महाभारतम्-08-कर्णपर्व-035

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शल्येन कर्णंप्रति हंसकाकीयाख्यानकथनम्।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 8-35-1x
मारिषाधिरथेः श्रुत्वा वाचो युद्धाभिनन्दिनः।
शल्योऽब्रवीत्पुनः कर्णं निदर्शनमुदाहरन्।।
8-35-1a
8-35-1b
जातोऽहं यज्वनां वंशे सङ्ग्रामेष्वनिवर्तिनाम्।
राज्ञां मूर्धाभिषिक्तानां स्वयं धर्मपरायणः।।
8-35-2a
8-35-2b
यथैव मत्तो मद्येन त्वं तथा लक्ष्यसे वृष।
तथाऽद्य त्वां प्रमाद्यन्तं चिकित्सेयं सुहृत्तया।।
8-35-3a
8-35-3b
इमां काकोपमां कर्ण प्रोच्यमानां निबोध मे।
श्रुत्वा यथेष्टं कुर्यास्त्वं निहीन कुलपांसन।।
8-35-4a
8-35-4b
नाहमात्मनि किञ्चिद्वै किल्बिषं कर्ण संस्मरे।
येन मां त्वं महाबाहो हन्तुमिच्चस्यनागसम्।।
8-35-5a
8-35-5b
अवश्यं तु मया वाच्यं बुद्ध्वा तव हिताहितम्।
विशेषतो रथस्थेन राज्ञश्चैव हितैषिणा।।
8-35-6a
8-35-6b
समं च विषमं चैव रथिनश्च बलाबलम्।
श्रमः खेदश्च सततं हयानां रथिना सह।।
8-35-7a
8-35-7b
आयुधस्य परिज्ञानं रुतं च मृगपक्षिणाम्।
सारं चैवाप्यासरं च शल्यानां च प्रतिक्रिया।।
8-35-8a
8-35-8b
अस्त्रयोगं च युद्वं च निमित्तानि तथैव च।
सर्वमेतन्मया ज्ञेयं रथस्यास्य कुटुम्बिना।
अतस्त्वां कथये कर्ण निदर्शनमिदं पुनः।।
8-35-9a
8-35-9b
8-35-9c
वैश्यः किल समुद्रान्ते प्रभूतधनधान्यवान्।
यज्वा दानपतिः क्षान्तः स्वकर्मस्थोऽभवच्छुचिः।।
8-35-10a
8-35-10b
बहुपुत्रः प्रियापत्यः सर्वभूतानुकम्पकः।
राज्ञो धर्मप्रधानस्य राष्ट्रे वसति निर्भयः।।
8-35-11a
8-35-11b
पुत्राणां तस्य बालानां कुमाराणां यशस्विनाम्।
काको बहूनामभवदुच्छिष्टकृतभोजनः।।
8-35-12a
8-35-12b
तस्मैसदा प्रयच्छन्ति वैश्यपुत्राः कुमारकाः।
मांसोदनं दधि क्षीरं पायसं मधुसर्पिषी।।
8-35-13a
8-35-13b
स चोच्छिष्टभृतः काको वैश्यपुत्रैः कुमारकैः।
सदृशान्पक्षिणो दृप्तः श्रेयससश्चावमन्यते।।
8-35-14a
8-35-14b
अथ हंसाः समुद्रान्ते प्रजग्मुरतिपातिनः।
गरुडस्य गतौ तुल्याश्चक्राङ्गा हृष्टचेतसः।।
8-35-15a
8-35-15b
कुमरारकास्तदा हंसान्दृष्ट्वा काकमथाब्रुवन्।
भवानेव विशिष्टोऽसि पतत्रिभ्यो विहङ्गम।।
8-35-16a
8-35-16b
एतेऽतिपातिनः पश्य विहङ्गान्वियदाश्रितान्।
एहि त्वमपि शक्तो हि कस्मान्न पतितं त्वया।।
8-35-17a
8-35-17b
प्रतार्यमाणस्तैः सर्वैरल्पबुद्धिभइरण्डजः।
तद्वचः सत्यमित्येव मौर्ख्याद्दर्पाच्च जज्ञिवान्।।
