्तानि दृढान्यङ्गानि यस्य तम्॥9॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवं युवां पेदवेऽर्य्यो य इन्द्रजूतं जोहूत्रं वृषणं वीड्वङ्गमुग्रमभिभूतिं सहस्रसां श्वेतमश्वमहिहनमिव युवाभ्यां ददाति तस्मै सततं सुखमदत्तम्॥9॥ भावार्थः—यथा सूर्य्यो मेघं वर्षयित्वा सर्वस्यै प्रजायै सुखं ददाति तथा शिल्पविद्याविदः स्त्रीपुरुषा अखिलप्रजायै सुखं प्रदद्युः। स्वेषां मध्ये येऽतिरथिनो वीरस्त्रीपुरुषास्तान् सदा सत्कुर्य्युः॥9॥ पदार्थः—हे (अश्विना) यज्ञादि कर्म करानेवाली स्त्री और समस्त लोकों के अधिपति पुरुष! (युवम्) तुम दोनों (पेदवे) जाने-आने के लिये जो (अर्य्यः) सबका स्वामी सब सभाओं का प्रधान राजा (इन्द्रजूतम्) सभाध्यक्ष राजा ने प्रेरणा किये (जोहूत्रम्) अत्यन्त ईर्ष्या करते वा शत्रुओं को घिसते हुए (वृषणम्) शत्रुओं की सेना पर शस्त्र और अस्त्रों की वर्षा करानेवाले (वीड्वङ्गम्) बली, पोढ़े अंगों से युक्त (उग्रम्) दुष्ट शत्रुजनों से नहीं सहे जाते (अभिभूतिम्) और शत्रुओं का तिरस्कार करने (सहस्रसाम्) वा हजारों कामों को सेवनेवाले (श्वेतम्) सुपेद (अश्वम्) सभों में व्याप्त बिजुली रूप आग को (अहिहनम्) मेघ के छिन्न-भिन्न करनेवाले सूर्य्य के समान तुम दोनों के लिये देता है, उसके लिये निरन्तर सुख (अदत्तम्) देओ॥9॥ भावार्थः—जैसे सूर्य्य मेघ को वर्षा के सब प्रजा के लिये सुख देता है, वैसे शिल्पविद्या के जाननेवाले स्त्री-पुरुष समस्त प्रजा के लिये सुख देवें और अपने बीच में जो अतिरथी वीर स्त्री-पुरुष हैं, उनका सदा सत्कार करें॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ता वां॑ नरा॒ स्वव॑से सुजा॒ता हवा॑महे अश्विना॒ नाध॑मानाः। आ न॒ उप॒ वसु॑मता॒ रथे॑न॒ गिरो॑ जुषा॒णा सु॑वि॒ताय॑ यातम्॥10॥ ता। वा॒म्। न॒रा॒। सु। अव॑से। सु॒ऽजा॒ता। हवा॑महे। अ॒श्वि॒ना॒। नाध॑मानाः। आ। नः॒। उप॑। वसु॑ऽमता। रथे॑न। गिरः॑। जु॒षा॒णा। सु॒वि॒ताय॑। या॒त॒म्॥10॥ पदार्थः—(ता) तौ (वाम्) युवाम् (नरा) नैतारौ स्त्रीपुरुषौ (सु) (अवसे) रक्षणाद्याय (सुजाता) शोभनेषु सद्विद्याग्रहणाख्यकर्मसु प्रादुर्भूतौ (हवामहे) आह्वयामहे (अश्विना) प्रजाङ्गपालकौ (नाधमानाः) प्राप्तपुष्कलैश्वर्याः (आ) (नः) अस्मान् (उप) (वसुमता) प्रशस्तानि सुवर्णादीनि विद्यन्ते यस्मिँस्तेन (रथेन) रमणीयेन विमानादियानेन (गिरः) शुभा वाणीः (जुषाणा) सेवमानौ (सुविताय) ऐश्वर्याय। अत्र सु धातोरौणादिक इतच् किच्च। (यातम्) प्राप्नुतम्॥10॥ अन्वयः—हे सुजाता गिरो जुषाणाऽश्विना नरा! नाधमाना वयं ययोर्वामवसे सुहवामहे ता युवां वसुमता रथेन नोऽस्मान् सुवितायोपायातम्॥10॥ भावार्थः—प्रजास्थैः स्त्रीपुरुषैर्ये राजपुरुषाः प्रीयेरन् ते प्रजाजनान् सततं प्रीणयन्तु, यतः परस्पराणां रक्षणेनैश्वर्यवृन्दो नित्यं वर्द्धेत॥10॥ पदार्थः—हे (सुजाता) श्रेष्ठ विद्याग्रहण करने आदि उत्तम कामों में प्रसिद्ध हुए (गिरः) शुभ वाणियों का (जुषाणा) सेवन और (अश्विना) प्रजा के अङ्गों की पालना करने वाले (नरा) न्याय में प्रवृत्त करते हुए स्त्री-पुरुषो! (नाधमानाः) जिनको कि बहुत ऐश्वर्य मिला, वे हम जिन (वाम्) तुम लोगों को (अवसे) रक्षा आदि के लिये (सु, हवामहे) सुन्दरता से बुलावें (ता) वे तुम (वसुमता) जिसमें प्रशंसित सुवर्ण आदि धन विद्यमान है, उस (रथेन) मनोहर विमान आदि यान से (नः) हम लोगों को (सुविताय) ऐश्वर्य्य के लिये (उप, आ, यातम्) आ मिलो॥10॥ भावार्थः—प्रजाजनों के स्त्री-पुरुषों से जो राजपुरुष प्रीति को पावें, प्रसन्न हों, वे प्रजाजनों को प्रसन्न करें, जिससे एक-दूसरे की रक्षा से ऐश्वर्यसमूह नित्य बढ़े॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ आ श्ये॒नस्य॒ जव॑सा॒ नूत॑नेना॒स्मे या॑तं नासत्या स॒जोषाः॑। हवे॒ हि वा॑मश्विना रा॒तह॑व्यः शश्चत्त॒माया॑ उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ॥11॥19॥ आ। श्ये॒नस्य॑। जव॑सा। नूत॑नेन। अ॒स्मे इति॑। या॒त॒म्। ना॒स॒त्या॒। स॒ऽजोषाः॑। हवे॑। हि। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। रा॒तऽह॑व्यः। श॒श्व॒त्ऽत॒मायाः॑। उ॒षसः॑। विऽउ॑ष्टौ॥11॥ पदार्थः—(आ) (श्येनस्य) (जवसा) वेगेनेव (नूतनेन) नवीनरथेन (अस्मे) अस्मान् (यातम्) उपागतम् (नासत्या) (सजोषाः) समानप्रेमा (हवे) स्तौमि (हि) किल (वाम्) युवाम् (अश्विना) (रातहव्यः) प्रदत्तहविः (शश्वत्तमायाः) अतिशयेनानादिरूपायाः (उषसः) प्रभातवेलायाः (व्युष्टौ) विशेषेण कामयमाने समये॥11॥ अन्वयः—हे नासत्याऽश्विना! सजोषा रातहव्योऽहं शश्वत्तमाया उषसो व्युष्टौ यौ वां हवे तौ युवां हि किल श्येनस्य जवसेव नूतनेन रथेनास्मैऽस्मानायातम्॥11॥ भावार्थः—स्त्रीपुरुषा रात्रेश्चतुर्थे याम उत्थायावश्यकं कृत्वा जगदीश्वरमुपास्य योगाभ्यासं कृत्वा राजप्रजाकार्य्याण्यनुष्ठातुं प्रवर्तेरन्। राजादिभिः प्रशंसनीयाः प्रजाजनाः सत्कर्तव्याः प्रजापुरुषैश्च स्तोतुमर्हा राजजनाश्च स्तोतव्याः। नहि केनचिदधर्मसेवी स्तोतुमर्हो धर्मसेवी निन्दितुं वा योग्योऽस्ति तस्मात्सर्वे धर्मव्यवस्थामाचरेयुः॥11॥ अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इत्यष्टादशोत्तरशततमं 118 सूक्तं एकोनविंशो 19 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे (नासत्या) सत्ययुक्त (अश्विना) समस्त गुणों में रमे हुए स्त्री-पुरुषो वा सभासेनाधीशो! (सजोषाः) जिसका एकसा प्रेम (रातहव्यः) वा जिसने भलीभांति होम की (सामग्री) दी वह मैं (शश्वत्तमायाः) अतीव अनादि रूप (उषसः) प्रातःकाल की वेला के (व्युष्टौ) विशेष करके चाहे हुए समय में जिन (वाम्) तुमको (हवे) स्तुति से बुलाऊं, वे तुम (हि) निश्चय के साथ (श्येनस्य) वाज पखेरू के (जवसा) वेग के समान (नूतनेन) नये रथ से (अस्मे) हम लोगों को (आ, यातम्) आ मिलो॥11॥ भावार्थः—स्त्री-पुरुष रात्रि के चौथे प्रहर में उठ अपना आवश्यक अर्थात् शरीर शुद्धि आदि काम कर, फिर जगदीश्वर की उपासना और योगाभ्यास को करके राजा और प्रजा के कामों का आचरण करने को प्रवृत्त हों। राजा आदि सज्जनों को चाहिए कि प्रशंसा के योग्य प्रजाजनों का सत्कार करें और प्रजाजनों को चाहिये कि स्तुति के योग्य राजजनों की स्तुति करें। क्योंकि किसी को अधर्म सेवनेवाले दुष्ट जन की स्तुति और धर्म का सेवन करनेवाले धर्मात्मा जन की निन्दा करने योग्य नहीं है, इससे सब जन धर्म की व्यवस्था का आचरण करें॥11॥ इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राजा-प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये॥ यह एकसौ अट्ठारहवां 118 सूक्त और उन्नीसवां 19 वर्ग समाप्त हुआ॥

