महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-020

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कृष्णेनार्जुनंप्रति मोक्षसाधनादिप्रतिपादकसिद्धकाश्यपसंवादरूपानुगीतोपदेशः।। 1 ।।

ब्राह्मण उवाच। 14-20-1x
यः स्यादेकान्त आसीनस्तूष्णीं किञ्चिदचिन्तयन्।
पूर्वंपूर्वं परित्यज्य स निरारम्भको भवेत्।।
14-20-1a
14-20-1b
सर्वमित्रः सर्वसहः शमे रक्तो जितेन्द्रियः।
व्यपेतभयमन्युश्च कामहा मुच्यते नरः।।
14-20-2a
14-20-2b
आत्मवत्सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः।
`नित्यमेव यथान्यायं यश्चरेन्नियतेन्द्रियः।'
अमानी निरभीमानः सर्वतो मुक्त एव सः।।
14-20-3a
14-20-3b
14-20-3c
जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च।
लाभालाभे प्रियद्वेष्ये यः समः स च मुच्यते।।
14-20-4a
14-20-4b
न कस्यचित्स्पृहयते नावजानाति किचन।
निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा सर्वथा मुक्त एव सः।।
14-20-5a
14-20-5b
अनमित्रश्च निर्बन्धुरनपत्यश्च यः क्वचित्।
त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराराङ्क्षी च मुच्यते।।
14-20-6a
14-20-6b
नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहा च यः।
क्षीणधातुः प्रशान्तात्मा निर्द्वंद्वः स विमुच्यते।।
14-20-7a
14-20-7b
अकर्मा चाविकाङ्क्षश्च पश्येज्जगदशाश्वतम्।
अस्वस्तमवशं नित्यं जन्ममृत्युजरायुतम्।।
14-20-8a
14-20-8b
वैराग्यबुद्धिः सततं तावद्दोषव्यपेक्षकः।
आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव।।
14-20-9a
14-20-9b
अगन्धमरसस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम्।
अरूपमनभिज्ञेयं दृष्ट्वाऽऽत्मानं विमुच्यते।।
14-20-10a
14-20-10b
पञ्चभूतगुणैर्हीनममूर्तिमदलेपकम्।
अगुणं गुणभोक्तारं यः पश्यति स मुच्यते।।
14-20-11a
14-20-11b
विहाय सर्वसङ्कल्पान्बुद्ध्या शारीरमानसान्।
शनैर्निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः।।
14-20-12a
14-20-12b
सर्वसंस्कारनिर्मुक्तो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः।
तपसा इन्द्रियग्रामं यश्चरेन्मुक्त एव सः।।
14-20-13a
14-20-13b
विमुक्तः सर्वसंस्कारैस्ततो ब्रह्मि सनातनम्।
परमाप्नोति संशान्तमचलं नित्यमक्षरम्।।
14-20-14a
14-20-14b
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगशास्त्रमनुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा सिद्धमात्मानं लोके पश्यन्ति योगिनः।।
14-20-15a
14-20-15b
तस्योपदेशं वक्ष्यामि यथावत्तन्निबोध मे।
यैर्योगैर्भावयन्नित्यं पश्यत्यात्मानमात्मनि।।
14-20-16a
14-20-16b
इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत्।
तीव्रं तप्त्वा तपः पूर्वं मोक्षयोगं समाचरेत्।।
14-20-17a
14-20-17b
तपस्वी नित्यसङ्कल्पो दम्भाहङ्कारवर्जितः।
मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि।।
14-20-18a
14-20-18b
स चेच्छक्रोत्ययं साधुर्योक्तुमात्मानमात्मनि।
तत एकान्तशीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि।।
14-20-19a
14-20-19b
संयतः सततं युक्त आत्मवान्विजितेन्द्रियः।
यथा य आत्मनाऽऽत्मानं सम्प्रयुक्तः प्रपश्यति।।
14-20-20a
14-20-20b
यथाहि पुरुषः स्वप्ने दृष्ट्वा पश्यत्यसाविति।