8-35-18a
8-35-18b
तान्सोनुपत्य जिज्ञासुः क एषां श्रेष्ठभागिति।
उच्छिष्टदर्पितः काको बहूनामेकपातिनाम्।।
8-35-19a
8-35-19b
तेषां यं प्रवरं मेने हंसानां दूरपातिनाम्।
स तमाह्वत दुर्बुद्धिः पताव इति पक्षिणम्।
तच्छ्रुत्वा प्राहसन्हंसा ये तत्रासन्समागताः।।
8-35-20a
8-35-20b
8-35-20c
भाषतो बहु काकस्य बालिश्यात्पततां वराः।
इदमूचुः स्म चक्राङ्गावचः काकं विङ्गमाः।।
8-35-21a
8-35-21b
हंसा ऊचुः। 8-35-22x
वयं हंसाश्चरामेमां पृथिवीं मानसौकसः।
पक्षिणां च वयं नित्यं दूरपातेन पूजिताः।।
8-35-22a
8-35-22b
कथं हंसं नु बलिनं चक्राङ्गं दूरपातिनम्।
काको भूत्वा निपतने समाह्वयसि दुर्मते।
कथं त्वं पतिता काक सहास्माभिर्ब्रवीहि तत्।।
8-35-23a
8-35-23b
8-35-23c
अथ हंसवचो मूढः कुत्सयित्वा पुनः पुनः।
प्रजगादोत्तरं काकः कत्थनो जातिलाघवात्।।
8-35-24a
8-35-24b
काक उवाच। 8-35-25x
शतमेकं च पातानां पतिताऽस्मि न संशयः।
शतयोजनमेकैकं विचित्रं विविधं तथा।।
8-35-25a
8-35-25b
उड्डीनमवडीनं च प्रडीनं डीनमेव च।
निडीनमथ संडीनं तिर्यक्‌डीनगतानि च।।
8-35-26a
8-35-26b
विडीनं परिडीनं च पराडीनं सुडीनकम्।
अभिडीनं महाडीनं निर्डीनमतिडीनकम्।।
8-35-27a
8-35-27b
अवडीनं प्रडीनं च संडीनं डीनडीनकम्।
संडीनोड्डीनडीनं च पुनर्डीनविडीनकम्।।
8-35-28a
8-35-28b
संपातं समुदीषं च ततोऽन्यद्व्यतिरिक्तकम्।
गतागतं प्रतिगतं बह्वीश्च निकुलीनकाः।
कर्ताऽस्मि मिषतां वोऽद्य ततो द्रक्षयथ मे बलम्।।
8-35-29a
8-35-29b
8-35-29c
तेषामन्यतमेनाहं पतिष्यामि विहायसम्।
प्रदिशध्वं यथान्यायं केन हंसाः पताम्यहम्।।
8-35-30a
8-35-30b
ते वै ध्रुवं विनिश्चित्य सम्पतध्वं मया सह।
पातैरेभिः खलु खगाः पतितुं खे निराश्रये।।
8-35-31a
8-35-31b
एवमुक्ते तु काकेन प्रहस्यैको विहंगमः।
उवाच काकं राधेय वचनं तन्निबोध मे।।
8-35-32a
8-35-32b
हंस उवाच। 8-35-33x
शतमेकं च पातानां त्वं काक पतिता ध्रुवम्।
एकमेव तु यं पातं विदुः सर्वे विहङ्गमाः।
तमहं पतिता काक नान्यं जानामि कञ्चन।।
8-35-33a
8-35-33b
8-35-33c
काक उवाच। 8-35-34x
पत त्वमपि तत्राशु येन पातेन मन्यसे।। 8-35-34a
अथ काकं प्रजहसुर्ये तत्रासन्समागताः।
कथमेकेन पातेन हंसः पातशतं जयेत्।
एकेन वायस त्वैनं पातेनाभिभविष्यति।।
8-35-35a
8-35-35b
8-35-35c
हंसश्चोत्पतितः काको बलवानाशुविक्रमः।
प्रपेततुः स्पर्धया च ततस्तौ हंसवायसौ।
उपर्युपरि वेगेन समुद्रं मकरालयम्।।
8-35-36a
8-35-36b