अथास्य दशर्चस्यैकोनविंशतिशततमस्य सूक्तस्य दैर्घतमसः कक्षीवानृषिः। अश्विनौ देवते। 1,4,6 निचृज्जगती। 3,7,10 जगती। 8 विराड्जगतीछन्दः। निषादः स्वरः। 2,5,9 भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनः स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते। अब एकसौ उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर स्त्री-पुरुष कैसे अपना वर्ताव वर्त्तें, यह उपदेश किया है॥ आ वां॒ रथं॑ पुरुमा॒यं म॑नो॒जुवं॑ जी॒राश्वं॑ य॒ज्ञियं॑ जी॒वसे॑ हुवे। स॒हस्र॑केतुं व॒निनं॑ श॒तद्व॑सुं श्रुष्टी॒वानं॑ वरिवो॒धाम॒भि प्रयः॑॥1॥ आ। वा॒म्। रथ॑म्। पु॒रु॒ऽमा॒यम्। म॒नः॒ऽजुव॑म्। जी॒रऽअ॑श्वम्। य॒ज्ञिय॑म्। जी॒वसे॑। हु॒वे॒। स॒हस्र॑ऽकेतुम्। व॒निन॑म्। श॒तत्ऽव॑सुम्। श्रु॒ष्टी॒ऽवान॑म्। व॒रि॒वः॒ऽधाम्। अ॒भि। प्रयः॑॥1॥ पदार्थः—(आ) (वाम्) युवयोः स्त्रीपुरुषयोः (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (पुरुमायम्) पूर्व्या मायया प्रज्ञया सम्पादितम् (मनोजुवम्) मनोवद्वेगवन्तम् (जीराश्वम्) जीरान् जीवान् प्राणधारकानश्नुते येन तम् (यज्ञियम्) यज्ञयोग्यं देशं गन्तुमर्हम् (जीवसे) जीवनाय (हुवे) स्तुवे (सहस्रकेतुम्) असंख्यातध्वजम् (वनिनम्) वनं बहूदकं विद्यते यस्मिँस्तम्। वनमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (शतद्वसुम्) शतान्यसंख्यातानि वसूनि यस्मिंस्तम्। अत्र पृषोदरादित्वात् पूर्वपदस्य तुगागमः। (श्रुष्टीवानम्) श्रुष्टीः क्षिप्रगतीर्वनति भाजयति यस्तम्। श्रुष्टीति क्षिप्रनामसु पठितम्। वनधातोर्ण्यन्तादच्। (वरिवोधाम्) वरिवः परिचरणं सुखसेवनं दधाति येन तम् (अभि) (प्रयः) प्रीणाति यः सः। औणादिकोऽन् प्रत्ययः॥1॥ अन्वयः—हे अश्विना! प्रयोऽहं जीवसे वां युवयोः पुरुमायं जीराश्वं यज्ञियं सहस्रकेतुं शतद्वसुं वनिनं श्रुष्टीवान् मनोजुवं वरिवोधां रथमभ्याहुवे॥1॥ भावार्थः—पूर्वस्मान् मन्त्रादश्विनेत्यनुवर्त्तते। प्रयतमानैर्विद्वद्भिः शिल्पिभिर्यदीष्येत तर्हि ईदृशो रथो निर्मातुं शक्येत॥1॥ पदार्थः—हे समस्त गुणों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! (प्रयः) प्रीति करनेवाला मैं (जीवसे) जीवन के लिये (वाम्) तुम दोनों का (पुरुमायम्) बहुत बुद्धि से बनाया हुआ (जीराश्वम्) जिस से प्राणधारी जीवों को प्राप्त होता वा उनको इकट्ठा करता (यज्ञियम्) जो यज्ञ के देश को जाने योग्य (सहस्रकेतुम्) जिसमें सहस्रों झंडी लगी हों (शतद्वसुम्) सैकड़ों प्रकार के धन (वनिनम्) और बहुत जल विद्यमान हों (श्रुष्टीवानम्) जो शीघ्रचालियों को चलता हुआ (मनोजुवम्) मन के समान वेगवाला (वरिवोधाम्) जिससे मनुष्य सुख सेवन को धारण करता (रथम्) उस मनोहर विमान आदि यान की (अभ्याहुवे) सब प्रकार प्रशंसा करता हूं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अन्तिम मन्त्र से (अश्विना) इस पद की अनुवृत्ति आती है। अच्छा यत्न करते हुए विद्वान् शिल्पी जनों ने जो चाहा हो तो जैसा कि सब गुणों से युक्त विमान आदि रथ इस मन्त्र में वर्णन किया, वैसा बन सके॥1॥ पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ऊ॒र्ध्वा धी॒तिः प्रत्य॑स्य॒ प्रया॑म॒न्यधा॑यि॒ शस्म॒न्त्सम॑यन्त॒ आ दिशः॑। स्वदा॑मि घ॒र्मं प्रति॑ यन्त्यू॒तय॒ आ वा॑मू॒र्जानी॒ रथ॑मश्विनारुहत्॥2॥ ऊ॒र्ध्वा। धी॒तिः। प्रति॑। अ॒स्य॒। प्रऽया॑मनि। अधा॑यि। शस्म॑न्। सम्। अ॒य॒न्ते॒। आ। दिशः॑। स्वदा॑मि। घ॒र्मम्। प्रति॑। य॒न्ति॒। ऊ॒तयः॑। आ। वा॒म्। ऊ॒र्जानी॑। रथ॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। अ॒रु॒ह॒त्॥2॥ पदार्थः—(ऊर्ध्वा) (धीतिः) धारणा (प्रति) (अस्य) (प्रयामनि) प्रयाणे (अधायि) धृता (शस्मन्) स्तोतुमर्हे (सम्) (अयन्ते) गच्छन्ते (आ) (दिशः) ये दिशन्त्यतिसृजन्ति ते जनाः (स्वदामि) (घर्मम्) प्रदीप्तं सुगन्धियुक्तं भोज्यं पदार्थम् (प्रति) (यन्ति) प्रापयन्ति (ऊतयः) कमनीया रक्षादयः (आ) (वाम्) युवयोः (ऊर्जानी) पराक्रमयुक्ता नीतिः (रथम्) विमानादियानम् (अश्विना) सभासेनेशौ (अरुहत्) रोहति॥2॥ अन्वयः—हे अश्विना! वां युवयोः शस्मन् प्रयामन्यूर्जान्यूर्ध्वा धीतिश्च यैर्जनैरधायि ते दिशः समायन्ते। यं रथं शिल्प्यारुहत्तं युवामारोहेताम्। यं घर्ममूतयो नो यन्ति तं युवां प्रति यन्तु। यं घर्ममहं स्वदाम्यस्य स्वादं युवां प्रति यातम्॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं सुसंस्कृतानि रोगापहारकाणि बलप्रदान्यन्नानि भुङ्ग्ध्वम्। यात्रायां सर्वाः सामग्रीः सङ्गृह्य परस्परं प्रीतिरक्षणे विधाय देशान्तरं गच्छत कुत्रापि नीतिं मा त्यजत॥2॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभासेनाधीशो! (वाम्) तुम दोनों की (शस्मन्) प्रशंसा के योग्य (प्रयामनि) अति उत्तम यात्रा में जो (ऊर्जानी) पराक्रमयुक्त नीति और (ऊर्ध्वा) (धीतिः) उन्नतियुक्त धारणा वा ऊंची धारणा जिन मनुष्यों ने (अधायि) धारण की वे (दिशः) दान आदि उत्तम कर्म करनेहारे मनुष्य (सम्, आ, अयन्ते) भली-भांति आते हैं। जिस (रथम्) मनोहर विमान आदि यान का शिल्पी कारुक जन (आ, अरुहत्) आरोहरण करता अर्थात् उस पर चढ़ता है, उस पर तुम लोग चढ़ो। जिस (घर्मम्) उज्ज्वल सुगन्धियुक्त भोजन करने योग्य पदार्थ को (ऊतयः) मनोहर रक्षा आदि व्यवहार हम लोगों के लिये (यन्ति) प्राप्त करते हैं, उसको (प्रति) तुम प्राप्त होओ और जिस उज्ज्वल सुगन्धियुक्त भोजन करने योग्य पदार्थ का मैं (स्वदामि) स्वाद लेऊं (अस्य) इसके स्वाद को तुम (प्रति) प्रतीति से प्राप्त होओ॥2॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम अच्छे बने हुए, रोगों का विनाश करने और बल के देनेहारे अन्नों को भोगो। यात्रा में सब सामग्री को लेकर एक-दूसरे से प्रीति और रक्षा कर-करा देश-परदेश को जाओ, पर कहीं नीति को न छोड़ो॥2॥ पुनः स्त्रीपुरुषकृत्यमाह॥ फिर अगले मन्त्र में स्त्री-पुरुष के करने योग्य काम का उपदेश किया है॥ सं यन्मि॒थः प॑स्पृधा॒नासो॒ अग्म॑त शु॒भे म॒खा अमि॑ता जा॒यवो॒ रणे॑। यु॒वोरह॑ प्रव॒णे चेकि॑ते॒ रथो॒ यद॑श्विना॒ वह॑थः सू॒रिमा वर॑म्॥3॥ सम्। यत्। मि॒थः। प॒स्पृ॒धा॒नासः॑। अग्म॑त। शु॒भे। म॒खाः। अमि॑ताः। जा॒यवः॑। रणे॑। यु॒वोः। अह॑। प्र॒व॒णे। चे॒कि॒ते॒। रथः॑। यत्। अ॒श्वि॒ना॒। वह॑थः। सू॒रिम्। आ। वर॑म्॥3॥ पदार्थः—(सम्) (यत्) यस्मै (मिथः) परस्परम् (पस्पृधानासः) स्पर्द्धमानाः (अग्मत) गच्छत (शुभे) शुभगुणप्राप्तये (मखाः) यज्ञा इवोपकर्त्तारः (अमिताः) अप्रक्षिप्ताः (जायवः) शत्रून् विजेतारः (रणे) संग्रामे (युवोः) (अह) शत्रुविनिग्रहे (प्रवणे) प्रवन्ते गच्छन्ति वीरा यस्मिन् (चेकिते) योद्धुं जानाति (रथः) (यत्) यः (अश्विना) दम्पती (वहथः) प्राप्नुथः (सूरिम्) युद्धविद्याकुशलं धार्मिकं विद्वांसम् (आ) समन्तात् (वरम्) अतिश्रेष्ठम्॥3॥ अन्वयः—हे अश्विना! यद्यो विद्वांश्चिकिते यो युवोरथो मिथो युद्धे साधकतमोऽस्ति, यं वरं सूरिं युवां वहथस्तेनाह सह वर्त्तमाना यच्छुभे प्रवणे रणे पस्पृधानासो मखा अमिता जायवः समग्मत सङ्गच्छन्तां तस्मा आप्रयतन्ताम्॥3॥ भावार्थः—राजपुरुषा यदा शत्रुजयाय स्वसेनाः प्रेषयेयुस्तदा लब्धलक्ष्मीकाः कृतज्ञा युद्धकुशला योधयितारो विद्वांसः सेनाभिः सहावश्यं गच्छेयुः, सर्वाः सेनास्तदनुमत्यैव युध्येरन् यतो ध्रुवो विजयः स्यात्। यदा युद्धं निवर्तेत स्वस्वस्थाने वीरा आसीरँस्तदा तान् समूह्य प्रहर्षविजयार्थानि व्याख्यानानि कुर्युर्यतः ते सर्वे युद्धायोत्साहिता भूत्वा शत्रूनवश्यं विजयेरन्॥3॥ पदार्थः—हे (अश्विना) स्त्री-पुरुषो! (यत्) जो विद्वान् (चेकिते) युद्ध करने को जानता है वा जो (युवोः) तुम दोनों का (रथः) अति सुन्दर रथ (मिथः) परस्पर युद्ध के बीच लड़ाई करनेहारा है वा जिस (वरम्) अतिश्रेष्ठ (सूरिम्) युद्ध विद्या के जाननेवाले धार्मिक विद्वान् को तुम (वहथः) प्राप्त होते उसके साथ वर्त्तमान (अह) शत्रुओं के बांधने वा उनको हार देने में (यत्) जिस (शुभे) अच्छे गुण के पाने के लिये (प्रवणे) जिसमें वीर जाते हैं, उस (रणे) संग्राम में (पस्पृधानासः) ईर्ष्या से एक-दूसरे को बुलाते हुए (मखाः) यज्ञ के समान उपकार करनेवाले (अमिताः) न गिराये हुए (जायवः) शत्रुओं को जीतनेहारे वीरपुरुष (समग्मत) अच्छे प्रकार जायें, उसके लिये (आ) उत्तम यत्न भी करें॥3॥ भावार्थः—राजपुरुष जब शत्रुओं को जीतने को अपनी सेना पठावे, तब जिन्होंने धन पाया, जो करे को जाननेवाला, युद्ध में चतुर, औरों से युद्ध करानेवाले विद्वान् जन वे सेनाओं के साथ अवश्य जावें। और सब सेना उन विद्वानों के अनुकूलता से युद्ध करें, जिससे निश्चल विजय हो। जब युद्ध निवृत्त हो रुक जाय और अपने-अपने स्थान पर वीर बैठें, तब उन सबको इकट्ठा कर आनन्द देकर जीतने के ढंग की बातें-चीतें करें, जिससे वे सब युद्ध करने के लिये उत्साह बांध के शत्रुओं को अवश्य जीतें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं भु॒ज्युं भु॒रमा॑णं॒ विभि॑र्ग॒तं स्वयु॑क्तिभिर्नि॒वह॑न्ता पि॒तृभ्य॒ आ। या॒सि॒ष्टं व॒र्त्तिर्वृ॑षणा विजे॒न्यं दिवो॑दासाय॒ महि॑ चेति वा॒मवः॑॥4॥ यु॒वम्। भु॒ज्युम्। भु॒रमा॑णम्। विऽभिः॑। ग॒तम्। स्वयु॑क्तिऽभिः। नि॒ऽवह॑न्ता। पि॒तृऽभ्यः॑। आ। या॒सि॒ष्टम्। व॒र्तिः॑। वृ॒ष॒णा॒। वि॒ऽजे॒न्य॑म्। दिवः॑ऽदासाय। महि॑। चे॒ति॒। वा॒म्। अवः॑॥4॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (भुज्युम्) भोगमर्हम् (भुरमाणम्) पुष्टिकारकम्। डुभृञ्धातोः शानचि व्यत्ययेन शो बहुलं छन्दसीत्युत्वं च। (विभिः) पक्षिभिरिव (गतम्) प्राप्तम् (स्वयुक्तिभिः) आत्मीयप्रकारैः (निवहन्ता) नितरां प्रापयन्तौ (पितृभ्यः) राजपालकेभ्यो वीरेभ्यः (आ) (यासिष्टम्) यातम् (वर्त्तिः) वर्त्तमानं सैन्यम् (वृषणा) सुखवर्षकौ (विजेन्यम्) विजेतुं योग्यम् (दिवोदासाय) विद्याप्रकाशदात्रे सेनाध्यक्षाय (महि) महत् (चेति) संज्ञायते। अत्राडभावः। (वाम्) युवयोः (अवः) रक्षकम्॥4॥ अन्वयः—हे वृषणाऽश्विना! युवं वां भुरमाणं भुज्युं विभिर्गतमिव स्वयुक्तिभिः पितृभ्यो निवहन्ता सन्तौ यद्वां मह्यवो वर्त्तिः सैन्यं चेति तच्च सङ्गृह्म दिवोदासाय विजेन्यमायासिष्टम्॥4॥ भावार्थः—सेनापतिभिर्यत्सैन्यं हृष्टं पुष्टं स्वभक्तं विज्ञायेत तद्विविधैर्भोगैः सुशिक्षया च संयोज्यागामिलाभाय प्रवर्त्येदृशेन युध्वा शत्रवो विजेतुं शक्यन्ते॥4॥ पदार्थः—(वृषणा) सुख वर्षाने और सब गुणों में रमनेहारे सभासेनाधीशो! (युवम्) तुम दोनों (वाम्) अपनी (भुरमाणम्) पुष्टि करनेवाले (भुज्युम्) भोजन करने के योग्य पदार्थ को (विभिः) पक्षियों ने (गतम्) पाये हुए के समान (स्वयुक्तिभिः) अपनी रीतियों से (पितृभ्यः) राज्य की पालना करनेहारे वीरों के लिये (निवहन्ता) निरन्तर पहुंचाते हुए (महि) अतीव (अवः) रक्षा करनेवाले पदार्थ और (वर्त्तिः) जो सेनासमूह (चेति) जाना जाये, उसको भी लेकर (दिवोदासाय) विद्या का प्रकाश देनेवाले सेनाध्यक्ष के लिये (विजेन्यम्) जीतने योग्य शत्रुसेनासमूह को (आ, यासिष्टम्) प्राप्त होओ॥4॥ भावार्थः—सेनापतियों से जो सेनासमूह हृष्ट-पुष्ट अर्थात् सुख से भरा-पूरा खाने-पीने से पुष्ट अपने को चाहता हुआ जान पडे, उसको अनेक प्रकार के भोग और अच्छी सिखावट से युक्त कर अर्थात् उक्त पदार्थ उनको देकर आगे होनेवाले लाभ के लिये प्रवृत्त करा ऐसे सेनासमूह से युद्ध कर शत्रुजन जीते जा सकते हैं॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म्। आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मु॒षी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑॥5॥20॥ युवोः। अ॒श्वि॒ना॒। वपु॑षे। यु॒वा॒ऽयुज॑म्। रथ॑म्। वाणी॒ इति॑। ये॒म॒तुः॒। अ॒स्य॒। शर्ध्य॑म्। आ। वा॒म्। प॒ति॒ऽत्वम्। स॒ख्याय॑। ज॒ग्मुषी॑। योषा॑। अ॒वृ॒णी॒त॒। जेन्या॑। यु॒वाम्। पती॒ इति॑॥5॥ पदार्थः—(युवोः) (अश्विना) सभासेनाधीशौ (वपुषे) सुरूपाय (युवायुजम्) युवाभ्यां युज्यते तम्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यप्राप्तोऽपि युवादेशः। (रथम्) रमणीयं सैन्यादियुक्तं यानम् (वाणी) उपदेशकाविव। इञ् वपादिभ्य इति शब्दार्थाद्वणधातोरिञ्। (येमतुः) नियच्छतः (अस्य) राज्यकार्य्यस्य मध्ये (शर्ध्यम्) शर्द्धेषु बलेषु भवम् (आ) (वाम्) युवयोः (पतित्वम्) पालकभावम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे (जग्मुषी) गन्तुं शीला (योषा) प्रौढा ब्रह्मचारिणी युवतिः (अवृणीत) स्वीकुर्य्यात् (जेन्या) जनेषु नयनकर्तृषु साधू (युवाम्) (पती) अन्योऽन्यस्य पालकौ॥5॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवोः शर्ध्ये युवायुजं रथमस्य मध्ये स्थितौ वाणी वपुषे येमतुर्वां युवयोः सख्याय जेन्या पती युवां पतित्वं जग्मुषी योषा सती हृद्यं स्त्रियं पतिमावृणीत॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ब्रह्मचर्यं कृत्वा प्राप्तयौवनावस्था विदुषी कुमारी स्वप्रियं पतिं प्राप्य सततं सेवते यथा च कृतब्रह्मचर्यो युवा स्वाभीष्टां स्त्रियं प्राप्यानन्दति, तथैव सभासेनापती सदा भवेताम्॥5॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सभासेनाधीशो! (युवोः) तुम अपने (शर्ध्यम्) बलों से युक्त (युवायुजम्) तुमने जोड़े (रथम्) मनोहर सेना आदि युक्त यान को (अस्य) इस राजकार्य के बीच में स्थिर हुए (वाणी) उपदेश करनेवालों के समान (वपुषे) अच्छे रूप के होने के लिये (येमतुः) नियम में रखते हो (वाम्) तुम दोनों के (सख्याय) मित्रपन अर्थात् अतीव प्रीति के लिये (जेन्या) नियम करते हुओं में श्रेष्ठ (पती) पालना करनेहारे (युवाम्) तुम्हारे साथ (पतित्वम्) पतिभाव को (जग्मुषी) प्राप्त होनेवाली (योषा) यौवन अवस्था से परिपूर्ण ब्रह्मचारिणी युवति स्त्री तुम में से अपने मन से चाहे हुए पति को (आ, अवृणीत) अच्छे प्रकार वरे॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विदुषी कुमारी कन्या ब्रह्मचर्य्य करके यौवन अवस्था को पाए हुए अपने प्यारे पति को पाकर निरन्तर उसकी सेवा करती है और जैसे ब्रह्मचर्य को किये हुए जवान पुरुष अपनी प्रीति के अनुकूल चाही हुई स्त्री को पाकर आनन्दित होता है, वैसे ही सभा और सेनापति सदा होवें॥5॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं रे॒भं परि॑षूतेरुरुष्यथो हि॒मेन॑ घ॒र्मं परि॑तप्त॒मत्र॑ये। यु॒वं श॒योर॑व॒सं पि॑प्यथु॒र्गवि॒ प्र दी॒र्घेण॒ वन्द॑नस्ता॒र्यायु॑षा॥6॥ यु॒वम्। रे॒भम्। परि॑ऽसूतेः। उ॒रु॒ष्य॒थः॒। हि॒मेन॑। घ॒र्म॒म्। परि॑ऽतप्तम्। अत्र॑ये। यु॒वम्। श॒योः। अ॒व॒सम्। पि॒प्य॒थुः॒। गवि॑। प्र। दी॒र्घेण॑। वन्द॑नः। ता॒रि॒। आयु॑षा॥6॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (रेभम्) सकलविद्यास्तोतारम् (परिषूतेः) परितः सर्वतोः विद्याजन्मनि प्रादुर्भूतान् (उरुष्यथः) रक्षथः। उरुष्यती रक्षाकर्मा। (निरु॰5.23) (हिमेन) शीतेन (घर्मम्) सूर्य्यतापम् (परितप्तम्) सर्वतः संक्लिष्टम् (अत्रये) अविद्यमानान्याध्यात्मिकादीनि त्रीणि दुःखानि यस्मिंस्तस्मै सुखाय (युवम्) युवाम् (शयोः) शयानस्य (अवसम्) रक्षणादिकम् (पिप्यथुः) वर्धयतम् (गवि) पृथिव्याम् (प्र) (दीर्घेण) प्रलम्बितेन (वन्दनः) स्तोतुमर्हः (तारि) तीर्यते (आयुषा) जीवनेन॥6॥ अन्वयः—हे अश्विना! यथा युवमत्रये परिसूतेः प्राप्तविद्यं परितप्तं रेभं विद्वांसं जनं हिमेन घर्ममिवोरुष्यथः। युवं गवि शयोरवसं पिप्यथुर्वन्दनो दीर्घेणायुषा युवाभ्यां तारि तथा वयमपि प्रयतेमहि॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ! यथा शीतेनोष्णता हन्यते तथाऽविद्या विद्यया हतं यत आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि दुःखानि नश्येयुः। यथा धार्मिकाराजपुरुषाश्चोरादीन् निवार्य शयानान् प्रजाजनान् रक्षन्ति यथा च सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं जगत् सम्पोष्य जीवनप्रदौ स्तस्तथाऽस्मिञ्जगति प्रवर्त्तेथाम्॥6॥ पदार्थः—हे सब विद्याओं में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! जैसे (युवम्) तुम दोनों (अत्रये) आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन दुःख जिसमें नहीं हैं, उस उत्तम सुख के लिये (परिसूतेः) सब ओर से दूसरे विद्या जन्म में प्रसिद्ध हुए विद्वान् से विद्या को पाये हुए (परितप्तम्) सब प्रकार क्लेश को प्राप्त (रेभम्) समस्त विद्या की प्रशंसा करनेवाले विद्वान् मनुष्य को (हिमेन) शीत से (घर्मम्) घाम (धूप) के समान (उरुष्यथः) पालो अर्थात् शीत से घाम जैसे बचाया जावे, वैसे पालो (युवम्) तुम दोनों (गवि) पृथिवी में (शयोः) सोते हुए की (अवसम्) रक्षा आदि को (पिप्यथुः) बढ़ाओ (वन्दनः) प्रशंसा करने योग्य व्यवहार (दीर्घेण) लम्बी बहुत दिनों की (आयुषा) आयु से तुम दोनों ने (तारि) पार किया, वैसा हम लोग भी (प्र) प्रयत्न करें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषो! जैसे शीत से गरमी मारी जाती है, वैसे अविद्या को विद्या से मारो; जिससे आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन प्रकार के दुःख नष्ट हों। जैसे धार्मिक राजपुरुष चोर आदि को दूर कर सोते हुए प्रजाजनों की रक्षा करते हैं और जैसे सूर्य्य चन्द्रमा सब जगत् की पुष्टि देकर जीवन के आनन्द को देनेवाले हैं, वैसे इस जगत् में प्रवृत्त होओ॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं वन्द॑नं॒ निर्ऋ॑तं जर॒ण्यया॒ रथं॒ न द॑स्रा कर॒णा समि॑न्वथः। क्षेत्रा॒दा विप्रं॑ जनथो विप॒न्यया॒ प्र वा॒मत्र॑ विध॒ते दं॒सना॑ भुवत्॥7॥ यु॒वम्। वन्द॑नम्। निःऽऋ॑तम्। ज॒र॒ण्यया॑। रथ॑म्। न। द॒स्रा॒। क॒र॒णा। सम्। इ॒न्व॒थः॒। क्षेत्रा॑त्। आ। विप्र॑म्। ज॒न॒थः॒। वि॒प॒न्यया॑। प्र। वा॒म्। अत्र॑। वि॒ध॒ते। दं॒सना॑। भु॒व॒त्॥7॥ पदार्थः—(युवम्) युवां स्त्रीपुरुषौ (वन्दनम्) वन्दनीयम् (निर्ऋतम्) निरन्तरमृतं सत्यमस्मिन् (जरण्यया) जरणान् विद्यावृद्धानर्हति यया विद्यया तया युक्तम् (रथम्) विमानादियानम् (न) इव (दस्रा) (करणा) कुर्वन्तौ (सम्) (इन्वथः) प्राप्नुतम् (क्षेत्रात्) गर्भाशयोदरान्निवासस्थानात् (आ) (विप्रम्) विद्यासुशिक्षायोगेन मेधाविनम् (जनथः) जनयतम्। शप आर्धधातुकत्वाण्णिलुक्। (विपन्यया) स्तोतुं योग्यया धर्म्यया नीत्या युक्तानि (प्र) (वाम्) युवयोः (अत्र) अस्मिञ्जगति (विधते) विधात्रे (दंसना) कर्माणि (भुवत्) भवेत्। अत्र लेट्॥7॥ अन्वयः—हे करणा दस्राश्विनौ स्त्रीपुरुषौ! युवं जरण्यया युक्तं निर्ऋतं वन्दनं विप्रं रथं न समिन्वथः क्षेत्रादुत्पन्नमिवाजनथो योऽत्र वां युवयोर्गृहाश्रमे संबन्धः प्रभुवत्तत्र विपन्यया युक्तानि दंसना कर्माणि विधते विधातुं प्रवर्त्तमानायोत्तमान् राज्यधर्माधिकारान् दद्यातम्॥7॥ भावार्थः—मननशीलाः स्त्रीपुरुषा जन्मारभ्य यावत् ब्रह्मचर्य्येण सकला विद्या गृह्णीयुस्तावत्सन्तानान् सुशिक्ष्य यथायोग्येषु व्यवहारेषु सततं नियोजयेयुः॥7॥ पदार्थः—हे (करणा) उत्तम कर्मों के करने वा (दस्रा) दुःख दूर करनेवाले स्त्री पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (जरण्यया) विद्यावृद्ध अर्थात् अतीव विद्या पढ़े हुए विद्वानों के योग्य विद्या से युक्त (निर्ऋतम्) जिसमें निरन्तर सत्य विद्यमान (वन्दनम्) प्रशंसा करने योग्य (विप्रम्) विद्या और अच्छी शिक्षा के योग से उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् को (रथम्) विमान आदि यान के (न) समान (समिन्वथः) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ और (क्षेत्रात्) गर्भ के ठहरने की जगह से उत्पन्न हुए सन्तान के समान अपने निवास से उत्तम काम को (आ, जनथः) अच्छे प्रकार प्रकट करो, जो (अत्र) इस संसार में (वाम्) तुम दोनों का गृहाश्रम के बीच सम्बन्ध (प्र, भुवत्) प्रबल हो, उस में (विपन्यया) प्रशंसा करने योग्य धर्म की नीति से युक्त (दंसना) कामों को (विधते) विधान करने को प्रवृत्त हुए मनुष्य के लिये उत्तम राज्य के अधिकारों को देओ॥ भावार्थः—विचार करनेवाले स्त्रीपुरुष जन्म से लेके जब तक ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्या ग्रहण करें, तब तक उत्तम शिक्षा देकर सन्तानों को यथायोग्य व्यवहारों में निरन्तर युक्त करें॥7॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अग॑च्छतं॒ कृप॑माणं परा॒वति॑ पि॒तुः स्वस्य॒ त्य॑जसा॒ निबा॑धितम्। स्व॑र्वतीरि॒त ऊ॒तीर्यु॒वोरह॑ चि॒त्रा अ॒भीके॑ अभवन्न॒भिष्ट॑यः॥8॥ अग॑च्छतम्। कृप॑माणम्। प॒रा॒ऽवति॑। पि॒तुः। स्वस्य॑। त्यज॑सा। निऽबा॑धितम्। स्वः॑ऽवतीः। इ॒तः। ऊ॒तीः। यु॒वोः। अह॑। चि॒त्राः। अ॒भीके॑। अ॒भ॒व॒न्। अ॒भिष्ट॑यः॥8॥ पदार्थः—(अगच्छतम्) प्राप्नुताम् (कृपमाणम्) कृपां कर्त्तुं शीलम् (परावति) दूरदेशेऽपि स्थितम् (पितुः) जनकवद्वर्त्तमानस्याध्यापकस्य सकाशात् (स्वस्य) स्वकीयस्य (त्यजसा) संसारसुखत्यागेन (निबाधितम्) पीडितं संन्यासिनम् (स्वर्वतीः) स्वः प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यासु ताः (इतः) अस्माद्वर्त्तमानाद्यतेः (ऊतीः) रक्षणाद्याः (युवोः) युवयोः (अह) निश्चये (चित्राः) अद्भुताः (अभीके) समीपे (अभवन्) भवन्तु (अभिष्टयः) अभीप्सिताः॥8॥ अन्वयः—हे अश्विनौ स्त्रीपुरुषौ! भवन्तौ स्वस्य पितुः परावति स्थितं त्यजसा निबाधितं कृपमाणं परिव्राजं नित्यमगच्छतम्। इत एव युवोरभीकेऽह चित्रा अभिष्टयः स्वर्वतीरूतिरभवन्॥8॥ भावार्थः—सर्वे मनुष्या पूर्णविद्यमाप्तं रागद्वेषपक्षपातरहितं सर्वेषामुपरि कृपां कुर्वन्तं सर्वथासत्ययुक्तमसत्यत्यागिनं जितेन्द्रियं प्राप्तयोगसिद्धान्तं परावरज्ञं जीवन्मुक्तं संन्यासाश्रमे स्थितमुपदेशाय नित्यं भ्रमन्तं वेदविदं जनं प्राप्य धर्मार्थकाममोक्षाणां सविधानाः सिद्धिः प्राप्नुवन्तु, न खल्वीदृग्जनसङ्गोपदेशश्रवणाभ्यां विना कश्चिदपि यथार्थबोधमाप्तुं शक्नोति॥8॥ पदार्थः—हे विद्या के विचार में रमे हुए स्त्री-पुरुषो! आप (स्वस्य) अपने (पितुः) पिता के समान वर्त्तमान पढ़ानेवाले से (परावति) दूर देश में भी ठहरे और (त्यजसा) संसार के सुख को छोड़ने से (निबाधितम्) कष्ट पाते हुए (कृपमाणम्) कृपा करने के शीलवाले संन्यासी को नित्य (अगच्छतम्) प्राप्त होओ (इतः) इसी यति से (युवोः) तुम दोनों के (अभीके) समीप में (अह) निश्चय से (चित्राः) अद्भुत (अभिष्टयः) चाही हुई (स्वर्वतीः) जिनमें प्रशंसित सुख विद्यमान हैं (ऊतीः) वे रक्षा आदि कामना (अभवन्) सिद्ध हों॥8॥ भावार्थः—सब मनुष्य पूरी विद्या जानने और शस्त्रसिद्धान्त में रमनेवाले राग-द्वेष और पक्षपातरहित सबके ऊपर कृपा करते सर्वथा सत्ययुक्त असत्य को छोड़े इन्द्रियों को जीते और योग के सिद्धान्त को पाये हुए अगले-पिछले व्यवहार को जाननेवाले जीवन्मुक्त संन्यास के आश्रम में स्थित, संसार में उपदेश करने के लिये नित्य भ्रमते हुए, वेदविद्या के जाननेवाले संन्यासीजन को पाकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षों की सिद्धियों को विधान के साथ पावें। ऐसे संन्यासी आदि उत्तम विद्वान् के सङ्ग और उपदेश के सुने विना कोई भी मनुष्य यथार्थ बोध को नहीं पा सकता॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उ॒त स्या वां॒ मधु॑म॒न्मक्षि॑कारप॒न्मदे॒ सोम॑स्यौशि॒जो हु॑वन्यति। यु॒वं द॑धी॒चो मन॒ आ वि॑वास॒थोऽथा॒ शिरः॒ प्रति॑ वा॒मश्व्यं॑ वदत्॥9॥ उ॒त। स्या। वा॒म्। मधु॑ऽमत्। मक्षि॑का। अ॒र॒प॒त्। मदे॑। सोम॑स्य। औ॒शि॒जः। हु॒व॒न्य॒ति॒। यु॒वम्। द॒धी॒चः। मनः॑। आ। वि॒वा॒स॒थः॒। अथ॑। शिरः॑। प्रति॑। वा॒म्। अश्व्य॑म्। व॒द॒त्॥9॥ पदार्थः—(उत) अपि (स्या) असौ (वाम्) युवाम् (मधुमत्) प्रशस्ता मधुरा मधवो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् तत् (मक्षिका) मशति शब्दयति या सा मक्षिका। हनिमशिभ्यां सिकन्। (उणा॰4.154) इति मश धातोः सिकन्। (अरपत्) रपति गुञ्जति (मदे) हर्षे (सोमस्य) धर्मप्रेरकस्य (औशिजः) कमनीयस्य पुत्रः (हुवन्यति) आत्मनो हुवनं दानमादानं चेच्छति। अत्र हुवन् शब्दात् क्यचि वाच्छन्दसीतीत्वाभावेऽल्लोपः। (युवम्) युवाम् (दधीचः) विद्याधर्मधारकानञ्चति विज्ञापयति तस्य सकाशात् (मनः) विज्ञानम् (आ) (विवासथः) सेवेथाम् (अथ) आनन्तर्ये। निपातस्य चेति दीर्घः। (शिरः) शिर उत्तमाङ्गवत् प्रशस्तम् (प्रति) (वाम्) युवाम् (अश्व्यम्) अश्वेषु व्याप्तविद्येषु साधु (वदत्) वदेत्॥