तथारूपमिवात्मानं साधुयुक्तः प्रपश्यति।।
14-20-21a
14-20-21b
इषीकां च यथा मुञ्जात्कश्चिन्निष्कृष्य दर्शयेत्।
योगी निष्कृष्य चात्मानं तथा पश्यति देहतः।।
14-20-22a
14-20-22b
मुञ्जं शरीरमित्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम्।
एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम्।।
14-20-23a
14-20-23b
यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक् पश्यति देहभूत्।
न तस्येहेश्वरः कश्चित्त्रैलोक्यस्यापि यः प्रभुः।।
14-20-24a
14-20-24b
अन्यान्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते।
विनिर्भिद्य जरां मृत्युं न शोचति न हृष्यति।।
14-20-25a
14-20-25b
देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी।
ब्रह्म चाव्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम्।।
14-20-26a
14-20-26b
विनश्यत्सु च लोकेषु न भयं तस्य जायते।
क्लिश्यमानेषु भूतेषु न स क्लिश्यति केनचित्।।
14-20-27a
14-20-27b
दुःखशोकमलैर्घोरैः सङ्गस्नेहसमुद्भवैः।
न विचाल्यति युक्तात्मा निस्पृहः शान्तमानसः।।
14-20-28a
14-20-28b
नैनं शस्त्राणि विध्यन्ते न मृत्युश्चास्य विद्यते।
नातः सुखतरं किञ्चिल्लोके क्वचन दृश्यते।।
14-20-29a
14-20-29b
सम्यग्युक्त्वा स आत्मानमात्मन्येव प्रतिष्ठिते।
विनिवृत्तजरादुःखः सुखं स्वपिति चापि सः।।
14-20-30a
14-20-30b
देहान्यथेष्टमभ्येति हित्वेमां मानुषीं तनुम्।
निर्वेदस्तु न कर्तव्यो भुञ्जानेन कथञ्चन।।
14-20-31a
14-20-31b
सम्यग्युक्तो यदात्मानमात्मन्येव प्रपश्यति।
तदैव न स्पृहयते साक्षादपि शतक्रतोः।।
14-20-32a
14-20-32b
योगमेकान्तशीलस्तु यथा विन्दति तच्छृणु।
दृष्टपूर्वां दिशं चिन्त्य यस्मिन्संनिवसेत्परे।।
14-20-33a
14-20-33b
पुरस्याभ्यन्तरे तस्य मनः स्थाप्यं न बाह्यतः।
पुरस्याभ्यन्तरे तिष्ठन्यस्मिन्नावसथे वसेत।
तस्मिन्नावसथे धार्यं सबाद्याभ्यन्तरं मनः।।
14-20-34a
14-20-34b
14-20-34c
प्रचिन्त्यावसथे कृत्स्नं यस्मिन्काये स पश्यति।
तस्मिन्काये मनश्चास्य न च किञ्चन बाह्यतः।।
14-20-35a
14-20-35b
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं निर्घोषं निर्जने वने।
कायमभ्यन्तरं कृत्स्नमेकाग्रः परिचिन्तयेत्।।
14-20-36a
14-20-36b
इन्तांस्तालु च जिह्वां च गलं ग्रीवां तथैव च।
हृदयं चिन्तयेच्चापि तथा हृदयबन्धनम्।।
14-20-37a
14-20-37b
इत्युक्तः स मया शिष्यो मेधावी मधुसूदन।
पप्रच्छ पुनरेवेमं मोक्षधर्मं सुदुर्वचम्।।
14-20-38a
14-20-38b
भुक्तं भुक्तमिदं कोष्ठे कथमन्नं विपच्यते।
कथं रसत्वं व्रजति शोणितत्वं कथं पुनः।।
14-20-39a
14-20-39b
तथा मांसं च मेदश्च स्नाय्वस्थीनि च पोषयेत्।
कथमेतानि सर्वाणि शरीराणि शरीरिणाम्।।
14-20-40a
14-20-40b
वर्धन्ते वर्धमानस्य वर्धते च कथं बलम्।
निरासनं निष्कसनं मलानां च पृथक् पृथक्।।
14-20-41a
14-20-41b
कुतो वाऽयं प्रश्वसिति उच्छ्वसित्यपि वा पुनः।
कं च देशमधिष्ठाय तिष्ठत्यात्माऽयमात्मनि।।
14-20-42a
14-20-42b
जीवः कथं वहति च चेष्टमानः कलेवरम्।
किंवर्णं कीदृशं चैव निवेशयति वै मनः।।
14-20-43a
14-20-43b
याथातथ्येन भगवन्वक्तुमर्हसि मेऽनघ।
इति सम्परिपृष्टोऽहं तेन विप्रेणि माधव।।
14-20-44a
14-20-44b
प्रत्यब्रवं महाबाहो यथाश्रुतमरिंदम।
यथा स्वकोष्ठे प्रक्षिप्य भाण्डं भाण्डमना भवेत्।।