8-35-36c
हंसस्त्वेकेन पातेन काकः पातशतेन च।
स्पर्धिनौ सहितौ तूर्णं खमास्थाय तरस्विनौ।।
8-35-37a
8-35-37b
हंसस्तु मृदुनैकेन विक्रान्तुमुपचक्रमे।
पूर्वमेव तु वै काकः स तं तूर्णं प्रचक्रमे।।
8-35-38a
8-35-38b
नात्यहीयत काकश्च मुहूर्तमिव सूतज।। 8-35-39a
काकोपि हंसं चापल्याच्छीघ्रतां प्रतिदर्शयन्।
वेगेनातीत्य तरसा पुनरेति मुहुर्मुहुः।।
8-35-40a
8-35-40b
तुण्डेनाभ्यहनच्चैनं कुर्वन्नामापसव्यतः।
रोरूयन्निव चाप्येनं समाह्वयति वै मुहुः।
विसिस्मापयिषुः पातैर्दर्शयन्नात्मनः क्रियाम्।।
8-35-41a
8-35-41b
8-35-41c
अथ तानि विचित्राणि पतितानीतराणि च।
दृष्ट्वा प्रमुदिताः काका विनेदुरधिकैः स्वरैः।।
8-35-42a
8-35-42b
हंसाश्चापहसन्ति स्म प्रवदन्ति प्रियाणि च।
कुर्वाणा विविधान्रावानिच्छन्तो जयमात्मनः।।
8-35-43a
8-35-43b
उत्पत्योत्पत्य च प्राहुर्मुहूर्तमिति चेति च।
वृक्षाग्रेभ्यः स्थलेभ्यश्च निपतन्त्युत्पतन्ति च।।
8-35-44a
8-35-44b
अवमत्य च हंसं तमिदं काकोऽब्रवीद्वचः।
योऽसावुत्पतितो हंसः सोऽसावेव प्रहीयते।।
8-35-45a
8-35-45b
अथ हंसस्तु तच्छ्रुत्वा भाषितं पततांवरः।
विगाह्य हंसो विक्षोभ्य प्रापतत्पश्चिमां दिशम्।।
8-35-46a
8-35-46b
उपर्युपरि वेगेन सागरं मकरालयम्।
बहुसत्वसमाकीर्णं वीचीभिर्भीमदर्शनम्।।
8-35-47a
8-35-47b
अथाचिरेण राधेय काको वेगादहीयत।
ततोऽतीव परिश्रान्तः कथञ्चिद्वंसमन्वगात्।।
8-35-48a
8-35-48b
भीश्चैनमाविशत्तीव्रं काकं कर्ण विचेतसम्।
द्वीपान्द्रुमान्वितान्पश्यन्विश्रमार्थं श्रमातुरः।
निपतेयं क्कनु श्रान्त इति तस्मिञ्जलार्णवे।।
8-35-49a
8-35-49b
8-35-49c
अवगाह्य समुद्रोऽपि बहुसत्वगणालयः।
महान्भूतशतोद्भूसी नभसस्तु विशिष्यते।।
8-35-50a
8-35-50b
गाम्भीर्यार्द्वि समुद्रस्य न विशेषं कुलाधम।
दिशश्च नाम्भसां कर्ण समुद्रस्था विदुर्जनाः।
विपश्चितोप्यपारत्वात्किं पुनः कर्ण वायसः।।
8-35-51a
8-35-51b
8-35-51c
अथ हंसोप्यतिक्रामन्मुहूर्तमिव दूरतः।
अतिक्रम्य च चक्राङ्गः काकं तं समुदैक्षत।।
8-35-52a
8-35-52b
शनकैः परिहीनं तं परिश्रान्तमचेतसम्।
अवेक्षमाणस्तं काकं प्रत्यागम्य हसन्निव।।
8-35-53a
8-35-53b
तं प्रहस्य च चक्राङ्गः काकं मन्दगतिं तदा।
हीयमानमथो दृष्ट्वा हंसः प्राह यथार्थवत्।
उज्जिहीर्षुर्निमज्जन्तं स्मरन्सत्पुरुषव्रतम्।।
8-35-54a
8-35-54b
8-35-54c
बहूनि पतितानि त्वमाचक्षाणो मुहुर्मुहुः।
पतस्यव्याहरन्खेदं ततो गर्ह्यं प्रभाषसे।।