9॥ अन्वयः—हे अश्विनौ माङ्गलिकौ राजप्रजाजनौ! युवं युवां य औशिजः परिव्राड् मदे प्रवर्त्तमाना स्या मक्षिका यथारपत्तथा वां मधुमद्धुवन्यति तस्य सोमस्य दधीचः सकाशान्मन आविवासथः। अथोत स वां प्रीत्यैतदश्व्यं सततं प्रति वदत्॥9॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! तथा मक्षिकाः पार्थिवेभ्यो रसं गृहीत्वा वसतौ संचित्यानन्दन्ति तथैव योगविद्यैश्वर्योपपन्नस्य सत्योपदेशेन सुखे विधातुर्ब्रह्मनिष्ठस्य विदुषः संन्यासिनः समीपात् सत्यां शिक्षां श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य सदा यूयं सुखिनो भवेत॥9॥ पदार्थः—हे मंगलयुक्त राजा और प्रजाजनो! (युवम्) तुम दोनों जो (औशिजः) मनोहर उत्तम पुरुष का पुत्र संन्यासी (मदे) मद के निमित्त प्रवर्त्तमान (स्या) वह (मक्षिका) शब्द करनेवाली मक्खी जैसे (अरपत्) गूंजती है, वैसे (वाम्) तुम दोनों को (मधुमत्) मधुमत् अर्थात् जिसमें प्रशंसित गुण हैं, उस व्यवहार के तुल्य (हुवन्यति) अपने को देना-लेना चाहता है, उस (सोमस्य) धर्म्म की प्रेरणा करने और (दधीचः) विद्या धर्म की धारणा करनेहारे के तीर से (मनः) विज्ञान को (आ, विवासथः) अच्छे प्रकार सेवो (अथ) इसके अनन्तर (उत) तर्क-वितर्क से वह (वाम्) तुम दोनों के प्रति प्रीति से इस ज्ञान को और (अश्व्यम्) विद्या में व्याप्त हुए विद्वानों में उत्तम (शिरः) शिर के समान प्रशंसित व्याख्यान को (प्रति, वदत्) कहे॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे मक्खी पृथिवी में उत्पन्न हुए वृक्ष वनस्पतियों से रस, जिसको शहद कहते हैं, उसको लेकर अपने निवासस्थान में इकट्ठा कर आनन्द करती है, वैसे ही योगविद्या के ऐश्वर्य्य को प्राप्त सत्य उपदेश से सुख का विधान करनेवाले ब्रह्म-विचार में स्थिर विद्वान् संन्यासी के समीप से सत्यशिक्षा को सुन, मान और विचार के सर्वदा तुम लोग सुखी होओ॥9॥ अथ तडित्तारविद्योपदेशः क्रियते॥ अब बिजुलीरूप अग्नि से जो तारविद्या प्रकट होती है, उसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यु॒वं पे॒दवे॑ पुरु॒वार॑मश्विना स्पृ॒धां श्वे॒तं त॑रु॒तारं॑ दुवस्यथः। शर्यै॑र॒भिद्युं पृत॑नासु दु॒ष्टरं॑ च॒र्कृत्य॒मिन्द्र॑मिव चर्ष॒णीसह॑म्॥10॥21॥ यु॒वम्। पे॒दवे॑। पु॒रु॒ऽवा॑रम्। अ॒श्वि॒ना॒। स्पृ॒धाम्। श्वे॒तम्। त॒रु॒ता॑रम्। दु॒व॒स्य॒थः॒। शर्यैः॑। अ॒भिऽद्यु॑म्। पृत॑नासु। दु॒स्तर॑म्। च॒र्कृत्य॑म्। इन्द्र॑म्ऽइव। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्॥10॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (पेदवे) प्राप्तुं गन्तुं वा (पुरुवारम्) पुरूणि बहूनि वरितुं योग्यानि कर्माणि यस्मात्तम् (अश्विना) सर्वविद्याव्याप्तिमन्तौ समासेनेशौ (स्पृधाम्) शत्रुभिः सह स्पर्धमानाम् (श्वेतम्) सततं गन्तुं प्रवृद्धम् (तरुतारम्) शब्दान् संतारकं प्लावकं वा ताराख्यं व्यवहारम् (दुवस्यथः) सेवेथाम् (शर्य्यैः) हिंसितुं ताडितुमर्हैर्यन्त्रैर्युक्तम् (अभिद्युम्) अभितो दिवो विद्युद्योगप्रकाशा यस्मिँस्तम् (पृतनासु) सेनासु (दुष्टरम्) शत्रुभिर्दुःखेनोल्लङ्घयितुं शक्यम् (चर्कृत्यम्) भृशं कर्त्तुं योग्यम् (इन्द्रमिव) सूर्य्यप्रकाशमिव सद्यो गन्तारम् (चर्षणीसहम्) चर्षणयो मनुष्याः शत्रून् सहन्ते येन तम्॥10॥ अन्वयः—हे अश्विना! युवं पेदवे स्पृधां पृतनासु चर्कृत्यं श्वेतं पुरुवारं दुष्टरं चर्षणीसहं शर्य्यैरभिद्युमिन्द्रमिव तरुतारं दुवस्यथः॥10॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्यैस्तडिद्विद्ययाऽभीष्टानि कार्य्याणि संसाध्यन्ते तथैव परिव्राट्सङ्गेन सर्वा विद्याः प्राप्य धर्मादिकार्य्याणि कर्त्तुं प्रभूयन्ते। एताभ्यामेव व्यवहारपरमार्थसिद्धिः कर्त्तुं शक्या तस्मात्प्रयत्नेन तडिद्विद्याऽवश्यं साधनीया॥10॥ अत्र राजप्रजापरिव्राड्विद्याविचारानुष्ठानोक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इत्येकविंशतिः 21 वर्ग एकोनविंशतिशततमं 119 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (अश्विना) सब विद्याओं में व्याप्त सभा सेनाधीशो! (युवम्) तुम दोनों (पेदवे) पहुंचने वा जाने को (स्पृधाम्) शत्रुओं को ईर्ष्या से बुलानेवालों को (पृतनासु) सेनाओं में (चर्कृत्यम्) निरन्तर करने के योग्य (श्वेतम्) अतीव गमन करने को बढ़े हुए (पुरुवारम्) जिससे कि बहुत लेने योग्य काम होते हैं (दुष्टरम्) जो शत्रुओं से दुःख के साथ उलांघा जा सकता (चर्षणीसहम्) जिससे मनुष्य शत्रुओं को सहते जो (शर्य्यैः) तोड़ने-फोड़ने के योग्य पेंचों से बांधा वा (अभिद्युम्) जिसमें सब ओर बिजुली की आग चमकती, उस (इन्द्रमिव) सूर्य के प्रकाश के समान वर्त्तमान (तरुतारम्) संदेशों को तारने अर्थात् इधर-उधर पहुंचानेवाले तारयन्त्र को (दुवस्यथः) सेवो॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्यों से बिजली से सिद्ध की हुई तारविद्या से चाहे हुए काम सिद्ध किये जाते हैं, वैसे ही संन्यासी के संग से समस्त विद्याओं को पाकर धर्म आदि काम करने को समर्थ होते हैं। इन्हीं दोनों से व्यवहार और परमार्थ सिद्धि की जा सकती है। इससे यत्न के साथ तडित्-तारविद्या अवश्य सिद्ध करनी चाहिये॥10॥ इस सूक्त में राजप्रजा, संन्यासी महात्माओं की विद्या के विचार का आचरण कहने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये॥ यह इक्कीसवां 21 वर्ग और एकसौ उन्नीसवाँ 119 सूक्त पूरा हुआ॥

अथास्य द्वादशर्च्चस्य विंशत्युत्तरशततमस्य सूक्तस्योशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः। अश्विनौ देवते। 1,12 पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री। 2 भुरिग्गायत्री। 10 गायत्री। 11 पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः। 3 स्वराट् ककुबुष्णिक्। 5 आर्ष्युष्णिक्। 6 विराडार्ष्युष्णिक्। 8 भुरिगुष्णिक् छन्दः। ऋषभः स्वरः। 4 आर्ष्युनुष्टुप्। 7 स्वराडार्ष्यनुष्टुप्। 9 भुरिगनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥ तत्रादौ प्रश्नोत्तरविधिमाह॥ अब एकसौ बीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में प्रश्नोत्तरविधि का उपदेश करते हैं॥ का रा॑ध॒द्धोत्रा॑श्विना वां॒ को वां॒ जोष॑ उ॒भयोः॑। क॒था वि॑धा॒त्यप्र॑चेताः॥1॥ का। रा॒ध॒त्। होत्रा॑। अ॒श्वि॒ना॒। वा॒म्। कः। वा॒म्। जोषे॑। उ॒भयोः॑। क॒था। वि॒धा॒ति॒। अप्र॑ऽचेताः॥1॥ पदार्थः—(का) सेना (राधत्) राध्नुयात् (होत्रा) शत्रुबलमादातुं विजयं च दातुं योग्या (अश्विना) गृहाश्रमधर्मव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (वाम्) युवयोः (कः) शत्रुः (वाम्) युवयोः (जोषे) प्रीतिजनके व्यवहारे (उभयोः) (कथा) केन प्रकारेण (विधाति) विदध्यात् (अप्रचेताः) विद्याविज्ञानरहितः॥1॥ अन्वयः—हे अश्विना! वामुभयोः का होत्रा सेना विजयं राधत्। वां जोषे कथा कोऽप्रचेताः पराजयं विधाति॥1॥ भावार्थः—सभासेनेशौ शूरविद्वद् व्यवहाराभिज्ञैः सह व्यवहरेतां पुनरेतयोः पराजयं कर्त्तुं विजयं निरोद्धुं समर्थौ स्यातां न कदाचित् कस्यापि मूर्खसहायेन प्रयोजनं सिध्यति तस्मात् सदा विद्वन्मैत्रीं सेवेताम्॥1॥ पदार्थः—हे (अश्विना) गृहाश्रम धर्म में व्याप्त स्त्री-पुरुषो! (वाम्) तुम (उभयोः) दोनों की (का) कौन (होत्रा) सेना शत्रुओं के बल को लेने और उत्तम जीत देने की (राधत्) सिद्धि करे (वाम्) तुम दोनों के (जोषे) प्रीति उत्पन्न करनेहारे व्यवहार में (कथा) कैसे (कः) कौन (अप्रचेताः) विद्या विज्ञानरहित अर्थात् मूढ़ शत्रु हार को (विधाति) विधान करे॥