14-20-45a
14-20-45b
तथा स्वकाये प्रक्षिप्य मनोद्वारैरनिश्चलैः।
आत्मानं तत्र मार्गेत प्रमादं परिवर्जयेत्।।
14-20-46a
14-20-46b
एवं सततमुद्युक्तः प्रीतात्मा नचिरादिव।
आसादयति तद्ब्रह्म यद्दृष्ट्वा स्यात्प्रधानवित्।।
14-20-47a
14-20-47b
न त्वसौ चक्षुषा ग्राह्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः।
मनसैव प्रदीपेन महानात्मा प्रदृश्यते।।
14-20-48a
14-20-48b
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोक्षिशिरोमुखः।
सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
14-20-49a
14-20-49b
जीवो निष्क्रान्तमात्मानं शरीरात्सम्प्रपश्यति।
स तमुत्सृज्य देहं स्वं पारयेद्ब्रह्म केवलम्।।
14-20-50a
14-20-50b
आत्मानमालोकयति मनसा प्रहसन्निव।
तदेवमाश्रयं कृत्वा मोक्षं याति ततो मयि।।
14-20-51a
14-20-51b
इदं सर्वरहस्यं ते मया प्रोक्तं द्विजोत्तम।
आपृच्छे साधयिष्यामि गच्छ विप्र यथासुखम्।।
14-20-52a
14-20-52b
इत्युक्तः स तदा कृष्ण मया शिष्यो महातपाः।
अगच्छत यथाकामं ब्राह्मणश्छिन्नसंशयः।।
14-20-53a
14-20-53b
वासुदेव उवाच। 14-20-54x
इत्युक्त्वा स तदा वाक्यं मां पार्थ द्विजसत्तमः।
मोक्षधर्माश्रितं सम्यक् तत्रैवान्तरधीयत।।
14-20-54a
14-20-54b
कच्चिदेतत्त्वया पार्थ श्रुत्मेकाग्रचेतसा।
तदापि हि रथस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि।।
14-20-55a
14-20-55b
नैतत्पार्थ सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणेति मे मतिः।
नरेणाकृतसङ्गेन विशुद्धेनान्तरात्मना।।
14-20-56a
14-20-56b
सुरहस्यमिदं प्रोक्तं देवानां भरतर्षभ।
कच्चित्त्विदं श्रुतं पार्थ मनुष्येणेह कर्हिचित्।।
14-20-57a
14-20-57b
न ह्येतच्छ्रोतुमर्होऽन्यो मनुष्यस्त्वामृतेऽनघ।
नैतदन्येनि विज्ञेयं व्यामिश्रेणान्तरात्मना।।
14-20-58a
14-20-58b
क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय देवलोकः समावृतः।
न चैतदिष्टं देवानां मर्त्यैरुपरि वर्तनम्।।
14-20-59a
14-20-59b
परा हि सा गतिः पार्थ यत्तद्ब्रह्म सनातनम्।
यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा दुःखं सदा सुखी।।
14-20-60a
14-20-60b
इमं धर्मं समास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।
14-20-61a
14-20-61b
किं पुनर्ब्रह्मणाः पार्थ क्षत्रिया वा बहुश्रुताः।
स्वधर्मरतयो नित्यं ब्रह्मलोकपरायणः।।
14-20-62a
14-20-62b
हेतुमच्चैतदुद्दिष्टमुपायाश्चास्य साधने।
सिद्धिं फलं च मोक्षश्च दुःखस्य च विनिर्णियः।।
14-20-63a
14-20-63b
नातः परं सुखं त्वन्यत्किंचित्स्याद्भरतर्षभ।
श्रुतवाञ्श्रद्दधानश्च पराक्रान्तश्च पाण्डव।।
14-20-64a
14-20-64b
यः परित्यज्यते मर्त्यो लोकसारमसरवत्।
एतैरुपायैः स क्षिप्रं परां गतिमवाप्नुते।।
14-20-65a
14-20-65b
एतावदेव वक्तव्यं नान्तो भूयोस्ति किञ्चन।
षण्मासान्नित्ययुक्तस्य योगः पार्थ प्रवर्तते।।
14-20-66a
14-20-66b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि विंशोऽध्यायः।। 20 ।।

[सम्पाद्यताम्]

14-20-2 सर्वमित्रोऽद्रोही। सर्वसहः क्षमी।। 14-20-6 अनमित्रः शत्रुहीनः।। 14-20-11 अमूर्तिमदहेतुकमिति झ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-019 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-021