8-35-55a
8-35-55b
जलं नाम पतितं काक यत्त्वं पतसि साम्प्रतम्।
जलं स्पृशसि पक्षाभ्यां तुण्डेन च पुनः पुनः।।
8-35-56a
8-35-56b
प्रब्रूहि कतमोऽयं ते पातो वर्तति वायस।
एह्येहि काक शीघ्रं त्वमेष त्वां परिपालये।।
8-35-57a
8-35-57b
स पक्षाभ्यां स्पृशन्नार्तस्तुण्डेन च जलं तदा।
काको दृढं परिश्रान्तः सहसा निपपात ह।।
8-35-58a
8-35-58b
सागराम्भसि तं दृष्ट्वा पततन्तं दीनचेतसम्।
म्रियमाणमिदं वाक्यं हंसः काकमुवाच ह।।
8-35-59a
8-35-59b
शतमेकं च पातानां पताम्यहमिति स्म ह।
श्लाघन्नात्मानमद्य त्वं काक भाषितवानसि।।
8-35-60a
8-35-60b
स त्वमेकशतं पातं पतन्नभ्यधिको मया।
कथमेवं परिश्रान्तः पतितोऽसि महार्णवे।।
8-35-61a
8-35-61b
प्रत्युवाच ततः काकः सीदमान इदं वचः।
उपरीतं तदा हंसं प्रसमीक्ष्य प्रसादयन्।।
8-35-62a
8-35-62b
उच्छिष्टान्नेन पुष्टोऽहं दर्पोत्सिक्तः कुसत्वतः।
सुपर्ण इव चात्मानं ज्ञातवान्पुत्रलाघवात्।।
8-35-63a
8-35-63b
शरणं त्वां प्रपन्नोऽहमुदकान्तमवाप्नुयाम्।
हंसेदानीं परिश्रान्तमापदो मां समुद्वर।।
8-35-64a
8-35-64b
यदि नाम पुनर्जीवन्गच्छेयं स्वं निवेशनम्।
नैनं पुनर्हीनमपि क्षेप्ताऽहं खे विचारिणम्।।
8-35-65a
8-35-65b
तमेवं करुणं दीनं विलपन्तमचेतसम्।
काककाकेति वाशन्तं निमज्जन्तं महार्णवे।
कृपयाऽभिपरीतो वै कृपां चक्रे दुरात्मनि।।
8-35-66a
8-35-66b
8-35-66c
अथ तं पततं दीनं जलक्लिन्नमचेतनम्।
पद्भ्यामुत्क्षिप्य वेपन्तं पृष्ठमारो पयत्तदा।।
8-35-67a
8-35-67b
स हंसः पृष्ठमारोप्य काकं कर्ण विचेतसम्।
अविस्मयंस्तदा कर्ण पुनरेव समानयत्।
तमेव देशं तरसा स्पर्धया पेततुर्यतः।।
8-35-68a
8-35-68b
8-35-68c
उत्सृज्य त्वब्रवीन्मैवं पुनः कार्यं त्वयेति ह।
स्थाप्य चैनं पुनर्द्वीपे समाश्वस्य च विक्लवम्।
गतो यथेप्सितं देशं हंसो मन इवाशुगः।।
8-35-69a
8-35-69b
8-35-69c
एवमुच्छिष्टपुष्टः स काकोऽहंसपराजितः।
बलं वीर्यं महत्कर्ण त्यक्त्वा क्षान्तिमुपागतः।।
8-35-70a
8-35-70b
उच्छिष्टभोजनः काको यथा वैश्यकुले पुरा।
एवं त्वमुच्छिष्टभृतो धार्तराष्ट्रैर्न संशयः।।
8-35-71a
8-35-71b
सदृशाञ्श्रेयसश्चापि सर्वान्कर्णावमन्यसे।
द्रोणद्रौणिकृपैर्गुप्तो भीष्मेणान्यैश्च कौरवैः।।
8-35-72a
8-35-72b
विराटनगरे पार्थमेकं किं नावधीस्तदा।
यत्र व्यस्ताः समस्ताश्च निर्जिताः स्थ किरीटिना
सृगाला इव सिंहेन क्व ते वीर्यं तदा गतम्।।
8-35-73a
8-35-73b
8-35-73c