1॥ भावार्थः—सभासेनाधीश शूर और विद्वान् के व्यवहारों को जाननेहारों के साथ अपना व्यवहार करें, फिर शूर और विद्वान् के हार देने और उनकी जीत को रोकने को समर्थ हों, कभी किसी का मूढ़ के सहाय से प्रयोजन नहीं सिद्ध होता। इससे सब दिन विद्वानों से मित्रता रक्खें॥1॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ वि॒द्वांसा॒विद्दुरः॑ पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः। नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑॥2॥ वि॒द्वांसौ॑। इत्। दुरः॑। पृ॒च्छे॒त्। अवि॑द्वान्। इ॒त्था। अप॑रः। अ॒चे॒ताः। नु। चि॒त्। नु। मर्ते॑। अक्रौ॑॥2॥ पदार्थः—(विद्वांसौ) सकलविद्यायुक्तौ (इत्) एव (दुरः) शत्रून् हिंसितुं हृदयहिंसकान् प्रश्नान् वा (पृच्छेत्) (अविद्वान्) विद्याहीनो भृत्योऽन्यो वा (इत्था) इत्थम् (अपरः) अन्यः (अचेताः) ज्ञानरहितः (नु) सद्यः (चित्) अपि (नु) शीघ्रम् (मर्त्ते) मनुष्ये (अक्रौ) अकर्त्तरि। अत्र नञ्युपपदात् कृधातोः इव कृषादिभ्य इति बहुलवचनात् कर्त्तरीक्॥2॥ अन्वयः—यथाऽचेता अविद्वान् विद्वांसौ दुरः पृच्छेदित्थाऽपरो विद्वानिदेव नु पृच्छेत्। अक्रौ मर्त्ते चिदपि नु पृच्छेद्यतोऽयमालस्यं त्यक्त्वा पुरुषार्थे प्रवर्त्तेत॥2॥ भावार्थः—यथा विद्वांसो विदुषां संमत्या वर्तेरँस्तथाऽन्येऽपि वर्त्तन्ताम्। सदैव विदुषः प्रति पृष्ट्वा सत्यासत्यनिर्णयं कृत्वा सत्यमाचरेयुरसत्यं च परित्यजेयुः। नात्र केनचित्कदाचिदालस्यं कर्त्तव्यम्। कुतो नापृष्ट्वा विजानातीत्यतः नैव केनचिदविदुषामुपदेशे विश्वसितव्यम्॥2॥ पदार्थः—जैसे (अचेताः) अज्ञान (अविद्वान्) मूर्ख (विद्वांसौ) दो विद्यावान् पण्डितजनों को (दुरः) शत्रुओं के मारने वा मन को अत्यन्त क्लेश देनेहारी बातों को (पृच्छेत्) पूछे (इत्था) ऐसे (अपरः) और विद्वान् महात्मा अपने ढङ्ग से (इत्) ही (नु) शीघ्र पूछे (अक्रौ) नहीं करनेवाले (मर्त्ते) मनुष्य के निमित्त (चित्) भी (नु) शीघ्र पूछे, जिससे यह आलस्य को छोड़ के पुरुषार्थ में प्रवृत्त हो॥2॥ भावार्थः—जैसे विद्वान् विद्वानों की सम्मति से वर्त्ताव वर्त्तें, वैसे और भी वर्त्तें। सदैव विद्वानों को पूछ कर सत्य और असत्य का निर्णय कर आचरण करें और झूठ का त्याग करें। इस बात में किसी को कभी आलस्य न करना चाहिये, क्योंकि विना पूछे कोई नहीं जानता है। इससे किसी को मूर्खों के उपदेश पर विश्वास न लाना चाहिये॥2॥ अथाध्यापकोपदेशकौ विद्वांसौ किं कुर्य्यातामित्याह॥ अब अध्यापक और उपदेशक विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ ता वि॒द्वांसा॑ हवामहे वां॒ ता नो॑ वि॒द्वांसा॒ मन्म॑ वोचेतम॒द्य। प्रार्च॒द्दय॑मानो यु॒वाकुः॑॥3॥ ता। वि॒द्वांसा॑। ह॒वा॒म॒हे॒। वा॒म्। ता। नः॒। वि॒द्वांसा॑। मन्म॑। वो॒चे॒त॒म्। अ॒द्य। प्र। आ॒र्च॒त्। दय॑मानः। यु॒वाकुः॑॥3॥ पदार्थः—(ता) तौ सकलविद्याजन्यप्रश्नानुत्तरैः समाधातारौ (विद्वांसा) पूर्णविद्यायुक्तावाप्तावध्याप- कोपदेशकौ। अत्राकारादेशः। (हवामहे) आदद्मः (वाम्) युवाम् (ता) तौ (नः) अस्मभ्यम् (विद्वांसा) सर्वशुभविद्याविज्ञापकौ (मन्म) मन्तव्यं वेदोक्तं ज्ञानम् (वोचेतम्) ब्रूतम् (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमानसमये (प्र) (आर्चत्) सत्कुर्यात् (दयमानः) सर्वेषामुपरि दयां कुर्वन् (युवाकुः) यो यावयति मिश्रयति संयोजयति सर्वाभिर्विद्याभिः सह जनान् सः॥3॥ अन्वयः—यौ विद्वांसोऽद्य नो मन्म वोचेतं ता विद्वांसा वां वयं हवामहे, यो दयमानो युवाकुर्जनस्ता प्रार्चत, तं सत्कुर्यातम्॥3॥ भावार्थः—अस्मिन् संसारे यो यस्मै सत्या विद्याः प्रदद्यात् स तं मनोवाक्कायैः सेवेत। यः कपटेन विद्यां गूहेत तं सततं तिरस्कुर्यात्। एवं सर्वे मिलित्वा विदुषां मानमविदुषामपमानं च सततं कुर्युर्यतः सत्कृता विद्वांसो विद्याप्रचारे प्रयतेरन्नसत्कृता अविद्वांसश्च॥3॥ पदार्थः—जो (विद्वांसा) पूरी विद्या पढ़े उत्तम आप्त अध्यापक तथा उपदेशक विद्वान् (अद्य) इस समय में (नः) हम लोगों के लिये (मन्म) मानने योग्य उत्तम वेदों में कहे हुए ज्ञान का (वोचेतम्) उपदेश करें (ता) उन समस्त विद्या से उत्पन्न हुए प्रश्नों के उत्तर देने और (विद्वांसा) सब उत्तम विद्याओं के जतानेहारे (वाम्) तुम दोनों विद्वानों को हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं, जो (दयमानः) सबके ऊपर दया करता हुआ (युवाकुः) मनुष्यों को समस्त विद्याओं के साथ संयोग करानेहारा मनुष्य (ता) उन तुम दोनों विद्वानों का (प्र, आर्चत्) सत्कार करे, उसका तुम सत्कार करो॥3॥ भावार्थः—इस संसार में जो जिसके लिये सत्य विद्याओं को देवे, वह उसको मन, वाणी और शरीर से सेवे और जो कपट से विद्या को छिपावे उसका निरन्तर तिरस्कार करे। ऐसे सब लोग मिल-मिला के विद्वानों का मान और मूर्खों का अपमान निरन्तर करें, जिससे सत्कार को पाये हुए विद्वान् विद्या के प्रचार करने में अच्छे-अच्छे यत्न करें और अपमान को पाये हुए मूर्ख भी करें॥3॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ वि पृ॑च्छामि पा॒क्या॒ न दे॒वान् वष॑ट्कृतस्याद्भु॒तस्य॑ दस्रा। पा॒तं च॒ सह्य॑सो यु॒वं च॒ रभ्य॑सो नः॥4॥ वि। पृ॒च्छा॒मि॒। पा॒क्या॑। न। दे॒वान्। वष॑ट्ऽकृतस्य। अ॒द्भु॒तस्य॑। द॒स्रा॒। पा॒तम्। च॒। सह्य॑सः। यु॒वम्। च॒। रभ्य॑सः। नः॒॥4॥ पदार्थः—(वि) (पृच्छामि) (पाक्या) विद्यायोगाभ्यासेन परिपक्वधियः। अत्राकारादेशः। (न) इव (देवान्) विदुषः (वषट्कृतस्य) क्रियानिष्पादितस्य शिल्पविद्याजन्यस्य (अद्भुतस्य) आश्चर्यगुणयुक्तस्य (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (पातम्) रक्षतम् (च) (सह्यसः) सहीयोऽतिशयेन बलवतः। अत्र सह धातोरसुन् ततो मतुप् तत ईयसुनि विन्मतोरिति मतुब् लोपः। टेरिति टिलोपः। छान्दसो वर्णलोपो वेतीकारलोपः। (युवम्) युवाम् (च) (रभ्यसः) अतिशयेन रभस्विनः सततं प्रौढपुरुषार्थान्। पूर्ववदस्यापि सिद्धिः (नः) अस्मान्॥4॥ अन्वयः—हे दस्राश्विनावध्यापकोपदेशकावहं युवं युवां सह्यसो रभ्यसः पाक्या देवान्नेव वषट्कृतस्याद्भुतस्य विज्ञानाय प्रश्नान् विपृच्छामि युवां च तान् समाधत्तम्। यतोऽहं भवन्तौ सेवे युवां च नोऽस्मान् पातम्॥4॥ भावार्थः—विद्वांसो नित्यमाबालवृद्धान् प्रति सिद्धान्तविद्या उपदिशेयुर्यतस्तेषां रक्षोन्नती स्याताम्। ते च तान् सेवित्वा सुशीलतया पृष्ट्वा समाधानानि दधीरन्। एवं परस्परोपकारेण सर्वे सुखिनः स्युः॥4॥ पदार्थः—हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने, पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो! मैं (युवम्) तुम दोनों को (सह्यसः) अतीव विद्याबल से भरे हुए (रभ्यसः) अत्यन्त उत्तम पुरुषार्थ युक्त (पाक्या) विद्या और योग के अभ्यास से जिनकी बुद्धि पक गई उन (देवान्) विद्वानों के (न) समान (वषट्कृतस्य) क्रिया से सिद्धि किये हुए शिल्पविद्या से उत्पन्न होनेवाले (अद्भुतस्य) आश्चर्य्य रूप काम के विज्ञान के लिये प्रश्नों को (वि, पृच्छामि) पूछता हूं (च) और तुम दोनों उनके उत्तर देओ, जिससे मैं तुम्हारी सेवा करता हूं (च) और तुम (नः) हमारी (पातम्) रक्षा करो॥4॥ भावार्थः—विद्वान् जन नित्य बालक आदि वृद्ध पर्य्यन्त मनुष्यों को सिद्धान्त विद्याओं का उपदेश करें, जिससे उनकी रक्षा और उन्नति होवे और वे भी उनकी सेवा कर अच्छे स्वभाव से पूछ कर विद्वानों के दिये हुए समाधानों को धारण करें, ऐसे हिलमिल के एक-दूसरे के उपकार से सब सुखी हों॥4॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र या घोषे॒ भृग॑वाणे॒ न शोभे॒ यया॑ वा॒चा यज॑ति पज्रि॒यो वा॑म्। प्रैष॒युर्न वि॒द्वान्॥5॥22॥ प्र। या। घोषे॑। भृग॑वाणे। न। शोभे॑। यया॑। वा॒चा। यज॑ति। प॒ज्रि॒यः। वा॒म्। प्र। इ॒ष॒ऽयुः। न। वि॒द्वान्॥5॥ पदार्थः—(प्र) (या) विदुषी (घोषे) उत्तमायां वाचि (भृगवाणे) यो भृगुः परिपक्वधीर्विद्वानिवाचरति तस्मिन्। भृगुशब्दाचारे क्विप् ततो नामधातोर्व्यत्ययेनात्मनेपदे शानच् छन्दस्युभयथेति शानच् आर्द्धधातुकत्वाद् गुणः। (न) इव (शोभे) प्रदीप्तो भवेयम् (यया) (वाचा) विद्यासुशिक्षायुक्तया वाण्या (यजति) पूजयति (पज्रियः) यः पज्रान् प्राप्तव्यान् बोधानर्हति सः (वाम्) युवाम् (प्र) (इषयुः) इष्यते सर्वैर्जनैर्विज्ञायते यत्तद्याति प्राप्नोतीति। इष धातोर्घञर्थे कविधानमिति कः। तस्मिन्नुपपदे याधातोरौणादिकः कुः। (न) इव (विद्वान्)॥5॥ अन्वयः—हे अश्विनौ! पज्रिय इषयुर्विद्वान्न यया वाचा वां प्रजयति तयाऽहं शोभे या विदुषी स्त्री भृगवाणे घोषे यजति न दृश्यते तयाऽहं तां प्रयजेयम्॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशकौ! भवन्तावाप्तवत्सर्वस्य कल्याणाय नित्यं प्रवर्त्तेताम्। एवं विदुषी स्त्र्यपि। सर्वे जना विद्याधर्मसुशीलतादियुक्ताः सन्तः सततं शोभेरन्। नैव कोऽपि विद्वानविदुष्या स्त्रिया सह विवाहं कुर्यात्, न कापि खलु मूर्खेण सह विदुषी च, किन्तु मूर्खो मूर्खया विद्वान् विदुष्या च सह सम्बन्धं कुर्यात्॥5॥ पदार्थः—हे समस्त विद्याओं में रमे हुए पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो! (पज्रियः) पाने योग्य बोधों को प्राप्त (इषयुः) सब जनों के अभीष्ट सुख को प्राप्त होनेवाला मनुष्य (विद्वान्) विद्यावान् सज्जन के (न) समान (यया) जिस (वाचा) वाणी से (वाम्) तुम्हारा (प्र, यजति) अच्छा सत्कार करता है, उस वाणी से मैं (शोभे) शोभा पाऊं, (प्र) जो विदुषी स्त्री (भृगवाणे) अच्छे गुणों से पक्की बुद्धिवाले विद्वान् के समान आचरण करनेवाले में (घोषे) उत्तम वाणी के निमित्त सत्कार करती (न) सी दीखती है, उस वाणी से मैं उक्त स्त्री का (प्र) सत्कार करूं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे पढ़ाने उपदेश करनेहारे विद्वानो! आप उत्तम शास्त्र जाननेहारे श्रेष्ठ सज्जन के समान सबके सुख के लिये नित्य प्रवृत्त रहो, ऐसे विदुषी स्त्री भी हो। सब मनुष्य विद्याधर्म और अच्छे शीलयुक्त होते हुए निरन्तर शोभायुक्त हों। कोई विद्वान् मूर्ख स्त्री के साथ विवाह न करे और न कोई पढ़ी स्त्री मूर्ख के साथ विवाह करे, किन्तु मूर्ख मूर्खा से और विद्वान् मनुष्य विदुषी स्त्री से सम्बन्ध करें॥5॥ पुनरध्ययनाध्यापनविधिरुच्यते॥ फिर पढ़ने-पढ़ाने की विधि का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥ श्रु॒तं गा॑य॒त्रं तक॑वानस्या॒हं चि॒द्धि रि॒रेभा॑श्विना वाम्। आक्षी शु॑भस्पती॒ दन्॥6॥ श्रु॒तम्। गा॒य॒त्रम्। तक॑वानस्य। अ॒हम्। चि॒त्। हि। रि॒रेभ॑। अ॒श्वि॒ना॒। वा॒म्। आ। अ॒क्षी इति॑। शु॒भःऽप॒ती॒ इति॑। दन्॥6॥ पदार्थः—(श्रुतम्) (गायत्रम्) गायन्तं त्रातृविज्ञानम् (तकवानस्य) प्राप्तविद्यस्य। गत्यर्थात् तकधातोरौणादिक उः पश्चाद् भृगवाणवत्। (अहम्) (चित्) अपि (हि) खलु (रिरेभ) रेभ उपदिशानि। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अश्विना) विद्याप्रापकावध्यापकोपदेष्टारौ (वाम्) युवाम् (आ) (अक्षी) रूपप्रकाशके नेत्रे इव (शुभस्पती) धर्मस्य पालकौ (दन्) ददन्। डुदाञ् धातोः शतरि छन्दसि वेति वक्तव्यमिति द्विवर्चनाभावे सार्वधातुकत्वान् ङित्वमार्द्धधातुकत्वादाकारलोपश्च॥6॥ अन्वयः—हे अक्षी इव वर्त्तमानौ शुभस्पती अश्विना! वां युवयोः सकाशात् तकवानस्य चिदपि गायत्रं श्रतुमादन्नहं हि रिरेभ॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यदाप्तेभ्योऽधीयते श्रूयते तत्तदन्येभ्यो नित्यमध्याप्यमुपदेशनीयं च। यथाऽन्येभ्यः स्वयं विद्यां गृह्णीयात् तथैव प्रदद्यात्। नो खलु विद्यादानेन सदृशोऽन्यः कश्चिदपि धर्मोऽधिको विद्यते॥6॥ पदार्थः—हे (अक्षी) रूपों के दिखानेहारी आँखों के समान वर्त्तमान (शुभस्पती) धर्म के पालने और (अश्विना) विद्या की प्राप्ति कराने वा उपदेश करनेहारे विद्वानो! (वाम्) तुम्हारे तीर से (तकवानस्य) विद्या पाये विद्वान् के (चित्) भी (गायत्रम्) उस ज्ञान को जो गानेवाले की रक्षा करता है वा (श्रुतम्) सुने हुए उत्तम व्यवहार को (आ, दन्) ग्रहण करता हुआ (अहम्) मैं (हि) ही (रिरेभ) उपदेश करूं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो उत्तम विद्वानों से पढ़ा वा सुना है, उस-उस को औरों को नित्य पढ़ाया और उपदेश किया करें। मनुष्य जैसे औरों से विद्या पावे, वैसे ही देवे, क्योंकि विद्यादान के समान कोई और धर्म बड़ा नहीं है॥6॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वं ह्यास्तं॑ म॒हो रन् यु॒वं वा॒ यन्नि॒रत॑तंसतम्। ता नो॑ वसू सुगो॒पा स्या॑तं पा॒तं नो॒ वृका॑दघा॒योः॥7॥ यु॒वम्। हि। आस्त॑म्। म॒हः। रन्। यु॒वम्। वा॒। यत्। निः॒ऽअत॑तंसतम्। ता। नः॒। व॒सू॒ इति॑। सु॒ऽगो॒पा। स्या॒त॒म्। पा॒तम्। नः॒। वृका॑त्। अ॒घ॒ऽयोः॥7॥ पदार्थः—(युवम्) युवाम् (हि) किल (आस्तम्) आसाथाम्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (महः) महतः (रन्) ददमानौ। दन्वदस्य सिद्धिः। (युवम्) युवाम् (वा) पक्षान्तरे (यत्) (निरततंसतम्) नितरां विद्यादिभिर्भूषणैरलंकुरुतम्। (ता) तौ (नः) अस्मान् (वसू) वासयितारौ (सुगोपा) सुष्ठुरक्षकौ (स्यातम्) (पातम्) पालयतम् (नः) अस्माकम् (वृकात्) स्तेनात् (अघायोः) आत्मनोऽन्यायाचरणेनाघमिच्छतः॥7॥ अन्वयः—हे वसू अश्विनौ! रन् यौ युवं यदास्तं वा युवं नोऽस्माकं सुगोपा स्यातं तौ महोऽघायोर्वृकान्नोऽस्मान् पातं ता हि युवां निरततंसतं च॥7॥ भावार्थः—यथा सभासेनेशौ चोरादिभयात् प्रजास्त्रायेतां तथैतौ सर्वैः पालनीयौ स्याताम्। सर्वे धर्मेष्वासीनाः सन्तोऽध्यापकोपदेशकशिक्षका अधर्मं विनाशयेयुः॥7॥ पदार्थः—हे (वसू) निवास करानेहारे अध्यापक-उपदेशको! (रन्) औरों को सुख देते हुए जो (युवम्) तुम (यत्) जिस पर (आस्तम्) बैठो (वा) अथवा (युवम्) तुम दोनों (नः) हम लोगों के (सुगोपा) भली भांति रक्षा करनेहारे (स्यातम्) होओ, वे (महः) बड़ा (अघायोः) जो कि अपने को अन्याय करने से पाप चाहता (वृकात्) उस चोर डाकू से (नः) हम लोगों को (पातम्) पालो और (ता) वे (हि) ही आप दोनों (निरततंसतम्) विद्या आदि उत्तम भूषणों से परिपूर्ण शोभायमान करो॥7॥ भावार्थः—जैसे सभा, सेनाधीश, चोर आदि के भय से प्रजाजनों की रक्षा करें, वैसे ये भी सब प्रजाजनों के पालना करने योग्य होवें। सब अध्यापक, उपदेशक तथा शिक्षक आदि मनुष्य धर्म में स्थिर हुए अधर्म का विनाश करें॥7॥ अथ राजधर्ममाह॥ अब राजधर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ मा कस्मै॑ धातम॒भ्य॑मि॒त्रिणे॑ नो॒ माकुत्रा॑ नो गृ॒हेभ्यो॑ धे॒नवो॑ गुः। स्त॒ना॒भुजो॒ अशि॑श्वीः॥8॥ मा। कस्मै॑। धा॒त॒म्। अ॒भि। अ॒मि॒त्रिणे॑। नः॒। मा। अ॒कुत्र॑। नः॒। गृ॒हेभ्यः। धे॒नवः॑। गुः॒। स्त॒न॒ऽभुजः॑। अशि॑श्वीः॥8॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (कस्मै) (धातम्) धरतम् (अभि) आभिमुख्ये (अमित्रिणे) अविद्यमानानि मित्राणि सखायो यस्य तस्मै जनाय (नः) अस्मान् (मा) (अकुत्र) अविषये। अत्र ऋचि तुनु॰ इति दीर्घः। (न) अस्माकम् (गृहेभ्यः) प्रासादेभ्यः (धेनवः) दुग्धदात्रयो गावः (गुः) प्राप्नुवन्तु (स्तनाभुजः) दुग्धयुक्तैः स्तनैः सवत्सान् मनुष्यादीन् पालयन्त्यः (अशिश्वीः) वत्सरहिताः॥8॥ अन्वयः—हे रक्षकाश्विनौ सभासेनेशौ! युवां कस्मैचिदप्यमित्रिणे नोऽस्मान् माभिधातम्। भवद्रक्षणेन नोऽस्माकं स्तनाभुजो धेनवोऽशिश्वीर्मा भवन्तु ता अस्माकं गृहेभ्योऽकुत्र मा गुः॥8॥ भावार्थः—प्रजाजना राजजनानेवं शिक्षेरन्नस्मात् शत्रवो मा पीडयेयुरस्माकं गवादिपशून् मा हरेयुरेवं भवन्तः प्रयतन्तामिति॥8॥ पदार्थः—हे रक्षा करनेहारे सभासेनाधीश! तुम लोग (कस्मै) किसी (अमित्रिणे) ऐसे मनुष्य के लिये कि जिसके मित्र नहीं अर्थात् सबका शत्रु (नः) हम लोगों को (मा) मत (अभिधातम्) कहो, आपकी रक्षा से (नः) हम लोगों की (स्तनाभुजः) दूध भरे हुए थनों से अपने बछड़ों समेत मनुष्य आदि प्राणियों को पालती हुई (धेनवः) गौयें (अशिश्वीः) बछड़ों से रहित अर्थात् वन्ध्या (मा) मत हों और वे हमारे (गृहेभ्यः) घरों से (अकुत्र) विदेश में मत (गुः) पहुंचे॥8॥ भावार्थः—प्रजाजन राजजनों को ऐसी शिक्षा देवें कि हम लोगों को शत्रुजन मत पीड़ा दें और हमारे गौ, बैल, घोड़े आदि पशुओं को न चोर लें, ऐसा आप यत्न करो॥8॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ दु॒ही॒यन् मि॒त्रधि॑तये यु॒वाकु॑ रा॒ये च॑ नो मिमी॒तं वाज॑वत्यै। इ॒षे च॑ नो मिमीतं धेनु॒मत्यै॑॥9॥ दु॒ही॒यन्। मि॒त्रऽधि॑तये। यु॒वाकु॑। रा॒ये। च॒। नः॒। मि॒मी॒तम्। वाज॑ऽवत्यै। इ॒षे। च॒। नः॒। मि॒मी॒त॒म्। धे॒नु॒ऽमत्यै॑॥9॥ पदार्थः—(दुहीयन्) या दुग्धादिभिः प्रपिपुरति। दुह धातोरौणादिक इः किच्च तस्मात् क्यजन्ताल्लेड् बहुवचनम्। (मित्रधितये) मित्राणां धितिर्धारणं यस्मात् तस्मै (युवाकु) सुखेन मिश्रिताय दुःखैः पृथग्भूताय वा। सुपां सुलुगिति विभक्तिलुक्। (राये) धनाय (च) (नः) अस्माकम् (मिमीतम्) मन्येथाम् (वाजवत्यै) वाजः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्यां तस्यै (इषे) इच्छायै (च) (नः) अस्मान् (मिमीतम्) (धेनुमत्यै) गोः संबन्धिन्यै॥9॥ अन्वयः—हे अश्विनौ सभासेनाधीशौ! युवां या गावो दुहीयँस्ता नोऽस्माकं मित्रधितये युवाकु राये च जीवनाय मिमीतम्। वाजवत्यै धेनुमत्या इषे च नोऽस्मान् मिमीतं प्रेरयतम्॥9॥ भावार्थः—ये गवादयः पशवो मित्रपालनज्ञानधननिमित्ता भवेयुस्तान् मनुष्याः सततं रक्षेयुः सर्वान् पुरुषार्थाय प्रवर्त्तयेयुः, यतः सुखसंयोगो दुःखवियोजनं च स्यात्॥9॥ पदार्थः—हे सब विद्याओं में व्याप्त सभासेनाधीशो! तुम दोनों जो गौयें (दुहीयन्) दूध आदि से पूर्ण करती हैं, उनको (नः) हमारे (मित्रधितये) जिससे मित्रों की धारणा हो तथा (युवाकु) सुख से मेल वा दुःख से अलग होना हो, उस (राये) धन के (च) और जीने के लिये (मिमीतम्) मानो तथा (वाजवत्यै) जिसमें प्रशंसित ज्ञान वा (धेनुमत्यै) गौ का संबन्ध विद्यमान है, उसके (च) और (इषे) इच्छा के लिये (नः) हमको (मिमीतम्) प्रेरणा देओ अर्थात् पहुँचाओ॥9॥ भावार्थः—जो गौ आदि पशु, मित्रों की पालना, ज्ञान और धन के कारण हों, उनको मनुष्य निरन्तर राखें और सबको पुरुषार्थ के लिये प्रवृत्त करें, जिससे सुख का मेल और दुःख से अलग रहें॥9॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒श्विनो॑रसनं॒ रथ॑मन॒श्वं वा॒जिनी॑वतोः। तेना॒हं भूरि॑ चाकन॥10॥ अ॒श्विनोः॑। अ॒स॒न॒म्। रथ॑म्। अ॒न॒श्वम्। वा॒जिनी॑ऽवतोः। तेन॑। अ॒हम्। भूरि॑। चा॒क॒न॒॥10॥ पदार्थः—(अश्विनोः) सभासेनेशयोः (असनम्) संभजेयम् (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (अनश्वम्) अविद्यमानतुरङ्गम् (वाजिनीवतोः) प्रशस्ता विज्ञानादियुक्ता सभा सेना च विद्यते ययोस्तयोः (तेन) (अहम्) (भूरि) बहु (चाकन) प्रकाशितो भवेयम्। तुजादित्वादभ्यासदीर्घः॥10॥ अन्वयः—अहं वाजिनीवतोरश्विनोर्यमनश्वं रथमसनं तेन भूरि चाकन॥10॥ भावार्थः—यानि भूजलान्तरिक्षगमनार्थानि यानानि निर्मितानि भवन्ति तत्र पशवो नो युज्यन्ते, किन्तु तानि जलाग्निकलायन्त्रादिभिरेव चलन्ति॥10॥ पदार्थः—(अहम्) मैं (वाजिनीवतोः) जिनके प्रशंसित विज्ञानयुक्त सभा और सेना विद्यमान हैं, उन (अश्विनोः) सभासेनाधीशों के (अनश्वम्) अनश्व अर्थात् जिसमें घोड़ा आदि नहीं लगते (रथम्) उस रमण करने योग्य विमानादि यान का (असनम्) सेवन करूं और (तेन) उससे (भूरि) बहुत (चाकन) प्रकाशित होऊं॥10॥ भावार्थः—जो भूमि, जल और अन्तरिक्ष में चलने के विमान आदि यान बनाये जाते हैं, उनमें पशु नहीं जोड़े जाते, किन्तु वे पानी और अग्नि के कलायन्त्रों से चलते हैं॥10॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒यं स॑मह मा तनू॒ह्याते॒ जनाँ॒ अनु॑। सो॒म॒पेयं॑ सु॒खो रथः॑॥11॥ अ॒यम्। स॒म॒ह॒। मा॒। त॒नु॒। ऊ॒ह्याते॑। जना॑न्। अनु॑। सो॒म॒ऽपेय॑म्। सु॒ऽखः। रथः॑॥11॥ पदार्थः—(अयम्) (समह) यो महेन सत्कारेण सह वर्त्तते तत्सम्बुद्धौ (मा) माम् (तनु) विस्तृणुहि (ऊह्याते) देशान्तरं गम्येते (जनान्) (अनु) (सोमपेयम्) सोमैरैश्वर्ययुक्तैः पातुं योग्यं रसम् (सुखः) शोभनानि खान्यवकाशा विद्यन्ते यस्मिन् सः (रथः) रमणाय तिष्ठति यस्मिन्॥11॥ अन्वयः—हे समह विद्वँस्त्वं योऽयं सुखो रथोऽस्ति, येनाश्विनावनूह्याते तेन मा जनान् सोमपेयं च सुखेन तनु॥11॥ भावार्थः—योऽनुत्तमयानकारी शिल्पी भवेत् स सर्वैः सत्कर्त्तव्योऽस्ति॥11॥ पदार्थः—हे (समह) सत्कार के साथ वर्त्तमान विद्वान्! आप जो (अयम्) यह (सुखः) सुख अर्थात् जिसमें अच्छे-अच्छे अवकाश तथा (रथः) रमण विहार करने के लिये जिसमें स्थित होते, वह विमान आदि यान है, जिससे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे (अनूह्याते) अनुकूल एकदेश से दूसरे देश को पहुंचाए जाते हैं, उससे (मा) मुझे (जनान्) वा मनुष्यों अथवा (सोमपेयम्) ऐश्वर्य्ययुक्त मनुष्यों के पीने योग्य उत्तम रस को (तनु) विस्तारो अर्थात् उन्नति देओ॥11॥ भावार्थः—जो अत्यन्त उत्तम अर्थात् जिससे उत्तम और न बन सके, उस यान का बनाने वाला शिल्पी हो, वह सबको सत्कार करने योग्य है॥11॥ पुनस्तमेव विषयमाह॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अध॒ स्वप्न॑स्य निर्वि॒देऽभुञ्चतश्च रे॒वतः॑। उ॒भा ता बस्रि॑ नश्यतः॥12॥23॥17॥ अध॑। स्वप्न॑स्य। निः। वि॒दे॒। अभु॑ञ्जतः। च॒। रे॒वतः॑। उ॒भा। ता। बस्रि॑। न॒श्य॒तः॒॥12॥ पदार्थः—(अध) अथ (स्वप्नस्य) निद्रायाः (निः) (विदे) प्राप्नुयाम् वाच्छन्दसीति नुमभावः। (अभुञ्जतः) स्वयमपि भोगमकुर्वतः (च) (रेवतः) श्रीमतः (उभा) द्वौ (ता) तौ (बस्रि) सुखस्तम्भनात्। बसुस्तम्भ इत्यस्मादौणादिको रिक् विभक्तिलुक्च। (नश्यतः) अदर्शनं प्राप्नुतः॥12॥ अन्वयः—अहं स्वप्नस्याभुञ्जतो रेवतश्च सकाशान्निर्विदे निर्विण्णो भवेयमधोभा यौ पुरुषार्थहीनौ स्तस्ता बस्रि नश्यतः॥12। भावार्थः—य ऐश्वर्यवानदाता यो दरिद्रो महामनास्तावलसिनौ सन्तौ दुखःभागिनौ सततं भवतः। तस्मात् सर्वैः पुरुषार्थे प्रयतितव्यम्॥12॥ अत्र प्रश्नोत्तराध्ययनाध्यापनराजधर्मविषयवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति विंशत्युत्तरशततमं 120 सूक्तं सप्तदशोऽनुवाकः 17 त्रयोविंशो 23 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—मैं (स्वप्नस्य) नींद (अभुञ्जतः) आप भी जो नहीं भोगता उस (च) और (रेवतः) धनवान् पुरुष के निकट से (निर्विदे) उदासीन भाव को प्राप्त होऊं (अध) इसके अनन्तर जो (उभा) दो पुरुषार्थहीन हैं (ता) वे दोनों (बस्रि) सुख के रुकने से (नश्यतः) नष्ट होते हैं॥12॥ भावार्थः—जो ऐश्वर्यवान् न देनेवाला वा जो दरिद्री उदारचित्त है, वे दोनों आलसी होते हुए दुःख भोगनेवाले निरन्तर होते हैं, इससे सबको पुरुषार्थ के निमित्त अवश्य यत्न करना चाहिये॥12॥ इस सूक्त में प्रश्नोत्तर, पढ़ने-पढ़ाने और राजधर्म के विषय का वर्णन होने से इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये॥ यह एक सौ बीसवां 120 सूक्त, सत्रहवां 17 अनुवाक और तेईसवां 23 वर्ग पूरा हुआ॥