सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४०

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

एकादशाधिकशततमोऽध्यायः नाम्ना प्रेतशिला ख्याता गयाशिरसि मुक्तये | तीर्थमन्त्रादिरूपेण स्थितश्चाऽऽदिगदाधरः इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नाम दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥११०।। अथैकादशाधिकशततमोऽध्यायः गयामाहात्म्यम् सनत्कुमार उवाच आदौ तु पञ्चतीर्थेषु चोत्तरे मानसे विधिः । आचम्य कुशहस्तेन शिरश्चाभ्युक्ष्य वारिणा उत्तरं मानसं गच्छेन्मन्त्रेण स्नानमाचरेत् । उत्तरे मानसे स्नानं करोम्यात्मविशुद्धये सूर्यलोकादिसंसिद्धिसिद्धये पितृमुक्तये | X स्नानार्थं तर्पणं कृत्वा श्राद्धं कुर्यात्सपिण्डकम् १११ श्री वायुमहापुराण में गयामाहात्म्यवर्णन नामक एक सौ दसवाँ अध्याय समाप्त ॥११०॥ 1 ॥६६ ॥१ ॥२ ॥३ उसके कुल में कोई प्रेतयोनि में नही जाता | गया शिर में वह प्रेत-शिला केवल प्रेतों की विमुक्ति के लिये है, तीर्थ मंत्रादि के रूप में आदि गदाधर देव भी वहाँ इसी सदाशय से विराजमान हैं |६५-६६। • अध्याय १९१ गया-माहात्म्य सनत्कुमार बोले- - नारद जी ! सर्व प्रथम उत्तर मानस में स्थित पाँचो तीर्थों में किस प्रकार श्राद्धादिकार्य सम्पन्न करने चाहिए, इसकी विधि बतला रहा हूँ । आचमन फर हाथ में कुशा लेकर शिर पर जल द्वारा सिंचन करे । फिर उत्तर मानस की यात्रा करे ओर वहां जाकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए स्नान करे कि आत्मविशुद्धि के लिये मै उत्तर मानस में स्नान कर रहा हूँ |१-२ | सूर्य लोक प्रभृतिलोकों में प्राप्त होने वाली सिद्धियो को प्राप्त करने के लिए तथा अपने पितरों की मुक्ति के लिए यह स्नान X पाठ: - एतदर्धस्थानेऽयं देवादीस्तर्पयित्वाऽथ श्राद्धं कृत्वा सपिण्डकम् । इति ख. पुस्तके |