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा समरे सव्यसाचिना।
पश्यतां कुरवीराणां प्रथमं त्वं पलायितः।।
8-35-74a
8-35-74b
तथा द्वैतवने कर्ण गन्धर्वैः समभिद्रुतान्।
कुरून्सदारानुत्सृज्य त्वमेवाग्रे पलायितः।।
8-35-75a
8-35-75b
हत्वा जित्वा च गन्धर्वांश्चित्रसेनमुखान्रणे।
कर्ण दुर्योधनं पार्थः सभ्रातृकममोक्षयत्।।
8-35-76a
8-35-76b
पुनः प्रभावः पार्थस्य पुराणः केशवस्य च।
कथितः कर्ण रामेण सभायां कुरुसंसदि।।
8-35-77a
8-35-77b
सततं च त्वमश्रौषीर्वचनं द्रोणभीष्मयोः।
अवध्यौ वदतोः कृष्णौ सन्निधौ च महीक्षिताम्।।
8-35-78a
8-35-78b
कियन्तं तत्र वक्ष्यामि येनयेन धनञ्जयः।
त्वत्तोऽतिरिक्तः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो ब्राह्मणो यथा।।
8-35-79a
8-35-79b
इदानीमेव द्रष्टासि प्रधाने स्यन्दने स्थितौ।
पुत्रं च वसुदेवस्य कुन्तीपुत्रं च पाण्डवम्।।
8-35-80a
8-35-80b
यथाऽश्रयत चक्राङ्गं वायसो बुद्धिमास्थितः।
तथाश्रयस्व वार्ष्णेयं पाण्डवं च धनञ्जयम्।।
8-35-81a
8-35-81b
यदा त्वं युधि विक्रान्तौ वासुदेवधनञ्जयौ।
द्रष्टास्येकरथे कर्ण तदा नैवं वदिष्यसि।।
8-35-82a
8-35-82b
यदा शरशतैः पार्थो दर्पं तव वधिष्यति।
तदा त्वमन्तरं द्रष्टा आत्मनश्चार्जुनस्य च।।
8-35-83a
8-35-83b
देवासुरमनुष्येषु प्रख्यातौ यौ नरोत्तमौ।
तौ मावमंस्था मौर्ख्यात्त्वं स्वद्योत इव रोचनौ।।
8-35-84a
8-35-84b
सूर्याचन्द्रमसौ यद्वत्तद्वदजुनकेशवौ।
प्रकाश्येनाभिविख्यातौ त्वं तु खद्योतवन्नृषु।।
8-35-85a
8-35-85b
एवं विद्वन्मावमंस्थाः सूतपुत्राच्युतार्जुनौ।
नरसिंहौ नरश्वा त्वं जोषमास्स्व विकत्थसे।।
8-35-86a
8-35-86b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। 35 ।।

[सम्पाद्यताम्]

8-35-8 रुतं जयपराजयसूचकम्।। 8-35-9 निमित्तानि दिव्यान्तरिक्षभौमानि ग्रहाद्यानुकूल्यप्रातिकूल्यादीति। निदर्शनं दृष्टान्तम्।। 8-35-15 अतिपातिनः गत्यतिशयगामिनः। चक्राङ्गाः मानसचारिणः।। 8-35-16 पतत्रिभ्योऽन्येभ्यः प्रतार्यमाणोऽन्यथाप्रत्याय्यमानः।। 8-35-19 श्रेष्ठभाक् श्रेष्ठं अङ्गं भजते।। 8-35-20 पताव गच्छावः।। 8-35-29 मिषतां पश्यताम्।। 8-35-30 केन पातेन।। 8-35-33 एकं मुख्यम्।। 8-35-35 कथमेकेन पातेन जयेम शतपातिनम्। एकेनैव स यात्वेनं पातेनाभिविष्यसि इति ट.पाठः।। 8-35-35 पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-034 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-036