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भोजप्रवन्धः


 कवि वहाँ भी आकर बोला-

  विद्वान् लोग यह असत्य ही कहते हैं कि तुम सदा सब को सब कुछ दिया करते हो, न तो तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हारी पीठ पायी और न पर नारियों ने तुम्हारा वक्षःस्थल पाया । ।

 तो राजा अपनी. सब धरती को दी मान कर उठ गया।  कविश्व तदभिप्रायमज्ञात्वा पुनराह-

राजन्कनकधाराभिस्त्वयि सर्वत्र वर्षति ।
अभाग्यच्छत्रसंछन्ने मयि नायान्ति बिन्दवः ॥३१४ ॥

 कवि ने राजा का अभिप्राय न समझ कर फिर कहा-

 हे राजा, सब स्थानों पर तुम्हारे स्वर्ण धाराओं की वर्षा करने पर भी अभाग्य के छाते से ढके मुझ पर बूँदें नहीं गिरतीं।

 तदा राजा चान्तःपुरं गत्वा लीलादेवीं प्राह-'देवि, सर्वं राज्यं कवये दत्तम् । ततन्तपोवनं मया सहागच्छ' इति । अस्मिन्नवसरे विद्वान्द्वारि निर्गतः । बुद्धिसागरेण वृद्धामात्येन पृष्टः--'विद्वन् , राज्ञा किं दत्तम्' इति । स आह--'न किमपि' इति । तदामात्यः प्राह--'तत्रोक्तं श्लोकं पठ। ततः कविः श्लोकचतुष्टयं पठति ! अमात्यस्ततः प्राह--'सुकवे, तव कोटिद्रव्यं दीयते; परं राज्ञा यत्र तव दत्त भवति तत्पुनर्विक्रीयताम्' इति, कविस्तथा करोति । ततः कोटिद्रव्यं दत्त्वा कवि प्रेषयित्वामात्यो राजनिकटमागत्य तिष्टति स्म। .

 तब राजा ने रनिवास में जाकर लीला देवी से कहा-'देवी, सारा राज्य कवि को दे दिया। सो मेरे साथ तपोवन चलो'। इसी अवसर पर विद्वान् द्वार पर निकल आया । बूढ़े मंत्री बुद्धिसागर ने पूछा-'हे विद्वान्, राजा ने क्या दिया ?' वह बोला-'कुछ भी नहीं।' तो अमात्य ने कहा--'वहाँ पढ़े श्लोक पढ़ो।' तो कवि ने चारों श्लोक पढ़ दिये । तब मंत्री ने कहा-'हे सुकवि, तुम्हें एक करोड़ द्रव्य देता हूँ, पर राजा ने. इस समय जो कुछ दिया है, उसे वेच दो:' कवि ने वैसा ही किया। तो कवि को एक करोड़ द्रव्य देकर भेज कर मंत्री राजा के पास जाकर बैठा।